Book Title: Muni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीर ग्रंथ अकादमी-प्रष्टम पुष्प मनिसमाचन्द उनका पद्मपुराण एवम (जेन रामायण) (संवत् १७११ में मुनि सभाधन्द द्वारा छन्दोबस हिन्दी का प्रथम जैन पमपुराण-विस्तृत प्रस्तावना सहित) लेखक एवं सम्पादक डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल एम. ए. पी-एच. डी., शास्त्री प्रकाशक श्री महावीर ग्रंथ अकादमी, जयपुर प्रथम संस्करण-अक्टूबर १९८४. (वीर निर्वाण-सं. २५१०) मूल्य-८०.०० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जैन अन्यागार हिन्दी साहित्य के विशाल महार है। में ही पाण्डुलिपियों की खोज अभी प्रात्री मी नहीं हो सकी है। राजस्थान के प्रमुख शास्त्र भण्डारों की यद्यपि पांच भागों में सूची प्रकाशित हो चुकी है लेकिन अभी तक राजस्थान में भी कितने ही ऐसे भष्टार हैं जिन्हें कभी देखा नहीं जा सका। ऐसे ही भण्डारों में एक टोंक जिले में स्थित डिग्गी कस्बे के दिगम्बर जैन मन्दिर का शास्त्र भण्डार है जिसको देखने का मुझे गत वर्ष अगस्त५३ में सौभाग्य मिला और उसी समय कितनी ही प्रचचित कृतियों की प्राप्ति हुई । ऐसी प्रचित कृतियों में मुनि सभाचन्द्र विरचित हिन्दी पद्म पुराण का नाम विशेषत: उल्लेखनीय है । जैन साहित्य में राम के जीवन पर सभी राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक भाषाओं में विशाल साहित्य मिलता है। वस्तुतः राम जिस प्रकार महाकवि वाल्मीकि एवं तुलसीदास के पाराष्य रहे हैं उसी प्रकार के विमलसूरि, स्वयंमू, रविषेणाचार्य एवं पपवन्त जैसे महाकचियों के काश्यों के नायफ है । राम ६३ शलाका महाष रूषों में + बैं बलभद्र हैं जी उसी भव से मोक्ष जाते हैं। रामकथा का उद्भव एवं विकास : बेदों में रामकथा का कोई महत्वपूर्ण स्रोत प्रथदा उल्लेख नहीं मिलता नहीं मिलता | ऋग्वेद में इक्ष्वाकु (१०६०।४) एवं दशरथ (१।१२६।४) नामों का उल्लेख अवश्य मिलता है लेकिन वे रामकथा के अंगभूत नहीं है । इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण (१०।६।१।२) तैत्तरीय साह्मए (३।१०१६) जमनीय ब्राह्मणा (१।१६।२०६३) छन्दोग्योपनिषद (५.११॥४) वृहदारण्यकोपनिषद (३.११) में जनक का जो उल्लेख मिलता है वह रामकथा के उरस फूटते भर मालूम पड़ते है । संस्कृत भाषा में वाल्मीकि रामायण का जो वर्तमान रुप उपलब्ध है वह सभी . उपलब्ध राम कथा काव्यों में प्राचीनतम है । लेकिन विदेशी विद्वान् डा० बेबर के मत में राम कथा का मूल रूप दधारण जातक में सुरक्षित है। इसी तरह डा० सेन के १. ए. वर--मान दि रामायण पृष्ठ ११ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना मतानुसार राम कया के मुख्य स्रोत दशरथ जातक एवं रावण सम्बन्धी प्रारुयान लेकिन राम कथा को जितनी लोकप्रियता वाल्मीकि रामायण ने प्रदान की उतनी सोकप्रियता इसके पूर्व कभी प्राप्त नहीं हुई। वाल्मीकि रामायण के रचनाकाल पर विद्वानों के विभिन्न विचार हैं उनमें वेल्वलकर ई.पू. २०० तक, चिन्तामणि विनायक बंच ने ईसा पूर्व १२०० में २०० ईस्वी पश्चात् तका, फादर बुल्के ने ६०० ईसा पर्व तक, कीथ ने ४०० ई. पूर्व तक, विटरनिटा ने ३०० ईसा गर्न तक, बलोग अध्यार दे ५०० ईसा पूर्व तक तथा महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने १५० से २०० ईसा पूर्व तक माना है। राम कथा के विद्वानों के मतानुसार इतना अवश्य कहा जा सकता है कि महर्षि वाल्मीकि को गमायण ईसा के ४००५०० वर्ष पूर्व ही लोकप्रिय बन चुकी थी लेकिन उनकी इस रामायण के वर्तमान रूप को प्राप्त करने में उसे अवश्य ही ७००-८०० वर्ष लगे होंगे और ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दि तक उसे वर्तमान स्वरूप प्राप्त हो गया होगा। जैन धर्म में राम का स्थान : भगवान राम आठवें बलभद्र हैं जो २० वें तीर्थ कर मुनिसुव्रतनाथ के शालनकाल में हुए थे। लेकिन राम का जीवन मुनिसुव्रतनाथ के शासन काल से लेकर भगवान महावीर तक मौखिक रूप से ही चलता रहा और किसी ने लिपिबद्ध किया भी हो तो उसका कोई उल्लेख नहीं मिलता । भगवान महावीर के निर्वाण के बाद जब ग्रन्थों के लिपिवद्ध करने का निर्णय लिया गया और प्राकृत भाषा में सिद्धान्त अन्यों को सूत्र रूप में लेखबद्ध किया जाने लगा। लेकिन गमकथा का प्राकृत भाषा में पउमचरिय के रूप में काव्यबर करने का श्रेय प्राचार्य विमल सूरी ने प्राप्त किया। पड़ मचरिय महाराष्ट्री प्राकृत का सुन्दरतम महाकाव्य है जिसकी रचना बीर निर्धारण संवत् ५३० में हुई थी । पूरा काव्य ११८ संधियों में विभक्त है । पंषवे याससया दुलमाए तीस बरस संजुत्ता । धीरे सिर मचाये तमो निबद्ध इमे चरियं । . तिलोयपण्णात्ति प्राकृत भाषा का महान ग्रंथ हैं इसमें २४ तीर्थकों नारायण, ६ प्रतिनारायण, ६ बलभद्र एवं १२ चक्रवतियों के जीवन के प्रमुख १. दिनेसचन्द्रसेन–६० बंगाली रामायण पृष्ठ ३, ७, २६.४१ प्रादि Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय देश के जन ग्रंथागार हिन्दी ग्रंथों की पाण्डुलिपियों के लिए नितने समृय भण्डार हैं उतने दूसरे ग्रंथागार नहीं है । इन ग्रंथालयों में ५० प्रतिशत से भी अधिक संग्रह हिन्दी ग्रंथों का रहता है जो विगस ४००-५०० वर्षों में लिखा गया है इसीलिए किसी भी ग्रंथ' भण्गर को शोष खोज एवं सूचीकरण का परिणाम प्रबर्षित एवं प्रज्ञात कृतियों की प्राप्ति होती है। मैने प्रभी विगत वर्ष एवं इस वर्ष में जितने शास्त्र भण्डार देने हैं उनमें प्रत्येक में हिन्दी की प्रचित कृतियां प्रकरण मिली है। प्रस्तुत पद्मपुराण की उपब्धि भी सन् १९८३, टिम्गी (राजस्थान) के । भास्प भण्डार को देखते समय हई थी। जब पदमपुराण की पाण्डुलिपि मिली तो भानन्द से मन उछल पड़ा और मपूर्व प्रसन्नता छा गयी । पाण्डुलिपि की बहुत समय सक देखता रहा कि कहीं देखने में भ्रम तो नहीं हो रहा है । इसी शास्त्र भण्डार में मुझे धनपाल कषि के ऐतिहासिक गीत, भ. महेन्द्रकीत्ति के प्राध्यामिक पद भी उपलब्ध हुए हैं जो इसके पूर्व प्रज्ञात एवं प्रमुपलब्ध माने जाते थे। वास्तव में राजस्थान, बेहली एवं प्रागरा मंडल के जैन कवियों ने हिन्दी की जितनी सेवा की है वह साहित्यिक इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से लिखने योग्य है लेकिन उनकी शुङ साहियिक सेवामों को भी साम्प्रदायिक नाम देकर उसे हिन्दी साहित्य के इतिहास में मविदेरुप घोषित कर दिया गया जिसका परिणाम जैन कवियों द्वारा निबद्ध हिन्दी साहित्य के साथ उपेक्षा का व्यवहार होता रहा है। श्री महावीर ग्रंथ पकादमी की स्थापना के पीछे यही एक भावना रही है कि शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत रचनामों को प्रकाश में लाया जावे और उममें भी प्रम तक अशाप्त एवं प्रचचित कवियों एवं उनकी रचनामों को प्रमुखता दी जावे। मुझे यह लिखते हुए प्रसन्नता है कि अब तक प्रकाशित भाठ भागों में पाये हुए अधिकांश कवि अशात एवं प्रचित हैं जिनमें ब्रह्म रायमल्ल, भट्टारक त्रिभुवनकोत्ति, बुधराज, छीहल, ठक्कुरसी, गारबदास, चतुरूमल प्र. जिनवास, भ. रत्नकोति, कुमुववन्द्र,प्रा. सोमकीति,ब. यशोषर, स्व.लाखीचन्द, बुलाकीदास,हेमराज, बाई भजीतमति, धनपाल, देवेन्द्र व महेन्द्रकीनि एवं मुनि सभापन्द के माम विशेषता उल्लेखनीय है । लेकिन निरन्तर खोज एवं शोध के कारण हिन्दी भाषा के जैनकवियों Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है जो वस्तुतः स्वागत योग्य है लेकिन संख्या में वृद्धि के कारण उन्हें २० भागों में समेटना कठिन प्रतीत होने लगा है । पद्मपुराण कमानक एवं भाषा की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है । हिन्दी में मुनि सभाचन्द्र द्वारा विरचित प्रस्तुत पद्मपुराण पुराणसंज्ञक प्रथम कृति है इसलिये इस पुराण कृति का महत्त्व और भी बढ़ गया है। पद्मपुरा - पउमचरिय-पउमचरिउ - पद्मचरित पद्मपुराणसंज्ञक कितनी ही कृतियां विभिन्न विद्वानों ने लिखी है। वैष्णव श्रमं के १८ पुराणों में पद्मपुराण भी एक पुराण है। प्राचार्य रविषेण प्रथम जैनाचार्य है जिन्होंने वीं शताब्दि में ही पपुराण जैसा ग्रंथ निवस करने का गौरव प्राप्त किया जिसका अनुसरण मागे होने वाले कितने ही कवियों ने किया और विभिन्न नामों से पद्मपुरा के कथानक को छन्दोबद्ध किया । प्रस्तुत पद्मपुराण पर राजस्थानी भाषा का सबसे अधिक पुट है । सामाजिक रीति-रिवाजों के विशेष अवसरों पर मिष्ठान्न एवं खाद्य सामग्री के नामों का उल्लेख, जोधपुर एवं उदयपुर जैसे नगरों के उल्लेख इस बात का द्योतक है कि कवि का राजस्थान वासियों से अधिक सम्पर्क था । यह भी सम्भव है कि वह स्वयं भी इन नगरों में जाकर शोभा बढ़ायी हो । पद्मपुराण एक कोश ग्रंथ के समान है जिसमें विभिन्न मन्दावलियों के प्रतिरिक्त वनस्पतियों, विभिन्न प्रकार के फूलों, ग्राम एवं नगरों के नामों का जो उल्लेख हुआ है वह अपने आप में अद्वितीय है । पुराण में विभिन्न पात्रों के इतने अधिक नाम हो गये हैं कि उनको याद रखना भी कठिन प्रतीत होता है लेकिन सभी पात्र इतने आवश्यक भी हैं कि उनके बिना कथानक यधूरा ही प्रतीत होने लगता है । पुराण में ऋषभदेव एवं महावीर के जीवन पर अच्छा इतिबुल दिया गया है। २०वें तीर्थंकर सुनिसुव्रतनाथ का जीवनवृत्त तो पद्मपुराण कथानक का एक भाग ही है क्योंकि पुराण के नायक राम, लक्ष्मण, सीता हनुमान, राजा जनक, सुग्रीव एवं प्रति नायक रावण, कुम्भकरण, खरदूषण तथा अंजना, पवनंजय, लव कुश सभी उन्हीं के शासन काल में हुये थे । सगर चक्रवर्ती एवं भरत बाहुबली का व्यक्तित्व भी पद्मपुराण में अंकित है। जिसके प्रभाव में पद्मपुराण का इतिवृत्त पूरा भी नहीं हो पाता । पद्मपुराण में विद्यानों के सहारे अधिक लड़ाई होती है प्रोर बिना विद्याओं की सहायता के निर्णायक युद्ध नहीं लड़ा जा सकता है। रावण को अपनी विद्यार्थीों पर बड़ा गर्व था किन्तु सही गर्न उसे ले बैठता है क्योंकि यह भी सही है कि पुण्यशाली व्यक्तियों पर विद्याओं का कोई प्रसर नहीं होता है । संबुक की १२ बर्ष की साधना के पश्चात् भी सूरजहास प्राप्त नहीं हो सका जबकि लक्ष्मण को वह स्वतः ही प्राप्त हो गया। रावण के साथ युद्ध के उत्कर्ष काल में राम लक्ष्मण को Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवों ने विषय वस्त्र प्रदान किये। रावण द्वारा बनाया गया चक्र लक्ष्मण के हाथ में आ गया और फिर बी से रावण की मृत्यु हर्ष पद्मपुराण जैन धर्म का प्रमुख कथानक पुराण है जिसका विगत १२०० - १३०० वर्षों से प्रत्यभिक स्वाध्याय होता रहा है। पद्मपुराण के पश्चात् हरिवशपुराण एवं महापुराण की रचनाएं हुई जो प्रथमानुयोग ग्रंथों के विषय विवेचना का भारता। इन ग्रंथों के अध्ययन से वाषकों को बेसह मालाका पुरुषों के जीवन की एवं दूसरे पुण्यशील व्यक्तियों के जीवन की जानकारी मिलती है जो जीवन को नया मोड़ देने में समर्थ है प्रस्तुत भाग में पद्मपुराण की एक मात्र पाण्डुलिपि के आधार पर ही मूल पाठ दिया गया है। पाठ भेद अन्य प्रतियों के प्रभाव में नहीं दिये जा सके लेकिन एक मात्र उपलब्ध पाण्डुलिपि बहुत ही स्पष्ट एवं शुद्ध लिखी हुई है। इस पुराण के रचयिता मुनि समाचन्द काष्ठासंघ भट्टारक पराम्परा के सन्त थे । वे काव्य रचना में अत्यधिक कुशल थे इसलिये पद्मपुराण जैसे महाप्रबंध के कमानक को अपने पद्मपुगरण में समेट लिया। उन्होंने दोहा, चोपई सोरठा जैसे लोकप्रिय छन्दों का प्रयोग करके अपनी कृति को और भी जन-जन की कृति बना दी । पद्मपुराण के सभी प्रमुख पात्रों के पूर्वभव का भी वर्णन किया गया है जिसका प्रमुख उद्देश्य पूर्वकृत कर्मों के प्रभाव को बतलाना है। यही नहीं विशिष्ट वर्तमान जीवन में शुभ मशुभ पथमा छष्ट बियोग एवं अनिष्ट का संयोग बिना कर्मफल के नहीं होता। राम लक्ष्मण सभी प्रमुख पात्रों के पूर्व भवों का वन किया है जिसके कारण उन्हें वर्तमान जीवन में विभिन्न कष्टों का सामना करना पड़ा है। इस प्रकार के प्रसंगों से पाठकों के मन पर गहरी चोट लगती है मौर से शुभ कार्यों की घोर प्रवृत्त होते हैं। J अन्त में कविवर कविवर सभाजन्य ने पद्मपुराण की प्रशंसा करते ये लिखा है जो कोई भी पद्मपुराण को पढ़ेंगा उसके मिध्यात्व का नाश होगा और अन्त में स्वमंत्राभ होगा । पैसा है यह पदम चरित्र, मिया मोह मिटे भव सत्र पर्व पर कई बखान, पावे स्वर्गादेव विमान ।। ५७४६ ।। पद्मपुर की पाण्डुलिपि को प्रकाशन के लिए देने हेतु मैं दिगम्बर जैन मन्दिर जिसी के व्यवस्थापकों का एवं विशेषतः श्री माणकचरवजी मेठी का बाभारी हू भाषा है मन्य शास्त्र भण्डारों के व्यवस्थापकों का भी इसी प्रकार सहयोग मिलता रहेगा जिससे साहित्य प्रकाशन का कार्य व्यवस्थित रूप से होता रहे । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्त में मैं अकादमी के संरक्षक माननीय श्री कमलबवणी सा. कासलीवाल का पाभारी हूं जिन्होंने पुस्तक पर एवं पकादमो की योजना पर दो सम्म लिये है। श्री कासलीवाल जी नगर के उद्योगपति ही नहीं है किन्तु प्रमुख समाज सेवी भी है। इसी तरह में प्रकावमी के अध्यक्ष माननीय श्री शांतिलाल जी जैन कलकत्ता का भी भाभारी जिन्होंने अपना संक्षिप्त वकव्य लिखा है। पाप युवा व्यवसायी है तथा धार्मिक एवं साहित्यिक क्षेत्र में बराबर योगदान देते रहते है। रा. कस्सूर काम कासलीवाल जयपुर २ अक्टूबर १९९४ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकादमी--प्रगति पथ पर 'मुनि सभाधन्व एवं उनका पद्मपुराण' को पाठकों एवं माननीय सदस्यों के हाथों में देते हुए प्रकादमी के निदेशक मंडल को प्रत्यधिक प्रसन्नता है । अकादमी का यह प्रांठया पुष्प है और इसी के साथ सम्पूर्ण योजना की क्रियामिति में ४० प्रतिशत सफलता प्राप्त कर ली गयी है । यद्यपि प्रभी ६० प्रतिशत कार्य बाकी है लेकिन अगले पांच वर्षों में हमारी योजना पूर्ण हो जावेगी ऐसा हमारा पूर्ण विश्वास है ।। से सभी हिन्दी जन कवियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को 20 भागों में पुस्तक बद्ध कर लेना अत्यधिक कटिन का है क्योंकि खोज एवं शोध में नये-नये काबि मिलते रहते हैं जिन्होंने हिन्दी साहित्य के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । ऐसे कयियों को हम इस योजना में प्रथम स्थान देना चाहते हैं। मुनि मापन्द, बाई प्रजीतमति, धनपाल, भ.महेन्द्र कीर्ति, सांग, बुलाखीचन्द, गारवदास, चतुरूमल, ब्रह्म पशोधर ग्रादि कुछ ऐसे ही कवि है जिनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व दोनों ही सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य की थाती है । अष्टम पुष्प में केवल एक ही कवि एवं उसके पद्मपुराण को ही दे सके हैं लेकिन यह एक ही कवि कितने ही कवियों के बराबर है और उसका पद्मपुराण हिन्दी की अमूल्य कृति है। अब तक हिन्दो पद्मपुराण का इतिहास पं. खुशालचन्द काला से प्रारम्भ होता था जिन्होंने संवस १७७३ में पद्यबद्ध पद्मपुराण की रचना की थी लेकिन प्रस्तुत पद्मपुराण के प्रकाशन से उसका इतिहास ७२ वर्ष पूर्व चना जाता है । जो एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। सप्तम पृष्ठा का विमोचन महमदाबाद नगर में अप्रैल ८४ में पंचकल्याणक गजरथ महोत्सव पर प्रायोजित समारोह में यहां के प्रमुख व्यवसायी एवं धर्मनिष्ठ श्री राधेश्यामजी सरावगी द्वारा किया गया था। इसके लिये हम आपके एवं महोत्सव के संयोजक डा. शेखर जैन के प्राभारी हैं। विमोचन के अवसर पर अकादमी के मरक्षक एवं प्रभा. दि. जैन महासभा के अध्यक्ष माननीय श्री निर्मल कुमार जी सेठी ने अकादमी को अपनी शुभकामनाएं देते हुए महासभा की ओर से ५००० रु. की Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्थिक सहायता की भी घोषणा की थी। सेठी सा. की प्रेरणा से ही कलकत्ता के प्रमुख समवसायी श्री शांतिलाल जी जैन ने प्रकादमी के अध्यक्ष पद को स्वीकारा है। प्रकादमी के प्रति सेठी सा. के महत्वपूर्ण सहयोग के लिए हम प्राभारी है। इसके पूर्व अकादमी का छा पुष्प "बुलाखी वन्द बुलाकीदास एवं हेमराज" महामहिम राष्ट्र पति श्री ज्ञानी जैलसिंह जी द्वारा विमोचित हुआ था जो संस्था के इतिहास में एक महत्वपूर्ण पालेख्न रहेगा। नये सवस्यों का स्वागत ___ सप्तम भाग के विमोचन के पश्चात् जयपुर के प्रसिद्ध रत्न व्यवसायी श्री नानगराम पी ग जौहरी प्राकामी iihiइने ।की : नगर के प्रसिद्ध समाज सेवी, उदारमना एवं वर्मनिष्ठ व्यक्ति हैं। जैनाचार्य मुनि श्री विद्यानन्द जी महाराज के संघ को देहली से जयपुर लाने, जयपुर में चातुर्मास की व्यवस्था करने में प्रापने यशस्वी कार्य किया था । आपकी पस्नी एवं सभी पुत्र प्रापके पदचिह्नों पर चलने वाले हैं । अकादमी के सहसंरक्षक के रूप में हम आपका हार्दिक स्वागत करते है। अकादमी के सह संरक्षक सदस्य बनने वालों में जयपुर के ही श्रीकपूरचन्दगी भौसा के हम पूर्ण भाभारी है तथा प्रकाश्मी परिवार के रूप में हम खनका हार्दिक स्वागत करते हैं। श्री कपूरचन्दजी भौंसा नगर के सम्माननीय व्यक्ति हैं तथा सभी सामाजिक संस्थानों को अपना सक्रिय सहयोग देते रहते हैं । सह संरक्षक सदस्यों में प्रावरणीया पद्मश्री पंडिता सुमति बाईजी शहा का हम किन शब्दों में धन्यवाद ज्ञापित करें। पंडिता सुमति पाईजी महाराष्ट्र की ही नहीं समस्त देश की गौरव शालिनी महिलारत्न हैं जिन्होंने प्रपना समस्त जीवन शिक्षा प्रसार समाज एवं साहित्य सेवा में समर्पित कर रखा है । आप जैन समाज में एक मात्र महिला है जिनको सरकार ने पद्मश्री की उपाधि से सम्मानित किया है। हम आपका हार्दिक सागत करते हैं। प्रकादमी के उपाध्यक्ष के रूप में हम देहली के माननीय श्री मदनलालजी अन घण्टेवाला का स्वागत करते हैं । श्री मदनलाल जी देहली के प्रसिद्ध समाज सेवी एनं धर्मप्रेमी महानुभाव है तथा घण्टेवाला के नाम में देहली में ही नहीं सर्वत्र प्रसिद्ध है । भापकी माताजी का धर्म-प्रेम दर्शनीय एवं अनुकरणीय था। ६५ वर्ष की वृक्षा होने पर भी प्राप नियमित मन्दिर जाती भी एवं जिन भक्ति में अपने प्रापको समर्पित कर देती थी। आकरमी के सम्माननीय सरस्यों में सर्व श्री शीलसन को अन्दावनरास जी । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मवाबार, मुलायमचन्द जी जैन जबलपुर, सिंघई शीलचन्द भी बैन सबसपुर, माणकचन्द जो वेताला महास, पंडिता विद्युल्लता की सहा सोलापुर, डा. जी जे. कासलीवाल सोलापुर, पंडिता गजा बहिन बाहुबली, माणकचव जयकुमार जी चंवरे शान्तिनाथ पाटील जयसिंगपुर, स्वस्ति श्री भट्टारक लक्ष्मीसेमनी कोल्हापुर, एम बाई मिरजी चिक्कोजी, स्वस्ति श्री देवेन्द्रकोति जी भद्वारा स्वामी जो तुम्मच, कपुरचन्द जी जन जोया गयपुर एवं विमल चन्द जो बैनाडा मागरा का हम हार्दिक स्वागत करते हैं। पाया है समाज का हमें और भी अधिक सहयोग प्राप्त होगा । सहयोग–अकादमी के सदस्य बनाने में राजस्थानी भाषा के कवि श्री राजमल जी बेगस्या, श्री माणकचन्दजी सा. कसेरा, डा. हरीन्द्र भूषण जी जैन बाहुबली, पं. मागि कचन्दजी चंवरे कारंजा प्रमुलालजी काला एवं उनकी श्रीमती स्नेहप्रभा जो से जो सहयोग मिला है उसके लिये हम उनके पूर्ण आभारी हैं । अमृत कलश में विद्वानों का स्वागत __ सप्तम भाग के प्रकाशन के पश्चात् अर्थात् अप्रेल १९८४ से सितम्बर ४ तक हमारे अमृत कलश में स्थित प्रकादमी कार्यालय में जिन विद्वानों ने पधार कर हमारे खोज शोध के कार्य को देखा तथा देखकर शुभकामनाएं एवं शुभार्थीकाद दिया उनमें रूपायन सस्था बख्दा के निदेशक श्री कोमल कोठारी, जंन वाड़मय के मनीषी डा. दरबारीलाल जी कोठिया, बम्बई के प्रसिद्ध लेखक एवं साहित्यकार डा. जगदीश जन, साह रिसर्च इन्स्टीट्यूट कोल्हापुर के निदेशक डा. दिलास संगवे, अकादमी के संरक्षक माननीय श्री डालचन्द जी सा. जैन सागर, कुचामन के श्री राजमल जी छाबड़ा श्रीचन्दजी जैन सोनगढ़, श्री नन्दलाल जैन दिवाकर एडवोकेट गंज बासोदा, भगवान दास जी जैन अध्यक्ष अखिल विश्व जैन मिशन गंज बासौदा, पं सत्यन्धर कुमार जी सेठी उज्जैन एवं थी निर्मल कुमार जी सेनानी विदिशा के नाम उल्लेखनीय है । हम अमृत कलश में पधारने के लिये सबके मामारी हैं। ८६७ अमृत कलश बरकत नगर, किसान मार्ग डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल टोंक फाटक, जयपुर, निदेशक एवं प्रधान सम्पादक Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संरक्षक की कलम से श्री महावीर ग्रंथ अकादमी के अष्टम पुष्प "मुनि समापन्द एवं उनका पद्मपुराण' को पाठकों के हाथों में देते हुए मुझे अतीव प्रसन्नता है । सप्तम पुष्प के प्रकाशन के छह महिने पश्चात प्रष्टम पुष्प का प्रकाशित होना निश्चय ही स्वागत योग्य है । प्रस्तुत पुष्प में प्रथम बार हिन्दी भाषा में निबद्ध पद्मपुराण का पूरा पाठ एवं उसका सम्यक् अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। पदमपुराण जैन समाज में अत्यधिक लोकप्रिय ग्रंथ माना जाता है । इसलिये प्राकृत, अपना, संस्कृत एवं हिन्दी सभी भाषानों में विभिन्न प्राचार्यों ने पुराण ग्रंथ निबद्ध किये हैं। प्रस्तुत पद्मपुराण जैन सन्त मुनि सभाचन्द की कृति है जिसको खोज निकालने का श्रेय डा. कस्तुरचन्द कासलीवाल की है। जिन्होंने इसे सम्यक रूप से सम्पादित करके प्रकाशित भी किया है । वस्तुतः डा कासलीवाल ने अब तक पचासों प्रजात एवं अचचित ग्रंथों को प्रकाश में समा जो वकारी कार्य किया है उसके सम्पूर्ण साहित्यिक समाज उनका सदैव प्राभारी रहेगा। प्रकादमी की हिन्दी के जन कवियों को उनका ऐतिहासिक अध्ययन के प्राधार पर बीस भागों में प्रकाशित करने की योजना एक ऐमी योजना है जिसकी किसी से तुलना नहीं जा सकती। जन कवियों द्वारा निबद्ध हिन्दी का विशाल साहित्य है जिसका प्रता पता पाना भी दुष्कर कार्य है। प्रारम्भ में जब डा० कासलीवाल ने मुझे अकादमी का परिचय कराया मथा अपनी योजना रखी तो मुझे स्वयं को विश्वास नहीं हो रहा था कि उन्हें इतनी सफलता मिल जावेगी और एक के पश्चात् दूसरा भाग प्रकासित होता रहेगा लेकिन जब अष्टम भाग पर दो शब्द मुझसे लिखने के लिये कहा गया तो स्वत: ही मन प्रसन्नता से भर गया । वास्तव में जैसा कि गत १५-२० वपों से मैने डा• कासलीवाल को देखा है उन्हें एक समर्पित सेवाभावी लेखक एवं सम्पादक के रूप में पाया है। साहित्य सेवा एवं इतिहास की खोज ही उनके जीवन का एक मात्र मिशन है जिसका मूर्त रूप प्रव तक प्रकाशित उनकी ५० से भी अधिक पुस्तकें एवं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकागित उनके सैकड़ों खोज पूगई लेखों में देखा जा सकता है । डा. कासलीवाल द्वारा स्थापित थी महावीर नय अकादमी का संरक्षक बनने में मुझे प्रत्यधिक प्रसन्नता है। मैं चाहता हूं कि अकादमी द्वारा जैन हिन्दी वृति यों को 20 मागों में प्रकाशित करने के पश्चात अथवा उसके पूर्व ही बन Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पपपुराण तथ्य संग्रहीत हैं उन्हीं के प्राधार पर एवं गुरु परम्परा से प्राप्त कथानकों के प्राधार पर जैन पुराणों की रचना की गई है। नवीं शताब्दि में शीलंकाचार्य ने चउपन्न महापुरिस परिय लिखा जिसमें राम लक्खण चरिय भी दिया हुआ है। यह कथा विमलसरि के पचमचरिय से प्रभावित है इसी तरह भटेश्वरकृत कहावली के अन्तर्गत रामायणम एवं मुवनतुग मूरि कृत सीया परिय तथा राम लक्षण परिय कधायें प्राप्त होती हैं। संस्कृत भाषा में प्राचार्य रविषेण का पचरितम् (पद्मपुराण) रामकथा से सम्बन्धित प्राचीनतम रचना है जिसकी रचना वीरनिर्वाण संवद १२०४ तथा विक्रम संवत ७३४ में की गई थी। यह पुराण १२३ पर्यों में विभक्त है तथा १८००० श्लोक प्रमाण की बड़ी भारी कृति है । रामकथा का ऐसा सुन्दरतम वर्णन मस्कुन भाषा में प्रथम बार किया गया है । १२ वी शताब्दि में प्राचार्य हेमचन्द्र ने विष्ट गलाकापुरुष चगिल में रामकथा का प्रच्छा वर्णन किया है। १५ वी शताब्दि में वह जिनदास ने पद्मपुराण की रचना करने का गौरव प्राप्त किया । यह पुराण : सगो में विभक्त है तथा १५००० फ्लोक प्रमाण है। पुराण की भाषा सरल एवं आकर्षक है। १६ वीं शताब्दि में भष्ट्रारक सोमसेन ने वैराट नगर (राजस्थान) में रामपुराण की रचना समाप्त की थी तथा १७ वीं शताब्दि भट्टारक धर्मकीति ने पद्मपुराण की 1612A.D. में रचना करके रामकथा को और मी लोकप्रियता प्रदान की। मुनि चन्द्रकीति द्वारा रचित पद्मपुराण की रचना प्रामेर शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। अपनश भाषा में महाकषि स्वयम् में पउमचरिउ की रचना करने का यशस्वी कार्य किया । पउमचरित एक विशाल महाकाव्य है जो पांघ काण्डों-विद्याधर काण्ड, पयोध्या काण, सुन्दर काण्ड, युद्ध काण्ड एवं उत्तर काण्ड में विभक्त है। पांच काण्ड एवं संषियों में काब्य बद्ध है। स्वयम्भ ८ थी ६ वीं शताब्दि के महान् कवि थे जिसे महा पण्डित राहुल सांकृत्यायन ने हिन्दी का प्रथम कवि स्वीकार किया है । १५ वीं शताब्दि में महाकवि राष हए जिन्होंने अपम्र में विशाल काथ्यों एवं पुराणों की रचना की। उन्होंने बलभद्रपुराण (पद्मपुराण) की रचना करने का गौरव प्राप्त किया था। लेकिन जब हिन्दी का युग प्रारम्भ हुना तो जन कवि इस भाषा में भी रामकथा को काब्य रूप में निवद करने में सबसे प्रागे रहे। सर्वप्रथम १. प्रशस्ति संग्रह- संपादक डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल पृष्ठ संख्या ३० २. वहीं पृष्ठ संम्मा १६ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना महाकवि ब्रह्मजिनदास ने राम सीतारास (रामराम) की रचना करके रामकया को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। रामरास की रचना संवत् १५०८ (सन् १४५१) में की गई थी। रामरास विशाल महाकाव्य है जिसको पाण्डुलिपि में ३०० से भी अधिक पत्र हैं। ब्रह्म जिनदास के समान ही उनके शिष्य १० गुणकीति में भी रामसीतारास की रचना करने का श्रेय प्राप्त किया । लेकिन प्र० गुणकीति के पश्चात् करीब २०० वर्षों तक किसी भी भट्टारक अथवा विद्वान ने राम कथा पर लेखनी नहीं पलायी। ग्रड़ आश्चर्य की बात है । इसके पश्चात् अब तक जिन कवियों की रचनाओं की खोज हो चुकी है उनमें निम्न रचनावों के नाम उल्लेखनीय हैं : रचना लेखक सीताचरित्र रामचन्द्र अपरनाम बानक सीता हरण- ब्रह्म जयसागर पद्मपुराण भाषा पं स्तुशालचन्द काला रचनाकाल संवत् १७१३ संवत् १७६२ संवत् १७८३ पद्मपुराण भाषा पंदौलतराम कासलीवाल संवत् १८२३ (गद्य) पद्मपुराण भाषा भगवानदास संवत् १७५५ जक कातियों में पं दौलतराम कासलीवाल द्वारा निबद्ध पचमपुराण भाषा सबसे अधिक लोकप्रिय माना जाता हैं । इसी का समाज में सबसे अधिक स्वाध्याय हुना है और प्राज भी यह पुराण सर्वत्र पढ़ा जाता है। दौलतराम ने इसकी जयपुर में रचना की थी। इसकी भाषा एवं शैली दोनों ही आकर्षक है । इसके अतिरिक्त 4 सभी राम काव्य पभी तक अपने प्रकाशन की प्रतीक्षा में १. संवत गन्नर प्रठोतरा मांगसिर मास विशाल । शुक्ल पक्ष चादिसि दिनी रास कियो गुणमाल' ।। २. राजस्थान के जैन सन्त -- व्यक्तित्व एवं कृत्तिख पूंछ संख्या १८६ ३. प्रशस्ति संग्रह - पृष्ठ संख्या २६६ ४. वही २६७ ५. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों को ग्रन्थ सूची द्वितीय भाग पृ. सं. २१५ वही यही Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसमाचन्द एवं उनका पपपुराण लेकिन अभी गत वर्ष सन् १९८३ में ही मुझे एक और पद्मपुराण की खोज करने में सफलता प्राप्त हुयी है। प्रस्तुत पद्मपुराण महाकवि ब्रह्मजिनदास एवं त्र. गुणकीति के बाद की रचना है लेकिन उक्त पांचों कृतियों से प्राचीन है । इस प्रकार पद्मपुराण नाम से निबद्ध हिन्दी की सभी रचनाओं में प्रस्तुत पद्म पुराण सर्वाधिक प्राचीन है जिसका विस्तृत परिचय निम्न प्रकार है ग्रन्थकर्ता- प्रस्तुत पदमपुराण के रचियता मुनि सभाचन्द है जिनका पुराण के प्रारम्भ में निम्न प्रकार उल्लेख हुआ है सुभाचन्द मुनि भया मानन्द, भाषा करि चौपई छन्द । मुनि पुराण कीना मंडान, मुनि जन लोक सुनु दे कान ।।३।। पुराण की समाप्ति पर लिखी गयी प्रशस्ति में उन्होंने सुभचन्द सेन के नाम का प्रयोग किया है जो उनके सेन गक्षीय भट्टारक परम्परा के मुनि होने का संकेत है। वे दिल्ली मंडल के मुनि थे जिनके पट्ट में और बहुत से मुनि हुए । ये कवि भी उसी परम्परा के मुनि थे । ये कुमारसेन भट्टारक मुनि के शिष्य थे । कवि ने ने अपनी गुरू परम्परा वा निम्न प्रकार उल्लेख किया है। दिल्ली मंडल का मुनि राई, जिसके पट्ट भया बहु ठाई । धरम उपदेस घणा कु भया, पूजा प्रतिष्ठा जामै नया ।।४१।। पंडित पट धारी मुनि भए, ग्यानवंत करुणां उर थए । मलयकोत्ति मुनिवर गुणयंत, लिनक हिमे ध्यान भगवंत ।।४३|| गुणकीत्ति पर गुरगमनसेम, गुणानाद प्रकास जैन 1 भानकीरति महिमा अति घणी, विधायत तपसी मुनि ।।४।। कुमरसेन भट्टारक जती, क्रिया श्रेष्ठ उजल मती । उनके पट भचासुसेन, धरम बखान मुणा बन ||४|| इस प्रकार मुनि मलयकीति, गुणकीति, गुणभद्रसेन, भानुकीति, कुमरसेन' मुनि भट्टारक उग़की गुरू परम्परा थी। पद्मपुराण समाप्ति के पश्चात कवि ने अपना नाम मुनि सभाचन्द इस प्रकार उल्लेख किया है इति श्री पद्मपुराण सभाचन्द्र कृत सांपूरनं । रचना स्थान इस प्रकार सभाषन्द कवि मुनि थे तथा वे काष्ठासंघीय सेन गण के मुनि थे। दिल्ली मंडल उनका केन्द्र था इसलिए ऐसा भी प्रतीत होता है कि समाचन्द मुनि Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना बहसी में ही रहते थे और उन्होंने पद्म पुगरण की रचना भी देहली में रहते हुये की थी। कवि के समय में देहली में मल हांधी भट्टारकों की भी गादी थी। इस गादी के भट्टारक मुनि रनकत्ति थे जो गंभीर ज्ञान के घारक थे तपस्वी थे तथा इन्द्रियों का निग्रह करने वाले थे । उन्हीं के पट्र में राम घाट मनि ए जो गत्ताचार्य थे जो सूक्ष्म व्याख्याता थे तथा रामकथा सुनने में रुचि रखते थे । श्री मूलसंघ सरस्वती गल्छ, नकारन मुनि घरम का पन्छ । तारन तरण ग्यान गंभीर, जागा सह प्राणी की पीर ।।४५|| सप संयम तं प्रातम ग्यान, धरम जिन स्वर कहै बस्यांन । शुरै भिध्यात उपज म्यान जे निसर्च घरि मनमैं ग्राम ॥४६।। गुरू के बचन सूरण निसवै धरै ते जीव भवसागर को तिरं। श्री रस्नकोत्ति तज्या संसार, पहूंचे स्वर्ग लोक तिह वार ||४|| उनके पट रामचन्द मुनि याचारिज पण्डित बह गुनी । कहैं ग्यान के सूरः ॐ भई बुधि उनके प्रमग ।।४।। रामकथा के विचित्र रूपः जैन माहित्य में राम कथा को दो धारायें मिलती हैं एक प्राचार्य रविषेसा के पदमपुराण की तथा दसरी गुणभद्र के उत्तरपुराण की। प्राचामं रनिषेण की राम कथा विगलमूरि के पउमचरिम एवं स्वयम्भू के पउमचरिउ पर प्राधारित है । लेकिन गुण भद्राचार्ग की राम कथा प्राचार्य रविषेण के कथानक से भिन्न है। हिन्दु धर्म की राम कथानों में वाल्मीकि रामायण सबसे प्राचीन है जिसका प्रभाव उत्तरकालीन सभी राम कथायों पर पड़ा है। महाभारत ब्रह्मपुराण, पनप राण, अग्निप राणा, वायुप राण प्रादि सभी में कुछ सामान्य परिवर्तन के साथ राम कथा को लिपिबद्ध किया गया है। इसके अतिरिक्त अध्यात्म-रामायण, प्रद भूतरामायण मानन्धरामायण के नाम से भी कई रामकाव्य लिखे गये हैं। इन्हीं के प्राधार पर तिब्बती तथा खेतागी रामायण, हिन्देशिया की रामायण काकावित जावा का प्राधुनिक "सरत राम" तथा हिन्द चीन, श्याम, ब्रह्मदेश, सया सिंहल प्रादि देशों की रामकथाए मिलती हैं । बौद्ध जातक "जातकटुवपणना" में रामकथा मिलती हैं। जो संक्षेप में निम्न प्रकार है - दशरथ महाराज वाराणसी में धर्म पूर्वक राज्य करते थे। इनकी ज्येष्ठा महीपी के तीन स्तान सी... दो पत्र (राम पण्डित और लपवण) और एक पत्री Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाजद एवं जनका पपपुराण (सीता देवी) । इस महीषी की मृत्यु के पश्चात् दूसरी को ज्येष्ठ महिषी के पद पर नियुक्त किया । उसके भी एक पप (भारत) उत्पन्न हुमा। राजा ने उसी अवसर पर उसको एक घर दिया । अब भारत की अवस्था सात वर्ष की थी तब रानी ने अपने पत्र के लिए राज्य मांगा । राजा ने स्पष्ट इन्कार कर दिया। लेकिन जब रानी अन्य दिनों में भी प नः पन: इसके लिए अनुरोध काने लगी तब राजा ने उसके षड्यंत्रों के भय से दोनों पत्रों को बुलावार कहा "यहां रहने से तुम्हारा अनिष्ट होने की सम्भावना है इसलिए किमी अन्य राज्य या वन में जाकर रहो पौर मर मरने के बाद लौट कर राज्य पर अधिकार प्राप्त करो"। उसी समय राजा ने ज्योतिषियों को बुलाकर उनम अपने मरने की प्रवदि पूछी। बारह वर्ष का का उत्तर सकर उन्होंने कहा-'हे पुनो ! बारह वर्ष के बाद पाकर छ उठाना" पिता को वन्दना कर दोनों भाई बलने वाले थे मीतादेवी पिना से विदा लेकर उनके साथ हो गयी । तीन के साय बहत से अन्य लोग भी चल दिये उनको लोटाकर तीनों हिमालय पहुंच गये और वहा प्राधम बना कर रहने लगे । नौ वर्ष के पश्चात् दशरथ पुत्र शोक के कारण मृत्य की प्राप्त हो गये। सनी ने भरत को राजा बनाने प्रयास किंवा । स्वस भरत एव माना। केयाध के कारण वह भरत को राजा बनाने में सफल नहीं हो सको ।तब भरत चतुरंगिनी सेना लेकर राम को ले आने के बद्दश्य से वन में चले जाते हैं । उस समय राम अकेले ही हैं। भरत उनसे पिता के देहान्त का सारा वृत्तान्त कह कर रोने लगते हैं परन्तु राम पण्डित न तो शोक करते हैं और न रोते है। संध्या समय लवसग और सीता लोटते है । पिता का देहान्त सुनकर खोनो अत्यन्त शोक करते है। इस पर राम पण्डित उनको धर्य देने के लिए अनिस्यता का धर्मो पदेश सुनाते हैं। उसे सुनकर सब शोक रहित हो जाते हैं। दाद में भरत के बहुत अनुरोध करने पर भी राम पण्डित यह कह कर बन में रहने का निश्चय कहते हैं—'मेरे पिता ने मुझे बारह वर्ष की अवधि के अन्त में राज्य करने का प्रादेश दिया है प्रतः अभी लौट कर मैं उनकी प्राज्ञा का पालन न कर सगा। मै तीन वर्ष बाद लौट ग्राऊंगा।" जब भरत भी गासनाधिकार अस्वीकार करते हैं तब राम पण्डित प्रपती तिग्णपादुका (तृण पादुका) देकर कहते हैं कि मेरे पाने तक ये शासन करेगी तृणपादुकानों को लेकर भरत, लक्षमण सीता तथा अन्य लोगों के साथ वाराणसी लौटते है। अमात्य इन पादुकानों के सामने राजकार्य करते हैं । प्रन्याय होते ही वे पादुकाएं एक दूसरे पर प्राधात करती पीर टीक निर्णय होने पर शान्त होती थी। तीन वर्ष व्यसीत होने पर राम पण्डित लौटकर अपनी बहिन सौता से विवाह करते हैं। सोलह सहस्र वर्ष तक राज्य करने के पश्चात् वे स्वर्ग चले जाते Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना हैं। जातक के अन्त में महात्मा बुद्ध जातक का सामंजस्य इस प्रकार बठाते हैंउस रामय महाराजा शुद्धोदन महाराज दशरथ थे । महामाया (बुद्ध की माता) राम की माता, यशोधर (राहल की मां) सीता, प्रानन्द भरत थे और मैं राम पण्डित था।'' इसी तरह "अनामक जातकम्" में राम के जीवत वृत्त से सम्बन्धित वस्था मिलती है । चीनी त्रिपिटक के अन्तर्गत "त्सा-पी-त्सिंग-किग मै १२१ अषधामों का संग्रह मिलता है। यह संग्रह ४७२ई. में चीनी भाषा में अनुदित हुमाया इसमें एक 'दशरथ कथानम्' भी मिलता है जिसमें राम कथा का उल्लेख किया गया है। इसकी विशेषता यह है कि इसमें सीता या किसी अन्य राजकुमारी का उस्लेख नहीं हुआ हैं । दशरथ की चार रानियों का वर्णन पाता है उनमें प्रधान महिषी के राम, दूसरी रानी के रामन (रोमरण-लक्ष्मण) तीसरी रानी के भरत और चौथी रानी के शत्रुघ्न उत्पन्न हुये थे । प्रद्मुत रामायण में रामकथा का दूसरा ही रूप मिलता है जिसमें सीता को मन्दोदरी द्वारा अपने गर्भ को जमीन में गाड दिए जाने के पश्चात् उत्पन्न हुआ माना गया है जो हल जोतते समय वह गर्भजात कन्या राजा जनक को मिली पोर उन्होंने उसफः लालन पालन किया। लेकिन राम कथा का व्यापक एवं लोकप्रिय रूप बाल्मीकि रामायण का रहा जो सर्वय समादृत है | जैन कथा के दो रूप जैन साहित्य में रामकथा के जो रूप मिलते हैं उनमें गुणभद्राचार्य द्वारा रचित उत्तरपुराण एवं रविषेण के पद्मफ गाया में सुरक्षित है। दोनों ही प्राचार्य जैनधर्म के अधिकृत विद्वान थे । प्राचार्य रविण ने विक्रम संवत् ७३४ (६७७ ई.) में पद्मपुराण की रचना समाप्त की थी जबकि प्राचार्य गुणभद्र ने ६ वीं शताब्दि के अन्त में उत्तर पुराण की रचना करने का गौरव प्राप्त किया था। इस प्रकार माचार्य रविषेश का पद्मपुराण प्राचार्य गुणभद्र के समक्ष रहा होगा ऐसा अनुमान किया जा सकता है क्योंकि ऐसा महापुराण लिखने वाले प्राचार्य जिनसेन एवं गुणभद्र अपने पूर्वाचार्यो की अधिकृत ग्रंथों को प्रोझल प्रथवा अनदेखा नहीं कर सकते । गुणभद्र आचार्य जिनसेन के शिष्य थे । जिनसेन आदि पुराण की रचना करने से पूर्व ही स्वर्गवासी हो गये इसलिए प्रादिपुराण के अवशिष्ट भाग एवं उत्तरपुर'ण की रचना करने का कार्य उनके सुयोग्य शिष्य गुगभद्र ने ही किया । उनके द्वारा उत्तरपुराण में प्रतिपादित रामकथा प्राचार्य रविषेश से भिन्न है जिनमें सीता को जनका की पत्री न मानकर रावण, मन्दोदरी की पत्री माना है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभामंद एवं उसका पपपुराण पं० पक्षालाल जी साहित्याचार्य ने उत्तरपुराण का संक्षिप्त कथानक अपने पद्म पुराण की प्रस्तावना में निम्न प्रकार दिया है। "वाराणसी के राजा दशरथ के चार पुत्र उत्पन्न होते हैं-राम सुबाला के गर्म से लक्ष्मण कैकयी के गर्भ से मौर बाद में जब दशरथ अपनी राजधानी साकेत में स्थापित करते हैं सब भरत और शत्रुघ्न भी किसी अन्य रानी के गर्भ से उत्पन्न होते हैं। यहां भरस एवं शत्रुघ्न की माता का नाम नहीं दिया गया है दशानन बिनमि विद्याधर वंश के पुलस्त्य का पुत्र है । किसी दिन वह अमित वेग की पुत्री मणीमति को तपस्या करते देखता है और उस पर प्रासकर होकर उसकी साधना में विघ्न डालने का प्रयत्न करता हैं । मणिमति निदान करती है कि मैं उसकी पत्री होकर उसे मारूगी"। मृत्यु के बाद वह रावण की रानी मन्दोदरी के गर्भ में प्राती है। उसके जन्म के बाद ज्योतिषी रावण से कहते हैं कि यह प.वी भापका नाश करेगी प्रतः रावण ने भयभीत होकर मार्गव को प्राज्ञा दी कि वह उसे कहीं छोड़ दे। कन्या को एक मन्जूषा में रख कर मारीच उसे मिथिला देश में गाई पाता है । हल की नोक से उलझ जाने के कारण वह मन्जूषा दिखाई देती है और लोगों के द्वारा जमक के पास पहुंचाई जाती हैं। जनक मजूषा को खोलकर देखते है और उसका सीता नाम रख कर पुत्री की तरह पालन करते हैं । बहुत समय बाद जनक अपने यश की रक्षा के लिए राम और लक्ष्मण को बुलाते हैं । युद्ध के समाप्त होने पर राम और सीता का विवाह होता है । इसके बाद राम अन्य सात कुमारियों को साथ विवाह करते है और लक्ष्मण पृथ्वी प्रादि १६ राजकन्याओं से । दोनों दशरथ को प्राज्ञा लेकर वाराणसी में रहने लगते हैं । नारद से सीता के सौन्दर्य का दर्शन सुनकर रावसा उसे हर लाने का संकल्प करता है । सीता का मन जांचने के लिए शूपाखा भेजी जाती है लेकिन सीता का सतीष देख कर बह रावल से यह कह कर लौटती है कि सीता का मन चलायमान करना असम्भन है । जब राम और मीना वाराणसी के निकट चित्रकूट वाटिका में विहार करते हैं तब मारीच स्वर्णमृग का रूप धारण कर राम को दूर ले जाता है। इतने में रावण राम का रूप धारण करके सीता से कहता है कि मैंने स्वर्ण मृग महन भेजा है । भौर उमको पालकी पर चढन की प्राज्ञा देता है । यह पासको वास्तव में पष्पक विमान है जो सीता को लंका ले जाना है। सवा मीता का स्पर्श नहीं करता है प्रयोकि पतिव्रता के स्पर्श करने से उसकी माकागामिनी विद्या मष्ट हो जाती। दशरथ को स्वप्न द्वारा मालम हुअा कि रावण ने मीता का हरण किया मौर वह राम के पास यह समाचार भेजते हैं । इनने में मुग्रीव मौर हनुमान वालि Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ko के विरूद्ध सहायता मांगने के लिए पहुंचते हैं। हनुमान लंका जाते हैं और सीता को सांत्वना देकर लौटते हैं ( लंका दहन का कोई उल्लेख नहीं मिलता) इसके बाद लक्ष्मण द्वारा बालि का वध होता है और सुग्रीव अपने राज्य पर अधिकार प्राप्त करता है । भव वानरों की सेना राम की सेना के साथ लंका की ओर प्रस्थान करती है । युद्ध के विस्तृत वर्णन के अन्त में लक्ष्मण चक्र से रावण का सिर काट देते हैं । इसके बाद लक्ष्मण दिविजय करके और श्री नारायण बनकर प्रयोध्या लौट हैं। लक्ष्मण की सोलह हजार रानियां और राम की आठ हजार रानियां है | सोता के आठ पुत्र होते है सीता स्थान का उल्लेख नहीं मिलता) एक असाध्य रोग से मर कर शव जय के कारण नरक में जाते हैं। राम लक्ष्मण के पृथ्वी सुन्दर को राज पद पर और सीता के पुत्र अजीसंजय को युवराज पद पर अभिषिक्त करके दीक्षा लेते हैं और मुक्ति पाते हैं। सीवा भी अनेक रानियों के साथ दीक्षा लेती है और घच्युत स्वयं में जाती है। प्रस्तावना हिन्दी में राम काव्य --- प्राकृत संस्कृत एवं अपनों के पश्चात् जब हि राजस्थानी में ग्रन्थ रचना होने लगी तो जैन कवियों द्वारा इन भाषाओं में सभी तरह के ग्रन्थों का गद्य एवं पद्म में लिया जाने लगा या फिर सुन ग्रंथा के भावों को लेकर स्वतंत्र रूप से भी काव्य लिखे गये। हिन्दी - राजस्थानी में रामकथा को काव्य रूप में निबद्ध करने का सर्व प्रथम श्रेय महावात्रि ब्रह्मजिनदास को दिया जा सकता है क्योंकि उन्होंने संवत् १५०८ में ही विशाल काव्य 'रामराम' को रचना करने का गौरव प्राप्त किया । ' रामराय यद्यपि रविपेखांचार्य के पुरा के आधार पर न किया गया है लेकिन वह कवि की मौलिक एवं स्वतंत्र रचना के रूप में है । संवत् १७२८ में देऊन ग्राम में लिपिबद्ध दम काव्य की एक प्रति छूंगरपुर के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है इस पाण्डुलिपि में १२५६" आकार वाले ४०५ पत्र हैं । कवि ने अपने काव्य के रचनाकाल का निम्न गद्य में उल्लेख किया है संवत पर प्रोत्तरा, ममार मास विशाल । शुक्ल पक्ष चउदिसी दिनी सकियो गुल्माल ॥ पद्मपुराण संरचना विक्रम की १३ त्रीं शताब्दि के तीयचतुर्थ बरगा में मुनि सभाव हुए । उनके समय में तुलसी का रामचरितमानस (रामाया ) लोकप्रियता प्राप्त करने लगा था और उत्तर भारत की अधिकांश जनता में उसे पढ़ने की ओर ि बच रही थी। नात्र धर्म में फैल रही रामायण के प्रति ग्रासक्ति को देख कर १. पद्मपुराण भूमिका पृष्ठ संख्या १७-१८ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचपुराण समाचन्द मुनि को भी प्राचार्य रविषेण कृत संस्कृत भाषा के पमपुराण को सुनने की रुचि पैदा हुई। पद्मपुराण को मुन कर मुनिश्ची के हृदय में प्राचार्य रविषेरण के प्रति गहरी ससा मागत । अनी नानासा ने राम में इन्होंने गविगाचार्य के प्रति जो श्रद्धा एवं भक्ति प्रदशित की है वह अत्यधिक संबेदनशील है । उन्होंने रविषेणाचार्य को मति श्रुति एवं अवधि ज्ञान का धारक महामुनीश्वर निग्रंथाचार्य एवं कोष मान माया प्यादि कषानों मे रहित होना लिखा है 1 इन्हीं भात्रों को कत्रि के शब्दों में देखिये.-. केवल वाणी सुन्यो यखान, पंडित मुनिघर रच्या पुराण । प्राचार्य रविषेण महत, संस्कृत मैं कीनौ अन्य ॥३०॥ महा मुनीश्वर ग्यांनी गुनी, मति अति अवधि ग्योती मुमौ ।। महा मिनप्रसपस्वी अहि, कोष भाव माया मही रती ॥३॥ प्रारिषो वाणी शास्त्र किया, घमं उपदेश यहुविध दिया । जिसके मेवा भेद अपार, महामुमोस्पर कई विचार ।।३।। प्राचार्य रत्रिषेण के पद्मपुराण को सुनने एवं उसका स्वाध्याय करने के पश्चाव मुनि समाचन्द के हृदय में उसके हिदी रूपान्नर करने के मात्र जाग्रत ये और उन्होंने संवत १७११ में फाल्गुन एकदा पवमी को हिन्दी में पद्मपुराण जैसे महान ग्रंथ को छन्दोबद्ध करने का यशस्वी कार्य कर डाला । .संवत्त सनहस ग्यारह वरस, मुन्यां भेद जिनवाणी सरस । फाल्गुन मास पंचमी स्वेत, गुरुवार मन में धरि हेत ।।३३।। सभाषद मुनि भया प्रानन्द, भाषा करि चौपई छुन्छ । सुनि पुरान कोनां मंडान गुमि जम लोक सुनु दे कान ॥३४॥ सर्व प्रथम गौतम रवामी ने राम कथा को सबको सुनायी। उसके पश्चात् अगसेन के बली ने इसे मौखिक रूप से कहा । फिर कृतांतसेन ने एक करोड़ परनोक प्रमाण ग्रंथ निन किया । इसके पश्चात दूसरे प्राचार्यों ने पुराणो की रचना करके उन्हें पला । उनके सबदन गुनि शिष्य हुए । फिर अरहसेन एवं लदमनसेन मुनि हुए जिन्होने साठ हजार श्लोक प्रमागा पद्मपुराण लिखा । उसी पुराण को प्राचार्य रविषेण ने नारन हजार श्लोक प्रमागा पद्मपुराण नाम सेनिबद्ध किया । कवि ने इनका रचना काल का निम्न प्रकार वर्णन किया हैं सहैव एक प्रक दोई से धरस, छह महीने बीते कध, सरस । महावीर निरवारण कल्याण, इस अंतर है रया पुराण ।। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अर्थात् भगवान महावीर के निर्वाण के १२०० वर्ष प्रौर ६ महिने व्यतीत होने पर रविषेण ने पद्मपुराण की रचना समाप्त की थी। किन्तु स्वयं रविषेण ने वीर निर्धारण संवत् १२०४ एवं विक्रम संवत् ७३४ में पञ्चपुराण की रचना करना लिखा है । इसलिये मुनि समाचन्द ने अपने रखना नाक में वर्ष का मारों कर लिखा इसका कोई प्रौघिरप नहीं बतलाया। मूनि सभाचन्द भट्टारक कुवरसेन के शिष्य थे । जो काष्ठा संघ-माथुर गच्छु-सेन गरणीय भट्टारक थे। भ० कमलकीति के दो शुभचन्द पोर कुमारसेन ये दो पट्ट शिष्य हए ।। इनके शिष्य थे सभाचन्द जो मुनि अवस्था में रहते थे। कुमारसेन का उल्लेख आमेर शास्त्र जयपुर की एक प्रशस्ति में भी माता है जो हेमकीति के शिष्य एवं भ० हेमचन्द के गुरु थे । मुनि सभानन्द के नाम का कोई उस्लेज नहीं मिलता है 1 फिर भी में भट्टारकीय परम्परा के मुनि थे इसमें कोई सन्देह नहीं है। जीवन परिचय मूनि सभाचन्द की गृहस्थावस्था का क्या नाम था । उनके माता पिता कौन थे । उनका जन्म कहाँ हुमा तथा उन्होंने किस अवस्था मुनि दीक्षा प्राप्त की इसका काई उल्लेख नही मिलता है। रामाश्चन्द पद्मपुराण (हिन्दी) के अतिरिम और कौन २ से ग्रंथों के रचयिता बने इसका भी कोई उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि सभाधन्द अपनी गृहस्थावस्था में अग्रवाल जैन होंगे क्योंकि मापने ग्रंन्य प्रशस्ति में अग्रवाल जनों की उत्पत्ति का वर्णन किया है। कवि के अनुसार अग्रवाल जैन जाति की उत्पत्ति निम्न प्रकार हुई है - एक बार लोहाचार्य ने अग्नोहा के निकट पाकर योग धारण कर लिया। अग्रोहा के सभी नगरवासी उनकी बंदना करने लगे। यहां उन्होंने अग्रवाल धावकों को प्रतिबोधित किया और श्रावकों की ५३ क्रियानों को पालने का उपदेश दिया। पञ्च प्रणवत, चार शिक्षावत एवं सीन गुणवतो के महत्व को समझाया । नगर में ब्बारत मिथ्यात्व को दूर किया और जैनधर्म के स्वरूप को सबको बताया । लोहा. बायं के उपदेश से सबने दशलक्षण धर्म, रत्नत्रय एवं व्रत विधान को अंगीकार किया । जीव दया का पालन होने लगा तथा सबने रात्रि भोजन न करने का नियम ले लिया और उघडिया में अगवेड (व्यालु) की जाने लगी । १. देखिये भट्टारक संप्रदाय-पृष्ठ संख्या २४ २. देखिये प्रशास्ति संग्रह पृष्ठ संचमा ८५ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पपपुराण __ मुनि सभाबन्द्र काष्ठासंधी साधु थे। उस समय देहली में मूलसंघ एवं कान्छासंघ दोनों की गादियां थी। अधिकांश अग्रवाल जैन समाज काष्ठासंघी भट्टारकों के माम्नाय में था। मूनि सभाचन्द अपने समय के प्रमुख सन्त थे । साहित्य सर्जन को मोर इनका विशेष झुकाव था । कमों का प्रयोग--पद्मपुराण विशालकाम पन्थ है जिसमें ११५ विषानक है 1 तथा दोहा, चौपई एवं सोरठा छन्दों की संख्या ६६.६ है । जैन कवियों ने हिन्दी पश्च में इतना विशाल अन्य बहुत कम निबद्ध किया है। पुराण में छन्दों की संख्या निम्न प्रकार हैप्रथम संधि (विधानक) ४६३ पा वितीय संधि (विधानक) ७७ पश्य तृतीय संधि (विघातक) चतुर्थ संधि (विधानक) ८५ पर पंचम विधानक से ११५ विधान तक ५७७० पय योग ६६०६ उक्त पद्यों में अन्दानुसार संख्या निम्न प्रकार हैदोहा (दुहा) १३६ सोरठा अडिस्ल कवित्त चौपई विधानक की समाप्ति दोहा, सोरठा, कवित्त एवं अडिल्ल इन चार छन्दों में से किसी एक के साथ की गयी है। लेकिन कहीं-कहीं इसका अपवाद भी है और विधानक की समाप्ति चौपई के साथ भी कर दी गयी है। भाषा-मयपुराण की रचना देहली में की गयी थी इसलिए पुराण की पूल ६३६२ अग्रोह निकट प्रमू ठारे जोग, करे वन्दना सब ही लोग । अग्रवाल श्रावक प्रतिबोध, श्रेपक क्रिया बताई मोघ ।३।। पंच अणुव्रत सिंख्यामारि, गूनमत तीन कहे पुरधारि । बारहै मत बारहै सप कहै, भवि जीव सुणि पित्त में महे ।।३।। मिध्या धरम कियो प्रहां दूरि, जैन धरम प्रकास्या पुरि । घिसों दान देई सब कोई, सासत्र भेद सुणि समकिती होई ।।३।। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भाषा खडी बोली है जिस पर प्रमुख रूप से राजस्थानी भाषा का प्रभाव दिखाई देता है । कहीं-कहीं उर्दू के शब्द भी आ गये हैं जो उस समय बोलचाल की भाषा में प्रचलित थे ! ती पुरको शुद्ध परिगाजित है । शब्दों को बिगाड करके प्रयोग करने का कवि रवमात्र नहीं है । १७वीं शताब्दी में जेन कवियों ने अपने काव्यों को सही बोली में लिखना प्रारम्भ कर दिया था। प्रस्तुत गमपुराण इस धारणा का स्पष्ट प्रमाण है । उन्होंने प्रान्तीयता अथवा भाषावाद के मोह में न पड़कर सदव प्रदेश में प्रचलित भाषा में काव्य रचना की है। पुराण की भाषा पर राजस्थानी का पुट है। कहीं-कहीं क्रिया पदों में में राजस्थानी क्रिया दी का प्रयोग किया गया है तो कहीं-कहीं राजस्थानी शब्दों का प्रयोग बहुतायत मे दुपा है। क्रियापद--(1) पहली दुःख प्रजा कून्यू', मधुसूदन का वैर हूं ल्यू ३८४/४३३२ यहाँ घ एवं स्यू विधायें राजस्थानी भाषा का है। (2) लोग खंदाया उसके पास (१०४६२६] इसमें खंदाया क्रिया पद ठेठ राजस्थानी भाषा का है जिसका अर्थ भेजा होता है। त्रिया पदों की तरह शब्दों का और भी अधिक प्रयोग हुअा है। राजस्थानी शब्दों में से कुछ शब्द निम्न प्रकार है पारणार (३२,४४६ : प्राग्योणी (४२.९६) जनवासा (५८/६८) बीजणा (२०७:२००४), तिसाया (२२६:२२७४) लेएकु (२०६२२५४१, पाणी (२०६॥ १६६०), भाभी (१६४१८२७), जान (मराम) (१८६९), जिनावर (जानवर १५८ ! १३५०) वाहण (१७११५७८) । राजस्थानी फाब्दों के प्रयोग की तरह उर्दू शब्दों का भी पुरा में यत्र-तत्र प्रमोग हुआ है जिसका प्रमुख कारण मभाचन्द मुनि का जन सम्पर्क ही कहा जा सकता है। बवील (२७८३), फरमान (१४५५). दिलगीर (२०७:२०१३), फरमानो गलाम (१९२:१८१४) जैसे शब्दों का प्रयोग प्रस्तुत काम में देखा जा सकता है। कहीं-कहीं उर्दू के शब्दों का मरनीकरणा भी कर दिया है। 'मलाम' शब्द का ह निकालकर मलम (८४:३५४) से काम चला लिया है। ___ इसके अतिरिक्त बजभाषा का भी पुरण पर स्पष्ट प्रभाव है । लोकू, मोकूँ शब्दों के प्रयोग के अतिरिक्त शब्दों के प्रागे 'क' प्रत्यय शब्द जोड़ कर प्रयोग करने की पोर कवि की अधिक कचि रही है। जैसे - समुद्र कू (३६२६) मोकू (३६२८) मानक (३६३०), रामक । ३६१७) शब्दों की पुराण में बहुतायत है । लेकिन विभिन्न भाषाओं का प्रभाव होते हुए भी पदमपुराण मुख्यतः खड़ी Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममि सभाधंव एवं उनका पपपुराण वोली की महान् कृति है जो कवि के प्रगाघ भाषा ज्ञान की द्योतक है। हिन्दी भाषा में १७वीं शताब्दी में ही खड़ी बोली की परिस्कृत रचना मिलना भाषा साहित्य के अध्ययन की दृष्टि से भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है । रस एवं अलंकार पद्मपुराण शुद्ध सात्विक कृति है जिसका पर्यवसान शान्त रस प्रघाम है। इम के प्रमुख पात्र, राम. लक्ष्मण, रावण, हनुमान, विभीषण, सुग्रीव, सीता प्रादि हैं जिनके जीवनवृत्त के घागे पोर पुराण का कथानक घूमता है । प्रारम्भ में कवि ने भगवान मटामीर के पवन मनमकी दिवानि द्वारा निर्गन प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव से लेकर २०वें तीर्थकर मुनिसुवत नाथ के पाबन जीवन का वर्णन किया गया है जो एक भूमिका के रूप में है एवं सम के जन्म के पूर्व में होने बाले महापुरुषों की स्मति मात्र है । इसके अतिरिक्त वानर वंश की उत्पसि, हनुमान का जीवन, उनके पिना पचनंजय एवं अंजना का विवाह, विरह एवं मिलन, राक्षस चंशा, रावण का जन्म, लंका की स्थिति, रावण का पराक्रमी एवं धार्मिक जीवन, रावण द्वारा लंका की प्राप्ति, वैभव, अपार शक्ति एवं विशाल साम्राज्य आदि का चर्णन भी रामकथा के लिये पूर्व पीठिका का कार्य करते हैं । इसलिये पद्मपुराण की रचना समग्र दृष्टि से पूर्ण है उसमें कहीं पर भी न कोई मंशा छुट सका है और न किसी अंश को मनाबश्यक महत्त्व दिया गया है। इसलिए पद्मपुराण में कभी तीर्थंकरों का जन्म होता है, कभी भरत बाहुबलीयुद्ध, माली द्वारा लंका पर आक्रमण, श्रवन द्वारा युख, इन्द्र और रावण के मध्य युद्ध और अन्त में राम रावण युद्ध होता है जहां वीर रस एवं दूसरे रसों का खुल कर प्रयोग हुप्रा है वहीं दूसरी ओर संसारस्वरूप वर्णन (पृष्ठ ४७), तत्वबर्णन १४३३), राम की तपस्या (५५६६) जसे वर्णन राम्य प्रधान वर्णन हैं जिसमें सात रस का प्रवाह होता है। पद्मपुराण में गार रस का भी बहुत प्रयोग हुप्रा है । पद्मोत्तर को सुन्दरता, मन्दोदरी का सौंदर्य वर्णन, आदि ऐसे कितने ही स्मल है जिनमें सौंदर्य का मुक्त हस्त से वर्णन हमा है। श्रीकंठ की पुत्री की सुन्दरता का वर्णन देखिए पर्वत ज्यू पुन्यू चंद, घट बढे यह सदा अनन्त । दीरध नयने श्रवण सो लगे, देख कुरंग वन मांहि भगे ।।५४४१३ दंत चिपके ज्यों होरों की ज्योत, मस्तक कपोल पृथ्वी उद्योत । नासा भौंह बनी छवि घनी, बनी कीतं न जाय गिनी ।। ५५.१४ रावरण की रानी मन्दोदरी की सुन्दरता भी देखियेसे कवि चन्द्रमुली कहै, वह घटै बर्ष या समनित रहै। किम कविराज का है मृग मैन, यई भय दायक सुख की देन ॥७८/२६८॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ इसी तरह वीर रस से तो पद्मपुराण मरा पड़ा है। पुराण में स्थान स्थान पर युद्ध होते हैं जो वीर रस से पूर्ण हैं। राम रावण युद्ध का एक वन देखिये - घोड़ा से घाढा तब लड़े मंगल सौ मंगल प्रति भिडे | रथको रथ पर दिया हिया पेल, प्रेस भिडे ज्यों खेलत दोषां बरखे विद्या वास, गोला गोली करें मारै खडग ट्रक हो, पीछा पाव न हरि विभत्स रस युद्ध में योद्धाओं के सिर, हाथ, पाथ बारा बहने लगी और सारा देखिये प्रस्तावना परवत मुङ भुजा का भया पडी सोन नदी यह तिहा लोध, जैसे मगरमच्छ जल तिरं, जेता रहा मुझा दोट सेन तिनका कहि म स मल्ल ।। ३२६६ ॥ घमसान ! कोइ ॥ ३३०० ।। कट कट कर गिरने लगे। रक्त की दृश्य भयानक लगने लगा। इसी का एक वर्णन लोभ पग जाई न दिया । हाथी घोडे रथ सूर बहोत || ३७३१।। लोथ रक्त में फिरे । कोड मेन ॥ ३७३२ || शान्त रस- पुराण में यत्र तत्र संसार के विरक्तता, प्रसारता, तप का महत्व एवं तत्वों का वर्णन मिलता है जिसको पढ़ कर मन को शान्ति मिलती है तथा मन रागादि भात्रों से दूर हटता है । जे जीव हठ समकित घरं, मिथ्या धरम निवार निसचे पायें परम पर्य, मुगतै सुख पार ||४९६१।। जीव तर संसारी दौड़, भव्य अभव्य उभय विष हो । अभव्य तपस्या करं श्रनेव, काया कष्ट बिना विवेक ||४६६२|| रस विधान के समान प्रकारों का भी भड़ा उपयोग हुआ है । इसलिये उपमा, उत्प्रेक्षा जैसे कुछ प्रकार हो यत्र तत्र मिलते हैं। पुराण का समीक्षात्मक अध्ययन - पद्मपुराण भारतीय संस्कृति का कोण ग्रंथ हैं । उसमें संस्कृति एवं समाज का अच्छा वर्णन हुआ है। उसके नायक राम हैं जो भारतीय संस्कृति के प्रेरणास्रोत है । राम की भक्ति एवं उनका गुणानुवाद पुण्य क्षेत्र का कारण है । पापों से मुक्ति दिलाने बाला है। राम के गुरु अथाह हैं जिनका बन करना भी साधारण कार्य नहीं है राम नाम गुन गम अयाह से गुन किस पं वरने जाय । जामुख राम नाम तीसरे, सो संकट में बहुरि न परं ||२३|| Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनि समाचं एवं उनकी पपपुराण जा घट राम नाम का वास, ताकै पाप न प्राव पास | जिल अवरराम राम जस सने देवलोक सुख पार्च घने ।।२४।। इसलिये कवि पद्मपुराण के अन्त में लिखा है कि जो व्यक्ति इस राम काव्य पद्मपुराण को पडेगा, स्वाध्याय करेगा, उसे तीनों लोकों का यश, सम्पत्ति एवं बभत्र प्राप्त होगा जो कोई सुराग धरम के काज, पावै तीन लोक का राज परम ध्यान सु पाप न रहै, केवल ज्ञान जीव वह लहै। १. राम राम स्वभाव से सरल, उदार, दयालु हैं । माता पीता के पूरे प्राज्ञाकारी हैं अपने भाइयों से स्नेह रखने वाले है । शक्ति बाण द्वारा लक्ष्मण के मूपित होने पर बैं जिस तरह विलाप करते हैं वह उनके आत प्रेम का अनूठा उदाहरण है मै देख्या भाई का मरण, मवर भया सीता का हरण, काठ संघल प्रगनि में जरूं, लक्ष्मण का कैसे दुख भ६ ।।३३१-१।। राम प्रजावत्सल है । प्रजा के दाद में दुःखी एमं सुख में सुखी होने वाले हैं । प्रजा प्रसन्तोष अथवा सीना के प्रति गलत धारणा के कारण वे गर्भवती होने पर भी सीता का परित्याग करने में किञ्चित् भी नहीं घबराते । इसके अतिरिक्त पग्नि परीक्षा लेते समय भी कटोर हृदय वाले बन जाते हैं इसलिए उन्हें हम उन्हे “वजादपि कठोराणि मृदूनि कसमादपि" वाले स्वभाव का कह सकते हैं। राम पद्मपुराण के नायक हैं। पुराण का सम्पूर्ण कथानक उनके पीछे चलता है। राम शक्ति के पुज भी है। मुख में विजय प्राप्त करना ही उनका स्वभाव था। राघण असे शक्तिशाली शाएक से युद्ध करने में ये जरा भी पीछे नहीं हटे और अन्त में उस पर विजय प्राप्त करके ही लौटे। लेपिन अकारण युद्ध करना उनका रवभाष नहीं नहीं पा । वे रावण को अन्त तक समझासे रहे और युद्ध को टालते रहे । राम दूरदर्शी राजनीतिज्ञ भी हैं 1 जो भी उनकी शरण में मा गया वह जनका होकर रह गया । सुग्रीव, हनुमान, नल नील जैसे योद्धाओं को उन्होंने सहज ही अपनी ओर मिला लिया । विभीषणः जन प्रथम बार ही उनकी शरण में पाया तभी उसे लंकाधिपति कह कर सहज ही में उसे भी अपने पक्ष में कर लिया। राम जिन भक्त हैं। जहां भी अवसर मिला इन्होंने जिन मन्दिर के दर्शन किमे । देशभूषण एवं कुलभूषण जैसे महामुनियों को प्राहार देने में कभी पीछे नहीं रहे । वे अनेक विधानों के धारी है। राम जीवन के अन्तिम समय में दीक्षा लेते हैं तथा घोर तपस्या करते हैं। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना वे जब पाहार के निमित्त जाते है तो लोग द्वारापेक्षा करते है और उनको माहार देने में अपना महोभाग्य समझते हैं। मातम ध्यान करे रामचन्द्र, वाणी सुनत होई प्रानन्द । इनके गुण प्रति प्रगम अपार, राम नाम त्रिभुवन माधार ॥५५६६।। रसनां मोटिक कार बखान, उनके गुण का अन्त न पान । इन्द्र घरऐन्त्र जो प्रस्तुति करे, ते नहीं बोर अन्त निखर ।।५५६७।। राम को केवल ज्ञान होता है और निर्वाण प्राप्त करते हैं। २. लक्ष्मण राम के लघु भ्राता है लेकिन पाठवें नारायण है। छाया की तरह राम की सेवा में रहते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक वे अपने बड़े भाई का कभी साथ नहीं छोड़ते हैं। मद्यपि दे नारायण हैं, शक्तिशाली है, अनेक विधामो के प्रधिपति हैं सेकिन अपने बड़े भाई को देवता सुल्य मानते हैं और उनकी सेवा करने में ही अपने जीवन की सार्थकता समझते हैं। वे चक्रधारी हैं। रावण के पलाए हुए चक्र को ये ग्रहण करते हैं मोर उसी चक्र से रावण का सिर काट देते है लेकिन इसका उन्हें किञ्चित् भी अभिमान नहीं है लेकिन शत्रुओं के लिये वै यम के समान हैं । लक्ष्मण की मृत्यु देखकर राम विलाप ही नहीं करते फिन्सु अपने भाई का मृतक शरीर लिये फिरते हैं। रामचन्द्र देखें निराइ, पीत वरण देख सब का । किह कारण स्ला इह भ्रात, मुखसों कबत न बोले बात ।।५४४२।। अन्य दिवस मोहि प्रावत देखि, मादर करता पटाभिषेक । मेरे साथ बहुत दुख सहे, दण्डक बन माही जब हम रहे ।।५४४३।। रामरण मारै मेरं काज, रघुवंसी की राखी लाज । सुम बिन कैसे जीउं प्राप, कैसे इह मेटो संताप ॥५४४४।। ३. सीता जनम सुता सीता राम की प्रादर्श पस्नी है। वह अपने शास्त्र के लिये सर्वत्र प्रसिद्ध है । वह भारतीय संस्कृति की जीती जागती मूर्ति है । पति की अनुगामिनी है तथा उनकी प्राशा पालन ही उनके जीवन की उपलब्धि है । बनवास में वह उनकी छाया की तरह सेवा करती है। अपहरण के पश्चात बह रावण की मशोक वाटिकर मैं रहती है । रावण उसे फुसलाने का भरसक प्रयत्न करता है लेकिन उसके पतिक्त के कारण किसी को नहीं पलती। वह हनुमान की बातों पर अब तक विश्वास नहीं करती जब तक वह स्वयं प्राश्वस्त नहीं हो जाती।। सीता कहै सुगु हनुमान, तुम अन राम कद की पहचान । मैं तुम नहीं देख्या सुण्या, किस विष उरणसौ सनबंध दण्या । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं जनका पद्मपुराण ११ उनु के कारण माये लंक, मन में कछुपन प्राणी संफ ||३०६८।। ब्योरा सू समझामो बात, मिट संदेह सुणि विरतांत । लक्ष्मण तणी कही कुसलात, छाप एह पाई किरण भांति 11३०६६॥ सीता को राम वन में छड़ा देते हैं और अपने भाग्य भरोसे जीने को मजबूर करते है फिर भी सीता अपने ही भाग्य को कोसती है और राम को कभी दोष नहीं देती। असा कर्म उदय हना प्राय, वे सुख खासि भेजी इस लाय । के में बच्छ बिछोहा गाय, के मैं बाल बिछोह माय । के सरवर ने बिछोहा हंस, के परबोनीका राख्या अंस ॥४५६७।। राम सीता की अग्नि परीक्षा लेते हैं और उसमें वह खरी उतरती है। धास्तव में विश्व में यही एकमात्र उदाहरण है पंचनाम हिरदै संभाल, जिन बीसौं सुमरे तिकाल । सरद भूषण को करी नमस्कार, मन प्रश्न काय सत रहे हमार ।। ४६२५॥ अगनि माझ ते जो ऊबरू झूठ कहैं तो त्रि। परिजल। पंच नाम पढि चिता में पड़ी, सीतल भई प्रगान तिह घड़ी ।।४६२६।। ४. रावण रावण प्रति नारायणा है । वह बाल्य अवस्था से ही शूरवीर एवं युधिय है। भकर्ण एवं विभीषण उसके ना भ्राता है तथा चन्द्रनखा उसकी बहिन है। जब उसे माल म पड़ता है कि पहिले उसके पिता लंका के राजा थे जो उनसे छीन ली गधी है तो माता को अपना पौरुष दिखलाता है और फिर विधाएं सिद्ध करने बैट जाता है और एक साथ ग्यारहसे विद्याएं प्राप्त करने में सफलता प्राप्त करता है। सानन मारहस विद्या लई, जिनके गुरुग का पार न कहीं ।२३४/७५ विधाएं सिद्ध करने के पश्चात् वह सहज ही लंका पर विजय प्राप्त कर लेता है। उसके दस सिर एवं बीस मुजाएं हैं। वह महान् बलवान है जिसे देखते ही बड़ेबड़े योवाओं के प्राण सूख जाते हैं। लेकिन वह जिनेन्द्र का भक्त है । जिन पूजा में उसका पूरा विश्वास है । युद्ध के समय भी वह पूजा करना नहीं छोड़ता। भी जिन परम प्रसाद, वृद्धि भई परिवार की। पायो संका राज, राक्षसवंसी जग तिलक ।।४६५।। 'रावरा इन्द्र पर विजय प्राप्त करता है तथा अधंघकी बन कर समस्त पृथ्वी पर राज्य करता है । यह प्रत नियमों का पालन करता है और उन्हीं के नियमों के पालन में उसमें अपार शक्ति उत्पन्न होती है। वह प्रनम्तवीर्ष मुनि के पास निम्न प्रकार व्रत पालन करने का निश्चय लेता है-- Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्रस्तावना एक भांति व्रत पालौं सही, जे नारी मुझ इच्छे नहीं ताको सोल न खंडउ जाई, इहै वरत मुख बोलवं राई ।। १०६.३१ ।। रावण जीवन में सीता हरण जैसी एक हो गल्ती करता है लेकिन इस एक ही गल्ती ने उसकी सारी कोति धो डाली और वह सदा के लिए कलंकित बन गया । लेकिन हरण के उपरान्त भी वह उससे दूर से ही बात करता है। स्पर्श तक नहीं करता क्योकि स्पर्श करने से सतित्व भंग होने का डर है। सीता को वापिस करने में उसे अपयश का वर लगता है इसके अतिरिक्त बहु अपनी सामथ्य के सामने औरों को तुच्छ समझता है । उनकी सेना बहबट करें। मेरा बल है प्रगट तिहूं लोक, तुकाई चितवे मनसोक कहा राम है भूमिगोचरी, जिसका भय तू चित्त में घरी । राम है वांषि बंदि में ह । जे मे आणी सीता नारि, फेरस कैसे इणवार ।।३६४० ।। लेकिन राम के समक्ष रावण का पौरूष समाप्त हो जाता है । उसका चक्र उसके हाथ से छूट कर लक्ष्मण के हाथ चला जाता है और उसकी लीला रामप्त हो जाती है अनेक विद्यायें भी उसका साथ नहीं देती । ५. हनुमान हनुमान वानर वंशी विद्याधर है। उसके पिता पवनंजय एवं माता मंजना का चरित्र लोक में प्रसिद्ध है। हनुमान प्रारम्भ में ही वीरता के धनी है पहले बह रावण का साथ देते हैं लेकिन राम मिलन के पश्चात् वह रावण का विरोधी बन जाते है। हनुमान राम का सम्देश लेकर लंका में जाता है। सीता से भेंट करता है । राम के समाचार कहता हैं। वह पकड़ा जाता है और रावण के समक्ष उपस्थित होता है | लेकिन अपने विद्याल में मुक्त होकर लंका का दाह करता है । राम लंका पर आक्रमण करते हैं तो वह सेनापति के रूप में भगली पंक्ति में रहते हैं । लक्ष्मण के मूधित होने पर यह अयोध्या जाकर विशल्या को लाते हैं । जीवन के अन्त तक वह राम के साथ रहते हैं तथा अन्त में तपस्या करते हुए मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं। हनुमान का जीवन जैन साहित्य में बहुत लोकप्रिय रहा है इसीलिए सभी भाषाओं में उनके जीवन के सम्बन्ध में कितनी ही कृतियां लिखी गयी हैं । पवमपुराण का सामाजिक जीवन ―― पद्मपुराण में देव विद्याधर, भूमिगांव, म्लेच्छ जाति के प्राणियों का वर्णन आता है और इन्हीं में से पुराण के प्रमुख पात्र बनते है : देव – देवगति के धारक देव स्वर्ग में रहने वाले होते है। कभी वे तीर्थंकरों के - पंच कल्याणकरों में आते हैं तो कभी युद्ध भूमि में दृष्टि करते हैं । यक्ष एवं पक्षिणी देव जाति में ही गिनी जाती है । देवों के विक्रिया ऋद्धि होती है जिससे वे अपना कुछ भी रूप बना सकते हैं । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं उनका वारि ९१ विद्याधर- मनुष्य जाति में ये विद्याधर विशेष जाति के होते हैं जो ग्राकाशचारी होते हैं। विमानों के द्वारा मे शाकाश में चलते है। अंजना, पत्रनंजय, हनुमान सभी विद्याधर जाति के मनुष्य थे। इनकी विद्यायें स्वतः ही प्राप्त हो जाती है। विद्याओं के धारक होने के कारण इन्हें विद्याधर कहा जाता है। भरत को राजसभा में विद्यावर नरेश भी थे। मंजना को पुत्र के साथ विद्याधर नगर ले माया गया था । पंजनी मति विवाश बैठाई, वसंतमात्रा संग लई चढाइ | विद्याधर ले निजपुर चल्ला, सुगन मुहूरत साध्या मला । बैठा विधारण चले प्राकास देख्या रबि बालक माका ।।१३२६ ।। भूमिगोचरी-भूमिगोचरो का मर्थ मनुष्यों से है जो केवल भूमि पर ही चलते है । राम, सीता, लक्ष्मण, जनक, दशरथ मादि सभी भूमिगोचरी कहलाते थे । राबशा अपनी शक्ति के सामने मूमिगोवरियों की शक्ति को कुछ नहीं समझता था 4 म्लेच्छ - म्लेच्छ खण्ड में रहने वालों को ग्लेच्ख कहा जाता था । रावण का प्रदेश से खण्ड में बिना जाता था । ये म्लेच्छ बड़ी दुष्ट प्रकृति के होते थे और सत्पुरुषों को संग किया करते थे । रावण यद्यपि राक्षस वंशी या लेकिन उसकी गिनती भी म्लेच्छों में भाती भी ये भतिशय शक्तिशाली होते थे । राजा जनक ने दशरथ से लेच्छों से छुटकारा पाने के लिए ही राम लक्ष्मण को मामन्त्रित किया था। म्लेच्छ मोहि घेरा है श्राय, थाणा मेरा दिया उठाय । पीड़ा परजा कु दे हैं घनी, देबल अहि गड विहां हणी साधा कू देहै जपसर्ग, जिसकूं तिस मारेख ड्ङ्ग ।। १८०० ॥ विवाह वर्णन पुराण युग में पति पत्नि के रूप में रहने के लिए विवाह बन्धन आवश्यक माना जाता था । पद्मपुराण में विवाह के दो रूप सामने आते है एक स्वयंबर द्वारा, दूसरा सप्तपदी द्वारा बारात लेकर कभ्या के पिता के घर जाकर दोनों प्रकार के विवाह जन समाज द्वारा मान्य थे । ममरप्रभ विवाह के लिए बारात लेकर गये थे। नगर के पास बारात आने पर मगवानी की गयी थी (४८ /६७) बारात ने जनवासा किया था। विवाह में कपड़े, गहने, हाथी एवं घोडे दिये गये थे। रात को जीपनचार देकर सम्मान किया था। श्रीमाला का स्वयंवर रचा गया था । कन्या में पंप पसन्द के वर के गले में माला पहिनायी थी। रावला ने शुभ मुहर्त में मन्दोदरी के साथ विवाह किया था। (७४ / २६८) सीता ने स्वयंवर में राम के गले में माला डाली थी । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जोमनवार विवाह लगन के पश्चात् विशाल रूप में जीमनवार होता था । पूरै नमर) गांव को जीमनबार दी जाती थी। सीता के स्वयंबर के पश्चात् एक बहुत बड़ी जीमनवार की गयी थी। सोने के बालों में खाना, बोबी के कटोरे में दूध पीना उस समय साधारण बात थी। मिष्ठानों का विवरण पढ़ने योग्य है कोणा कोणी पर बरफी स्वेत, घेवर लाह परुस्या हैत । खुरमे मीरा पूरी धनी, बहुत सुवास सनोकी बनी ॥१९४१॥ घोल बडे व्यंजन बहु माप्ति, हरे जरद बहु गणे न भात । भात वाल अति प्रत सुवास. सिखरण का दौंना वरि पाति ॥ तामें जरा लायची सोंग, मेवा मेल्या तिहां मोहन भोग । मोठा मिरव जीरों का मिस्या, लग संघात तिहा चिल्यो ॥१६४३॥ जीमने के पश्चास पान, नौग, केशर, जावत्री दी जाती थी। विभीषण ने जब राम के स्वागत में विविध पक्वान्न बनाये थे लेकिन उनमें भात दाल दही दूष मादि की रसोई प्रमुख थी बाह पक्रवान पर ध्यंजन धने, मात दाल सामग्री मिले। कनकतबाई सोबन थाल, बैठा जिमैं सब भुपाल ॥३९२६॥ निरमल जल सौ भारी मरी, पीय भूपति माने रली । दूष दही जीमें सब भूष, षदास व्यंजन बरण अनूप ।।३३।। स्वप्न दर्शन और स्वप्न फल-- __ स्वप्न दर्शन भावी घटमा के सुचक होते हैं। तीर्थ कर की माता को जो सोलह स्वप्न पाते हैं उनसे माता के उबर से तीर्थ कर पुत्र जन्म के साथ उसके सुसरे लक्षण भी प्रकट होने लगते है। होय पुत्र फल मन मानन्द, जानह पूरनवासी चन्द्र । सुर नर इद करेंगे सेब, तीन लोक के वानव देव ||७७॥ भव सागर का तोडे जाल, धर्म सरीर धर्म प्रतिपाल । विद्याधर नपति पसुपतो, इनमें बहोत हावै रती ।।७८|| राजा श्रेणिक को पद्मपुराण के कथानक के प्रति प्राश्चर्य एवं जिज्ञासा स्वप्न में ही प्रतिभाषित हो गयी थी जिसका समाधान भगवान महावीर की दिव्यध्वनि द्वारा हो सका था (१२/१६-१७८)। मवेषी को भी सोलह स्वप्न पाये थे जिनका फल तीर्थकर ऋषभदेव के रूप में पुत्र उत्पन्न होना था। कैकेयी ने पुत्र जन्म के पूर्व तीन स्वप्न देखे थे-- प्रथम सिंघ गजी रव करे, हस्ती हम बहुत मन घरै । दूजे मंगल देख्या अली, सरोवर में वह करता रली ।।७१/१०।। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनि सभाप एवं उनका पयपुराण कमल उखारि लिपा मुख माहि, भानू मेरे मन्दिर आहिं । सीजे देल्या पूरण चन्द्र, सुपने देख मया प्रानन्द ॥७१/१८१।। इसी तरह लवकुश होने के पूर्व सीता ने भी स्वप्न में निम्न प्रकार देखा था रात पाछली बटिका प्यार, सुपिना निध पाई तिह पार । दोई केहरी गर्जत देखे, सायर अल निर्मल पेषे ।।४४६५॥ देव विमाण प्रायता माणि, जाणु सुख में से प्रारण । भए प्रभात जागरण के बेर, गावे गुणीजन मधुरी और ॥४ || उसी तरह राम की माता अपराजिता एवं लक्ष्मण की माता सुमित्रा ने भी स्वप्न देखे थे जिनका फल राम और लक्ष्मण जैसे महापुरुष पुत्र के रूप में उत्पन्न होना था। शकुन एवं शकुन फल स्मन स्वयं व्यक्ति का पाते हैं जबकि शकून अन्यत्र होते हैं जो शुभ शकुन एवं अपशकुम दोनों सरह के होते हैं। जैसे ही प्रयोध्या में राम और लक्ष्मण का जन्म होता है रावण के पहां अपशकुप होते हैं रावण के घर उलकापात, बिजली परी कापिर वह जास्त । रात विषस शैवं मंजार, कूकर रोवे बारम्बार ॥१७११।। मेंमल चारि सुपने माझि, बोलै काग होइ जब साँझ । अल्लू बोलै दिन तिहाँ पणे, ऐसी चिता मन रावण तणे ॥१७१२।। इसी सरह धुस के अन्तिम दिन जब रावण प्रायुधशाला में शस्त्र लेने पहुँचता है तो उसे फिर कुछ अपशकून होते हैं जिससे उसको बड़ी चिन्ता होती है। रावण प्रावधसाला घल्या, तिहां सुगम खोट सहूं मिल्या 1 इंट सों छात्र पड्यो भूमि, टूटी धुरी पाया ग्य भूमि ॥३६२०॥ माग होइ मिकल्या मांजार, स्वाम कान झाया तिन बार। खोट सुगन राषण को भये, मंदोदरी सोचें निज हिवे ।। ३६२१।। राम द्वारा गर्भवती सीता को वन में एकाकी छोड़ने से पूर्व उसकी भी दाहिनी मोख फड़कने लगी थी तब उसने निम्न प्रकार विचार भी किया था दयण पोस्ति फरक सिया, पश्चाताप मन में कर लिया। करम उदै कन बेहड़ फिरी, वन माहि ते रावरए अपहरी ॥४५०३।। युद्ध वर्णन पद्मपुराण में युद्धों का वर्णन विस्तृत रूप से हुमा है। यह युद्ध राम रावरण के मध्य होने हारमा सो लोक चर्चित है लेकिन भरत वाहबली युद्ध, माली द्वारा लका पर पाक्रमण, वैश्रवन राजा द्वारा युद्ध, इन्द्र और राजा के मध्य युद्ध वर्णन भी Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ पठनीय है। ऐसा लगता है वह युग भी युद्धों का युग था मोर बिना हार जीत के कोई समस्या नहीं सुलझती थी। लेकिन भरत बाहूबली युद्ध दोनों भाईयों के मध्य होता है उसमें सेना तो खडी खड़ी तमाशा देखती रहती है व्ययं के खून बहाने के यह अच्छी बाल थी। इन युद्धों में भेजा, बरी, धनुष, तलवार, चक्र, गदा जैसे हथियारों के अतिरिक्त धग्निबाण, मेघवारा, घुप्राबागा, अंधकार वाण, प्रकाश बाल जैसे हथियारों का प्रयोग होता है। युद्ध में नायपासनी विद्या, शक्तिवाल जैसी विद्याओं का भी खुलकर प्रयोग किया जाता था। रावण के घमेले के पास ग्यारह सौ विद्याएं थी और बहुरूपणी विद्या उसने बाद में प्राप्त की थी। कभी-कभी बड़े भयंकर युद्ध होते थे जिनमें जन हर्मन बहुत हुआ करती थी। ऐसे ही एक युद्ध का वर्णन देखिये प्रस्तावना परवत मुंड मुजा का भया, पड़ो लोग उस जाईल दिया । सोन नदी वह सिहा लोथ, हाथी घोड़े रथ सूर बहोत ||३७३१ ।। जैसे मगरमच्छ जल तिरे से लोथ रक्त में फिरे। जैतारण का दोउ सेन, तिनका कहि न सक कोइ जैन || ३७३२॥ रावण को नलकूबड़ से युद्ध करने में विमान से गोलियां, गोले बरसाना पड़ा था। चार योजन ( कोश) तक गोलों की मार होती थी। कवि समाचन्ध के समय मैं तोप और गोलों से युद्ध होने लगा था। इसलिये उसने इस युद्ध में भी उनका वर्णन कर दिया जो तरकालीन युद्ध कौशल का परिचायक है। युद्ध में विमानों का प्रयोग होता था । विद्याधर तो विमान से ही श्राते जाते थे। रावण का पुष्पक विमान का नाम तो सर्वत्र प्रसिद्ध है । नगरों का वर्णन I 1 पद्मपुराण में अनेक नगरों का उल्लेख आया है। इनमें से कुछ पौराणिक है तथा कुछ ऐतिहासिक वैसे सभी राजाओं के अपने-अपने नगर में जहाँ से ये ग्रपने देश का शासन करते थे । सर्वप्रथम कवि ने राजगृही नगरी का वर्णन किया है जहां सात मन्जिले महल थे जिनमें मिति विश्रों की भरमार थी । बोहे-चौड़े बाजार एवं चौपड़ थी। नगर के चारों ओर से घोड़ी एवं गहरी खाई थी यही नहीं नगर का व्यापार भी खूब तगड़ा था | महां सराफी, वस्त्र व्यवसाय, लेन-देन प्रादि होता रहता था । ऊचै मन्दिर हैं सत खिने सबसे सरल राय के बने बसें सघन दीस नहीं गंग, लिखे चित्र जिम भले सुरंग || उज्जल वर धवल दूर किये, छत्री कलस कनक के दिये ।।१/३७॥ + + + Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाम्रक एवं उनका पद्मपुराण २५ वहाँ सराफ सराफी कर, बोल सत्ति मठ परिहरै। कसै कसौटी परखे दाम, लेवा देई सहज विश्राम 11 कुडलपुर नगर तो स्वर्ग के समान था जहां न कोई दुःखी व्यक्ति था और म दरिद्रता से घिरा हुमा । महलों के पास बाग बगीचे बने हुए थे। यही नहीं झरनों में जल भी बहता रहता था। कुलपुर सिखारथ राव, मद्रापुनीत जगत में नांउ । सोभा नगर ना आइ गिनी, सुरगपुरी की सोभा बनी ।१५.५६।। दुःखी दलिदिन कोई दीन, पंडित गुनी सकल परबीन । हाट बाजार चौहटे बने, सोभा सकल कहां लौ भन ।३५.६० बाहुबली की राजधानी पोदनपुर की सोभा तो पौर भी निराली थी जहाँ सभी मकान समान थे। घरों में रहने वाली स्त्रियां अप्सरामों से कम नहीं लगती पी। बड़ी कठिनता से भरत के वकील को बाहुबली का राजमहल मिला था। ऊचे मन्दिर सब एकसार, 'ढता पहुंचा राजदरबार ।।३८४८७॥ घर-घर नारी जागि अपरा, राजमहल सब सेती खरा 11 इसी तरह मिथला नगरौ, उज्जयिनी, महेन्द्रपुर नगर,1 लंका, अयोध्या प्रादि का पद्मपुराण में वर्णन पाया है वह पढ़ने योग्य है। महावीरवाणी पद्मपुराण में यत्र तत्र तीर्थंकरों के मुख से एवं मुनियों के द्वारा वामिक उपदेश दिया गया है। जीवन पालने के नियम बताए गए हैं तथा चरित्र निर्माण के कुछ सिमान्त प्रतिपादित किये गये हैं इसलिए पदमपुराण केवल कथानक मात्र न रहकर जीवन-निर्माण का ग्रन्थ भी बन गया है। सामान्य व्यक्ति के लिए निम्न मियामों को आवश्यक बतलाया गया है तिहु काल सामायक कर, सात विसन प्राठों मद हरे । सोलहकारन का व्रत पर, दमा धर्म दस विष बिस्तरे ।। १०:५६७|| ध्यार दान दे वित्त समान, औषद अभय प्रहार समान । सास्त्र दिया पावै बह ग्याम, बिनयबंत होई तजि अभिराम ||१०/१३॥ कवि ने दान पर बहुस जोर दिया है तथा धन होने पर भी दान नहीं देने को अबश एवं पापबंध का कारण बसलाया है १. देखिये पद्य संख्या २६३ ५. म ४०६२ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना देव वविध दान, अर्थ पाम धर्महि करें। ते पाबै निरवान, जस प्रगटै तिहुँ लोक में ॥११/१५३॥ घउपह--धन पाया कछु पुन्य न किया, भपजस पोट अपने सिर लिया। श्राप साथ न खुवावे और, सदा बहै चिता की ढोर ।।१५४।। जोडि द्रव्य धरती तल दियो, केले काहू ने सोपियो। के वह धन लेवं हर चोर, के खोया जुया की ठौर ।।१५।। के वह सात विसन सो ममा, के रिण दिया तिहां यकी रह्मा । फैइ राजि में लीया दण्ड, विरपन भया जगत में भंड ॥१५७॥ ऐसे लगता है कि कधि के समय में रात्रि भोजन त्याग का नियम कुश्च शिथिल हो गया था तथा पानी को छानकर पीने की प्रवृत्ति भी कुछ कम हो रही थी। इसलिए इन दोनों नियमों को इक्षता से पालन करने पर जोर दिया है तथा नियमों को नहीं पालन करने वाले की स्ल ब भत्सना की गयी है। भोजन रयण तजे ति बात, ते कहोए मानुस को जात ! जे नर रमण भोजन खांहि, राख्यस सम जाहिये ताहि । दोहा खे नर निसी भोजन कर, कंद मूल फल खाइ । ते चिह'गति भ्रमते फिर, मोक्षपंथ तिहा नाहि ।।१०५१।। इसी तरह बिना छना पानी सेवन करने का निषेध किया है भण्डाण्यां जो पीवे नीर, कर स्नान मंजन सरीर । कंदमूलादिक सब फल खाय, मत संयम पाल्यो नहीं जाय ।।१४।। प्रेस जे सेवे मिथ्यात्व, ते नर मर करि नरके जात ॥ लेकिन भूखे को भोजन देने एवं प्यामे को पानी पिलाने में प्रपार पुण्य बतलाया है तथा सरल चित्त रख कर दूरारे के दुःख को दूर करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। मुखा भोजन प्यासा नीर, सरल चित्त जाने पर पीर । पुनि संयोग लह गति देव, नरपति लगपति उत्तम कुल भेव ।।१६।।११ पराधीनता कवि ने पराधीनसा को बहुत बुरा बतलाया है। पराधीन कछु बोल न सके, जिंहा भेजे विहां पल नहीं टिक । जैसी प्राशा सोई होय, ताको घरज सके नहीं कोई ॥४५८७।। सुभाषित एवं सूक्तियां पुराण में विविध कथानक प्राय हैं इन कथानकों के प्रसंग में कहीं कहीं कवि ने बहुत सुन्दर सुभाषित एवं सूक्तियां कही है जो सदैव मनन चिन्तन एवं जीवन में Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचं एवं उनका पपपुराण २७ उतारने योग्य है । इन सुभाषितों से काव्य सौष्ठव बढा है तथा वर्णन में मधुरता पायी है । कुछ उदाहरण निम्न प्रकार है(1) किसकी पृथ्वी झिसका राज, मौसम बहुत कर गये राज (३०/४२३) ये शब्द भरत ने ध्यानस्थ बाहुबली को कहे थे जिनके हृदय में एक शल्य था कि वह भरत को पृथ्वी पर तपस्या कर रहा है । (२) मागे को पीछा नहीले तात ( ६६) युद्ध में जान बचाकर भागने वाले का पीछा नहीं करना चाहिए। (३) ऐसा यह संसार स्वरूप, नटवत भेष कर बहुरूप (06/५५५) । मंसार की वास्तविक स्थिति बतलायी है जिसमें यह प्रामणी नट के । समान विचित्र रूप धारण करता रहता है। (४) जो नारी परपुरुष को रम, सो नारी नीची गति भ्रम (११८/८१६) (५) ज्या पकटे तीतर न वाज (१२४/८९३) (६) सोग विजोग रहट की घडी, क बहीं रीती कबही भरी (१७२/१५३१) (७) होणहार टार्यो किम टर (१८१/१६६१) (८) होगा हार कैसे टल, बहुविध करें उपाय । अगहोगी होगी नहीं, इह निमित्त का भाव ।।११, १६६२ (8) बेटी किसके घरै समाय (२०६।२०३५) (१०) दिन सेती ज्यु मोजन खाय (२२३/२२३४) (११) जती सन्यासी बिन प्रतीव, बाल वृद्ध नारी पसु जीव । पसु अपाहज मत मारो भूल, इनकी हत्या है प्रघमूल ॥२२६/२३२१ इस प्रकार और भी बहुत सी सुक्तियां एवं सुभाषित पुराण में से एकत्रित की जा सकती हैं वास्तव में ने कवि पुरारा काम को सरस एवं रोचक तथा प्रभावी बनाने के लिए इस प्रकार की रचना का प्रया सहारा लिया है। पाण्डुलिपि परिचय पपपुराण की एक मात्र पाण्डुलिपि डिग्मी (राजस्थान) के दि. जन मन्दिर में संग्रहीत हैं। इस पाण्डुलिपि में ११८ पत्र है जो १स। ४ ६ इंच साइज के है। प्रत्येक पृष्ठ में २० पंक्तियां हैं। पाण्डुलिपि संवत् १८५६ मिति प्रपाद वदि १४ सोमवार को लिखी हुई है । लिपिकार प्रशस्ति निम्न प्रकार से है इति श्री पदमपुराण सभाचन्द्र कृत संपूरन । संवत १८ से ५६ मिति आषाढ पदि १४ बार सोमवासरे लिखित पण्डित मोतीराम लिखायतं साहनी श्री गंगाराम जी की बहु जाप्ति दोराया मांडलगढ़ की उत्तराय माई का व्रत में पण्डित मोतीरामेन दीयो । पथ संख्या ११ हजार रुपया ७ दीया निजराना का शुभं भवतु।। पालि वि की प्राप्ति श्री माणकचन्द जी सटी डिग्गी के माध्यम से हुई है । वैसे Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २८ मैं एवं श्री हरकचन्दजी चौधरी भूतपूर्व समाज कल्याण अधिकारी राजस्थान अगस्त ८२ में डिग्गी के शास्त्र भण्डार की खोज में गये थे ग्रन्थों की सूची बनाते समय प्राप्त हुई थी। पद्मपुराण की पाण्डुलिपि हुई है। हो सकता है राजस्थान प्रथवा शास्त्र भण्डारों में पाण्डुलिपि मिल जाये। मैं श्री हरफ चन्द है जिन्होंने दो दिन तक ठहर कर ग्रन्थों की सूची बनाने तब मुझे मह पाण्डलिपि अभी तक यही एक मात्र देहली सादि के पोर भी चौधरी का भी भाभारी में सहयोग दिया था। पद्मपुराण का सार--- चौबीस तीर्थंकरों के मंगलमय स्तवन से पद्मपुराण प्रारम्भ होता है । इसके पश्चात् जिनवाणी के स्वरूप का कथन एवं राम नाम के महात्म्य का वर्णन किया गया है । कवि ने अपने पूर्ववर्ती प्राचार्य रविषेण के स्मरण के पश्चात् राजगृही नगरी की सुन्दरता, कुण्डलपुर के राजा सिद्धार्थ के यशोगान के साथ ही त्रिशला माता द्वारा सोलह स्वप्न, भगवान महावीर का जन्म, तप, कैवल्य एवं समवसरण का करन मिलता है। महाराजा श्रेणिक रघुवंश की कथा जानने की इच्छा प्रकट करते हैं । भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि खिरती है और गौतम गणधर द्वारा जिनवाणी के अनुसार रघुवंश की कथा का वर्णन किया जाता है । 1 गौतम गणधर रामकथा कहने के पूर्व भोगभूमि एवं चौदह कुलकरों के उल्लेख के पश्चात् प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पिता महाराजा नाभिराय एवं महारानी मरुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव का जन्म, वेषों द्वारा जन्मोत्सव का प्रायोजन, ऋषभदेव का बाल्यकाल, शारीरिक सुन्दरता, विवाह व सन्तानोत्पत्ति राज्य प्राप्ति व उनके द्वारा लोन वरा (क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) की स्थापना का वर्णन करते हैं। दीर्घकाल तक राज्य सुख भोगने के पश्चात् ऋषभदेव तपस्वी बनकर कैपत्य प्राप्त करते हैं। धर्मोपदेश देते हैं और पन्त में निर्वाण प्राप्त करते हैं। ऋषभदेव के १०१ पुत्र एवं २ पुत्रिया होती है। भरत का विग्विजय के पश्चात् अपने छोटे भाई बाहुबली से युद्ध होता है । युद्ध में यद्यपि बाहुबली की विजय होती है लेकिन उन्हें वैराग्य हो जाता है । भरत सम्राट बनते है | भरत द्वारा ब्राह्मण वर्ग को स्थापना की जाती है और उन्हें "सबसे उत्तम शंभरण भने" के रूप में स्वीकार किया जाता है। सम्राट भरत पर्याप्त समय तक राज्य सुख भोगते हैं और अन्त में भावित जन को राज्य भार सौंपकर स्वयं वैराग्य धारण कर लेते हैं। इस कथानक में विद्याधर वंश का वर्णन एवं सत्पयोष की कथा कहीं गयी है। तृतीय कथानक में अजितनाथ तीर्थंकर के वर्णन के पश्चात् सगर की उत्पत्ति, उसके साठ हजार पुत्रों द्वारा कैलाश पर जाकर गंगा को खोदना, धरणेन्द्र द्वारा भीम एवं भागीरथ को छोड़कर सभी पुत्रों को पनी कार से भस्म करना, पिता द्वारा पुत्रों की मृत्यु पर दुःख प्रकट करने के पश्चात् भागीरथ को राज्य सौंपकर स्वयं जिन दीक्षा ले लेने Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण है इसी में लंका के राजा महाराक्षस एवं उसके पुत्र अमर राक्षस मादि का वर्णन भी माता है। चतुर्थ कथा में रिगक मादा वारस नो नशा लाग्ने की इच्छा, उसकी उत्पत्ति, मेघपुर नगर में राजा मतेन्द्र पपने पुत्र श्रीकंठ के साथ राज्य करता है। उसकी एक सुन्दर पुत्री को रत्नपुरी के राजा अपने पुत्र पत्रोत्तर के लिये मांगता है लेकिन उसे यह नहीं मिलती है। एक बार जब विद्यापर सुमेरू पर्वत पर जाता है तो पुष्पोसर की लड़की की सुन्दरता देख कर मुग्ध हो जाते है । पुष्पोत्तर श्रीकंठ का पीछा करता है वह भाग कर लंका चला जाता हैं। फिर पद्मावती से उसका विवाह हो जाता है। लंका नरेशा कोतिषवस श्रीकंठ को किषलपुर का राजा बना देता है । वहां घह वर्षों तक राज्य करता है । एक बार उसने अपने पूरे परिवार के साथ मानुषोत्तर पर्वत की यात्रा की तथा वहां देव बनकर नन्दीश्वर द्वीप की यात्रा करने की इच्छा प्रकट की फिर अपने पुत्र वचकंठ को राज्य भार सौपकर स्वयं ने जिन दीक्षा धारण करली । श्रीकंठ राज्य करने लगा । एक बार उसने एक चारण ऋद्धि पारी मुनि से अपने पूर्व भव पूछे । पूर्व भव सुनने के पश्चात् उसे वैराग्य हो गया और अपने पुत्र को राज्य देकर स्वयं मुनि बन गया । इसके पश्चात् कितने ही राजा हये । इसी परम्परा में होने वाले अमरप्रभ राजा का मुगमती से विवाह हमा। कवि ने बारात एव जीमनबार का अच्छा बगंन किया है। अमरनभ मांस ती कर के शासन काल में हुए थे। इसके पश्चात् जब वासुपज्य स्वामी का शासन काल माया तो तीन तीन सागर की लम्बी अवधि व्यतीत होने के पश्चात् अमरप्रभ का फिर जन्म होता है। लंका के राजा वियत की श्रीचन्द पटरानी थी। एक बार वे दोनों जंगल में गये हा थे तो एक बन्दर ने राणी के फूल की दे मारी । राजा ने दाग से बन्दर का वध कर दिया । वानर मरने के पूर्व मुनि के चरणों में प्रा गिरा । इससे बह मर कर देव हो गया । देव ने मायामयी सेना बना कर विद्युतवेग पर चढ़ाई कर दी। लेकिन दोनों में मित्रता हो गयी। मादितपुर की रानी वेगवती की पुत्री श्रीमाला का स्वयंवर रचा गया । प्रस्ववंग में श्रीमाला से गुप्त विवाह करके उसे विमान में बैठाकर ले गया। __ माली राजा ने लंका पर चढ़ाई करके उसको ले लिया। वह लंका पर राज्य करने लगा। कुछ समय पश्चात् इन्द्रकुमार ने लंका पर चढ़ाई करके और युद्ध के पश्चात् वह लंका का स्वामी बन गया। माली मारा गया सुमाली की पत्नी फैकसी ने तीन स्वप्न देखे । उसके तीन पुत्र उत्पन्न हुए जो रावण, कुभकर्ण एवं विभीषण कहलाये। उधर इन्द्र को रावण के बन्म लेते ही दुःस्वप्न माने लगे। वह Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० चिन्तित हो गया। एक दिन रावण प्रपनी मां के साथ जा रहा था तब उसने घपनी मां से राजा और उसके नगर के बारे में पूछा। मां ने लंका के बारे में रावण को सब कुछ बता दिया। इससे रावण को बड़ा कोष आया और लंका जीतने का निश्चय किया। उसने मां के सामने ही अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया। फिर तीनों भाईयों ने विद्या प्राप्ति के लिए तपस्या करना प्रारम्भ किया । यक्ष ने बहुत प्रभार के विश्न उपस्थित किये। देवांगना का रूप धारण करके उन्हें अपने ध्यान से डिगाना चाहा लेकिन कोई भी अपनी साधना से नहीं डिगे। रावण ने एक साथ ग्यारह सौ विद्याएं प्राप्त की। प्रस्तावना रावण ने विद्या प्राप्ति के पश्चात् पहिले मन्दोदरी से विवाह किया और फिर लंका को वन राजा से छीन ली। लंका विजय के पूर्व दशानन को मदोदरी से इन्द्रजीत की प्राप्ति हुई। लंका राक्षस वंसी रावण की हो गयी । रावण एक बार कैलाश पर जिन वन्दना के लिये गया । मार्ग में उसे वालि मुनि तपस्या करते हुए मिले। रावण ने यपने विद्याबल द्वारा श्रपनी शक्ति का प्रदर्शन किया । तपस्या करते हुए बालि ने अपना अंगूठा टेक दिया । रावण उसके भार को नहीं सह सका और चिल्लाने लगा। बालि मुनि को दया श्रामी तद कहीं जाकर रावण की प्राण रक्षा हो सकी। रावण ने बालि की स्तुति की तथा वैराग्य लेने की इच्छा प्रकट की । सभी धरन्द्र ने रावण को वृद्धावस्था में साधु जीवन अपनाने की बात कही तथा रावण को एक शक्तिबाग देकर उसे पीर भी बलशाली बना दिया। इसके पश्चात् रावण ने सहखरश्मि राजा पर विजय प्राप्त की। इसके पश्चात् वसु राजा की कथा आती है। नारद एवं पर्वत के मध्य चर्चा छिड़ जाती है । पर्वत "जज्ञ किया बैकुंठा जाई" में विश्वास करता है | नारद इस विचार का खण्डन करता है। 