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________________ 19. जिन गरि ये खरतरगच्छीय जिनराजसूरि के पट्टधर थे। सं. 1700 में इनसे स्वतंत्र खरतरकी शाखा पृथक हो गई। इन्होंने राजस्थानी रचनाओं के साथ-साथ हिन्दी में भी "जिनरंग बहोतरी” और “श्रात्म प्रबोध बावनी' (रचना सं. 1731) रची है। जिनरंग बहोतरी में 72 दोहे. हैं और आत्म प्रबोध बावनी एक सुन्दर प्रबोधक रचना है। जिन रंग बहोतरी का एक दोह प्रस्तुत है wchod 277 साख रहयां लाखों गयां फिर कर लाखों होय । लाख रयां साखां गया लाख न लख्खे कोय । 40 1 विनयलाभ 20. ये खरतरगच्छीय विनय प्रमोद के शिष्य थे । संस्कृत और राजस्थानी रचनाओं के अतिरिक्त इन्होंने भर्तृहरि शतकत्रय का पद्यानुवाद 'भाषाभूषण' के नाम से किया है। इसकी एक प्रति प्रभय जैन ग्रन्थालय में है । इसकी एक प्राचीन प्रति सं. 1727 की लिखित नागौर के भट्टारकीय भण्डार में है । उदाहरण के तौर पर प्रथम पद्य का अनुवाद प्रस्तुत है: 21. जाही कुं राखत हीं मन में तितस तिय मोसौं रहे विरची, वा जिनकी नित ध्यान धरे तिन तो फुनि औरसों रास रची। हम नित चाह धरे काई और तो विरहानल मैं जु नची, धिग ताही कुं ताकुं मदन कुं मोकुं इते पर बात कबू न बची 111 इनकी हिन्दी में बावनी भी प्राप्त है । रचनाओं में 'बालचन्द' नाम भी प्राप्त होता है । इनका मूल नाम बालचन्द था और दीक्षा नाम विनयलाभ था । केशवदास ये खरतरगच्छीय कवि लावण्यरत्न के शिष्य थे। राजस्थानी रचनाओं के अतिरिक्त इन्होंने हिन्दी में केसव बावनी सं. 1736 में बनाई है और नेमि राजुल बारहमासा सं. 1734 में बनाया है। केसवदास का एक और भी बारहमासा मिलता है परन्तु इसमें गुरु का नाम प्राप्त नहीं है । केसव नाम के कई कवि होने से इस के कर्ता का निर्णय करना संभव नहीं हैं । 22. खेतल ये खरतरगच्छीय दयावल्लभ के शिष्य थे। इनका दीक्षा नाम दयासुन्दर था । सं. 1743 से 1757 तक इनकी कई राजस्थानी रचनायें प्राप्त हैं । कवि की हिन्दी रचनाओं में "चित्तौड़ की गजल" सं. 1748 और "उदयपुर की गजल" सं. 1757 की प्राप्त है । ये गजलें प्रकाशित हो चुकी हैं। साहित्य प्रौर इतिहास की दृष्टि से ये दोनों रचनायें महत्वपूर्ण हैं । मानकवि I 23. विजयगच्छ के मान कवि ने उदयपुर के महाराणा राजसिंह सम्बन्धी "राजविलास " नामक ऐतिहासिक काव्य बनाया जो नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित हो चुका है। 18 विलास में विभक्त यह ऐतिहासिक महाकाव्य है । सं. 1737 तक की ऐतिहासिक घटनाओं का इसमें वर्णन है । इसकी हस्तलिखित प्रति सं. 1746 की उदयपुर में प्राप्त है । कवि की अन्य रचनाओं में "बिहारी सतसई" टीका उल्लेखनीय है । यद्यपि डा. मोतीलाल मेनारिया ने इन दोनों रचनाओं के कर्ता भिन्न-भिन्न बतलाये हैं, परन्तु विजयगच्छ में उस समय में इस नाम के एक ही विद्वान् हुए हैं।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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