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________________ 389 का बड़ा अभ्युदय हुआ। देवकुलपाटक (देलवाड़ा), चित्तौड़ और करेडा में कई मन्दिर बने। यहां से कई शिलालेख, ग्रन्थ, प्रशस्तियां आदि मिली हैं। इन लेखों में वि. सं. 1495 का चित्तौड़ वि. स. 1496 का राणकपुर का शिलालेख मुख्य है। राणकपूर का शिलालेख मेवाड़ इतिहास के लिए बहुत ही उपयोगी है। मैंने "महाराणा कुम्भा" पुस्तक में इस पर विस्तार से लिखा है। शत्रुन्जय का जीर्णोद्धार चित्तौड़ के जैन श्रेष्ठि तोलाशाह ने कराया 'था। इसका एक शिलालेख वि.सं. 1587 का मिला है। इसमें प्रारम्भ में मेवाड़ के राजवंश का वर्णन आदि का उल्लेख है। बागड प्रदेश भी मेवाड़ की तरह जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र रहा था। यहां से ऊपर गांव की वि. सं. 1461 की एक महत्वपूर्ण प्रशस्ति मिली है जिसे मैंने "अनेकान्त" में प्रकाशित भी कराई है। इसमें प्रथम बार बागड के शासकों पर प्रामाणिक सामग्री प्रकाशित हुई है । इस प्रकार मध्यकाल में और भी कई लेख मिले हैं । महता नैनसी और उसके पिता जयमल के जालौर, फलोदी और नाडोल के लेख, थाहरुशाह भणशाली के जैसलमेर एवं लोद्रवा के लेख, मोहनदास मंत्री परिवार के आमेट आदि के लेख हैं। इस प्रकार कई महत्वपूर्ण सामग्री जैन लेखों से प्राप्त हुई है। इन शिलालेखों का क्रम इस प्रकार से मिलता है। प्रारम्भ में जैन तीर्थ करों की स्तुति, और बाद में सरस्वती आदि की वन्दना भी दी गई है। इसके बाद राजवंश वर्णन रहता है। बाबू की लूणिग वसही की प्रशस्ति में पहले श्रेष्ठि परिवार का वर्णन है और राजवंश वर्णन बाद में दिया गया है, किन्तु अधिकांश लेखों में राजवंश वर्णन के बाद ही श्रेष्ठि वंश वर्णन रहता है। श्रेष्ठि वंश के बाद साधुओं के गच्छ, परम्परा आदि का वर्णन रहता है, किन्तु कहीं-कहीं श्रेष्ठि वंश के पूर्व भी साधुओं का वर्णन दिया गया है। अंत में प्रशस्तिकार का वर्णन, खोदने वाले, लिखने वाले आदि का उल्लेख रहता है। सुरह लेखों में परम्परा इससे कुछ भिन्न होती है। ये दानपत्र के रूप में होते हैं। इसमें प्रायः न तो राजा का वंश वर्णन रहता है और न जैन साधनों का। इसमें केवल राजा विशेष द्वारा दिये गये दान ग्रादि का उल्लेख रहता है। अगर भमि दान में दें तो भूमि की सीमायें भी अंकित रहती हैं। अन्य दान पन होगा तो उसमें विशेष प्रयोजन का भी उल्लेख होगा। 3. यात्रा सम्बन्धी विवरण यात्रा सम्बन्धी विवरण प्रायः दो प्रकार के मिलते हैं। कुछ विवरण संघ यात्राओं के हैं जो मख्य-मख्य तीर्थों, जैसे प्राव, राणकपूर, चित्तौड, केसरियाजी ग्रादि स्थानों पर यात्रार्थ जाने के हैं। ये यात्री भारत के अन्य जैन-तीर्थों की यात्रा करते-करते राजस्थान में भी पाये प्रतीत होते हैं। दूसरे विवरण उन यात्रियों से सम्बन्धित हैं जो अकेले ही यात्रा करते थे। संघ यात्रानों के विशद वर्णन मिलते हैं। वस्तुपाल तेजपाल द्वारा संघ निकालकर यात्रा पर जाने का वर्णन बहुत ही विस्तार से मिलता है। चित्तौड के वि. सं. 1495 के शिलालेख में श्रेष्ठि गुणराज द्वारा संघ यात्रा निकालने यादि के वर्णन है। इस यात्रा में राणकपूर मंदिर के निर्माता श्रेष्ठ धरणा भी सम्मिलित हुआ था। मालवे से आये संघयात्री जसवीर को महाराणा कुम्भा ने तिलक लगाया और सम्मानित किया था। आबू में संघ यात्राओं के कई शिलालेख लगे हैं। वि. सं. 1358 जेठ सूदि 5 के लेख में लखावी के संघ की यात्रा की सूचना दी गई है। वि. सं. 1378 में रणस्तम्भपुर के विस्तृत संघ के वहां पाने का उल्लेख भी शिलालेख से ज्ञात होता है। इसी प्रकार वि. सं. 1503 में चन्देरी से संघ के पाने की सूचना मिलती है। राजस्थान में ऐसे संघ यात्रा सम्बन्धी कई और लेख मिले हैं। इनसे ज्ञात होता है कि राजस्थान में श्रेष्ठिगण
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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