Book Title: Muni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 550
________________ ४८४ पप्रपुरा रोग सोग बहु पीडा सही। जैन धर्म सो पीत न गही ।। जे बहु कर दान तप जाप । समकित बिना न टूट पाप ।।५६६४।। प्रत्र सानो दिसपट नित्त । केल नाली पानौं नित्त ।। अंसी सुशि में प्रस्तुति करी । धन्य सीतेन्द्र दया चित घरी ।।५६६५।। हम लो समोध्या दया निमित्त । निसचल रख्या इक समकित्त ।। वैति दिमाग चल्या प्राकाम । अच्युत स्वर्ग जिहां था बास ।।५६६६।। नरक देखि भया भयभीत । हीयो पदक काप चित्त ।। से दुम्न भुगते कई बार । हडित जीव न पायो पार ।। ५६६७।। __रान केवली राम के पास प्रागमन श्री रामचन्द्र क केवलझान । चले प्रमर सुगि घरम बयान ।। नारन तरन श्री रामचन्द्र । दरसन देखत होइ आनन्द ।।५६६८८।। सीतेन्द्र के संग सुर घने । किनर गंधर्व बहुतै बने ।। कंसाल ताल बार्ज बांसुरी । बीरा मृदंग की सोभा खरी ।।१६६६ ।। करं नृत्य गावे बहु गील । रामचन्द्र गुण सुमरण चित ।। पाये देव महोच्छा कारण । समोसरण देख्या दुख हरण ।।५६७०।1 समवसरण बारह सभा कोठी तिहठोर । निरमल दीसै च्यारू पोर ।। वन की सोभा अति रमणीक । फुले फल दे दीस नीक ।।५६७१।। जाणों भूमि रत्न मारण खरी । अंसी जुगति देवतां करी ।। देई प्रक्रमा सिष्टाचार । प्रस्तुति पर्दै वे बारंबार ॥५६०२।। तुम सम राम अवर नहीं बनी । मोह करम की प्रगति दली ।। ग्यांन खडग सो करम बस किये । उत्तम ध्यांम विचारधा हिये ।।५६७३।। परिसह, पवन ते पाप उडाइ । प्रसे तप साध्या मुनिराइ । सुकल ध्यान सों केवल पाई । भव जल पडे लगे दिग अाइ ।।५६७४।। जो तुम पाया मारग मोष्य । हम संगि अपणो यो मोष्य ।। हमारी थी तुम 'परि बह मया । पहुंचानो मुति करी पर दया । ५६७५।। रामचंद्र इमि वाणी काहैं । जिनवाणी जे मन बन गहैं ।। तब कोई पाने सरग मुक्ति । तेरह विध सों घर चारित्र ।।५६७६|| अब लग क्रोध क माया मान । लोभ काम ते भ्रम अम्यान ।। पाथर को हीया तल राखि । जमग तिरया चाहे धरि कांपि ।।५६७७।।

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