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________________ 118 केवल ज्ञान प्राप्ति, धर्मोपदेश तथा निर्वाण-प्राप्ति आदि घटनाएं भी जिनसेन के विवरण पर आधारित हैं । नेमिनाथ महाकाव्य की कथावस्तु अधिक विस्तृत नहीं है किन्तु कवि की अलंकारी-वृत्ति ने उसे सजा-संवार कर बारह सों का विस्तार दिया है। नेमिनिर्वाण में मूल कथा से सम्बन्धित घटनाएं और भी कम हैं। सब मिलाकर भी उसका कथानक नेमिनाथ काव्य की अपेक्षा छोटा माना जाएगा। पर वाग्भट ने उसमें एक और वस्तुव्यापार के परम्परागत वर्णनों को टूसकर और दूसरी ओर पुराण-वर्णित प्रसंगों को मावश्यकता से अधिक महत्व देकर उसे पन्द्रह सर्गों को विशाल काया प्रदान की है। ऐसा करने से वे अपने स्रोत तथा महाकाव्य के बाह्य तत्वों के प्रति भले ही निष्ठावान रहे हों परन्तु वे स्वाभाविकता तथा संतुलन से दूर भटक गये हैं। वीतराग तीर्थंकर के जीवन से सम्बन्धित रचना में, पूरे छह सर्गों में, कुसुमावचय, जल-क्रीडा, चन्द्रोदय, मधुपान, सम्भोग आदि के भगारी वर्णनों की क्या सार्थकता है? स्पष्टतः वाग्भट काव्य-रूढियों के जाल से मुक्त होने में असमर्थ हैं। इसी परवशता के कारण उसे शान्त-पर्यवसायी काव्य में पानगोष्ठी और रति-क्रीडा का रंगीला चित्रण करने में भी कोई वैचित्रय दिखाई नहीं देता। काव्य-रूढियों का समावेश कीर्तिराज ने भी किया है, किन्तु उसने विवेक तथा संयम से काम लिया है। उसने जल-क्रीडा,सूर्यास्त, मधपान आदि मल कथा से असंबद्ध तथा अनावश्यक प्रसंगों की तो पूर्ण उपेक्षा की है, नायक के पूर्व जन्म के वर्णन को भी काव्य में स्थान नहीं दिया है । उनके तप, समवसरण तथा देशना का भी बहुत संक्षिप्त उल्लेख किया है जिससे काव्य नैमिनिर्वाण जैसे विस्तृत वर्णनों से मुक्त रहता है । अन्यत्र भी कोतिराज के वर्णन सन्तुलन की परिधि का उल्लंघन नहीं करते। जहाँ वाग्भट ने तृतीय सर्ग में प्रातःकाल का वर्णन करके अन्त में जयन्त देव के शिवा के गर्भ में प्रविष्ट होने का केवल एक पद्य में उल्लेख किया है वहां कीर्तिराज ने नेमिनिर्वाण के अप्सराओं के आगमन के प्रसंग को छोडकर उसके द्वितीय तथा ततीय सर्गों में वर्णित स्वप्नदर्शन तथा प्रभात वर्णन का केवल एक सर्ग में समाहार किया है । इसी प्रकार वाग्भट ने वसन्त वर्णन पर पूरा एक सर्ग व्यय किया है जबकि कीर्तिराज ने अकेले पाठवें सर्ग का उपयोग छहों ऋतुओं का रोचक चित्रण करने में किया है। नेमिनिर्वाण तथा नेमिनाथ महाकाव्य दोनों ही संस्कृत महाकाव्य के ह्रासकाल की रचनाएं हैं । इस युग के अन्य अधिकांश महाकाव्यों की तरह इनमें भी वे प्रवृत्तियां दृष्टिगत होती हैं जिनका प्रवर्तन भारवि ने किया था और जिनको विकसित कर माथ ने साहित्य पर प्रमत्व स्थापित किया था। वाग्भट पर यह प्रभाव भरपर पड़ा है जबकि कीतिराज अपने लिये एक समन्वित मार्ग निकालने में सफल हए हैं। माव का प्रभाव वाग्भट की वर्णन-शैली पर भी लक्षित होता है, उनके वर्णन माध की तरह ही कृत्रिम तथा दूरारूढ कल्पना से आक्रान्त हैं। वाग्भट की प्रवृत्ति अलंकरण की पीर है। कीतिराज के काव्य में सहजता है, जो काव्य की विभति है और कीर्तिराज की श्रेष्ठता की द्योतक भी। कवित्व-शक्ति की दृष्टि से दोनों में अधिक अन्तर नहीं है 1 । राजस्थान के शास्त्रीय महाकाव्यों में जिनप्रभसूरिकृत श्रेणिक चरित को प्रतिष्ठित पद प्राप्त है । वृध्दाचार्य प्रबन्धावली के जिनप्रभसरि-प्रबन्ध के अनुसार जिनप्रभ मोहिलवाडी लाडन के श्रीमाल ताम्बी गोत्रीय श्रावक महाधर के पात्मज थे। सम्वत् 1356 में रचित श्रेणिक चरित अपरनाम 'दुर्गवत्तियाश्रय महाकाव्य' जिनप्रभसूरि की काव्यकीर्ति का प्राधार-स्तम्भ है। अठारह सर्गों के इस महाकाव्य में भगवान् महावीर के समका 1. नेमिनिर्वाण तथा नेमिनाथ महाकाव्य के विस्तृत तुलनात्मक विवेचन के लिये देखिये लेखक द्वारा सम्पादित नेमिनाथ महाकाव्य के मुद्रणाधीन संस्करण की भूमिका । 2. मणिधारी जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृतिग्रन्थ, पृ. 33। .
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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