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________________ "867 (च) शोध-समालोचना :-यों तो जैन भागमों, दार्शनिक और तात्विक प्रन्यों की व्याख्या-विवेचना (टाका-भाष्य) के रूप में शोध की प्रवृत्ति प्राचीन काल से चली पारही है। पर उस प्रवत्ति का क्षेत्र मुख्यतः धार्मिक और दार्शनिक जगत तक ही सीमित रहा है। लम्बे समय तक जैन साहित्य को केवल धार्मिक साहित्य कहकर उपेक्षा की जाती रही पर बब पाश्चात्य विद्वानों का ध्यान आगम ग्रन्थों और उनके समीक्षात्मक अध्ययन तथा हस्तलिखित जैन ग्रन्थों के सूनीकरण की ओर गया तो जैन साहित्य का दायरा व्यापक हुमा और शोध की दिशाएं विस्तृत हई। इधर हिन्दी साहित्य के प्रादिकाल की अधिकांश आधारभूत सामग्री जैन साहित्यकार द्वारा ही रजित मिली है। जैन अपभ्रंश साहित्य धारा के अध्ययन से यह स्पष्ट होने लगा कि हिन्दी के संत काव्य, प्रेमाख्यानक काव्य और भक्ति काव्य के रचना तन्त्र मार शिल्पविधान पर जैन साहित्य का व्यापक प्रभाव है। प्राचीन इतिहास, संस्कृति पौर पुरातत्व तथा भारतीय दर्शन के तुलनात्मक अध्ययन में भी जैन आगम और पुराण अन्यों का उपयोग करने की प्रवृत्ति विशेष बड़ी है। इन सब का परिणाम यह हुआ कि अब जैन वांड मय धन्तर अनुशासनीय शोध-क्षेत्र का मुख्य आधार बन गया है । जैन साहित्य का अधिकांश भाग अब भी अज्ञात और अप्रकाशित है। राजस्थान में सैकड़ों मन्दिर, उपाश्रय और स्थानक हैं जहां हस्तलिखित पांडुलिपियों के रूप में यह मूल्यवान साहित्य संगृहीत-संरक्षित है। यह साहित्य केवल धार्मिक नहा है और न केवल जन धर्म से ही सम्बन्धित हैं। इनमें साहित्य के अतिरिक्त इतिहास, दर्शन, भूगोल, आयुर्वेद, ज्योतिष भादि की अलभ्य सामग्री छिपी पड़ी है। इनका समुद्धार किया जाना मावश्यक है। विश्वविद्यालय स्तर पर अब तक जैन विद्या के अध्ययन-अध्यापन की स्वतन्त्र व्यवस्था महोने से जन शोध की प्रवत्ति वैज्ञानिक रूप धारण न कर सकी। प्रसन्नता का विषय है कि भगवान महावीर के 2500 वें परिनिर्वाण वर्ष के उपलक्ष्य में राजस्थान सरकार के सहयोग से राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर तथा उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर में जैन अनुशीलन केन्द्र की स्थापना की गई है। इससे निश्चय ही जैन शोध की सम्भावनामों के मयेद्वार लेंगे। जैन विद्या का व्यवस्थित अध्ययन-अध्यापन न होने पर भी शोध क्षेत्र में राजस्थान प्रजगी है। इसका मुख्य कारण यहां पर्याप्त संख्या में हस्तलिखित ग्रन्थ भंडारों का होना है। कई संस्थाएं और व्यक्ति शोध कार्य में मनोयोग पूर्वक लगे हए हैं। शोधरत संस्थानों में प्रमुख हैं-श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा संचालित साहित्य शोध विभाग, महावीर भवन, जयपुर, प्राचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार शोध प्रतिष्ठान, लाल भवन जयपुर; जीन इतिहास समिति, जयपुर; जैन विश्व भारती लाडनूं; अपय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर। शोधरत विद्वानों में महत्वपूर्ण नाम हैं-मुनि श्री जिनविजयजी, मुनि श्री कल्याण विजाजीपतिश्री कान्ति सागरजी.पं.घासीलालजी स..प्राचार्य श्री प्रस्तीमलजी म.. पाना भी तुलसो, मुनि श्री नथमलजी, मुनि श्री नगराजजी, मुनि श्री बुखमलजी, मुनि धीलधमोदन्दजी म., श्री देवेन्द्र म नि जी, श्री भगरचन्द नाहटा, श्री भंवरलाल माहटा, डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल, श्री श्रीचन्द रामपुरिया, डा. मरेन्द्र भानावत, महोपाध्याय विश्य सागर, हा. प्रेम सुमन जैन श्रादि । संक्षेप में जैन शोध-पवृत्तियों को इस प्रकार रखा जा सकता है (1) राजस्थान के ज्ञान भण्डारों में उपलब्ध हस्तलिखित परिधिपियों का विस्तृत सूचीकरण और प्रकाशन ।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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