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( 4 ) यह परम्परा मूल रूप से धार्मिक क्रांति और सामाजिक जागरण से जुड़ी हुई है । इस कारण इन कवियों में धर्म के क्षेत्र में व्याप्त आडम्बर, बाह्याचार, रूढ़िवादिता और जड़ता के प्रति स्वाभाविक रूप से विद्रोह की भावना रही है । इन्होंने सदैव निर्मल संयम-साधना, भांतरिक पवित्रता और साध्वाचार की कठोर मर्यादा पर बल दिया है ।
( 5 ) इस परम्परा के कवियों का विहार क्षेत्र मुख्यतः राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और पंजाब रहा है । जन्मना, राजस्थानी होकर भी अपने साधनाकाल में ये विभिन्न क्षेत्रों में पद विहार करते रहे हैं । इस कारण इनकी भाषा में स्वाभाविक रूप से अन्य प्रांतों के देशज शब्दों का समावेश हो गया है । भाषा के क्षेत्र में इन कवियों का दृष्टिकोण बड़ा उदार और लचीला रहा है । इन्होंने सदैव तत्सम प्रयोगों के स्थान पर तद्भव प्रयोगों को विशेष महत्व दिया है । भाषा की रूढ़िबद्धता से ये सदैव दूर रहे हैं। यही कारण है कि इनके काव्यों में भले ही रीतिकालीन कवियों सा चमत्कार -प्रदर्शन और कलात्मक सौन्दर्य न मिले पर भाषा विज्ञान की fe से इनके अध्ययन का विशेष महत्व है । अलंकारों के प्रयोग में ये बड़े सजग रहे हैं । उपमानों के चयन में इनकी दृष्टि शास्त्रीयता की अपेक्षा लोकजीवन पर अधिक टिकी है । लम्बे-लम्बे सांगरूपक बांधने में ये विशेष दक्ष प्रतीत होते हैं ।
( 6 ) छन्द के क्षेत्र में इनका विशेष योगदान है। जहां एक ओर इन्होंने प्रचलित मात्रिक और वर्णिक छन्दों का सफलतापूर्वक निर्वाह किया है, वहां दूसरी ओर विभिन्न छन्दों को मिलाकर कई नये छन्दों की सृजना की है । ये कवि अपने काव्य का सृजन मुख्यतः जनमानस को प्रतिबोधित करने के उद्देश्य से किया करते थे, अतः समय-समय पर प्रचलित लोक धुनों नौर लोक प्रिय तर्कों को अपनाना ये कभी नहीं भूले। जहां वैराग्य प्रधान कवित्त और सवैये लिख कर इन्होंने मां भारती का भंडार भरा, वहां ख्यालों में प्रचलित तोड़े भी इनकी पहुंच से नहीं बचे | गज़ल और फिल्मी धुन के प्रयोग भी प्राध्यात्मक के क्षेत्र में ये बड़ी कुशलता से कर सके हैं । चित्रकाव्यात्मक छन्दबद्ध रचना में तिलोक ऋषि और अमी ऋषि का योगदान विस्मृत नहीं किया जा सकता है ।
(7) काव्य - निर्माण के साथ-साथ प्रति लेखन और साहित्य संरक्षण में भी इन कवियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । कई मुनियों और साध्वियों ने अपने जीवन में सैकड़ों मूल्यवान और दुर्लभ ग्रंथों का प्रतिलेखन कर, उन्हें कालकवलित होने से बचाया है । साहित्य के संरक्षण और प्रतिलेखन में इन्होंने कभी भी साम्प्रदायिक दृष्टि को महत्व नहीं दिया । जो भी इन्हें ज्ञानबर्द्धक, जनहितकारी और साहित्यिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यवान लगा, फिर चाहे वह जैन हो या जैनेतर, उसका संग्रह - संरक्षण अवश्य किया । राष्ट्रीय एकता एवं सांस्कृतिक
की दृष्टि से इनका योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है ।