'ज' शब्द पर दोनों में बहस होती है । वे वसु राजा के पास निर्णय के लिये जाते हैं। वसु राजा पर्वत की पक्ष लेकर अज शब्द का अर्थ बकरा बताता है । इस असत्य निर्णय से वह सिंहासन सहित नरक में जाता है पर्वत को जब चारों ओर से निन्दा होने लगी तो वह सन्यासी बन जाता है और राजा मारुत को यज्ञ करने का परामर्श देता है। जब रावण को यज्ञ का पता चलता है तो वह राजा मारुत एवं सभी विप्रों को बांध लेता है लेकिन अन्त में नारद दया करके उन्हें छुड़ा देते हैं । रावण का एक विवाह कनकप्रभा से होता है। उसकी एक कन्या मधु का विवाह मथुरा के राजा हरिवाहन के पुत्र मधु के साथ होता है । राव के कैलाश पर्वत पर जाने की सूचना पाकर इन्द्र ने नलकूबड़ राजा के भय से मुक्त करने की प्रार्थनाको शवसा सहायता के लिए दौड़ा लेकिन नलकुबड़ ने गढ़ के किवाड़ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनि समाचंब एवं उनका परपुरास बन्द कर दिये । लेकिन रावण की वीरता एवं मजेयता को सुनकर नलकूबड़ की पत्नी उपारम्भा उस पर प्रासक्त हो गयी। उसने अपनी दूतो को भेजा और सुदर्शन चक्र होने की बात कहीं। पहिले तो रावण परस्त्री से बात करने के लिए ही मना कर देता है लेकिन वह विद्या प्राप्ति के लोभ में रानो के पास चला जाता है मौर उससे विद्या प्राप्त कर लेता है और नलकबढ़ पर विजय प्राप्त करता है । मलकवा इन्द्र की सहायता करता है । इन्द्र और रावण में भयंकर युद्ध होता है इन्द्र को अपने बल पौरुष पर गर्व है। रावण सिहरथ पर सवार होकर लहता है तो इन्द्र हाथी पर लड़ता है । दोनों विभिन्न विद्याभों का उपयोग करते हैं। अन्त में दोनों में मल्ल युद्ध होता है और उसमें रावण की विजय होती है । रावण इन्द्र को दण्ड देना है। इन्द्र के पिता सहस्रार द्वारा इन्द्र को छोड़ने की प्रार्थना करने पर रावण इन्द्र को छोड़ देता है इन्द्र को पनी हार से बहुत पीड़ा होती है। इतने में मुनिचन्द्र का बहाँ प्रागमन होता है अपने पूर्व भय का वृत्तान्त जानने के पश्चात उसे वैराग्य हो जाता है मौर अन्त मे मुनि दीक्षा लेकर निर्वाण प्राप्त करते हैं । घातकी द्वीप में अनन्तवीर्य मुनि को कवल्य होता है। देवता गण वहां चन्दना के लिए पाते हैं । रावण भी वन्दना के लिए पहचता है। भगवान की वाणी खिरती है । ग्रह द्रव्य, सात तत्त्व एवं नव पदार्थों पर प्रवचन होता है । प्रणवत, महावा, दश धर्म प्रादि के पालन के साथ रात्रि भोजन-निषेष का भी उपदेशा होता है। लोभदत्त सेठ की कथा भी कही जाती है जिसके अनुसार लोभदस नरक एवं सेठ भद्रदत्त अपनी ईमानदारी से जगत में सम्मान प्राप्त करता है। सुम्भकरण रावण प्रादि सभी बत ग्रहण करते है । रावण अत लेता है कि जो स्त्री उसको नही चाहेगी उसका वह शील कभी खण्डित नही करेगा । राजा figh ने इसके पश्चात् हनुमान के बारे में जानना चाहा । भगवान की र दिव्य बनि विरी मौर गौतम गणधर ने उसका वर्णन किया । मादितपुर के राजा प्रसाद एवं रानी केतुकी थे । उनके पुत्र का नाम पवनंजय था । उधर बसपुर देश के राजा महेन्द्र एवं उसकी रानी हृदयवेगा थी। अन्जना उनकी पुत्री थी। अन्जना जब विवाह योग्य हुई तो उसके सम्बन्ध की बात चली। महेन्द्र के एक मंत्री ने रावण का नाम सुझाया और उसके वैभव का वर्णन किया । दूसरे मन्त्री ने श्रीषेण राजा का नाम बताया । तीसरे मंत्री ने पवनंजब के लिए अनुशंसा की। राजा को पधनंजय का नाम पसन्द पाया और प्रहलाद के सामने ग्रंजना पवनंजय के सामने प्रशंसा की तो उससे उसका मन खट्टा हो गया। इससे अंजना को भी भारी दुःस हुना फिर भी दोनों का विवाह हो गया। उधर रत्नदीप के राजा के साथ रावण का युद्ध छिड़ गया । रावण ने । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावमा सहायतार्थ राजा प्रहलाय को निमन्त्रण भेजा। पवनंजय ने युद्ध में जाने का प्रस्ताव रखा और सेना लेकर वह रवाना हमा । मार्ग में उसे एक नदी के किनारे पकवा बकवीं के बिरह को देखकर अंजना की याद प्रायी। यह सेना वहीं घोड़कर एक रात्रि के लिए अंजना से मिलने चला गया। दोनों में मिलन हुमा । मंजमा गर्भवती हा गयो । अब पवनंजय की माता को उसके गर्भ का मालूम पड़ा तो उस पर पुरुष के साथ गमन का दोष लगा कर उसे घर से निकाल दिया। भजना रोती बिलखती अपने पिता के घर पहुंची लेकिन वहां भी उसे कोई पाश्रय नहीं मिला। कवि ने अंजना का चारी और से तिरस्कृत होने का रामाम्चकारी वर्णन किया है। इसे अपने पिता के यहां से भी "डेला ईट पत्थर की मार, नगर मोहि तें दई निकार" से तिरस्कृत होना पड़ा । प्रन्स में अपनी दासी के साथ सघन एवं भयानक मन में एक गुफा में जाकर शरण ली। वहीं उसे एक ध्यानस्थ मुनि के दर्शन हुए। मुनि ने उसे पूर्व भव का स्मरण कराया तथा पुत्र प्राप्ति का प्राशीवाद दिया। उसी समय रनचल राजा का हानी की खोज में वहां नाना हमा। अंजना ने पुत्र को जन्म दिया लेकिन दुर्भाग्य से शिश' हनुमान विमान से गिर गया लेकिन हनुमान का कुछ भी नहीं मिगड़ा । यह घटना उसके भविष्य में पतिशय शक्तिशाली होने का संकेत मात्र थी। उधर पवजय जब युद्ध से लौटा तब मंजमा को न पाकर बहुत दुःखी हुमा । इसके निष्कासन के समाचारों से वह पागल जैसे हो गया। वह तत्काल अंजना को ढने निकला। इंजना के विरह में उसकी दशा दयनीय हो जाती है लेकिन अन्त में दोनों का मिलन हो जाता है और ये सुखपूर्वक रहने लगते हैं। एक बार वरुण ने रावण पर आक्रमण कर दिया । पत्रनंजय की सहायता मांगी गयी। इस बार स्क्य हनुमान रावण की सहायतार्थ जाते है। रावण हमुमान को देखकर बहुत प्रसन्न होता है। वरुण एवं हनुमाम में घनघोर युद्ध होता है। रावण वरुण को पकड़ लेता है। पृम्भकरण विजय के पश्चात् लूट मार मनाता है तो रावण उसकी चिन्ता करता है। वरुण को छोड़ दिया जाता है। इस युद्ध में हनुमान की वीरता का सबको पता लक्ष जाता है ! हनुमान को सुग्रीन अपनी कम्या देशा है तथा वे सब सुख से राज्य करते हैं। 20 वें तीर्थंकर मुनिसुव्रप्त नाथ का माता पद्मा के उदर से जन्म होता है। उनका जन्म कल्याणफ वेवों द्वारा मनाया जाता है। युवा होने पर उनका यशोमति से विवाह होता है । बहुत क्षों तक राज्य सुख भोगने के पश्चात बिजली गिरने की घटना को देखकर उन्हें वैराग्य हो जाता है । तपस्था के पश्चात् पहले कंबल्य होता है और एक लम्बे समय तक धर्मोपदेश देने के पश्चात निर्माण प्राप्त करते हैं । वृषभ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचंच एवं उनका पयपुराण नाथ से लेकर मुतिसुबत तक हजारों राजा होते हैं । प्रयोऽपा में बजवाह, कीर्तिधर हिरण्यनाभ, नहुष, स्योदास एवं प्रमण पावि एक के बाद दूसरे राजा होते हैं अरुण राजा के अनन्तरष एवं दशरथ दो पुत्र होते हैं लेकिन अपने पिता के साथ अनन्तरथ द्वारा दीक्षा लेने के कारण दारथ राजा बनते हैं। दशरथ के तीन रानियों थी-अपराजिता, कैकयी एवं सुमित्रा। एक दिन रावण के यहां नारद ऋषि का प्रागमन हुआ । रावण द्वारा अपने मारने वाले का नाम जानना चाहा लो नारद ने दशरथ के पुत्र लक्ष्मण का नाम था जन्म की कीमत का सामनार | रावण ने तत्काल दशरथ एवं जनक को मारने के लिए दूत भेजे लेकिन वे दूसरों को मार कर उनके सिर रावण के सामने रख दिये । रावण अपने पापको अमर समझने लगा। के कमी का विवाह स्वयंवर द्वारा हसा था । स्वयंवर के पश्चात् केकयी ने दशरथ का पुगा साप दिया। दशरथ की विजय हुई। राजा दशरथ ने प्रसन्न होकर फैकयी से यथेच्छ वर मांगने के लिए कहा लेकिन रानी ने भविष्य के लिए सुरक्षित रख लिया । दशरथ मानन्द राज्य करने लगे । अपराजिता, के राम, सुमित्रा के लक्ष्मण एवं के कयी के भारत का जन्म मा । सुमात्रा के शत्रुधन पंदा हुए । इनके जन्म होते ही रावण के घर अपशकुन होने लगे। चारों भाई विभिन्न विद्यायें सीखने लगे। जनक के घर सीता एवं भापण्डल का जन्म इना। भामण्डल के पूर्व भव के वर के कारण जन्म होते ही देवतागण उसे उठा ले गये पौर रथुनुपुर राजा के जिन मन्दिर में बैठा गये । सुदरमणा रानी के कोई सन्तान नहीं होने के कारण उसका सालन पालन उसी ने किया । जनक यं दशरथ दोनों ने भामण्डल की बहुत तलाश की लेकिन कहीं पता नहीं चला । एक बार जनक की नगरी मिथिला पर म्सेच्छ राजा ने अाक्रमण कर दिया । जनक ने दशरथ से सहायता की याचना की । दशरथ के स्थान पर राम लक्ष्मण जनक की सहायता के लिये गये । उन्होंने युद्ध में म्लेच्छौ की सेना को भगा दिया। इससे जनक ने राम को सीता देने की इच्छा प्रकट की। इसी समय नारद ऋषि भी राम का पौरुष देखने पाये। उन्होंने सीता का रूप देखना चाहा तो सीता नारद को देखकर हर गगी। इसमें नारद ने जनक फो काय उत्तर देना जाहा 1 वह रथ नुपुर के विद्याधर राजा प्रभामंडल के पास गये और सीता के चित्र को उसे दिखाया। प्रभामंडल चित्र को देखते ही उस पर प्रासक्त हो गया। विवाह के लिये जनक के सामने प्रस्ताव रखा गया । स्वयंबर रचने का निर्णय लिया गया। सीता का स्वयंवर हुमा मौन राम के साथ सीता का विवाह हो गया । विवाह के अवसर पर जो मिष्ठान्न बने कवि ने उनका बाहुन सुन्दर वर्णन किया है । स्वयंवर Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ प्रस्तावना के प्रवसर पर जब राम ने धनुष खेंचा तो एक मेघ के समान गर्जना हुई, एक भूचान सा माया । देवताओं ने भाकाश से जय जयकार किया। इसी समय भरत का लोक सुन्दरी से विवाह हुआ। दशरथ, राम प्रादि परिवार के सभी सदस्य जब अयोध्या लोट पाये तो सबने जिन पूजा की और गधोदक को सिर पर चढा लिया । उधर भामण्डल को सीता से विवाह करने की प्रबल इच्छा हुई लेकिन जब उसने सीता के वियाह की बात सुनी तो अपनी सेना लेकर विदेह देषा की मोर चला। वहां जाने पर भामण्डल को जाति स्मरण हो गया । वह सीता की याद में मूच्छित हो गया । इधर सीताजी को भी अपने भाई की याद माने लगी। दशरथ परिवार सहित मुनि के पास गये और भामंडल के विछड़ने का कारण पूछा। विस्तृत बुतान्त जानकर उन्हें वैराग्य हो गया । थे चिन्तन करने लगे शुभ अशुभ का भाव ए, देखो समझि विचार । सुपना का सा सुख ए, जात न लाग बार ||२११२।। दशरथ ने राम को राज्य देने का निश्चय किया। इतने में ही ककेयी ने राजसभा में प्राकर भरत को राज्य देने का वर मांग लिया । कैकयी की बात सुनकर दशरथ बहुत दुःखी हुए लेकिन कोई उपाय नहीं था। भरत ने प्रारम्भ में र लेने का गौर सेगी किन राः पहेच्छा से राज्य को त्याग कर सीता एवं लक्ष्मण के साथ वन की ओर चले गये पौर अयोध्या में भरत राम्य करने लगे। दशरथ ने वैराग्य धारण कर लिया । राम का बन गमन-- राम प्रपने भाई एवं पत्नी सहित सर्वप्रथम उज्जयिनी पहुंचे। वहां सिहोदर राजा राज्य करता था । लक्ष्मण ने सहज ही उस पर विजय प्राप्त करलो प्रोर वे तीनों मागे बढ़े। एक बार सीला को प्यास बुझाने के लिए गए हुए लक्ष्मण को विद्याधर राजा मिला । उसने तीनों का बहुत सम्मान किया । प्रागे चलकर उन्होंने रुद्रत राजा से बालखिल्म को छुड़वाया। वे सब कुबड़पुर पाये। वहां सिहोदर एवं वजुकरण राजा भी मिल गये। वहां से तीनों मागे बढ़े। मार्ग में एक विप्र के घर पानी पिया । लेकिन विप्र ने बहुत क्रोध किया । लक्ष्मण उसे मारने दौड़े लेकिन राम ने उन्हें शान्त कर दिया। फिर तीनों ने एक बस्ती में जाकर मन्दिर में विश्राम किया। मन्दिर का देवता राम से बहुत प्रसन्न हुमा । इनके लिये उसने मायामयी नगरी की रचना की । तीनों ने प्रथम चातुर्मास वहीं व्यतीत किया । चातुर्मास के पश्चात् वे विजयवन में गये । वहां के राजा पृथ्वीवर की पुत्री वनमाला लक्ष्मण पर प्रासक्त हो गयी और लक्ष्मण के नहीं मिलने पर अपपात करने लगी । लक्ष्मण ने प्रकट होकर उसे बहुत समझाया और अन्त में पत्नी के रूप Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभा एवं उनका पमपुराण में उसे स्वीकार कर लिया । इसी बीच अनन्तवीर्य राजा ने अयोध्या पर प्राक्रमण कर दिया । भरत की रक्षा के लिए पृथ्वीधर ग्रादि राजा प्रा गये। दोनों में भयानक युद्ध हुमा। युद्ध के पश्चात् अनन्त वीर्य ने वैराग्य धारण कर लिया और तपस्या करने लगा। वहां से सुलोचना नगर के वन में गये 1 खेमोजलपुर में विधाम किया। यहां जितपमा पर लक्ष्मण ने विजय प्राप्त की। उसके साथ विवाह कर लिया। उसे वहीं छोड़कर वे वंसस्थल नगर पहुंथे । वहां के वन में चार प्रजगर देवता के रूप में थे । इसी वन में देसभूषण कुलभूषण मुनि पर आये उपसर्ग को दूर किया। उन्हें वहीं कैवल्य हो गया । फिर वे रामगिरि पहुंचे। यहां दो चारण ऋद्धि घारी मासोपवामी मुनियों को माहार दिया । मार्ग और भी मुनियों के उपसर्ग दूर किये । मुनियों देख कर वृक्ष की डाल पर बैठे हुये गृख पक्षी को पूर्व भव का ज्ञान हो गया। उसने व्रत धारण कर लिया। राम लक्ष्मण प्रागे चले । दंडक वन में उन्होंने रहने का निश्चय किया। दंडक वन की विशालता एवं सुन्दरता का कवि ने अच्छा वर्णन किया है 1 इसी बन में खरष्ट्रषण का पुत्र मंबुक सूरजहास खड्ग प्राप्ति के लिए घोर साधना कर रहा था। लक्ष्मण को खड्ग की गन्ध प्राने पर वह भी यहां चला गया । लक्ष्मण को सूरजहास सहज ही प्राप्त हो गया। जब उसने सरजवास के सामर्थ्य की परीक्षा लेना चाहा सो संबुक का सर कट गया जो १२ वर्ष से उमको प्राप्त करने के लिए तपस्या कर रहा था। वहीं पर लक्ष्मण को देयोपनीत वस्त्रों की प्राप्ति हई । उपर खरदूषण की पत्नी एवं संयुक की माता चन्द्रनखा घोर बिलाप करती हुई लक्ष्मण के पास प्रायी । पहले उसने लक्ष्मण से विवाह करने का प्रस्ताव रखा, लेकिन उसमें सफलता नहीं मिलने के कारण वह खरदूषण के पास चली गयी। संबुक के मारे जाने से खरदूषण को बहुत दुख हुप्रा । उसने राम लक्ष्मण से युद्ध करना चाहा लेकिन अपने ही मंत्रियों द्वारा युद्ध की सलाह नहीं देने के कारण वह रावण के पास गया । रावण ने सीता का सौन्दर्य देख कर उसे उठा लाने की छान ली। करणमुप्ति विद्या द्वारा उपाय बतलाने पर रावण ने बारण द्वारा प्रकार कर दिया । शंखनाद किया जिसको सुनकर राम सीता को अकेली छोड़ कर लक्ष्मण की सहायतार्थ चले गये। इसी बीच रावण ने सोता का हरण कर लिया । और उसे पूष्पक विमान में बिठा कर लंका ले गया । सीता को जटायू पश्री ने बचाने का प्रयास किया लेकिन रावण ने पक्षी के परख काट कर उसे जमीन पर गिरा दिया । सीता का हृदय विदारक विलाप सुनकर रावण को भी दुःख हुमा । उसने निश्चय मिया कि जब तक सीता उसे स्वयं नही चाहेगी वह उसका स्पर्श नहीं करेगा । उधर Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मण ने खरदूषण की युद्ध में जीत लिया और सूरजहास से उसका सिर काट दिया । सीता हरण के कारण राम परयधिक विसाप करने लगे । लक्ष्मण भी रोने लगे । विद्याधरों के राजा रत्न जटी को सीता की तलाश करने भेजा । वह रावण के पास गया । उसे भला बुरा कहा । लेकिन रावण ने बारा मारा जिससे वह समुद्र में जा गिरा । णमोकार मंत्र के स्मरण से वह बाहर निकल प्राया। सीता को अशोक वाटिका में रखा गया। रावण ने सीता को मनाने का बहुत प्रयास किया । रावण की दूसियां उसके पास पहपी लेकिन सब व्यर्थ गया । रावण के मंत्री मण्डल ने सब परिस्थितियों पर विचार किया लेकिन वे निर्णय पर नहीं पहुंच सके। सर्वप्रथम राम से किषध नगर के राजा सुग्रीव पाकर मिला । सुग्रीव का राज्य चला गया था । राम ने उसको वापिस दिलाने का प्राश्वासन दिया लेकिन साथ में सीता को कर लाने की भी बात कही। सुग्रीव ने साल दिन का वचन दिया । राम ने तत्काल सेना एकत्रित करके विट सुग्रीव पर प्राक्रमण कर दिया और उसे पराजित करके सुग्रीव को वापिस राजा बना दिया। राज्य प्राप्ति की खुशी में सुग्रीव ने राम को कन्यायें भेट की जो सब कलामों में निपुण थी। वारों और सीता की खोज होनी जनी । सुग्रीक विपापर मानवी सन पौर उसे राम के पास ले पाये । रलजटी ने रावण द्वारा सीता का हरए की बात कही तथा उसकी शक्ति सेना एवं विद्यासिद्धि के सम्बन्ध में बतलाया तथा कहा कि रावण को जीतना प्रासान नहीं है इसलिये बह दूसरा विवाह कर लेवें । जांबुनद __ मंत्री ने भी इसका समर्थन किया । उसने कहा कि रावण ने तीन खण्ड पृरबी जीत लेने के पश्चात् अपनी मृत्यु के सम्बन्ध में जानना चाहा । उस समय भविष्यवाणी ई थी कि जो भी कोटिशिला को उठा लेगा उसी के हाथ से रावण की मृत्यु होगी । तत्काल राम लक्ष्मण सुग्रीव कोटिशिला उठाने पले । लक्ष्मण ने जाकर कोटिशिला को उठा लिया इससे सब यह जान गये कि लक्ष्मण नारायण है। प्रति नारायण रावण है जिसकी मृत्यु नारायण के हाथ से होगी। इससे राम लक्ष्मण के पुरुषार्थ की चारों भोर धाक जम गयी। हनुमान को राम लक्ष्मण के मारे में एवं सुग्रीव को राज्य की प्राप्ति के बारे में समाचार मिले तो वह भी राम की शरण में चला पाया । हनुमान ने राम की बन्दना की और राम ने भी उसे गले लगा लिया। चरण कमल पन्दे हनुमंत, रामचन्द्र भये रूपाबन्त । कंठ लगाई सन्मुख बैठाई, प्रादरि मनोहारी बहुभाय ||२६६१-२॥ हनुमान ने सौता को लाने का वचन दिया और शीघ्र वहां से बल दिया । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाध एवं उनका पंगपुराण ३७ उसने पहिले अपने ननिहाल के राजा महेन्द्र को मातंकित किया और अपनी सामध्य का परिचय दिया। मागे चल कर मुनियों की प्रग्नि घुझा कर रक्षा की। हनुमान मागे चले । संका सुन्दरी ने जब हनुमान को देखा तो लंका सुन्दरी उस पर मोहित हो गयी। उसने विवाह सूत्र में बंधना चाहा । हनुमान लंका के लिए प्रागे बढ़े मोर संफा में पहुंच गये। वहां सर्वप्रथम हनुमान ने विभीषण से मेंट की और सारी परिस्थिति समझायी । विभीषण ने रावण को समझाने का प्रयास किया लेकिन रावण कोधित होकर निम्न बात कही कहा करेगा तपसी राम, मो जीत सके संग्राम । जीती है मैं सगली मही, मोकू किस का ही डर नहीं ।।३०५२।। हनुमान वानर का रूप धारण कर सीता के पास पहुंच गया और अपने पापको राम का सेवक के रूप में प्रगट किया । सीता ने हनुमान से कितने ही प्रश्न किये । उनका सही उसर पाकर सीता को हनुमान पर विश्वास हो गया। इसके पश्चात् मन्दोदरी ने हनुमान को रावण की शक्ति के बारे में बतलाया । राम के सापसी जीवन के बारे में भी कहा लेकिन हनुमान ने सो निरुत्तर कर दिया । जब उसने मन्दोदरी की एक भी बात नहीं मानी तो उसने अपनी अन्य रानियों के साथ बुरी हालत करली पोर रावण के पास जाकर शिकायत की। रावण ने अपने सैनिकों से अनुमान को पकड़र लाने के लिए कहा लेकिन कोई भी हनुमान को नहीं पकड़ सका । पन्त में इन्द्रजीत हनुमान को नागपाश में बांष लाया मोर रावण के समक्ष उपस्थित किया । रावण को हनुमान द्वारा किये गये सभी कार्यों का ब्यौरा दिया। रावण ने क्रोधित होकर हनुमान को बहुत फटकारा और उसकी गरदन काटने की बात कही लेकिन उसकी एक नहीं चली। हनुमान ने मामावी विद्या के द्वारा सोने की लंका को भस्म कर दिया और फिर किष्किंधपुर नगर में वापिस प्रा गया। हनुमान ने पाकर राम से पूरी कहानी कही । सीता की चिन्ता, रात दिन राम का स्मरण प्रादि सभी बातें सुनायी। राम को हनुमान की बात सुनकर गहरी चिन्ता हुई । राम के साथी सभी राजामों ने युद्ध में रावण को जीतने की बात कही। युव की तयारी होने लगी । सब विद्याधर राजा एकत्रित होने लगे । अन्त में प्रासोग सुदी पंचमी के दिन से सेना ने प्रयाण किया और हंस द्वीप जाकर विश्राम किया। उपर रावण अपनी शक्ति में प्रधा बना हुमा पा । उसे अपनी विद्यामों पर गर्व या। राम लक्ष्मण को यह भूमिगोबरी कहता था। सोलह हजार मुकुटरद्ध राजा उसकी सेवा में तत्पर रहते थे । मेनिन योवानों ने रावण को सीता को लौटाने Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना के लिये समझाया । उसने किसी की नही सुनी । विभीषण ने इन्द्रजीत को राम की ताकत के बारे में सावधान किया लेकिन रावण समझने की बजाय उसे मारने को दौड़ा और उसे लंका से निकाल दिया। विभीषण राम की सेवा में चला गया यह राम की पहिली जीत थी। राम ने उसे लंकाधिपति कह कर सम्मान दिया । धीरेधोरे राम की सेना लंका तक पहुंच गयी। राम की मेला में प्रतेका रोनापति में जितनी कमर के साथी थे । दोनों की सेमा एक दूसरे के सामने खड़ी हो गयी। युद्ध प्रारम्म हो गया और प्रथम दिन की लड़ाई में राम के सेनापति नल नील के हाथों से रावण के हस्त प्रहस्त ये दो सेनापति मारे गये । दूसरे दिन फिर घमासान युद्ध हुप्रा । गोलों एवं मोली को वर्षा होने लगी। दोनों ही पोर के सैनिक मारे गये। तीसरे दिन फिर युद्ध प्रारम्भ हुमा । सुग्रीव प्रागे बढ़ा लेकिन हनुमान ने उसे रोक कर स्वयं जूझने लगा । दूसरी और रावण बढ़ने लगा तो उसके योद्धामों ने उसे रोक दिया भौर म्क्यं जोर शोर में सड़ने लगे | कुम्भकर्ण ने मूर्या बारा छोड़ा लेकिन जब नल और नोल गदा मारने लगे तो वह वहां से चला गया । इन्द्रप्रीत लोकसार हाथी पर चढ़कर लाने । मेषनाद और जबमाली, कुम्भकरण और हनुमान, समीप और इन्द्रजीत, मेधवाहन और भामंडल, बचकाण और विरावित परस्पर में भिड़ गये । गोलियां चलने लगी 1 बरछी, गदा, चक्र जैसे शास्त्र काम में लिये गये । हाथी से हाथी, घोड़ा से घोड़ा और पंदल से पंदल लड़ने लगे । इन्द्रजीत ने मेघ बाण छोड़ा उसके उत्तर में सुग्रीव ने बाण छोड़ा। फिर इन्द्रजीत ने अंधकार वारण छोड़ा । नागपाश की विद्या को याद कर सुग्रीव को नागपाश में बोच लिया। भामजस को भी नागपाश से मूच्छित कर दिया। कुम्भकरण ने हनुमान को पकड़ लिया तथा दांतों से चबाने लगा। दोनों वीर मुर्दे के समान पह गये । तभी विभीषण ने पाकर राम को दोनों के बारे में बतलाया और तीनों की लाश को युद्ध भूमि में जाकर उठा ले पाये। राम ने बड़े धैर्य से विभीषण को सुना। राम को देशमूषण-कुलभूषण केवली ने ऐसे समय देवों को स्मरण करने के लिए कहा था। राम ने वही किया । तत्काल देव प्रगट हुए और राम को कितनी ही प्रकार की विद्याएं दी। राम और सक्ष्मण दोनों ने देव वस्त्र पहिन लिए । चन्द्रहास तलवार बांध ली और दूसरे अस्त्र शस्त्र सम्भाल लिये । प्राकामा गामिनी विद्या को स्मरण किया। रथ के स्पर्श से जो हवा बली उससे नामपाश बंधन टूट गया, प्रधकार दूर हो गया तथा जो लोग मूच्छित हो गये थे वे सब जिन्दा हो गये। फिर युद्ध होने लगा। रावण और विभीषण परस्पर में लड़ने लगे । बड़ा भयंकर युद्ध हुना। रावण ने खेंच कर धनुष बाण चलाया जो विभीषण के कंठ पर समा । धनुष टूट गया लेफिन विभीषण बच मया। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनि सभा एवं उनका पुरोग उधर राम श्रीर कुम्भकरण में, लक्ष्मण और इन्द्रजीत में युद्ध होने लगा | लक्ष्मण ने नागपानी विद्या से इन्द्रजीत को मूर्च्छित करके पकड़ लिया। इसी तरह राम ने कुम्भकरण को मूच्छित करके विराधित उसे उठा ले गया । ३६ दूसरी भोर रावण और लक्ष्मण में युद्ध होने लगा। रावण ने लक्ष्मण को शक्तिवारण से मूति कर दिया। राम रावण युद्ध हुआ लेकिन रावण वध के निकल गया। वह लंका में चला गया । उसे इस बात की प्रसन्नता थी कि उसने लक्ष्मण को मार दिया । लक्ष्मण को सूचित देख कर राम विलाप करने लगे। उधर मन्दोदरी कुम्भकर्णी एवं इन्द्रजीत के मरने के कारण तथा सीता लक्ष्मण के मूच्छित होने के कारण रोने लगी। उसी समय भामण्डल चन्द्रप्रति नामक वैद्य को लाया जो शक्ति बाण की मूर्च्छा को दूर करने का उपाय जानता था । उसने कहा कि विशल्या के स्नान का यदि जल मिल जाये तो लक्ष्मण की मूर्च्छा दूर हो सकती है। हनुमान एवं प्रांगद को तत्काल प्रयोध्या भेजा गया । वहां जाकर भरत की सहायता से विधात्या को साथ लिया । विशल्या लंका भार्या और मच्छित नक्ष्मण के शक्ति बाण के प्रभाव को दूर किया । लक्ष्मण को होश में आने पर मंत्रियों ने रावण को पुनः समझाया लेकिन उसने किसी की बात नहीं सुनी। रावण ने अपना दूत राम के पास भेजा तथा इन्द्रजीत एवं कुम्भकरण को छोड़ने के लिए कहा। राम ने सीता को छोड़ने की बात दोहरायी । दूत ने सीता को भूल जाने को कहा इस पर राम ने दूत को धक्का देकर बाहर निकाल दिया | रावण पूरा व्रती पर। अष्टानिका में युद्ध बन्द हो गया। वह विद्या सिद्धि के लिए चला गया और वह घ्यानारूड हो गया। रावण के सामने जब विद्याएं प्रकट हुई तो उनसे राम लक्ष्मण को बांधने के लिए कहा लेकिन विद्यार्थीों ने अपनी असमर्थता प्रगट कर दी। रावण रण्वास में वापिस भा गया उसने समझा कि उसे विद्या सिद्ध हो गयी हैं। मंत्रियों ने रावण से सीता को फिर छोड़ने के लिए समझाया लेकिन उसने एक भी नहीं सुनी। लग जाता । जैसे-जैसे रावण अपनी पूरी सेना के साथ फिर युद्ध के लिये उतर पड़ा । लक्ष्मण रात्र में युद्ध होने लगा। स्वर्ग के देवता गए भी दोनों के युद्ध देखने लिए भा गये । रावण का एक सिर टूटता लेकिन उसकी जगह दूसरा लक्ष्मण उन्हें काटता वे दूने हो जाते । श्राखिर रावण ने दिया । चक्र की प्रभा से चारों ओर प्रकाश हो गया। सभी लेकिन वह च लक्ष्मण के हाथ भा गया। फिर लक्ष्मण ने उसी चक्र को रावण के ऊपर चला दिया जिससे रावण के हृदय के टुकडे टुकले हो गये और उसके प्राणों का अन्त हो गया। लक्ष्मण पर चक चला योद्धा चकित रह गये Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० प्रस्तावना विभीषण रावण के पास जाकर बहुत रोया । यह कितनी हो बार मूच्छित भी हो गया । राम ने वैद्य को बुलाकर उसका उपचार करवाया। रानियां विलाप करने लगी । तथा छाती पीट-पीट कर रोने लगी। रावण का विभीषरंग ने दाह संस्कार किया । राम ने कुम्भकरण एवं इन्द्रजीत को छोड़ दिया जिन्होंने वैराग्य धारण कर लिया। उसके पश्चात् राम में सेना के साथ लंका में प्रवेश किया जहां विभीषण ने उनका जोरदार स्वागत किया। राम सर्वप्रथम सीता के द्वार पर गये जहां सीता अपने दिन काट रही थी। वह दुर्वल देह हो गयी थी। मलिन केश थे। राम से बिछोह के पश्चात् उसने सब कुछ छोड़ दिया था। सीता ने मांखे खोली और राम के हाथ जोड़ कर वर्शन किये। लक्ष्मण ने सीता के चरण हुए। भामण्डल भाई ने सीता से कुशल क्षेम पूछी । लंका की शोभा निराली थी। वहां कितने ही जिन मन्दिर एवं सहस्रकूट वेश्यालय है। गांतिनाथ स्वामी को जिन प्रतिमा विराजमान थी । मन्दिरों के सभी ने दर्शन किये। पूजा विधान किया। सभी राजाओंों ने राम लक्ष्मण को अपना राजा स्वीकार किया। इसी समय नारद ऋषि का वहाँ श्रागमन हुआ। वे इससे पूर्व अयोध्या जाकर आये थे। नारद ऋषि ने राम से अपराजिता के दुःख एवं भयोध्या में उनकी प्रतीक्षा के समाचार सुने तो राम ने शीघ्र ही अयोध्या लौटने का निश्चय कर लिया। पहले उन्होंने अयोध्या में अपना दूतं भेजा जिससे लंका विजय एवं अयोध्या आगमन का सबको समाचार मालूम हो सके। राम ने लंका का राज्य Frater को देकर भाप सब अयोध्या के लिए रवाना हो गये। वे सभी पुष्पक विमान द्वारा चले । मार्ग में राम ने पुष्पक विमान से वे सब स्थान दिखलाये जहां वे ठहरे थे । प्रयोध्या में पहुँचने पर उनका जोरबार स्वागत हुआ। भरत एवं शत्रुध्न ने वोनों के पैर छुए। चारों मोर द्यानन्द छा गया। कुछ समय पश्चात् भरत को जगत् से वैराग्य हो गया। परिवार के सभी सदस्यों ने उन्हें बहुत समझाया लेकिन उन्होंने जगत् की नश्वरता की ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया। इसने में एक उन्मत्त हाथी ने भरत के पास भाकर और स सूड उठाकर उन्हें नमस्कार किया। हाथी को जाति स्मरण हो गया था। भरत एक हाथी पूर्वभव में साथी मे । हाथी पर चढ़कर भरत ने वैराग्य बारण कर लिया उ हाथी भी भोजन पान छोड़कर खड़े-खड़े तपस्या करने लगा इतने में कुलभूष देशभूषण मुनियों का वहाँ आगमन हुआ। लक्ष्मण ने हाथी के पूर्व भव के बारे म उनसे जाना। इससे सभी को जगत् की नश्वरता के बारे में और अधिक विश्वास हुमा राम एवं लक्ष्मण का विधिपूर्वक राज्याभिषेक सम्पन्न हुआ। राम ने सब Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंव एवं उनका पद्मपुराण राजामों को अलग-अलग देश दिया। सुग्रीव को किबंध नगर नल नील को प्रति नगर, विभीषण को लंका राज्य, हनुमान को श्रीपुर का राज्य, रतनजटी को विद नगर एवं भावमंडल को रयनुपुर देश का राज्य दे दिया । शत्रुघ्न ने मथुरा का राज्य मोगा लेकिन राम ने कहा कि मथुरा पर रावण का जामाता मधु राज्य कर रहा है जो बहुत बलशाली है। लेकिन शत्रुघ्न नहीं माना। उसने मथुरा पर आक्रमण कर दिया | मधु ने बहुत भयंकर युद्ध किया । उसे युद्ध के मध्य ही वैराज्य हो गया । वह अत्मचिंतन करने लगा तभी शत्रुघ्न ने उसकी गर्दन उड़ा दी लेकिन जब उसे मधु के वैराग्य का पता चला तो उसने हाथी से उतर कर मधु को नमस्कार किया। मधु मर कर पांचवें स्वर्ग में गया । ** मधु के मरने के दुःख से उसके व्यंतर मित्रों ने शत्रुघ्म पर प्राक्रम र दिया | धरोन्द्र ने उसे बहुत समझाया लेकिन उसने किसी की नहीं मानी । सर्वप्रथम उसने प्रजा को दुःख देना प्रारम्भ किया। शत्रुघ्न मथुरा छोड़कर अयोध्या लौट श्राया । कुछ समय पश्चात् वहाँ चारण ऋद्धिधारी मुनियों का भागमन हुआ। जिनके कारण नगर में प्रान्ति हो गयी। शत्रुघ्न ने वहाँ राम लक्ष्मण के साथ प्राकर मुनि को बाहार दिया। चारों पोर अपूर्व शान्ति एवं सुख चैन व्याप्त हो गया । सीता ने एक रात्रि को दो गर्जन करते हुये सिंह, समुद्र एवं देव विमान देखे राम से स्वप्न फल पूछने पर उन्होंने बतलाया कि उसके दी यशस्वी पुत्र होंगे। सीता को प्रत्येक इच्छा पूरी की जाने लगी। एक दिन सीता का दाहिना नेत्र फड़कने लगा। उससे सीता को बड़ी चिन्ता होने लगी। एक दिन नगर के व्यक्ति मिलकर } राम के पास आये । वे कहने लगे कि हमारी पत्लियां बिना हमारी प्राज्ञा के इधर उधर जाने लगी हैं। यदि हम कहते हैं तो वे सीताजी का उदाहरण देती हैं जो रावण के घर रहकर आयी है । यह सुनकर राम को बहुत दुःख हुप्रा । उन्होंने तत्काल लक्ष्मण को बुलाया और पूरी बात कही। राम ने कृतांतवक सेनापति को बुलाया घोर खोला को वन में छोड़ने का प्रादेश दिया । लक्ष्मण ने इसका घोर विरोध किया लेकिन राम ने किसी की नहीं सुनी 1 जब सीता को वास्तविकता का पता चला तो वह पछाड़ खाकर रोने लगी । उसने रोते हुए राम को निम्न सन्देश देने के लिये कहा F परिजा ने दुखि मत करो, दया समकित चित में परो । पूजा दान करो दिन सीता को अपने स्वयं पर बहुत दुख होने लगा । वह सोचने लगी कि किन पापों के कारण उसे इतना दुःख उठाना पड़ रहा है । कुछ ही समय पश्चात् उस वन में पुंडरीक नरेश वचजंघ का हाथों के कारण वहाँ माता हुआ । उसने सीता का राति सुमारे समय में इह भांति ||४५८६ " Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना विलाप सूना मोर उसके पास माकर जानकारी प्राप्त को। वनजंघ के अनुनय विनय करने पर सीता ने अपना परिचय दिया तथा उसे बहिन कहकर घर चलने को कहा । सीता वनजंघ के साथ उसके घर चली गयी जहां परिन ने उसके घरण स्पर्श करके पपने भाग्य को सराहा । उधर कृतांतवक्र ने बहुत विलाप किया और राम के पास जाकर सब कुछ निवेदन किया। राम लक्ष्मण दोनों ही सीता के वियोग में दुःखी रहने लगे। सीता ने अादरण सुदी पूणिमा को युगल पुत्रों को जन्म दिया । चारों ओर प्रसन्नता छा गयी। बनजंघ ने खूब दान दिया। दोनों शिशु से बालक एवं बालक से बड़े हुए । सीता भी अपने बच्चों को पालने में सब दुःख भुला बैठी। शिशु घुटनों के बल चलने लगे। कुछ बड़े होकर गुरु के पास पढ़ने लगे । सभी शास्त्र पढ़े। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र के ममं को जाना । धीरे-धीरे दोनों भाइयों ने यौवनावस्था में प्रवेश किया । एक दिन बजजंध ने कुश के लिए पृथ्वीधर से कन्या मांगी। उसके मना करने पर बनजंघ ने पृथ्वीधर पर प्राक्रमण कर दिया । लव कुश भी अपनी माता से प्राज्ञा लेकर युद्ध के लिए चले गये । युद्ध में उन्हे पूर्ण विजय मिली।। राजा वनजंघ की राज्य सभा में नारद का प्रागमन हुमा । नारद से उनने तीनों लोकों की बात सुनी । इसी बीच नारद ने सारी रामायए कह सुनायी । सीता का कारण निष्कासन सुनकर लव कुश ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। उन दोनों भाइयों ने अपनी माता सीता से फिर सारी जानकारी प्राप्त की। लव कुश ने अयोध्या पर अपनी सेना लेकर प्राक्रमण कर दिया। पास-पास के गांवों को लुटने लगे। जब राम ने उनके बारे में सुना तो उन्हें बहुत प्राश्चयं हुथा। राम ने तत्काल अपने सेनापत्तियों को बुलाया। दोनों में भयंकर युद्ध होने लगा। इपर नारद के कहने से भामण्डल सीता से जाकर मिला। और पूरी कहानी सुनी। फिर दोनों सेनानों में घमासान युद्ध हुप्रा । लक्ष्मण ने चक्र चलाया लेकिन वह भी लव कुश के परिक्रमा देकर वापिस भा गया। इतने में नारद ऋषि ने लव कुश का परिचय राम लक्ष्मण को दिया। दोनों भाइयों ने सीता के सतीत्व की प्रशंसा की भोर भपने द्वारा किये गये सीता निष्कासन की निम्दा की । जब राम लक्ष्मण लव कुश से मिले तो चारों ओर प्रसन्नता छा गयी। पिता पुत्र सों जब मिले, हुमा अधिक उल्लास । चन भयो सब नगर में, पूजी मन की पास ।।४८३८।। राम ने सीता को लाने के लिए नल नील, एवं रतनजटी को भेषा । सीता उनके साथ अयोध्या प्रा गयी। सबने उठ कर सीता का स्वागत किया। लेकिन राम ने Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचंच एवं उनका पद्मपुराण सीता को निष्कासन का कारण बताया। सीता ने अपने सतोस्क के बारे में बात दुहरायी और किसी भी परीक्षा में समर्पित करने की बात कही। सबने सीता के सतीत्व की प्रशंसा की पोर उसे निष्कलंक बताया । लेकिन राम के भादेश से पृथ्वी खोद कर अग्नि कुंड बनाया गया। भयंकर अग्नि जलायी गयी जिसको देख कर स्वयं राम भी सुःखी हो गये 1 सीता से अग्नि कुण्ड में कूदने के लिए कहा गया । सीता पंच परमेष्ठी का स्मरण करके मग्निकुण्ड में कूद पड़ी। लोगों में हाहाकार छा गया। लेकिन जब अग्नि कुण्ड के स्थान पर सरोबर एवं उसमें रन सिंहासन पर बैठी हुई सीता को देखा तो सब पानन्द विभोर हो गये। देवतापों ने जय-जयकार की तथा प्राकाम से पुष्प वर्षा होने लगी । सीता को नया जीवन मिला । राम भी सीता को प्रशंसा करने लगे तथा नापिस राजमहल में लौटने की प्रार्थना करने लगे। राम के भाग्रह को सीता ने स्वीकार नहीं किया तथा जगत की भसारता एवं राज्य मंभव के सुखों को धिक्कार दिया तथा पृथ्वीमती भायिका से मापिका दीक्षा ले ली। इसी मवसर पर मुनि सकल भूषण ने नरकों के दु:खों का, जीप एवं समुद्रों का, छह द्रव्य एवं सात तत्वों का विस्तार से वर्णन किया। इस अवसर पर राम लक्ष्मण एवं सीता के जीवन में इतने संकट, युद्ध एव वियोग किन-किन पूर्व कुत को के कारण हुए यह जानना चाहा । इसका मुनि ने विस्तार से प्रत्येक के पूर्व भव का कथन किया। स्वयं राम को जगत से बैराग्य हो गया। उन्होंने अन्त मे कैवल्य प्राप्त कर मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त किया। इस प्रकार पद्मपुराण महाग्रंथ पूर्ण हुमा । जो इस अपुरारस का स्वाध्याय करेगा उसे तीन लोक का सुख स्वयं प्राप्त हो जावेगा । पदमपुराण कु जे पढ़े, नाच मुगावे और । तिहुं लोक का सुख लहै, पार्व निर भय ठौर ।। ५७४६।। सभाचन्द के समकालीन कवि मुनि राभाचन्द का समय हिन्दी काव्य रचना का स्वरायुग था जबकि उस समय चारों और हिन्दी रचनाय लिखी जा रही थी। हिन्दी ग्रन्थों का पठन पाठन बढ़ रहा था तथा संस्कृत प्राकृत के ग्रन्थों का हिन्दीकरण हो रहा था। कवि के समकालीन कवियों में प्रानन्दघन, जगजीवन, पाण्डे हेमराज, पं. मनोहरदास, लालबन्द लब्धोदय, पं. हीरानन्द, पं. रायचन्द (प्रपरनाम बालक), जिनहर्ष, प्रबलकीर्ति, जोधराज गोदीका आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन कवियों में पं० रायचन्द का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिन्होंने संवत् १७९३ में सोता चरित्र नामक एक स्वतन्त्र काव्य की रचना की थी । कवि का दूसरा नाम "बालक" भी था । इस काव्य में ३६०० पद्य हैं । चरित्र की कितनी ही प्रतियां जयपुर एवं पहली के Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ प्रस्तावना शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध होती है। चरित्र का मूल आधार प्राचार्य रविषेण का पदमपुराण है जिसका स्वयं कवि ने निम्न शब्दों में उल्लेख किया । कोयो ग्रंथ रविसेरग में, रघुपुराण जिय आंग । वहै अरथ इण में कहो, रायचन्द र प्राण ॥ राम सीता के जीवन पर प्राधारित एक और काम मिलता है जिसके कवि भट्टारक महीचन्द्र के शिष्य ब्रह्मा जयसागर घे । इन्होंने "सीता हरण' नामक काव्य के माध्यम से सीता के जीवन पर अच्छा काय लिन। है । सीता हरण की पाण्डुलिपि में ११४ पत्र है तथा जिसका रचना काल संवत् १७३२ है । प्रस्तुत पाण्डुलिपि प्रामेर शास्त्र भंडार जयपुर में संग्रहीत है। कवि ने सीता के व्यक्तित्व एवं जीवन पर अच्छा प्रकाश डाला है । पूरा का ६ घधिकारी में विभक्त है। गोर महीकत सीष अयसागर. रखमो सीता हरण नो रास बो। नर नारी जे भरणे सणे रे, तस पर जय जयकार जी ॥ संबत सतरह बतोसा बरसे, बैसाख सुवी तीज सार नी । भूषवारे परिपूर्ण है रकयू सूर समय रयझार जो ॥ इस प्रकार पचासों कवियों ने नाम के जीवन पर अनेक विभिन्न संज्ञक रचनामें लिखी है जो हिन्दी की अमूल्य कृतियां हैं। 24-10-84 डा. कस्तरषद कासलीवाल Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची कमांक १. श्री महावीर ग्रन्थ अकादमो-प्रगति परिचय २. संरक्षक की कलम से ३. प्रध्यक्ष को मोर से ४. सम्पादकीय प्रस्तावना रामकथा का उद्भव एवं विकास, जैन धर्म में राम का स्थान, नन्थकर्ता, रचना स्थान, राम फया के विपित्र रूप, जैन कथा के दो रूप, हिन्दी में राम काध्य, पपपुराण संरचना, जीवन परिचय, छन्दों का प्रयोग, भाषा, एस एवं अलंकार, पुराण का समीक्षात्मक अध्ययन, राम, लक्ष्मण, सीता, रावण, हनुमान, पद्मपुराण का सामाजिक जीवन, विवाह वर्णन, जीमनवार, स्वप्न दर्शन एवं स्वप्न फल, कुन एवं मपण कूम, युद्ध वर्णन, नगरों का घर्णन, महावीर वाणी, पराधीनता, सुभाषित एवं सूक्तियां, पाण्डुलिपि परिचय, पदमपुराप का सार-समकालीन कवि । प्रथम विधानक- तीर्थङ्करों का स्तवन, जिनवाणी का स्वरूप २ राम नाम का महारम्य २ आचार्य रविषेश का उल्लेख ३ रचनाकाल ३ कवि का नाम ३ रामगृही नगरी की सुन्दरता ३ ब्यापार उद्योग ३ कुण्डलपुर नगर ५ सिद्धार्थ एवं त्रिशला रानी ५ माताद्वारा सोलह स्वप्न देखना ५ स्वप्नों का फल ६ माता की सेवा ६ महावीर जन्म ७ महावीर द्वारा वैराग्य ८ कैवल्य ६ समवसरण : महावीर वाणी १० दान का फल ११ श्रेणिक राजा द्वारा स्वप्न १३ राजसमा १२ समवसरण की ओर १३ रघुबंश कमा जानने की इच्छा १४ रामकथा का महत्व १४ भोगभूमि का वर्णन १५ पौदह कुलकर १५ नाभिराजा १६ मरुदेवी की सेवा १६ सोलह स्वप्न १६ स्वप्न फल १७ ऋषभदेव का जन्म १८ जम्मोत्सव १८ प्रादिनाथ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदम पुराण हम सरवारथसिषि ते माय । अजितनाथ वीजो जिनराय ।। गरम जनम तप केवल ग्यांन । किये महोछन्ब मुर नर मान ॥१०॥ चक्री सगर दूसरा भया । छह पंढि साधि राज भोगिश ।। बाईस होय भौर पवतार | परम प्रगासेंगे संसार ।।१०।। चक्रवति है उस भोर । पाप प्रष्ट पारंगे नोडि ।। धर्म पुन्य की रक्षा करें । तीन काल सुभरण दिल धरै ।११०॥ पोलीस तीर्थकर ऋषमनाथ प्रथम जिणवेष । जैन धरम प्रकास्या भेव । दुजे भजितनाप जिरणराय । संभव अभिनंदन मुखदाय ।।१११॥ सुमति पदमप्रभू देव सुपास । चंद्रप्रभ मन पुरव मास ।। पुष्पदत सीतल श्रेयांस । वासपूज्य भुमरो जिणहंस ॥११२।। बंदी विमलनाथ मुजिणंद । मनंतनाथ घउदहीं मुरिंगद ।। धरमनाप जिलधरम महंत । शांति कुषु श्री भरु मरिहंत ।।११३॥ मल्लिनाथ मुनिसुवत देव । नमि नेम की फौजे सेव ॥ पायर्वनाय कमठ मद हया । बईमान प्रकासी दया ॥११॥ बाहुबलि का बल मधिक, द्रमा भमर मजसेन । श्रीधर दरसन भद्र पति । प्रसनचंद सुष सेन ॥११५।। चंदवरण चंद्रकला, प्रगाति. मुकति समंतकुमार ॥ श्रीवछराणा कनकप्रभ, मेघ बरण उनहार ।।११६॥ सांति कुय पर परह जिण. विजयराम श्रीचंद ।। नल राजा पुलभद्र प्रति, हनुमान छह देव ।। ११७|| प्रचिरल बलिराजा बसुदेव सेव बहसे करें प्रय मन रूप अपार ताहि क्यों मन धरै ।। नागकुमार सुदरशन सील पास्या परा, धारचौ दुव वृत सील सुभब सायर तिरपा ।।११।। चक्रवत्ति भयक भरच देश बहु साषिया । जीते भूप अनेक जिनों को बांधिया । घरपा घरम सौं ध्यान कर्म वसु क्षयकिया । केवल ज्ञान उपाय मुक्ति वासा लिया ।।११६।। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची अष्टम विधानक:- प्रतिमति का विवाह (१००) सुग्रीव के साथ विवाह । रावण द्वारा इन्द्र से युद्ध करने का विचार १०१ रावण द्वारा जिन पूजा १०२ रावण का सहस्ररश्मि से युद्ध, १०३ सतवाहन मुनि द्वारा उपदेश १०३ सहस्ररश्मि द्वारा मुनि वीणा । नवम विधानक-यश भेद की चर्चा १०६ वसु सजा १०६ गारद का आगमन १०७ नारद एवं पर्वत के मध्य चर्चा १०८ स्वस्तिमति द्वारा वसु राजा से बचन मांगना १०६ नारद वचन १०१ परवत द्वारा सन्यास ११० मारत राजा को संबोधन १२० नारद का जन्म एवं जीवन १११ नारद का उपदेश ११२ नारद पर उपसर्ग ११३ रावण द्वारा नारद को सहायता करना ११३ ऋषभ वर्णन ११४ रावण का कनकप्रभा से विवाह ११५ भाद्रपद के प्रत ११६ । दशम विधानक-रावण की कन्या का मधु के साथ विवाह ११६ मधु का वृतान्त ११६ युद्ध वर्णन ११९ रावण द्वारा विद्या प्राप्ति १२१ रावण की विजय १२१ नलकूबड़ की राजा से बात १२२ इन्द्र का क्रोध १२३ रावण की सेना १२३ इन्द्र द्वारा बुद्ध १२४ इन्द्र प्रोर रावरण में युद्ध १२५ । ११वां विधानक-सहस्रार का रावण के पास जाना १२६ इन्द्र को छोड़ने की प्रार्थना १२६ इन्द्र को छोड़ना १२७ इन्द्र की व्यथा १२८ मुनि चन्द्र का मागमन १२८ इन्द्र के पूर्व भव १२६ इन्द्र का मान मंग का कारण १३६ इन्द्र द्वारा मुनि दीक्षा १३१ । १२वां विधानक-अनन्तवीर्य मनि को कैवल्य प्राप्ति १३१ रावण द्वारा वन्दना १३२ भगवान की वाणी १३२ लोभदत्त सेठ की कथा १३३ भ्रदत्त सेठ की कथा १२५ कुम्भकरण द्वारा धर्मोपदेश की प्रार्थना १३५ रात्रि भोजन निषेध १३६ रावण द्वारा व्रत ग्रहण १३७ । १३वां विधानक-हनुमान का जीवन १३७ अंजना के विवाह की चर्चा १३८ राजा महेन्द्र एवं राजा प्रहलाद की मॅट १३६ पवनंजय के साथ विवाह प्रस्ताव १३६ प्रजना को देखते को उत्सुकता १३६ दासी द्वारा विद्युत वेग की प्रशंसा १४० पवनंजय की निराशा १४० दंतीपुर पर चढ़ाई १४० पवनंजय अंजना विवाह १४० भंजना का दुःख १४१ रतन शीय राजा के साथ रावण का युद्ध १४२ राजा प्रहलाद के पास संदेश १४३ पवनंजय द्वारा युद्ध में जाने का मानरा १४३ अंजना द्वारा पत्र - जय को विधाई १४३ पवनजय द्वारा चकवा चरुवी का वियोग देखना १४४ प्रजना से मिलने की इच्छा १४४ अंजना पवनंजय मिलन १४४ अंजना को मुद्रिका देना १४६ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yg मुनि सभापंच एवं उनका पाराल १४वां विधामक-प्रजाा ारा गर्म धारण करना १४६ केतुमति द्वारा पूछताछ १४६ अंजना द्वारा स्पष्टीकरण १४६ मजना को ताहना १५७ प्रजना का निष्कासन १४७ अंजना का महेन्द्रपुरी जाना १४८ पिता द्वारा निष्कासन १४८ सद प्रोर से तिरस्कृत १४६ गुफा में शरण लेना १५० बन में मुनि दर्शन एवं वंदना १५० बसंतमाला द्वारा पति वियोग का कारण पूछना १५१ मुनि द्वारा समाधान १५१ कनकोदरी द्वारा जिन प्रतिमा को चोरी १५२ प्रभु जन्म की भविष्य वाणी १५३ रनबूल का प्रागमन १५३ पुत्र जन्म १५४ खेचर के प्रश्न का उत्तर १५५ खेचर का परिचय १५५ जना का विद्याधर नगर जाना १५५ विमान से हनुमान का गिरना १५६ । १५वां विधामक-पवनंजय सारा रावण से विदा १५६ पवनंजय का मादित्यपुर नागमन, अंजना के निष्कासन के समाचारों से दुखित होना, ससुराल जाना १५७ अंजना की तलाश १५८ पवनंजय का संदेश १५८ मंजना की चिन्ता, पवनंजय की प्राप्ति १५६ जना पवनंजय मिलन १६० । १६वां विधानक-वरुण द्वारा रावण से युद्ध १६१ हनुमान द्वारा युद्ध __ में जाने की इच्छा १६१ कुभकरण द्वारा सूटमार १६२ रावण द्वारा निन्दा १६२ वरुण को पुन: राज देना १६2, बामरवंशी राज वर्णन १६३ । १७वां विधानक-वीरफ सेठ वनमाला वर्णन १६४ राजा की व्याकुलता १६५, पूर्व जन्म १६६ बीरकसेठ की तपस्या १६६ स्त्री को दुःख देना १६७ मुनि सुप्रतनाथ का जन्म १६८ जीवन १६९ हरियंसी राजा १७० राजा वचमाह वर्णन १७१, कीर्तिघर राना वर्णन १७३। १च्या विधानक-कौतिघर की तपस्या १७४ राजकुमार द्वारा वैराग्य १७४ कठोर तपस्या १७६ चित्रमाला को पुत्रोत्पति १७७, न घुष राजकुमार को राजा बनाना १७७ स्योदास द्वारा जीय हिंसा पर प्रतिबन्ध १५७ राजा द्वारा मांस खाने की इच्छा १७८ सिद्धसेन का राजा बनना १७८ दशरथ का राजा बनना १७६ । १९वां विधानक-दशरथ वर्णन १५० नारद का आगमन १८० नारद द्वारा रावण की वार्ता १८01 २०वां विधानक-कैकेयी वर्णन १८१ स्वयंबर रचना १८२ दशरथ वारा युद्ध । २१वां विधानक-मपराजिता द्वारा स्वप्न दर्शन १८४ सुमित्रा द्वारा स्वप्न दर्शन १८४ लक्ष्मण जन्म १८५ भरत जन्म, राम जन्म १८५ चारों भाइयों द्वारा विद्या सीखने का वर्णन । