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________________ 342 दर्शन समाधि, चारित्न समाधि प्रादि की विस्तृत व्याख्या की है। अन्तिम अध्याय में जैन परम्परा में ध्यान का ऐतिहासिक विश्लेषण प्रस्तुत है। इस लम्बी कालावधि में इतर साधना पद्धतियों से जो आदान-प्रदान हुआ है उसका सुन्दर विश्लेषण इस पुस्तक में है। इसे जैन योग का प्रतिनिधि ग्रन्थ माना जा सकता है। 5. योग की प्रथम किरण--साध्वी राजीमती:-प्रस्तुत पुस्तक में योग साधना के प्रारंभिक अंश आहार शुद्धि, शरीर शुद्धि, इन्द्रिय शुद्धि, श्वासोच्छवास शुद्धि आदि विषयों पर चिन्तन किया गया है। प्रासन प्रयोगों से होने वाले हानि-लाभ के विवरण के साथ-साथ स्वयं की अनुभूतियों का भी उल्लेख किया है। 6. अस्तित्व का बोध--मुनि नथमल:-प्रस्तुत पुस्तक में योग सम्बन्धी विचार अभिव्यक्त हुए हैं। 7. जागरिका--सं. मुनि श्रीचन्द्र, मुनि किशनलाल:-इस पुस्तक में लाडनूं में आयोजित एक मासीय साधना-सत्र में विभिन्न प्रवक्ताओं द्वारा प्रदत्त योग विषयक पचास प्रवचनों का संकलन है। इनमें जैन साधना पद्धति या जैन योग के मूलभूत तथ्यों का सुन्दर विवेचन प्रस्तुत है। प्रश्नोत्तरों के कारण विषय बहुत स्पष्ट होता गया है। कुछ क्रियात्मक प्रयोग भी विनिर्दिष्ट हैं। 8. मनोनिग्रह के दो माग-मनि धनराज (सरसा):-प्रस्तुत पुस्तक में स्वाध्याय और ध्यान को मनोनिग्रह के दो मार्ग बताकर जैनागमों में वर्णित ध्यान के चार प्रकारों का विवेचन किया गया है। अनूदित : 9. मनोनुशासनम्-प्राचार्य श्री तुलसी, व्याख्याकार मुनि नथमलः-प्रस्तुत ग्रन्थ में मन के अनुशासन की प्रक्रिया निरूपित की गई है । यह ग्रन्थ जैन योग में पातंजल योग सूत्र के समान सूत्रबद्ध तथा व्याख्या सहित है। 10. ध्यान शतक-जिनभद्रगणि, अन. मनि दलहराजः---इसमें ध्यान के भेद-प्रभेद,ध्यान का स्वरूप आलम्बन, प्रक्रिया और फल आदि का विवेचन है। सौ श्लोकों का यह लघुकाय ग्रन्थ जैन ध्यान पद्धति को समझाने में बहत सहायक हो सकता है। जैन दर्शन साहित्य : 1. जैन दर्शनः मनन और मीमांसा-मनि नथमल:--यह ग्रन्थ जैन दर्शन को समग्रता से प्रस्तुत करता है। इसके पांच खण्ड हैं। ग्रन्थ का पहला खण्ड भगवान ऋषभदेव से लेकर महावीर की परम्परा और कालचक्र का बोध देता है। दूसरे खण्ड में पुद्गल परमाणु,जीवन, प्राण, आत्मवाद, कर्मवाद, स्यादवाद के गहन-गम्भीर विषय पाटक के लिए सुगम्य बन गए हैं। तीसरे खण्ड में आचार मीमांसा है। इसमें मोक्ष प्राप्ति के लिए साधक को जीवन साधना का पथ दर्शन मिलता है। चौथे खण्ड में ज्ञान मीमांसा है। इसमें ज्ञान, इन्द्रिय, मन, मनोविज्ञान, चेतना का विकास, कषाय, भावना,ध्यान आदि विषयों पर विस्तृत चर्चा है। पांचवें खण्ड में प्रमाण मीमांसा है । ये पांचों खण्ड अपने आप में स्वतन्त्र ग्रन्थ रूप लिये हुए हैं । इनका एकत्र समाकलन जैन दर्शन को समग्रता से प्रस्तुत करने में सक्षम है। समीक्षकों ने इसे जैन दर्शन का प्रतिनिधि ग्रन्थ मानते हुए इस विद्या का अलभ्य ग्रन्थ माना है।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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