________________
326
अापके व्याख्यानों में सभी धमों के प्रति आदर भाव रहता था। जैन कथाओं के अतिरिक्त रामायण और महाभारत पर भी आपके प्रात्मस्पर्शी व्याख्यान हाते थे। राजा से लेकर रंक तक आपके उपदेशों की पहुंच थी। आपके व्याख्यानों में बड़े-बड़े सेठ साहकारों से लेकर धोबी, कुम्हार,नाई, तेली, मोची, रंगर आदि सभी वगा के लोग सम्मान पूर्वक सम्मिलित होते थे। मसलमान मात्रामा आपके विचारों से प्रभावित थे। संस्कृत, प्राकृत, अरबी, फारसी, राजस्थानी, हिन्दी प्रादि भाषाओं के श्राप विद्वान् थे। आपके व्याख्यानों में भाषागत पाण्डित्य का प्रदर्शन नहाकर तदभव शब्दावती का विशेष प्रयोग होता था। प्राकृत गाथायों संस्कृत श्लोकों, हिन्दो दोहा, पदो और दूं और - शायरी का आप नि:संकोच प्रयोग करते थे। अधिकांश उदल कापताएं स्वरचित हाता था। आपका जीवन कल्पनाविवार में विचरण करने वाले साहित्यिक कवि का जीवन नहाकर कर्तव्य क्षेत्र में दढता से बढ़ने
की प्रेरणा देने वाले एक कर्मठ कविका जीवन था। धर्म के नाम पर दी जाने वाली बलि को निस्सारता और भक्तों की अज्ञानता पर जा प्रहार आपने किया, उसका एक नमना देखिये :--
"माताजी के स्थान पर बकरों और भैंसों का वध किया जाता है। लोग अज्ञानवश होकर समझते हैं कि ऐसा करक व माताजा का प्रसन्न कर रहे हैं और उनको प्रसन्न करेंगे तो हमें भी प्रसन्नता प्राप्त हागःएसा तचना मूर्खता है। लोग माताजो का स्वरूप भल गये हैं और उनको प्रसन्न करने का तरीका भी पूल गया है। इसी कारण वेनशंस पोर अनर्थ तरीके आज भी काम में लात है.--.-सर्व मनारथा का पूरा करने वालोग्रार सबगख देने वाली उन माता का नाम है दया माता। दया माता को चार भुजाएं हैं। दोनों तरफ़ दो-दो हाथ हैं। पहला दान का, दूसरा शील बा, तासरा तपस्या का भार चाथा भावना का। जो अादमो दान नहीं देता, समझलोक उस दया माता का पहला हाथ तोड़ दिया है। जाब्रह्मचर्य नहीं पालता उसने दाराहायडया है। तपस्या नहीं की ता तीसरा हाथ खंडित कर दिया है और जो भावना नहीं भाता सन चाथा हाथ काट डाला है। एसा जीव मरकर वनस्पतिकाय श्रादि में जन्म लेगा। जहा उसे हाथ पैर नहीं मिलेंगे।
(दिवाकर दिव्य ज्योति भाग-7 में से उद्धृत, पृष्ठ 75 व 82) प्रापका विशाल प्रवचन साहित्य दिवाकर दिव्य ज्याति' नाम से 21 भागों में प्रकाशित हा है। इसके प्रतिरिक्त जम्बू कुमार, पाश्वनाथ, रामायण, ग्रादि कथा ग्रन्थ भी प्रकाशित हुए है।
3. प्राचार्य श्री गणेशीलालजी म.--
पाप प्राचार्य श्री जवाहरलालजी म.के पट्टधर शिष्य थे। अापके प्रवचनों के तीन संग्रह प्रकाशित हुए हैं-जैन संस्कृति का राजमार्ग, आत्म-दर्शन और नवीनता के अनगामी। इनमें जैन संस्कृति के प्रमुख सहान्त भार जीवात्मा की परिणति का सरल सुबोध भाषा शैली में विगत विवेल किया गया है। आपको व्याख्यान शैली तीर्थकर स्तुति से प्रारम्भ होकर शास्त्रीय विषय को पकड़ती है और नानाविध कथा-प्रसगों को स्पर्श करती हई आगे बढ़ती है। उसमें स्वानभूत वाणी का तजादीप्त स्वर प्रमुख रहता है। एक उदाहरण देखिये
जैन दर्शन में न तो व्यक्ति पूजा को महत्त्व दिया गया है न ही संचित घरों में सिद्धान्तों को कसने की कोशिश की गई है। प्रात्म विकास संदेश को न सिर्फ समच विश्व की बल्कि समचे जीव-जगत को सुनाया गया है। जैन शब्द का मूल भी इसी भावना कानाव पर अंकरित दया है।मल संस्कृत धातु है 'जि' जिसका अर्थ होता है जातना। जीतने का प्राय कोई क्षेत्र या प्रदेश जोतना नहीं बल्कि आत्मा को जीतना, प्रात्मा की बुराइयों और कमज़ारियों का जीतना
न संस्कृति के राजमार्ग से उद्धृत, पृष्ठ-9)