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________________ राजस्थानी पद्य साहित्यकार 6 (विक्रम की 18वीं शताब्दी से 20वीं शताब्दी तक) लेखक-डा. गंगाराम गर्ग -:00: पश्चिमी राजस्थान की अपेक्षा पूर्वी राजस्थान में दिगम्बर जैन समाज का बाहुल्य रहा। राजस्थान के ढुंढाड तथा हाडौती क्षेत्रों में सामन्तों और श्रेष्ठिजनों की प्रेरणानों से अनेक जैन उत्सवों का आयोजन तथा जिनालयों का निर्माण हुआ। इससे जैन साहित्य के सृजन को बडी प्रेरणा मिली। पूर्वी राजस्थान के ब्रज के सन्निकट होने तथा आगरा के प्रसद्धि कवि बनारसीदास, भूधरदास, द्यानतराय के प्रभाव के कारण राजस्थान के दिगम्बर जैन कवियों की भाषा भी ब्रजभाषा के प्रभाव से पूर्णतः वंचित न रह सकी। तथापि जैन साहित्य में लोक-भाषा को प्राथमिकता दिये जाने के कारण राजस्थानी की प्रमुख शाखा ढूंढाडी भाषा ही इन कवियों की अभिव्यक्ति का माध्यम रही है अालोच्य काल में कवियों ने जिन तीर्थ करों और विशिष्ट पौराणिक पात्रों के विषय में अपने महाकाव्य और खण्डकाव्य लिखे हैं, वे पात्र हैं--तीर्थंकर, ऋषभदेव, तीर्थंकर नेमिनाथ, तीर्थकर शांतिनाथ, धन्य कुमार, जीवन्धर, श्रीपाल, यशोधर, जम्बूस्वामी, श्रेणिक, भद्रबाह पादि। ये प्रबन्ध काव्य अधिकांशतः प्राकृत और अपभ्रंश के चरित्र ग्रंथों के आधार पर ही लिखे गये हैं। फिर भी उनमें यत्र-तत्र मूल भाव का सा ही काव्यानन्द प्राप्त होता है। जैन प्रबन्धकारों में चरित्न ग्रंथों का पद्यानुवाद करते समय उनके मूल छन्दों के एक-एक शब्द का अर्थ ग्रहण करने की अपेक्षा उनका समग्रभाव ग्रहण कर अभिव्यंजित करने की प्रवृति अधिक रही है। जैन पुराणों के चरित्रों में भाषा के कथ्य एवं प्रतिपाद्य में यत्किञ्चित परिवर्तन न करने की प्रवृत्ति में भाषा कवियों की धार्मिक भावना ही प्रधान रही है। ब्रह्म रायमल्ल, प्राचार्य नेमिचन्द जैसे एक दो कवि अवश्य ऐसे थे, जिन्होंने जैन पुराणों के कथ्य को कुछ अधिक मौलिक ढंग से प्रतिपादित करके श्रेष्ठ प्रबन्ध कवि की क्षमता को निःसंकोच प्रकट किया है। 18वीं शताब्दी के प्रमुख कवि नमिचन्द का 'प्रीतंकर मोषिगामि चौपई' 829 दोहा: चौपाइयों में लिखा हा एक श्रेष्ठ एवं मौलिक चरित्र ग्रंथ है। इस ग्रन्थ की रचना बैश शुक्ला 11 संवत् 1771 में हुई। ग्रंथ के प्रारम्भ में पंच परमेष्टि व गणधरों को प्रणाम करते हये कवि ने श्रेणिक के प्रश्नोत्तर के रूप में प्रीतंकर की कथा गौतम मुनि द्वारा कहलवाई है। कुछ ही प्रबन्ध काव्यों की अपेक्षा जैन कवियों ने फुटकर रचनायें अधिक लिखी हैं । मुक्तक रचनाओं में दोहा, सवैया, छंद अपेक्षाकृत कम और पद अधिक हैं । दोहा-परक मुक्तक रचनाओं में पालोच्य काल की प्रमुख रचनायें हेमराज का दोहा शतक, दौलतराम का विवेक विलास, नवल की दोहा पच्चीसी तथा बुधजन रचित बुधजन सतसई हैं। दोहा-परक रचनाओं में जैन कवियों ने जैन दर्शन तथा भक्ति भाव का यत्किचित प्रतिपादन करते हुये नीति का विश्लेषण अधिक किया है। जैन दोहों में अहिंसा, मांस-भक्षण, परधन-प्राप्ति, परस्त्री गमन, नारी निन्दा, अहंकार वचन, क्रोध, दया आदि विभिन्न नैतिक विषयों पर अपने विचार प्रकट किये हैं। बुधजन सतसई मालोच्य काल.का ही नहीं, समूचे हिन्दी जैन काव्य का प्रतिनिधि दोहा काव्य है।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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