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अपभ्रश काव्य है। यह पांच सन्धियों में निबद्ध है। कवि की दूसरी रचना "महापुराणकलिका" है, जो 27 सन्धियों में विरचित एक हिन्दी प्रबन्धकाव्य है। शान्तिनाथ चरित्र में सोलहवें तीर्थकर श्री शान्तिनाथ का संक्षेप में जीवन-चरित वर्णित है। कवि ने यह प्रबन्धकाव्य वि. सं. 1652 में भाद्रपद शु. पंचमी के दिन चकत्तावंश के जलालहीन अकबर बादशाह के शासनकाल में ढंढाड देश के कच्छपवंशी राजा मानसिंह के राज्य में बनाया था। राजा मानसिंह की राजधानी उस समय अंबापती या आमेर में थी। कवि के पितामह का नाम साहसील्हा और पिता का नाम खता था। ये खण्डेलवाल जाति और लहाडया गोत्र के थे। ये भ. चन्द्रप्रभु के विशाल जिनमन्दिर से अलंकृत लुवाइणिपुर के निवासी थे। कवि संगीत, छन्द-अलंकार आदि में निपुण तथा विद्वानों का सत्संग करने वाला था। इनके गुरु अजमेर शाखा के विद्वान भट्टारक विशालकीर्ति थे। अतः कवि राजस्थान का निवासी था। कवि की भाषा बहत ही सरल है। अपभ्रंश की रचना होने पर भी उस समय की हिन्दी से प्रभावापन्न है। क्योंकि सतरहवीं शताब्दी में ब्रज भाषा अपने उत्कर्ष पर थी। अतएव उससे प्रभावित होना स्वाभाविक था। उदाहरण के लिये कुछ अन्तिम पंक्तियां हैं :--
जिणधम्मचक्क सासणि सरंति गयणय लह जिम ससि सोह दिति, जिणधम्मणाण केवलरवी य तह अट्ठकम्ममल विलय कीय । एत्तउ मागउ जिण सतिणाह महु किज्जहु दिज्जहु जइ बहलाह।
5,59 कवि ने अपनी गरु-परम्परा का विस्तार के साथ वर्णन किया है। दिल्ली से लेकर अजमेर तक प्रतिष्ठित भट्टारक-परम्परा का एक ऐतिहासिक दस्तावेज इस रचना की अन्तिम प्रशस्ति में उपलब्ध है।
मुनि महनन्दि
मुनि महनन्दि भट्टारक वीरचन्द के शिष्य थे। इन की रची हुई एक मात्र कृति बारक्खडी या पाहुडदोहा उपलब्ध हुई है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति दि. जैन तेरहपंथी बडे मन्दिर, जयपुर में क्रमांक 1825, वेष्टन सं. 165 3, लेखनकाल वि. सं. 1591 मिलती है। इससे यह निश्चित है कि रचना पन्द्रहवीं शताब्दी या इससे पूर्व रची गई होगी। डा. कासलीवाल जी ने इसका समय पन्द्रहवीं शताब्दी बताया है। इसके रचयिता एक राजस्थानी दि. जैन सन्त थे। किसी-किसी हस्तलिखित प्रति में कवि का नाम “महयंद" (महीचन्द) भी मिलता है। इस कृति में 335 दोहे मिलते हैं। किसी-किसी प्रति में 333 दोहे देखने में आते हैं। अपभ्रंश में अभी तक प्राप्त दोहा-रचनाओं में निस्सन्देह यह एक सुन्दर एवं सरस रचना है। भाषा और भाव दोनों ही अर्थपूर्ण हैं। इसमें लगभग सभी तरह के दोहे मिलते हैं। आत्मा क्या है इसे समझाता हुआ कवि कहता है
खीरह मज्झह जेम घिउ तिलह मज्झि जिम तिल्ल । कट्ठहु आरणु जिम वसइ तिम देहहि देहिल्लु ।। 22।।
अर्थात् जैसे दूध में घी रहता है, तिल में तेल समाया रहता है, अरनिकाष्ठ में अग्नि छिपी हुई रहती ह, वैसे ही शरीर के भीतर आत्मा व्याप्त है। 1. पं. परमानन्द जैन शास्त्री : जैन ग्रन्थ प्रशस्ति-संग्रह, प्रस्तावना, पृ. सं. 130 । 2. वही, प. 130-131 । 3 डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल : राजस्थान के जैन शास्त्र-भण्डारों की ग्रन्थ-सूची, भाग 2,4.287 । 4. डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल : राजस्थान के जैन सन्त-व्यक्तित्व एवं कृतित्व, प.173 ।