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________________ 119 लीन राजा श्रेणिक का जीवनचरित वर्णित है। इसके प्रथम सात सगं पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके हैं, शेष ग्यारह सर्ग अभी अमुद्रित है। श्रेणिकचरित की एक हस्तलिखित प्रति जैन शालानो भण्डार, खम्भात में विद्यमान है । श्रणिकचरित में शास्त्रीय और पौराणिक शैलियों के तत्वों का ऐसा मिश्रण है कि इसे गेटे के शब्दों में धरा तथा प्राकाश का मिलन कहा जा सकता है । श्रेणिकचरित का कथानक स्पष्टतया दो भागों में विभक्त है। प्रथम ग्यारह सर्ग, जिनमें श्रेणिक की घामिकता और जिनेश्वर की देशनाओं का वर्णन है,प्रथम खण्ड के अन्तर्गत आते हैं। हार के खोने और उसकी खोज की कथा वाले शेष सात सर्गों का समावेश द्वितीय भाग में किया जा सकता है । कथानक के य दोनों खण्ड अतिसक्ष्म तथा शिथिल तन्तु से आबद्ध हैं। कथानक में कतिपय अंश तो सर्वथा अनावश्यक प्रतीत होते हैं। सुलसोपाख्यान इसी कोटि का प्रसंग है, जो काव्य में बलात् ठूसा गया है, यद्यपि कथावस्तु में इसका कोई औचित्य नहीं है। श्रेणिकचरित के कर्ता का मुख्य उद्देश्य काव्य के व्याज से कातन्त्र व्याकरण की दुर्गवृत्ति के अनुसार व्याकरण के सिध्द प्रयोगों को प्रदर्शित करना है । इस दृष्टि से वे भट्टि के अनुगामी है और भट्टिकाव्य की तरह श्रेणिक चरित को न्यायपूर्वक शास्त्रकाव्य कहा जा सकता है। । टीका की अवतरणिका के प्रासंगिक उल्लेख के अनुसार जयशेखरसूरि के जैन कुमारसम्मव की रचना खम्भात में सम्पन्न हई थी, किन्त कवि के शिष्य धर्मशेखर ने काव्य पर टीका साँभर में लिखी, इसका स्पष्ट निर्देश टीका-प्रशस्ति में किया गया है2। अतः यहां इसका सामान्य परिचय देना अप्रासंगिक न होगा । महाकवि कालिदास-कृत कुमारसम्भव की भाँति जैन कुमारसम्भव का उद्देश्य कमार (भरत) के जन्म का वर्णन करता है, किन्त जिस प्रकार कमारसम्भव के प्रामाणिक अंश (प्रथम पाठ सर्ग) में कार्तिकेय का जन्म वर्णित नहीं है, वैसे ही जैन कवि के महाकाव्य में भी भरतकुमार के जन्म का कहीं उल्लेख नहीं हया है। और, इस तरह दोनों काव्यों के शीर्षक उनके प्रतिपादित विषय पर पूर्णतया चरितार्थ नहीं होते । परन्तु जहां कालिदास ने अष्टम सर्ग में पार्वती के गर्भाधान के द्वारा कमार कार्तिकेय के भावी जन्म की व्यंजना कर काव्य को समाप्त कर दिया है, वहाँ जैन कुमारसम्भव में सुमंगला के गर्भाधान का निर्देश करने के पश्चात् भी (6/74) काव्य को पांच अतिरिक्त सर्गों में लिखा गया है। यह अनावश्यक विस्तार कवि की वर्णनात्मक प्रकृति के अनरूप भले ही हो, इससे काध्य की अन्विति नष्ट हो गई है, कथानक का विकासक्रम छिन्न हो गया है और काव्य का अन्त अतीव आकस्मिक ढंग से हसा है। खरतरगच्छीय सूरचन्द्र का स्थलभद्र गणमाला काव्य राजस्थान में रचित एक अन्य शास्त्रीय महाकाव्य है। हरविजय,कप्फिणाभ्यदय आदि महाकाव्यों के समान स्थलभ माला में भी वर्णनों की भित्ति पर महाकाव्य की अट्टालिका का निर्माण किया गया है। इसके उपलब्ध साढे पन्द्रह सगर्गों (अधिकारों) में नन्दराज के महामन्त्री शकटाल के पुत्र स्थूलभद्र तथा पाटलिपुत्र की वेश्या कोशा के प्रणय की सुकुमार पृष्ठभूमि में मन्त्रिपुत्र की प्रग्रज्या का वर्णन करना कविको अभीष्ट है। 1. विस्तृत विवेचन के लिये देखिये, श्यामश कर दीक्षित कृत तेरहवीं चौदहवीं शताब्दी के ___ जैन संस्कृत महाकाव्य, पृ. 120-143 । 2. देशे सपादलक्षे सुखलक्ष्ये पधरे पुरप्रवरे । नयनवसुवाधिचन्द्रे वर्षे हर्षेण निर्मिता सेयम ॥ ॥
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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