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची २२वां विधामक-विप्र द्वारा विलाप १९७, राजा द्वारा षडयंत्र १८७, मुनि दीक्षा १८८, रत्नावली का राजा द्वारा युद्ध १८८, मंत्री द्वारा उपाय १८५, बराग्य भाव १८६, उपदेश १८६, राजा द्वारा अणुक्त ग्रहण करना १८६, चित्रोत्सवा द्वारा दीक्षा लेना १८६, सीता का गर्भ में माना १६०, सीता भामण्डल का जन्म १९., देवता द्वारा बालक का अपहरण १६०, जनक राजा द्वारा विलाप १६१, दशरथ द्वारा खोज १६१, कन्या का नाम सीता रखना १६१ । २३वां विधानक-श्रेणिक द्वारा राम सीता विवाह जानने की इच्छा करना १६१, जनक की नगरी पर माक्रमण १६२, दशरथ के पास सन्देश १६२, दूत का प्रयोमाजी प्रामा १६२, रामचन्द्र की जाने की इच्छा प्रकट करना १९२, राम का मिथला गमन १६३, राम द्वारा युद्ध करना १६३ । २४वा विधानक-अनक की इच्छा १६४, नारद द्वारा सीता को देखना १६४, सीता का डरना १६४, नारद का विचार १६४, प्रभामंडल की सीता को पाने को इच्छा १६५, चन्द्रगति द्वारा उपाय सोचना १७५, विद्याधर द्वारा मायामयी प्रस्थ रचना १६६, चन्द्रगति द्वारा सीता के विवाह का प्रस्ताब १६७, जनक का उत्तर १९८, स्वयंबर रचने का प्रस्ताव १६६, मिथिला नगरी १६६, रावास में राजा जनक १९६, रानी द्वारा निरा २००, सीता सर 70 सा द्वारा पा सेचना २०१, सीता द्वारा वरमाला डालना २०१, भरत का लोकसुन्दरी से विवाह २०२, मिष्ठानों का अनि २०२ । २५वां विधानक-अयोध्या प्रागमन, गंधोदक लेना २०१ सुप्रभा रानी की व्यथा, कंचुकी को नृत्य का आदेश, दशरथ पर प्रभाव २४० सर्व विभूति मुनि से, धर्मोपदेश श्रवण २०५ २६वां विधानक' - भामंडल की चिन्ता २०६, जाति स्मरण २०६, सीता द्वारा पिता के नाम पर चिन्तन २०७, दशरथ का मुनि के पास जाना २०७, मुनि द्वारा कथन २००, प्रभामंडल द्वारा प्रश्न करना २०८, भाई बहिन मिलन २१०, २७वां विधानक-दशरथ द्वारा पूर्व भाव पूछना २१०, पूर्व भब कथन २११-१३ दशरथ का वापिस घर प्राना २१४ वराग्य भाव-रामचन्द्र को राज सौंपना २१४ फैकयी का बर मांगमा २१५ दशरथ द्वारा विचार २१५ भरत को प्रामंत्रा २१५ राम लक्ष्मण द्वारा प्रस्ताव २१६ माता के पास जाना २१६ राम का उत्तर २१६ लक्ष्मण द्वारा क्रोध करना २१६ राम का वनवास २१७ २८यां विधानक-बनवास की प्रथम रात्रि २१७ राजानों का अनुगमन २१, सबका वापिस जाना २१५ दशरथ द्वारा रुदम २१६ भरत का राम Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० पपपुरारा काल लरण वसि सब भये, जोषा सूभर सुजान ।। समल लोक इस औलिया, सम सा न मान ॥१५॥ सोरता चक्रवत्ति सुमि भेव, भोग सोग सब परहरे । धरधो ध्यान दिन जोग, सब संसार मन ते तजा ॥१६१ रामा भागीरथ का वर्णन भागीरथ राजा किया, सगर भीम सह त्याग । दिक्षा ली जिणराय पै, मन में धरि राग ।।१६।। चौपई पाल प्रजा भागीरथ भूप । मुकट छत्र सिर बने अनूप ।। गज करल दिन बीते पने । श्रुतसागर मुनि मापे सुने ।।१६३।। मरपति के मन हरष अपार । पलं जहां मृनि प्रारण मधार ॥ नगरलोक चाले सह साथ । बन में ध्यान परपी मुनिनाथ ॥१६४।। भाए निकट वंदना करी । साठि सहस की पूची चरी ॥ किरण कारण एकटे मरे । फाहो कथा ज्यों संसय टरे ।।१६।। मुनि बोले पिछला संबंध । तापी हुबा करम का बंध ।। समेव शिखर चाल्यो इक संघ । दंतपुर मोम देख मनरंग ।।१६६॥ देखत लोग संघ को हंस । देखा गांव किमो तह बसे ।। कुंभकार वरण तिझ जात । इरा हो गया जीव नो घात १९६७)] बात कही भीमानी नहीं । गांव माहि देही गण गही ।। पकर पछारे सगले लोग । मीर मां सब कीन्हे फोक ।।१८।। कुभकार मरि वणिवर भया । तप करि बहुरि राज सुत भया ।। तप करि फिरि पायो सुरपान । सो तु' भयो भगीरप मान ।।१६६।। साठि हजार सिघ के जीव । सगर भूप सूत उपजे तीव ।। जात्रा मांहि सब का रह्या ध्यान । राजपुत्र से हूये पान ।।१७।। कारण पाए मुए इकठोर । अणुभ करम की मिटाईन पोर ।। सुनि भागीरथ कीयो नमस्कार । राज छोड बी बीमा सार ।।१७१।। संका का रास महासात महाराक्षस लंका का मूम । वन क्रीग का देखन रूप ॥ सकल कुदंय लिया नृप संग । बन उपवन गुह गंभीर उतंग ।। १७२सा Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची दसा का अनरष तपस्थी के पास जाना तपस्वी का कन्मा के पास जाना २४८ अनन्तवीर्य मुनि के पास देवों का जाना, दोनों मुनियों को केवल शान होना २४६ । ३५वां विधानक-सूरजमल राजा द्वारा राम का स्वागत २४६ राजा राम का प्रागे गमन, बन जीवन चारण मुनियों को याहार २५० गृद्ध की कथा, मनि पर उपसर्ग २५१ मुनि के चारों ओर अग्नि जलाना, अचलराय एवं गिर देवी द्वारा मुनि को प्राहार, सुकेत प्रोर अग्निकेतु द्वारा दीक्षा लेना २५२ कन्या का भविष्य, कन्या का वैगग्य भाव २५३ । ३६वौ विधानक-दण्डक वन में पहुंचना, पन शोभा २५४ । यो विधानक-- इन्चकाना, कथा २५५ सूरजहास खडा निमित्त से शंबूक की तपस्या, लक्षमण द्वारा सूरजहास की प्राप्ति २५७ देव पुनीत बाभूषणों की प्राप्ति, चन्द्रनखा द्वारा विलाप, राम लक्षमण से भेंट २५८ । ३८षाँ विधानक-चन्द्रनखा का खरदूषण के पास जाना, स्वरदूषण का कुपित होना २५६ रावण के पास दूत भेजना, खरदूषण का दंडकवन पहुंचना लक्ष्मण द्वारा युद्ध रावण का बागमन २५६ सीता को देखना, करण गुप्ति विद्या का ध्यान करना, रावण द्वारा शंखनाद, राम का लक्ष्मण के पास जाना, सीताहरण सीता का विलाप, जटायु कारा माक्रमण ३६० रावण द्वारा खेद, राम का विलाप ३९वीं विधानक-लक्ष्मण खरदूषण युद्ध, लक्ष्मरग की विजय २६२ लक्ष्मण का विलाप, विद्याधरों का प्रागमन, चारों और दूत भेजना, रावण के पास जाना २६३ कपि द्वारा देखना प्रलंकागढ़ में पहुचना-२६५ । ४० बाँ विधानक - रावण की सीता के समक्ष गर्योक्ति, सीता का कराग उत्तर प्रशोक वाटिका में सीता को रखन। २६६ चन्द्रनाम्खा का रावण से निवेदन, मन्दोदरी राबए सबाद, दूती का सीता को समझाने का असफल प्रयास २६७ राम की व्याकुलता, मन्त्रियों द्वारा विचार २६८ ।। ४१वां विधानक-राम सुग्रीव मिलन २६६ राम द्वारा सुग्रीन का राज्य देना, सुग्रीव की यिचय २७० सुग्रीन द्वारा कन्याओं को मेंट २७१ । ४२वाँ विधानक-कन्यानों के हाव भाव, जमदत हारा माता प्राप्ति की खोज २७२ सीता की खोज, रतनजटी सुग्रीव मेंट, रतनजटी द्वारा लंका परिचय २७३ जावूनद मंत्री का कथन, बंदर मोर कथा २७४ लक्ष्मण का क्रोधित होकर निपचय करना २७५ रावण की मृत्यु के सम्बन्ध मे भविष्यवाणी, लक्ष्मण द्वारा शिला उठाना २७६ । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण ४३ विधानक - लंका से दूत का आगमन २७७ हनुमान द्वारा राम के दर्शन २७६ राम का हनुमान को गले लगाना, पवनपुत्र द्वारा स्तुति २७१ १ ४४ विधानक – महेन्द्रपुर नगर २५० हनुमान द्वारा महेन्द्र सेन से बदला लेना; परस्पर मिलन २८१ । ५२ ४५ विघानक — सीन कन्याओं द्वारा तपस्या, हनुमान द्वारा बादानल बुझाना, विवाह की भविष्यवाणी २८३ | ४६ विधानक- वज्रमुख एवं हनुमान की वार्ता २७४ लंका सुन्दरी का प्र ेम लंकापति का प्रभाव २८४ हनुमान द्वारा समझाना २८४ | ४७ विधानक हनुमान का लंका में पहुंचना, विभीषण से भेंट २८६ राव का क्रोषित होना, हनुमान का वानर रूप में सीता के पास पहुंचना मन्दोदरी सीता की वार्तालाप २८६ सीता द्वारा राम के सेवक के रूप में प्रकट होने के लिये कहना, सीता के प्रश्न हनुमान का उत्तर २८७ मन्दोदरी का कथन २८३ हनुमान मन्दोदरी संवाद २६ मन्दोदरी का नाटक, हनुमान का सीता से निवेदन, हनुमान द्वारा भोजन, सारा भाहार सीमित ६० सीता के वचन हनुमान का प्रस्थान मन्दोदरी का रावण के पास जाना रावल का क्रोधित होना हनुमान का युद्ध कौपाल २६१ इन्द्रजीत द्वारा हनुमान को पकड़ना, हनुमान का परिचय रावरण का क्रोषित होना २९२ हनुमान का उत्तर हनुमान का मायावी विद्या द्वारा लंका दहन २६३ । - ४८ विधानक-- हनुमान का राम के पास जाना, राम की चित्वा २९४, राजाओं द्वारा निवेदन, युद्ध की तैयारी २६५ । ४६ विधानक - रावण का चिन्तन, युद्ध की तैयारी २६६ योद्धाओं द्वारा रावण को समझाना विभीषण का इन्द्रजीत से वचन २६७ रावण का विभीबरस पर धावा, विभीषण का राम के पास जाना, विभीषण का द्वारपाल से निवेदन मन्त्रियों का परामर्श २६८ विभीषण द्वारा राम दर्शन, सेना के साथ लंका द्वीप में पहुंचना २९६ । ५० विधानक- प्रक्षोहिणी संख्या, दोनों के सामर्थ्य की चर्चा २०० । ५१ विधानक-युद्ध के लिये सैनिकों का प्रस्थान ३०१ | ५२ विधनक- राम की सेना, रावण के हस्त प्रहस्त योद्धाओं की हार ३०३ । ५३ विधानक हस्त प्रहस्त कथा ३०४ । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची ५४वां विधानक-दुसरे दिन का युद्ध ३०५, तीसरे दिन का युद्ध ३०६ । विभीषण का राम' को परामर्श, देवों द्वारा राम को विद्या प्रदान करना ३०८ । ५५याँ विधानक-- राम रावण द्वारा युद्ध की तैयारी, विद्या द्वारा मूच्छितों की मूर्छा दूर करना ३०६ । ५६वां विधानक-- दोनों ओर योद्धाओं द्वारा युद्ध, विभीषण रावण युद्ध ३१० लक्ष्मण रावण युद्ध ३११ । ५७वां विधानक-राम विलाप । ५८वनरक-मदीत सोशानि , भापक : चन्द्रमति का प्रागमन ३१३ वैद्य की जीवन कहानी विशल्या की कथा ३१४ धनवास के दुःख ३१५ । ५६वां विधानक-हनुमान अंगद को अयोध्या भेजना ३१७ भामण्डल का उत्तर ३१८ विशल्पा द्वारा मुछी दूर करना, लक्ष्मण का होश में पाना ३१६ । ६०वां विधानक--रावण को मंत्रियों द्वारा समझाना ३१६, रावण का मन्तब्य ३२० रावण के दूत का राम के पास प्रागमन, राम का उत्तर, रावण के दूत का पुनः निवेदन ३२० राम का प्रत्युत्तर, दूत का रावण के पास पाना ३२२ । ६१वां विधानक-रावण द्वारा चैत्य वंदना । ६२वाँ विषानक-प्रष्टालिका महोत्सव, रावण द्वारा विया सिद्धि का प्रयत्न ३२४ । ६३वां विधानक-वृत साधना के कारण युद्ध बन्द होना, बन्दरों द्वारा लंका में उपद्रव, क्षेत्रपाल द्वारा रक्षा ३२५ । ६४वां विधानक-अंगद का लंका में जाकर स्थिति का अध्ययन, ध्यानारूद रावण को देखना ३२६ रावण द्वारा विद्या सिद्धि, विना का रागरण से निवेदन ३२८ । ६५वाँ विधानक- रावण का गमन, रावण का मंत्रियों द्वारा पुन: निवेदन ३२६ रायण द्वारा पश्चाताप, रावण का पुन: युद्ध करने का निश्चय ३३० । ६६वां विधानक-रावण की दैनिक क्रिया, दरबार हाल ३३० अपशकुन होना, मन्दोदरी की चिन्ता, मंत्री का उत्तर, मन्दोदरी द्वारा रावण को समझान। ३३१ रावण का उत्तर, उत्तर प्रत्युत्तर ३३२ रावण का क्रोषित होना, मन्दोदरी का पुन: निवेदन, रावण का उत्तर, रावण की रात्रि, युद्ध के लिए प्रस्थान ३३५ । ६७वा विधानक-मन्दोदरी से प्रन्तिम मेंद, राम द्वारा मुद्ध की तैयारी ३३६ दोनों की सेनाओं में युद्ध ३३७ । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाषद एवं उनका पपपुराण .६८वा विधानक-देवतामों द्वारा प्राकाश से युद्ध का अवलोकन, रावण द्वारा चिन्ता करना ३३८ अनेक रूप में रावण का लड़ना, राबरण द्वारा चक्र चलाना ३३६ लक्ष्मण द्वारा चक्र प्राप्त करना ३४० । ६६याँ विधानक-रावण का पश्चाताप ३४० विभीषण द्वारा लक्ष्मण को परामर्श, रावण का क्रोधित होना, लक्ष्मण द्वारा चक्र से रावण का वध करना ३४१ । ७०वो विधानक-विभीषरण द्वारा विलाप, रावण की रानियों द्वारा विलाप, श्रेष्ठ मरन ३४३ परिगम की कथा ३४४ । ७१वा विधानक-रावण का दाह संस्कार ३४५ कुभकएं एवं इन्द्रजीत को छोड़ना ३४६ मुनि का संघ सहित ग्रागमन, केवल ज्ञान प्राप्ति, धरणेन्द्र का प्रासन कंपित होना, र म द्वारा विचार करना ३४७ राम का मुनि के पास जाना, पूर्वभवों का वर्णन ३४८ । ७२वा विधानक - राम लक्ष्मण का संका प्रवेश ३५० सीसा की दशा, राम सीता मिलन । ७३वाँ विधानक लंका की शोभा, विभीषण द्वारा राम का स्वागत ३५३ त्रिविध व्यंजन, इन्द्रजीत मेघमाद द्वारा निर्धारण प्राप्ति ३५४ 1 ७४माँ विधानक--नारद का अयोध्या प्रागमन, अपराजिता से प्रश्न ३५८ राम कथा नारद का संका में प्रागमन, राम द्वारा स्वागत ३५९ अयोध्या बर्णन, अयोध्या में राम द्वारा दूत भेजना । ७५वा विधानक--- राम सीता का अयोध्या गमन, मार्ग परिचय, अयोध्या दर्शन, राम लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न मिलन । ७६वां विधानक-अयोध्या वैभव, सीता की नगर में पर्या, भरत के मन __ में वैराग्य ३६५ राम भरत वार्ता, ३६६ उन्मत्त हाथी का अकस्मात प्रागमन ६६७ । ७७याँ विधानक-भरत मा हाथी पर बढ़ना, हायों द्वारा सप साधना ३६८ । ७८ओं विधानक—देश भूषण कुलभूषण मुनि पागमन १३६६-७६} भरत के पूर्व भव ३७६ । ७९याँ विधानक-भरत द्वारा वैराग्य, कैकयी का बिलाप, कैकयी का वैराग्य ३७७ । वो विधानक- राम लक्ष्मण द्वारा दुःख प्रगट करना, राम का राज्याभिषेक ३७८ ! Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची ५५ १] विधानक- शत्रुष्मं को राज देने की इच्छा, शत्रुघ्न द्वारा मथुरा राज्य चाहना, मथुरा पर चढ़ाई ३०० मल्लयुद्ध, मधु द्वारा वैराग्य ३८२ ८२ विधानक — मधुराजा के मित्रों द्वारा माक्रमण, मरणेद्र द्वारा समझाना ३८३ प्रजा को दुःख देना ३८४ | ८३ विधानक — वैराग्य भावना ३८५ | ४विधानक मथुरा में सात मुनियों का आगमन, माहार विधि पंचम काल का प्रभाव ३८ आशीर्वाद ३६० । विधानक- मनोरमा विवाह ३६२ । - ८६ विधानक — राम लक्ष्मण विभव विधानक २२४ । ८७वाँविधानक — राजमहल, सीता द्वारा स्वप्न दर्शन, महिला ३९६ । sat विधानक-सीता का नेत्र फडकना ३६७ राम द्वारा प्रश्न ३६८ प्रतिनिधियों का उत्तर ३६६ राम की व्यथा | सीता का मध्य विधानक- राम का कथम, लक्ष्मण का कोष, राम का निर्णय ४०१ सीता को यात्रा के बहाने ले जाना ४०२ कृतांतक का वन में अकेलापन, चच्चजन का विलाप ४०४ । ०वां विधानक - सीता द्वारा परिचय देना, गतियों के दुःख, बच्चजंघ का परिचय ४०७ । ९१वां विधानक - सीता के साथ वज्रजंध का आगमन कृतांत की श्री राम लक्ष्मण का रुक्षन ४०९ । २ विधानक–सीसा के पुत्र जन्म, बाल क्रीड़ा, अध्ययन, ४१०-११ ३विधानक - कुश के लिए पृथ्वीवर के पास दूत भेजना, पृथ्वीवर का कुपित होना ४१३ बज्रबंध एवं पृथ्वीवर में युद्ध ४१३ लवकुश का प्रस्थान ४१४ । ४याँ विधानक - नारद मुनि का प्रागमन ४१४ लवकुश की प्रतिक्रिया, नारद का पुनः आगमन ४१७ लवकुश द्वारा प्रयोध्या पर प्राक्रमण, ४१६ । ६५-६६ विधानक - युद्ध वर्णन ४२० नारख द्वारा लव कुम का रहस्य खोलना, पिता की बन्दना ४२१ लवकुश का अयोध्या मरगमन ४२२ । ९७वां विधानक-राम का चिन्तन, सीता को लेने के लिए भेजना ४२३ सीता का आगमन, ४२४ अग्नि परीक्षा ४२५ पक्षिणी द्वारा मुनि पर उपसर्ग ४२७ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ मुनि सभाचंद एवं उनका एयपुराण १८वां विधानक-राम द्वारा पश्चाताप करना, मग्नि परीक्षा में सफलता ४२६ सीता का इसर ४३० नरकों के दुःख वर्णन ४३१ द्वीप समुद्र वर्णन ४३२ सुख की तरतमता तस्ववर्णन ४३३ ।। EEवां विधानक-विभीषण द्वारा प्रश्न, सर्वभूषण द्वारा वर्णन ४३५ मुनि के पास जाना ४४३६ रुपस्वी जीवन ४४० । १००वा विधानक- सीता पृज्या ४४५ । १०१वां विधामक-सीता की पूर्व कथा ४४ । १०२वां विधानक-प्रद्युम्न संवृकुमार के पूर्वभव ४५२ मधु कीटक भव वर्गन ४५४ । १०३यों विधानक-लक्ष्मण पुत्र निष्क्रमण ४६० । १०४वो विधानक- भाव मण्डल पर लोक गमन ४६२ । १०५वाँ विधानक-हनुमान निर्वाण ४६३ । १०६वा विधानक - संकर सुर संकर कथा ४६४ । १०७वा विधानक-लवकुश दीक्षा ४६५ ।। १०८वा विधानक-लक्ष्मण की मृत्यु पर राम का विलाप ४६७ । १०६वां विधानक-विभीषण द्वारा संसार स्वरूप वर्णन । ११०वां विधानक- राम का तोड़ मोह, अयोध्या पर आक्रमण, देव रूप बटायु द्वारा सहायत्ता ४७१ कृतांतच द्वारा राम को समझाने के लिए माया रचना ४७२ राम को वास्तविक ज्ञान प्राप्त होना ४७३ । १११वां विधानक- राम का वैराग्य ४७५, वैराग्य ४७६ । ११२वा विधानक- राम की तपस्या ४७७ सीता के जीव सीतेन्द्र का राम के पास भागमन ४७६ राम को केवल ज्ञान प्राप्ति ४८० । ११३वा विधानक- दालुका पृथ्वी में रावण, मंबुकुमार की दशा वर्णन ४८३ राम केवली के पास देबों का मागमन ४८४ समवसरण ४८४ प्रश्न, राम की वारणी ४८५ लक्ष्मण के प्रति जिज्ञासा ४२७ पदमपुराण की स्वाध्याय का महत्व ४८८ रविषणाचार्य द्वार पद्मपुराण की रचना ४८६ 1 ११४या विधानक-काष्ठासंघ पट्टावली ४६०. मल संघ प्रशस्ति ४६१ । अनुक्रमणिका-४६३ से शुद्धि-पत्र ५०६ लेखक परिचय ५०७ । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण (हिन्दी) चौपई तीर्थकरों का स्तवन आदिनाथ बंदू जिनराय । चरण कमल सेऊ मन लाय ।। जैनधर्म कीमा परकास । भव्यजीव की पुगी आस ।।१।। अजित नाथ संसारइ जीत । मोक्ष पंथ की जाणी रीत ।। संभव जिश भव भ्रमण निवार 1 उतरे भव सागर ते पार ।।२!! अभिनंदन भय कीने दूरि । सेवत सकल रिद्धि रहै पूरि ।। सुमतिनाय सुभ मति दातार । सेवत पाय सुष प्रपार ॥३।। देव पदमप्रभु सेवा करौं । यारों गति का दख परिहरु ।। देव सुपास पूजो धरि भाव । पूजित उपजे मन को चाव ॥४॥ चन्दाप्रमु ज्यौं दुतिया चंद । दिन दिन कला वध प्रानंद ।। पुष्पदंत जिन पुष्पनि वास । तजि संसार मुगति किया वास ॥५॥ सीतल नाथ दया सौं ध्यान । मुमरत पाच मोक्ष सुथान ।। थे यांसे स्वामी अरिहन्त । टूटे जनम जरा का अन्त ।।६।। वासुपूज्य की पूजा करो । भोसागर के दुख परिहरं ।। विमलनाथ जिन धर्म महंत । भविजन दरस भये भव घेत ॥७॥ अनंतनाथ स्वामी अरिहंत । दरसन पापे सुख अनंत ।। धर्मनाथ जिन धर्म महन । भविजन दरस भये भय अंत ।।८।। सांतिनाथ मुमरी दिन रेण । बाटै लछि होइ सुख बन ॥ 'थनाथ अरि कीने दूर । मये मुगति संसार कर जुध हा अरहनाथ अरि कीने दूर । सुमिरत रहै सदा रिष पूर ॥ 'मल्लिनाथ महा सुभट सुवीर । प्रष्ट करम जीने धरि धीर ॥१७॥ मुनिसुव्रत पूजी परभात । असुभ करम का होवं धात ।। नमि जिणंद ध्याको करि जोर । तूट जनम जरा की डोर ॥११॥ अरिष्ट नेम जाडू जग. पुनी । सेवत मतिश्रुत पावं धनी ।। पार्वनाथ पूजो धरि घ्यान । सुमरत पार्य पूरन ग्यान ।।१२।। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ वर्धमान पूजो सब कोइ । मनवंचित फल बहुविध होइ ॥ आदि अंत जे जिन चौवीस पूर्जं सुरतर नावे सीस ||१३|| वदु मुनिवर मूढ केवली । कुमति फले बजाए टली || केवल नागी सदा सहाय सुखिया नकै सुदुरि पलाय ||१४|| दीप अढाई में जे साध । उसके गून हिरदे में बाघ || निस कासर सुमरण में चित्त । ध्यावै श्री जिन च जुनित ||१५|| गणधर च स को गहीं। गुरु की सेवा भक्ति मैं रहूं ॥ जिनधारणो का स्वरूप I जिनवाणी मैं समय सदा श्रुत बुद्धि प्रकास तदा ॥१६॥ उज्जल व गल मोतीहार कवियनां गुण अगम अपार ।। सीसफूल दोष कुंडलकरण रुगारण नेवर बाजे च ॥ १७॥३ करकंकुल अंगुल मूंदडी मणिमालिक हीरे सू जडी ।। भोती मांग बनी छबि धनी हंस चढी सोभा बहु बनी || १८ | छह दरसल मुष मंडन जान । सुमरत बहु विश्व पार्क ग्यान ॥ मूरिषर्त पनि होइ सुजान । ता कारण सेकं धरि ध्यान ||१६|| श्री जिन मुष की वानी सही । सरस्वती सम को बीजो नहीं ।। करि डंडोत कवि करें प्रणाम । भूला प्रक्षर आांश ठाम ||२०|| सोरठा सुम जिण ऊषीस, सारद की सेवा करों । त्रिभुबन के ईश, इह दाता बुधि फल तनी ||२१|| चौपई राम नाम का महात्म्य पद्मपुराण रामचंद बंदी जगदीस । साहसवंत महाबल ईस || अनुज वीर लक्ष्मिन बलवांन राम नाम गून अगम जा मुख राम नाम जा घट राम नाम तीन बंड में ताकी न ||२२|| न किस पे बरने जांय || संकट में बहुरि न परे ||२३|| अथाह । ते नीसरे । सो का बास । तार्क पाप न आवे पास जिन श्रवणन राम जस सुने । देवलोक सुष पायें घने || २४|| संकट विपति पढें जे श्राय | राम नाम तिहां होद सहाइ ॥ जल यल वन विहंड ले नाम । मनवांछित सहु सी काम ||२५|| चलत बिदेस नाम जो लेइ । रामचन्द्र ताकु फल देइ ।। जे निश् स सुमरण करें। बहुरि न भवसागर में फिरे ॥२६॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समावद एवं उनका पर्मपुराण जो सहस्र रसना करि भएँ । राम नाम गुण जाइ न गिने । जैसे वृक्ष महा उत्तुग। जाके फल दीसै सुभरंग ॥२७।। योनी देषि देषि ललचाय । घे फल कैसे मौना षाय ॥ वह ऊंचा यह नीची देह । क्यों वा फल कू' पावं एह ।।२८१ जे मंगल माने मययंत । उनी उखारि डार जु तुरंत ॥ वे फल बीम बौना नै लिये । प्रेस जिनगुण सुग्म कर दिये ।।२९।। भाषा संवर्षल का सेल केवल वाणी सुण्यां बान । पंजित मुनीवर रच्या पुराण ।। प्राचार्य रविषेण महंत । संस्कृत मैं कौनी अन्य ॥३०॥ महा मुनीस्वर म्यांनी गुनी । मप्ति अति प्रवधि ग्यांनी मुनी। महा निर्गन्थ तपस्वी जती । कोष मान माया नहीं रती ॥३१॥ मारिषो वानी शास्त्र किया। धर्म उपदेश बहु विष दिया । जिसके भेदाभेद अपार । महा मुनीस्वर कह बिचार ॥३२॥ जैसे रवि का होइ उदोस । भाजे तिमिर निर्मला होत ॥ इस विधि सुनिकं मिट संदेह । मिथ्या तजि समकित सुनेह ।।३३॥ रखना काल संवत सबहले मारह परम सुन्या भेद जिनवारणी सरस ।। फाल्गुन मास पंचमी स्वेत । गुरुवासर मन मैं परि हेत ॥३४।। कवि का नाम सभाचद मुनि भया प्रानन्द । भाषा करि चौपई छंद ।। सुनि पुरान कीनो मडान । गुनि जन लोक सुनुदे कान ॥३५।। राजगृही नगरी की सुन्दरता जबद्वीप में भरत षंड । मगध देस राजग्रही प्रचंड ।। ऊंचे मंदिर हैं सत खिने । सब ते सरस राय के बने ॥३६॥ बसें सघन दीस नहीं मंग । लिखे चित्र जिमें भले सुरंग ।। उज्जल बरण धवल हर किये । छत्री कलस कनक के दिवे ॥३७॥ बनी जु बैठक नाना भांति । जिनकी लोग लिगरहे जात ।। प्रति उत्तुंग संवारी पालि । लगे कबाड बीमे सन ठौर ||३|| झारि मरेखे सोभा भली। देखत उपजै मननी रली॥ मागं सूत रच्या बाजार । चौडी नींव लई सुसंवारि ॥३६॥ व्यापार उद्योग भले भले प्राये सुत्रधारि । मंदिर रचे बड़े विस्तारि ॥ यहां सराफ सराफी करें । बोल सत्ति झूठ परिहरे ।।४।। कसै कसोटी परष दाम । लेवा वेई सहज विधाम ॥ वीच बाजार रहैं जोहरी । मणिमारणक हीरा लाल खरी॥४१॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण मोती लाल गनां और चुनी । राजद्वार महिमा अन्ति एनी ।। भली यस्तु जो राजा लेई । मुह मागिया दाम गिरण देइ ।। ४२।। कहीं बजाज बजाजी करें। सत्य बचन मुख ते उच्चर। कहीं जरवा फजिरी सिकलात । नरमो नारंग नानां भांति ।।४।। निरमंयंत कर व्यापार । घर वेसुरी पर साहुकार ।। कोठीवाल करै यौहार । जिनके कनिज बडे विस्तार ॥४४॥ हापौ दिए जाय जिहाज । ल्यावं दर्व धर्म के काम ।। जेले किसबदार हैं और । बैठ सकल विरागैठौर ॥४५।। नगरी निकटं उपवन बने । कूप वापिका जलहर घने ।। प्रति रमणीक मनोहर खरे । जान गंगा जल सौं भरे ।।४६१ मंदिर माहि बैठिक बनी । झरणा झर सीतलता पनी ।। मलखलाद सौं जल नीसरं । उचई उछल भूमि पर परं ॥४७।। तिहाँ बाइठा राजकुमार । गुनिजन गा राग संवार । अब ज क पा सुप। बड़े दुरापार पी लहू ।।४।। किंचित् कहू वृक्ष के नाम । गुनि जन समझो नाना भाव ।। सघन रुष बहु फूले फले । जानू गूथ बनाये घने ।।४६।। पत्र बंध सौ सोमै केलि । पाडल चढ़ी चमेली बेलि ।। अब बिजौरा निवू नरिंग । दाडिम दास बेलि बहुचंग ॥५०॥ फल फूल उत्तरै अति घने । पंछी खाय न बरजई जने ।। सकल जाति के सौम रूस्त्र । वास सुगंध लागे भूष ॥५१॥ सोरठा कमल सरोवर कूल, सबजी जात अनेक विष ।। अमर सुरग सुष मूल, राति दिवस निवस तिहां ॥५२।। पंछी तिहां अनेक, बौल सबद सुहावने ॥ जहां तहां द्रुम बेल, माइ बसेरा लेत हैं ।।५३।। . चौपई पैसा नगर बस सुभ थान । श्रेणिक राय तपै ज्यो मान ।। चेलणां दे रानी पटपनी । मानु फनक कामती बनी ॥५४॥ सीलवंत गुण लक्षण ईश । भानू इन्द्राणी जीत सनीश ।। सम्यक् दृष्टि कोमल वित्त । देवगुरु शास्त्र सेवई नित्त ।।५।। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचन्द एवं उनका पद्मपुराण परजा सुखी बस सब लोग। पान फूल रस गोरस भोग ।। घरि घरि पूजा सुनै पुराण । घरि घरि सुनिए अर्थ बषान ॥५६। श्री जिन मन्दिर बने उतंग । फरहर धुजा गगन के रंग ।। इन्द्र चन्द्र सुर वासा लेहि । सुरगपुरी सम सोभा देइ ।।५।। सोरठा बार बार कर सोच करि, विचार राजा श्रेणिक रह ।। हुवैई जनम बहोरी, कथा सुनु रघुधंस की ॥५॥ चौपाई कुलपुर नगर कुंडलपुर सिद्धारथ राव । महापुनीत जगत में नाउ ।। सोभा नगर न जाद गिनी । सुरगपुरी की शोभा बनी ॥५६॥ दुःली दलिट्री कोई न दीन ' पंडित गनी मालती :: हाट बाजार चौहटे बने । शोभा सकल कहाँ लो भने ।।६०|| वाग बगीचा महल' आवास । दीस सकल पास ही पास ॥ रितु रितु के फल लागे फूल । तातै रहे पथिक जन मूल ॥६१।। उछल जल झरना झरे । निर्मल नीर सुष विस्तरं ॥ बैठे राज सभा तहाँ ठोर । भूपति तहां विराज ओर ३॥६२।। सिद्धार्य एवं त्रिशला रानी महा सुभट छत्री हू सूर 1 ग्यानी गुनी ग्यान भरपूर ।। नुप की भाग्या सिर पर पर 1 कोई नहीं उपद्रब करै ।। ६३॥ प्रजा सुखी कर बहु भोग । पुन्य वन्त निबस सब लोग ।।। च्यार दान दे वित्त समाज । षट् दर्शन का राखें मान ।।६४ ।। विसला दे राणी गुणवंत । रूप लछिन सोम बहु भांति ॥ पतिव्रता प्राग्या मैं खरी । सील बंत गुन लावण्य भरी ।।६।। वरनन करि गुन पार न लेइ । सामोद्रिक की सोभा देई ।। सुस्त्र में सुती सेज मंझार । सुपन सिंध पाई एक बार ॥६६॥ माता द्वारा सोलह स्वप्न देखना सोलह सुपना नाना भौति । एक महतं पाछली रात ।। प्रथम गयंद इक कंची देह । यावत देख्यो अफ्नो गेह ॥६७।। दूजे सिंह गर्जना करे । गज मयमंत देष बल हरे ।। लषमी देखि हषत भाति । अनंत विभूति सोम बहु भाति ।।६।। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म पुराण कंचन कलस षीर जल भरे । दोऊ पोर के भीतर घरे ।। देष्यो सरोवर निरमल' नीर । छाया सघन विहंगम तीर ॥६६॥ अरु सूर्य देख्यो उद्योत । तास तिमर निर्मला होस । देष्यो पूरणमासी चन्द । मीसल वरतें मन मानन्द १७० फूलमाल देषी विकसात । मन आश्चर्य करै बहु भांति ।। सिंघासण मोती मरिण जड्यो । रत्नज देषत मन भयो । ७१।। देया मीन जुगल सर तिरै । ता चपलाई कौन सर करे ।। देव विमान देष गुनवंत । जाप्त रल्या भव सागर प्रत ।।७।। देवी अगनि धूम निरघूम । जानौं बनी रत्न की मूम ।। देष धवल धोरी धीरन धीर । पृथ्वी संग धरै बलबीर ।।७३।। देष्यो यारिध ग्रीषम कास । अति गजित किल्लोल विसाल ।। देष्यो नाग मुवन गुन सही । रात पाछली किंचित रही ।।७४।। स्वेत गयंद जु वन में गयो। वक्रत जागि प्रचंभा भयो ।। ए षोडस सुपने मनमांहि रहै । प्रिय समीप व्यौरे सों कहै ।१७।। सिद्धार्थ नृप सुनि त्रिय वैन । हरषित अंतर विगसत नन ।। मन बन क्रम सुपने कुसुनें । निहचे प्रष्ट कर्म को हने ॥७६।। स्वपनो का फल होय पुत्र फल मन प्रानंद । जानहु पूरनवासी चंद ।। सुर नर इंद करेंगे सेव । तीन लोक के दानव देव ।।७।। भव सागर का बोडे जाल । चर्म सरीर धर्म प्रतिपाल । विद्याधर नृपति पसुपती । इनमें बहोत चढावे रती । ७८।। जांनह पंचग्यान को धनी । सब परिवार चढाथ मनी ।। मुन प्रिय वचन भया प्रानन्द । प्रभु के चयन माठि सो बन्द ।।७।। सुदि अषाढ छठि उत्तम घडी । प्रभु ने बाद ग्रभ यिस करी । प्रासन कंधा सुर सुरपती। चिमक्या चित्त विचारी मती ॥५०॥ जिण चोईसमैं को अवतार । सिद्धारथ घर वीर कुमार ।। उतरि सिंहासन करि इंडोत । परंपराय ज्यों पिछली होत ॥८॥ मातंग जक्ष बुलाये टेर । आउ कुडलपुर इतनी देर ।। ओर दैवी कुमारी चपनां । पाइ पहुची देवांगना ।।२।। माता को सेवा मादेश हुवा कुवेर भंडार 1 रतन वृष्टि करि बार वार || दीये चितेरा देवकुमार । भले मुघर जु सूत्राधार |८३1. रचनां रथो मनोहर मही । चलती र सीप पौं कहीं ।।। कहुँ कहु देव चितेरा करै । अनहद भांति सुरग की वरं ।।४।। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभानन्य एवं उनकी पत्मपुराण विना जीव जानू बोले बैन । देषत होइ महा सुप चन ।। जा अन्तर पनहर घनघोर । बरस रतन डोढ है कोडि ।।८।। जय जय ध्वनि छायो प्राकास | वरवं पर्प सुगंध सुवास ।। गज पट्टल विजुली उद्योत । अंतर मनिक दिवस सा होत ।।८६।। हरति भूमि जल उपरि तिर । भरे तनाव मंडि करि फिर ।। किनर छपन अंत है पुर आइ । नमसकार कर लागी पाइ ||७|| कोई कर वीमनां बाय । सेवा करें घेरे मनु ल्याय ।।८।। तेल फलेल सबारे केस । कोई सही बनाये भेस II८६ कंचन भारी जल भर ल्याइ । और दांतण करावे प्राय ।। कोई बना घर भरि पान । बीडी करि षुवावं प्रांन ॥६॥ पोर जे सेबग ताकी ठोर । सेवा करि बिराज और ।।। जैसे कमल पत्र पनि नीर । यो विरघई सोही धीर | जांनु भानु बदर झांठयो । जानु सीप स्त्रांति बलदीयो ।। इह विध सो नगरी मैं गए । घर घर रली बधाई भए ।।२।। पूजा करै देह नित दांन । असे भमा गर्भ कल्याण ॥ महावीर जन्म चैत्र सुदी तेरसि कौं रली । नक्षत्र चित्रा किरयां भली ।। १३॥ भयो जनम जान्यों जब इद्र । ऐरापति साजियो गयंद || आसण छोरि प्रदिक्षणा दई । चले मुकुटमरिण नीची नई ॥६४।। जं जं सबद कर कर जोर । किनर चले सत्ताइस कोडि ॥ छाम रह्यो अाकास विमारग । नत्य करें गावं गुणगान ||५|| चार्ज पटह ददुभी घोर । करि करना इन फेरी जोर ।। मधुरी घुनि बाजे मृदंग । नृत्य करत मोई बहुमंग ॥९६|| भयो कउलाहल सुनै न कान । पाए कुंडलपुरी मीलांच ॥ नुप की पौरि भीर बहु जुटी । इंद्राणी अंत हैपुर बढ़ी ॥६॥ मांया का करि बालक घा ! श्री जिने व इंद्रानी हर्या ।। नींद उपाई लई चली गोर । बालके तिण डारि तोडि ||८|| हो त निकाल दियो पति गोद | निरखि रूप पाबो मन मोद ।। इंद्राणी पुगी मन रली 1 गावं मंगल विरया मानी RELI बैठ गयंद ले गये मेर । पंक सिला थापि तीड़ बेर ।। षीर सुमुद इंद्र सुर गए । कंचन कलस मीर भर लिए १००| सहस अठोसर इंद्र के हाथ । और भर भर ले पाए मा ।। दूध दही रस चुत की धार । श्री जिन पूज्या बारंबार ॥१०१।। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमपुराण ले प्राए जहां बीर जिणंद । ढारि कलस मन कीया पानंद ।। चन सूई सौं छेदे कान । काजल नैन सहर्ष मुख पनि ॥१२॥ देव पुनीन बस्त्र सुभ रंग । पहिराये श्री जिनके अंग ।। रत्न जडित कुंडल दोई कान । वाजु बंध ताइत उर आन ॥१०३।। माला और आभूषण बने । बहुत शृगार श्री जिनवर वणे ।। कटि करधनी पाए घुघरा । पहराये फूलों के सेहरा ॥१०४॥ करि पा . दि गई है। दरन खा मन सुष बढे ।। चले देव प्रमु कू घर लीयें। अति प्रानन्द परम सुष किये ।।१०५॥ सोरठा राष्या सबका मान, जो गुन गावं जिन तणे ॥ कीयो जन्म कल्याण, सुरपति सुरथानक गये ।।१०६।। इन्द्राणी किनर सहित, कीने बहुत प्रानंद । विसला देई गोद में, श्री दीनां वीर जिणंद ॥१०॥ सोरठी वर्ष बहत्तर प्राय, कही जोतिगी समझिक ॥ सप्त हाथ समकाय, श्री जिए सव जग तिलक ||१०८।। चउपई ज्यों दुतिया शशि चढे कांति । यौं दिन दिन बाढ़ जिननाथ ॥ सेवा करें देवता आइ। बालक रूप धरै बहु भाइ ।।१६।। महावीर द्वारा वैराग्य अनुक्रम जोवन पद मई । पुन्य विभूति चौगुनी लई ।। बरस तीस बीते बलवीर । सब गुन ब लेइ सरीर ।।११।। मनां सिंघासन कंचन घाम ! व्यापा सकल न व्यापा काम ।। सहज विचारों लोक स्वरूप । भम्यों जीव नाना धरि रूप ॥१११।। अति वैराग चिमक चितकरी । सुर लोकांतिक स्तुति करी ॥ धनि धनि कर वे जजकार । सिवका आन धरी तिण बार ॥११२।। प्रम मारुद्ध भए सुषपाल । छोडि दिया माया बंजाल । सिवका चदि नंदन बन गए । उसरि पालषी ठाठे भए ॥११३॥ सिद्ध नाम से सूखे केस । श्री जिन भए दिगम्बर भेस | माए इंद्र अमरपति घने । नंदै विग्धे जै जै धुनि भने ॥११४।। कीने तप कल्याणक सार । मंगसिर बदि दसमी सुभबार ।। रत्न पिटारी केस उठाय । लए देवनें समंद सिराय ॥११॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाषद एवं उनका पद्मपुराण बालस पीर जल भर ले आई। वारि नस्य करि गाय बजाए ।। प्रष्ट द्रव्य सौं पूजा करी । मानू देव सफल श्रत परी ॥११६॥ पुष्प वृष्टि गंधोदिक करें । सीतल पवन तापकी हरै ।। पचन वीनती कर डंडोत । नए मुकट ज्यों पीछली होत ।।११७।। यों करि देव गए. फिर गेह । तपाहनु भए जिन देह ॥ बारह विध तप आतम घ्यांन । वाहिज अभ्यंतर चित जांनि ।।११।। तेरह विष धार्या चारित्र । रागद्वेष जीते छ सत्र ॥ द्वादस अनुप्रेक्षा चित ल्याइ । दोप प्रटारह दिया छुडाय' ।।११।। दस विष पाली दया का अंग । छांड्या मोह माया का संग ।। बारह बरस रह्मा छदमस्त । घरया ध्यान जिन नासा दृष्ट ॥१२०॥ आनद चिदानंदसौ चित्त । च्यारि कर्म सठि परकित्त॥ टूट घातिया कर्म कठन । छुटी प्रकृति प्रौ उत्तन ॥१२॥ वत्य बैसाख सुदि दसमी सुभजांन । उपज्या प्रभु कु केवल ग्यान ।। इंद्रादिक च्यारी विच देव । जे जे धूनि करि कारन सेव ।।१२२।। पुहप कृष्टि फलन की घास । गंधोदिक सुर करै उल्हास ।। ऐरापति साज्यो गयंद । चली अपछरा सूरज चंद ॥१२३।। जोजन एक रच्यो समोसर्ण । गणघर ग्यारह बांणक वर्ण । तीन षातिका गोप र धारि । पदमाकरि पुहप कति वार ॥१२४|| मच्छ कच्छ जलचर खग आदि । और भाव अंतरि गतिवाद ।। नीन कोट कंचन के कीये । छत्री कलस रतन जड़ दीये ॥१२॥ मुर सुधार करे प्रारम्भ । रच्यो अगाउ मानसयंभ ।। देषस मान प्रकृति को हरे । निरमल मति अंतरगति करें ॥१२६।। प्रथम असोक सोक कु दई । भविजन लोग तमासै रहै । अग्रे भूमि रंगि मन पची। बारह सभा मनोहर रची ।।१२७।। समवसरण तीन छत्र की महिमा कहै । तीन धर्म की सोभालहै ।। समोसरण थानक कल्याण। चतुर वदन वइठाइ भगवान ॥१२८॥ वीच सभा मंडप सुभ और । सिंघासन को राषी ठोर ।। पंच हजार दंड उच्चत । अंगुल च्यार रहैं जिन पंत ।।१२।। विपुलाचल परबत मुभ यांन । समोसणं पहुंता तिहां पान ।। सुनि श्रेणिका पूषा की गया । सह परिवार गमन तिन किया ॥१३०॥ दै प्रदक्षिणा लाग्या पाय । बहुत भांति पाठे सुषपाय ।। वीनती सी जीरे कर दोइ । कहिए परम सुने लव कोइ ।।१३१५३ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापुराए महावीर वाणी श्री जिनवर की यांनी हो । वारह सभा सुने सब कोइ ।। गौतम स्वामी कहै वषांन । द्वादस ममा सुन दे कान ॥१३२।। सप्त तत्त्व पर पंचास्तिकाय । षट द्रव्य नो पदारथ थाय ।। जीय प्रशीव प्राथव अंध | संवर निर्जरा मोक्ष की रिश्च ।। १३३ ।। जीव तत्व दोइ विष कहे । एक सिध एक संसारी रहे । ता मई दोई भव्य अभव्य' । बहु संसार रु ए सच ।।१३४।। भव्यनिकर उसरे भव पार | अभव्य रुली घिरगति मंझारि ।। भारम्पों सष चौरासी जोंनि । ते दुप वरन न सक कवि कौन ॥१३५।। जनम जरा दुष मुगते धने । श्री जिन वचन सन मन में सुने ।। भ्रमत भ्रमत नर दही भरी। साध संगति मति पाई खरी ।। तीन रतन सौ उपजी रुच । दर्शनग्यांन चरित्र जु सच ।।१३६।। तिहु काल सामायक करे । सात विस्न पाठौं मद हरे ।। सोलह कारन का व्रत धरै । वया धर्म दस विध विस्तरं ॥१३७।। च्यारदान दे वित्त सनि । पौषद अभय महार समान । मास्त्र दीयां गाय बहुग्यान । विनयत होई तजि अभिराम ।।१३८।। करमवाटि पहुंचे निरवान । सिवपद पावै सुख सुथान ।। प्रौर जे अंचकूप मैं जीव । तिनुले चिरकाल की नींव ।। १३६ ॥ दया धरम जिनौं न सुहाय । पूजा दान नहि उहाय || सास्व सुनत उपहरो अकुलाइ। मिथ्यावाद वरै वह भाइ ।।१४०।। जिहां होय जीव का बंध । तिसकु घ्यावं मुरिख बंध ।। मांचं कूदै करि मिथ्यात्व । भोजन कर दिवस में राति ।।११।। जे कडु करं कर्म अरु प्रकर्म । जासों काहै हमारा धर्म ॥ मूड हलान पार्षद्ध करें। जीव दया का भेद न धरै ॥१४२।। प्रणछायां जो पीये नीर । करे स्नान मंजन सरीर ॥ कंदमूलादिक सब फल षाय । सत्त संयम पाल्यो नहि जाय ।।१४३।। अंसी जे सेदो मिथ्यात्व । ते नर मर करि नरक जात ।। भय भव सर्दै ते दुष संलाप । नर्क निगोद लहै विल्लाप ।।१४४॥ प्रइसी समझ मिथ्या परिहरी । जैन धर्म निपने सौं करो। संयम पर्त करो मन ल्याय । सुख संपत्ति बाधै अनिकाय ||१४५।। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचं एवं उसका पपपुराण जा प्रसाद बहु लछमी होइ । पूजा धान करो सव कोइ ।। सफल' लछमी सोही जांन । दुषित घलिनी को यो चान ॥१४६।। पूजा दान प्रतिष्ठा करं । देव सास्त्र गुरु मन में घर ।। धर्म तीर्थ को चलाने संग । विघसी पाले धर्म के मंग ।।१४७॥ श्री जिन भवन संवार भले । दया भाव के मारग चले ।। पूजा रचना कर सांतीक । तातै बढे धर्म की लीक ।।१४।। मंदिर कूग बगीचे बाय । विहाँ पंथी गोठे सुष पाय ।। वनवासी से दिशान पर मिली जिन नाम ||१४६। छह दर्शन कुप्रथम देई । प्रादर भाव विशेष करेई ।। सज्जन कुटंब सु राणे भाव । दान देयण को मनमैं बहु चाव ॥१५॥ भूपा भोजन प्यासां नीर । सरल चित्त ब्राने परपीर ।। पनि संयोग लहै गति देव । नरपति खगपति उत्तम कुल भेव ॥११॥ ऊचे कुल में पारी टोर । ता सम सुषी न दूजा और ॥ कारा पाय जाय मिव पंथ । धरै भाव मुनिवर निर्गन्य ।।१५२।। सोरठा कान फर फल वे बषिष रान, अर्थ पाय धर्महि करें। ते पावं निरवान, अस प्रादै तिहुँ लोक में ॥१५३।। चउपई धन पाया कछ पुन्य न कीया । अपजस गोट अपन सिर लिया। आप स्वाय म खुवाबै और । सदा व चिता की टोर ॥१५४।। छह रुति कदे न मार्ने मुख्न । भली वस्तु नवि मेल्हे मुख । राति दिवस भ्रमत ही जाय । प्रात्तं रौद्र में काल बिहाय ।।१५।। जोडि द्रव्य धरती तल दीयो । मैले काहू, सौंपियो । के वह धन लेव हर चौर । के षोया जुवा को ठौर ॥१५॥ के वह सात विसन मौं गया । के रिण दिया तिहां थकी रह्या ।। केइ राजिन लोया दंड । किरपन भया जगत में भंड ||१५७।। सब कोई बोल मुंह द गार । पापी लीया पाप का भार ।। पचि पनि जोड्या अर्थ भंडार । ताकी जात लगीन बार ॥१५८।। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ पमपुराण सर्व किरपन बहुतें पिछताइ । तब झुरयां बने न सुदाइ ।। मरिक भ्रमें चहुंगति बीच । पावं गति जो नीच हि नीच ।।१५६।। नरय तिरय गति भगत जाय । जहां न कोई होद सहाय ॥ लछमी का फल सोई सही । तीन भुबन में जस कीरति नही ।।१६।। सदावत दीना कर दिया । अपना कारज उनही किया। अपने संग सुजस को लिया । उसका नाम जगत में भया ।।१६।। दोहा जे लखमी बहुते जुई, करं पुन्य नहि कोइ ।। नरकां का दुख बहु सहै, जाय भवांतर पोह॥१६२।। बजपई श्री जिनवारणी अगम अगाध । पूजित हैं प्राणी कौं साध ॥ रचि पुहता अस्ताचल ठौर । श्रेणिक पाया अपनी ठौर ।।१६३।। भई रयण ससि का उद्योत । पृथ्वी परिसों भई जोत ॥ उज्ज्वल वर्श मंदिर वह भाप्ति । छू टि रही ससि हर की क्रांति ।। १६४॥ सोमवंशी फूले बह फूल | वने सरोवर सुष के मूल ॥ महा सुवास पवन की डोल । दंपति रहे सुष करें किलोल ।।१६५।। पर धर कामिन गावै गीत । तासु वयण सुभ जगजै प्रीत ॥ गोरी अबला तरनी नारी । सब सोहै ससि की उनहार ॥१६६।। मोधा फूल पनि सुषवाम । रति रति भोग रमें प्रतिहास ॥ श्रेणिक शय सभा संयुक्त । जिनवाणी गरा कहै बहुत ।।१६७।। सुष सेज्या पोढे थे भूप । उत्तम वस्त्र सु महा सस्प ॥ भणिक रामा द्वारा स्वप्न सुपर्ने माहि विचारं न्यांन । रामचंद्र गुन का ध्याख्यान ।।१६८।। रामचंद्र मिभुवन पति राय । लछमन के गुण कहां न जाय ।। लंकापति रावन दस सीस । ताक भुजा विराज बीस ।।१६६।। कुभकरण बिभीषण है वीर । महावली कहिये रणधीर । इन्द्रजीत रावण ना पूत । ताका बल कहैं बहूत ॥१७०॥ प्राचार्य रविषेण ने राषण के बस शोष नहीं माने हैं । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पयपुराण काहै इन्द्र ने हम बसि कीया । अागन्यां बांधी अटक मैं दीया। नवग्रह बांधि कराई सेव । स्वर्ग लोक के जीते देव ।।१७१।। इह आश्चर्य मेरे मन घणा । इसा बचन मिथ्याल का सुन्या ।। इंद्रदेव का स्वर्ग निवास । नवग्रह रहैं इन्द्र के पास ।।१७२।। तिहां रांबन पहुंचा किस रीत । इन्द्रजीत ने बांध्या जीत ।। इह पृथ्वीपति भुवि परि रहै । किस विध जाय इन्द्र में ग्रहैं ।।१७।। जो सुरपति को मन मांहि । रावण में भसम करे छिन मांहि ।। जा के बल को त न पार । वास कौन प्रडे झुझार ।।१७४।। जे ते लरं ते सबह मरे । तो इह सत्य वचन जिय धरै । नवग्रह काहै स्वर्ग विधाम । वे केम कर आइ इहां काम ।। १७५।। कुभकरण में कहैं बहु सूर । नींद छमासी सोवै सूर ।। बजे दमामा बल सरणाय । कैस नाद ऊपर व जाइ ॥१७६३॥ तेल भरघा कढाह प्रवटाई । दोहु कान में देहो लुगाय ।। तोउ न जागे एरण उपा६ । जे उह जाग किस है भाम ||१७७।। भूष षट्मासी कहियन जाय । जोकु दृष्टि पडे सो षाय । हाची घीठे ऊंट मिल जाम । तोउ न झुधा उदर की समाह ।।१७।। इह से मेरे मन उचै । काचा मांस वाहि किम रुच ।। काचा मांस न पावै विडाल । केम भप प्रश्वी भूपाल ।।१७६॥ जाग्यो राय विचार एह । श्री जिन ते भाज संदेह ।। वीती निसा उदय भयो भान । बजे बाजिन पुरै निसान ।।१०।। सकल लोग उठे प्रभात । करि सनांन मुमरण बहु भांति ।। अपने अपने दिम लगे । बाल वृद्ध सब ही जगे ॥११॥ श्रेणिक को राज सभा भूपति आभूषण सव साजि । पट्ट बैटा तबै थेगिवा राज । देस देस के भूपति पाइ । नमस्कार करि लाग्या पाउ ।। १८२।। राजसभा में भूपति घने । नामावली कहां लग गिने । राजा वचन कहै सो प्रमाण | चलो करन दरसन भगवान ।।१३।। समवसरण की मोर प्रस्थान सह परिवार गमन तब किया | अस्व गयंद बहुत सा लिया। के घोडा के रथ के सुषपाल । हस्ती पर बैठा भूपाल ।।१४।। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 आगे बढो किकर चले । गली सकल समराई भले || जिहा तिहां हुंबा छिडकाउ । ताथई बहुत बिराजै ठांउ ।। १८५ ।। देषं झांक झरोखा द्वारि ॥ कोईक श्राइ अटारी नारि । नाद बाज बहोत । हृय मय रथ सोभा प्रति होन ।। १८६ ।। सेना साथ राय प्रति घनी । जिसकी सोभा जाय न गिनी || दिन सोभा सोम बहु भांति । सकल लोग श्रावं जिन जात ।। १८ ।। समोस देखियो नरिद । उसरि भूप सुमरियो जिनँद ॥ पृहता राय जाइ समसरन । जीव जंत का पातिक हरन ॥१८८॥ I दई प्रदक्षिणा करि होत । कि पूछी प्रश्न बहोत ॥ भगवान महावीर से रघुवंश कथा को जानने की इच्छा प्रकट करना स्वामी कहो कथा रघुवंस क् संबुक कौया निरहंस ||१६|| षडदूषण मारया किंतु भांति । विराधित पाइ मिल्या रघुनाथ ।। किम सीता का हुआ हरन कइसे वारावर ।। १६ ।। कैसे प्राय मिल्या सुग्रीव । परपंच मारि किया निरजीव ॥1 वभीषण किम पायो राज कुंभकं क्रिया मुक्ति का साज ॥ १६१ ।। इंद्रजीत श्ररु अन इंद्रजीति । क्रिम विघ किया उसे भयभीत ॥ राजा पवन अंजना विवाह । क्यूं वियोग हुनर बहु ताहि ।। १६२ ।। किम उपज्या हणीमान बलवांन । कैसे सुधि सीता की आंनि ॥ रामचंद्र को कोनी सेव से लह्या समुद्र का छह ।। १३३ ।। मीता प्रांणी दल मंधार । किह कारण सा दर्द निकार | आदि अंत की पूछी बात सब ही का संसा मिट जात ॥ १६४॥ ५ राम कथा का महत्व पचपुराण श्री जिननाथ की वांनी हुई । द्वादस सभा सुनें सहूं कोई || गौतम स्वामी कहैं ब्रधान । सकल सुनेहु तुम परि ध्यान ।। १२५ । स्वयंभू रमण सायर चहुं ओर वा सम समंद नहीं को प्रोर ॥ ज्यों कठवती नीर सौ भरे । तामें एक कटोरा धरै ।। १६६॥ इस विधीप समुद्र मकार । तिनका है बहुत विसतार || मैं समुद्र लवणोनि । अंबुदीप है ता मी ॥१६७॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण सुदर्शन जाके बोधि । बज्रमई है तार्क नींच ॥ सो बनाई बहुत विसतार | कहां कहां बहु रत्न अपार ।। १६८ ।। ऊंचा सिखर प्रकास लागि अंतर एक बाल समाग || जोजन महा इक लाख प्रमांगा । केवल बांणी सुध्यां बष रण ।। १६६ ॥ पंचमेरू अढांई द्वीप | दृगुणे दगुणे कहं समीप ।। और कहे फुलावल घटमेर । एक एक पंड ताके घेर १२०० विजया अनेक || छह पंड भये एक तई एक दीर्घ ती लघु विजयाद्ध अनेक जु और उदह नदी निकसी गिर फोर ॥२३१॥ श्रठसठ गुफा नही हैं तिहा। इक इक मेर कुलाचल तिहां ॥ अकृत्तम चैत्याला लिहां बने। उनके भेद पुरान भने ||२२|| मत्तरियो पत्र पंचमेरु मांझ । इह त्रिध चित में जानू सांच || भोगभूमि का वन मदा सास्वता इक सो साठ । विनासीक जानू दोय आठ ११२७३॥ सोबर्स मई जानु भोगभूमिं । तामें कल्पवृक्ष रहे भूमि ॥ जब मैं जुगल हुवें उतपन्न । भूगतें सुष जे बंछित मन ।। २०४ ॥ । जैसे स्वर्ग लोक के देव । श्रइसे ही जुगलियां का भेव ॥ तो भी श्रेणिक पूछे कर जोडि किस पुन्य पावें भैसी र २०५ ।। तवं भगवंत कहै समझाय । दान सुपात्र तर फल राइ ॥ मन वच काय दीया जिन दान तांतें रिध है असमान ॥। २०६ ।। 1 ज्यू वट बीज तुच्छ प्रमाण । उपज्यां भया बड़े उन्मान || ताकी छाया शीतल घनी । बहुत विस्तार कहे क्या गुनी ||२०७॥ इा परिवर्ध सुपात्रां दान | चौविह दोज्यो चतुर मुजांन || दर्शन कुपात्र तणां फल एह । विनु विवेक जो कोई देई || २००१ सत्य बीज बाधै जो कोई । एक बालि एकेक ज होई || चौवह कुलकर कुपात्र दान फल है यह तुछ। इह त्रिव समकै चतुविच ॥ २०६ ॥ चौदह कुलकर का व्याख्यान । सुणों गुणी जन सुघड़ सुजांन ॥ प्रथम प्रतिष्ठ १ दूजा सनमित्त २ । बेमंकर ३ तीजा कुल थि । २१० ॥ मंबर ४ सीमंधर ५ कुल कीया । सीमंकर षष्टम ६ कुल भया ।। सप्तम बिमल ७ बहु कुलवंत । श्रष्टमं च कल्पवृक्ष जोति घट गई। वा सुर रयरण षमान गुनवंत ।। २११ ।। प्रगट तब भई ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपपुराण तब वे प्रगटे चंदरभान । प्राश्चर्य भया सब के मन मांनि ॥२१२३ बूझ बचन प्रमान सुवात । अवधि विचार कही बहु भांति ।। पूरब भब देखि विदेहु क्षेत्र । इनका प्रथमई परि उद्योत ।। रवि प्रताप ग्रीषम बहु होई । निशा शीतल शशि ही की लोई ।।२१३॥ तब ते जानौं सूरज चन्द्र । समझया सोग भयो प्रानन्द ।। जसाषी नवमां । यसमा अभिचंद १० एकादश चंद्रान कुलनं। २१४ ।। महदेव १२ प्रसन्न सेनजित व १३। नाभिराय १४ चउदहा कुलदेव ।। कोई कोई कालप वृक्ष रह्या । नवां नन सहज में भया ।।२१।। अन्तिम कुलकर नाभिराजा सोबन मिंदर सह रत्ने जड़े । देषत सुषसों गह भरे ।। नाभिराय जगत मूपत्ति । महदेवी राणी सुभमती ।।२१६।। पंकज चरण अरुण छवि घनी । नष की क्रांति चंद्र दुति हूनी। अति कोमस कदलीदल जंघ । मानों मकरध्वज के धंभ ॥२१॥ नेवर सबद हंस की चाल । मोती जडित पदारथ लाल ॥ फुनि कटि पीन सिघ कोहरी । रहै वोह वन में सुधि हरी ॥२१॥ कंचुनो झलकित सोभई ठोर । तिन की पटेतर नाहीं और ।। कंठ कपोल कंकन सुदरी । सुदर निमोलिक मरिण जडी ||२१६।। फुल कर्ण जोति निर्मली । सभा सकल विराज भली ॥ वदन पटतर कोई नहीं चंद । दशम जोति जानू कलिकंद ।।२२०।। अति सुरंग मुख बिना तांबोल । बानी सरस कोकिला बोल ।। कीर नासिका बेसर चुनी। मोतिन की सोभा छबि पनी ॥२२॥ दीर्घ नयन कमल की भांति । तिनको सोभा कहै किस मांति ।। सीस फूल सौभ बहु भाय । बेणी की छबी कही न जाय ।।२२२।। बर्न कबि गुन पार न लेई । सामुद्रक की सोभा दे । छह मास प्रगाउ छह भेष । नासन कंप्यो सुरपति देव ।।२२३।। मरदेवी रानी की सेवा अवधि बिचारि समझियो इंद । ह्र अवतार प्रथम जिरणचंद ।। सोलहै देवि कुमारी टेर । मरुदेवी पे जाऊ इह बेर ||२२४॥ सेवा कीज्यो नाना भाति । गर्भ सोध कीजो दिन राति ।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंव एवं उनका पद्मपुराण कोई मर्दन करावें अस्नान । केई आणि खुबा पान ।। २२५११ जानों भरया समुद्र जल बीर । कोई राग सुनावै तन ।।२२७|| सेवें अपनी अपनी ठांउ | केई प्राभूषण धरै संवारि ।। २२८ ।। केइक कन्या दाबे पाउ केई दीवट नीरष बालि । 1 1 वारा भूषण सोलह सिगार मांगे जब देवई तिए वारि ॥ निसवासर सेवा बहु करें। वचन बचन गुण हिरदं घरं ||२२|| उत्तम सज्या करी सुवास । सेवा करें सपी बहु पास || सोलह स्वग्न स्वप्न फल कंचन भारी भरकै नीर । कोई तेल फुलेल हि प्रांत मरुदेवी सोयँ सुख चैन | सुपना देखे पछिम रंन ॥ २३० ॥ हस्ती स्वेत देष्य गुनवंत | वृषभ एक देष्यो मयमंत || दीख्यो स्यंष गर्जना करंत कंचन कलस रत्ना जयंत ॥२३१॥ पुषमा देवी विगमात् ! उदय परन्तु !! दीठो पुरनवासी चंद | भीन जुगल सौं मन आनंद || २३२ || देष्यो समंद महा गंभीर । सिहासन निरष्यो मरिण हीर ॥ 1 यो सुमेर गिर लक्षमी सार । देब विमान देख्यो सुरकार ।।२३३ ।। देख घरपेन्द्र रत्नभई भूमि देव प्रदशी प्रग्नि महा निर्ऋम ॥ अइपति की उज्जल देह । आवत दीठा अपने गेहूँ ।।२३४|| ए सुपना सोलह गुणवंत । उठि करि निज पति सुत ।। नाभिराय सुणितिय की बात भयो आनंद सुष उपज्यो गात ||२३| मन वच काय सुपनि फल सुने । निहच सयल पाप नै हने ॥ पूत लक्षण संयुक्त | मानों पृथ्वी पर रवि उद्योत || २३६|| अवर जे सुर अमर पद बसे । तिनकी मणि चरननी चई घ || तोडे भोसागर का जाल भरम सरीर कनक की माल ॥ २३७ ॥ विद्याधर नरपति पसुपति। इनमें बहुत चढाउँ री ॥ इन्द्र फणीन्द्र करेंगे सेब । तीन लोक के दानव देव || २३८ || १७ सुरि करि वचन उलिसी घी | जानहूं पंच यांन का बनी श्रीषाठ यदि दोज सुभ घड़ी । प्रभु ने आइ गर्म थिति करी ।। २३६ ॥ समझया चित्त ग्यांन बहु भाय ॥ सिंघासन तजि नमरिण करत । धनद कुमार बुलायो तुरंत ||२४|| भासन कंपे सुरपति राय Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परपुराण नगर अजोध्या सवारो जाय । बारह जोजन की लम्बाई ।। चौडी नव जोजन के भाय । कनक भूमि की करियो ताय ॥२४॥ रतनवृष्टि फूलन की गिरेष्ट । बजे दुदुभि महा सिरेष्ट ।। कचन कोट रतनमई सार । मंदिर सस भुमिए संवार ॥२४२॥ ऊंची पतरी चित्र बहु बने । रषवाले तिहां ठाउं घने ।। चिहुं प्रवर वापिका गंभीर । तामें भरचा निरमला नीर ॥२४३।। प्रागें सूत रचे बाजार । चौडी नींव बडे विस्तार ।। सत्तषिया मंदिर सब किये । छत्री कलस रतन के दिये ।।२४४।। करो चितेरे देव कुमार । सुरग लीक की सी उनहार ।। प्रजा सुषी बस सब ठौर । जे ते किसबदार है और ।।२४५।। प्रथम तीर्थंकर ऋषभवेव का जन्म चैत्र बदी नौमी सुभ वार । उत्तराषाढ नक्षत्र सु सार ।। भयो जन्म जब जान्यो इन्द्र । मनमें बहोत किया आनंद ॥२४६।। प्रासन छोडि प्रदक्षणा दई । सबने मुकुट मणि नीची नई ।। जअं सबद भया जब षरा । सत्ताईस कोटि चली अपछरा ।।२४७१३ देव विमान छायो आकास 1 वरष पुष्फ सुगंध सुवास ।। नुत्य कर बहु गांव गीत । बाजे पटह दुंदुभी रीत ।।२४८।। ताल मृदंग बजाय बीन । गावं सुर जिन गुण परवीन । भयो कोलाहल सुरणे न कान । पाये नगर अजौंध्या थान ।।२४६।। नृप के द्वार भइ प्रति भीर । इन्द्रानी राज लोक के तीर । माया का बालक रचकर राषि । थी जिन सीमा बीनती भाष ।। २५०।। नीद घाई लीया चुराय । इंद्रानी ने चली उठाय ।। ह्वां से निकसि इन्न को दिया । देष बदन हर्षित भति हिया ।। २५१।। अन्मोत्सव सहस नयन करि देषं रूप । तोऊन त्रिपति सुरपति भूप ॥ बइठ गयंद मेरु ले गये । पांडुक सिला महोछव भये ।।२५२।। पीर समुद्र जल कंचन कलस । भरे नीर जे प्रासुक सर्स ।। सहस अठोत्तर इन्द्र जु भरे । प्रवर देव ले कंचन घरे ।।२१३।। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचन्द एवं उनका पमपुराण १३ माविनाष का माल्यकाल दूध दही भ्रत रस की धार । पुजा र बे बारंवार । से पाए जिहां प्रादि जिणंद । कलम दानि मन भयो पानंद ।।२५४।। वन सूई से छेवे करणं । पहिराये बहते पाभरणं ।। कज्जल नयन मुख दिया तांबूल । कुडल रल परा अनमोल ॥२५॥ बाजूबंध माला ताईत । तातं होय दूरि भयभीस ॥ कटि करधनी पाय घुघरा । पहराये पुहपई सेहरा ।।२५६।। करि मारती भसतुति घनी। ते गुण सोभा जाय न गिणी ।। चले देव प्रमु कू सिर लिये । बहुत आनंद प्रेम सुष किये ॥२५७५ ॥ मख्खेवी नष दीया जिरवंद । तिहुँ लोक में भयो आणंद ।। धनुष पंचसय कंचन काय । लक्ष चौरासी पूरन प्राय ।। २५८।। सातिमा जना सामान ! पड़ने समान मापने थान ।। दुतिया शशि क्रांति ज्यों चढ़े 1 यो श्री जिनवर पल पल बहै ।।२५। जननी गोद जव ही लेइ । देष रूप मन सुष घरेइ ।। लेकर पिता लगावै हियो । बहु प्रानंद उपजत हिये ।। २६०॥ शारीरिक सुन्दरता कनक वग्न काया प्रतिबनी । नस्ल की जोति क्रांति दुति हनी ।। कोमल चरन केल सम जंय । कटि सोभे जिम के हरि सिघ ॥२६॥ कर पल्लव मुज बने अनूप । हृदं कंठ सोभा अति रूप ॥ वंत होऊ रतन की जोति । सुभ्र कपोल सु अति उद्योत ॥२६२॥ नामा कौर नयन प्रति बढ़े। मस्तक किरण जोति मित चढे ।। कोटि मान जो कर उधोत । तक न सर भर जिन की होत ॥२६३।। स्याम केश लांचे सुष कर्ण । अति सुगंध नीलांजन वर्ग । लक्षण सहस अठोत्तर बने । तो मुष गोचर जाहि न गिने ॥२६४।। बालक रूप देव के पूत । से ले प्रमु ज्यो आये बहुत ॥ रत्न चूर प्ररमजा कपूर । क्रीडा कर उडावं धूरि ॥२६॥ बहुत भांति के फेरै भेष । ते खेले बहु युगति बिसेष ।। ऐसी जुगति बहुत दिन गए । श्री जिन जोवन पदई भए ।।२६६।। प्रादिनाय का विवाह एवं सन्तान प्राप्ति नंब सुनंदा व्याही नारि । रूप सुलक्षण पशि उनहार ।। प्रथम पुत्र तातै उत्पन्न । बाझो भई भरत की बहन ॥२६॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपपुराण बहुरगो दूजी नंद रूप सौं भरी। रूपबंत गुन लावण्य परी ।। गर्भ ताहि पुत्र सौं भए । काहिं करम सो मुकतिहि गये ।।२६८।। प्रथम माहुबलि पाछे और । तार्थ सकल रिद्ध दई जोडि ।। अवर भई पुत्री सुन्दरी । सील रूप प्रति शोभा भरी ॥२६॥ राज्य प्राप्ति माभिराय प्रभु प्रायस किया। राजभार रिषभ नै सोपिया ।। कलपवृक्ष सहु गए बिलाय' । सहु लोक की खुध्या न जाय ।।२७०॥ ताका भेद न पाव कोइ । भूष प्यास दुष दूर हो होइ आये नाभिराय के द्वार । हम किम जी- प्रागा अपार ॥२७१। तश्च थे कलप वृक्ष संसार । मनसा भोजन करत आहार ।। अब वे कलपवृक्ष हैं नाहीं । हमरा किम होवै निरवाह ॥२७२।। नाभिराय की धाग्या पाय । स्विमवेव में बिनचे प्राद।। मननी बात कहैं सब लोग । कैसे जीव का मिटै वियोग ।।२७३।। राजा में सब लिये बुलाय । सकल लोक ने पुछ राय ।। सुनि परजा दुष किया विषार । उदिम बताय किया उपगार ॥२७४।। तीन वरों की स्थापना महा सुभट ते क्षत्री किया । षडग बंधाय सूर व्रत दिया ।। धरम दया कोज्यो मन लाय । पापी दुष्ट मारो धाय ।।२७५।। रण संग्राम न दीजे पूठि । सनमुख अझज्यो डिगं न दीठ॥ स्वामी कार्य को दीजे प्रांन । ज्यू तुम पायो स्वर्ग विमान ॥२७६।। जे क्षत्री रण मैं से भजे । कुल कलंक लामै अनतजे ।। जे छत्री सहु पुर रक्षा करें । रसा साम्हों जाय के ल ।।२७७॥ निज परजात राई सुषी । दया करै नर देषी दुषी ।। वर्म दया करि यासौं ध्यांन । भक्ष अभक्ष तर्ज धरि ध्यान ।।२७८ जिनक हिये थी दयावी धनी । थापे दइस बनिक बुधि दिनी ।: दया दान किरिया सौं सुधि । पाप कर्म सों करें न मनी ।।२७६।। अवर जे नर थाई उत्सम भाव । जैसी ताहि बतायें ठाम ।। अविवेकी जे अपर प्रयान । लिगने श्राप्पे कर्म किसान ॥२०॥ हल जोति कर खेती करै । उपज साष रासि तब करै ।। होए अन्न भुगत संसार । उनको दिया इसा उपगार ॥२८॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंच एवं उनका पद्मपुराण थापी सब छत्तीसौं पोरग । अपने अपने मारग गौण ।। हुवा छत्री वस सुद्र ए तीन । इह विधि समुझो चतुर प्रत्रील ॥२८॥ वरष में ऊपजै धान 1 गाडे पान फूल सब थान ।। मेवा सब विष उपज जिहाँ । परजा सुखी विराज तिहाँ ।।२८३।। राजनीत सौं पावें चैन । दुषी न कोई दोष नयन ॥ धर्मरीति सौ बीत काल । दुषी दरिद्री नहीं दुकाल ।। २८४।। राज करस पूरब गये बीत । लक्षतियासी इम भोग को रीत ।। एक लक्ष पूरव रही प्राव | सुरपति मन है विचार भाव ।।२८५।। ए प्रथम भगवंत अवतार । इनतें धरम चल संसार ।। ए माया महि रहै मुलाय । सवेगी एक किरण पर थाय ।।२८६|| नीलांजना द्वारा गरम चैत्र बबी नवमी थेष्ठ घडी । नीलंजना पातर अवतरी॥ आय राय की सभा मझार । नृत्य कर गाव गुण सार ॥२८७।। दोय षडी प्रायुबल रही । पूर्ण भई गिरगड़ी जे मही ।। मायत नाचल तिन लई पछाडि । तब राजा बोले रंकार ।। २८८।। बेग उठावं ठाडी करै । बेर बेर गिर गिर वह पडे ।। तब मंत्री बोले समझाय । याकी आयु पूरी इन ठाय ॥२८६।। वैराग्य भाव तब मनमें त्यो भूपाल | अचेत पण बीता यह काल ॥ श्व कछु करू धर्म की रीत । तातं पाप हुवे भयभीत ॥२६॥ जाण्यों इह संसार असार | मुछत जीव ना पा पार ।। राग हूष प्रारति मुई रहै । भ्रमत जीव विश्राम न लहै । २६१।। कवही हुवै देवगति भूप । कवही दुखी दलिद्री रूप ।। कबही नर कबही तिरयंचं । कंबही मर कर परपंच ।।२६२।। नट जिम भेष कीए तिन धने । दुष सुष और कहां लौं भने ।। अब जो राखो पातम ध्यान । जीब मैं धरि देखू पहिचान ।।२६३॥ प्रगटै घरम समझ सब कोइ । क्षत्री त सुत कीने धोइ भरत नै सूप्यो पृथ्वी भार । दाहरल पोवनपुर सार ।। २६४।३ निन्याणवै देस औरन कू दिया । भयो संतोष सर्व के हिया ।। पपर्ण मनसों विचारा म्यान । लोकांतिक सुर पहृता प्रांन ।।२६५॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म पुराण जय जय सबद भया चहुं मोर । सिवका मांनि परी तिह ठौर ।। धन्य धन्य वारणव सम को देव । चढे पालकी लग्यो न छेव ॥२६६।। सिवका चढिय पराग बन गये । उतरि सिंघासन ठाढे भए । नाम सिध समरथा मन सौच । पंचमुष्टी का कोनो लोंच ।।२६७।। इन्द्रादिक पाए सब देव । करि कल्याण वर्ण की सेव ।। लीये केस ताईत में डारि । अवर सिराये समद मझार ॥२८॥ तप कल्यणक इन्द्रकरि गये । ध्यानारूढ श्रीजिनघर भए ।। अर जे पांच हमार नरेस । तेभी भए दिगंबर भेस ।।२६६।। प्रभु ने वरत घरया षट् मास । प्रबर सकल वरठे बनवास ॥ उन भुषा रहा न जाय । प्रनपारणी बिन गए मुरझाय ।।३७०।। जो फिर जांय भरत त हरै। तातं वे वन में ई फिरें। जैनधर्म की सहिय न पांच । फाटा भेष तिहां पर पांच ।।३०१।। कोई सन्यासी जटा बधाय । जोगी जंगम भए कर्ण फटाय।। वारह विध तप श्रीजिन करें। चेतन चिदानंद चित धरै ।।३०२।। मासादृष्टि प्रातम ल्यो ल्याय । पदमासन बैठे जिनराय ॥ ममि विनाम तहां पहुंता माह । विनती करें नमरिण के भाइ ।।३०३।। तुम तजि राज लिया है जोग । छांडि दिये संसारी भोग ।। भरत बाहुबली राजा किए । हमारी सुध न बिचारी हिए ॥३०४।। हम कोई बतादो देस । जहा जाय हम करें प्रवेस । श्री जिनराय तिहां छदमस्त । मुष थी कहै न एको सस्त ॥३०॥ नमि विनाम छोड नहिं पास । राज्य भोग्य की छौडी पास ।। तन धरणेन्द्र विद्या दो दई । अंसी रिध लई तब मई ।३०६।। विजया का दीना राज । दोहं का मन वांछित काज ।। दस जोजन पर्यन्त उचंत । मारिए माणिक तहां पणे दिपंत ।।३०७।। दक्षिण दिश रथनूपुर नगर । उत्तर दिसि अलिका बिन अगर ।। सब संयुक्त विराजे गांव । लता लछमी नाना भाव ।।३०८।। जैसी स्वर्वलोक की नारि । तइसी सबै नयर मझारि ।। कर राज सुष भुगतं भोग । रिषभनाथ मन ल्याया जोग || ३०६॥ बारा विष तप प्रातमध्यान । षष्टमास बिन अन्न न पान ॥ तब मनमें अइसी चित चीत । प्रगट करू भोजन की रीत ॥३१०।। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभानन्द एवं उनका पद्मपुराण माहार निन्या हमको भौजन बिना विहाय । अग्रे वंगी सूक्षम काय ।। विना आहार तप करघा न जाय । प्रेमी समझि उठे जिमराय ॥३११।। भोजन की विध लहैं न कोड । जिहां जायं तिहाँ प्रादर होय ॥ लाल पदारथ हीरा भेट । मिसै भूप नगरी सहु नेट ।। ३१२।। कन्या कोई : कोई क द :। केई रच केई सुपपाल । मगनी बात न लहै भूपाल 11३१३।। ए सह छोडि फिरे बह मही । भोजन विधि को जाण नहीं । हथनापुर कुरुरजांगल देश । राज करै श्रेयांस नरेस' ।। ३१४।। तिहां पहुंचे बीते छह मास । एक बरस मही खुध्या पास ।। श्रेयांस सुभ सुपते पाई । मंत्री पूछे तब बुलाइ ।।३१।। काहै मंत्री फल सुपना तरणां । इष्ट पुरुष प्रार्य कोई पाहुणा ।। श्री भगवंत भाव तिह वार । राय यानंदित भया भपार ।। ३१६॥ उमरि सिंहासन करि झंडात । देइ प्रदशिणा करी नमोऽस्तु । ज्यौं रवि फिरई मेर के और । यू मोम नरपति तिह ठौर ।।३१७।। धर्मवृद्धि इन मुस्ल से कहीं। अगोस सुप बहुतै लही ।। वैठि सिंघासण गहि पड़गाह । चरणोदक जल सीम चढाइ ।।३१।। साढा सातसें कलस इक्ष रसी। स्वामी पिया देय सब खुसी ॥ अभयदान बोल कर जोरि । वर्ष रतन साळी पाठ किरोड ।। ३१९।। पुष्प वृष्टि भई बहु भांति 1 पहुंची सकल देम ए बाल ।। ठोर ठोर विधि लिष ले गये । दान तीर्थ भादीश्वर किये ।।३२०॥ मेसी करि भोजन की रीत । अंतर है भातम सौं श्रीत ।। सुनकर भरत मन में उल्हास । प्राये श्रेयांस के पास ।।३२१॥ दहत भांति कीनू सनमान | तो सम दाता और त जान ।। दीये देस पुर पट्टन धने । प्राया भरत नगर आपने ॥३२२।। कैलाश पर्वत पर ध्यानारूढ होना श्री जिमराज गये फैलास । तिहां देवता करें निवास ।। ध्यांन च्यार प्रांनी न घरे । साभ दोय पोटे दोय परे ।।३२३।। मारत रोद्र ध्यान दें हीन । लिनकर लेस्या छोटी तीन || नरना कृष्ण नील कापोत । देह दुष जा कीये हीत ।।३२४।। आरति में तिरजच गति बंध । सातै प्रानी एस म बंधे । निसवासर पोटी चित गढे । रहई काल चिर वेली बह ॥३२॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ पद्मपुराण नाग ही होय । जे जोगीवर की व्रत धरं । सूकर कुकर गैंडर रीछ । पदवी नीच बीत में तीछ || जोतिशा चरई वरं जियसंक । एही पुर्व जनम के अक ।। ३२६ ।। आरत ध्यान च्यार पद होय । इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग || पीडा चितवन भोग निदान ए प्रानी को दुबकर जानि ॥ ३२७॥ इछा मन न घरं नहीं जोड़ || छठे गुरणथानक ते खरें ।।३२८ ।। कुछित मरन सुरग गति रहे । मरकर तिरऊंच गति को हैं । रौद्रध्यान ए पाये व्यार । लखिन फिखित कहूं विवार ।। ३२६|| हिसानंद मिष चौर्या विषयानंद | करकस वचन प्रगति के बंध ॥ रुद्र परिणाम रहे नर तास मुखते बुरी उपजं नित वास ||३३० ।। निकल नरक तैं देही धरी । के प्रच्या अधोगति पुरी || पंडित वर्ग कहां लौं गिने ।। ३३१ || 1 गुणाधांनक पंचम जो पर्व ।। से चिह्न देखिए जिने जे धरि भेष तप तप व रात दिवस मन पोटी घरं । मरकरि भूम प्रयोगति परं ।। ३३२ ।। पोटे यांन जिन के मन रहें । असे वचन ग्यांन में कहे ॥ ए दोइ ध्यान ग्यान आरूढ । घरम सुकल प्रानी की गूड ||३३३|| धर्मध्यान के लक्षण कहै । प्रासुष क्षेत्र उपद्रव श्री रहै ॥ दिव्य संगहन पूरी परजाय । चौथे काल मिले विश्व आई ||३३४|| सीत उसन बरषा रित जोग। सुभ परणांम विवजित भोग || नासादृष्टन मेरे रंग | इन्द्री वनज विसर्जित संग ||३३५|| 1 प्राण संवर नाना भिन्न । नरि वाशाभ्यंतर लक्षन चिह्न ॥ लोक स्वरूप विचार नित्त । सातव गुणयानक की भित्ति ||३३६|| टूटे पासि करम की जोर || सिवमारग जागे रती ॥ ३३७ ॥ उत्तम क्रिया भई सब छेद ॥ लेस्या पीत पद्म की ठोर के वेवत के हो भूपति के सुकल ध्यान का सूक्ष्मभेद अंतर ध्यान ग्यांन दिह धार दया सर्व की चित्त विचार ||३३८ ॥ श्रातम भाव दाब को वह जिन केवली ग्यान को बढे | दस में गुनस्थानक दोड़ करें। उपसम संगी चढ़ ते गिजे ।। ३३६ || दरसन ग्यान चररण चित दिया । दया धरम दस विध कर लिया || प्रानंद चिदानंद सौं ध्यान | प्यार करम का करि अपमान ।। ३४०।१ प्रकृति तिरेसठ टूटी जांन । उपच्या प्रभु को केवल ग्यान ॥ वर्षं सहस्त्र रहे छदमस्त । फागावदि ग्यारस लड़ी सुभ वस्त ।। ३४१॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचन्द एवं उनका पमपुराण २५ कैवल्य प्राप्ति केवलग्यांन लबधि जब भई । बहुविध देव प्रदक्षिणा दई ।। ईन्द्रादिक किन्नर संयुक्त । जय जय सबद कर बहु उक्त ॥३४२।। बारह जोजन रच्यो समोसरण | प्रांशी का मन संसाहरण 11 बारह सभा मनोहर कही । तीन कोट कंचन के मही ।।३४३।। बनी कातिका जल भरपूर । वृक्ष अशोक सोक करें दूरि ।। कलपवृक्ष प्रवर बहु रूप । वासावली न लाग भूख ।।३४४।। छह रितु के फूले फल फूल । ऊंची पौरि बनी समठ्ठल ॥ मानस्थंभ संवारधा और । सिंघासन की राखी कोर ।। ३४५।। वृषभसेन गणधर गुणवंत । अपर सियासी प्रवर भगवंत ।। पंच सहस्र दंड ऊचंत । चारि अंगुल अंतर अरिहंत ॥३४६।। सौन छत्र कंचन मणि वने । चौंसठि चवर देखें सुप घने ।। चौरासी गणधर जगदीस । च्यारि म्यांन पंचम जिराईस ।।३४७।। समोसरण थानक सुभथांन । चतुर बदन बठे भगबान || भर चतुरमुख एकै धुनि । बारह सभा भन्ध सब सुनी ।।३४८|| वानी एक भेद नव गुर्ने । गाए घर कहें लोग सब सुन ।। उपदेश निश्चय एक मातमा सार । द्वं विष इह निश्चय ब्यौहार ॥३४६॥ दरसन ग्यांन चारित्र में लीन । च्यारि बेद में सुनें प्रवीन । परमेष्ठी पंचम सुधि भई । अरु षट द्रव्य सर्व गुण नई ।।३५० || सप्त तत्त्व अष्टम गुण सिष । कई पदारथ नव निष॥ इन गुन मई गिरा सुनि भूप । है विदेह पर तत्त्व स्वरूप ।।३५१।। कथन समर्थ अनंत भक्तनी । सिब कारन हित सब बनी। पाप फेटनी पुण्य अनंद । सियल भये कर्मन के फंद. ॥३५२।। नी सव ही संबोधनी । प्रागी कु पालम भेद नी ।। जीवा सति जाने पर लोक । प्रमूरत भुगतै सुभ सोक ॥३५३।। अनुगुरु सक्रति रूप सच देह । थाह गति करि परन एह ॥ निश्चय सुद्ध नित्य जन जीव । अब संसारी गाढी नींब ।।३५४।। पोटी क्रिया दुःख को मूल । रहै अनादि काल के भनि ।। प्राप्तम दरसन ग्यांन चरित्र । तत्व सबद है प्रतर नित ।।३५५।। असरण सरण जाति जिय सार । परम एक त्रिभुवन प्राधार ।। बारह वत सुश्रावक धरई। व्यौरासी मनस सरधा करेई ॥३५६॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TE पदमपुराण हिंसा चौरी अनरत जांनि । ब्रह्मचर्य परिग्रह परमोन ।। गुणत तीन धरै मनु भाव । दिगनत देसवरत मन पाउ ।।३५७|| अदया का व्योहार न करें । शिक्षाप्रत च्या विष परं ।। सामायक पोसो बल और । पूजा दान सुपात्र सुठोर ॥३५८॥ इण विध परम सुश्रावक हो । जती धरै तेरह विध सोइ ।। पंच महावत साध जोग । सुमति पंच वर्जित सुभ भोग ।।३५६।। तीन गुप्ति पाल दिन राति । मन वच काया संध्या प्रात ॥ सहन पठारा अंग समेत । सीलखत पाल बहु हेत ।।३६०|| आपण थकी बड़ी जो होइ । माता सम जाणइ सब कोइ ।। जे अपनी सरभर की तिरी । जानई बहनि धरम की परी ॥३६१५ । प्रापण सेती छोटी अांन । पुत्री सम जाणो करि ज्ञान ।। बहुत भांति के सुमि उपदेस । तिराउ धरथा मुनिवर का भेस ।।३६२।। कोई सुनि श्रावक व्रत लेइ । वचन पयोग भाति बहु देइ ।। कियो बिहार दुदुर्भः ।। पानी की गुन गनी || नृत्य कर गावै गुन गान | सुरवाजे सुर दुदु प्रमान ।। लोकपाल मांग पग धरै । सौ सौ कोस लगि सोभा कर ॥३६३॥ प्रागै धर्म चक्र सुभ मई । चले प्रमु जय जय धुनि भई ।। औरणा येण मृदंग झालरी । संप नफीरी वाजे परी ।।३६४॥ घनहर घमउ मंदल धुनि घोर । हासि कुलाहस करई सुरसोर ।। सावधान दसहुं दिश पूर । करई दुष्ट पापी ने दूरि ॥३६५।। मायें लोग पूछ विध धर्म । लास असूभ पाष के कर्म । दरसन पंच पंगु पग 'डोल । बहिर सुनें मूक मुष' बोल ।। ३६६।। इण अतिसय मौ करई विहार | पाय जीव बहुस प्राधार । धरम प्रगट प्रतिबोधे देस । फिर आये कलास जिनेस 1५३६७।। समोसरण में राजत धनी । च्यार ग्यांन चौरासी गुनी ।। मति श्रुलि अबधि ग्यांन के धनी । मनपर्यय केवल गुन गुनी ॥३६८।। सम्राट भरत द्वारा विग्विजय भरत चक्र पांया सुभ ठोर । देव सहस्त्र सवै कर जोर ।। नवविध मष्ट सिद्धि संयुक्त चौदह रतन सुसछि बहुत ॥३६६।। ह्य गय वाहन अधिक असेस । सहस्र छयानवे नवे नरेस ।।। सहस्र छयानवं नारी भनी । ताकी उपमा जाम न गिनी ।।३७०।। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभापंव एवं उनका पमपुराण २७ भरत भूप साधे छह पट । देव दानब 4 कीया दंड ।। प्रापे मजोया देस सक जीत । चक्र न चल भई मन चित ॥३७१।। कवरण देस स्पायौ विन रक्षा । तत्र मंत्री सब व्योस कया ।। निन्याण तुम्हारे वीर । इत्तादेस मगत बलवीर ।। ३७२।। रहई एकाठा बहुत सनेह । रूपवंत कंचन सम देह ।। गों नहीं तुम्हारी कान , पायी चळ मा यांन ।।३७३|| ऐसी सुनिकर भेज्या दूत । उनको वह समझायों बहुत ॥ सेवा करो मान मुझ मान । मंत्री लिष भेज्या फरमान ।।३७४।। गया दूत कागद दे हाथ । मुष सों वचन कहै वह भाति ।। भरत पक्रनत बाइबली । तुम सेवा करी तास की भली ।। ३७५।। प्राग्या मानह लेवरी । तुम निचंत क्यू' बैठे घरी ।। अब तुम चलो हमारे साथ । चलो वेग पगलाबो मरथ ||३७६।। इतनी मरिणते भण कुमार | भरत राज भुगत संसार ।। हमने देस पिता ज दिये । ते भी चुभई भरत के हिये ।।३७७।। जइवह प्रजहुन विपत न भया । तो ए लेष्टु सब एह हम दिया । छाजिरिधि ते गए कनिलास । दिक्षा लई पिता के पास ॥३७८।। फिरया दूत भरत पं गया । सब ब्योरा सेटी करनया ।। भरत सूण्ा वे हुवा जती । क्रिया सोष मन में बह भत्ती ||३७६!! दूत वयण बोलीया कटोर । उनकै मन का बठी मौर।। वार वारि भरत पछताय । तोउं ने चक्र मढ़ भीतर जाय ।।३८।। फिरि मंत्री पूछे सुबुलाय । कह मंत्री सुनि पृथ्वी राय ।। बाइबलि पोवनपुर धनी । ताके संग सन्या है धनी ॥३१॥ बह यामा मानत है नाहि । ताथी पक्रन बलहि ठाम ।। इतनी सुनि भेजीया वसीठ । सूरा सुभट वचनां दीठ ।।३८२।। पोदनपुर का भय पत्री लेकर घाल्या कोल । गया पोषणयुर न लाई ढील ।। देष्य' नगर सुषी सब लोग । कीजे पान फूल को भोग ।।३८ ३।। ऊंचे मंदिर सब इकसार । ढूढता पहुंला राजदरबार ।। सौंपा पान पर घर के बीच । पीनातली गलीयां में कीच ॥३४॥ घर घर नारी जारिग प्रपछरा । राजमहल सब सेती षरा ।। पोलयान देष्या दरबार । ते सोमं मूपति अनुहार ॥३८॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ पद्मपुराण ताहि देष मन सोचे व्रत । लषन दोस राज संयुत्त ।। जो इह बैठया कोई और । तउ टोकैगा जाते पार ।।३८६॥ चल्या दूत तब पौरि मझार । तिहां पौलिया हमा अग्रवार || पूछे कोण किहा तू जात । वह हमसौं समझाषी बात ।।३८७।। कहै दूत मो भेज्या भरत । राजा सौं पहुंचायो सुरत ।। गया पौलिया राजा पास । नमस्कार करि बिनती भास ।।३८८।। राजसभा सुरपति सी जुरी को सैन्यादि धी। राजसभा में पाया दूत । नमस्कार तब करि बहुत ।।३।। ठाडा भया दूत की ठौर । ठीक ठिकाने ठाडे और ।। पूर्ण भूप भरत कुसलात । बोल्या दूत घरि मस्तक हाथ ॥३६०।। भरत पक्रधारी बलर्वत । छह पंड जीते सामंत ॥ नरपति नगपति माने सेब । छचं षंडका राणा न भेव ||३६१|| तुम भी उनकी सेवा करो । प्राज्ञा जाकी मत वीसरी ॥ इतनी सुनि कोप्या भूपति । अजहूं वाके नाही थिति ।। ३६२॥ जे वह कर चक्र की मनी । चक्रवत्ति कुंभारा भी मनी ।। भरत नाम भीड़े का कहै । इता गर्व क्यों उसमें रहे ॥३६॥ मी को दिया पिता ने राम । वह हम स्यों क्या राष काज ।। जो वाकं मन होय संदेह । करो जुध प्रावो सु सनेह ।।३६४।। इतनी सुरिण फिर आया दूत | कही बात मुरिण कोप्या बहुत ।। सुतउ केहरि मारधन केन । जानु पङमा अगनि में तेल ।।३६५ । भरत बाहुबली युर जानू सकती हिये में लगी । राते नयन लहर सी लगी ।। नगर मांहि बाज निसान । सेना बहुत जूरी तिहा प्रान ॥३६६ सुर सुभट निकसे वानेत । अंगन मोई जुहिमा षेत ।। ह्य गय रथ पापक बहु चसे । याजै मारू बागे भले ।।३६७॥ सेना तिहां चली चतुरंग । पहर प्रांभर्न खरे सुरंग ।। उडियन छाया प्रासमांन । ऊचल भया चंद मरु भान ॥३६॥ थरहराट कर सब मही। कंपे गिरवर जलहर सही॥ जिहाँ जाम सेना उतरई । प्रथिवी सही न रीती पिरई ॥३६६।। सुरत सुनी बाहुबल बली । सूरबीर मानी बह रली ।। साजी सैन्य भया असवार । घरमा आग मारग अडवार ।।४००। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण मारो देस मुंह मिल गये | अर्ज कुमार मारू कोयें ॥ सुनं सुर नर भए अडोल । सिलहों स भाले खोल || ४०१ || चहुं घांस छोडे श्ररु वान । तुपक गोली भरि मारे तांन ॥ बरछी षांडा लीन्हें हाथ । शुभं सूर पडै घरमांथ ।।४०२ ।। दुहुधा सूर सुभट जो लरई । श्रायुष टूटे धरती परई ।। जो सूर सुभट स्थी जुटं । बाथ बांध आपस में कहूँ ||४०३ || परं सीथ लानो परवंत || F जिसके छत्री कुल की लाज ॥४०४|| मैंगल सौं मैंगल संत झूम स्वामि धरम के काज मैं घायल धरती पडे । गीघ्र लोबर गत में पहुँ । दुहुधा जुध भया बहुभांति हारिन न मानें दोकं आत ४०५ || तबहू सोच किया भूपती । कहै प्रजा की यह कुष गती ।। प्रजा दुख देवे ब्रेकाज | हम तुम सनमुख झुझे आजि ॥ ४०६ ॥ सेनां को दुख काहे देम । हम तुम जुध मनमान करेह ॥ दृष्टि जुष याध्या बहुं ओर लगी दृष्टि ज्यौं चंद्र चकोर ||४०|७|| भरत से बाहुबलि धनुष पक्षीस | ऊंचा घरणां करें को रीस ॥ I हारचा भरत जब जल जुध होय । बाहुबल जीत्या वार दोय || ४०८ || मुष्टि जुध वापिया बहोरि । लथ पथ हारे माची गैर ॥ बलि लीया भरथ ऊचांई । भरत मान भंग हुवा राइ ||४०६ ॥ बाहुबलि कर मनौहार हम थे बाल तुम उठाए बहुवार ।। इस कारण तुम लीए उठाय । घूलन लगी तुम्हारी काय || ४१०|| मुष्ट युद्ध फिर थापी बात | पहली भरत करीउ संघात ॥ पार्थ बाहुबली संभारि । मुष्ठि उठाई उतनी बार ।।४११।। तब मन में आया इह स्पांन। बड़ा और ए पिता समान || जो भाई पर कीजे चोट तो सिर चढ़ पाप को पोट ।।४१२३। बाहुबली द्वारा विजय के पश्चात् राग्य लेना । २१ कर उठाए जो रीता पई । सूरवरत ग्रब मेरा टरे ॥ भरी मुष्ट कर लुचे केस । बाहुबल भए दिगंबर भेस ।।४१३।। एक अंगूठे के घरि जोग । अचिरज भए देख सब लोग ।। सह परिस्था वाचीस अंग । ग्यान लहर की उठ तरंग || ४१४|| वारह प्रेक्षा नो सोचित । लोक सरूप विश्वारं नित || पंच महाव्रत समति जु पांच । मन बच इंद्री साधी बांचि ।। ४१५ ।। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Bo पपुराण छह रित सहै परीसहै काय । स्याम भुयंगम देह लपटाय । रही वेद : : सरीर या कोई रहन पार ६१. वर्षा काल वृक्षतल जोग । सीयाल तरनी जल जोग ।। उहाल परवत परि ध्यान । तपं चहुं था उपर भान ।। अंतर चिदानंद स्मु नेह । ममता रत्ती न रापी देह ।। ४१७.। सोरठा मातम सों ल्यो ल्याइ, घरघो ध्यान चिद्रूप को । असुभ करम मिटाइ, केबलग्यांन पाया निकट ।।४१८॥ धोपई भरत नाही पर मुबरी । ममवरण पहुंचे तिह धरी ।। नमस्कार करि पूछे बात । बाहूबल सह परीसह गात ।। ४१६ अंगुष्ठासिज छाडा तप करइ । प्रसुभ करम कब वाके षपई ।। केवल सब्धि लहैसी कब । मोस्यु प्रगट कहाँ प्रभु अब ।।४२०॥ श्री जिन बोले ग्यांन विचार । उन राष्या सन्न में महंकार ॥ दोनों चरण धरा जब घरं । अहंकार तब दूरै टरै ।।४२१॥ उपजे केवन ग्यान तुरंत । पामें भवसायरना अंत ॥ प्रभू तणा सांभल ए बंग । भ्रात प्रत समभाव अंन ।।४२२॥ मांन गयंद थी उतरों वीर । क्रोध प्रगनि तजि हूजे नौरः ।। किसकी पृथ्वी किसका राज । भोसम बहुत कर गए राज ।।४२३।। केते ए होहि हैं घने । तिनकी गिनती कहां लो लिने । इह संसार सुपन की रिट । जाग्या कछुव न देख्या सिध ।। ४२४।। मन का संसय कीजे दूरि । पांव धरो धरती पर पूर ।। इतनी सुनि मन उपसम किया। पांच धरत ही केवल लिया ।।४२५।। टूटे असुभ करम सिंह बार । पहुंचे बाय सु मोक्ष मझारि ।। जोत जोति मिली तव जाय । अजर अमर पदई सुख पाय ।।४२६॥ वोहा बाहुबलि सब विधि बली, यस प्रगटचा संसार । ग्यांन सरीषी नाव चलि, पहंता भवदधि पार ।।४२७।। चौपई भरत राज मुगले संसार । परथी भोग भूमि अनुहारि ।। पुत्र पारसे सोमा पनी । सूरवीर ग्यांनी गुन घनी ॥४२६।। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचन्द एवं उनका पद्मपुराण ब्राह्मण वर्ग को उत्पत्ति शिक बहुरि करी परसन्न । ब्राह्मण की कहिए उत्पन्न ॥ कैसे भाप्पा चउया व । कहो प्रभु मो संसय ह ।।४२६|| भरत भूमि निकंटक राज । पहली करें धरम का काम है। छहुं षंड की लछमी जुरी। दांत देश की इच्छा करी ||४३० ।। बहु पकवान लक्ष्मी धनी । आभूषन सोभा प्रति घनी ॥ से सब सौज गए कैलास । मन में दान देख की प्रास ||४३१|| समोसरण पहुंच्या तिह बार । दई प्रदक्षिणां करि नमस्कार || प्रभुजी हम परि किरपा करो न देव मम पातिग हरो ।। ४३२।। रिषभदेव बोले समझाय ये दान न लेहैं मुनिराय || ए सब छोटि भए वैराग । इण के क्या की जैसी स्थान ।। ४३३ ॥ देही भरा नाहि जे तपसी लखमी गहे । नरक निगोद महादुष लहै ||४३४|| जनम अकारथ तिसका जाए। ले दिष्या जे होय प्रयाण || माया वस्त्र जो राधै जोड | दरसन ने त्या वह पोडि ||४३५|| महीने नजनाई ॥ मर करि भ्रमे चतुरगति जीव। पाप पोट ले अपनी ग्रीव ।। सातें ए तुम फेर ले जाउ । नहि ए दान लेहि मुनिना ||४३६|| त भरत फिर भाया गेह दोन जू काढया किस की देह || बारंबार करें नृप सोच । दात लेगा की किस नहीं रुच ।।४३७ ।। सब ही सुख दुखी नहि कोइ । किसके मन लेने की होड़ || दानसाला मांडी वन बीच बोए जव तहां क्यारी सींच ||३८|| नगर मांहि वाज्या निसांन । हाजर होय नृप तणी मन || सब मिल ग्रावो राजा पास देख देख नरपति नर जास ४३२ ।। कोई न पुढे क्यारी हरी जिनके हिये ग्यान मति परी ॥ जे मृरिपु ते खुंदन बले । बिनु विवेक अग्यानी भले ||४४० ।। चक्रवति देव नरताय । जे ग्वांनी ते जुदे बुलाय || क्यारी खूदन आये लोग । जुदा यांन श्रीना तिन जोग ||४४१ ।। अग्यांनी विदा कर दिये । ग्यांनी कुठे आदर बहु किये ।। नरपति वचन वीनती कहै । इह इच्छा मेरे मनु है ।। ४४२ || । पंचो विनय सुनाएँ तोहि ॥ मां वचन देहि जो मोहिं वेग चलो जल भरकर ले जो मैं चाहूं सो मोहि देहु ||४४ || १ - जी ३१ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपुराण सोनै सकल विषारै चित्त । असो कहा है हम पर मित्त ।। जाकू चाहै पृथ्वीनाथ । सब ही नीर लिये निज हाथ ।। ४४४।। बोले भरत लेहु तुम दान । मंसी मुनि ठाडे परि ध्यान ।। तब बोले हम बाहैं कहा । करवो टइर दान ले तहां ।। ४४५।। तुम प्रसाद हम हैं सब सुषी । कोई नाहि बस नरु दुषी ।। अब तुम हम पे बाचा मांगि । पीया चाहो हमको त्याग ।।४४६।। राज वचन श्री वाचा दई । तब ही दांन विधि यापी सही ।। मलन मा पसिनन पर बनाई रीत ॥४४७।। नो नो गुन का इक इक तार । गुन इक्यासी बड़े विसतार ।। धोवती मुद्रिका और जनेउ । नमस्कार करि कीनो सैउ ॥४४८।। उत्तम रीति दइ ज्योणार । दक्षिणा दे कीनी मनुहार ।। ये अपनेमें नगर के धने । सबसे उत्तम बाभण भने ।।४४६।। पूजनीक उत्तम कुल परा | हम सब तुल्य न को अवतारा । सवरंक पूर्ज सब कोइ । चोथा वरण ऐसी विधि हो ।।४५०।। भरत गया श्री जिन की जाति । नमस्कार करि जोरे हाष ।। खांभण थापि दान में दीया । सब व्यवहार स्वामीस्युकला ॥४५|| बानी तब भा भगवंत । ए थापेंगे पाप महल ॥ हिंसा होम करेंगे घने । तिनके पाप कहां लौं भनें ११४५२।। च्यार वेद यापेंगे और । तिनमें पाप अनंत किरोड ।। षोटे दांन प्रकास वह भांति । उलटी सव यापेंगे बात ॥४५३।। घरती हल रगबु प्रससरी । हस्ती और तुरंगम तिरी॥ षोटे दंगे घणु उपदेस । क्रिया भ्रष्ट सुनि होय नरेस ।। ४५४|| जैनधरम के निंदक होइ । असंभव बात कहेंगे सोय ॥ अज गज गउ थायेंगे भेद । प्रसव पौर जीवों को षेद ॥४५५॥ इतनो सुनी भरत ने बात । मैं इह बुरी करी बहु भांति ॥ अब इह भेष करू जाय दुरि । इनकू मारि गमाऊं मूर ।।४५६।। तब स्वामी समझाई ग्यांन । होय पाप जो हति हैं प्रान ॥ जीव हते भव भव दुष लहैं । ऐसी बात जिचेसुर कहै ॥४५७।। होणहार टारी नहीं जाय । पैसा घरउ न षोटा भाय' ।। राजा भरत रवि जेम प्रसाप । पून्य करई सब टूटे पाप ॥४५८ ।। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुमि सभाचंच एवं उनका पसपुराण परजा सुषी वसई ता सर्ण । परदुष मंजन दारिद्र हणं ।। श्री भगवंत धरम समझाय । मोक्ष मारग के भेद बताय ॥४५६।। पुन्य विभूति सकस घिर गई । वांनी जोत एक सम मई ॥ एक मास रहे इह् भांति । ना कटु वानी मां कछु बात ॥४६०।। माघव नबी सौरस परबांन । श्री जिन पहुंचे मुक्ति मिलान ।। देह कपूर समान सब गिरी । विज्दल घात विमकसी करी ।।४६१।। सूरपति प्राय किया केल्यारण : पूजा रवी भगातसो प्रारिंग ।।४६२॥ श्री जिरण धरम प्रगट किया, प्रतिबोधे बहु लोग ।। आप मुक्ति रमणी वरी, तिहाँ सासते भोग ।।४६३।। इति श्री पद्मपुराणे श्रेणिकप्रश्न श्री कृषभ महातम विधानकं संधि ॥१॥ द्वितीय संधि भरत का वैराग्य प्रोपई भरत भूप छह षंड का घनी । राजसभा मोभा अति बनी ।। छत्री राहसश्रो विद्याधर भूप । एते भूमिगोचरी अनूप ॥१॥ मुकट बंध बीस हजार | छपान सहस नारी भरतार ।। दरपन देख धवल सिर केस । मन में कंपा भरत नरेस ।।२।। मंत्री सों पछी जब बात । कंप्या भूप पसीना गात ।। भोग भुगत में बीती प्राव । धरम ध्यान सो घरमा न भाव ।।३।। मोह माया में भया पचेत । जरा दूत कच पाए स्वेत ॥ अब सम्म राज विभूति को त्याग । घरौं चारित्र मन बच वैराग ।।४।। प्रादिलजस को सौप्पा राज | पाप संधारघा प्रातम काज ।। पाले प्रजा भोग भोग । साथै भग्य वनमें नित जोग ||21 भरत का परिवार उपज्या केवल भया निरवांन । सुरपति पनि गवे निजयान ।। मावितणस के सिदजम पूत | बल प्रकुस बल महावस भूत ॥६॥ प्रतिबल अमरत सबद सुभद्र । महेन्द्र महोदर भीम सुरेन्द्र ।। रवितेज प्रभतेज भूपती । परताप भनि प्रति वीर सुभमती ।।७।। सुषिरत उदत और बहुभूप | उनका वरनों कहा स्वरूप । केइक तप करि भये केवली । गए मुक्ति पूजी मन रली ।।८।। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराल केई सुरम देवगति लही । इक्ष्वाकवंस कुल उत्तम सही ।। माहुबलि के सोमप्रभ भया । महाबल सुवल धर्म घुर किया ।।६।। भुजबल देवमादि अतिबली। इनकी कीरति जग में भली ।। केई मुक्त केई सुर भए । कोटि कर्म ऊंची गति गए ॥१०॥ सोमवंस का क्रिया बषान । नवि वंसी विद्याधर जांनि ।। विद्याधर परबत का भूप । ममी विद्याधर बहुत स्वरूप ।।११॥ ताक रत्नमाली सूत एक । जाने राज काज की टेक ॥ रसनबोयं रतनरथ और । रतनचित्र रथ सुष की ठौर ।।१२॥ समाजच नजसित टिष्ट । नवमल टनाभन जेड ।। सुवजर अरु बञाभृत राय | वनभान वनवाह गुनभाय ।।१३।। वनवाक बच्चसिंघ नरेस । वचाष्ट साधे बहुदेश ।। बरतन भीम बसवान 1 विद्य न्मुष सवकंच बलबान ॥१४॥ बाहस्त दान विद्योत । बिद्य तहढ कांमनी महोत ।। इकनिस पोढे दम्पति संग | सुष सज्या सोभै सुभ रंग ॥१५1 देश राज की महिमा कहैं । राणी का मन सुरिण उमगहैं ।। मोहि दिषावी वे सत्र ठाउ । कैसे डीप परबत भरु गांव ।।१६।। इतनी सुरिष साजिया विमान । दंपति बैठ चले सुष मान ॥ पंचागिर परवत तर हान । संजं सुरति मुनि प्रातम ध्यान ॥१५|| रुक्या विमान न प्रागे चल । विद्याधर मन ज्वाला जलें ।। का कोई मित्र के दुरजन ठांउ । के कोई सिद्ध तपा के भाउ ।।१८।। असा चित वि गहिं कमांन । चारू कूट चलाया बनि ।। दामिन चमवी उजयारा भया । मुनिवर देषि उपद्रव किया ॥१६॥ पापी दिया साधनें दुष । वह अपने मन माने सुष ।।। मुनिवर चित्त में भय न वि धरी । असुभ करम टूटे तिह घरी ।।२011 सह परीसह अपने अंग । उपज्या केवल लहर सुरंत ॥ चविध देव किया जयकार । कंचन मही बनी तिहवार ॥२|| विद्य तदृढ़ बांधिया धनेंद्र । विद्यालई छीन सब संघ ।। मनि बैठा आतम ल्यो लाइ। ते क्यु टुप दिया यहां आई ॥२२।। तब विद्याधर बिनती कर । ऐसे पाप टर ना टरें । साघहै दुख दीया वेकाज । हरत परत षोई सब लाज ॥२३॥ कठिन पाप मैं कियो प्रथाय । अब मैं पाप टरै किह भाय ।1 बिन विद्या किम पहुंचे मेह । चिंता व्यापी गगपति देह ।।२४।। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाषद एवं उनका पपपुराण ३५ विद्याधर पान जई मोहि । मार प्रचुर करे जिय छोहि ।। जो विद्या मोकु फिर देइ । मूल न करू पाए सौं नेह ॥२५॥ धरणेंद्र की तब श्राग्या भई । बारावरस कर तपस्या नई ॥ तवं परमलेर विद्या सुध । फिर मत करं पाप की बुधि ॥२६॥ पूजे धरणेन्द्र मुनिथर सौं बात । इन तुमस्यौं क्यों किया पात ॥ क्यों इनमें तुम कू दुख दिया । कारन कौन उपन्च किया ॥२७॥ ब्योरो सकल कहो समझाब । ज्यू मेरे मन संसा जाय ।। मुनि बोले पनि ग्यान बिचारि । प्रासी पावै सकल प्रापार ॥२०॥ सत्यापही स्था संकर ग्राम देस का नाम । सरत जीव सुखसौं विश्राम ।। श्रीवरधन है तहां भूपती । तो पटसणी कुसमावती ॥२६॥ सोम सरमा माह्मण तिहाँ बस । महाकूचील देख सब हंस ॥ उन छोटी जीवन को पास । दिक्षा लई संन्यासी पास ॥३०॥ पंच अगन तप साधे जोग । ताकी सेव करें बह लोग ।। अंतकाल उन छोडी देह । जगज्या जाय देव के गेह ।।३१।। धूमकेतु नाम तिहां धरचा । देखत मन भय उपजै खरा ।। यहां भी प्राव विलीत सब गई। मनुष देह फिर पाई नई ॥३२॥ वाहन सिष्य साह्मन के गेह । भया पुत्र अति सुन्दर देह ।। सत्यघोष बालक का नाम । दिन दिन बढे विराज ठाम ।।३३॥ पाईविरिघ सब विद्या पली । ज्योतिक ग्रंथ अति महा बही ।। च्याकर्ण का लया सब भेद । कहै पुरागर च्याह वेद ।।३४।। दिक मामोद्रिक गुण सार । ग्यांन वाधि बड़ी बुधि अपार ।। गरी कतरनी जनेस रापै । झुठो बयण न मुख थी भाप ।। ३५॥ जो मुख असत्य वचन नीसरें। जीभ तब पर ही करें ।।। वीरति प्रगटि जब सब संमार । एनी रीत मुणी भूगार ।।३६।। सत्पत्रोष प्रति लिया बुलाय । प्रोहित थाप्या प्रापणा राह ।। प्रादर मान देइ सब कोई । दिन दिन कारण चौगुणां होइ ।।७।। नेमिदत्त याणिक जोहरी । लाद पल्या समंद की पुरी ।। भरे लिहाज सौंज मन शेष । मेमियत मन जपण्या सोच ॥३८|| इसनां द्रव्य लिया मैं संग । कुछ घर जा रहे भभंग ।। चार रसन जे परे अमोल । सत्यघोष नै सोंपे तोल ॥३६॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ जब फिर आउं तव में लेव । इनही तुम राषौ सत देव || सत्यघोष कू सौंपें लाल । विनज निमित्त किया उन चाल ||४०|| ताकू बीत गये दिन घने । यो चित्त वित्र विचारघा मन में खोट खोया धरम लोभ की नोट ॥४१॥ I मंदिर अपने दिया ढहाय । और भांति के फेर बनाय ।। जो कोइ देखे सो भरमाय । च्यारि पौलिको भोरं भाइ ||४२ ॥ नेवित्त के बड़े जिहाज । फिरि श्राये लालों के काल ।। डूबी सब कछु चित न करी । जाती सत्यघोष में धरी ||४३|| लय रतन फिर करू व्योपार । बढ़े लक्ष धन होय अपार ।। सत्यघोष सतघने आबास नेमिवत्त देख्या तट पास ||४४॥ | रूप दलिद्री फाटे चोर । श्राय लग्या सागर के तीर | सभा में प्राय चलायी बात । मैं सुपनां देव्या इा भांत ||४५ || एक रंक मुझ सों यों कहे। मेरी थापना तो मे रहे ॥ मांगे रतन सुपने में धाय तिसका फल तुम द्यो समझाय ||४६ ।। सत्यघोष के पास जाना पद्मपुराण नमित्त पहुंच्या तिहूं और देखे मंदिर और ही और ॥ I नेमिवत ग्रावियो बहोरि ||४|| पूछी सत्यघोष की पौरि सभा मांहि नमित गया। सत्यघोष ने वंदत भया । सत्यघोष दे नहि ताहि । नेमिल ताहि रह्यो लोभाइ || ४६ ॥ कहै रतन मेरे तुम देहु । बोले वित्र पंचो सुरिए लेहु || मैं सुपना देख्या जह जात । सो तुम देखो अब ही वात ॥४६॥ राय सुहाली बोले सबै । धक्का दिये वणिक कु तबै ॥ नेमिव पहुंचो नृपद्वार । बे कर जोड करी पुकार ॥ ५० ॥ राजा से निवेदन च्यारि रतन प्रोति कु दोये | कीजे न्याय तीन घरि हिये ।। राय कहे वह गतिलो कोय । सरयघोष थी ए मन होय ।। ५१ ।। दूरि किया धका दिन राय । धावरि मई को करें सहाये || राज सभात भया निरास । बसती छोडि फिर बनवास ||५२ ।। रात रहे वृक्षन में जाय । च्यारि लाल निस दिन बिललाय |1 एक निस सुणि राणी ए बात बहोत दिन भए याहि विललात २५३॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समान एवं प करो न्याय राजा प्रसूनाथ । यह तो हे तुमरी सरणाय ।। या को न्याव वेग तुम करो । यह भ्रमतो डौल बावरी ॥५४॥ बोले राजा राणी सुं । सत्यघोष क्यूं कपटी घुणं ॥ बावला गहलाई क्या फिर । ताकी न्याव कवर विश्व करे || ५५ ॥ इते तो अमई तुम्हरे देस || महला कहिए किरण भांति || १६ || राणी बोली सुणौं नरेंस । एक जीभ कुकै दिन रात राहणी द्वारा न्याय जो तुम भोक् प्राज्ञा देहु नेमिक्स तोडे ति बार राजा राणी मंदिर मांहि । नेमिदत्त बैठा इक ठां ॥ सत्योन को क्या सिंह घरी प्रोहित ने हारी मुदड़ी। राणी जीत ले करमें धरी ॥ I दई मुद्रिका दासी टेर । जानु कहियो रतन मांगें रातघोष जैन पतीजे छाप हिपेषि ॥ मिश्रानी देवें नहि लाल दासी प्रायी चतुर बिसाल ॥ ६०॥ धोती पतरा जनेउ हार । दासी गई फेर लिह बार || स्यांम वस्त्र में बांधे रत्न । जौ न पत्यातउ देखिए जल्न ।। ६१॥ याको न्याव तुम मो मैं लेव ।। राजा में जाकर कियो जुहार ||२७|| नमित्त बुलवाया वान देखे सकल रत्न परिहरे चौपड़ खेलन बाजी घरी ।। ५८ ।। भडारणी मैं इरण बेर ।। ५६ ।। पोथी जनेउ घोवती देष | दीए लाल ते व्यारू' ऐषि ।। थांग दिये रणी के हाथ । अचिरज भया पृथ्वी का नाथ ।। ६२ ।। सो क्यों सरं ॥ राजा बहुत अचंभा करं । असे ते और रत्न भराए थान । तिनमें डारे व्यास' लाल ||३३|| अपने रतन देह पहिचान ॥ । अपने थे सो लेकर घरे ।। ६४ ।। काही सुनी जनेऊ सुरेहैं | तब राजा प्रोति सू' कहे अब क्यों जिभ्या राई । तु पाखंडी अंतर गूढ || ६५ || मुड डि मुष काल कराय । सकल नगर मांही फेराय || देस निकारो नाम न लेहु । अब देपू तो सूली देहुँ ।।६६ ।। वाहन शिष्य जती पैं जाय । दिक्षा लई कर मन वच काय ।। नरपति ने भी दिक्षा लई । ब्रह्मविमान देव श्रिति भई || ६७॥ भाव मुंज करि क्षेत्र विदेहराजे सुत राजा मम देह ॥ सहज विचार किया मैं जोग । छोडि दिये संसारी भोग ||६८ ।। ३७ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ वा संबंध जोग जो श्राय । सुनि बात मन संसा जाय ।। नेमिवत ने दीक्षा धरी धरणेंद्र पववी पांई खरी ॥६६॥ विद्युत भी बिद्या पाइ । फिर कर यात्रा अपनी ठाय ।। राज करत बीते दिन अपने सजा दिधरपुत्र ने सौंप्या राज । भापन किया मुक्ति का साज ।। स्वधरम प्रस्वध्वज भये । पदमनां पदमासी पये || ७१|| बूहा पचरथ भी सिद्ध जन, सिंध मंत्र मृग घ ॥ मेसूर सिंघ प्रभू सिंहकेतु मन ह ||७२ || चौपई शशांक चन्द्र श्री चन्द्र शेष 1 इंद्ररथ चक्रवर में विशेष चका इन्द्र चक्रवत मनगवं । मनांक मनवास मन गुन सर्व ||७३ || पद्मपुराण मनोज समन समेद्र केंद्र । मन सोम विजइ सोट ग्रानंद || लवाल घर रक्त उष्ट भूग । हरिचंद्र पुरचंद्र सरूप ।। ७४ ।। पूरण चंद्रभया काल इंद्र चंद्रमां चंद्र नूरवाचें इन्द्र है। उपन पंक केस वरराय । वृचुर चुर बजरचुर सुभकाय ॥७५॥ भर चुरा टका बाहुन जटी | वाहन ते मन हरष बग वटी || याही वंस भूप अति घने । करि तपु केई स्वर्ग देवता भए । केई मुक्ति रमणि में गए ॥ विद्याधर का करण्यास वरण सुनाये तीन्यु अंम || ७७ || इति श्री पद्मपुरा विद्याधर वंस वर्णन सम्पूर्णम् ॥1 तृतीय संधि चौपई भ्रष्ट करम सब ने ||७६ || इक वंश दर्शन इष्वाक वंस बरनु बहोरि । सुंनु बात चित मे राबो ठोर || घरनोथर जगधारन धीर । तोंविद संजपुत्र बल वीर ||१|| reater दिक्षा पद धरया । राजा त्रिवसंन को करथा ॥ इन्द्ररेखा बिवाह नारि रूप लछिन शशि की उनहारि || २ || तास गर्भ जितसत्रु भया । बहुत धानंद भूप मन ठया ॥ पोयनपुर सोमसी राय वानेंद्र भूपति तिस प्राय || ३ || Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण श्रीमाल राणीता गेह । विजया कन्या कंचन सम देह ॥ जिलसत्रु सी दई विरुवह भगवन से चाह ८.४४ इक सि सुपने पोस देषि | भली वस्तु पाई सुविशेष || विजया देवी उठी प्रभान । पति सौ कहें सुपन की बात ||५|| सुरि सपने मन हुआ उल्लास | सुख मानें करि भोग विलास || जेष्ठ यदि मावस्या शुभ घेर । भई गर्भ पूजें सुर पैर ॥१६॥ देवी छप्पन सेवा अनुसरें | जैसे स्वाति जल सीच समंद ||७|| जं कार सवद सुर करें। जैसे कमल पत्र जल बुंद द्वितीय सोकर अजितनाथ वर्णन माघ सुदि दसमी शुभ वार नक्षत्र रोहणी वरियां भली । श्री भगवंत लिया अवतार || तौन लोक सुन मानें रली ||८|| जनम कल्यांणुक कर गये देव । रतन पुरुष पर बहु भेव ।। दम दिसा दुदुभी होय । भयो जनम जानहू राहु कोइ ।।६। पूरव लाष बहत्तर भाव । साढे चारसे धनुष की काय | सुरपति किमो महोछव प्रां । रीति पाछली की प्रमान ॥१७॥ प्रभयमाला व्याही सुंदरी । रूप लक्षण कर सी दरी ॥ राजा भोग बीते दिन घने वन उपवन सोभा यति बने ॥ ११ ॥ जहाँ सरोवर निरमल नीर छाया रावन बिहंगम तीर ॥ फूले कमल रविवसी तिहां । चंद्रवंसी मुरझाये जहां ।। १२५ तब मन मान्या लोक सरूप । बूड़े जीव मोह के कूप ।। मग सुगति की निंदा करी । जें जें सनवटु प्रति ही घरी ॥ १३॥ मात्र नदी नौमि सु बिनेश । शिवका चढि वन किया प्रवेश || उतर पालकी लोंचे केस । श्री जिन भए जती के भेस || १४ । । बारह विच तप श्रातम ध्यान सुर किया तहां तप कल्यान ।। छह उवास की ये इक्सार ब्रह्मदत्त के लिया श्राहार ||१५|| भोजन रीति इसी विधि करी । चिदानंद य लाई परी | बारह बरस रहें खुदमस्त । चार करम जीते बहु कस्त ||१६|| पोस सुदि ग्यारस शुभ घरी परत श्रसठि न्यारी करी ॥ पाया केवल ज्ञान जिनेन्द्र । सुर नर तीन लोक आनंद ॥ १७॥ ३६ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण बार्ज सुर दुंदुभी बहु भेर । रचियो समोसणं तिह वेर ।। साढ़े ग्यारह जोजन समोसर्ण । गणरतबउ लागी छांनिकरर्ग ॥१८|| दोष अठारह कीये दूर । बारह सभा रही भरपूर ।। चौतिस प्रतिसग्र गुण छियालीस । तीन छत्र बिराज सोस ।।१६।। चौसठ चमर हुरै इक बार । यांनी हुई त्रिभुवन माघार ॥ विजयसागर त्रिदज संकावीर । मंगला राणी गुण गंभीर ॥२०॥ ताको पुत्र सगर चक्रवति । छः षंड करि सात्रे सुरत्ति ।। विजयारष दक्षिन दिस भूप । विद्या साधी नाना रूप ।।२१!! आप तात दिक्षा पद लिया । समयाल ने राजा किया ॥ पूराघन पुत्र ता सर्ने । विद्या बल गिनती बों गिनें ।।२२।। वनपाल दीक्षा लई । राज विभूति पूरणधन दई ।। उत्पन्न मति पुत्री ता तनी । रूपलक्षन सोभा अति बनी ॥२३॥ सलोन में भेज्या दुत । विपक्रेस- मेरे घर पुल ।। अब तुम किसा मोपे करउ । उत्पलमति मम पुत्र वरउ ।।२४।। पुरणषम पछया जोतगी। याकी लगन कोरसौं लगी । पाह विवाहे राजा सगर । पटरांनी होगी अगर ॥२५॥ इह निमत्त सौं फहै भूपाल । टीका भेज्या सगर कौं हाल ।। मुलोचन सुनि कोप्यो राइ । जुद्ध हेत प्रापन धढि पाइ ।।२६॥ लई खडी जोतिग गुन ग्यांन । होनी कही मागउ प्रानि ॥ पुरणपन के बर्षे निसांन । सूरवीर सब पहुंचे प्रान ।।२७।। साजी सेन्यां मुंह गिल भए । दुहुंधां बांनी धारी हए । झुझे दोऊं सेना खरी । सहस्रनयन उनपल मति ही ।।२।। दारण जुष भया भयभीत । अंत भई पुरणधन जीत || मामा गेहन देषी सुता । पूरणाघन कुवाती चिंता ॥३६।। सुनी सहस्रनयन ले गया। उव्या क्रोध चित्या भया ।। सहस्रनयन 4 कीनी दोर । वाका बाचा मारथा टौर ॥३०॥ उतपलमति सहस्रनयन के संग । मैं हूं सगर भूप को मंग ।। तो मैं हरी किया अति दुरा | चक्रवत्ति का डर नहीं करा ॥३१॥ अब जो चाहै अपनौं प्रनि । लेचरन सगरराय पं जाण ।। सहस्रनयन ढरप्या मनमोहि । सगर पास ले पहुं तो ताहि ॥३२॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनि समरचंद एवं उनका पद्मपुराण विवाह सगर सों जाम | राधापी लम राय ॥ सहस्रनयन सुरखी इह बात पूररपघन किया चाचा धाति ||३३|| कोप्या भूप जुन को घरमा । पूरणधन फिर के सांभला ।। बहुत जुध हुवा दुहु वोर । पढे मार तिहां मांची रोड ||३४|| मेघवाहन पूरणधन पूत । पहुंता तिहां संन संयुक्त ॥ 1 वर वांग पाठ सम मेह् । सहस्रनयन भाग्या ले देह ||३५|| समोसरण में म्राया भाजि । तिहां भया मनवांछित काज || वर भाव सब ही मिट गया। दया प्रणाम सकल मन भया ||३६|| धर देखा इन जुध । चक्र कहीं यह सुध ॥ चाल्यो समोसरण भगवान | पूछें इनका बैर निदान ||३७|| राजा वज्रघर समर ले साथ । श्राये समोसरण जिन नाथ || मानस्तंभ मान की हरं । देखत ही मति निरमल करें ||३८|| लीन प्रदक्षिण करि नमस्कार। डंडवता बहु वारंबार ॥ दो कर जोड़ करें प्रसन्न इन्हें बेर क्यों भया उत्पन्न ॥ ३६ ॥ अजितनाथ जिण बागी सार । गरधर भेद कहें सुविचार || संवनगर तिहां भावन सेष्ठ । प्रति कीरत बहु क्रिया सरेष्ट ||४०| तार्के भरदास सुत भया । पाई बुधि सौं स्याणां धया || आप सेठ चाल्यो व्योपार । पुत्रं सौंप्या बहु दीनार ॥८९॥ चार कोड गिरण सौंपे तांहि । धरम दया राम्रो मनमांहि || सज्जन कुटुंब की करज्यो कांग। जिन पूजा में दोज्यो दान ॥ ४२ ॥ लाद जिहाज दिशांतर चल्या श्रदास ज्वारया संग मिल्या || जुवा हरावं द्रव्य । राति विसन तिन से सर्व ||४३|| वेस्या संगमादिक सों हेत । लघमी बहु गरिएका कुं देव || खोटे कारण कीने घने । बिभचारी बाकी सब भने ||४४|| सर्व द पोया इंग भांति चोरी कुळे निवस्या श्रराति ॥ राज भंडारे क्रिया प्रवेस | वांधि पोट ले चल्या प्रसंस ॥१४५॥ सुरंग महि ते आ जाय । नित प्रति सात विसन सुषाय ॥ प्रण ब्रूडि समद में गए पश्चाताप सेठ बहु कीये ॥४६॥ मेरे घर थी लछमी बहुत । ते में सौंपी भूत कपूत मेरी बुधि हरी करतार । भ्रमता फिरधा देस सार ॥४७॥ जे संतोष सों रहता बंठि । तो क्यों होती सुखसौं बैंठ ।। हुआ दeिst पहुंच्यां गेह रवी न घर में देवी ह ॥४८ | ४१ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण साहरण कही पुत्र की बात । सुणि करि दोउं मीठे पछितात ।। कही के वह कमा धंधा कर । राज मंडार चोरी कर ॥४६।। सुरंग नाहिसेस । पोरी र शंड:14 ॥ दंपति मन विचारया एह । जो नृप सुरमै तो सूली देइ ।।५०।। इम विचार विण लई सुरंग | देख प्ररहबास भया मन भंग ।। पिता पुत्र ने मारमा ठोर । भाज गया नगरी ने छोरि ।।५।। करम कुकर्म कर दिन रन । कवहीं मनको हुँब न चैन ।। नरकों के बुत मरकर गया सातमी नकं । छेदन भेदन काटन अर्क ॥५२॥ हुउक देह घरो उन जाय । भूख प्यास को अंत न प्राय ।। जुवा चौर के काट हाथ । फेर संवार दुख के साथ ।।५।। जीवह तेरे मांस कुखाय । लोह गिड बीजे सुख मांहि ।। मांस प्रहार कहैं से सुष । अभक्ष साये पाव दुख ॥५४।। सुरा पान मादिक जे लेह । तपत राग ता मुख में देह ।। प्राहे मारे बहु जीव । सूला रोपन बंध ग्रीक ।।५५।। जो अगते पर की प्रसतरी । लोह तरणी लाव पूतली ।। दौरि भिडाथै उनकी धाइ । पारे ज्यों सरीर फट जाय ।।५६॥ दुख में होय देह की देह । साल विसन फल लागै एह 1 वे दोन्यु कोली के गेह । भए पुत्र तिहां नहीं संदेह ।।५।। लरि करि मुये नरफ गति लही । भूष त्रिषा वारि पीडा सही ॥ बहा ते मरि परवत के तट । मए साझ कर बन घुट ।।५८॥ दहा ते मुये मेष गति पांय । दोन्पों लरई बैर के भाव 11 मों ही जौनि भ्रमें वे घनी । अतकाल तं भेट्या इक मुनी ||५|| तिहां सुने पंच प्रभू के नाम । तातें पायो उत्तम ठाम 11 क्षेत्र विदेह पुष्कलावती देस । पुंडरीक तहां नगर नरेस ।। ६०।। सुण्यां धरम श्री जिनवर पास । सतार स्वर्ग परि पाया बास ।। वहां थी चकरि नरपति भए । भावन जीय पुरन धन श्रये ॥६१।। भरवास जीव सुलोचन जान । ताथी जुद्ध भया बहु प्रांन ।। सगर भूप जोरे दोइ हाथ । मेघवान सहस्त्रनयन की पूछी बात ।। ६२॥ पदमाक नगर तिहां संरक देस । सीस अवलो मित्र के भेस ।। दोऊ रहैं एकही ठांउ । ससी गयो पौरही के गांव ।।६३!! Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाषन्द एवं उनका पद्मपुराण अवलाचला जात हो नीर । शासिने मारमा भर कर तीर ।। देही छोडि सही गति वहल । शशि को मारा सींग सोपल ||६४।। यह तो मरि मूसा अबतार । अबली जीव भया मंजार ।। बिलाव में मूसे कूमारि । यौही भ्रमे तिरजंच मझारि ॥६५|| स्यांम राम की दासी गेह । ताकै गर्भ भई नर देह ॥ राजा पीछ तबै सुनि धर्म । दिक्षा से काटे दुह करम ।।६।। पाया सनल कुमार विमान । ह्वा भी चये आसकी भान | बैंवंती देस प्ररंजय नगर । सहस्र सूर्य के सेवक अगर ॥६॥ सगर के भव तप करि गये स्वर्ग विमान | हां ते चई पाया इह थान ।। सगर नरेंन दोई करि जीरि । मेरे भव प्रमु कहो बहोर ||६॥ भोमर देस कुरंग नरेस । मुनिकों दान दिया बहु मेस ।। पाया अंत सुधर्म बिमांन । ह्वां तं चल्या चंद्रपुर प्रान ।।६।। दैत्यराय धारादे नारि । वित्ति कात्ति तमु भयो कुमार ।। आप तात दिक्षा पद लिया । बीत्ति कत्ति को राजा किया ।।७।। तिन भी तप कर मातम ध्यान । पहुंचा स्वर्ग लोफ पुर थान ।। रतनसंचय पुर क्षेत्र विदेह । महाघोष राजा के गेह ॥७१।। चन्द्राननी उरलियो अवतार । अविचल भया सुभट को पार ।। तप करि देव भया सुरलोक । पूरन प्राव भई मन सोक ||७२।। भरत क्षेत्र पृथ्वी पर बसे । जसोधर राजा के मन हस ।। जया नाम ताके घर प्रिया । जयकौलि पुत्र नाम कुल दिया ||३|| राय यशोधर दिक्षा लई । राज रिष जैकीर्त में दई ।। सुख में दिन बीते बहु ताहि । दिक्षा ली मुनिवर किंग जाय ।।७४।। पहुंचा विजय स्वर्ग विमान । ह्रां ते सगर भया तू प्रांनि ।। सकल भवांतर श्री जिन कहै । बारह सभा सुनत सुग्ब बहे ।।७।। सोरठा सुनि पिछला संबंध, मन संसय सब का गया । सकल जीव प्रानंद । राति दिवस पालो दया ।७६१॥ चौपई समोसरण में सुख निधान । राक्षिस अविपति वें पहुंचे प्रांनि ।। भीम सु भीम बुझुन का नाम । राक्षस कुरिल आए इस ठाम ।।७।। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण दई प्रदिक्षन कर रहोस । श्री जिण करी बहुत प्रस्तुति ॥ पूरमधन मेघवाहन सौ कहै । जो तुम चलो परम सुख सहै ।।७८॥ साम र तट जोजन सो मांन । त्रिकुटाचल सुमेर परमांन ।। पचास जोजन है उन्चंत । कंचनगढ नय गोयण हुंत ॥७६।। जोजन तीस वस वह नगर । सोवन घर चैत्यालय अगर ।।। मोती लाल हीरे दवहु वरण । पन्ने चुनी जड़े सुवरण ।।६०) फिये चितेरे रतन के घने । प्रतिमा सहित चैत्यालय बने ।। बन उपवन बाबडी कूप । सरोवर निरमल पाल अनूप ।।१।। हंस प्रादि बहु जलचर जीव । वैठक सौहें गहरी नींव ।। कमल फूल फूले वहु भांति । दीस भली वाग की पांति ।।२।। दक्षिण विस लेका जिहां नाम । सर्व वस्तु सों सोमं ठाम ।। चंत्याली परि घुज फहराय । अमर स्वर्ग सुख कोई पाय ।।।। सहस्रकूट बने जिण यांन । लंकागढ़ सुगं पुरी समान ॥ सकल वस्तु का करो वर्षान । बढे कथा नहीं होय निदान ॥४॥ मेघवाहन कु दीयाहार । या की पूजा करो सबार ॥ जो मनवांछित करस्यो नरेस । संसा तुरत प्रकास भेस ॥५॥ पहैरै मति गले मझार । कुल क्षय होम पहर जब हार ।। पा की पूजा कीजो भली । तो पूजे मन वांछित रली ना८६॥ अरु विद्या दीनी राक्षसी । ते निश्चल पित अतंर वसी। कमला अमला संप्रत तीन । दई विद्याधर गुरणह प्रवीन ।।१७॥ श्री जिराबर की आज्ञा पाय । पति विमान लंका में जाय ।। बाजा बाज पुरै निसान । पूरणघन मेयवाहन भान ।।८।। सेना वहुत लई उन संग । हाथी रथ पालकी तुरंग ।। बैठ विमान चले प्राकास । देखे पुरपट्टण बहु बाम ।।८६॥ देस्मा सायर लहर तुरंत । मच्छ कच्छ उत्तर बहु रंग ।। त्रिकुटाचल तिहां फंधन कोट । ताहि कान्ति रवि हुमा मोट ॥६०) देखी लंका केचन मई । जिनवर भवन सोभा भति भई ॥ प्रष्ट द्रव्य सो पूजा रची । कर भारती दंपति सची ।।१।। पूजा करि गढ़ ऊपर चढ़े । देखत सुख महा मत्ति बढे ।। साल कलस दीया लंका राज । हुवा सबै मन बांछित काज ॥६२।। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाबन्द एवं उनका पद्मपुराण ४५ निरभयवंत राज ते करें । भूचर ऐचर सेवा करें । विजयारध पर्वत के पास । किनर गीत नगर का वास ॥१३॥ पतिमयूष तिहां बस नरेस । प्रांनमती निम सोहैं केस ।। सुप्रभा पुत्री तार्क भई । मृगलोचन कमलाननी थई ।।१४।। कीर नासिका सुभ्र कपोल । हीरादंत कोकिला बोल ॥ भुजा कलाई अंगुरी फरी । जंप केल सम काट केहरी ॥५॥ पंकज चरण हंस गति चाल । बेणी सोभा जेम बयाल ॥ टीका मेघवाहन का किया । लिष्या लगन सुभ दिन साथिया ।।६।। रहबरली में दुनिया iसना कीया नहुनर गाड़। हम गय वाहन दीये घने । चमर छत्र सिंघासन वने ||७|| जीत कौज भूपति नइ दई । तो मो नहिं वरण गई। बिदा होय चाले नरनाह । प्राये निजपुर अधिक उथाह ||६|| सुष माही दिन बीते घने । चमर छत्र सिहासन बने ।। भई गर्भ थिति सुप्रभा तने । महाराक्षस भयो उत्पने ।। ६811 महाराक्षस भया उत्पन्न । रूप कला लक्षण सुखन्न । ता पाछ हुमा सुत ओर । ससांक कुमार विराजे ठौर ।। सगर चक्री मेघवाहन भूप । परि पाभर्ण भधिक अनूप ।।१०।। आए समोसरण जिनभान । देखत उपजे सुख दिनांन ।। 'नमस्कार करि विनती करे । कर जोडि मस्तक भू धरै ॥१०१।। स्वामी कथा कहो समझाय । मन म्हारे का संसय जाय ॥ तुमसे पुरुष भौर भी भए । धर्म तीर्थ कौं उनके कीये ॥१०२।। तुमसा कोई ह है और । असुभ करम को डार तोडि ।। चक्रबत्ति केते व मूष । कामदेव है अधिक स्वरूप ॥ १०३।। नारायण केने बलिभद्र । प्रतिनारायण के ते रुद्र ।। श्री जिनवर भाष ग्रन समझाइ । बारह सभा सुरण मनलाय ।।१०।। उस्सर्पणी अवसपरणी काल । असठ पुरुष व चौथेफाल ॥ चौबीस तीर्थकर कामदेव । बारह चक्री नो बलदेव ।।१०।। नारायण प्रतिनारायण नौ। महारुद्र वे ग्यारह गिनो।। पहली हुमा जुगलिया धर्म । रिषभदेव परकांस्यौ मम ।।१०६॥ चक्री प्रथम भया ते भरत । कामदेव बाइबल समरस्थ ।। पंच कल्याण इंद्रादिक देव । पूजा कर चरण की सेब ।।१०७॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदम पुराण हम सरखारथसिधि ते प्राय । अजिसनाथ वीजो जिनराय ।। गरभ अनम तप केवल ग्यांन । किये महोछन सुर नर मान ॥१०८।। चक्री सगर दूसरा भया । सह पंडि साधि राज भोगिया ।। दाईस होंय और अवतार । बरम प्रगासेंगे संसार ।।१९ चक्रवत्ति है है दस और । पाप दुष्ट मारेंगे तोडि ।। धर्म पुन्य की रक्षा करें । तीन काल सुमरण दिठ धरै ।११०।। चौबीस तीर्थकर ऋषभनाथ प्रथम जिणदेव । जन धरम प्रकास्या भेव ।। दुधे अजिशनाम जिबरा : संग भिनंदन सुखपाय ।।१११॥ सुमति पदमप्रभू देव सुपास । चंद्रप्रभ मन पूर पास ।। पुष्पदत सीतल श्रेयोस । वासपूज्य सुमरो जिगहंस ।११।। बंदी विमलनाथ सुजिणंद । अनंतनाथ चउदहीं मुरिंगद ।। घरमनाथ जिएवरम महंत | शांति कुथु श्री अरु अरिहंत ।।११२॥ मल्लिनाथ मुनिसवत देव । नमि नेम को कीजे सेव ।। पार्श्वनाथ कमठ मद हया । वर्षमान प्रकासी दया ।।११४॥ बाहुबलि का पल अधिक, दूजा अमर मजसेन । श्रीधर दरसन भद्र अति । प्रसनचव सुष सेन ॥११॥ चंद्रवरण चंद्रकला, अगाति, मुकति सनंतकुमार ।। श्रीबछराजा कनकप्रभ, मेघ वरण उनहार ।।११६।। सांति कथ अरु परह जिण. विजयराज श्रीचंद ।। नल राजा श्रुलभद्र अति, हनुमान छह दंर ।।११७।। प्रजिल्ल बलिराजा बसुदेव सेव बहुत करें प्रद्य मन रूप अपार ताहि क्यों मन घरै ।। नागनुमार सुदरशन सील पाल्या परा, धारयौ दृढ वृत्त सील सुभब सायर तिरपा ।।११।। चक्रवत्ति भयऊ भरथ देश बहु साघिया । जीते भूप अनेक जिनों को बांधिया । धरमा घरम सों ध्यान कम वसु क्षय किया ।। केवल ज्ञान उपाय मुक्ति बासा लिया ।।११।। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचन्द एवं उनका पत्मपुराण सगर जीम कर चक्र देस अपने करें । तुद पंट के भूप हाथ जोडपो खो। सुन्या परम जिन पास भाव बहु मन घरघा ।। दाणी अगम अपार जीव सुणि निस्तरघा ॥१२०।। मधवसु चक्री तोसरा । सनतकुमार भी होई ।। सांति कुयु अरुहनाय जी । सुभरो नित सब कोइ ॥१२॥ फिर सुभोम चकी भया। पत्रम सुचक्री जान || हरषेन जयसेन नृप । ब्रह्मदस गुणांन ॥१२२॥ त्रिविष्ट द्विविष्ट स्वयंभव । पुरुषोत्तम सिंघ भेव ।। पुंडरीक दत्त लक्ष्मणा । कृष्णनारायण देव ।। १२३।। सुत्तारिक असुग्रीव 1 मेर कुमेर मधु कैट ।। नि-संभव पह्लाद । वलि रावणा जरासिंघ हु वाहेट १५१२४। विस्वानल सुप्रतिष्छ । प्रकलपुरीक जीतंधर ।। विजय अचल सुधरम सुपुत्र सुदरसन पानंद । नंदमित्र श्री रामचन्द्र हरनधर ए शुभ्रकंद । भीम बली जितसत्रुजी जित नाभि पोदिल इष्ट ।।१२५।। क्रोधानले भया ईग्यारमा । महास्द्र बलवीर ।। वेस: सीलाका पुरुष सब । सम्यकदादी धीर । १२६।। अडिल्ल श्री जिगण म्यांन गंभीर अंत नहि पाइये । भव्य ज्जीव धरि भाव प्रात उठि घ्याइये ।। केबानम्मान अपार सकन संस भजे । दिया धरम उपदेस सुख हिरदै रजै ।।१२।। चौपाई संसार का स्वरूप अव देखो संसार सरूफ । वावर रंक कबहू भूप ।। जीव दया विन कबै न सुख । गिरदय पाव भव भव दुख ॥१२८|| ह्य गय विभय द्रव्य भंडार । रहे सवल हैगे गिगनांकार ।। सज्जन कुटुंब दामनी उद्मोत । छिनही माहिं अंधेरा होत || १२६।। राजा विभूतरू पुष कलित्र । राब विनासी बुदबुदावत । इस संसार नहीं थिर कोय । देही प्रादि नहीं साथि होई ॥१३॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण घरम सहाई जीव के साथ । सुमरण करन जपो डिण नाथ ॥ जैन धरम परष गुणवंत । रवि प्रताप उज्जल बहु मंत ।।१३१।। मिथ्या धरम कर जे अंघ । अशुभ करम के वांधे बंध ॥ छारे अमृत पी नीर । भवसायर ते लहैं न तीर ।।१३२॥ च्यारों गति में डोलें सदा । काल अनंत लहै आपदा ।। मिथ्या धरम करो मत कोई । जैनधर्म तें शिवपद होई ।।१३।। छो भोग जोग भाचरं । वहर न अबसागर में पर। च्यारि कषाय अठारह दोष । ए छोडं तव पवि मोक्ष ।।१३४।। डिल्ल मेघवाहन सुनि भूब धरम पहचानिया । जग सुपनां सम देखि अनित्य जुठानिया ।। डियो लंकाराज पुत्र जाकी ययो । सहस्र भूप के साथ प्राप चारित्र लियो ।।१३।। चौपई महाराक्षस जहां भोग राज । ससांक पुत्र छोडघा जुवराज ।। महाराक्षस के विमला स्त्री । पतिव्रता प्राशा में खरी ॥१३६।। तीन पुत्र जाके उर भये । रूपलक्षन करि सोभ नये ।। अमर राक्षास उपयोदय राप्त । भानु राक्षस की सोभा लाक्ष ॥१३७।। सगर चक्रवती वर्णन सगर चक्रवसि निष्कटक राज । साठ सहस्र सुत पाशा काज ॥ एक दिवस सब मतउ विचार । चले पिता पैं कर पुकार ।।१३८॥ अब हम बड़े सयाने भए । अव लग कछु उद्यम नहीं किये ।। षोडश वर्ष तरण परमाण । पुत्र पिता के पावै धान ।।१३६॥ बिना कुमाये यू ही फिर ! सो कपूत नाहीं बिस्तर ।। अब हम तुम प्राज्ञा देहु । सेवा कर किसकी धरि नेह ।।१४०।। कह पिता तुम सुबउ कुमार । हम सव भूप नहीं संसार ।। ताकी सेव करो तुम जाय | कॉन समुझि चितई सुखदाइ ॥१४१।। सर्व वस्तु को पूरण रिद्ध । विससो वच्छ घणेरी रिद्ध । सुरगत अयण कर मस्तक परें । हमने' रहल करो सों करें ॥१४२।। आशा भई जाह कलास । महा गंगा पोदो ता पास ।। सोवर्नमई चैत्याल बने । रतन बिंब सोभा सन बने ।।१४३।। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुम समाचंद एवं उनका पपुलरा आगई बहु होहिंगे मलेच्छ । वेहु वा मानि कर परोस । महागंगा ने फेरचं तिहाँ । कोइ न जाइ सकेगो वहां ।।१४४॥ विदा मागि गए कैलास । खाई खोदें चिन्न जलास ।। खोदी तिणं झंडी प्रति मही। धम धम बहु घरगेन्द्र सही ।।१४५॥ मनमें कोप्या मुख उठाय । सहलमुखी जिह्वा निकलाय ।। करी कार धूम आकार । अग्निझाल ते हुये वार ।।१४६।। मूए सब तब उबरे दोय । भीम भागीरण चित विसमय होय ।।१४७॥ सगर पास पाए तिण वार । सकल बात को कहों विचार ।। सुरिण वुत्तान्त महादुख भया ! से पीट कूटै हीया ।।१४।। हा हा कार नगर में होय । ऐसा दुखी न दूजो कोय ।। राजा अनुपात बहु करइ 1 ज्या ज्यों दुःख हिये उच्छर ।।१४।। समझा सब मंत्री लोग । इस मंसार संयोग वियोग ।। किस को पुत्र पिता परिवार । इस विभूति जल्ल पटल प्रकार ।।१०।। पुण्य संयोग लई बहु रिख । अशुभ उदय दुख लहैं प्रसिद्ध ।। स्वास्थ रूप सबै संसार । साथी नही पुत्र परिवार ॥१५१।। जब लग जीव तव्य सुखराज । जीव बिना कनु सरह न काज ।। राजा फेरि नगर संचरचा । मनतें दुःख न होने परा ॥१५२॥ माये समोसरण की सीम । राजा मगर साथ से भीम ।। श्री भगवंत का दरसन पाय । बहन भांति सों नवरा कराय ॥१५॥ देख भलीन बहुत मनमांहि । श्री जिनवर समझाव ताहि ॥ भ्रम्या जीव इह प्रादि अनादि । बिना परम नर देही वादि ।।१५४।। सब ऊपर पक फिरा काल । नोतन विश्व न छोडं बाल ।। बंच्या ऊठ्या जागत मैन । रोबत गावत दुचिते वन ॥१५५।। कायर सूर राव ने रंक । काहु को नहीं मरनें मंक ।। मूरिख पंडित तप प्रति जती । कान दया न पावै रती ।।१५६ , पूरण प्राव बीत जब जाय । बालक तमगा वृद्ध ने ग्वाय ।। काल समान बली नहीं कोइ । परि पछारत वार न होय ।।१५७।। स्वर्ग पाताल प्रनै मुवि लोक । मरवारथ सिध ली चोक । प्रागै नहीं काल की दीडि । मुकति थान निरभय है ठौर ।।१५८।। तीरथंकर अस पक्रवत्ति, कामदेव वलिभद्र ॥ नारायण प्रतिनारायन, तपसी नारद रुद्र ।।१५६।। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचपुराण काल तमा बसि सब भये, जोधा सुभट सुजान ।। सकल लोक पण जोतिया, या सम ली न प्रान' ।।१०।। सोरठा चऋपति सूनि भेद, भोग सोग सब परहरे । धरयो ध्यान दिढ जोग, सब संसार मन ते तजा ॥१६१ रामा भागौरय का वर्णन भागीरथ राजा किया, सगर भीम सह त्याग । दिक्षा ली जिणराय पै, मनमें धरि वैराग ॥१६॥ चौपई पाल प्रजा भागीरथ मूप । मुकट छत्र सिर बने अनूप ।। राज करत दिन बीते' पने । श्रुतसागर मुनि भाये सुने ।।१६३॥ मरपति के मन हरष अपार । घले जहाँ मुनि प्राण अधार ॥ नगरलोक चाले सह साथ । वनमें ध्यान घरचौ मुनिनाथ ॥१६४।। पाए निकट बंदना करी । साठि सहस की पूच्छी घरी ।। किरण कारण एकठे मरे । कहो कथा ज्यों संसप टरे ।।१६५।। मुनि बोले पिछला संबंध । ताथी हुछा करम का बंध ।। समेद शिखर चाल्यो क संघ । दंतपुर गांम देख मनरंग ॥१६६।। देखत लोग संघ को हंस । देखा गवि किसो तह बसे ।। कुभकार वरज तिज़ जात । इण ठां गया जीव नो घात ।।१६७॥ बात कही भीमानी नही । गांव माहि देही गज गही ।। पकड पछारे सगले लोग । मींड मांड सब कीन्हे फोक ॥१६८।। कुंभकार मरि वरिणवर भया । तप करि बहुरि राज सुत भया । तप करि फिरि पायो सुरथान 1 सो तु भयो भगीरथ पान ।।१६६।। साठि हजार सिंघ के जीव । सगर भूप सुत उपजें तीव ।। जात्रा मांहि सब का रया ध्यान । राजपुत्र ते हूये मान ॥१७०|| कारण पाए मुए इकठोर । अशुभ करम की मिटई न पोर ।। सुनि भागीरथ कीयो नमस्कार | राज छोड ली दीक्षा सार ।।११।। संका का राजा महाराक्षस महाराक्षस लंका का भूप । बन क्रीडा का देखन रूप ॥ सकल कुटंब लिया नृप संग । वन उपबन गुह गंभीर उतंग ।।१७२।। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुमि सभाचं एवं उनका पमपुराण निरमल सरोवर देखे घने । फूल फले कमस्त्र प्रति बने । स्वर्गलोक किन्नर उनहार । राणी सोमै राज दुवार ॥१७३।। भई रयण मुरझाये फूल । भमरा रहे बास में भूल ।। देखई उपज्यो नृप ने ज्ञान । एके इन्द्री में भ्रमर मुलाान ॥१७४।। पंच इंद्री बसि रहे मलाय । उन जीवानं कौंग सहाय ।। अंसी समझि भयो बैराग । राजरिद्धि सह परियन त्यान ।।१७।। अमर राक्षस प्रमर राक्षस ने सौंप्यो राज । दिक्षा लई मुकति के काज ।। . संसार परीष्या घेषन किया। मंबर देखि मति पायी ह्यिा ॥१६॥ भमरा वींध्यां कमल में, दये प्रांन ता वीज ॥ राजा क्रीडा मति करही, विषय गणी सब नीच ।।१७७।। सडिल्ल मनमें रि वैराग चित्त चिमझ्या परा। इह संसार असार दुख सागर भरा।। एक इंद्री के विर्ष प्रांए परिहरि करें। पंष इन्द्री के विष सेय क्यों निस्तरै ।।१७।। चौपई श्रुतसागर मुनि के पास गमन राजा सोच मनमें ग्यान । श्रुतसागर प्राये कन थांन ।। घरचो ध्यान तप बारे अनेक । मन वच काय न हो एक ॥१७६ तेरह विध चारित्र सौ चित्त । सहैं परोसा वाइस नित ।। अवर अनेक सिष्य ता संग । सह परीसा अपने घंन ।।१०।। रूप गणे अति महा प्रवीण । चंद्रकांति देखत प्रति होरण ।। माली गया मूप के पास । मुनिवर जोग दिया वनवास ।।१८।। ग्यांन तीन अंतरगत वस । दरसत देखत पातिग नसें ।। सूनि नरेस मन किया उल्हास । पूजण चले सुगति की प्रास ।।१२।। नगर लोग चले संग बहत । प्रतक्षरण बन में जाय पहंत ।। नमस्कार करि करी इंडोत. 1 पवन क्रांति ससी की प्रति जोत ॥१८शा घरण प्रक्षालण विनती करें। कहो धर्म मम संसय हरै॥ मुनिवर कहै धर्म समुझाय । हिंसा त पालो मन लाय ।।१८४॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परापुरात दृष्टि अगोवर गोचर जानि । षटकाया जे प्राप्त समान ॥ जांरिण बुझ न विराधो कोइ । अनइ देखें जे हिंसा होय ॥१८॥ पश्चात्ताप कर मन माहि । मिट सकल हिरदा की दाह ।। अनरत विरत दूसरा कया । सस्य बचन ते सिव सुख लह्मा ॥१६॥ चोरी लाभ परिहो सर्व । दान प्रदत्ता लेय न दवं ॥ परिग्रह संख्या पाल सील । धर्म निमित्त न की हील ॥१८७।। संख्या वस्तु करें परिमाण । सक्तिसमा यो चारों दान ।। वइयावरत कर बहु भांति । अनंतकाय भोजण तजि राति ।।१५।। महाराक्षस भीनवं करि गहौ । मेरो भव व्योरास्मों कहो।। चारि ग्यांन का धारक साप । पूजस हैं प्रानी की साप ।।१८६।। कही सकल पूरव भव बात । अंधकार जिम दीप मिटात ॥ पोवनपुर उदयाचल दूध । भरत श्री राणी अनूप ।।१०।। हेमरप पुत्र ताहि के भया । बहुत पानंद दंपति चित्त थया ।। हितवंत महाजन तिह ठां वसई । माघबी नारि मन उल्ह्सइ ।। १६१।। प्रत्यक्षपुत्र है लघु अवतार | रूपलक्षण करि सोभा सार ।। एक दिवस गरज्यो घनघोर । नृत्य करता देख्ये मोर ।।१६।। विद्य त बात मुदा जब मोर । नरपति के जिम उपजी ओर ।। संसार परिक्षा पेपि तुरंत । घर परियण छोडे बहुमंत ।।१६।। श्री मुनि पास दिक्षा लई भाय । करी तपस्मा मन वच काय ।। पहुंच्या स्वर्ग लही गति देव । किन्नर बहुत करे ता सेव ॥१९४|| थई करि उपञ्या षेत्र विदेह । कंचनपुर देखे वर गेह ॥ श्री प्रभाराणी सुन्दरी । ताक गर्म भाइ दिति करी ॥१६॥ उदित नाम भया सुकुमार । रूपवंत गुण लक्षण सार ।। जोवन समं महा बलवंत । रविप्रताप सोभा बहु मंत ॥१६६।। मुनिवर का उपसर्ग निवार । घरम वारण मुण्यो निरधार ।। चारण मुनि दिक्षा लई । ग्यांन ज्योति अन्तर्गत भई ।।१७।। असनवेग विद्याधर जहां । उदित मुनि ध्यान धरया तिहा ।। घनिबिर विद्याधर गमें भाकास । हम भगोचरी पृथ्वी वास || १६८॥ मेरे तप का इह फल होइ । विद्याधर गति पाऊं सोई॥ देही छोष्टि ईसान विमान । छोडि हुवा महा राक्षस प्रांन |१९| अमरराक्षस को दीया राज । भान राक्षस छोटा युवराज ॥ महाराक्षस दिक्षा पद लई । सौधर्म विमान देव पद थई ।।२००॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाधव एवं उनका पद्मपुराण ५३ विजयारच पर्वत उच्चंत । किन्नर गीत नगर निवसंत ।। धीधर जहां रहै सुनरेस । प्रादित्त स्त्री सोमै बहु भेस ।।२०१।। विद्य त पुत्री ताकै भई । रूप लक्षगा गरण सोभे मई ।। अमर राक्षस कुदई विवाह । भोग मगन रस करई उछाह ।।२०२।। गंधर्व गीत नगर शुभ ठोर । सरीसनाभ सम मपन और ।। भारण्या नाम राणी पट पनी । गांधर्ववती पुत्री सोभा बनी ॥२०३।। भानराक्षस कौं कन्या दई । क्रीडा भोग रिति मानै नई ॥ अमर राक्षस के देवराक्षस पुत्र । विजयाद्ध जीते सह सत्र ।।२०४।। भान राक्षस के दस सूत भये। पूषी षटग्यान गुन हीये ।। दसों बसाये दस ही देस । सुरगपुरी सम दीस मेस ।।२०५1। संध्याकार बसाया नगर । सबल मनौ लंकापुर अगर ।। मृनाल हंस हीर पुरिपोर । जोधपुरि समदपुरि की और ।।२०६।। देवराक्षस लंकापति राय । मनोवेग गति सोम ठाइ ।। मुप्रभा विवाही प्रसतरी । नंदीनाक पुत्र भया सुभ घरी ।।२०।। प्रोहनमती बिबाही नारि । भीमप्रभ पुत्र भयो अवतार ।। जोबन समय भयो विवाह । सहन त्रियासौं भोग उछाह भए पुत्र एक सो पाठ । बरणत सकल बढ् बहु पाट ।। ।।२०।। चूहा भासकर पुजर नाम जित, संप्रति कीर्त्त सुग्रीव । वृहत्कीर्त नंदन सुनंदन, समुद्रसेन हयग्रीव ।।२०६ ।। चौपई चंद्रवरत भया महाराव । मेघ घबल ग्रह धवला नाय ।। नक्षत्र दमन मेघनाह भाव । घवल प्रभु बहु चढतं दाव ।।२१०॥ कीतिधवल को सौंप्या राज । प्रापण किया मुक्ति का साज ।। पाले प्रजा प्रभू कीरति धजल । घरमनीत सुरिग वारणी प्रबल ।।२११।। इति श्री पपपुराणे श्री अजित महातम राक्षस संबंधी । विधानक ॥३। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ फ्यपुरात चतुर्थ संधि पानर वंश वर्णन चौपई फिर अंगिक कीयो परसन्न । वानरचंसो की उत्पन्न ।। श्री जिनजी की पाणी भई । मन संसय सब की मिट गयी ।।१।। विजयारष गिर दक्षिन पोर । सरग लोक सम सोमै ठोर ।। मेघपुरी नगरी इक नांब | अतेंद्र भूपती को तहां ठांच ।।२।। मंदिर सघण वणे सच्चंत । उत्तम सोग बसे गुणवंत ।। प्रत्येंद्र राजा प्रति बली । श्रीपती जग मानें रली ॥३॥ श्रीकंठ ताक गेह । रूपवंत कंचन सम ह ।। विद्या पढी भया उर ग्यांन । ता सम तुल्य न पंडित यांन |V|| चौथी घेवी पुत्री भई । लोयण मृग कति शशि मई॥ सकल रूप जो कहुं समझाइ । सामोद्रिक के जानो भाइ ।।५।। रतनपुरी पुहपोत्तर भूप । जा घर राणी अधिक सरूप ।। पद्मोत्तर सुत वाके गेह । लक्षण करि करि सोभ देह ।।६।। अतेंद्र पास तिरा भेजा दूत । विनती आप लिखी सुबहुत । पनोत्तर सुरमोरा गुनी। कन्या देक चढायो मनी ।।७) प्रत्येंद पूछया श्रीकंठ । करी सगाई लिष दिया संठ ।। प्रोनंद भया दुहुँ भूपती । करै वषाई जागी रती ।। यों ही बीत गये दिन घने । लगन काज सुत सौ नृप भने ।। रची सौज करि दीजे व्याह । पुत्र पिता की मानै नाहि || कहँक यासों प्याई नहीं । पमोत्तर सुनि चिता यही ॥ मोमै कहा लगाई खोर । उन विचारी मनमें और ॥१०॥ पहपीत्तर पद मौत चितवं । निस यासर हा हा योलवै ।। अन्तर्गत मन राख बर । दाब वन तो मारू घेर ॥११।। कन्या को सुन्दरता विद्याधर सब गये सुमेर । पूजन चले न नागी देर ।। पुहपोत्तर की तहां पूतरी । सकल कला गुण लादण भरी ॥१२॥ रूपवंत ज्यों पून्यू चंद । घटै बघे यह सदा अनंत ।। दीरष नयन श्रवण सों लगे । देख कुरंग बन मांहि भगे ॥१३|| दंत चिमक ज्यों हीरों की ज्योति । मस्तक कपोल प्रथ्वी उद्योत ।। नासा भौंह बनी छवि धनी । बनी कोर्स न जाये गिनी ॥१४॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाषद एवं उनका पद्मपुराण केहरि कटि कदली सम जंघः। भुजा कलाई सुभर प्रभंग ।। एडी सलुवा पल्लव भली । गावं राग मनोहर रली ॥१५॥ द्वादस प्राण सोल शृंगार । देखत नर भू खाइ पछार ।। सीरीकंठने सुणि के राग | दोन्यु वार्ता कर सराग ॥१६।। हूँ विद्याधर इनको देख । पुहपोत्तर की पुत्री पेष । यह ससे फ्यू लागा वात | सुणी भरणक पुत्री की तात ।।१७।। पृहपोत्तर वे देख्या प्रांन । और नहीं टिक हिये मैं जान ।। श्रीकंठ का पीछा किया । भाज्या लंका भीतर गया ।।१८।। श्रीकंठ भगनी पै जाय । मादर भाव किया बह भाव ।। प्रहमोत्तर साजी सव सैन । चचा कटक दिन ते भई रैन ।। १६॥ छाया रहे भाकास विमांन । अरु बाजें गहर निसान ।। दसौं विसा भई मैं भीत । कीतिघवल मम दातो चित ॥२०॥ कंह कोप बढधा है इंद । अबहो प्राण करंगा बुन्द ।। भेज्या दूत पुह पोत्तर पास। याहि वेग सुध लीज्यो तास ।।२१।। गयो दूत जहां नाम नरेस । नमस्कार करि कहे उपदेस ।। तुम भूपति उत्तम कुल भांन । अंसा भूप नहीं कुहि प्रांत ।।२२।। सिरीकंठ मूरिख अग्यांन । उरण न करचो तुमरो सनमान ॥ बह सेवक तुम परथीपती । वापर कृपा करो भूपती ।।२३।। यह भी उत्तम कूल का बाल । करो व्याह तो वात रसाल ।। चार चितवै भेज्या वसीठ । प्राया निकट भूप को दीठ ।।२४॥ पूछ राप कहों सत भाव | कौंग काज पठयो इण ठाव ।। कहै दुत सुणु तुम नरेस । चारिवि देवि ने कहा संदेस ।।२५।। पदमोरार से मांगी मोह । या जग और न जाउं गोहि ।। एक छोडि दुजो जो करै । नरक निगोद अधोगति फिर ॥२६।। पद्मोत्तर ते जे नर और । तात भ्रात सम जाणों टौर ।। अबला विचार और करम । मैंने रहै त्रिया को धरम ||२७।। दासी ह विनऊ कर जोरि । मनकी पटक मारू तोडि ।। रहस रली सौं किया विवाह । दुई कुल हुना अधिक उछात् ।। २८ । हिरदा तणां वैर तब तज्या । भई बधाई मन में रश्या ।। सोना दिया बहुत नरेन्द्र । दोन्यू और भया प्रानंद ।।२६।। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ वानर द्वीप भोग मगन सब सुख के साज । दोऊं नगर करें ते राज ॥ कतिधवल श्रीकंठ सौं कहै । लंका के जेते पुर रहे ||३०|| जहाँ कहो सोईं व नगर । वैरभाव भाजेंगे सगर || दक्षिण दिसा भीम प्रति भीम। सघन बस सुविराजं सीम ||३१|| उत्तर दिस प्रस्त सा दीप | मिरगदीप सौचित्र कर दीप || सकल दीप की सोमा कही । श्रीकंठ सुनि मनमैं गही ||३२|| पद्मश्री प्रस्त्रीन बुलाय । दंपति मिलसे सुख के भाव ॥ कीत्तिधवल के निकले संग । किषल पर्वत देखिये उसंग ||३३ चौदह योजग पर्वत ऊंच । वानर द्वीप बसै ता षुष ॥ नील नगर की महिमा धनी । सायर मांइ भोट अति बनी ॥ ३४ ॥ मन उपवन नीली चहुंओर पंखी कर हरव सौं सोर ॥ देख श्रीकंठ करें मानंद 1 कहूं पंछी गुल पढे जिस्पंद ||३५|| पद्मपुराण बोलें सब सुहाये बोल । रहस रत्ती सों करें किलोल ॥ हरित के फूले फल फूल | बैठक घनी बनी श्रनुकुल || ३६ || मंदिर चित्रकारी सुळे धने । कूप श्राविका सरोवर घने || जल में कमल विराज भले । भवर गुंजार करें पहुफले ||३७|| जैसे गति कज्जल भरें। कमल कपर मधुकर गुजरें ||३८| बहुरि गिरि चढि देखे देस मन आनंदित भए नरेस || कपि पकड़ा बहु बांधि । देखे राय नयन सों सांधि ||३६|| I हैम सकिल जाउ पढे । मीठे भोजन नाना भांति किंवल गिरा ए दीसें मारस की भांति कोमल रोम वो सुभ गात ॥ घुंधर बाल सु वानर मके ||४०|| उनह पुत्रायें संस्था प्रात ।। भूप । सोभा दी सकल अनूप ।।४१।। किंवलपुर नगर चौदह जोजन ऊंचा मेर। बैयालीस जोजन का फेर ॥ किंवलपुर नगर ता ऊपर बसे । वन उपवन सोभा उलसे ||४२ || कंचन कोट रतन के जडित । सुरगपुरी की सोभा हरत ॥ रतनसिला की देहली वशी । नयरी सघरण यसै तिहां धरणी ||४३|| Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुभि सभाचंव एवं उनका पद्मपुराण श्रीकंठ पदमावति सिरी । रूप लक्षण गुण सोभा भरी ॥ कीतिवचल लंका का नरेस दिया श्रीकंठ किलपुर देस ||४४ || } राजा राणी भोगवे राज । वन क्रीडा के देखन काज || भद्रसाल बन सोभा और नंदन बन श्रानंद की ठौर ॥४५॥ नीड़ा सुख देखे भले । दंपति फिर प्राए घर चले ॥ रूति अषाढ सोमं सब भूमि । मेघ घटा चिह्नं दिस रही घुमि ||४६ || बोन्यू हे मंदिर सत खने । सीतल पवन ताप ने हरें ! इंद्रादिक प्यारों विध देव । चहें विमरण प्रापण भेव || ४७|| चले नदीस्वर दीप सुरेन्द्र ॥ दर निमित्त भरी चिता ||४८६|| F अंपति पर सोमं इंद्र श्रीकंठ मनमें उल्हास सब परिवार सेन्यां संग लेह साजि विभांरण गगन घुनि देइ || मानोत्तर पर्वत के मध्य । विद्याधर की चली न बुध ॥४६॥ I वहुत उपाय किए उस बेर । विद्याधर को लांघ मेर।। अपनी निदा खगपति करें । होन पुष्य कव हम भवतरं ॥५०॥२ अधिक पुनीत देव गति लही । नंदीश्वर को पूजें सही || अव दीक्षा त्यो इस बार वरिह व्रत संयम ना भार ।। ५१ ।। यदि देहो तजि देवगति धरू । नंदीस्वर की पूजा करू || आपण किया दिगंबर साज | बज्जाकंठ पुत्र ने दे राज || ५२ || बवकंठ भोग व चाल । सुख में बीत गया कछु काल || चारण मुनि का दरसन पाय । पिता बात पूछी तब श्राय ॥ ५३ ॥ चारण ऋषि बोले धरि ध्यान । रव भव का करो बस्यां ॥ श्रीसता नगरी का नाम । वनिक पुत्र है निवर्स नाम ||१४|| परिच्छत दुरबुधि दो वीर । रूपलक्षण गुण साहस धीर ।। परिच्छत के मन उपज्या ग्यांन । दुरिबुधि कू लक्षमी का ध्यान ॥ ५.५६०० श्राप जाय दीक्षा पद लिया। देही छोडि भ्रमर गति गया 11 दुवृधि करें सरावग वर्म । दया भंग के जाने मर्म ।। ५६ ।। मिरगावती स्त्री सा गेह सिवनी लक्षन ताकी देह || करकस वचन सर्व सो कई दया घरम तें परे ही रहे ।।५७०१ खोटी क्रिया करें मन लाय। जिनवाणी चित्त को न सुहाय ॥ दुरबुधि समति संसार सरूप । तजि गेह मया दिगंबर रूप ||५|| मन वच काया साध्या जोग । देव भयो मौषमें सुर जोग || परित जीव श्रीकंठ सुभया । दुरबुधि जीव इंद्रपद लीया ॥ ५६॥३ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ इन्द्र विचारी यह मन मांहि । ए चारित्र दिखाया ताहि ॥ तात उत्तम दिक्षा पद लह्या वज्रकंठ का संसा गया ||६० || इन्द्रवद को दीया राज । प्रापण किया मुक्ति का साज || इन्द्रप्रभू इन्द्रमति मे । समंद समीर रविप्रभ और ॥ ६१॥ रविप्रभ जोगीस्वर मया । राजभार अमरप्रभ दीया ॥ अमरप्रभ परतापी खरा । या सम तुल्य न कोई नरा ॥३६२॥ त्रिकुट राजा लंकापती । ता घर राणी सौभावती ॥ तां गर्भ कन्या गुणवती । रूप लक्षण सोभा बहुवली ।। ६३ ।। अमरप्रभ भेज्या विप्र । नालिपुंरंग लिख दीया पत्र || गुणवती का मंगलाचार | श्रावो लंका स्यों परिवार ।। ६४ ।। अमरप्रभु मन भया श्रानंद । वाजित्र बाजें सुख का कंद ॥ रस रली त्याची चोक || ६५।। किये चितेरे बहुत अनूप सकस भांति के मांडे रूप || वन उपजन के रूख बनाय । कनक कलस चोखूंट घराय ।। ६६ ।। सुघट त्रिया मिल प्रधा चौक । कपि के चिह्न किये बहु थोक || आई जान नगर के पास । साज बाज लाग्योणी भास ॥ ६७॥ पचपुराख I वस्त्र आभ रु मोती लाल । दीये तुरंग हस्ती सुषपाल || टीका करि जनवासा दिया । भोजन वहुत जान को किया ||६| दई ज्योंरणार प्रति करि सनमान फिर प्राये मंडिप तिहि भांन ॥ सकल विभूत देखिए परी । श्रमरप्रभु दृष्टि कपि चिह्न परी ॥ ६६॥ कृषि कु देखि को बहु करचा । सकल हिदय भय बहुत भरया ।। गुणवंती बिग वंठी प्रान । अमरप्रभू बोल्या करि मान ॥७०॥ इह तो मंगलवार की वार । बांनर किम मांडे इस बार || सब के मन में चिता भई दुहुं बिरयां क्या वरा है दई || ७१|| ब्रह्मांन मंत्री था एक | जानें इनकी थापना बिसेष || उन बात कही समझाय । इह कुल कुशल चाहिए राय ||७२ || कुन पूजें हैं तुम्हारे कृषि | श्रीकंद ने इनको थपि ॥ तार्तं चित्र किये इस ठाय । इन दर्शनफल है बहु भाय ||७३ || इतनी सुरत कोष घट गया। मंगलचार दान बहु दिया ।। पूछी सब ब्योरा सू बात । रोमांचित हुवा सब गात ||७४ || Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभा एवं सनका पाराश करि विवाह गए फिरि थान । भोग मगन बहु सुस्त्र की स्लान ।। बहुविध सेन्यो लेकर चले । विजयाधर मन साधे भले ।।७५॥ सब राजा ने मानी यांन । धुजा मांझि कपि के निसान ।। कपि के चित्र मुकट में बने । दांचर वंगी प्रगटे घने ॥७६।। देश साथि सब अपने किये । बहु पुर नगर बसाए नए ।। कपिकेतु जनमिया कुमार । रूपवंत पाशि की उनहार ।।७७.। जोवन वय श्रीप्रभा नारि । इन्द्री सुख माने संसारि ।। आप तात जिण दिशा लई । राजविभूति पुत्र ने दई ।।७८|| पाल प्रजा कपि बज नरेस । प्रतिबल पुष भया मुभवेस । ग्राप लिया संयम का भार । प्रतिबल को सोंच्या संसार ||७|| गमन आनंद पेचर प्रानंद । गिरिनंदन तप सरवर नंद ।। श्रेयांस जिणवर के समै । श्रीकंठ किंषपुर गर्म ।।८।। तीन मागर बीते जज काल । अमरप्रम उपज्या मुवान ।। बासुपुज्य जिणावर के थाना पूजि वरण आयो नृप वांगा ।।८।। बाहि कुल भूपति बप भये 1 काटि करम ऊंची गति गये ।। वानर वंसी विद्याधर कहै । वरली सकल पार को लहै ।।२।। महोदधि रवि याही कुल भूप । विद्युतप्रकास रांगी सुमरूप ।। और स्त्री बिवाही घनी । पुष नठोत्तर सो मुग्ण मुगी ।।३।। किंषलपुर का भोगवै ग़ज । वानरकुली कुनिका काज ॥ उत्तिम कुल इनका सुबिनीत । दया घरम सुबहुते प्रीत ।।४।। महिल राजा भार अनेक नाम कहीं ली कहैं । विद्याधर गुणवंत सकल दुरजन दहे ।। कारी जगत परिजीत पारण सगले वहै । प्रष्ट करम कु काटि मुक्ति को पथ गहे ।।८।। इति श्री पद्मपुराणे वानर वंसी उत्पत्ति चतुर्थ संधि विधानक पंचम सोषि चौपई लंका का राजा बिच तवेग विद्य तवेग लंका का धनी । श्रीचंद्रा गरणी गुण भरी।। नारी तेग विवाही घणी । ते सुथ सोभा जाय न गरणी ।।१।। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ . पद्मपुराण स्थों अंतेवर वन में गए । ता बन सोभा देखत भए । वृक्ष ऊपर कपि बैठ्या एक । राणी कु फल मारघा फेंक ॥२॥ पाया निकट वीजुरी देह । बहुरमो चढ़ा वृक्ष के गेह ।। राय सुण्या राणी का सोर । खेंच वाण मारमा कपि ठोर ।।३।। श्रवण मुनी बैठा तप करें । बानर माय मुनी बिंग पर ।। श्री मुनि ध्यार ग्यांन का धनी । कपि में देख दया अपनी ॥४॥ कति करण सुणाये पंच प्रभु नाम | महोदय नाम सुर पंटाम ।। प्रवधि विचार एक भव तनी । आई सुरति क्रोघ कंपनी ।।५।। कपि देही लें भया हुं देव । विद्य त बेम स्यु' भाष्यो भेव ।। माया रूपी साजी सैन । जहां तहां कवि कर कुचन ।।६।। विध तवेग सोचं मनमाहिं । के षेपर के भूषर प्राई । यासों जुध करें चद्धि षेत । बांषु सगली सन समेत ।।७।। सेन्यां लेकर सनमुष मल्यो । चहुंधा धानर कोया हदः ।। धरती पग चोटी माकास । मुख विकराल भयानक रास ।।८।। लंबे दांत भयदाई परें । सूरवीर धीरज नहीं घरं ।। केई परवत लेय उठाइ । केई विरख उठावै प्राय ||६|| ले ले दौडै एक वार । मारि मारि कपि कर पुकार || विद्यु तवेग नै मानी हार । गया जहां महोदय सुकुमार ।।१०11 देव विचारया हिरदय ग्यान | परि पाये कीजे सनमान 11 राजास्थों समझाई बात । मैं वह बंदर मारा प्रात ।।११॥ साथ प्रसाद भया मैं देव । चालो मुनि पै पूर्छ भेव ।। राजा देव गए मुनि पास । दई प्रकम्मा पूजी पास ॥१२॥ सुर षेचर दोउ स्तुति करें । साधु संगति भव सागर तिर । देव तणी गति वानर लही । पंच नाम करण तें सही ।।१३।। जो कोई रोब तुम्हारी कर । मन वच काया दृढ कर घरै ।। मुगति पंथ सो लेय तुरन्त । तोरं जनम जरा का अन्त ।।१४॥ यव प्रभूजो कहिए कछु परम । नासें पाप मिल पद परम ॥ मुनिवर कहैं घरम का भेद । प्रसुभ करम का हुवा खेद ।।१५।। मुनि का उपदेश पंच अणुवत श्रावक करें । महायत जोगीस्वर घरै ।। कुगुरु कुदेवा माने नहीं ते । उत्तम कुल श्रावक सही ।।१६।। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचं एवं उनका पमपुराण जे मूरिख कहिए अग्यांन । कुगुरु कुदेवई सेवं जान । मार कर होवे शूकर स्वान । खोटी जोरिण भ्रमै बहु अांन ।।१७।। नीची गति बहु भ्रमता फिरं । कबहुं न ऊंची गति में परं ।। जोनि लाख चौरासी संताप । कबहुँ होह गोह अरु साप ॥१८॥ भून न मिथ्या कीजे कोइ । जैन धरम तें सुरपति होइ । सूक्षम भेद कहें समुझाय । फिर पूछे पिछले परजाय ।।१९।। मुनिबर बोले ग्यांन विचार । बुडत जीव उतार पार ।। कासी देस भील इक रहे । वनमें जाय जीव बहु दहै ।।२०! मावस्थी नगरी का नाम । सुजसदस वारिणक सिंह ठाम ।। सुजसदत्त उपज्या वैराग। छोड़े विषय दोष अस राग ।।२१।। जाण्यों इह संसार असार । दिक्षा लई संयम का भार ।। करि बिहार कासी वन गया । तिहां जाय मुनि जोग जु दियां ।।२२।। नगर लोक आयो सब जात । मुनिवर दीस मैले गात ।। भील चस्या था करण महेर । बनमें मुनि देख्या सिंह वेर ।।२३।। परव भव का बर विशेष । मन मांहि बह प्राण्या क्रोध ।। मुनिवर ने सरसेती हत्या । देही छोडि देवता भया ।।२४॥ मुनिवर भया सौधर्म इन्द्र । सुरग लोक में गया सुरवीन्द्र ।। भुगत प्राय लीया अवतार । तडित केस तू भया कुमार ।।२५।। भील मुत्रा नरक गति लही । वहुरवो तिण खोटी गति सही ।। भ्रम्या जोनि बहला दुख पाय । अब इह वादर हुया प्राय ।।२६।। पूरन भय का इह संबंध 1 रुद्र प्रणाम कुगति का बंध ।। सुरगी बात संसा सब गया । दया भाव अन्तर्गत भया ।।२७।। सुकेस पुत्र को दीया राज । प्रापरिण करचो मुक्ति को साज ।। महोदषि किषलपुर धनी । सुरगपुरी की सोभा बनी ।।२।। धौल अंबर विद्याधर प्राय । महोधर बसौं निचरण कराय ।। विनती करें दोय कर जोडि । सुनौं प्रभुजी कहूं बहोरि ।।२६।। तइतकेस लंका का भूप । दिक्षा लई दिगम्बर रूप ।। तुझ उसमें थी मधिको प्रीति । सुकेस पुत्र वालक भयभीत ।। ३०॥ लंका का भी साधो काज । जब वह चेते तब दीज्यौ राज ॥ राजा सुरिंग घोलेसत भाव । सिंघ पुत्र को कहा उपाय । ३१।। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रपुरास जैसा बीज तसा ज सुभाव । ऊन कहा सिषाब दाब 11 राजा मनमें किया विचार । प्रतहपुर गया तिही वार ।।३२।। राणी सगली लई बुलाई । तिरिण सू बात कही समझाय || इह विभूति सुपने की रिभ । जाग्या कछु न देखें सिध ।।३३।। अबहुं दिक्षा दिढ सुधर । काटि करम भवसायर तरूं ।। सुणे बधन रोब रणवास | जैसे बोले बांसरी नाद ॥