Book Title: Muni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 548
________________ पनपुराण चौपई सीतेन्द्र लखमण चित अांन । वह राखें था मेरा मान । सेव हमारी कीनी घणी । उसको महिमा जाइ न पिणी ।।५६३६।। नरला बालुका भूमि तीसरी । ताकी गति भैसी स्थिति पड़ी ।। अब मैं चाक् काकू जाई । अं से देव विचार भाइ '1५६३७॥ मानुषोत्र पर्वत के निकट । तिहां बहुते मारग निकट ।। पस्या देव बालुका ठाव । राज्य सरूप है संबुक नाम ।।५६३८।। लखमण कु' देव बह श्रास । मारै मुदगर बांरण का नास || फिर कर बिषर होइ इह देख । पल पल' मारि करें इह खेद ।।५६३६।। पारा झ्यू बिखरं कर । मार मार सबद बहु करें। जे जुझे थे रावण संग | भारत रुद्र में तज्या था मंग ||५६४०।। ते थी सकल भया एक ठोर 1 भुगतै दुख करें अति घोर || छेदन भेदन मूदगर मार । स हैं बेदना अगम अपार ॥५६४१।। भोजन रयण मांस जो खाई । म मधु सुरापान ज्युअचाइ ।। उंबर न करबर भखें । साता चंड शोह फर्क ॥५६४२३॥ होट चीर ठोंसे हैं प्यड । ऊपर ते ठोके हैं इंड ।। तातो रांग डाल सुख मांहि । सुरा पान का ए फल प्रांहि ।।५६४३॥ करें याखेट हुनै बहु जीव | सुला रोप्म दुख की नीव ॥ छेदन भेदन बारंबार । ज्वारी घोर का काट हाय ।।५६।४।। परनारि बेस्या सुरत्त । लोह फूतली कीजे जफत || जोर भिटाने वे ही जुई । सात विसन का ए दुख मरै ।।५६४५।। वैतरणी मैं दीजे हारि । मच्छु कछ लें काया फाहि॥ कोई रूप सिंघ कोई स्नान । भर्ख देह दुख पांव प्रान ।।५६४६।। जिसका था तिसको कुछ वरं । देह परीस्या उनकू धरै ।। सीतेन्द्र लखमण कु जांनि । सबुक ने समझाया ग्यान ।।५६४७।। भारत रुद्र सेती इस गसि । अजहु मूक न चेत्यो चित्त ।। देख नारकी भय चिक करेइ । इहतो देव क्रांति बहु लहेइ ।।५६४८।। मुरनं देय व गए सांत । मुझे संब्रुक देव कु बात ॥ प्रघर छोडि पाए तिहां घणे । राखो देव सरण पापणे ।।५६४६।।

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