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________________ 96 3. आचार्य अमृतचन्द्र सूरिः -- आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय की टीका करने के कारण आचार्य अमृतचन्द्र जैन संस्कृत साहित्य में अत्यधिक लोकप्रिय टीकाकार हैं । इनकी टीकाओं के कारण आज कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का रहस्य सबके समझने में आ सका । उक्त टीकाओं के अतिरिक्त इनकी पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, तत्वार्थसार एवं समयसार कलश भी अत्यधिक लोकप्रिय रचनायें मानी जाती हैं । महापंडित आशाघर ने अमृतचन्द्र का उल्लेख सूरि पद के साथ किया है इससे ज्ञात होता है कि अमृतचन्द्र किसी सम्मानित कुल के व्यक्ति थे । पं. नाथूराम प्रेमी ने अमृतचन्द्र h. सम्बन्ध में जो नया प्रकाश डाला है उसके आधार पर माघवचन्द्र के शिष्य अमृतचन्द्र 'बामणवाडे' में आये और यहां उन्होंने रल्हण के पुत्र सिंह या सिद्ध नामक कवि को पज्जुण्णचरिउ बनाने की प्रेरणा की । यदि बयाना (राज.) के पास स्थित बांभणवाड- ब्रह्मवाद दोनों एक ही हैं तो अमृतचन्द्र ने राजस्थान को भी पर्याप्त समय तक अलंकृत किया था ऐसा कहा जा सकता है । उसके अतिरिक्त राजस्थान के विभिन्न जैन भण्डारों में अमृतचन्द्र के ग्रन्थों का जो विशाल संग्रह मिलता है उससे भी हम इन्हें राजस्थानी विद्वान् कह सकते हैं। यही नहीं राजस्थानी विद्वान् राजमल ने सर्व प्रथम अमृतचन्द्र कृत समयसार कलश टीका पर हिन्दी में टब्बा टीका लिखी थी। अमृतचन्द्र का समय अधिकांश विद्वानों ने 11वीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना है । लेकिन पं. जगलकिशोर मुख्तार ने इनका समय 10वीं शताब्दी का तृतीय चरण बतलाया है । इनका पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्रावकाचार सम्बन्धी ग्रन्थ है इसमें 226 संस्कृत पद्य हैं । श्रावक धर्म के वर्णन के साथ ही उसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र का सुन्दर वर्णन किया गया है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में निश्चय नय एवं व्यवहार नय की चर्चा है तो अन्त में रत्नत्रय को मोक्ष का उपाय बतलाया गया है । पुण्यास्रव को शुभोपयोग का बाधक बतलाना पुरुषार्थसिद्ध युपाय की विशेषता है । तत्वार्थसार को आचार्य अमृतचन्द्र ने मोक्षमार्ग का प्रकाश करने वाला एक प्रमुख दीपक बतलाया है । यह तत्वार्थसूत्र का सार रूप ग्रन्थ है जिसमें 9 अधिकार हैं और जीव अजीव आसव बंध आदि तत्वों का विशद विवेचन है । इसमें युक्ति आगम से सुनिश्चित सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है । समयसार कलश-आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार पर कलश रूप में लिखा गया है। इसका विषय वर्गीकरण भी समयसार के अनुसार ही है। इसमें 278 पद्य हैं जो 12 अधिकारों में विभक्त हैं । प्रारम्भ में आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्म तत्व को नमस्कार करते हुए बतलाया है: नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते । चितस्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे । समयसार टीका आत्मख्याति के नाम से प्रसिद्ध है । टीका में उन्होंने गाथा के शब्दों की व्याख्या करके उसके अभिप्राय को अपनी परिष्कृत गद्यशैली में व्यक्त किया है । इसी तरह प्रवचनसार की टीका का नाम तत्वदीपिका है। इस टीका में आचार्य अमृतचन्द्र की आध्यात्मिक रसिकता, आत्मानुभव, प्रखर विद्वत्ता, एवं वस्तु स्वरूप को तर्क पूर्वक सिद्ध करने की असाधारण शक्ति का परिचय मिलता है । कहीं कहीं तो मूल ग्रन्थकार ने जिन भावों को छोड दिया है उनको भी उन्होंने इस टीका म खोल दिया है । इसी तरह पंचास्तिकाय टीका भी इनकी प्रांजलकृति है जिसमें जीवादि पंचास्तिकाय का विशद विवेचन हुआ है । अमतचन्द्र (द्वितीय) — लेकिन पं. परमानन्द जी शास्त्री का मत है कि अमृतचन्द्र-II माधवचन्द्र मलघारी के शिष्य थे । अपभ्रंश के महाकवि सिंह अथवा सिद्ध इन्हीं के शिष्य थे
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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