३४॥ कोकिल के सब बोलें नारि । क्यों जल भरपर रहैं विनपार 11 तुम बिन हम क्यू जी राय । दासी होम बिन वै मह पाय ३५ इह सुख छोरि सरो संन्यास ! दिन दिन्न रोगका नाय । जनम अकारथ देव कौन । ए सुख परिहर सीजे मौंन ।।३।। पंचामृत भोजन सुषवास । इवां नित होइ पराई प्रास | निरस सरस ले हो माहार । छह रितु सही परीसा सार ॥३७।। तुम सुधीयान कोमल देह । भूमि पिलंग तजि सोबो गेह ।। वाईस परीसा दुख की रासि । क्यों मरिहीं पिय बारह मास ॥३॥ बलि समझावं मंत्री प्राइ । भूपति ने सहु परिजा जाइ ।। तुम सा राजा पार्यं कहीं । तुम प्रसाद सकल सुख इहां ।।३६।। अब तुम राज करो बिश्राम । चौथे प्राश्रम दिक्षा कांय ।। राजा कहै सुणों चित लाइ । इन्द्रिय विषय नरक ले जाइ ||४०॥ पत्र कलित्रक राज विभत । सबै विनासी प्रेसी हल ॥ स्वारथ रूपी जानह धंध । मोह करम बसि हुए पंप ।।४।। मन वच काय लगाऊं जोग । छांडूसयल भांति के भोग ।। प्रतिबन्द्र कुगजा किया । प्रापण भेष दिगंबर लिया ।।४२।। श्रवण मुनीघर के टिंग जाय । दिक्षा लई भये मुनिराय । तप कर उपग्मा केवल ज्ञान | घरम प्रकास भया निरवान ||३|| प्रतिचंद्र तहां भोगवं राज । सुख मैं हूँ सत उपज काज ।। किषर कुवर मंघक दौड भए । रूपवंत विधा निरभये ।।४४।। प्रतिचंद्र ने दीक्षा लई । राज काज दोऊ पुत्र ने दई॥ दोऊ भ्राता भोगवे देख । सुख ही में नित रहे नरेस ॥४५।। विजयाई रथनूपुर नगर । अश्वनवेग राजा बल अगर । विजयसिंह पुत्र बलवंत । बल पौरुष का नहीं ग्रंत ।।४।। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि सभाषद एवं उनका पद्मपुराण मादितपुर नगरी का नाम । विद्यामंदिर राज तिषांन ॥ वेगवती रागी ता गेह 1 श्रीमाला पुत्री कंचन देह ||४७॥ श्रीमाला का स्वयंवर अरके निमित्त स्वयंवर रचा। छत्र सिंहासरा बहुते सज्या || देस देस के भूपति श्राम | बैठे अपनी अपनी ठाय ||४|| राग रंग बाजत्र सुने। मंडपतल नरपति सब बने । कन्या ने कर माला लई राव सुमंगला कुंदरि संग भई ॥४६॥ लीन्ही घडी धाइने हाथ सब राजा का कहै वृतान्त || एक एक से घटता भूप । उनका कहां लौं वरनु रूप ||१०| नाभस तिलक मांड कुंडला । विद्यासा सुंदरसन भला ।। वज्रादरज और वा '' भानुकुमार राजा चंद्रान । नूपुरेन्द्र राजहंस बलवान ।। विद्याधर नरपति तिहो बने । नामावली कहां लो गने ।। ५२ ।। चूहा देखे सब राजा श्राबली, कोई न माया दिष्ट || अपणे मन भूपति सकल, मान भंग चित भिष्ट ॥ ५३ ॥ चौपाई कन्या गई फिर माला लई । भूमि गोचरो राजा में गई ।। राजकुंवर देखे फिरि नैन । विद्धि पास गई माला देन ।। ५४ ।। माला देई गले में बाल । विजयसिंध कोप्या भुवाल || वानर क्यों आये इस ठांव । मस्यों करचा गर्व का भाव ॥। ५५ ।। इन कही जाय फिरि गेहू । अबही मारि मिलाउं पेह ॥ राक्षस वंसी किससु कहो । भागों वेग जो जिया चहौ ।। ५६ ।। जाउ तुरल बन अंतर रही। वनचर पं घर गयो रहौ ।। बोले किकं ग्ररु कुमार । सुकेस कहै कोष के शात्र ॥ ५३॥ सुमपंथी हम लंकापती किमपुर की सोभा भती ।। जैसे कौवा उडे आकास । तैनें तुम पंछी वनवास ||५८ || विजेसिव की प्राशा भई सेनां सकल एकठी यई || कोई छाय रहे श्रसमान । कोई घेर रहे उद्यति ॥५६॥ ६३ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ म पुराण द्वार बार घेरे चहुं नोर । भांजि न सकई किस ही ठोर || जहूं इनको कीजे दूर पर श्राए मारें नहीं सुर ||६०|| इनकू इहां ले आया कर्म मारो प्रबं गमावो भर्म ॥ 1 I free नरेन्द्र की श्राग्यां पाय । सईन्या सिमिट भई इकठा १६१ || मैंगल सु' मैंगल चोदत | पैदल विद्या साधी सनमुख भए । वणिवारी मागें गए ।। विद्याषर भू आकास भूमिगोचरी भूमि निवास २२६२ || पैदल भूत | जे ते हैं विद्या के वांन । दुहुधां छू दें मेह समान ॥। ६३ ।। सैची तुपक तणी भइ मार | विजयसिंघ धाइया कुमार ।। ग्रंथ सेती का इंकार | रे वानर अब हारों मार ॥ ६४॥ अथक कुंवर गही तरवार विजयसिंह मारया तिह बार ।। विद्याधर कीये भयभीत सुकेस किकं श्रंक की जीत ।। ६५ ।। विकर प्रस्वन वेग गया। जयसिंह कुंभुंठा कक्षा ।। राज सुसि पार करें उपचार ॥ ६६।। सीतल प्रौषधि वीसनवार । बड़ी बार में हुई संभार || तब कर उठ्या भार ही मार । सेनां चाली सकल पार ||६७ ॥ आदितपुर को घेरा श्राइ राक्षस वांतर वंसिन रहाय ॥ मनमें सूर तरों श्रानन्द | देखें किनर सूरज चंद ||६|| चाह' विघ के देखें देव | श्रीमाला समभावं भेव ॥ तुम हो तीन बहे सेन हैं घनी । जें तुम छिपोरि कल हुनी ||६६ ॥ बे फिरि जहि तब करो विवाह । मेरा अवन मानों नर नाह ।। अंकुर कहे सुनि बैंन । स्थालन देखें मृगपति नैन ॥७०॥ तुम नृप बैठि रो घर मांहि । सेनां सब मारों पल मांहि ॥ विद्यामंदिर प्रस्ववेष सों कहे । नीत मृजाद तुम ते रहे ।। ७१ ।। जागल कन्यां हारे माल । सोई कन्यां का भरतार | विजयसिंघ ने मांडी राडि । तातै भई उपाधि अपार ॥७२॥ अस्ववेग के हिरवे दाह । पुत्र वैर राषं मन माह ॥ बोले भूप दिखावी मोहि मेरा पुत्र वन मारा द्रोह ॥७३॥ क्रोध लहर की उठ तरंग । राक्षस वानर कु ́ नाहै भंग ॥ अस्ववेग सेन्या में गया। किकंध राय के सनमुख भया ।।७४ || वाकु मोहि दिखावो प्रांत । मेरा पुत्र हयां है जान | विद्यावाहून किंवधराय भयो जुध वरन्यु नहीं जाय || ७५ ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुनि समाचल एवं उनका पमपुराण ६५ अंपककुमर भए सामहि । मारधा पहनें ग्रीवा दही ।। परयो भूमि तब छूटे मांन । क्रिकंधराय तिहां पहुंच्या प्रनि ।७।। गही सिना परवत की एक । अस्वनवेग कुमारी कक ।। राजा गिर घोहे से परपा । सेवक उठाप स्वार तहा करा ॥७७।। वही देर में भई संभार । घोडे रनमा गहै हपियार ॥ रे वानर पद फिरि घेत । प्राव फेर तुझ मा षेत ।।७।। मेरा बाहगा पा सरीर । भईसा कौंन जोषा बरवीर || जाका पान मो उपर वर्ष । रण संग्राम नीति के वर्ष ।।७६॥ किकंध राजा कूद भरत । अग्या मुनि के कंप्या गात ।। साय पचार परनी पर गिरधा । बसी बार में फिर संभरण ।।८०|| उन पारी बालक को हया । याक धिन न पापी दया ।। वह पहले जो मारता मोहि । भ्राता दु:स भया मम तोह ॥२१॥ बहोत विलाप कर तिहबार । मुकेस कही बात सुवार ।। इसका था इहो लौं सनबंध । मोहि करम दुरगति का रंष ॥१२॥ ग्यांनी उत्तम कर न सोक । रण जुझ जस होय त्रिलोक ।। बहुत भाति निवारचा दुस । जो अब बचलो तो पाशे मुल ॥३॥ अस्वनवेग बज की येह । सेना घनी वाहूत है तेह ।। जासु संवर होय न कई । चलो वेग तो सुख को नहुं ।।४।। जीवंगे तो फिरि * जुध । चलणे की परकामी गुष ।। श्रीमाला करि गुपत विवाह । वैठि विमागा ले चाले ताहि ।।८५|| मंडलीक पुत्र सहर सुसार । उन फाछ दउरा तहैं बार ॥ विद्य तबाह समझावं वात । भागें को पीछा न कौने तात ॥८६॥ ए इतने सर करें विचार । वे पहुंचे लंका सुमंझार ।। लंका किंषपुरी का राज । प्रस्वनवेग का साध्या काय ।।७।। रितु सावन महा रखनीक । बोल मोर पपीहा पीक ।' पस्वनबैग मंदिर में पापा । पेल्या पनहर मन सुख बढ़ां ।।८८11 चल्यो पवन के पटल फट गये 1 राजा संमय बहुविध थर ।। ताहि देव उपज्या वैरान । राणविभूत देत सम त्याग 11|| सहलार को दीया राज | प्रापण किया सुक्ति का साज ॥ श्रवन मुनी प दीष्या लई । बारई विष तप साष गुणमई 1800 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 葬爷 पद्मपुरा नरपति विद्यावर इक दिवस पुर लंका में कीनु परबेस ॥ उपसम भाव देस फिर प्राइ । सुकेस किकंग का संसा जाई ||६१|| किषषराय परवत पर गया । बीमाला राशी संग भया । fairyर बसाया देश । सुखसौं राज पालै सुनरेस ||१२|| दोय पुत्र भए तर गेह | सूरज प्रकार कंचन देह ॥ पुत्री सुरज कमला भई । कमल जेम सोमा तसु दई ||२३|| राजा मेर मेघ के घनी । पंथारणी राणी सु जोड़ी बनी ॥ मृग दमन पुत्र गुनवंत । रूप लक्षण सोभा सौमंत ।। २४ ।। इक दिन कुंवर गया या काम । देवी सूरज कमला नांम ॥ पिता स विनती करी। सूरज कमला विवाही तिरी ॥६५|| राजा मेर किंव पुर गया । किंषध राय सौं विनैवंत भया । प्रभु मोपरि कृपा, तुम करो । सूरज कमला मम पुत्री वरो ॥ ६६ ॥ किबंध राम ने पुत्री दई । लिख्यौ लगन सुविधाई भई ॥ रहारली सों हुवा विवाह क्रीडा गमन बहु तो उछाह ॥६७॥ सुकेस राय इंद्राणी तिरी कराकुड पुर नगरी करी 11 मंदिर भले सुहावन रूप खाया सीतल कहीं न धूप ॥ ६८ ॥ बाग बगीचे सोभ बने । चैत्याले श्रीजिनवर के बने || नित उठ दरसन पूजा करें। जिनवाणी हिरदे में घरे ॥ ६६ ॥ अनुक्रम तीन पुत्र अतरे । रूप लक्षण करि सोमं खरे || प्रथम माली सुमाली और मालिवान ते सो ठोर ।। १०० ।। हेमपुर नगर व्योम भूपती । भोगवती राणी सुभमती ।। चन्द्रमती पुत्री ग्रवतरी माली सौ बिवाही सुभ घरी ।। १०१ ।। प्रीतंकर राजा प्रीतंकर देस प्रीतवती राखी गुणवेस || प्रीति पुत्री सुमाली कुंदई बहुत श्रादर बधाई भई ।। १०२ । । कनकपुर नगर कनक है देस | कनक नरेश राणी किन्नर बेस | कनकावली पुत्री ता भई मालीवान कुंवर को दई ।। १०३ ।। मासी कुंवर पराक्रम पर लंका किंवधपुर कीडा करें || माता पिता कहे समझाय | लंका किबंदपूरी मत जाय ।। १०४ ॥ } पु कुवरम सौं विरतात कि कारण वरजु ह्वां जात || पिछली कथा कही सब बात । उट्या क्रोध रोमखरी गात ॥ १०५ ॥ २ कहें कि अब लंका मैं जाउं करि संग्राम से सब ठांउ ॥ तात मात समझाव वंन । निरघात राजा के बहुत सेन ॥ १०६ ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनि सभाचंच एवं उनका पद्मपुराण बालन से हैं बहुगली IF ॥ बासों सरभर फँसे होय । खर्मा करो समकार्ड सोहि ॥ १०७॥ माली कंवर कहैं सुनितात ! देखि निरबात भूभ क माह और इतनी काहि सेन्या सब लेई पिता शया गयंद सवार मात्र राजा द्वारा संका पर आक्रमण महूं करिहं प्रात ॥ लंकाराज मैं बेह बहोर ।। १०८ ।। दोन्युं भ्राता संग गुरणभई ।। विद्या बांन श्रीया संभार ||१०६ इह राज किषंदपुर गई । विषदसुरज प्रसवारी हुई ।। आए सुकेस भूप के पास सूरवीर मन बहुत उल्हास ११११०॥ मास पास के सरपनि घने वा घारी बहुते बने || उठी पण खाया पाकास घेरी लंका जुध की बास ।। १११|| वाजे बजे कुकाउ कर नाई । निरषात राय सब सैन्य बुलाय || कोप हा जो को हो बली । महा सुभट मानें मन रली ।। ११२ ।। नेजा वरही धनुष तरबार । शुभं सुभट न लागी वार ॥ दंती सों दंती चोंदत | टूटे सूंड मस्तक दांत ॥ ११३ ॥ निरधात राजा हस्ती पलां । माली कुंवर पं पहुंच्या धान || मारि खडग रथ हारी तोडि । भाली कुंवर संभल्या बहोरि ||११४।। लोधी खडग हस्ती पै मारि । गहे दंत बढिया तिहू बार || विद्याकर मारमा निरधांत । राक्षस वंसी जीते प्रांत ।। ११५ । भाजे विद्याषर के लोग बहुत उन मन बाढा सोग १ फेर लिया लंका का राज | भया सकल मनबंधित काज ॥ ११६ ॥२ बहुरि गये ते विषरम देस । सहस्रार मान्यां उपदेस ॥ जित तिल के जीते भूपाल । फेर बसाए नगर बिसाल ।। ११७।। आये अपने नगर बहोरि || राज विभूति सुतौंको दई ॥ ११६ ॥ फेरी भान्यां च्या घोर सुकेस किंषद ने दीक्षा लई राक्षसर्वसी लंका का राज । वानर बंसी किंविषपुर साज || विजयारथ रथनूपुर देस सहस्रार नरपति असेस ॥ ११६ ॥ मानु सुंदरी राणी पटधनी । चौंसठ कला रूप प्रति बनी।। सुखमें गरभ भया सुम घरी । दिन दिन देह दुरबल होइ तिरी ॥। १२०३ नूप पूछ राखी सौं बात का तु हौइ तुम गात ॥ तुम करें की बात का दुख | जो तुम चाहीँ मानु सुख ।। १२१ ।। ६७ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण राणी कहै सुणु प्राणपती । इंद्राणी से सुख चाहो थिति ।। राजा वचन कहै परि ग्यांन । हम विद्याधर देव समान ||१२२।। पातर अादि गुनी जन धने । नाचे गावे सुख सब बनें । नो महीने बीते सुभ धरी । भया पुत्र मानी लीपरी ।।१२३।। रूप लक्षन ससि की उनहार । इंद्र नाम जनमिया कुमार ।। ज्यों दुतिया ससि कांति कौं चई । ज्यों सालक पल पल में बर्व ।।१२४।। जोबन बस विवाही नारि । माली सहल किलर उनहार । और पाठ काही ५६ मी. इंद्राणी सभा वनी ॥१२५।। जोजन एक को उंचो गेह । सुरगपुरी सी सोभा देह ॥ पचीस सहन गुनी जन लोग । निरत कर गावं बलु भोग ।।१२६।। पंच सबद बाथे दिन रमण । तासु सबद सुरिण सोभा चैन ।। हय गम विभव भंडार असेस ! मानें सब भूपति प्रादेस ॥१२७।। सुखमें दिन बीते घने, करं प्रजा सुख चैन । सुखने दुखने देखिये, निस वासर भरि नन ॥१२॥ चोपर्ड माली भूप लंका का धनी । तिसकी मॉन मांने सव दुनी ।। देस देस ते प्राव भेंट । उरपै भूप न आवै हैठ ॥१२६॥ इंद्रकुमार प्रतापी भया । माली का लोग निकाला दिया । अपने लोग तिहां बैठाय । नरपति मिले इन्द्र सौं प्राय ||१३०॥ माली राय बात यह सुनी । भया कोप कांपी सब दुनी ।। विजयारष को दबट करो 1 इहे म्हारी धरणी तल धरौं ।।१३१॥ सेन्या सकल लई नप टेर । चइयो विमान न पायो वेर ।। रंग रंग के वने विमान । चले सुभट छाया असमान ।।१३।। माली सुमाली सुमालिबान । सूरज रज अंबर रज जान ।। और बहुत भूपति संग चले । परि प्राभरा बहुत भले ।।१३।। विजयारध गिरि पहूंचे जाय । दुरजन को मार अब घाय || भई रया तिहां उतरे लोग । सुपना देखि मन वाढा सोग ।।१३।। कुरितु तणां देखिया मेह । बिजली देही पडि बह देह ।। प्रगनि जल चुवां तिहां धनां । रौंवे मंजार स्वान सिर धुनां ॥१३५।। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनि सभाखन्व एवं उनका पद्मपुराण fear दाहिनी गदहा पुकार । सुके वृक्ष को कवा च मार || गाली आत यह गिता हे ३६५॥ । तो काहूं को होय न पीर ॥। अब जो फेर चलो तुम वीर हम लंका का भोगवै राज जो फिर चलें तो सुधरे काज || १३ माली बोले सुरंग भी भ्रात । जो अब फिरें तो लज्जा जात || देस बेस में हुवा सोर । अब सुचैलो लागे षोर ।। १३८ || और जे सुभट श्राए हम संग ते कैसे फिरि हैं करि भंड | डरें जिको पाछा फिर जाउ । जीवत घेत न छोडुं ठाव ॥१३६॥ इतनी कह कर की दौर आस पास ते मांची गैर ।। देस परगने लूटे घने । सहस्रार राजा इम सुने ||१४|| 1 बोले ग्रूप इंद्र सो कहो । वाका वचन वेग तुम महो || गये लोग इन्द्र की ठोर करें वीनती दो कर जोर ।। १४१ ।। मांली नांम लंका सुनरेस । चढ़ि कर आया है तुम देस ॥ आस पास के लूटे गांव । घेरा है रथनूपुर ठांव ।। १४२ ।। सब विरतात सुन्यां जब इन्द्र । सूर सुभट मन भया आनंद ।। मंगल माला सममंद । केहरि छांह देखि भाजत ।। १४३ ।। जब लग मोकू देखें नाहि । तौ लू वे गरमै मन मांहि ॥ राक्षस वानर मारू ठोर पड़ी जाय लंका में सोर ।। १४४ ॥ I सेन्या सगली लई बुलाइ । देस देस के नरपति नाय || विद्या जेती थी मंडार सहु वा समय लई संभार ॥ १४५ ॥ मिलह संयोग बांधि हथियार । चले सुभट तिहां लगीन बार || अस्व गयंद घने असवार । हस्ति पैं चदि इन्द्र कुमार ।। १४६ ।। चामर छत्र महा उद्योत । सूरज मुखी रतन की जोत ।। सूर सुभट दोऊ दल जुटे । पाछे पगन कोउं नहीं हटे ।। १४७ || शुभ स्यांम धरम के काज जिनकों छत्री धरम की लाज | मैगल सेती मैगल भिडे । पैदल सों पैदल जुध करें । १४८ ।। माली सुमाली मालवान । पाछे कु पग प्रहरे जांन ॥ सूरज रज अक्षर रज लाइ । राक्षस बंसी भया दिठाइ ।। १४६ फिरके समट संभाले बांन । दुरजन मारि दिये घमसान || इन्द्रकुमार कोप्या करि तेह। राक्षस बांदर मिलाऊं बेह ॥ १५० ॥ ET Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपुराण पाप कुमर तब सनमुख भया । बहुत जुध दोउ भूपति थया । परवत की सिल लई उपार । चउंघां पडं जो घनहए पार ॥१५॥ दोऊ भूपति मुष्टिका लरे । कातर लोग देख सब डरें ।। तोउ न माने दोउं हार । वान पत्र लषि मारी हारि ।।१५।। तु बालक प्रजहू अग्यान । मानु कुवर रीस मति ठान । गही कर डारमा चक्र फिराय । माली ग्रीव पड़ी मुवि माय ।।१५३।। सुमाली मालिवान दोक वीर । भाजि गए सब लंका तीर ।। बैठि बिमान चले के गेह । सोग लहरि आँ इन्द्रन की देह ॥१५४|| इन्द्र तनै छोडे बहु बनि । ए राक्षस पायें नहीं जान ॥ मंत्री त समझा बात । भाग्या के पीछे कहा जात ।।१५५।। मंत्री वचन सुणे सिह वार | उनकी छोड़ दई तलवार 11 वे पहुंचे लंका में मांन । राणी रोवै कर बखान ॥१५६।। माली के गुण बरनै लोग । सब परवार में माता खोग ।। सुमाली मालवान भय करै । इंद्र भूप भय बिता घरै ॥१५७।। बहोत भांति समझाया परिवार । गए अलंका पुरी मझार ॥ जीता इन्द्र राजा महाबली । जाचिक बोले बिरदाबली ।।१५८ ।। कोतिक देख सराहै दुनी। परिपन मांझ बढाई पनी ।। मात पिता के वंदे पाय । बहुत भांति के विनय कराम ॥१५६।। प्रानंद मन हुआ हुल्लास । पान्यां इन्द्र फिरी चहुं पास ॥ बक्र धुमा प्रादित्या तिरी । ससी पुत्र भया ता घरी ।।१६।। लोकपाल इन्द्र का भया । सर्व जीव की पाल क्या ॥ पूरष दिसा उद्मोतपुर नगर । कांतिमन भूप लोकपाल अगर ।।१६१।। मेघरथपुर महाबली भूप । परणा नारी महास्वरूप ।। वरुण नाम पुत्र ता गेह । लोकपाल तीसरा करेह ।।१६२स। नगर मेघपुर पच्छिम देस । रहै तिहां सूरज नरेस ।। कनकावली का पुत्र नरसेर । बाकु थापा भंडारी टेर ।।१६३।। कांचनपुर पूरब दिसि पोर । बला प्रगनि नरपति तिह ठौर ।। श्रीप्रभा रांगी पाट धनी । चंद्र कर्म पुत्र सुगुनी ॥१६४।। नाम घरत प्रसुर सुर येह । और दस दिगपाल थापेहि ।। जष्य दीप किंतर किन्नरा । गंधर्व राग सुनाव खरा १६५।। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचंद एवं उनका पपपुराण अस्व अस्वनी वईस्वानर 1 देव समान मव विद्याधर ।। कौतिक मंगल व्योम विद मूप । पानंदवती राणी सु अनुप ।।१६६।। तारा कन्यां दोय गर्भमई भई । कोकसी कैकसी गुणमई । वश्रय राजा के विश्रवा पुत्र । कीकसी दई विवाह संयुक्त ॥१६७।। वइस्थानर सौ इंद्र पं गई । लंका राज बिस्वानर है दई ।। सुमाली मालिवान अलंका रहें 1 मन मैं भय दुरजन का रहै ।।१६८।। सुमाली के पुत्र इक भया । रूपबंत विधानां निरमया । दिन दिन वडा सयाणा भया । बल पौरिष विद्या निरमया ॥१६॥ श्री जिनवाणी निपचे परै । तीन काल सामायिक कर ।। संका षुटक राति दिन घनी । झूटा थान पुरषारच हनी ॥१७०।। जो हम अपना देश न लहें । इह चिता निसि वासर रहै ।। इह सोच बिजयारघ गया । तपसी भेष बनवासी भया ।।१७१।। विद्या साधी मन वच काय । कवासी पिता की प्राग्या पाय ॥ विद्या निमित गई सुन्दरी । रूप लक्षण प्रवला गुण भरी ।।१७२।। विजयारध पर पहुंती तिहां 1 रतननवा सप करता तिहां ।। वाफे निकट कैकसी प्राय । कर सदन अवला बहु भाय ।।१७३।। रतनश्रवा बोल तज मौन । सांची बात कही तुम कौन ।। व किभर के हो अपछरा । कारण कोन रुदन त करा ||१७४।। कोण दुख व्यापा है तोहि । अब तुवरण सुरणावहि मोहि ।। करू दूरि सेरो दुख माजि । मन का भेद कही सच गाजि ||१७५।। व्योमविद राजा मम तात ! आई थी मुनिवर की जात ।। रतनश्रवा विद्या सिध भई । मनकी इच्छा पुरण थई ।।१७६।। कह इक नगर व इह बार । बस्या नगर सुख हुमा अपार ।। कैफसी सौं विवाह विष करी । भोग मुगत में बीतं घडी ।।१७७।। मंदिर सूरगपुरी सम जानि । सेज्या सोमै सुम्न की वानि ।। कैकसी मन इच्छा इह भई । होई पुत्र मेरै जं दई ॥१७८|| तीन स्वप्न सुख मैं सयन कर ही रयन । सुपन तीन देने सुख अंत ।। किचित रात रही पाछली । एक मुहरत विरया भली ॥१७॥ प्रथम सिंघ गर्जा रख कर । हस्ती हन बहुत मन धरै ।। दूजे मैंगल देख्या बली । सरोवर में बह करता रली ।।१८।। कमल उषारि लिया सुख माहि । मानू मेरे मंदिर जाहिं ।। तीजे देश्यो पूरण चन्द्र । सुपने देख मया प्रानन्द ।।१८॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ पद्मपुरास जागी जिया हुआ परभात । पति सों जांय सुरपाई बात || सुपिने सांभलि भया उल्हास विषनां तुम मन पूर मास ।। १८२ ।। होइसी पुत्र तीन गुणवंत तीन खंड के पति सोभन्त || सुनि प्रिय बचन प्रधिक सुख पाय । अंचल गांठ दई बहु भाइ ।। १८३।। प्रथम स्वर्गं तें सुर इक चया । आइ गर्म स्थिति वासा लया || मनमै गर्व करें कैकसी | प्रिय सु वचन कहे करि हंसी ।। १८४ ।। हम सेवें श्री जिके पाय । हम मन रहे क्रोष किहि भाय ॥ दंपति गए के पास १८५ स्वामी कहाँ घरम समझाय । चित्त हमारा किम गरवाय || बोले मुनिवर ग्यान बिचार । प्रतिकेशर तुम गर्भ अवतार ।। १८६३३ वासम बली न दूजा और सूचर बेचर सेव कर जोडि || दोय पुत्र होसी ताप। केवल पाच मुकति में गर्भं ॥ १६७॥ मुनि वाणी सुनि आया गेह । श्रदभुत सुख पाया ता गेह || जब बीते पूरे नव मास । पुत्र जनम का भया प्रकास ।। १६८ ।। दीन दुखित नें दीना दान सव ही का राज्या सनमान ॥ या वाजित्र नाना भांति । सवद सुहावने लागे गात ।।१८६॥ रावण का जन्म दुतिया शशि जु वर्षं कुमार । रावण रूप रवि तेज अपार ॥ 1 दुजा कुंभकरण सुत भया । चंद्र नखा रूप गुंण धीया ।।१०।। तीजा भभीषन हुना कुमार मानू पूनम राशि उनहार ॥ दशानन कुमर महाबलवन्त । इन्द्र भूप खोटे चिह्न जीवंत ।। १६१। सुपने में गज दाब प्राय जाग्या कसु देखें नहि राय || दामिन डाय के गिरै । लोथि आय धरणी में परं ।। १६२॥ और घणां हृ उलकापात 1 ए चिह्न इन्द्र देखें दिन रात ।। कुमरे इक दिन डबा उघारि । काढ लिया विद्या का हार ।। १३३ ।। पहरी तुरत गले में माल | दरसण सोभरण लगे विसाल || इह था कुल विद्या का घरा । पूजा करें ते छूते हरा ।। १६४ ।। पुनित पहिरथा गल मांहि । पुण्य प्रसाद भय व्यापै नोहि ॥ केसी सूती महल सत खनं । सेज्या तं सुख बिलर्स प्रति घने ।। १६५ ।। दसानन कुअर सौबे था पास। वदनदंति जोति परकास 11 चंद्रमां की सोभात क्रांति दसन जोति बालक बहु मांति ||१६|| Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंच एवं उनका पद्मपुराण ७३ गले हार सहज में डारि । दस सिर सो में राजकुमार ।। वैश्रव विद्याधर उगवेर । सेन्यां सावि गगन सब घेर ।।१६७। रावण को जिज्ञासा चले जात हैं अपने पान । बहुत भांति के धुरं निसांन । दसानन तब पूछी मात । कवण मूप इह किह पुर जात ॥१८॥ कहां इस सा प्राकर्म ! कृष्णा न्यात कसा कल गर्म ।। इन्द्र भूप विजयारघ धनी । कर सेय राजा बहुधनी ।।१६६॥ माता का उत्तर वैश्रवा भगनी सुत मोहि । सुणों पुत्र समझाऊं तोहि ।। लंका ही प्रमहारौं प्रांन । प्रवह राज कर बलवान ॥२००।। धने किये तुम तात उपाव : कलन वणता देख्या दाव ।। अव तुम उपजे तीनू वीर | कब जीतोगे साहस धीर ।।२०१॥ माहरै मनसा ऐसी रहै। कवरण समें फिर संका रहै ॥ सुणी वात कोपियो कुमार । हूं लंका जीतू इह बार ॥२०२।। सुरिण माता समझार्दै बाल । तुम ही सुत लघ वय सुकुमाल ।। इतनी सुणि परवत पै कूदे । मारि लात ढाहा पद द ।।२०३।। भारी सिलाइक लई उठाई । ताड वृक्ष कर लिया उठाइ । जो प्रब फंकु तो पहूंचं लेक । वैश्वव राजा मानं संक ।।२०४।। विजयांई गिर उलट के घरू । इन्द्र सुघा ले प्रलयल करूं। भात पिता उठ मुंबई सोस ! घट्न प्रकार दई असीस ।।२०।। पहिले विद्या साघउ भली । पीछे पूरो मन की रली । मात पिता की पाया लई । तीनू भाई सब गुण मई ।।२०६।। नीम बन हुई विद्या की ठाउं । भयदायक नहीं मानुष नाउ ।। अजगर सिंह देख मन डर । वा बन में धीरज को घर ।।२७।। विद्या सिद्धि य पूनिवंत सिला इकू देख्नि । बंटा तारस का धरि भेष ।। धरघी ध्यान विद्या सिंध घई । अन्नदान प्रथमई लई ।। २०८।। इच्छा भोजन पावै नीर । है गुन है या विद्या तीर ।। दूजा ध्यान घरघा लज लाइ । माया यज्ञ क्रीडा के भाइ ।।२०।। यक्ष द्वारा परीक्षा देख तीन तपसी बह रूप । इन सम कोई नाहिं सरूप ।। जक्ष परीक्षा इनकी करै । फैसे ध्यान धीर तन परं ॥२१०।। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LAY पपुराण देवानगा इक चातुर धनी 1 रूपवंत लावण्य गुनवती ।। गावं गीत बजावं बीरण । गई जिहां तापसी तीन ॥२१११ ताल पखावज दुदुभी कर । निरत करत मुनि जन मन हरे ।। कोई निकट दि हम कहै । किम भालक देही दुख सहे ॥२१२॥ मन मानेता मुगतो भोग । उच्छी क्य क्यों सहीं वियोग ।। सुम कारण हम किनर चई । तुमारी तपस्या पूरण भई ॥२१३।। जहां तुम चलो चल तुम साय । तुम हो प्रमू अनाथों के नाथ ॥ एवं बैठे काठ समान । मनमें कछु वन प्रावै अनि ॥२१४॥ तब वे किन्नर वसन उतारि । लपटी इनसों ज्यों गलहार ।। कोई देह चुटकियां लेइ । कोई पवि दडवडी देइ ।।२१।। किन्नरी बहुत दिखाए भाव । इनका ध्यान रह्या थिर ठाव ।। उनको चित्त न क्यों ही टर । विसषी भई अप्सरा फिर ।।२१६॥ प्राय कही यक्षसों सह पात । उनका चित्त न चलै किह मांत ।। आप यक्ष माया उन पास । मांगों वर पुर वो मन ग्रास ॥२१७॥ कोले ती काटा को शरीर !! निज सेन्यां न दे उपदेश । सब मिल करो भयानक भेस ।।२१८॥ वेग जाइ तप टारो अाज । इनका पूरण होइन काज || इतनी सुरिंग बितर सब बाब । दई परीस्था नाना भाति ॥२१६।। कोई रूप सिंघ का करै । बहुत दहाई देख्या मन उरै ।। कोई रूप सु करिए एव । अजगर भेस घरै वह देव ।।२२०।। कोई सर्प होई तन इस । तो अनरो मनू नहुं का खिसे । वह ओरउ सैन्या करी मलेच्छ । कहै गुहपपुर की मन एच्छ ।।२२।। रतनसरवा कुबांधन चलै । स्यू कुटंब कहि ल्यावै भले ॥ जो तुम बहुत सूर वीरता घरौं। हमसौं जुध वेग तुम करो ।। २२२।। ए तापस बोले नहीं बोल । ध्यान लहरि में करें किलोल ।। ऐसे कह करि प्रागै चले । माया रूप चिह्न करि भले ।।२२३॥ रतनश्रवा केकसी के हाथ । भाता बांधे उनके साथ ॥ ले पाये विमान मंझार । मात पिता बहु कर पुकार ॥२२४।। तु दसानन कहिए बलवंत ! हमारा होत प्राण का अंत ।। ए मलेच्छ हम दे प्रति कास । तुमत टूटै हम संगल पास ।।२२५॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचन्द एवं उनका पद्मपुराण पहली ॥ तू होयगा दस शीश का धरणी। एक सीस का तु कहतो प्रथ्वी बसि करों । झूठ कहत कुछ काज न सरौ ।। २२६|| जनमतही तु मरि क्यूं न गया। हमरी तोहि न भावी दया ।। भोन कुमर तू अँसो सुभट | तुझ श्रागल हम पावें कष्ट ।। २२७ ।। मैं रावल पौरिष कहां गया। तेरे चित्त न भाई दया ॥ जो तुम 'देखो मोह चढाय । सबै मलेच्छ भसम हो जाये ।।२२८ ।। भीषण सों कहे ए बैन । तुम बैठे हम होंय कुर्वन ॥ तेरा नाम भवीषण कहे । दुरजन दुष्ट न पल में है ||२२|| तुम देखत हम होई संताप । दुखे पावें हैं माई बाप || जो तू हमें छुडावे नहीं । बल पोरिष बहुरि गर्दै नागी तरवार दंपति को सीस कोटि कर मार्ग धरं । तजव न ध्यान उनका टरें ॥२३१॥ मारघा तिहूं बार ॥ तुम हारघा सही ||२३० | १ जे जोगीस्वर रार्ष ध्यान । निषर्च उपजे केवलज्ञान || जे चाहे संसारी रिध | मनवांछित की पायें सिध || २३२ || सरव जीव की रिश्या करें ॥ I धरम जिनेस्वर का दिल घरै तब जिया पावै मारग मोक्ष मे जन्म जरा का दोष ||२३३|| विद्या निमित्त इसा मिश्च घरी । विद्या सकल श्राय कर करी ॥ दसानन ग्यारह से विद्या लई । जिनके गुरु का पार न कहीं ||२३४ || जो विद्या का करों बखान पठत सुम्गत कछु अंत न ग्यांन ॥ भान करने विद्या नहीं व्यारि । तिनके गुरण बहु अगम अपार ॥२३५५ विद्या बतुर कभीषण लई । बहुत भांति सुखदायक भई ।। जो वितर आए थे तिहां । ते श्राभूषण प्रापं वहां ।। २३६ ।। नमस्कार करि में पाय । सब वितर ठाढे भए प्राय ।। विजयार पर्वत उतं । ता ऊपर गिरवण्या सुरंग ॥। २२७॥ जहां इनहिर किया प्रवेस । स्वयं प्रभु सु बसाया देस ।। कंचन कोट रतन मरिण जटा अधिक उतंग चिरणाई अटा ||२३|| कृपया पोलि पौलि ढिग करें। कलस परतमा ऊपर करें ।। चैत्यालय जिला प्रतिमा लगे । पूजा करें सामायकु धरणे ।। २३६|| तीनू भाई जिहा नरेस || नमस्कार कीया बहु भाय ।। २४० ।। ७५ बहुत लोकतिां वसै असेस अनुवर्त पक्ष आया तिल द्वाय मेनुं जस अनुव्रत नाम । श्राजा चोसो सारू काम || जंबुद्वीप में जो कछु कहीं जब चितवों तब ठावा रहीं । २४१ || Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દ્ छत्र सिंहासन चामर दई । दियो मुकट सुर रतनां मई ॥ बहुरधौ कथा मुहुपपुर गई । बहुत प्रानंद बधाई भई ।। २४२ ।। सुमाली एवं मालियान की कया हह अलका किबंधपुर सुनी। बाजे बाजा मा गुनी ॥ सब परिवार भया श्रानंद । पूजा कौनी देव जिद १।२४३ ।। स्यों परिवार स्वयंपुर चले। सुमाली मालिवान दोज मिले 11 सूरजरज अंबरजि सूप । वंदि विमान बने जु अनूप ॥ २४४॥ परिया युत श्राये जिए थान पूजा कोंनी निह आए || भई र कोयो विश्राम करई सामायिक ले जिस एाम ।। २४५।। उत्तरतं रतनश्ववा कंकसी मिले सुनउसे चिता नसी || च्यारू पुरुष प्राए तिह घरी । आए सब परिवार की तिरी ॥ २४६ ॥ ए बालक उटि लागे पाय । उनु हिये सौं लिये लगाये || कैकसी में करें इंडोत । जनुं दई आसीस बहुत ॥ २४७॥ किस्तुरी सामग्री मेल ॥ तरपति बहु धन धन गर्भ रतन की यांनि । तुझलें बढ़े घणे संतान ॥ पुरुषां सिंघासन बसाइ । बहुत भांत कीनी मनुहार ॥ २४८ ॥ ॥ चडकी कनक बचत मरिमलाल । हीरा पनां अवर प्रवाल लिनपरि बैठे भूपति प्राय करें उबटना गंध मिलाय ।। २४६ ॥ सौंधा अगरजा तेल फुलेल नाई सुघड करें तिहां सेव F पद्यपुराण पा भेद ।। २५०१। सुख निरमल जल कंचन के कुंभ । ये सोमें ज्यों सुंदर दंभ ॥ ढारै कलस करें असमान । गाउँ गुणिया चतुर सुजाण ।।२५१ ।। उत्तम घोवती पहरी भली । तिहां सुबर मार्ने बहु रली ॥ इन सरीर में इसी सुबास । सा भवर न मूकै पास ।। २५२।१ दमानन मान करा कुमार । वभीषण सेव करें बहु भाइ || नमस्कार चरणन को करें 1 पुरुषामुख अधिक मन परं ।। २५३ ।। घट रस व्यंजन भई रसोई व्यंजन भले । स्युं कटुंब जीमण कु चले ॥ रतन तिवाई सोवन थाल । कंचनभारि गंगाजल घाल ।। २५४१ घेवर बरफी लडुवा सेत । बहु पकवान परुस्या तेह् ॥ बटरस भोजन कीने घने । हरे वपेरे उत्तम बने ।। २५५ ।। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंब एवं उनका पद्मपुराण जीमैं भोजन सब परिवार । बीरा दीनां पान संवार ।। सिंघासन पर बैठे ग्राय | नगर कितोहल देष गप ॥२५६ ॥ दसानन तव पूलं बात । माली का कहै विरतांत ।। दशानन द्वारा लंका राज्य प्राप्ति की इच्छा किम' छोडना संका का राज 1 न्यौग सवाल कहो प्रभू प्राज ।। १५७।। पिछली कथा कहो समझाय । सुमाली भया मूरछा भाह ।। सबही कंवर करें उपचार । बड़ी बार में मई संभार ।।२५८।। अवर कथां कहीं तिहं दार । फिर कैलासह देवह दार ॥ पूजा करी श्री भगवंत । सोवन मुनी तिहां महंत ॥२५६।। नमसकार करि पूछी वात । लंका राज लहै किह भांत ।। अवधि विचार कहैं मुनिराय । पोते तीन होयगे प्राय ॥२६०11 ने पावंगा लंका राज | मन बांछित का सुधरै काज ॥ बहु परिवार बढे संतान । उन सब बली न दूजा पान ।।२६१।। जे कछ, कहैं मुनीस्वर जैन । तुमने देषि भया सुष चन ।। पुनि सुपाव सुर की रिधि । पुन्य हो विद्या सिद्ध ।।२६२।। पुण्य भोग भूमि सुप करे । पुण्य राज प्रथ्वी कू बरं ।। पुण्य दुःष दालिद्र सव हरे । पुण्यं भव सागर जल तिरै ।।२६३।। पुण्ये पुत्र कलिम परिवार । पुण्य लछमी होय अपार ।। पुण्य विद्या लहे विमान । पून्य पार्व उत्तम थान ।।२६४।। पुन्य दूरिजन लागे पांव । पुन्य थी सदा सुपदाय ।। जल थल बन विहंड सहाय' । नातं पुन्य करौं मन नाय ।।२६५।। सूण पुन्य कीजे सब कोय । मनवांछित फल पादै सोय ।। सुरगति नर नारकी तिरजच । पुण्य बिमा सुप लहें न रंच ।।२६।। इति श्री पद्मपुराणे देशानन उत्पत्ति विधानक मन्दोवरी की सुन्दरता सरदंतपुर दक्षिण की मोर । दैतनाथ राजा तिहं ठौर। हेमावती राणी पटधनी । मंदोदरी सब गुण भय भनी ।।२६७।। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसे कवि चन्द्रमुखी कहैं । वह षट बधे या सम निस रहे । किम कविराज बाहै मृगन । बई भय दायक सुख की देन ॥२६८) क्यों करि कवि कहै वेणी ध्यालं । इह वह रहे प्रत्यक्ष पताल ॥ क्यों विजय नासा कीर । ए पंषी ए गुण गंभीर ।।२६६॥ सकस रूप का करू बखान । पदमनी की सी सोभा जान || कन्या खेले ही वह बाल । अंचल देषी ताम मुघाल ॥२७॥ राय देख मन संस किया। राणी सेती प्रकासित भया । पुधी भई विवाहन जोंग । उत्तम कुल जे नामी लोग ।।२७१।। विवाह के लिये विचार विमर्श जहाँ देखिये कीबे काज । मंत्री मंत्र समारो साज ।। हम अप भूपन रिभोर । नाली न ज १२७२।। दूजा मंत्री विनती करें । दशानन कुवर विद्या बहु घर । उसम कुल उजियारा पक्ष । उनकी सकल जगत में पक्ष ।।२७३॥ दिन दिन छ है धरणा परताप । उसका जीवं दादा बाप ।। मंत्री बात सति नित लगी । बुखाए पंडित अरु जोतिगी ।।२७४।। साचो लगन देख बहु भांति । राब विग्रह होवें उपसांति ।। जोतिग देखि साधी सुभ धरी । और बहुत सामग्री करी ॥२७५।। पुपनगर के लिये प्रस्थान मंत्री च्यार कन्या इक संग । और लोग बहुरंग सुरंग ॥ पहुंचे पुहपनगर में जाय । रतनश्रवा तिहाँ नहि पाम ॥२७६।। पूछे लोग नगर के घने । भीमपुर नगर रतनश्रव मुने । स्वयंपुर नगर वस्या ता पास । सुग्व सुतहा ने कर विलास ॥२७७॥ मंत्री स्वयंपुर नगर कुं चले । बन उपवन मंदिर तिहां घने ।। उत्तरे वन जिहाँ श्री जिनथान । चन्द्रनषा बैठी थी मान ।२७८।। जब उनसों वह कन्या मिली । बहुत बात पूछी तसु भली ।। तू किम एकाकी हसरा ठाम । कहो कवरण अपलों कुल काम ॥२७६।। बन्नमला से भेंट चन्द्रनखा बोली समभाय । दशानन है मेरा भाय || सयल राज पर्वत शुभ ठौर । चन्द्रहास षडग की दौर ॥१८॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचं एवं उनका पथरारण ते विद्या साधन को गया । सात दिवस का वादा दिया ।। चन्द्रहास षडग नै पाय । अब प्रायसी दशानन राय ।।२८१५ विद्या सिद्ध मन वांछित भई । चन्द्रहास की प्रापति भई ।। राबरण के दर्शन माया रावण श्री जिन भौन । साव्या भला महूल सोन ।।२८२॥ मंत्रियां प्राय कियो परिणाम । देख्यो रूप लक्षण गुण धाम !! ऊंचे प्रासन वठा प्राय । रवि ज्यों सोभा बपु परताप ।।२८६।। पूछ जब धसानन कुमार । कबण काज माया भो द्वार ।। स्वर्गगीतपुर दक्षिण देश । दैत्यनाथ तहां बडो नरेश ।।२४।। ताके तनया मन्दोदरी । जाम रूप नहीं अपछरी ।। चन्द्र ललाट पै भौंह कर्बान । मृगनयनी लज्या गुन षांन ।।२८५।। मासा कीर रू सुठट कपोल । उष्ट रंग दंत सहज तंबोल ॥ कुच मुज चरण कमर केहरी । सुघर कलाई सोमै परी ।।२।। ऐसी है मूरण गण संयुक्त । हंस गमरणी नथ किरण जूगत्ति ।। तु मनि मत्त बहै सुदरी । लेहु लगन साधो सुभ घरी ॥२८७।। मन्दोदरी के साप विषाह लियो लगन मन रहस्या घनां । स्वयंपुर गए कुटंब मैं भना ।। आनंद हुमा दोऊ कुल मांझ । बाजे बा वासुर सांझ ।।२८८।। भले महूरत कियो विवाह । बहुत अडंबर करि उत्साह । भोग भगति में बीतं घडी । सुखमाने दंपति तिस घड़ी ॥२८६।। दोऊ वोक कला विध करै । अधिक प्रीत उर माही घरं ॥ मेषगिर पर्वत ऊपरि वाय । एक जोजन की है चउराइ ॥२६०।। छह हजार नप की पुत्री । षेले सरवर कपर खडी।। बसन उतार कर असनान । उझाकि वझकि सब झांक यानि ।।२६१।। जल उछाल खेल सहेलियां । गावं सरस चउ बोलियां ।। घाट बाट रखबाला रहैं । मारग चल न सब बट रहै ।।२६२।। दसानन विद्या संभारि । पहुँतो जाय सरोवर पाल ।। सगली कम्पा रही लज़ाय' । ताकू देख रही मुरझाय ।।२६३।। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० पद्मपुराख दसानन दोडि ग्रही तसु बांह | संकोचि प्रारि कछु बोली नाँहि ॥ इन सब का भरतार || २६४ ।। सगलो ही सभी तिहुँ बार एक महुरत भांवरि फिरी । वासमये भूप्रती सब तिरी ॥ कोक कला सब ही परवीन । किनर देखि होय गुण हीन ॥२६५॥ रखवाले ऐसी सुपाय कही अमर सुंदसु जाय ॥ सुनि करि नृप कोप्यो बहु भांति । सेना भेजी चार्ज दति ।।२६६ ॥ बाकू मारि करो तुम षेत् । दशानन नहीं राषी उस देह ॥ चले सुभट परवत पे गये । छीडे जांण ता सनमुख भए ।। २३७|| दमानन त चढ़ाये मौह । सव सेन्या भागी सिर नौय ॥ दशानन की वीरता नृग सौं जाय जनाई सार । वा सनमुख न चलें हथियार ||२८|| 1 पकरो वेग दिखावो नंन ॥ राजा कई अवर ल्यो सैन तब सेवक नरपति सो भनें प्रभू तुम धाप चलो तो बनें || २६६ ॥ | अमर सुंदर अमर नो वेग षट्सहस्र भूपति इक ठोर । चढे विमान चले उस यांन पद्मावती आदि जे तिरी कनक विद्युत प्रभ श्रवर अनेक || सेना का कछू नही भोर || ३००|| राजसुता देखिया निसांन ॥ दसानन सुरु बिनती करी ॥। ३०१ || तुम परि चढि माया निश्चै धार । तुम जल मांहि छिपी सवार || जो तुम जल ने तिर नवि सको तो सांतिनाथ मंदिर में सुको ||३०२ ॥ 1 1 विद्याल्यो तुम झालोपनी दृष्टि न आबो काढू तरणी ॥ जब से ढूंढ सोष उठि जांय । तब ले चलो आपने ठांव ॥ ३०३ ॥ रावण कहूँ सुनोत्रिय जैन । मैरा बल तुम देखी नयन || 1 मैं तो गरुड़ वे सर्प समान । एको सनमुख भुइँ मान ।। ३०४।। सिंह एक हस्ती संस्था । भार्ज तुरत मयंगल ठाठ || मैं तो बली सिंघ सौवाधि । मोकु सकै कौन नर साथि ।। ३०५ ।। सव में पकड करूं दहे बाट । बंध करो सब श्रोधट घाट || पद्मावती प्रमुख हम कहे। पिता आत मुझ जीवत रहे ।। १०६ ।। अवर निसंध करो सिघाउ उनकों तुम लीजियो बचाउ || दसानन सुणु तुम तिरी । उा मारन की प्रतिमा करी ||३०७ || Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुमि समाचन्द एवं उमका पमपुराण सब दल निकट पहतो भाय । राबरण भी तत सन्मुख जाय ॥ बैसि विमान गगन में गया । बहुत सुभट विद्या के किया ॥३०८।। चन्द्रहास तब खडग संभाल । मुराधावंत किये ततकाल ।। नागपासनी विद्या डारि । बांधे सब नरपति तिहूं बार ॥३०६।। मानभंग सब ही नृप किये । हार मान विनती कर नये ।। क्ष्या प्राण छोडे सब राय 1 कन्यां व्याहों मन घर भाव ।।३१०।। सकल त्रिया ले घर की चले । भान भभीषन सन्मुख मिले ।। मंदिर अंतेवरह संवारि । न्यारी न्यारी राषी नारि ।।३११।। पर नगर सहोदर : प . ताशी नह पह: i तमित माला ताक सुता । भानकुवर ब्याही शभमता ॥३१२।। कुंभपुर सो सुण्यां जब गीत । कुंभकरण नामैं सु पुनीत ।। धोतपुर विसुष सुकमल नरेश । मदनमाला नारी गुणवेस ॥३१३॥ सरस्वती पुत्री गुणवंत । रूपवत लावण्य बुधियन्त ॥ भभीषण सौ किया विवाह । भोग भुगत में करें उछाह ॥३१४॥ मंदोदरी गर्भ स्थिति करी । इन्द्रजीत जन्म्या शुभ घडी ॥ नाना के ग्रह बर्थ कुमार । देखत मोह करें नरनारि ॥३१५॥ दूजे मेघनाद भवतारि । रूपवंत ससि की उनहारि ।। कुंभकरण द्वारा अपाव कुमार लंका ढिग जम्य । पास पासि सब लूट से जाय ॥३१६१ बहुत सखी मानी सुदरी । भोग मगन माने मन रली ।। इसी बात तब वैश्रव सुनी । प्राई लहर क्रोध कंपनी ॥३१७॥ पेश्श्रवण राणा के मूत का सुमाली के बरकार में जाना लिख्या पट्ट तूस कर दिया । स्वयंप्रभ नगर सुमाली 4 गया । सोभा दूत नगर की देख । देखी स्वर्गपुरी सुविवेक ।।३१८।। जाय पहुंतो राज द्वार । मुमाली सुरत सुणी तिहबार ।। राजा पास कोक वसीठ । लिया लेख वांच्या नृप दीठ ॥३१॥ नमस्कार करि बोले दूत । निरमय जंपै ययण बहुत ।। तुम इन्द्र ते बचे थे भाग । पातालपूरी छिपे थे लाग ||३२०।। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एमपुराण वानिमित्त दिये तुम छोड़ 1 अबके पकडे मारउ ठौर ।। तुमने घुधि मारण की भई । तुमैं उपाघि उपाई नई ।।३२१॥ सोयत केटि दिया जगाइ । वा आगे जीवत ऋयू जाय ।। जो दादुर अहिमुख ते छ टि । फिर करिहै वांधी को धूटि ॥३२२।। ऐसे तुम निबसों इस ठौर । सुनें इन्द्र अब मार ठोरि ।। जो तुम अपनों जीवत चहौ । तो प्रपणे मारग में रही ।।३२३।। कुभकरण अब किया विगार । वा, बांधियो अब मार ॥ जो उस सीष हुवे इस बार । बहुरन कर प्रनीति लगार ॥३२४१। जो नहीं कर तुमारी कान । तो उस बांधि भेज द्यो मानि ।। हुँ तिस कसा लगाउं हाथ । बहुरन चूक कर किरण साथ ॥३२।। दशानन का कोप सांभन इतनी दसानन कोप । जैसें गरज कर घटाटोप ।। कहे राय सुन रेन । काक हंस होत दिलाने की मानुष इन्द्र हो किण भाति । हम सेवक है उसका गाति ।। जो मंगल गरजे मन माहिं । देष नहिं केहर की छांह ॥३२३।। तुझ पलंग डोला उपहार ! कहां गरुड तापति कर मार ।। ज्यों पतंग ते सेवं भूप । देखत मरं प्रगनि का रूप ।। ३२८॥ से इन्द्र और वैश्रवान । जेब बेग मिलें मुझ प्रान ।। तो वान छोडू जीवसा । नांतर वलिद्य दशदेवता ।।३२६।। दूत राय के सनमुख खरा । चंद्रहास खडग कर धरा ।। कंपी धरती कंप्या सूर । भभीषण उठ कहै हजूर ।।३३०॥ इस ऊपर क्या कोपो वीर । यह किंझर माया तुम तीर ।। कहे पापणे पति के बैन । या कु मारघा बात न घेन ।। ३३१॥ पर यात्रों जो मारो डार । तो अपजस होय संसार । इतनी सुनत भया मन सांत । समझाया जब सहुडै भ्रात ।।३३२।। घका दे पुर बाहर किया । वसी का भर पाया हीया ।। पगडी बांध लंका में गया । सब व्यौरा वैश्रवन सों कहा ॥३३३॥ वे तुमने पतंग सम गिनें । उनकी बात कहत न बने ।। दसानन दस सिर का धनी । अपन मन राधै अति मनी ।।३३४॥ वीस मुजा दीसे बलवंत । विद्या घणी कर परचंड । + Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाधंद एवं उनका पमपुराण भवन राजा द्वारा युद्ध बैंधवन कोप्या भूपाल । ज्यों दिया तेल अगन में डाल ॥३३५। सुरस सुभट लव लिये बुला । मरू बाजे अरु करनाइ ।। देश देश में भेज्या उकील । पाया सुभट न लागी ढील ।।३३६।। उडी घल छायो पाकास | अंधकार दीसै वह पास ।। चढि विमांग दोड तिह बार । स्वयं प्रभु नगर घेरचा सिंह बार ।।३३७! दशमुख विद्या लई संभाग्न । दोन्यू भाई लये हंकार ।। रतनसूर पलनि तुरां । ते भर की । दुहूं तरफ वानंती भूप । सनमुस्ल भये जुघ के रूप में महि तरवार चक्र कर लिया । बरधी हाथ ढाल मुख दीयां ।। ३३६॥ सूर सुभट दोऊ चा लर मूड तूटि घरनी परि पई ।। सर छूटे वारणव की मार । मानों वर्षे घम हर घार ॥३४०॥ दसानन निज कर मनमाहि । सेना झूझ मुई मनमांहि ।। केहरि रथ बैठा तब प्राय । दुरजन दसन भया संताप ।।३४१।। गदा चक्र ले खडग चंद्रहासि । दस सिर बीस भुजा हैं तास 11 धस्या कटक में मारे घने । जक्षनाथ पाया साम्हने ।।३४२॥ दोक लरं जुध के हेत । जक्षनाथ तब राख्यो खेत ।। तब बंधवन सममुख भया । वैथवन पिस ऊपजी दया ।। ३४३।। युद्ध से वैराग्य ध्रग ध्रग ए राज धग मेदिनी । विषय बेल के फल ए दुनी ।। पिता पुत्र भ्राता थी गरे । यद्रध्यान करि नरकों पदं ।। ३४४।। इह मो भाई मोसो के पूत । याकूमारे पाप बहुत ॥ इण प्रणाम करि टाढा भया । दसानन रुद्र भाव सों गया ।। ३४५!! बैश्रवण बोलें तिहं बार । जाणों ए संसार असार ।। किसका राज वोरण की मही । सुख दुख दाता कोई नहीं ।। ३४६।। माया मोहि में फिरहि अम्यांन । क्रोध मान वसि भया अग्यांन ।। तृष्णा लोभ बहु दुःख का सूल । तिनमें रह्या चिवा नंदि मूलि ||३४।। राज करत उपनं बहु पाप । मरि करि परिभव लहै संताप ।। . बली दसानन कहै विचार | हिवरगा कवरण ग्यांन को सार ||३४८।। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E४ जर तु जीव की रिक्षा करें। जती होय तो काल न टरं ॥ जो तू अपने जीव तें डरें। तो तु सेव हमारी करें | 1३४६॥ लंका हम कां तु जो देह । तो छह वर्ष तुम्हारी देह || इसलिन द्वारा युद्ध करना जो कछु बल पौष मन घरी । तो संभालि फिरि हमलों लरो ।। ३५०।। करि माडी रार ।। इतनी सुनत गहुँ हथियार । सनमुख दसानन गदा लोन्ही हाथ रथ फेरचा तब लंका हाथ ||३५१० धनदत्त विद्याधर आया दौडि । गदा चक्र धारण की भीड | दसानन फिरि कोने घाउ । दसानन बज्र कीया दाउ ॥ ३५२।। विद्याधर ने सिर सो हया । रथ तें गिरधा पुत्र ले गया || वैद्य बुलायो कीया जतन । घाव सिबा कहा कठिन || २५३ ।। सेवा करें पुत्र सब प्रांय से घाव अरु मलम लगाय || वैश्रवतें देखें चहूं घोर पडी लोभ हो सगली ठौर || ३५४ || || सेन्या सकल का भयान उपसम भाव उरमाहीं धरं । जिशावर चरण सर संभरें ।। ३५५ ।। या संसार अचल कछु नाहि । राजभोग जिम बादल छांह || पद्मपुराण जिस कारण वांधे सहू पाप । चनुंगति मांहि सौ संताप ।। ३५६|| इन्द्री सुख के कारण जीव 1 बहु अपराध चढाई ग्रीय ।। बिना काज इतना जिय मरें | किये करम टारे नहीं टरें ||३५७।। अवन द्वारा दिगम्बर दीक्षा ग्रहण लंका राज वसानन दिया । वैश्रवन भेष दिगंबर लिया || बारह विध तप उत्तम ध्यान । तेरह विध चारित्र विनां ।। २४८ ॥ तन बाईस परिसा सहै । भ्रष्ट करम निमाही दहे ॥ सारित रद्र ध्यांन करि दूरि । घरम सकल चित्त राखे पूरि ।। ३५६॥ केवलग्यांन भया तिह घडी । सुरलोकांतिक महिमां करी ॥ पायो सिनयानक कल्यांन ॥ ३६० ॥ ॥ कादि कर्म पहुंच्या निश्वान सुमाली द्वारा पुनः लंका की प्राप्ति सुमाली बैठा लंका राज । भया सकल बांष्टित काज ॥ ए सब कंबर करें मानंद समरण पूजा करें जिणंद ।। ३६१ ।। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचन्द एवं उनका पपपुराण E दसानन विमान इक रच्या । नग तिणं उरणहार संस्था ।। मदिर कनक मई सब किये। बंदनमाल रतन भय हिये ।।३६२॥ का सिंहास] प्रा . सुदंब गार बलं ।। मन कुमर शुभ रच्या विमान । भभीषण है सबारचा आन ।।३६३।। चर्ड विमान अपणे पापरणे । दक्षिण दिस नप साथे घने ।। देस देस के भूपति मिले । प्रांण मनाय विजयारध चले ॥३६॥ मारिग माहि पूजि सुमेर । चैत्याले देले बहु फेर ।। ऊपर धुजा बहो फहराय । रतनबिंव जिए का तिण ठाय ।।३६५।। सुमाली सेती फर प्रसन्न । दोउ वर जोडि बीन दशामन ।। इण नगरी का भाषो नाम । चत्याल कब ते इस शेम ॥३६६॥ मुमाली मूपति ब्योरा कहै । हरिषेण चकी छहर्षड लहै ।। उन श्री जिनके मंदिर किये । छत्री कलस रतन जड दिये ।।३६७।। हरिषेण पकवत्ति की कपा हरषेन की सूनु अब बात । उप जिरा भवण किये किरण भांत ।। कंपिला नगरी सिध्वज राय । विप्रा राखी सबै जिण पाय ॥