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पौराणिक शैली के वैयक्तिक महापुरुषों से सम्बन्धित महाकाव्य भी अपभ्रश में लिख गए हैं। इन काव्यों की प्रवत्ति यह रही है कि इनमें किसी पौराणिक या धार्मिक व्यक्ति की जीवन-कथा जैन-परम्परा में स्वीकृत शैली में कही जाती है । कवि अपनी कल्पना शक्ति से कथा के रूप में इतना परिवर्तन कर देता है कि समस्त चरित काव्यात्मक रूप धारण कर रसमय बन जाता है। इस श्रेणी के अपभ्रंश काव्यों में मिणाहचरिउ (हरिभद्र, 13वीं सदी), बम्बसामि चरिउ (वीर कवि 10 वीं सदी), पासणाह चरिउ (विबुध श्रीधर, 12 वीं सदी), संतिणाहचरिउ (शुभकीर्ति) प्रभृति रचनाएं प्रमुख हैं। इन सभी पौराणिक काव्यों का आलोडन करने पर निम्न सामान्य प्रवृत्तियां लक्षित होती हैं :
__ 1. प्रबन्ध काव्यों में प्रारम्भ करने की शैली प्रायः एक सदृश है। प्रारम्भ म तीर्थ करों की स्तुति, पूर्ववर्ती कवियों और विद्वानों का स्मरण, सज्जन-प्रशंसा एव दुर्जननिन्दा, काव्य-रचना में प्रेरणा एवं सहायता करने वालों की अनुशंसा, विनम्रता अथवा दीनता प्रदर्शन, महावीर का राजग्रही में समवशरण का आगमन तथा महाराज श्रेणिक का उसमें पहंचकर प्रश्न करना तथा गौतम गणधर का उत्तर देना आदि पिष्टपेषित सन्दर्भाश विद्यमान है।
. .. 2. सठ शलाका महापुरुषों अथवा अन्य किन्हीं पुण्यशाली महापुरुषों के जीवनचरितों को लेकर अपभ्रंश-कवियों ने कल्पना के द्वारा यत्किंचित् परिवर्तन कर काव्य का रूप खड़ा किया है। यद्यपि ढांचा संस्कृत एवं प्राकृत जैसा ही है, पर विषय-प्रतिपादन की शैली उनकी अपनी निजी है ।
3.', 'चरित-नायकों और उनसे संबंधित व्यक्तियों के विभिन्न जन्मों की कथा के उस मार्मिक अंश को ग्रहण किया गया है, जो लोक-जीवन का आदर्श आधार हो सकता है। यद्यपि क्वचित भवान्तरों का निरूपण भी है, पर संस्कृत और प्राकृत की अपेक्षा उनकी निरूपण- शैली में भी भिन्नता है। संस्कृत और प्राकृत के कवि जहां भवान्तरों की झड़ी लगा देते हैं, वहां अपभ्रश के पौराणिक महाकाव्यों के रचयिता कवि मात्र मर्मस्पर्शी भवान्तरों को ही समाविष्ट करते हैं।
___4. उक्त भवान्तर-वर्णन का मूल कारण कर्मफल प्राप्ति में अडिग आस्था ही है और उसका मुख्य उद्देश्य जैन धर्म का उपदेश देना है। परिणाम स्वरूप ये सभी काव्य वैराग्यमलक और शान्तरस पर्यवसायी है। यतः उनके नायकों का साधु हो जाना और निर्वाण प्राप्त करना आवश्यक माना गया है।
उक्त श्रेणी के काव्यों में लोक-विश्वासों और लोक-कथाओं का पर्याप्त रूप में समावेश हआ है। अलौकिक और अप्राकृतिक तत्व भी यथेष्ट रूप में समाविष्ट हैं। यथादेव, यक्ष, राक्षस, विद्याधर आदि के अलौकिक कार्यों, मत्तगज से यद्ध, आकाश गमन जैसे वर्णन प्राचीन परम्परा के आधार पर ही वर्णित हैं।
6. यद्यपि पौराणिक-काव्य धर्मविषयक है, पर शृगार और युद्धवर्णन की परम्परा मी प्रायः सभी काव्यों में उपलब्ध है। कथा के भीतर अवसर मिलते ही कवि सन्ध्या, प्रभात, चन्द्रमा, नदी, सागर, पर्वत, वन आदि का सुन्दर चित्रण उपस्थित करता है। स्त्रियों के शारीरिक सौन्दर्य, जल क्रीडा एवं सुरति आदि के वर्णनों से भी परहेज दिखाई नहीं पड़ता। यद्ध-प्रयाण, कुमार-जन्म, विवाहोत्सव आदि के भी सजीव चित्र उपलब्ध होते हैं। कहीं-कहीं तो ऐसा होता है कि कथा-प्रवाह को दबा कर वस्तु-वर्णन हावी हो गया है ।
रोमाण्टिक काव्य की कोटि की रचनाओं में धार्मिकता और ऐतिहासिकता का संगम है। इनमें कुछ धार्मिक महापुरुषों अथवा कामदेव के अवतारों के जीवन-चरित वर्णित हैं और