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________________ 179 सुकवि रुघपति खरतरगच्छाचार्य जिनसुखसूरि के शिष्य विद्यानिधान के शिष्य थे । प्रापकी समस्त रचनायें राजस्थानी भाषा में हैं। संवत् 1788 से 1848 तक आपका साहित्य निर्माण काल है। नंदिषेण चौपई, श्रीपाल चौपई, रत्नपाल चौपई, सुभद्रा चौपई, छप्पय, बावनी, उपदेश बत्तीसी एवं उपदेश रसाल बत्तीसी के नाम उल्लेखनीय हैं। इस शताब्दी के अन्य कवियों में भुवनसेन (1701), सुमतिवल्लभ ( 1720),श्रीसोम (1725), कनकनिधान, मतिकुशल (1722), रामचन्द्र (1711), विनयलाभ (1748), कूशलसागर, (1736), जिनरत्नसरि (1700-11), क्षेमहर्ष (1704), राजहषं, राजसार, दयासार, जिनसुन्दरसूरि, जिनरंगसूरि (1731), लब्धिसागर (1770), जिनवर्द्धनसूरि (1710), जयसोम (1703), विद्यारुचि और लब्धिरुचि, मानसागर (1724-59), उदयविजय, सुखसागर, जैसे पचासों कवि हुये जिन्होंने राजस्थानी भाषा की अपूर्व सेवा की । 19वीं शताब्दी:-- ___17वीं शताब्दी के स्वर्णयुग की साहित्य धारा 18वीं शताब्दी तक ठीक से चलती रहने पर 19वीं शताब्दी से उसकी गति मन्द पड़ गई। यद्यपि 5-7 कवि इस शताब्दी में भी महत्वपूर्ण हुये हैं पर इन्हें परवर्ती कवियों की टक्कर में नहीं रखा जा सकता । रचनाओं की विशालता, विविधता और गुणवत्ता सभी दृष्टियों से 19वीं शताब्दी को अवनत काल कहा जा सकता है। इस शताब्दि में होने वाले प्रमुख, कवियों में आलमचन्द, रत्नविमल, ज्ञानसार, लाभचन्द, उपाध्याय क्षमाकल्याण, मतिलाभ, खुश्यालचन्द, उदयकमल, गुणकमल, चारित्रसुन्दर, जिनलाभसूरि, शिवचन्द्र, अमरसिन्धुर, सत्यरत्न, उदयरत्न, गुमानचन्द्र, जयरंग, तत्वकुमार, गिरधरलाल, जगन्नाथ, क्षमाप्रमोद, जयचन्द, हेमविलास, ज्ञानकीर्ति, दयामेरु, अगरचन्द्र, विनयसागर के नाम उल्लेखनीय हैं।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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