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________________ 99 एवं सोमसेन के शिष्य थे। एक प्रशस्ति के अनुसार इनके पितामह का नाम माल साह एवं पिता का नाम महीपति साधु था। उनका स्वयं का नाम चारूभट था और जब वे दिगम्बर मुनि हो गये तब उनका नाम जयसेन रखा गया ।। समयसार, प्रवचनसार एवं पञ्चास्तिकाय पर निर्मित टीकाओं का नाम तात्पर्य वृत्ति है । वृत्ति की भाषा सरल एवं सुगम है । राजस्थान में जैन शास्त्र भण्डारों में इन टीकाओं की प्रतियां अच्छी संख्या में मिलती है। जयसेन न अपनी टीकाओं में समय का कोई उल्लेख नहीं किया । डा. ए. एन. 'उपाध्य ने इनका समय 12वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध एवं 13 वीं शताब्दीका पूर्वाद्ध निश्चित किया है क्योंकि इन्होंने वीरनन्दि के आचारसार में दो पद्य उद्धत किये हैं । वीरनन्दि के गुरु माधवचन्द्र त्रैविधदेव का स्वर्गवास विक्रम की 12वीं शताब्दी में हुआ था इसलिये जयसेन का समय 13वीं शताब्दी का प्रथम चरण मानना ही उचित है । 10. आशाधरः-महापंडित आशाघर राजस्थान के लोकप्रिय विद्वान् थे। वे मूलतः मांडलगढ (मेवाड) के निवासी थे । इनका जन्म भी उसी नगर में हआ था। इनके पिता का नाम सल्लखण एवं माता का नाम श्रीरत्नी था । इनकी पत्नी का नाम सरस्वती एवं पूत्र का , नाम छाहड था । इनके पुत्र छाहड ने अर्जुन वर्मा को अनुरंजित किया था। आशावर मांडलगढ़ में दस-पन्द्रह वर्ष ही बिता पाये थे कि शहाबद्दीन गोरी ने सन 1292 में पथ्वीराज को हराकर दिल्ली को अपनी राजवानी बनायो और अजमेर पर भी अपना अधिकार कर लिया । उनके आक्रमणों से संत्रस्त होकर अपने चरित्र की रक्षार्थ वे सपरिवार बहत से अन्य लोगों के साथ मालवदेश की राजधानी धारा में आकर बस गये थे । उस समय धारा नगरी विद्या का केन्द्र थी और अनेक विद्वानों की वहां भीड रहती थी । आशाधर ने धारा में आने के पश्चात पंडित श्रीधर के शिष्य पंडित महावीर से न्याय और व्याकरण शास्त्रका अध्ययन किया था । लेकिन कुछ समय धारा में रहने के उपरान्त वे वहां से नलकच्छपुर चले गये जो धारा मगरी से 10 कोश दूरी पर स्थित था । नलकच्छपुर (नालछा) धर्मनिष्ठ श्रावकों का केन्द्र था । वहां का नेमिनाथ का मन्दिर आशाधर के स्वाध्याय एवं ग्रन्थ निर्माण करने का केन्द्र था । यहां वे 30-35 वर्ष तक रहे - सूरिः श्री वीरसेनाख्यो मूलसंघेपि सत्तया: । नम्रर्थपदवीं भेजे जातरूप धरोपि य : ततःश्री सोमसेनोऽमुद् गणी गुणगणाश्रयः । तद्विनेयोस्ति यस्तस्यै जयसेन तपोभते ॥ शीघ्र बभूव माल साधुः सदा धर्मरतो वदान्य : सूनुस्ततः साधुः महीपतिस्तस्मादयं चारूभटस्तनूज : ॥ म्लेच्छेशेन सपादलक्षविषये व्याप्ते सुवृत्तक्षतित्रासाद्विन्ध्य नरेन्ददोः परिमलस्फूर्जत्रिवर्गाजसि प्राप्तो मालवमण्डले बहुपरीवारः पुरीमावसन् यो धारामपठज्जिनप्रमिति वाक्शास्त्रे महावीरतः ॥5॥ श्रीमदर्ज न भूपाल राज्ये श्रावकसंकुले । जैनधर्मोदीर्थ यो मलकच्छपुरेवसत् ।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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