Book Title: Muni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 538
________________ ४७२ निहां तहां परवत दिखलाई। भाज न पायें सतरा !! पाथर पढ़ें जिम बरसें मेह । सुष न रही दुष्टों की देहु ।। ५५०३ ॥ निकरण के पार्टी नहीं गली । महा संकट सेन्या सिंह मिली | भैसा दल कहीं देख्या नाहि । रामचन्द्र गति का नहीं थाह ||५५०४ ॥ रामचंद्र सौं मांख्या जुष ।। विन प्राग्या श्रभी मान रमे ।। ५५०५ ।। हमारा इनर्सों कबहुं न चला || । दिष्या ले साथै धरम का काज ॥५५०६ ।। घरम द्वार देखें एंड राइ || हमारी महा हीन है बुधि । भभीषण मनें करें था हमें ए ईश्वर उनकी बड़ी कला। अब जे निकसरण पाव भाज जटा देव दया मन भाव । कार रत्न बज्रमाली नरेस रतनवेग मुनिवर पे जाइ । दिक्षा लई करि मन बच काइ ।। सहे परीस्या बीस प्रर दोइ । महा मुनीस्वर जिह विधा होइ || ५५०८१ दोन्युं भए बिगम्बर भेस ।।५५०७।। जटा देव साध्य कु देखि । नमस्कार उन किया परेष || धन्य जती जे सार्व' जोग । सधैं सकल माया का भोग ।।५५०६ ।। कुतलिय द्वारा राम को समझाने के लिये माया रचना पुराण कृतांत सूर अन्य जटा देव । इनु रच्या माया का भेव ॥ मारग मांहि क सुकी दाल । क्यारी रवी भति ही सुविसाल ||५५१० ।। कुबा उलीच सींचें नीर । बाडि बनायें वाके तीर ॥ रखवाली करें बहु भांति | बरजे सर्व कू' भीतर जात ।। ५५११ ।। रामचंद्र देख्या यह सूल । रे मूरख तुम काहै भूल ।। I सुकी लकड़ी किम ह्न षडी से एती क्युं करी जडी ||५५१२|| बिन कारज एता दुख सहै । सुकी डाल ए फल कहां है ॥ तब माली ने उत्तर दिया। तुम कां मृतक काँध लिया ।।५४१३ ।। इह जीव तो इह उपजे सहीं । सूकी डाल ए भी फल यही ॥ इतनी सुरण कोप्या रामचन्द्र । वन में भी हम कु दुख दुदे ।। ५५१४ । कुबचन लाग || वा कारण बसती कु त्याग । इह भी हम कहां मारू माली सिरं चोट । सा बचन का इन खोट २५५१५।। मेरा वीर रुट के रह्या मृतक कहें इन मेद न लह्या ॥ हो लग्नमरण सुरण छह बात । माली बचन कहें यह भांति ।।५५१६ ।। उठो बेगि लगाऊं हाथ सी कहै न काढू साथ || तज मैं क्यारी सब काहि । श्रये चल्या रघुपति राइ ।। ५५१७ ।

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