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मुनि समावद एवं उनका पर्मपुराण
जो सहस्र रसना करि भएँ । राम नाम गुण जाइ न गिने । जैसे वृक्ष महा उत्तुग। जाके फल दीसै सुभरंग ॥२७।। योनी देषि देषि ललचाय । घे फल कैसे मौना षाय ॥ वह ऊंचा यह नीची देह । क्यों वा फल कू' पावं एह ।।२८१ जे मंगल माने मययंत । उनी उखारि डार जु तुरंत ॥
वे फल बीम बौना नै लिये । प्रेस जिनगुण सुग्म कर दिये ।।२९।। भाषा संवर्षल का सेल
केवल वाणी सुण्यां बान । पंजित मुनीवर रच्या पुराण ।। प्राचार्य रविषेण महंत । संस्कृत मैं कौनी अन्य ॥३०॥ महा मुनीस्वर म्यांनी गुनी । मप्ति अति प्रवधि ग्यांनी मुनी। महा निर्गन्थ तपस्वी जती । कोष मान माया नहीं रती ॥३१॥ मारिषो वानी शास्त्र किया। धर्म उपदेश बहु विष दिया । जिसके भेदाभेद अपार । महा मुनीस्वर कह बिचार ॥३२॥ जैसे रवि का होइ उदोस । भाजे तिमिर निर्मला होत ॥
इस विधि सुनिकं मिट संदेह । मिथ्या तजि समकित सुनेह ।।३३॥ रखना काल
संवत सबहले मारह परम सुन्या भेद जिनवारणी सरस ।।
फाल्गुन मास पंचमी स्वेत । गुरुवासर मन मैं परि हेत ॥३४।। कवि का नाम
सभाचद मुनि भया प्रानन्द । भाषा करि चौपई छंद ।।
सुनि पुरान कीनो मडान । गुनि जन लोक सुनुदे कान ॥३५।। राजगृही नगरी की सुन्दरता
जबद्वीप में भरत षंड । मगध देस राजग्रही प्रचंड ।। ऊंचे मंदिर हैं सत खिने । सब ते सरस राय के बने ॥३६॥ बसें सघन दीस नहीं मंग । लिखे चित्र जिमें भले सुरंग ।। उज्जल बरण धवल हर किये । छत्री कलस कनक के दिवे ॥३७॥ बनी जु बैठक नाना भांति । जिनकी लोग लिगरहे जात ।। प्रति उत्तुंग संवारी पालि । लगे कबाड बीमे सन ठौर ||३|| झारि मरेखे सोभा भली। देखत उपजै मननी रली॥
मागं सूत रच्या बाजार । चौडी नींव लई सुसंवारि ॥३६॥ व्यापार उद्योग
भले भले प्राये सुत्रधारि । मंदिर रचे बड़े विस्तारि ॥ यहां सराफ सराफी करें । बोल सत्ति झूठ परिहरे ।।४।। कसै कसोटी परष दाम । लेवा वेई सहज विधाम ॥ वीच बाजार रहैं जोहरी । मणिमारणक हीरा लाल खरी॥४१॥