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मुनि छत्रमल जी
भिक्ष शतकम् जयाचार्य शतकम् काल शतकम् तुलसी शतकम् तेरापंथ शतकम् तुलसी शतकम् भिक्षु शतकम् आषाढभूति शतकम् अणुव्रत शतकम् धर्म शतकम् समस्या शतकम् नैश द्विशतकम् हरिश्चन्द्र-कालिकं द्विशतकम् श्लोक शतकम् पृथ्वी शतकम्
मुनि दुलीचन्दजी 'दिनकर' मुनि नगराज जी मुनि मिट्ठालाल जी मुनि चम्पा लाल जी
मुनि मधुकर जी मुनि राकेशकुमार जी साध्वी फूलकुमारी जी साध्वी मोहनकुमारी जी साध्वी कनकश्री जी
संस्कृत काव्य की एक और विधा है-चित्रमय काव्य । यह विधा बहुत ही जटिल और क्लिष्ट है। इसमें रचना करना अगाध पांडित्य का सूचक है। इसके लिये गहरे अध्यवसाय की आवश्यकता होती है। विक्रम की बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी के लगभग वाग्भट्ट ने अपनी कृति 'वाग्भट्टालंकार' में चित्रमय श्लोकों का दिग्दर्शन कराया है। चित्रमय काव्य की रचना जटिल और क्लिष्ट होने के कारण अधिक प्रसारित नहीं हो सकी। सोलहवीं शताब्दी के पश्चात् तो वह प्रायःलप्त हो गई। किन्तु इस उप्तप्रायः काव्य रचना की विधि का तरापा धर्मसंघ में पुनर्जीवन प्राप्त हुआ है। उदाहरणार्थ एक श्लोक प्रस्तुत है ।
विश्वेस्मिन् प्राप्तुकामा विमलमतिमया मानवा! नव्यनव्यां, सच्चिद् रोचिविचित्रच्छविरविशिविकां सिद्धिसाम्राज्यनिष्ठाम् । माहात्म्याचिः प्रविष्ठां सितमधुसरसां संप्रघत्ताशु तहि, सच्छिक्षा सत्यसन्धेः कविवरतुलसेश्चन्द्रवच्छीतरश्मेः ।।
उक्त शिबिका बन्ध चित्रमय श्लोक में 84 अक्षर होते हैं किन्तु उनमें से केवल 70 अक्षर ही लिखे जाते हैं। शेष 14 अक्षरों की प्रति भिन्न-भिन्न प्रकोष्ठों से की जाती है। उक्त . श्लोक के रचयिता मनि नवरत्नमल जी हैं। उन्होंने अनेक प्रकार के चित्रमय श्लोकों की रचना की है।
इस प्रकार के तेरापंथ संस्कृत-साहित्य के उदभव और विकास की संक्षिप्त प्रस्तुति इस निबन्ध में हुई है। अनवगति और अनुपलब्धि के कारण संभव है पूर्ण परिचिति में कुछ अवशेष भी रहा हो फिर भी उपलब्ध साहित्य का यथासंभव परिचय देने का प्रयत्न किया गया है। विक्रम की बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और इक्कीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में तेरापंथ धर्म-संघ ने संस्कृत वाडमय को विभिन्न नए उन्मेष प्रदान किये हैं। अतीत के सिंहावलोकन के आधार पर अनागत का योग और अधिक मूल्यवान हो सकेगा, ऐसी आशंका स्वाभाविक है।