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________________ 295 पत्र-पत्रिकाओं में इनके 3,500 के लगभग लेख प्रकाशित हो चुके हैं। पच्चीसों पुस्तकों की इन्होंने भूमिकायें लिखी हैं और शोधपूर्ण अनेकों पत्रिकाओं के संपादक एवं परामर्शदातामण्डल में रह च के हैं। अर्थाभिलाषी होते हए भी साहित्य की प्रेरणा और सहयोग देने में सर्वदा अग्रसर रहते हैं। अगरचन्द्र जी द्वारा लिखित एवं संपादित पुस्तकें निम्नांकित हैं : विधवा कर्तव्य जसवंत उद्योत दानवीर सेठ श्री भैरूदान जी कोठारी का संक्षिप्त जीवन चरित्र राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, द्वितीय भाग, बीकानेर के दर्शनीय जैन मन्दिर श्रीमद देववन्द्र स्तवनावली छिताई चरित्र पीरदान लालस ग्रन्थावली जिनहर्ष ग्रन्थावली जिनराजसूरि कृति कुसुमांजली धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली प्राचीन काव्यों की रूप परम्परा सभा शृंगार भक्तमाल सटीक राजस्थानी साहित्य की गौरवपूर्ण परम्परा अष्ट प्रवचनमाता सज्झाय सार्थ ऐतिहासिक काव्य संग्रह शिक्षा सागर बी बी बांदी का झगडा रुक्मणी मंगल, इत्यादि श्री अगरचन्द्र जी और श्री भंवरलाल जी इन दोनों बन्धुओं द्वारा संयुक्त रूप में लिखित और संपादित पुस्तके निम्नलिखित हैं : युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह समयसुन्दर कृति कुसुमांजली युगप्रधान जिनदत्त सूरि बीकानेर जैन लेख संग्रह क्यांम खां रासा ज्ञानसार ग्रन्थावली पंच भावनादि सज्झाय सार्थ सीताराम चोपाई मणिधारी जिनचन्द्र सूरि दादा जिनकुशल सूरि रत्नपरीक्षा बम्बई चिन्तामणि पार्श्वनाथादि स्तवन पद संग्रह श्री नाहटाजी कई संस्थाओं से सम्मानित हो चुके हैं और इसी वर्ष 11 अप्रैल, 1976 को इन्हें अभिनन्दन ग्रन्थ भी भेंट किया जा चुका है। 72. भंवरलाल नाहटा श्री अगरचन्द जी नाहटा के भतीजे हैं। श्री भैरोदान जी नाहटा के पुत्र हैं किन्तु श्री भैरोदानजी के अनुज श्री अभयराज जी के दत्तक पुत्र हैं। वि. सं. 1968 में इनका जन्म हुआ। इनकी भी स्कूली शिक्षा कक्षा 5 तक की है। श्री अगरचन्द जी और भंवरलाल जी दोंनों न केवल सहपाठी मात्र ही रहे अपितु साहित्य के क्षेत्र में भी सर्वदा से एक-एक के पूरक रहे हैं। संग्रह, संपादन और लेखन आदि समस्त कार्यों में दोनों संयुक्त एवं सहयोगी के रूप में कार्य करते श्री भंवरलाल जी संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, अवधि, बंगला, गुजराती, राजस्थानी, हिन्दी आदि भाषाओं में पारंगत, प्राचीन ब्राह्मी, कुटिल आदि यग की भाषाओं की सतत परि'वर्तित लिपियों की वैज्ञानिक वर्णमाला के अभ्यासी, मूर्तिकला, चित्रकला एवं ललित कलाओं के पारखी हैं। इनकी अभिरुचि प्रायः भाषा-शास्त्र और लिपि-विज्ञान में है। प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में पद्यात्मक स्फुट रचनायें भी करते हैं।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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