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________________ संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार: 4 डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल 1. रविषेणाचार्य:--रविषेण पुराण ग्रन्थ के कर्ता के रूप में प्रसिद्ध प्राचार्य हैं। इन्होंने स्वयं ने अपने सम्बन्ध में कहीं कोई उल्लेख नहीं किया किन्तु इन्होंने जिस गुरु परम्परा का उल्लेख किया है उसके अनुसार इन्द्रसेन के शिष्य दिवाकर सेन, दिवाकर सेन के शिष्य अर्हतसेन, अर्हतसेन के शिष्य लक्ष्मणसेन और लक्ष्मणसेन के शिष्य रविषेण । सनान्त नाम होने के कारण ये सेनसंघ के विद्वान जान पड़ते हैं। सेन संघ का राजस्थान में बहुत जोर रहा। सोमकीर्ति आदि भटटारक राजस्थान केही जैन सन्त थे। इसलिये रविषेण का भी राजस्थान से विशेष सम्बन्ध रहा इसमें दो मत नहीं हो सकते । रविषेण की एक मात्र कृति पद्मचरित (पद्मपुराण) उपलब्ध होती है लेकिन यह एक ही कृति उनके विशाल पाण्डित्य एवं अद्भुत व्यक्तित्व की परिचायक है। यह एक चरित काव्य है। जिसमें 123 पर्व है। इसमें वेसठ शालाका के महापुरुषों में से आठवें बलभद्र राम, आठवें नारायण लक्ष्मण, भरत, सीता, जनक, अंजना, पवन, भामण्डल, हनुमान, राक्षसवंशी रावण, विभीषण एवं सुग्रीव आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसे हम जैन रामायण कह सकते हैं। रामकथा के अनेक रूप है उसमें जैन आम्नाय के अनुसार इस चरित काव्य में उसका एक रूप मिलता है । पद्मचरित में सीता के आदर्श की सुन्दर झांकी प्रस्तुत की गयी है तथा राम के जीवन की सभी दृष्टियों से महत्ता स्वीकार की गयी है। ग्रन्थ में रामचरित के साथ वन, पर्वत, नदी, ऋतु आदि के प्राकृतिक दृश्यों को तथा विवाह, जन्म, मृत्यु आदि सामाजिक रीतिरिवाजों का सुन्दर वर्णन हुआ है। जैन पुराण साहित्य में रविषण के पद्मपुराण का महत्वपूर्ण स्थान है। रविषेण ने महावीर भगवान के निर्वाण के 1203 वर्ष 6 महीने व्यतीत होने पर वि. सं. 734 (सन् 677) में इसे समाप्त किया था जैसा कि निम्न प्रशस्ति से ज्ञात होता है: द्विशताभ्यधिके समासहस्र समतीते अर्ध-चतुर्थ-वर्शयुक्ते । जिन-भास्कर-वर्द्धमान सिद्धे चरितं पद्यमुनेरिदं निबद्धम् ।। 2. ऐलाचार्य:---ऐलाचार्य प्राकृत एवं संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान् थे। ये सिद्धान्त शास्त्रों के विशेष ज्ञाता एवं महान् तपस्वी थे। चित्रकूटपुर (चितौड) इनका निवास स्थान था। इन्होंने ही आचार्य वीरसेन को सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन कराया था। वीरसेनाचार्य ने धवला टीका प्रशस्ति में ऐलाचार्य का निम्न शब्दों में उल्लेख किया है:-- जस्स पसाएण मए सिद्धंत मिंद हि अहिलहुदं । महुसो एलाइरियो पसियउ वर वीरसेणस्स ।। ऐलाचार्य का समय 8वीं शताब्दी का अन्तिम पाद होना चाहिये क्योंकि वीरसेन न घवला टीका सन् 811 में (शक में 738) में निबद्ध की थी। 1. आसीदिन्द्रगुरो दिवाकरयतिः शिष्योऽस्य चाहन्मनि । . स्तस्माल्लक्ष्मणसेन सन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम्- ॥ 95
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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