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हरिदास जी महाराज । राजस्थान में जिस स्थानकवासी परम्परा का विकास हुआ है, वह इन्हीं महान् क्रियोद्धारक महापुरुषों से संबद्ध है । 1
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लों कागच्छ और स्थानकवासी परम्परा का राजस्थान के धार्मिक जीवन, सामाजिक जागरण और साहित्यक विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है । इस परम्परा में शताधिक कवि और शास्त्रज्ञ हुये हैं जिन्होंने अपने उपदेशों और साधनामय जीवन से लोक मानस को उपकृत किया है । पर यह खेद का विषय है कि इनकी साहित्यिक निधि का अभी तक समुचित मूल्यांन नहीं हो पाया है । इसका मुख्य कारण यह रहा है कि इनका कृतित्व हस्तलिखित प्रतियों के रूप में यत्र-तत्र बिखरा पड़ा है और उसके व्यवस्थित संग्रह-संरक्षण की दिशा में ठोस प्रयत्न वर्षों तक नहीं किया गया । प्राचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज साहब की प्रेरणा से प्राचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, लाल भवन, जयपुर में इस परम्परा के साहित्य का विशाल संग्रह किया गया है । इस दिशा में मरुधरकेसरी श्री मिश्रीमलजी म. सा. एवं मुनि श्री मिश्रीमलजी 'मधुकर' ने भी विशेष प्रेरणा दी है । संग्रहीत ग्रन्थों के विषयवार सूचीकरण का कार्य अब भी नहीं है । इसके प्रभाव में शोधकर्ताओंों को भारी दिक्कत का सामना करना पड़ता है । इस दिशा में आचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार ग्रन्थ सूची भाग-1 का प्रकाशन महत्वपूर्ण कदम है जिसमें 3710 रचनाओं का विवरण प्रकाशित किया गया है । ऐसे सूचीपत्र कई भागों में प्रकाशित होने पर ही यह साहित्य शोधार्थियों के सम्मुख ग्रा सकता है और तभी इसका समुचित मूल्यांकन संभव है ।
स्थानकवासी परम्परा की मुख्य बाईस शाखायें होने से यह 'बाइस टोला' के नाम से भी प्रसिद्ध है । सभी शाखाओं का न्यूनाधिक रूप से साहित्यिक विकास में योगदान रहा है । पर केन्द्रीय संस्थान के अभाव में सभी शाखाओंों की बिखरी हुई साहित्यिक सम्पदा साक्षात्कार करना संभव नहीं है । प्रयत्न करने पर हमें जो जानकारी प्राप्त हो सकी उसी के आधार पर यह निबन्ध प्रस्तुत किया जा रहा है । इस बात की पूरी संभावना है कि इसमें कई कवियों के नाम छूट गये हों ।
साहित्य के विकास में जैन मुनियों के साथ-साथ साध्वियों और उनके अनुयायी श्रावकों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है और इनकी संख्या सैकड़ों में है । लोकागच्छ की परम्परा के कवियों में जसवंतजी, रूपऋषि, गणि तेजसिंह जी, केशवजी यादि प्रमुख हैं । 3
यहां प्रमुख कवियों का परिचय संत कवि, श्रावक कवि और साध्वी कवयित्रियों के प्रस्तुत किया जा रहा है ।
क्रम से
1. देखिये -- (अ) पट्टावली प्रबन्ध संग्रह सं. आचार्य श्री हस्तीमलजी म. । (व) जैन आचार्य चरितावली : ग्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. ।
सम्पादक - डा. नरेन्द्र भानावत ।
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इस संबंध में " मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रंथ' में प्रकाशित मुनि कांति सागरजी का लेख "लोकाशाह की परम्परा और उसका अज्ञात साहित्य,” पृ. 214-253 तथा श्री आलमशाह खान का लेख 'लोंकागच्छ की साहित्य सेवा' पृ. 201-213 विशेष दुष्टव्य हैं ।