SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 109 प्रस्तुत भट्टारक ज्ञानभूषण पहिले भट्टारक विमलेन्द्रकीर्ति के शिष्य थे और बाद में इन्होंने भद्रारक भवनकीर्ति को भी अपना गुरु स्वीकार कर लिया था। ज्ञानभषण एवं ज्ञानकीति । दोनों ही सगे भाई एवं गुरु भाई थे और वे पूर्वी गोलालारे जाति के श्रावक थे। किन संवत 1535 में सागवाडा एवं नोगाम में एक साथ दो प्रतिष्ठाएं प्रारम्भ हई। सागवाडा होने वाली प्रतिष्ठा के संचालक भट्टारक ज्ञानभूषण और नोगाम की प्रतिष्ठा महोत्सव का संचालन ज्ञानकीति ने किया। यहीं से भट्टारक ज्ञानभूषण वृहद् शाखा के भटारक माने जाने लगे और भट्टारक ज्ञानकोति लघु शाखा के गुरु कहलाने लगे।। एक नन्दि संघ की पट्टावली से ज्ञात होता है कि ये गुजरात के रहने वाले थे। गुजरात में ही उन्होंने सागार-धर्म धारण किया, अहीर (आभोर) देश में ग्यारह प्रतिमाएं धारण की और वाग्वर या बागड देश में दुर्धर महाव्रत ग्रहण किय। तलव देश के यतियों में इनकी बडी प्रतिष्ठा यी । तैलव दश के उत्तम पुरुषों ने उनके चरणां की वन्दना की, द्रविड देश के विद्वानों ने उनका स्तवन किया, महाराष्ट्र में उन्हें बहुत यश मिला, सौराष्ट्र के धनी श्रावकों ने उनके लिए महामहोत्सव किया। रायदेश (ईडर के आस-पास का प्रान्त) के निवासियों ने उनके वचनों को अतिशय प्रमाण माना, मेरूभाट (मेवाड) के मुर्ख लोगों को उन्होंने प्रतिबोधित किया, मालवा के भव्यजनों के हृदय-कमल को विकसित किया, मेवात में उनके अध्यात्म-रहस्यपूर्ण व्याख्यान से विविध विद्वान श्रावक प्रसन्न हुए। कुरुजांगल के लोगों का अशान रोग दूर किया, वैराठ (जयपुर के आस-पास) के लोगों को उभय मार्ग (सागार, अनगार) दिखलाये, नमियाड (नीमाड) में जैन धर्म की प्रभावना की। भैरव राजा ने उनकी भक्ति की इन्द्रराज ने चरण पूजे, राजाधिराज देवराज ने चरणों की आराधना की। जिन धर्म के आराधक मुदलियार, रामनाथराय, बोम्मरसराय, कलपराय, पांडराय आदि राजाआने पूजा की और उन्होंने अनेक तीर्थों की यात्रा की। व्याकरण-छन्द-अलंकार-साहित्य-तक-आगम-आध्यात्म आदि शास्त्र रूपी कमलों पर विहार करने के लिए वे राजहंस थे और शुद्ध ध्यानामृत-पान की उन्हें लालसा थी। ये उक्त विवरण कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण भी हो सकता है लेकिन इतना अवश्य है कि ज्ञानभूषण अपने समय के प्रसिद्ध सन्त थे और उन्होंने अपने त्याग एवं विद्वत्ता से सभी को मुग्ध कर रखा था। ज्ञानभूषण भट्टारक भुवनकीति के पश्चात सागवाडा में भट्टारक गादो पर बैठे। अब तक सबसे प्राचीन उल्लेख संवत् 1531 बैशाख सुदो 2 का मिलता है जब कि इन्होंने डूगरपुर में आयोजित प्रतिष्ठा महोत्सव का संचालन किया था। उस समय डूगरपुर पर रावल सोमदास एवं रानी गराई का शासन था। ज्ञानभूषण भट्टारक गादी पर संवत् 1531 से 1557-58 तक रहे । संवत 1560 में उन्होंने तत्वज्ञान तरीगणो की रचना समाप्त को थो इसको पुष्पिका में इन्होंन अपन नाम के पूर्व मुमक्ष शब्द जोडा है जो अन्य रचनाओं में नहीं मिलता। इससे ज्ञात होता है कि इसा वष अथवा इससे पूर्व ही इन्हान भट्टारक पद छोड दिया था। साहित्य साधना ___ज्ञानभूषण भट्टारक बनने से पूर्व और इस पद को छोड़ने के पश्चात् भी साहित्य-साधना में लगे रहे। व जबरदस्त साहित्य सेवो थे। प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी, गुजराती एवं राजस्थानी 1. देखिये भट्टारक पट्टावलि शास्त्रभण्डार भ. यशः कीति दि. जैन सरस्वती भवन ऋषभदेव, (राजस्थान) 2. देखिये पं. नाथूरामजी प्रेमी कृत जैन साहित्य और इतिहास पृ. 381-82 3. संवत् 153 1 वर्ष वैसाख धुदी 5 बुधे श्री मूलसंधे भ.श्री सकलकोतिस्तत्पट्टे भ. भुवनकोति देवास्तत्पट्टे भ. श्री ज्ञानभूषणस्तदुपदेशात् मेघा भायो टीग प्रणमति श्री गिरिपुर रावल श्री सोमदास राजी गुराई सुराज्ये ।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy