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________________ हिन्दी जैन गद्य साहित्य-7. मुनि श्रीचन्द 'कमल' तेरापंथ तीसरे शतक के दूसरे दशक में चल रहा है। इस कालावधि में अनेक साधसाध्वियां साहित्यकार हुए हैं। जैन परम्परा के अनुसार वे पाद-विहार व्रती हैं । 'तिन्नणं तारयाण' सूत्र के अनुसार वे आत्म-साधना के माथ-साथ जन कल्याण की भावना लेकर चलते है। इसलिये वे सदा लोक भाषा को महत्व देते रहे हैं। तेरापंथ के नवमाचाय श्री तुलसी गणी के प्राचार्यकाल में साधु-साध्वियों का विहार क्षेत्र व्यापक हुअा है । जन सम्पक और आवश्यकता वश तेरापंथ के साधु-साध्वियों ने हिन्दी साहित्य में प्रवेश किया । हिन्दी की मर्वप्रथम पुस्तक जीव-अजीव वि. सं. 2000 में प्रकाश में पाई जो मनिश्री नथमलजी की प्रथम कृति थी। आपकी दूसरी पुस्तक थी अहिंसा। फिर धीरे-धीरे साहित्य सर्जन में गति होती गई। इन तीस वर्षों में साधु-साध्वियों की छोटी-मोटी लगभग तीन-चार सौ कृतियां प्रकाशित हो चकी हैं। गद्य साहित्य अनेक विषयों को लक्ष्यकर लिखा गया मुख्य विषय है-- विचार प्रधान निबन्ध, योग, जैन दर्शन, यात्रा,संस्मरण, इतिहास, पागमों की व्याख्या, जीवनी, प्रणव्रत, उपन्यास-कथा, प्रवचन, काव्य, विविध विषय आदि-आदि । विचार प्रधान निबन्ध साहित्य : 1 मेरा धर्म केन्द्र और परिधि-लेखक प्राचार्य तुलसी :--पच्चीस निबन्धात्मक इस कृति में धर्म के तेजस्वी रूप को केन्द्र में प्रतिष्ठित करके विविध सम्प्रदायों को परिधि माना गया है। धर्म बुद्धि की दौड़ से दूर अनुभूतिगम्य है। वह व्यक्ति को बांधता नहीं, मुक्त करता है। धर्म की रूढ धारणाओं के प्रति इसमें एक क्रान्तिकारी स्वर मखरित किया गया है। आज वही धर्म जीवित रह सकता है जिसमें बौद्धिक चुनौतियों को झेलने की क्षमता हो, मन को स्थिरता, बुद्धि को समाधान और हृदय को श्रद्धा का संबल प्रदान करने वाले ये लघ निबन्ध धर्मानुभूति की दिशा में प्रेरणा देने वाले हैं। 2. क्या धर्म बुद्धि गम्य है --प्राचार्य तुलसी :--प्रस्तुत पुस्तक में धर्म का जो स्वरूप उपस्थित किया गया है उससे धर्म का द्वार उन लोगों के लिए भी खुल जाएगा जो बुद्धिवाद के रंग में रंगकर उसे कपोलकल्पित मात्र समझते हैं। वे भी लाभान्वित होंगे जो धर्म को केवल परलोक की छाया में ही देखते हैं। वे भी उपकृत होंगे जो धर्म को प्रात्मानुभूति का तत्व मानते 3. धर्म एक कसौटी एक रेखा--प्राचार्य तुलसी :--भारत में धर्म शब्द बहुत प्रिय रहा है। उसकी अत्यन्त प्रियता के कारण उसकी मर्यादा में कुछ उन वस्तुओं का भी समावेश हो गया है, जो इष्ट नहीं है। अनिष्ट का प्रवेश होने पर उसकी परीक्षा का प्रश्न उपस्थित हुआ। परीक्षा का पहला प्रकार कसौटी है। उस पर रेखा खींचते ही स्वर्ण परीक्षित हो जाता है। धर्म की कसौटी है मानवीय एकता की अनभूति। हृदय और मस्तिाक पर अभेद की रेखा बचित होते ही धर्म परीक्षित हो जाता है। प्रस्तुत पुस्तक में धर्म को इसी कसौटी पर रखा गया है।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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