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________________ 248 गया है। भाषा न कठिन है और न दुरूह शब्दों का प्रयोग किया गया है। प्रखयराज के एक गद्य का नमूना देखिये "शार्ग अन्तराय कर्म पांच प्रकार तिसि की दोइ साखा। एक निहचे और एक व्यौहार। निहचै सो कहिये जहां परगन का त्याग न होइ सो दानान्तराय। यात्म तत्व का लाभ न हो इसो लाभान्तराय। प्रात्म स्वरूप का भोग न होइ सो भोगान्तराय। जहां बारवार पपोग नजागै सो उपभोगान्तराय। अष्ट कर्म कहुं जीव जिसके नहीं सो वीर्यान्तराय " 3. पाण्डे हेमराजः पाण्डे हेमराज यद्यपि आगरा के निवासी थे लेकिन राजस्थान से भी उनका विशेष संबंध था। महाकषि दौलतराम कासलीवाल जब आगरा गये थे तो हेमराज से उनकी भेंट हुई थी। उन्होंने निम्न शब्दों में हेमराज की प्रशंसा की है हेमराज साधर्मी भलै, जिन वच मांनि असुभ दल मलै । अध्यातम चरचा निति कर, प्रभु के चरन सदा उर धरै। हेमराज ने निम्न ग्रन्थों की बालावबोध टीका लिखी थीप्रवचनसार भाषा (सं. 1709) पंचास्तिकाय, न चक्र, गोमटसार कर्मकाण्ड । इनकी गद्य शैली बहुत सुन्दर है। वाक्य सीधे और सुग्राहय हैं। जो, सो, विष, करि शब्दों का प्रयोग हुआ है। गद्य में पंडिताऊपन भी है। उनके गधे का नमूना निम्न प्रकार "धर्म द्रव्य सदा अविनासी टंकोत्कीर्ण वस्तु है। यद्यपि अपण अगुर लघु गुणनि करि षट गणी हानि वद्धि रूप परिणवै है। परिणाम करि उत्पाद व्यय संयुक्त है तथापि अपने धौव्य स्वरूप सौ चलता नांही द्रव्य तिसही का नाम है जो उपजै विनस थिर रहै।" पाण्डे हेमराज गद्य साहित्य के अपने युग के लोकप्रिय विद्वान थे। इनके प्रवचनसार पौर पंचास्तिकाय भाषा टीका स्वाध्याय प्रेमियों में बहुत प्रिय रहे हैं। 4. दीपचन्द कासलीवाल:-- दीपचंद शाह भी उन राजस्थानी विद्वानों में से थे, जिन्होंने राजस्थानी गद्य- निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान किया है। वे खण्डेलवाल जाति के कासलीवाल गोत्र में जन्मे थे। प्रतः कई स्थानों पर उनका नाम दीपचंद कासलीवाल भी लिखा मिलता है। ये पहिले सांगानेर में रहते थे किन्तु बाद में पामेर पा गये थे। ये स्वभाव से सरल, सादगी प्रिय और मध्यात्म चर्चा के रसिक विद्वान् थे। भापके द्वारा रचित अनुभव प्रकाश (सं. 1781), चिवलास (सं. 1779), प्रात्मावलोकन (सं. 1774), परमात्म प्रकाश, ज्ञान दर्पण, उपदेश रत्नमाला भोर स्वरूपानन्द नामक ढुंढाहड प्रदेश के अन्य दिगम्बर जैन लेखकों की भांति इनकी भाषा में बज और राजस्थानी के रूपों के साथ खडी बोली के शब्द-रूप हैं। भाषा स्वच्छ है एवं साधु-वाक्यों में गम्भीर प्रपाभिव्यक्ति उसकी विशेषता है। 1. हिन्दी गध का विकास : डा. प्रेमप्रकाश गौतम, अनुसंधान प्रकाशन, प्राचार्य नभर, कानपुर, पृ. 1870
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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