SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आरूढ़ होने की क्षमता थी। पंडितजी प्रच्छन्न कवि थे, वे ख्याति और प्रसिद्धि से विरत थे। अतः उनको विशेषताएं प्रच्छन्न ही रहों। प्रस्तुत काव्य में रस, अलंकार, भाव, भाषा आदि सभी दृष्टियों से पंडितजी के वैदग्ध्य की स्पष्ट झलक है। उन्होंने आधनिक शब्दों, रूपकों और उपमाओं का प्रयोग करके संस्कृत भाषा को पुनरुज्जीवित करने का प्रयत्न किया है। पंडित जी की शब्द-संरचना प्रसाद गुण सवलित है। पंडितजी जन्मना आश कवि थे। अतः उन्हें सहज और सानुप्रास काव्य रचना का अभ्यास था। गंभीर और गढ भावों को सरस और सरल पदावली में रखने की उनकी अद्भुत क्षमता थी। उनकी यह विशेषता इस महाकाव्य में यत्र-तत्र दष्टिगोचर होती है।।पंडितजी को कल्पना-प्रसू संगीति का सहारा पाकर वस्तु सत्य वास्तव में ही वस्तुसत्य के रूप में उभरा है। Me प्रस्तुत महाकाव्य के पच्चीस सर्ग है जिनकी रचना वि.सं. 2018 में धवल समारोह के अवसर पर हुई। इनमें स्थान-स्थान पर कवि के उत्कृष्ट शब्द-शिल्पित्व का चित्र प्रस्तुत होता है। आचार्यश्री का जन्म, जो जागतिक अध्यात्म अभ्युदय की एक उल्लेखनीय घटना थी, का बहुत ही भावपूर्ण शब्दों में चित्रण किया गया है। इसके अध्ययन से जीवन-दर्शन, तत्वदर्शन, इतिहास एव परम्पराओं का समीचीन बोध होता है। इसका हिन्दी अनवाद छगनलाल शास्त्री ने किया 3. श्री भिक्षु महाकाव्यः-मुनि नथमलजी (बागोर) द्वारा रचित तेरापंथ के आद प्रवर्तक आचार्य भिक्षु के जीवन-दर्शन पर प्रकाश डालने वाला चरित काव्य है । इसकी शैली पद्यात्मक है। काव्यकार स्वयं प्रौढ संस्कृतज्ञ होने के कारण इसकी शब्द-संकलना भी प्रौढ और भावपूर्ण है। राजस्थान की अरावली की घाटियों का वर्णन इसमें बहत सजीव और प्राणवान है। महाकाव्य के लक्षणों से यह परिपूर्ण है। इसके 18 सर्ग हैं। इसकी यथेष्ट प्रसिद्धि और पठनपाठन न होने का मुख्य कारण यही है कि यह काव्य अब तक अप्रकाशित है। इसकी रचना तेरापंथ द्विशताब्दी के अवसर पर वि. सं. 2017 में हुई। खण्ड काव्य (गद्य-पद्य): महाकाव्यों की परम्परा के समानान्तर खण्ड काव्यों की परम्परा भी बहुत प्राचीन रही है। गद्य और पद्य-दोनों ही शैलियों में इनकी रचना हई है। जैन आचार्यों और विद्वानों ने भी इस परम्परा को पर्याप्त विकसित किया है। विगत दशकों में तेरापंथ धम-संघ में भी इस काव्य परम्परा का इतिहास बहुत वर्धमान रहा है। प्रभव-प्रबोव काव्य, आर्जुन-मालाकारम्, अश्रुवीणा, रत्नपालचरित्रम्, प्राकृत-काश्मीरम् आदि काव्य इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। 1. प्रभव प्रबोधकाव्यम् :-चन्दनमुनि द्वारा रचित आर्य जम्बू के जीवन चरित से सम्बन्धित एक विशेष घटना क्रम को प्रकाशित करता है। प्रभव राजकुमार भी था और चोरों का सरदार भी। उसने जम्बूकुमार को त्यागवृत्ति से प्रभावित होकर प्रव्रज्या स्वीकार की। अर्थ और काम की मनोवृत्ति का उद्वेलित करने वाला यह एक रोचक प्रसंग है। कया वस्तु की रोचकता को काव्यकार के भाव-प्रधान रचना सौष्ठव न और अधिक निखार दिया है। इस गद्य काव्य के नौ प्रकाश हैं। इसकी सम्पूर्ण रचना वि. सं. 2008 के ज्येष्ठ मास में गुजरात प्रान्त के जामनगर शहर में हुई। मुनि दुलहराज जो न इसका हिन्दी भाषा में अनुवाद किया है । इसकी भाषा जितनी प्रौढ और अस्खलित है, अनुवाद भी उतना ही अस्खलित और प्रांजल है। 2. आर्जुनमालाकारम्:-चन्दनमुनि द्वारा रचित गद्य काव्य है । जैन कथा साहित्य में अजुनमाली एक कथानायक रूप में बहत प्रसिद्ध है । इसकी भाषा में प्रवाह, शैली में प्रसाद और शब्दों में सुकुमारता है। स्वतन्त्र सरिता की तरह इसकी वाग् धारा अस्खलित और अप्रतिबद्ध है। साहित्यिक दृष्टि से यह रचना अत्यन्त प्रशान्त कही जा सकती है । इसकी सरल
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy