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राजस्थान से ऐतिहासिक महत्व की कई जैन प्रशस्तियां मिली हैं। घटियाला का वि. सं. 918 का लेख पूरा प्राकृत भाषा में निबद्ध है एवं इसका भारत के जैन लेखों में बड़ा महत्व है। इस लेख मे प्रतिहार राजवंश का वर्णन है। इसमें दी गई वंशावली वि.सं. 894 के जोधपुर अभिलेख से भी मिलती है। लेख कीर्तिस्तम्भ पर उत्कीर्ण है। प्रोसियां के जैन मन्दिर के वि. सं. 1013 के शिलालेख के सातवें श्लोक में प्रतिहार राजा वत्सराज (8वीं शताब्दी) द्वारा वहां जैन प्रतिमा स्थापित करने का उल्लेख है। आहड के जैन मन्दिर के 10वीं शताब्दी के एक शिलालेख में (जिसे मैंने अनेकान्त पत्र (दिल्ली से प्रकाशित) में सम्पादित करके प्रकाशित कराया है) मेवाड़ के शासक अल्लट द्वारा प्रतिहार राजा देवपाल के मारने का उल्लेख मिलता है। लकुलीश मन्दिर एकलिंगजी के राजा नरवाहन के समय के शिलालेख वि. सं. 1028 में शैवों, बौद्धों और जैनों के मध्य वाद-विवाद करने का उल्लेख किया गया है। दिगम्बर जैन परम्पराओं से भी इसकी पुष्टि होती है। काष्ठासंघ की लाट बागड़ को गुर्वावली के अनुसार प्रभाचन्द्र नामक साधु को "विकटशैवादिवृन्दवनदहनदावानल" कहा गया है। इनके उक्त राजा नरवाहन की सभा में शास्त्रार्थ करने का भी उल्लेख किया गया है। इस प्रकार यह एक महत्वपूर्ण सूचना है। वस्तुतः एकलिंगजी से 2 मील दूर "पालाक पार्श्वनाथ का मन्दिर" नागदा में स्थित है। यह दिगम्बर सम्प्रदाय का 10वों शताब्दी का बना हुआ है। इसमें 11वीं शताब्दी का एक शिलालेख भी मनि कान्तिसागरजी ने देखा था जिस उन्हांने प्रकाशित भी कराया है, लेकिन इस समय अब केवल 13वीं शताब्दी के शिलालेख ही उपलब्ध ह। वि. सं. 1226 के बिजोलिया के शिलालेख में इस मन्दिर का विशिष्ट रूप से उल्लेख होन से यह माना जा सकता है कि उस समय नागदा एक दिगम्बर तीर्थ के रूप में प्रसिद्धि पा चुका था। समस्त तीर्थ नमस्कार, चैत्यवन्दना आदि ग्रन्थों में भी इसका इसी रूप में उल्लेख किया गया है। अतएव प्रतीत होता है कि मेवाड़ में कई साधु रहते होंगे और उनसे ही शैवों का शास्त्रार्थ हुअा हागा। प्रभाचन्द्र साधु भी मेवाड़ में दीर्घकाल तक रहे हों तो कोई आश्चर्य नहीं ।
11वीं शताब्दी के आसपास जैन धर्म को राज्याश्रय मिलना शुरू हो गया था। दिगम्बरों के चित्तौड़, नागदा, केसरियाजी, बागड़क्षेत्र, हाड़ौती, लाडन, आमेर, चाटसू आदि मख्य केन्द्र थे। श्वेताम्बरों के केन्द्रस्थल प्रोसियां, किराडवाली, पाब, जालोर आदि मुख्य रूप से थे। मेवाड़ में श्वेताम्बर साधु भी प्रभाव बढ़ाते जा रहे थे। पश्चिमी राजस्थान में बड़ी संख्या में जैन शिलालेख मिले है। राठौड़ों के राज्याश्रय में हस्तीकुण्डो का वि. सं. 1053 का महत्वपूर्ण जैन लेख खुदवाया गया था। इसमें कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सूचनायें दी गई हैं। इसमें परमार राजा मुंज के मेवाड़ पर आक्रमण करने और आघाट को खण्डित करने का उल्लेख है। इसी लेख में गुजरात के राजा द्वारा धरणीवराह परमार पर आक्रमण करने और उसके हळूडी में शरण लेने का उल्लेख है। हठूडी और सेवाड़ी गोडवाड़ में हैं और जैनियों के तीर्थस्थलों में से एक हैं। सेवाड़ी से वि. सं. 1172 और 1176 के प्रसिद्ध जैन लेख मिले। इन लेखों के अवलोकन से पता चलता है कि राठोड़ों के अतिरिक्त गहिलोत और चौहान भी व्यापक रूप से जैन मन्दिरों के लिए दान देते आ रहे थे। इनके दानपत्रों में जो वंश वर्णन दिया गया है वह ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। नाडाल के वि. सं. 1218 और नाडलाई के भी वि. सं. 1218 के ताम्रपत्र इसी कारण बहुत ही प्रसिद्ध हैं।
2. मन्दिरों की प्रतिष्ठा एवं व्यवस्था सम्बन्धी लेख
प्रायः मन्दिरों की व्यवस्था गोष्ठिकों द्वारा की जाती थी। इन गोष्ठिकों का चनाव समाज के प्रतिनिधि व्यक्ति अथवा मन्दिर बनाने वाले या उसके निकट परिवार के सदस्य करते थे। इन्हें मन्दिर की आय, व्यवस्था, व्यय, पूजा-प्रतिष्ठा, स्थायी सम्पत्ति की प्राप्ति