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प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी की कितनी ही रचनायें रची गयीं, लिपिबद्ध की गयी एवं स्वाध्यायार्थ जन-जन में वितरित की गयीं । उदयपुर में 9 जैन मन्दिर हैं जिनमें सभी में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का संग्रह मिलता है लेकिन सबसे अधिक एवं महत्वपूर्ण ग्रन्थ दिगम्बर जैन मन्दिर संभवनाथ, खण्डेलवाल जैन मन्दिर, अग्रवाल जैन मन्दिर एवं गोडीजी का उपासरा में संग्रहीत हैं । संभवनाथ मन्दिर के शास्त्र भण्डार में 517 हस्तलिखित ग्रन्थ हैं । सबसे प्राचीन पाण्डुलिपि सन् 1408 की है जो भट्टोत्पल की "लघु जातक" टीका की है । यहा सकलकीर्ति रास की भी पाण्डुलिपि है जिसमें भट्टारक सकलकीर्ति का जीवन वृत्त दिया हुआ है । अग्रवाल दिगम्बर जैन मन्दिर में यद्यपि करीब 400 ग्रन्थ हैं लेकिन अधिकांश पाण्डुलिपियां प्राचीन हैं । सबसे प्राचीन पूज्यपाद कृत सर्वार्थसिद्धि की पाण्डुलिपि जिस पर संवत् 1370 का लेखन काल दिया हुआ है । इसकी प्रतिलिपि योगिनीपुर में की गयी थी । इस भण्डार में सबसे अधिक संख्या हिन्दी ग्रन्थों की है । जिनमें कल्याणकीर्ति कृत चारुदत्त प्रबन्ध ( 1635 ए. डी.), अकलंक यति रास ( जयकीर्ति सन् 1710), दौलतराम कासलीवाल कृत जीवन्धर चरित ( संवत् 1805), अम्बिका रास ( ब्र. जिनदास ) आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। दौलतराम कासलीवाल ने इसी मन्दिर में बैठ कर जीवन्धर नरित की रचना की थी । इस भण्डार में उसकी एक मात्र पाण्डुलिपि संग्रहीत है । 1
खण्डेलवाल जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में करीब 200 प्रतियां हैं और संवत् 1363 की भूपाल स्तवन की पाण्डुलिपि है । इसी तरह गौडीजी के मन्दिर, उपासरे में करीब 625 पाण्डुलिपियां हैं 1 इस भण्डार में ग्रागम शास्त्र, आयुर्वेद एवं ज्योतिष आदि विषयों के ग्रन्थों का अच्छा संग्रह है ।
डूंगरपुर राजस्थान प्रान्त का जिला मुख्यालय है । यह पहिले बागड़ प्रदेश का सर्वाधिक प्रसिद्ध राज्य था । जैन संस्कृति की दृष्टि से यह प्रदेश का एक संपन्न क्षेत्र रहा है । 15वीं शताब्दी में भट्टारक सकलकीर्ति एवं उसके पश्चात् होने वाले भट्टारकों का यह नगर प्रमुख केन्द्र था । सकलकीर्ति ने संवत 1483 में यहीं पर भट्टारक गादी की स्थापना की थ 1 सकलकीर्ति के पश्चात होने वाले सभी भट्टारकों ने अपने ग्रन्थों में डूंगरपुर, गिरिपुर के नाम का बहुत उल्लेख किया है । इन भट्टारकों में भुवनकीर्ति, ज्ञानभूषण, विजयकीर्ति, शुभचन्द्र आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । ब्र. जिनदास ने अपने प्रसिद्ध रास ग्रन्थ रामतीता रास की समाप्ति यहीं पर संवत् 1508 में की थी । यहां के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में 553 प्रतियां है जिनमें अधिकांश ग्रन्थ अत्यधिक महत्वपूर्ण है । भण्डार में चन्दनमलयागिरि चौपई, प्रादित्यवार कथा एवं राग रागिनियों की सचित्र पाण्डुलिपियां हैं जो चित्रकला एवं शैली को दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं ।
केसरियानाथ के नाम से प्रसिद्ध 'ऋषभदेव' जैनों का अत्यधिक प्राचीन एवं लोकप्रिय तीर्थ माना जाता है जहां जैन एवं जैन बन्धु प्रति वर्ष लाखों की संख्या में प्राते हैं । जैन जाति
भट्टारकों का यह प्रमुख स्थान माना जाता है । यहां उनकी गादी भी स्थापित है यहां का शास्त्र भण्डार भट्टारक यशकीर्ति जैन सरस्वती भवन के नाम से प्रसिद्ध है जिसमें हस्तलिखित ग्रन्थों की संख्या करीब 1100 से भी अधिक है । 15वीं, 16वीं एवं 17वीं शताब्दी में लिखे हुए ग्रन्थों की संख्या सबसे अधिक है जो भण्डार की प्राचीनता की ओर एक स्पष्ट संकेत है । शास्त्र भण्डार में राजस्थानी, हिन्दी एवं मेवाड़ी भाषा में लिखे हुए ग्रन्थ सर्वाधिक है जिससे ज्ञात होता है कि इन ग्रन्थों के संग्रहकर्ता इन भाषाओं के प्रेमी रहे थे । ऐसे ग्रन्थों में पद्ध कवि का महावीर रास ( संवत् 1609), नरसिंहपुरा जाति रास, भ. रतनचन्द्र का शान्ति नाथ पुराण (संवत् 1783), भट्टारक महीचन्द्र का लवकुश प्राख्यान श्रादि के नाम उल्लेखनीय हैं । 1. ग्रन्थों का विशेष विवरण देखिये- राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूची पंचम भाग |