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________________ iss (कुशलोजी) म. के पास दीक्षा अंगीकार की। साधना में ये बड़े दृढ़ व्रती थे। निरन्तर एकातर तप करते थे। पू. गुमानचन्द जी म. के क्रियोद्धार में इन्होंने पूरा सहयोग दिया। संवत् 1882 में श्रावण शुक्ला दसमी को जोधपुर में इनका स्वर्गवास हमा। ये समर्थ कचि थे। स्फूट रूप से पद सज्झाय, ढालें आदि के रूप में इनकी रचनायें प्राप्त होती हैं। इनके पद भावपूर्ण और वैराग्य प्रधान हैं। प्रमुख रचनाओं के नाम हैं--नोकरवारी स्तवन, पार्श्वनाथ स्तवन, जम्बजी की सज्झाय, महावीर के तेरह अभिग्रह की सजझाय, गौतम रास, ऋषभ चरित, उपदेशात्मक ढाल, सवैये आदि । (6) प्रासकरण:-- इनका जन्म गांव संवत् 1812 मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया को जोधपुर राज्य के तिवरी गांव में हया। इनके पिता का नाम रूपचन्द जी बोथरा तथा माता का गोगादे था। संवत 1830 की बैशाख कृष्णा पंचमी को इन्होंने प्राचार्य जयमल्ल जी के चरणों में दीक्षा अंगीकृत की। 70 वर्ष की आयु में संवत् 1882 की कार्तिक कृष्णा पंचमी को इनका स्वर्गवास हमा। मासकरण जी अपने समय के प्रसिद्ध कवि और तपस्वी साधक संत थे। प्राचार्य रायचन्द जी के बाद संवत् 1868 माघ शुक्ला पूर्णिमा के दिन ये प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुये। अपने गुरु रायचन्दजी के समान ही इनमें काव्य-प्रतिभा थी। इनकी छोटी-बडी भनक आध्यात्मिक भावपूर्ण रचनायें हस्तलिखित ग्रन्थ भण्डारों में बिखरी पड़ी हैं। ये रचनायें प्रबन्ध और मुक्तक दोनों रूपों में मिलती हैं। इनकी 'छोटी साधु वंदना' रचना का जन समुदाय में व्यापक प्रचार है। जिन रचनाओं की जानकारी मिली है उनमें प्रमुख हैं-दस श्रावकों की ढाल, पुण्यवाणी ऊपर ढाल, केशी गौतम चर्चा ढाल, साध गण माला, भरत जी री रिद्धि, नमिराय जी सप्तढालिया, राजमती सज्झाय, पार्श्वनाथ स्तुति, श्री पार्श्वनाथ चरित्र, गजसिंह जी का चौढालिया, श्री धन्ना जी की 7 ढालां, जय घोष विजयघोष की 7 ढालां, श्री तेरा काठिया की ढाल, श्री अठारह नाता को चौढालियो, पूज्य श्री रायचंद जी म. के गुणों की ढाल । (7) जीतमल : ये अमरसिंह जी म. की परम्परा के प्रभावशाली प्राचार्य थे। इनका जन्म संवत् 1826 में रामपूरा (कोटा) में हया। इनके पिता का नाम सुजानमल जी व माता का सुभ था। संवत् 1834 में इन्होंने प्राचार्य सुजानमल जी म. सा. के चरणों में दीक्षा अंगीकृत की। संवत 1912 की ज्येष्ठ शक्ला दसमी को जोधपुर में 78 वर्ष की प्राय में इनका निधन हमा। ये बहुमुखी प्रतिमा के धनी थे। कवि होने के साथ-साथ ये उच्च कोटि के चित्रकार मौर सुन्दर लिपिकर्ता भी थे। ये दोनों हाथों से ही नहीं दोनों पैरों से भी लेखनी थाम कर लिया करते थे। कहा जाता है कि इन्होंने 13000 ग्रंथों की प्रतिलिपियां तैयार की। मठाई दीप, वासनाड़ी, स्वर्ग, नरक, परदेसी राजा का स्वर्गीय दृश्य प्रादि चिन्न कृतियां इनकी सूक्ष्मकला की प्रतीक हैं। एक बार तत्कालीन जोधपुर नरेश को कागज के एक छोटे से टुकड़े पर 108 हाथियों के चित्र दिखा कर इन्होंने चमत्कृत और प्रभावित किया था। 'मण बिंधिया मोती इनकी स्फुट कविताओं का सुन्दर संग्रह है जो प्रकाशनाधीन है। 1. इन रचनाओं की हस्तलिखित प्राप्तियां प्रा. वि. ज्ञान भ. जयपुर में सुरक्षित है । 2. इसका सम्पादन श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री ने किया है।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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