SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 136 उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य से यह सिद्ध है कि वह मुक्तक-काव्य से प्रारम्भ होकर प्रबन्धकाव्य में पर्यवसान को प्राप्त हुआ । यतः साहित्य की परम्परा सदैव ही मुक्तक से प्रारम्भ होती है । प्रारम्भ में जीवन किसी एक दो भावना के द्वारा ही अभिव्यक्तिः किया जाता है पर, जैसे- जैसे ज्ञान और संस्कृति के साधनों का विकास होने लगता है, जीवन भी विविधमुखी होकर साहित्य में प्रस्फुटित होता है । संस्कृत और प्राकृत में साहित्य की जो विविध प्रवृत्तियां अग्रसर हो रही थीं, प्रायः वे ही प्रवृत्तियां कुछ रूपान्तरित होकर अपभ्रंश साहित्य में प्रविष्ट हुई :* फलतः दोहा-गान के साथ-साथ प्रबन्धात्मक पद्धति भी अपभ्रंश में समाहत हुई । इस ह महाकवि चउमुह, द्रोण, ईशान, पुष्पदन्त, धनपाल प्रभूति कवि प्रमुख हैं । इन कवियों के शाहिक का अध्ययन करने से अपभ्रंश साहित्य की निम्न प्रमुख प्रवृत्तियां ज्ञात होती हैं:- 1. प्रबन्धकाव्य प्रवृत्ति 2. आध्यात्मिक-काव्य प्रवृत्ति, 3. बौद्ध दोहा एवं चर्यापद तथा 4. शौर्य-वीर्य एवं प्रणय-श्रृंगार काव्य प्रवृत्ति । प्रथम प्रबन्ध-काव्य प्रवृत्ति के अन्तर्गत पुराण, चरित, काव्य एवं कथा-साहित्य की गणना की जा सकती है । वर्ण्य विषय की दृष्टि से इन काव्यों को पौराणिक एवं रोमाण्टिक काव्य रूप में इन दो वर्गों में विभक्त कर सकते हैं । महाकवि स्वयम्भू, पुष्पदन्त एव धनपाळ ये तीनों ही इस विधा के "त्रिरत्न " हैं । इन्होंने अपभ्रंश - साहित्य में जिन प्रबन्ध - रूढियों एवं earth सम्बन्धी अभिप्रायों का ग्रथन किया है, वे उत्तरवर्ती अपभ्रंश-साहित्य के लिये बाबार ही बन गए हैं । महाकवि स्वयंभू के पउमचरिउ में काव्य की सरसता का पूर्ण निर्वाह हुवा है । उक्त ग्रन्थ की अंग्रेजी प्रस्तावना में बताया गया है कि 'रसात्मकता एवं सौन्दर्य उत्पन्न करने के ये कवि ने विभिन्न मर्मस्पर्शी भावों के चित्रण, प्राकृतिक दृश्यों एवं घटनाओं के वर्णन तथा वस्तु व्यापार के संश्लिष्ट और प्रासंगिक निरूपण में पर्याप्त मौलिकता एव धार्मिक रूढियों से ऊपर उठकर स्वतन्त्रता की प्रवृत्ति का परिचय दिया है। ।' काव्यारम्भ में देव-स्तुति, विषय बस्तु का निर्देश, अपनी असमर्थता एवं दीनता का निवेदन, पूर्वकवि-प्रशंसा, सज्जन प्रबंधन, दुर्जन- निन्दा, देश एवं नगर वर्णन के साथ ही साथ राजनीति, दण्डनीति, अर्थनीति आदि विषयों का वर्णन उस कोटि का है, जो इस रचना को प्रबन्ध-काव्यों में महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करता है । महाकवि पुष्पदन्त कृत महापुराण 2 नाममात्र का ही महापुराण है । वस्तुतः वह महाभारत की शैली का विकसनशील महाकाव्य है । महाभारत के सम्बन्ध में जो यह किवदंती है कि --- यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्' । उसी प्रकार पुष्पदन्त के महापुराण के सम्बन्ध में स्वयं ही कवि ने कहा है :--- अत्र प्राकृतलक्षणानि सकला नीतिः स्थितिरछन्दसामर्थालंकृतयो रसाश्च विविधास्तत्वार्थनिर्णीतयः । किंचान्यद्यदिहास्ति जैनचरिते नान्यत्र तद्विद्यते द्वावेतौ भरतेश- पुष्पदशनौ सिद्धं ययोरीदृशम् ॥ ( महापुराण 59 वीं सन्धि का प्रारम्भिक फुटनोट ) उक्त कथन से स्पष्ट है कि जो यहां ( उक्त महापुराण में ) है, वह अन्यत्र है ही नहीं । अतः उद्देश्य की महत्ता, शैली की उदात्तता एवं गरिमा तथा भाव-सौन्दर्य और वस्तु व्यापार वर्णन आदि की दृष्टि से उक्त महाकाव्य में अपूर्व रस विभोर करने की क्षमता विद्यमान है । 2. 1. पउमचरिउ (सिंधी सीरीज ) प्र. भा. प्रस्तावना पृष्ठ 48 माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला ( बम्बई, 1940) द्वारा प्रकाशित
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy