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________________ 376 16. धर्मसी (धर्मवर्धन) __में खरतरगच्छ के उ. विजयह के शिष्य थे। संस्कृत, हिन्दी और राजस्थानी तीन' भाषाओं में इन्होंने उत्कृष्ट रचनायें की। ये बीकानेर राजमान्य कवि थे। अापकी हिन्द रचनाओं में "धर्मबानी" सं. 1725रिणी में रची गई। इसमें प्रौपदेशक 57 सवैये है। इसरी रचना दम्भठिया चौपई सं. 1740 की है। तथा सौदीस जिन पद, चौदीस जिन सवैया, मिराजुल बारहमाना और कुछ प्रबोधक पद भी प्राप्त है। इनमें से बारहमासा का एक पला मोचे उड़त किया जा रहा है: अपने गुण ध दीये जल कु, तिनकी जल नै पुनि प्रीति फैलाई। दूध के दाह कुं दूर कराइ, तहां जल आपनी देह जलाई। नीर विछोह भी खीर सहै नहीं, ऊफणि आवत हैं अकूलाई। सैन मिल्यै फुनि चैन लह यो तिण, ऐसी धर्मस प्रीति भलाई ।6। इनकी रचनाओं का संग्रह “धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली" के नाम से प्रकाशित हो चुका है। 17. विनयचन्द ये खरतरगच्छीय उपाध्याय ज्ञानतिलक के शिष्य थे। राजस्थान के उत्तम कवियों में इनका स्थान है। इनकी प्राप्त रचनाओं का संग्रह 'विनयचन्द्र कृति कुसुमांजली' के नाम से प्रकाशित हो चुका है। नेमि राजीमती बारहमासा और 'रहनेमि राजुल सज्झाय' ये दोनों हिन्दी की बहुत सुन्दर रचनायें हैं। इन दोनों रचनाओं के एक-एक उदाहरण प्रस्त है: दिहं दिसइ जलधर धार दीसत हार के आकार । ता वीचि पहुं नहीं कबही सूई को संचार। सा लगत है झरराट करती मध्यवरती बान । भर मास भाद्रव द्रवत अंबर सरर रस की खान 131 ___+ + + + सजि बून्द सारी हर्षकारी भूमि नारी हेत । भरलाय निर्झर झरत झरझर सजन जलद असेत । धन घटा गजित घटा तजित भय जजित गह। टब टबकि टबकत झबकि झबकत विचि विचि बीज की रेह । 21 कवि की संवतोल्लेख वाली र बनायें सं. 1752:1755 तक की पिलती हैं। थोड़े ही वर्षों में कवि ने जो उत्कृष्ट रचनायें दो हैं वे अन पम औ: बेजोड़ है। काश ! कवि लम्बे समय तक रहता और रनायें करता तो, राजस्थान के लिये बहुत ही गौरव की बात होती। 18. उत्यचन्द मथण खरतरगच्छीय जो जैन यति साध्वाचार को पूर्णतया पालन न कर सके, उनकी एक अलग से मथेण जाति बन गई। इस जाति के राज्या श्रेत सूकवियों में उदयचन्द विशेष 'रूप से उल्लेखनीय हैं। इनका संस्कृत में 'पाण्डित -दर्पण' ग्रन्थ प्राप्त है। बीकानेर के महाराजा अनूपसिंह जी के लिये नायक-नायिका और अलंकार वर्णन वाला 'अनप रसाल" नामक काव्य सं. 1728 में इन्होंने बनाया। इसकी एकमात्र प्रति अनप संस्कृत लायब्रेरी बीकानेर में माप्त है। वैसे तो इस पुस्तिका की पुष्पिका में इसे महाराजा अनूपसिंह विरचित लिखा है किन्तु पति की प्रारम्भिक सूची में 'मथेण उदयचन्द कृत" लिखा है। कवि उदयचन्द ने "बीकानेर की गजल" सं. 1765 में महाराजा सुजानसिंह जी के समय में बनाई है। इसमें बीकानेर का बहत सुन्दर वर्णन है। यह गजल "बैचारिकी" पनिका बीकानेर के विशेषांक में प्रकाशित हो च की है।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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