३६८।। ताके गर्भ भया हरषेण । वाक भए हुना सुख चन ।। राणी दस लक्षण व्रत कर 1 पुन्यो दिन चाहै रथ फिर ॥३६॥ लक्ष्मी सोकि पति सौं बीन । मिथ्या धरम देव नये ।। मेरा रथ पहले नीकल । ता पाछै वाका रथ चल ।।३७०।। राणी के मन व्यापा सोग । छोडे अन्नपांन रस भोग ।। हरिषेण माता दिग गया । सब अतांत रथ का पूछिया ।।३७१।। तुम हो क्यों माता प्रणमणी। रथ पूजा सामग्री दणी ॥ कही पुत्रस्यों सब समझाय । सुनि हरिषेन पनीनी काय ३७२।। जो अब कहीं पिता सौ छैन । वर्षा उपाधिर होय कुचन ।। उठ्या कुमर गया उद्यान | सब वन दीग अति भय वान ।।३७३|| अजगर सर्प सिंह तिहां रहैं । कोई मनुष तहां भूलि न जहै ।। पुण्यवंत चित भय नवि धरै । वनमें कुमर अकेला फिरै ।।३७४।। गिरि ऊपरि संन्यासी रहै । स्यों कुटंब भेष तप गहे ।। पंच प्रगनि तिहां साधै धने । रूपवती पुत्री तिह तने ॥३७५।। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G पपपुराण नीषि झांकि देख्यो हरिषेन । भया दुहा का चारौं नैन || देखि कुमर गिरि कार जाय । तपसी याहि कुंवर जे भाय ।।३७६।। इह उनका वरज्या नहीं रहै । गिरि ऊपरि का मारग गहै ।। तब वे कोप उठे तापसी । आव गहि मावे घसमसी ।।३७७॥ कन्या देख दृष्टि पसार । तब बोली माता बच सार ।। हम इम सुण्यो साधु मुख बैरण । तू पटराणी माही हरिषेण ।।३७८।। तू देख परदेली ऊठि । निज तन कहा लगाव पोटि ॥ तब वोले हरिपेण कुमार । मतियन पं क्या गहुं हथियार ||३७६।। परवत छोडि चल्यो बन माहिं । मनमें चित वा सुर साझि ।। वन फल खाय वन ही में रहै । रात दिवस वारुण दुस सहै ।।३८०।। फूल पान सोचे साधरं । निस वितीत होवे इण पर ।। इस विजोग ते कन्नु न सुहाय । प्रांनी प्राण बिना सुख पाइ ॥३८१।। मन में ऐसी निश्चय कादरी : माता तुम म म । जब छह षंड का पाचं राज । जिणवर भुवण सधारों राज ॥३२॥ ऐसी चितत सिंध तट गया। नवी तीर सिंह ठाढा गया ।। तिहां नारि देखें सब घरी । गोरी बाल तकरणी गुरण भरी ।।३५३।। प्रौढा विरधा बहुत सुजान । भ्रमी स्वरूप देख इक तान ।। नयनह देख रूप प्रथाय । सिथल भयी निज घर न सुहाय ॥ ३८॥ हस्ती एक बहुत मद भरचा । पटा चुबै भय दायक परा ।। महावंत मंगल पर चढया । चरबी भोई प्रवर छह गढ़या ।।३८५।। घेरघा जाहि चले चिहं पोर । सारे नगर मचाई रोर ।। प्रावत वेलिर कहै कुमार | से महावत हाथी में टालि ।।३८६॥ महाबत कहे परदेसी सुनौं । मंगल मतबालो है धनों ।। प्रकुिस गिणे न माने पाणि । यहाँ नहीं फिर हमारे परिण ॥३८७।। किम करि यों का महरा फिरें । तु हाथें अलगो क्युन टरं ।। साम्है गज पाछ है नदी । कहां जाई दोन्यु विष बदी ।।३८५।। - सकल नारि देखें विललाइ । महावत गज ले पहुंच्या प्राय ।। तब हरिषेण धीरज बह दिया | तुम कछु भय चित्त नारगउ तिमा॥३८६ ।। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण ना मूळ गंवारि ।। ३६ ।। बोले कुमर रे समझ गंवार हाथी सहित तुझ मारू डारि ॥ कहै महाबत तुझ लाग्या काल । दृष्टि हो सांभल सबब कोप्यो सुकुमार । हत्ती दंत हे तिस वार ॥ लिये उपरि मस्तग सौं हुने । भाग्यो चिलचिलाय राज मनं ।। ३६१।। एक दई महावत के लात जाएं करी सत्र की घात ॥ निरमंद किया महामयमंत । राजा सुधि लाई बलवंत ॥३६२ ।। सिंहराज भेजे सब लोग । करो महोछव कंवर संजोग || बहुत करी बिनती मनुहार । भली भांति ल्यावो हम द्वार ।।३१३|| आय कुंवर के लागे पाय प्रभू " य हस्ती ऊपर चढ़यो कुमार । बार्ज प्रतिबाजे सिंह बार ||३९४ ।। छाप बाजार संवराई गली । घरि घरि काम गावें रलों ॥ सिंह मूय भेटया उर लाय । रूप देषि प्रति हरयो राय ।।३५। निजपुत्री ब्याही सिंह घरी । ताकी साथि कन्या सौ परी ॥ इक दिन बात निमित्तक भनें । इस कन्यावर हस्ती नैं ||३३६।। भोग भोग सुख से मकार नागवती चित की कुमार कुंवर भ कब बीतं स्या । चलों बेग नागवती ले || ३६७ । इम चितवन्ता श्राई नींद परयो सेज पर जारि गयंद || बेगवती विद्याधर ग्राम । कुंवर सोत्रतो लियो उठाय || ३६८ ।। 1 वर विमान लेवल्या भकास । बेगवती मन करें उल्हास || जाग्यो कुंवर प्रत्रु भय भयो । देख त्रिया कर सों कर गयो ।। ३६ ।। तू छे कवरण कहो त भाव । किह कारण ते लिया उठाई || बेगवती बोली नहीं बात । कुंवर बिचारं घालु घात ॥। ४०० ।। बेगवती कंधी तिबार हि गुनें जो डारं मार ॥ बहु करें वीनती श्राप । हुं आई कारज तुम तर्णं || ४०१ ॥ I जो तुम्ही विरासत हो मोय तो सब काररण विरास तोहि ।। सुरज उदयपुर नगर सुभथांन । सचाप राजा जिम भांग ॥४२॥ बंधुमती राणी पट धनी । जं चंद्रा पुत्री ता तणी ॥ लिख दीने बहु पंड के मू 1 कन्यां निजर न आभ्यां रूप ||४०२ ८.७ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ तुमारा चित्र सीस घरि लिया। ता कारण मैं तुम हर लिया || चलो बेग तुम करहू बियाह । मिरैं सकल हिरदे के दाह ॥ ४०४॥ सुरज उदयपुर में सब गये । राजा पास बधावा गये ! सुभ लगने व्याही सुवरी । भोग मगन में बीते घड़ी || ४०५ ॥ गंगा महींदर भूप दो भए क्रोध के रूप ॥ इन परदेसी में कन्या दई । हमारी उसने कारण न लई ||४०६।३ सेन्यां ले बल दोंडे सूर विद्याधर विद्या भरपूर सुरज उदयपुर पेरघा प्राय । हरिषेण सु कहूँ समुझाय ॥ ४०७ ।। तुम ग्रह रही हम जा लरन । तुम पाहुरगा न होवे मरण || तब हंसि करि बोले हरिषेन तुम घरि मंठि करो सुखखन || ४०८ हमरी स्युं करि हैं युद्ध । धपणां मन तुम राखो सुषि ॥ सैन साथ ले मुद्दमल भए । सुरवीर तहां जुन बहु भए ।।४०६ ।। दारुरण जुन भया भीत। हरिषेन को भई तब जीत ।। जीत्या सत्र भया श्रानंद | बाजे बजे महा सुखकंद ॥ ४१० ॥ आयुधशाला कारण भया । चक्र सुदर्शन पाया नया ॥ पूजा करि सुदरसन बंदि । चल्या चक्र जीते छह पंड ||४११ || तब आए तापस की पुरी । बारह जोयरण सेन्या परी ॥ सह तापस आये हि बार। श्रासीरवाद दे बारंबार ||४१२ ।। पद्मपुराण तब हरषेन कहे हंसि बात में हुं वह जो तुम वरजात ।। तपसी जारिण दया उर घरी । षिमा करी उन वाही घरी ||४१३ ॥ तपसी कहें तुम हो धरमिष्ट पुण्यवंत क्युं होय न कष्ट ।। वन हिंड में पुण्य सहाय । मन वछित सुख उपजं ग्राम ।।४१४ ।। पुण्य व लक्ष्मी परिवार । पुण्यं भोग लहै संसार | तुम बलवंत मति महापुनीत । तुम कौा सके नर जीत ||४१५|| सब तपस्या मिल प्रस्तुति करी । व्याही नागवसी पुत्तरी ।। पहुंते आय नगर कपिला कंठा कंपण परियरण मिला ||४१६ || मात पिता के बंदे पास रथ चलाइया श्री जिमराइ ॥ मुजं राज करें श्रानंद । ठोर ठोर देहुरा जिणंद ।।४१७।। I Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाधन्य एवं उनका पद्मपुराण राज करत दिन बीते धने । एक दिवस एक कारण बने || चढि मंदिर देखें वन भाव। देखे हिरण जुगल एकां ।।४१८ || सुरत रीत के वन में फिरें। विद्यत पात तें दीक मरें ॥ ताहि निरख जाग्यो मन म्यांन | कालचक्र है पवन समान ॥४१॥ क्षिण में व्याप करे न ढील । मोह जिरण सध्यउ कील ॥ इह संसार जल बुदबुद प्राय । पल पल भाव घटत ही जाव || ४२० ॥ हय गय विभव अर्थ भंडार । पुत्र कलित्र मित्र परिवार ॥ सबै बिस्बर थिर नहीं कोय । संपई तणां विछोहा होय ॥४२१ ।। संसार परिक्षा परिषन किया । राजरि तजि संयम लिया ॥ करम काटि पंचम गति लई । हरिषेण कथा संपूरण भई ।। ४२२॥ दोहा सुनी कथा हरिषेण की, मनमें भयो श्रानंद || दशानन को संशय मिटयो, पूजे देव जिद ॥४२३॥ चौप दमामन द्वारा जिन पूजा जिनवर भवन में उतरे जाय । प्रणपति करी दशानन राय ॥ आठ दरबस्युं पूजा करी 1 जनम सफल मान्यों विह घरी ||४२४ वहां ते उति समेदगिरि गये। रेग भई शाश्रम तिह लये ॥ हसती एक महामयमंत । द्वारह् फोरस गरज करं ||४२५ ।। लोक देख हो भगवंत । दसानन चित सोच करंत ॥ के कोई दुरजन है इह बार आया हमसों करिबा रार १।४२६ ॥ के बैन को संभाल । युद्ध करण श्राया इह कॉल || वहां सेती उटि लीनी सुद्ध | हायो देखि विचारी बुद्धि ||४२७|| कुसुमादिक विमाण परि बँटि | आपण जो हस्ती हेठ || सात है उदर गयंद । दस धनुष लंबा वपु छंद ||४२६ || नव धनुष ऊंचा गजराय । ऐसापति साम राषै भाव ॥ दसानन उटि ऊभा थथा निकट कर्ण के संख बजाय ॥४२॥ संख सब्द गिरिवर गिरिपडे । वरती कंपी जलहर ढरं ॥ हस्ती भागो सांकल तोहि । दसों दिसा में मांची सेर ||४३०|| 1 ८ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण भई भंडा की रोमावलि खटी। हस्ती के जिस पलभल पड़ी ।। तब गयंद भाज्यो चिधार । दसानन चरण गह्मा तिहबार ।।४३१।। दर गया पती गम्यः जागिरि गिर गया । पकडि दांत झकझोरा धन्या । बमुष्टि कर ताकूहन्या 11४३२।। निरमद कीया प्रजा समान | सुख पाया कुदेव जन आंन । पोह फाटी र भया परभात । गजपलारण मार कर जात ।।४३३।। तब इक किंकर पहुता प्राइ । सोर्ट धरा सिर पाग बगाय ।। दसानन सिंहां उभा रहा । कहो किंकर तू किण दह्या ॥४३४॥ तासु बचन पूछ बलवीर ! कहो बात चित राखो धीर ।। कोण काज पाया मो पास । तेरा मन की पूरू प्रास ।।४३५।। संखावलो किंकर कों नाम । सेन्यावली का सूत इसा ठाम ।। इन्द्रप्तरणा किकर कही एक । तिए लीधी लंक कर टेक ।।४३६॥ लोग तुम्हारा दिया निकाल । सूरज रज अच्छर रज पाइ मार ।। में तुमारा बल के परताप । वे दोन्यु चहि दोडे माप ।।४३७।। दो सुवोड जुघ मति भया । वानर बंसी दल कटि गया ।। रहे सूरज 'रम प्रच्छर रज । किया जुद्ध राषी तिहां लज्ज ॥४३॥ जम की सेन्यां करी संहार । जम सन्मुख माया तिहबार ।। सूरज रज के मारी गदा । रथ ते पद्धया भूमि पर तदा ।।४३६।। अलंका में ले गये उचाइ । मिल मिल गावाब सिंचाइ ।। अब वाकु कुछ भई उसास । जम दे है लोकां ने पास 11४४०।1 नरक सात सो राया इन्द्र । तहाँ माणस गख्या करि वृन्द ।। संका विजय तिस कारण आया तुम पास । तुम चल दूर करो दुख त्रास ।।४४१ ।। इतनी सुरिण सब सेन्यां दही हंकार । किषंच पुरे पहुंसा तिण बार ।। बाजे मारू माची रोर 1 किवंदपुर देख्या दक्षिण पोर ||४४२।। बैतरणी अरसाती नर्क । बंदी वान सह उपसर्ग ।। रखवाले वैये तिहां घने । धंभ वांषि करि पिजर हने ।।४४३।। दशानन बंदि छोडि सब दई । संपोट कनें ए बात सब गई। मुणित वात कोप्या संपोट । दशानन में प्रपडू पग रोप ॥४॥४|| Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचं एवं उनका पमपुराण सूर मुभट सब लिये बुलाय । घढ़ि पाया लड़ये के भाय । वभीषण माय फिरचा अडवार । दोवू दल गुरघा तिह बार ।। ४४५३ संप्रोट भभीषण में कहै । अव तू मोतें सनमुख रहै ।। तोकु सही भभीषण नाम । जीवत पडि बांधि ले जाउं ॥४४६।। वभीषण की सेना बहुमरी । दशानन भी पाया तिह घरी ।। चन्द्रहाहांस लीया संभालि । संपोट का दल किया संहार ||४४७।। संपोट भाज गया जम पास । बोले वचन मुख लेंइ उसास ।। जम सांभलि ली सौं बात । वयो कोप केहर को जात ।।४४८।। जम की साथ चले सामंत । सेनां नहीं लामैं अंत ।। चढि पाया बाजिन बजाय । कुभकरण भभीषण सनमुख प्राय ।।४४६।।। दूहुधा सुभट जुझ रणमाहि । उडी रेणु मानु भई सांझ ।। दशानन द्वारा युद्ध दशानन पाया जण ठाव । युध भेद समझ सव दाड़ ।।४५०।। दस सर बीस मुजा बलवांन । दुरजन मारि कोये घमसान ।। जम इनके सन मुख ह्र बरपा । सर लाग्या रथ से गिर पडया ॥४५॥ सोतक नाम जम का इक पूत । लोग पिता की उठाई तुरन्त ।। लोथ राष करि किरणही मोम । स्थनूपुर गया इन्द्र के ठाम ।।४५२।। ध्यौरा सकल इन्द्र सौं कह्या । जमने मारि देश उन लह्मा ।। दशानन नाम महा बलिवंत । देखत ताहि प्रां ह्र भंत ॥४५३॥ बीस भूजा कहिए दस सीस । जाकी कर न सके कोई रीस । सुणत बात कोप्या जिम सिंह । साथि सैन भट लिये अभिन्द ।।४५४ । देस देस तें लिख फरमान ! दूत पठाया पतुर सुजान ।। सबै नरेन्द्र बुलाये राय । जोतकी पूणे तुरत बुलाय ।।४५५।। विद भरी जोगित बुलाय । हिब चलस्यो तो होसों हार ।। कहै इन्द्र अब निवाल्या बार । जो फिर जाऊं नगर सभार ।।४५६।। तो सूरिमा पनौं नवि रहै । मांनी हारि सहु कोई कहै ।। पुरुषा सब समजार्थं बात । वतीस दांत नहीं मानुहार ॥४७॥ अंतहपुर में फिर गया इंद्र । सौय बुलाय कर पानंद ।। जम फिर माया इंद्र के पास । पुत्री दई रूप गुण पास ॥४५८।। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण जम भेज्या सुरगतिपुर देस । खुसी हुए सब भूप नरेस ।। दसानन नगर लिये सब साघ । इन्द्र सुतिन झांडी उपाधि ।।४५६।। त्रिकुटाचल रतनश्रव राज 1 मनबंछित का हुवा काज ।। किकंधपुर सूरजरज दिया । किषपुर राज अच्छरज लिया ।।४६०।। सुमाली मालिवान दोऊ लंका घी सुभ साता तमु भाई घणी ।। सेवा कर वे तीनु वीर । लह्या सब सुख पाय सरीर 11४६१।। छत्र सिंघासण घामर घने । बहत गयंद डोर के बने । हम गय रथ पायक असवार । मेहल पढ़या देखे नर नारि ।।४६२।। लाल जवाहर डारें मम । सगली सोभा वणी अनूप ।। पहुंचे गढ लंका में जाय । बजे निसांग गुणी गुण गाय ।। ४६३॥ सब कुटंब भेट पागलै लागि । असुभ करम समले गये भाग ।। इतनी कथा कही जिणराय । धेणिक मूप सुणी मन लाय ।।४६।। सोरठा श्री जिण घरम प्रसाद, वृद्धि भई परिचार की। पायो लंकाराज, राक्षसबंसी जग तिलक ।।४६५।। पति श्री पमपुराणे दशग्रीव विधामक सप्तम विधानक चौपई गाली सुप्रीव वर्णन किषिधपुर सूरज रज भूप । इन्द्रमालिनी नारि सहाप ।। बालि पुत्र ताकै उर भया । चरम सरीरी रूप निरमया ।४६६।। रसनमाला गर्म भया सुसीव । जानै घरम करम की नींव ॥ दिन दिन बढ़त सयाने भये । विद्या पति पंडित अति थये ।।४६७।। राजनीति का जाणे भेव । मनमें जमैं सदा जिणदेव ॥ सदा रहे हिरद में शान । सम्यग दृष्टि निश्चल ध्यान ॥४६॥ सूरतिवंत पराक्रमी घने । दुरजन कप नाम के सुने ।। किषपुरी मच्छर रज राय । हरीवांत प्रिया सोमं पट ठाइ ।।४६६।। प्रथम पुत्र जनम्यां नल नाम । दूजा मील दया का पाम 11 चरम सरीरी उजली देह । महा पराक्रमी घरम सनेह ।।४७०।। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समारंच एवं उनका पपपुराण सूरज रज उपज्या वयराग । राजरिष सगली ही त्याग ।। बालि कुमर प्रति सोप्या राज । सुग्रीव ने कियो जुवराज १४७१।। राज्य प्राप्ति परहितमोह मुनिवर के पास । दिपा सई मुक्ति की प्रास ।। राजा बालि प्रतापी खरा । रामावली प्रस्त्री में बरा ॥४७२।। ताते व्याही सौ और | तात अधिक बिराज ठौर ।। विजया मेघपुर नाम । ता पुत्र परदूषणा नाम ।।४७३।। चन्द्रनषाने बाहै हरथा । निसवासर संका में षडा ।। वसानन कुंभकरण तें हरै । भभीषण का भय चित्त पर ।।४७४।। दसानन गया जात्रा मेर । परदुषण माया तिह बेर ॥ पनिषा हरि पच्चा विमान । लेकार भयो भापती थान ||४७५।। भकरण भभीषण दो वीर । असी मुनि परजले सरीर ।। मन मांहि ते कर मालोच । अन्नपान छोड़पा मन सोच ।।४७६।। रतनश्रवा पर नरपति घने । कहें कि धार्को गहि कर हने ।। सेन्मां जोडि विजयास चले । दसानन पावतां मारग मिले ।। 6.७७।। सभिलि चन्द्रनषा की बात । कपी देइ पसीना गात ।। इतनी सेन्या का क्या काम | एक ही कर ते करौ संग्रास ।।४३८ छिनमें मारि सब परलय करो । उनपरि कहा षडग बापरों ।। मन्दोदरी सीष इम भनें । केन्या घर राष्या नहि बने ।।४७६।। उत्तम कुल उनके भी षरे । चौदह से षेचर उरण घरे ।। विया सहस है बाके तीर । साहसवत महा बलवीर ।।८०11 जो तुम वाकी डारो मार । तो विधवा होसी बहण तुमार ।। तब बाको दूषण अति होय । तुमने मला न कहसी कोय ॥४८१।। अज जो षिमा करो तो भला । सेवक करि पा चला। जो तुम जुष करण का पाउ । तो अब बालि सुग्रीव परिजाउ ।।४८२।। उनको दिन बीते हैं घने । न करें सेव हुकम तुम तने ।। माग्पा मानं नाहीं बाल । बेग जाहि इह टालो साल ॥४८३। दसानन सूनी विया सों कहै । जो वे मुझ प्राम्या में रहे ।। . हूं उनकी नहीं मानू संक । वे हम सू कहा करि हैं वंक ||४८४।। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपपुरास वहरि भणे मंदोदरी वन । सुणु' कथा चित्त राषो चैन । पाताल लंका चंद्रदपि रहै । अनुराधा राणी सुख लहै ।।४।। चंद्रावधि सहजै मरि गया । राणी तब वनवासा लिया ।। बनमें भया पुत्र परसूत । बलिनामें लभरा संयुक्त ।।४८६।। विद्या सौख भया बहु गुनी । अपने मन राख प्रतिमनी ॥ वालसमीप मिल्या बल प्राय । दोन्यू रह प्रीत अधिकाइ ।।४८७।। ऐसे सुरिण करि भेज्या दूत । और बात मति लिषी बहुत'। पहुंच्या किषंदपुर जिहां बालि । पत्री ताहि सौंप वरि हाल ॥४८॥ दसानन सम भूपति नहीं और । जाके बस को नाहिं मोर ।। तुमारे पुरखाने दई भूमि । वे सबा करले ताव मूमि ॥४८ तुम भी मांनु उनकी आन । ज्यों ए रहें तुम्हारे प्रान ॥ अब तुम साथि हमारे पलो । श्री प्रभा कन्यां ले मिलो ||६०! ज्यौं तुझ देश परगने देइ । प्रादर सहित नगर में लेह ।। बालि नरेस कहै समझाय 1 में पद नमूं जिणेश्वर राय ॥४६१|| कैसे ताहि नमांक सीस । मेरे बडा पर्छ जगदीस ॥ दूगा नै प्रणामू किस भांलि । मै भगवंत सुमरउं दिनराति ।।४६२।। उह असा है क्या बलबान । मुझने वचन कहै इस भांति । जो हूं संक उपरि पढि जार्ज 1 मारौं उलटि सब उसका वाच ।।४६३।। उठां कोय चल गहे तरवार । माउ दूत मिलाउँ छारि ।। भव वल का कर पकरं वाल । दूत न मार को भूपाल ॥४४॥ योह बल निज पति का वैन । प्राया हमें संदेशा दैन । धका दिवाय' कर दिया निकार । गया दूत फिर उतनी बार ४६५॥ सकल बाल ब्योरा सौ कही । तुय तें तिण सम मान नहीं । लंकपति सेना सब टेर । देसपति साथ लिये तह वेर ॥४९॥ युद्ध वर्णन चाल्यो दल छायो पाकास ! पहुंचे किकंधपुर के पास ।। बाजा तब बाज्या बहुजोर । गाम घेर लीन्हा चहूं पोर ।।४६७॥ रालि भूप नै भई संभार । नल नौल पाए जु कुमार ॥ सूर सुभट सब एकठे किये । हय गय रथ वाहन वह लिये ।।४६८ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाब एवं उनका पद्मपुराण चढ़े कोपि जिस पर केहरी । देवत ही सब की सुधि हरी ।। राने चुकत्र दुरी । मुहं : 1र र सुजान .NETI हाथ गह्या नांगी तरवार । दुहंध पई बाण की मार ।। बरसी हाथ धनुष सर लीये | ताकि मारे अरियर के हिये ।।५००। कोई सुभट गदा कर गई। तब सागर मंत्री इम कहै ।। पंडित गुनी अधिक सुशान । बचन बालि प्रति जप मान ।।५०१॥ सैन दसानन की है घनी । तुम हो एक नगर के धनी ।। उन सगली जीती है मही । वा समान कोई षेचर नहीं ॥५०२।। चन्द्रहास जो मार षड्ग । तो तुझने ह बहुत उपसर्ग ।। इतना जीव मरै रण मांहि । घर पर सोग बध दुखदाय ।।५०३।1 इन जीवा को क्या ल्यौ पाप । अब तुम षिमा करो प्रमु पाप ।। नालि कहे मंत्री सुरिण बात । देखि जु इण लगा हाथ ।।५०४।। सब सियाल मिल इकठा होम । एक सिंह नबि जीत कोइ ।। इणका काल लिष्या इण ठाम । मारो ओर मिला नाम ।।५०५।। मंत्री फेर वीनतो करें । वाकी सर भर क्यों बल पर। ज्यों मनुषां केहर में गहै । पिजर माहिं परवस दुख सहै ।।५०६।। वह तुमनें पकाई करि घेर । तातं करो छिमां इस वेर । बहुरि बालि मंत्री सों कहै । सूरापन षिमा त न रहें ॥५.०७।। मप कहै इन मांनी हारि । चरचा इम पाल संसार ।। मस्तक मैं नाउं भगवंत । मुरिण 4 वरत गयो इण भंत || ५०८|| वालि द्वारा दीक्षा ग्रहण जो अब जाइ भिलु तजि जंग। तो हो मेरा व्रत भंग ।। सुग्रीव ने सौंप्या सव राज | पापण फियो मुक्ति की साज ।।५०६।। गगनचंद्र मुनि पास जाय । दिक्षा लई मन बन क्रम काय ॥ बारह अनुप्रेक्षा चित धरै | मास उपास पारण करें ॥१०॥ तेरह विष पाले चारित्र । जीत्या क्रोध लोभ मंद सत्र ॥ बाईस परीसा सहै सरीर । मन वच काया राषी पीर ॥५११।। निस दिन चिदानंद लिख लाइ । विद्या सिद्ध भई तब प्राइ ।। बल अनंत विद्या गुरण देर । भू उलटत नहीं लागं वेर ।।१२।। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापुराण मा के चित्त दया का भाव । ना कल हरष नहीं विसमाव ।। धाम उपदेस सुरण भवि लोक । मुनि सार्च निस वासर जोग ।।५१३।। करि बिहार पहुंते कैलास । दरसन किया मुगति की प्रास ।। वारहविध लाथा तप ध्यान । बाहर भ्यंतर उत्तम ग्यांन ।३५१४।। सुग्रीव दशानन पास गया । श्रीप्रभा सुविवाह कर दिया ।। पटराणी थापी सिंह घरी । पाछे च्याही घणी प्रससरी ॥५१५॥ सुग्रीव ने सौंप्या निजपुर राज । सो फिर कर भूप का काज ।। नीलकमल विजयारघ देस ! तिहां रहै नील कमल नरेस ।।५१६।। श्रीदेवी राणी तसु गेह । रतनावली पुत्री सुभ देह ।। दशानन ब्याही रतनावली । भोग भुगांत मान बह रली ।।५१७॥ रगानन को कैलास मंदना ह्वात बैंठि करि चले विमाण । गिरि के लास परि थाप्यो अनि ।। तन मन सोच कर दशसीस । मंत्री भणे सुणों नर ईस ।।५१८।। गिरि कैलास बहत्तर देहुरा । तीन चोंबीस रतन विंच परा ।। वंदनीक हैगी इह ठौर । या समान तीरथ नहीं और ।।५१६ बालि की तपस्या इण ठां बासि तपस्या करै । तिण कारण विवाण नहीं टर ।। सोभनीक तिहां वृक्ष उतंग । फलत फलत बिराज रंग ।।५२०॥ चिमक सिला मानु रवि किरण । दरसरण कीयां दुख का हरण ।। गंगा नदी चले तिहा धनी । उजल वरण सोभा जक बनी ।।५२१।। दसानन फोप्या तिहबार । जाणे परवत लेउं उखार ।। उलटो गिर सायर में देउं । निज बल तशी परिक्षा लेउ ।।५२२॥ उतरचा पाप भूमि पग दिया । त्रोथ प्रति चित्त में किया। चढि परवत पर पहुंतो तहां । करै वालि मुनिवर सप जहां ।।५२३॥ साहि देख करि भौंह चढाय। हथेली काटई दांत चबाई । निठ र दयण मुख सेती कहै । तू यो ही देही क्यों दहै ॥५२४।। तेरे मन का क्रोध न घटया । जैन धरम कछु तप करि सटा ।। अहंकार ते मनमें धरा । मेरा विमान रह्या जो परा ॥५२५।। अव तू देख कहा मैं करौं । परवत सहित सायर संचारों ।। जो त सिष पाई कछु भली । मब के बर्च तो जाणों बली ॥५२६॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंब एवं उनका पयपुराण प्रेसी भांति कहैं वहु बोल । मुनिवर साधैं तप अडोल ॥ ग्यान लहर में बैठा जती । राग दोष मन में नहीं रती ।।५२७।। पाया पर्वत के तरहान । सुमरत विद्या ठाढी भई मान ।। एक महरत एक घडी । विग पाई सकल तिहां गरी देह वेगु प्रभु प्राशा, प्राज करां जिका फरमानो काज । निज देही तब कीधी वडी, सब विद्यो वाक संग घड़ी ।।५२८॥ गरी एक गदा गिर थांन । भई षातिका कूप समान ।। दसानन गया तब पाताल । गिर उठाय लिया ततकाल ॥५रहा। छन्त्र समान उठाया सीस । भुजा उंचाई उंच बीस ।। केपी धरती हाल्पा रुस्न । ऊंची पई परवात की कुष ॥५३॥ हस्ती घोढा करें चिंघाद्धि । डरप केहरि खाइ पछाइ । पंथी उसे हले तरु डाल । मानु आया परलय काल ॥५३१॥ अंधकार दोसै चिहुं भोर । चली नदी जल परवत फोर ।। बाली द्वारा चिन्तन मति श्रुति अवधि मनपर्यग्र ग्यांन । बालि साध तव कर विचार ॥५३२।। अवधि प्रमाण करि पित ध्यान । दसानन हैं या परवत ठाम ।। तिण उपसर्ग किया इत प्राह । कहा पाश्चयं मुझ लूट काइ ॥५३३॥ एक बार है मरण निदान । तात सोच न करिये पान ।। होणहार नहीं टारी टरै । विकलप ण कारज नहीं सर ।। ५३४।। वाल साप इम करें विचार । मुनिवर यां तप कर विचार ।। वे मुनि केवल लोचन सार । मति श्रुति अवधि मनपरजय कार ॥५३।। कंचनमय अमष्ट्र देहुरा । रतनलिंब अनसंख्या करा ।। गिरि उपर निबस यहु जीव । रब नै दुख भाप दसग्रीव ।।५३६॥ यह मुझ नै होसी अपलोक । इण परि बनि कर मन शोक ।। मुझ न मच्छ ए तो पराक्रम | इसको तुरत गमाउं भर्म ३५३७।। दया निमित्त में लीघा जोग । अब इण पर मुझ वण्पो नियोग ।। जो हूं उस पर कर कषाय | तो मुझ तप सहु निरफल जाइ ।।५३८।। अपने जीव का भय नवि करी । प्रवरा तणो सोच थित धरी ।। पर उपहार कर जो कोह । ताको कछु वन दूषन होइ ॥५३६॥ इम चितवी अंगुठा टेक । भई विद्या ईक विद्या एक ।। बीस भुजा सहि सके न भार । ज्यों ज्यों दबई स्यों कर पुकार ||५४०॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ तब लग नहीं टूटे दस सीस । बो व्याकुल हूँ कीस || fies पापी करं पुकार । ह्रां तें कोई न सकै निकार ||५४१ ।। मैं बहुत न निकसे कहूं । अव हूं किल पर मारग गहुं || रोवें राष्या करें पुकार | विधवा भई हम मांग मंभार ।। ५४२ ॥ मुणिवर के मन भाई दया। चरण उठाइ भूमि ते लया || रावण द्वारा बाली की वंदना तब रावण छुटा सिंह घरी मान भंग प्रस्तुति करी ||१४३।। गयो श्राप तिहां बैठा जती । ताकै लोभ न वपु एको रती ॥ तप प्रतापसौं दिपं देह | चिदानंद सेती प्रति नेह ||५४४ || जैसे लं पाणी की कार जैसा मोक्ष मारग अहंकार || रावरण तीन प्रदक्षिणां दर्द । नमस्कार करि समता भई १५४५ ॥ तुम महंत धरम पर मीत । तातं घरी धरम की रीत || मैं पापी मूरख यांन पडघो मोह फंदा में प्रान ॥ ५४६ ॥ पाप करम में किया प्रथाय । तें दुख किम करि मेटघा जाय ॥ I दीक्षा लेने के भाव पद्मपुरा अब तु मो प्रभु दिक्षा देह । वांह पकड़ अपनी ढिग लेह ॥ १४७ ॥ चंद्रहास तब दीनों डारि । गदा गोमती सब हथियार । मुकुट सीस तें हारा तोडि । विद्याभरण दोने सब छोटि ११५४८ ।। कपड़े तनके डारे फार मन वैराग्य धरथा लिह बार ॥ बार बार बोले आधीन ॥ १४६ ॥ करी वंदना चौबीसी तीन तुम भगवंत हो तारण तरण मैं दीक्षा ले सेकं चरण हूं आयो प्रभु तेरी सरण ॥ मेरे होउ पापों का हरण ।।५५०१ प्रसरण कंप्पा घरणी देय । सठ सिलाका होइ न छेह ॥ इनका सा अर्थ नियोग । भुगतें तीन दंड का भोग ।।५५१०१ भैंसी चितप्राया कैलास पूजे श्री जिसा मन उल्लास || रावण सुधरनेन्द्र हम कहे । तेरे दया भाव चित रहे ।। ५५२ ।। तैं तो भगति करी मन लाई । मैं सुखि घरभ भाया इस ढाई । जो तेरे मन इच्छा हो । मुझ वै मांगि लेह तुम सोइ ।। ५५३ ।। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभांचंच एवं उनका पपपुराण रावण विनवे मांगु यही । करू तपस्या जिण पद मही ।। छोडु सकल राज का मोह । पग बंधन है माया लोग ॥५५४॥ पुत्र कसिक न संगी कोइ । संपय तरणां विछोहा हो। ऐसा ये संसार सरूप । नटवत भेष करै बहु रूप ।।५५५।। जौनि फिरचौ चौरासी लाख । समकित की परतीत न साख ।। तो इह भ्रम्यो सकल जग बीच । कबहूं उत्तम कचहूं नीच ।।५५६।। मनमें कबहं नायो सांच | विषय किये भर इंद्री पांच ॥ इक इंदो सुख भुगतरण हार 1 ते भवमें दुख सहँ अपार ।।५५७।। पांच इंद्री विषय संयुक्त । सेवत पामें दुख बहुत ॥ पांच चोर काया में रहे । ए जीतें तब सिव सुख लहै ॥५५८।। भरणेन्द्र द्वारा शिक्षा तब बहुरि वोले घरणेन्द्र । तुम राजा पृथ्वी के चन्द्र । तुम बिन दुख पावेंगे लोग । चौथे पाश्रम लीजो जोग ॥५५६।। मैं पाया म तेरे पास । मांगि सिन ज्यौ पूरू पास ॥ दिन को ज्यों धिमकै बीजली । वरवं मेह पुरै मन रली ॥५६॥ देव सरण जे भेटे माय । ये दोन्यु निरफल नहीं जाय ॥ रावण जपं सुणि धरणेन्द्र । देह देव जो तुझ उर विन्द ।।५६१।। सक्ति वारण रावण प्रति दिया। ताका भेद गुण समझाइया ।। जाके हिये लगै यह पारण । ताके गुण का इहै परमारण ।।५६२।। एकरण ऊपर होइ जाय । बह जीव नहीं विसही उपाय | धरणेन्द्र देव गया पाताल । रावण मन में भयो विकराल ।।५६३॥ एक मास परवत पर राधा । चित में घरम जिवंसुर गहा ॥ समझा परियण सब माय । मंत्री कहे ग्यांन समझाय ॥१६४।। प्रब फिर चलो करो निज राज । तुभ बिन विग. सगरे काज ॥ ज्यारि दान तुम दीज्यो नित्त । पूजा करि पालो समकित ।।१६।। गंयण पहंतो लंक नरेस | कर राज सुख पाय देस ।। बालि जती लहि केवल ग्यांन । परम प्रकास गए निरवाण ।।५६६।६ इति श्री पप पुराणे बालि निर्वाण विषानकं ।। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निगति का विवाह नयम विधानक चौपई कोतपुर नगर हुतासन भूप । हरियल राणी महा स्वरूप ॥ प्रतिगति पुत्री तार्क उर भई । रूप लखन करि सोभै नई ||५६७ || चित्रांगद राजा के साहसपति पूत । साहसीक वहु गुग्ग संयुक्त || इक दिन दृष्टि पडी अतिगता । देखत बढी काम हम लता || १६८ ।। जाय पिता से बिनती करी । हुतासन की व्याई पुत्तरी ॥ राजा ततक्षरण भेज्या दूत । लषी वीनती बचन बहुत ।। ५६६ ।। मेरा पुत्र बहुत गुणवंत । जाकेँ बल पौरष नहीं अंत ॥ प्रतिगति पुत्री तुम या को देहु । मेरा बचन मान प्रति लेहु ॥ ५७० ॥ अवर दूत भेज्या सुग्रीव । वानर वंसी प्रति उत्तम जीव || राजा सोच कर मन माहि । पुत्री समझि दीजिये काहि ।।५७१ ।। मुनि चद्रस्वामी पं जाई । नमस्कार करि लग्यो पाइ ॥ मेरे मन संसय भयो भाइ । उभय दूत पठिए ई राइ ||५७२|| पपुराण I कन्या किसकी संबंधिनी । अबधि विचार के भाषो मुनि ।। बोले मुनिवर ग्यांन बिचार सुग्रीव की हैं श्राव पार ।। ५७३।३ व के साथ विवाह साहसगति की हैं अल्प श्राव । कन्या देहे सुग्रीव कुठे भाव ॥ राजा का संसय मिट गया । मंगलदार सुग्रीव सूदया || ५७४ || पंच सबद बाजे ति बार बांभरण पढें वेद भंकार | रहसरी सू भयो विवाह । दोउं कुल में बहुत उवा ||१७५ || भए बिदा किकंधपुर गया। दंपति करें भोग नित नया ॥ भया पुत्र इक गर्भ धनंग दूजे अंगद लहर तरंग ।। ५७६ ।। महाबली है दोनू वीर । पराक्रमी अरु दिव्य सरीर ॥ साहसमति के हिरदे वाह । प्रतिगत सुग्रीव ले गया विवाह ।।५७७॥ । खलबल करिके बाकू हरू । मनबांछित सुख तासों करू ॥ जब लग प्रतिगति भेटू नाहि । तब लग रहि है मुझ मनाहि ||५७८ || हेमांचल पर्वत पर गया । विद्या हेत तपस्वी भया ।। रावण साधे सकल नरेस | भांग मनाय किये वसि देस || ५७६ 1 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण वरण द्वारा इन्द्र से युद्ध करने का विचार दुरजन रह्या नहि किए ठाय । इद्र ऊपर त भई बठाइ ॥ देस देस से आए राय । परदूवण मन विया दाव ।। ५८० || अंसी बार रावण में जाउं । वासु मिले मिर्ट अंतराम ॥ भली भांति मिलने का बले 1 चड देस भूपति संग भलै ।। ५८१ ।। रावण सुणि खरदूपरण बात । महा सुख मान्यां दण भांत || भली बार परस मा ती भाइ मिले गल लाइ || ५६२ || बढि सव भ्रम चले विमाण | बोझल भया श्रवभरि ।। बाजे बाजे बुरं निसारण 1 हस्ती गरजे मेघ समा ।।५८३|| एक सहल छौह्न पर एक एक सहस सुर दल की टेक 1 पुष्प विषां परि बैंठा आप । मनमें जपै श्री जिनेस्वर जाप ।। ५८४ | सुमरण किये मनबंधित सिघ । सुख संपति पाव बहुरि || रबि अस्ताचल प्रोझल भया । परवत पर इनौ बासा लिया ।। ५६५॥ ज्या परि पोइ सब भूप । शशि उडगरण की जोति अनूप ।। भयो प्रभात उठे सब लोग नोबत बाजं हवं प्रयोग ||५६६ ॥ I गावै गुलियन राग बहोत । रवि की भई किरण उद्योत || रावण बैठा कंचन पाट । विरुद वषां जाचक भाट ।।१८७।। कंचन कलस नौर सुभरें । करि सनांन फिर सुमरण करं || तुरी पलाण भये प्रसवार । रमवाताल गए तिह बार || पाल मनोहर निरमल नीर । हंस आदि पंषी बहु तीर ॥ जलचर जीव बिराज प्रोर । पंछी करें कुलाहल सोर ॥५६॥ बैठक छत्री चाट | मंदिर बण्या बीच घरि सूत । किंकर आइ बात जो कही । मैं देषि हैं उत्तम नहीं ||५६०११ तिहां तुम प्रभृ उतरो जाइ । सुख पावे सेना तिरा ठाय ॥ ममती नगरी है तिहां । मानसरोवर सोमं जिहां | ५६१ ।। तार्क निकट रावण उतरभा । सकल सैन सों वन वह भरघा ।। डेरा सोभै सुरंगी रंग। माभूषण सोभं प्रति चंगि ।। ५६२ || सहस्रम राय सरोवर माहि । सहसनारि संग कर उछाह ॥ दीसे लोचन जेम कुरंग । श्रीडा करें भूप के सग ।। ५६३ ।। X Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ चौकी बैठी घाटी घेर । कोई न असंकं सिंहं बेर ।। जलक्रीडा सरोवर बीच। पेस राणी माची की ||४६४ ॥ अंजलि मरि भरि नीर हिरा 1 राजा लीने कमल उषारि । मारे उने मनावें हारि ||५६५ || कोई रुठि रहे मुष मोरि । ताहि मनावं भूप बहोरि ।। विविध प्रकार की क्रीडा करी । गावें मंगल सब मिलि तिरी ॥५६६ ।। रावण द्वारा जिन पूछा अपने मन निरभय बरे । रावण पूजा ने चित घरे || सामग्री पूजा की सोज । निज यांनिक साजा करि चौन ।।५६७॥ भष्ट द्रव्य स पूजा करें। श्री जिनवाणी मुख उपरं ॥ जल धारा का इह विचार । त्रिया दोष मिट संसार || २६६|| वेसर चंदन जिरा ए दले । भय प्रताप मिटे संपए ॥ पहुप चढाव जिस प्रतिबिंब / सीलन टरें रहे गन थंभ ।। ५६६।। उज्वल अक्षत पंडित नहीं। इस विथ पूजा कीजे सही ॥ नेवल भाल चढाव परे । क्षुध्या श्रादि दोष हरे ।। ६०० ।। दीप चढा रतन सम्मान । निश्व पायें केवल ग्यांन ॥ धूप सुगंध निमित्त । आाठ करम जर जावें अंत ॥। ६०१ || पद्मपुराण फल जु चश्चार्य बिरस पद पास पावैं मोक्ष तरां भावास || विनयवत भारती करें। ऊछले जल रावण किंग परे ।। ६०२ ।। सा निडर इहां नहीं कोह || रावण के मन चिता होइ । उन कछु करी न मेरी कांणि जिनवर के डर करघा न जारि ||६०३ ।। प्रव देखउ हूँ हो तुम जाइ । बेगि बांधि प्ररिंग इस ठांइ ॥ गई बस तिहां पेले राय रखवाला वरजं मति नाम ।। ६०४ || सूर सुभट भीतर घरि गये । वाकु देखि अचंभित भए । तू इस तें हिव नीकलि मूहि । में तो भब पाया दुडि ।। ६०५ ।। तु प्रय चल रावण के पास पास जो चाहे जीवण की भास || और जो त मन रात्र भर्म | देख जु भव करू " है कर्म ॥ ६०६॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुमि सभाब एवं उनका पपपुराण रावण का सहलरश्मि से युद्ध राजा निकल्या अल ते दुरि । आभूषण पहरघा भर पूर । शस्त्र बांधि कर भया तयार । सुर मुभट सब लिये हंकार ॥६०७१। ऐंसो वात रावण पं गई । सैन बहुत तिन प्रापण लई ।। मिले परसपर मांडी राह । जैसा सू तसा कर मार ।।६०८॥ सेना झझि दोऊ थी मरी। रावण पाया वाही घरी ।। अपणे भागते देखे जोग । सहस्त्र रश्मि के कछुवान सोग ।।६०६।। फिर संभासि करि धीरज दिया। मार मार शब्द बाहु किया ।। रायण के सन्मुष होय लरं । दस सिर का पछु भय नदि करें ॥६१०।। धनुष गला सर छोडे घने । निरभय होय सर्च ही हने ॥ रावण मनमें भचिरज धर। मेरे प्रागै जम से टरै ॥६११।। यह वा बीस है स जी । काई झुमारे रे । २० धनुष ताण करि मारचा वारण । रुधिर चाल्या बारा पर मान ।।६१२।। तब रावण इस्ती पर प्राय । सहस्र रश्मि नै मारै पाद ।। दोउं वाथांकाथ जु लरें। हस्ती त घरणी पर गिर ॥६१३।। कबह ऊपर कबहू तल । महाबली ते इसपर लरें। बहुत लोग रावण के पाय । सहस्ररश्मि ने बांश्यो राइ ।।६१४।। चाकु भेज्या लंका बांधि । मारग घलत लिया नृप साथि ।। रजनी भई लिया विधाम । सुम्न सेन्या सूते उस ठाम ।।६१३॥ बाजे प्रातं समै बहु बजे । सबद सुनत सब का मन रजै ।। रावण उठ सामायिक विया । सिंघांसरण ऊपर पग दिया ।। ६१६।। राजा प्राय करे नमस्कार । मुकटबंध के भूप हजार ।। सतबाहन मुनि द्वारा उपवेश सतवाहन मुनिवर तप सूर । अनंतबल है रिदि भरपूर ।।६१७।। पा लोंग मुनीश्वर जात । सहस्ररश्मि की भाषी बात ।। रावण तुमारा सुत बोधिया । वंदीखाने ले कर दिया ।।६१६|| सुपी पुत्र की चिता पर्स । उनी माया सब की पगिरि ।। फिर कहु दया भाव मित लाम । मुनिबर : रावण पं जाय ।।६१६ ।। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ रावण साध को दरशन देपि । सफल जनम मानो बहुलेष || उतर सिघारण करि इंडोत । रावण प्रस्तुति करी बहुति ||६२०|| सकल सभा कीनों नमस्कार | धर्मं वृद्धि दीणी तिरणबार || सिंघासण ठाण्यां मुनी । वैयावत कीधा नृप घनी ।। ६२१ ।। हम प्रा थे वह मकारि । विधनां पूरी इच्छा हमार || तुम प्रभू हम पे करतारश्च किये। तुम दरसन सुख पायो हिए ।।६२२।। अब सेवक प्रति प्राग्या देहु । ज्यों मेरो भार्ग संदेह ॥ किरण कारण यो कियो गमा । स्वामी वचन तजि भाष मौन ||६२३|| कहैं साधु तुम सुणु नरेस | मानों तुम म्हारो उपदेस || सहस्ररश्मि नें छोडो राज । या कारण श्रामा इस ठांव || ६२४ || पद्मपुराण 1 रावण कहै सुरो प्रभु क्षी मोषविि जो तुम श्राग्मा देते मोह में छोडतो प्रभू श्रत्र तोहि ॥ ६२५|| आपण कीधे षेद | मायाजाल कीये सब भेद || मुनिवर बोलें चित्त विचार । सकल जीव मेरे इकसार ।। ६२६ ।। तुम दया हेत श्राया तुम पास अभयदान दीजे सुषवास || रावण कहै सुरण मुनिराह । हमसे सकल मिले ग्रुप श्राइ ||६२७|| सहस्ररश्मि प्रति कोनी मनी । मिलन न आया सामनी ॥ हम पूजत है श्री जगदीष । तउ उन प्राया नमाया सीस ||६२८ ॥ जल उछालि डारघर ति ठाव । मोकु चढघा क्रोध का भाव ॥ लोग बंदाया उसके पास । उग तो कश्या प्रांण का नास ||६२६|| तब मैं आप वेग पाया। हमसौ घरणां जुध तिरए किया | मैं इसनें लीया था जांषि । तुम आया थी छोड़ साथ ।।६३०।। बेड हांस ले प्राए तिहां रावण भूपि । नमस्कार करि ऊभा भया। बहुत भांति करि स्तुति करी की काटि । प्राभूषण दीने मन घाट || राजसभा में दिप अनूप ॥६३१ ।। रावण सलहैं पोरष किया || । इसा चाहिजे रण की बढी ।।६३२ ।। या सम सुभट न दूजा कोई मो सौं सनमुख लक्ष्यां न कोइ ।। मेरा भय कg fee न घरचा । मेरे सन्मुख श्राखा लया ।।६३३ ।। . Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुरा 1 इसने करि सेनापति | सबतें याहि चढाऊं रती ॥ रावण अस्तुति कोनी घनी और सराह करे सब दुनी ॥ ६३४ ॥ सहस्ररश्मि की बिरदावली । एक एक की कीरत भली ॥ राज मन तं भया भन मंग । बहुर न करों राज सौ संग ||६३५|| सबै विरणासी राज विभूति । हय गय लछमी अस्त्री पूत || जे में केल करी जलबीच । तो तो मोकू ऊपजी थी मींच ।। ६३६ ।। सहस्ररश्मि द्वारा मुनि दीक्षा अब हूं दिया जाय । करों तपस्या मन वच काय ॥ रॉबरण जंप सुनहु नरिए ने पयराग नया रूबल ३ धरणेन्द्र मोकू समझाया फेर कियो प्रथ्वीपति रय फेर ॥ तुम बालक जोवन भरि देह । क्यों करि तपस्यों घरि हो नेह ||६३८॥ जैन घरम दुष्कर है घना गुमि सेज करिश्यों पोळणां || बाईस परिस्या कैसे है। क्षुधा त्रिपा दुख तन को हैं ।। ६३६ ।। अब तुम राज को प्रापणां छह रितु दुख परावोगे धरणा ।। श्री जिनवाणी निश्चय ध्यान । दान च्यारि दो सक्ति समान ॥ ६४० ।। सब नारद में तू सरदार । निरभय पालो राज द्वार ।। श्रीप्रभा मंदोदरि की बहन 1 करो व्याह जे हुने दुख दहन || ६४१ । ब बहुत प्रकार समझाय । वाका मन न चलें किरण ठाइ ॥ सतवाहन पं दिक्षा लई । जनम जरा की संकर गई ।।६४२ ॥ १ नगर प्रजीच्या पूरव देस । सहवकिरण तहां अणे नरेस || सुखी सहस्ररश्मि की बात । पुत्र राज महष तीई भति ।।९४३ ।। १०५ आपण लई दिक्षा उस जाइ । श्री भूप प्राया इस ठयि ॥ अभिनंदन सुत ने दे राज | आपण कियो दिगंबर साज || ६४४ || रावण सु उत्तम क्षम करी । भावत केवल विध्य को परी ।। प्रतिम ध्यान लगाया जोग | पार्श्वये पंचम गति भोग ||६४५५ इति षी पद्मपुराणे सहखरश्मि म विष्यनकं २५६ ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ वसु राजा दशम विधानक चौप सरोवर निकट किया दोहरा । श्रादिनाथ रचना सों परा ॥ वीस विन जिरण प्रतिमा किये। भई प्रतिष्ठा चचं नये ॥ ६४६ ॥ पद्मपुराण देस देख तें ये लोग । चलि श्राये बंदर जिए जोग || नरपति नाम बहुत तिस मिले । श्रादर भाव किये तिल भले || ६४७।। सगला नें दीन्ही ज्योणार । बहु वित्र कीये व्यंजन सार ॥ अष्टद्रव्यसुं पूजा करी । पंडित पढी जिनवाणी परी ||६४८ ।। यज्ञ मेर की चर्चा दीन दुखी जन दीनां दनि । सव ही का राष्या सनमान ॥ धरम जुगत कीनी तिहां घनी घरम तीर्थ की सोभा वरणी || ६४६॥ श्रेणिक राजा स्तुति की। यज्ञ भेव भाषो इस घरी ॥ श्री जिवाणी अगम प्रबाध । पूजित है प्राणी को साथ || ६५० ॥ गौतम स्वामी कहै अस्थाइ | बारह राभा सुगा मन लाय ॥ नगर अजोध्या राजा सुप्रतिष्ठ । श्रीकंता रांशी समदिष्ट ।। ६५१ ।। वसुत्र पुत्र जनमिया कुमार । क्षीरकदम की सोभा सार ॥ स्वस्तिमती बाकी मस्तरी । परपित पुत्र भया सुभ घरी ।। ६५२ ।। तीज शिष्य नारद [तिहां पढ़ें । तीभ्यां की बुधि दिन दिन बढे || चार मुनिवर निकसे श्राय । कहैं बात अप सदभाव ||६५३ ।। मुनिवर जपै छन महला एक जाय जीव नरक में विवेक ।। वीर कदम सुरिण कीया सोच । छुटी भई शिक्षा झालोच ।। ६५४ || वं प्रप मन मांही रली । पीरकदम जिय श्राई भली ॥ चल्याउनु के पीछे लागि । पहुंस् थाएक पूरा भागि ।।६५५ || नमस्कार करि विनती करी। प्रभु मोहि दिक्षा दीजे शुभ घरी ॥ तुम संगति पंचमति लठ्ठे । चरणकमल ढिग तपस्या गहुं ।। ६५.६ ।। क्षीरकदम बैठ्या धरि मौन । परवत पुत्र घरकु किया गौन ॥ स्वस्तिमती तब कहें रिस्याइ । पिता साथ छोयो कि भाई ||६५७ ।। I I 1 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुमि सभाचव एवं उनका पपपुराण और बार पोथी ले कांख । तो पिता घापणि दिग राखि || तब बोले परवत समझाय । मोहि अगाउ दिया पठाय ।।६५८।। जहां दुचित जोर्व बाट । हां उन ब्यौल्याई मन पार ।। रयण मई माया नहिं गेह । चिता पापी उनकी देह ॥६५६।। प्रात भयो उठि चास्यो पूत्र । पिता तगी चटसाल पहूत ।। वहाँ नहिं देच्या मागे गया ! बनमें पाया भोन गहि रहा ।।६६।। कहै पिताजी चलिये गेह । भयो दुचित कुटंब दुस ह ।। इनतो माया मोह सब तज्या। सुत वास पाया घर भज्या ।।६६१।। सम्र व्रतांत जननी प्रति कह्मा । सुणी बात मात दुख सहया ।। खाय पछाड कर बिललाट । परदत पासि धुणे ललाट ।।६६11 तुम जोगीश्वर नत घरी । हमरी मित' कछु नहीं करी ।। वाका ध्यान निरंजन लम्या । बोल फिसही कोण का सगा ।।६६३।। नारद का प्रागमन फिर पाये घर बहुत उदास । नारद ग्राया गुरुनी पास ।। गुरणी में समझा बात । नदी नाव ज्यौं फुटंब संघात ।।६६४। उतरे पार विधुर सब गये। अहसै संग परातम भए । सुपने केसा इह संयोग । छोडि दिया संसारी भोग ।।६६५५ तातें करो मति कछु श्री सोग । भयानंद मुनिश्वर माधं जोग ।। सुप्रतिष्ठत भूप प्रजोध्या धनी । क्षीर कदंब की जबउ न मुगी ।।६६६।। वसु पुत्र में सोप्पा राज | झापरण किया सुगति का साज 11 पाल परजा बसुध नरेस । निरभय राज कर भुवनेस ।। ६६७11 नारद सम्यग्दृष्टी मुनी । एरवत थारा मिथ्या धनी ।। दोक प्ररणा शास्त्रन पढ़ें । परमत मन में पोटी गर्दै ।।६६८।। घरचा कर यज्ञ अर दान । पंच महाव्रत हुँ विधि जान ।। पंच अणुव्रत धावक करै । महानत जोगीस्यर घरै ।।६६६।। पंच समिति प्ररु तीन गुपति । प्रलाईस मूल गुण संयुक्त ।। किया चौरासी पाल सदा । छह रितु सहै बाईस मापदा ।।६७०।। मछम बादर जेते जंतु । दया भाव स्र ष संत ।। बारह अनुप्रेक्षा सु बिचार । भवसायर तें उतर पार ।।६७१।। पन क्रिया जुनावक करें। च्यारि प्रकार धान विस्तरं । पूजा कर सामायिक दान । छह दरशन का राखै मान ।।६७२।। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1०८ पापुराण चल्याल कर प्रतिष्ठा भली 1 संघ चलावे मन की रली ।। तब परवत द्विज असे सही । च्यारदान है,नाही सही ।।६७३।। बारव एवं पर्वत के मध्य चर्चा तब पूछ नारद फिर बात । कोण दाग दीजे किरा भांति ।। बोले विप्र दाण ए सही । कन्या गउ अर दीजे मही ।।६७४॥ सत्री दांन मंदिर सतखना । सोना रूपा जवाहर घणां ।। मज गण महिष प्रश्व को होमि । प्राशुष भली संवारं भौमि ॥६७५।। गडहा भाँडा खौदै परे । मच्छ कच्छ तामें ले धरै ।। पंडित विध वेद धनि पढे । सकल जीव अग्नि में डने १६७६।। मांस प्रसाद बांटि सब खांइ 1 जज्ञ किया बैंकूला जाई ।। नारद मुनि समझाय लाहि । २ उमस नरकात भाइ ।। ६७७।। जीव हतर भषंगो मांस । उनकी कदे न पूरव प्रांस ।। नीच गति वेहै भ्रम है धनी । ते दुख वरग सकं को मुनी ॥६७८।। बोले विप्र होम क्यू होह । हत्या करत उर जो कोइ ।। नारद कहै होमिए अचित । लगै दोष जालिये सचित्त ॥६७६।। प्रज कहिए छह बरस का घांन । हग गुरु मुखस्यो यों वखांन ।। ते हम होमैं अग्नि मझार । जिस का दोष न लग लगार १६८०।। परवत कहै अज कहिए वोंक । नारद मण में प्राण सोक ।। दोन्यू कहैं बसु नृप की साष । चरचा कर सभा में भापि ॥६८१।। जिसकी भूपति मान सांच । जिसका वचन सब मानं पांच ।। जे हारे रसना द्वं पंह । पैसा मंडया बाद प्रचंड ।।६८२।। दोन्यु पहुंचे राजदुवार । नरपति था तब महल मझारि ।। फिर आये थे पापणे गेह । प्रात भए पूछेगे एह ।।६८३॥ परबत कही माता सौं बात | नारद करसी दाद प्रभात ।। मैं अज कह्या छाले का नांव । वह छह बरसी धान कहाव ।। ६८४।। जो हार राजा की सभा । तिसकी जीभ होयगो प्रभा ।। माता सुरिंग करि मुंडी घुन । करी नपूती सुत सों भने ।।६८५॥ न तो झूठे बोल्या बैन । पहया कूप में देषत नैन । जो क्यों जीव कूप मझारि । राजा तोहि डारिहै मारि 11६८६॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुगि समाचन्द एवं उनका पद्मपुराण ते जे उपाई पाप की बुधि । मो तन मूलि गई सब सुधि । मोहि कहा था राजा बोल । जो कछु कहुं वस्तु प्रमोल ॥६७।। मनवांछित मांगों से लेहुं । मिधानी जी प्राज्ञा देहु ।। तब में वचन लिया निरधार । जन चाहं दीजो तिह वार ।।६८८|1 स्वस्तिमति द्वारा वसु राजा से वचन मांगना पब मांग राजा पं जाय । म बचन तें लेह हुडाय ।। स्वस्तिमती राज। पं गई । अादर मान राव बहु दई ।।६८६।। बार बार पूछ कर जोरि । कैसे कृपा करी इस ठोर ॥ मिथाणी बोल समझाय । मेरी दक्षिणा दीजे राय ।।६६०| वेग अंजुली गाणी लेहु । अपरणा वचन कह्या सो देहु ।। राजा तब अंजुली जल मरघा । मांगो जो चित भावं परा ॥६६१॥ परवत तणी कथा सब कही । तुम बिन सरणांगति को नहीं ।। उसनें सांचो करो नरिद । पुत्र भीख मुझ यो भवनींद ।।६६२।। राजा सुणि करि मी हाथ । बारपार घूणं निज माथ ।। इण मिश्राणी मुझन छल्या । इण यह बयण न भाष्या भला ।।६६३|| झठ न्याय जो राजा कर । निश्च अधोगति नरकं पड़े ।। वचन दीया फेरु किस भांति । असे सोचत बीती रात ।।६६४॥ आया नारद उठि परभात । परवत चल्यो कहु तुम बात ।। राजसभा में दोन्यु गया 1 ग्यांन चरचा में वाद तब भया ।।६६५।। राजा कहै बचन बसि काज । परबत्त कहे सुमामों राज ।। धरती फाटि सिंहासरण धस्या । तब नारद राजा प्रति हंस्या ।।६६६।। मपति अजहू न्याय विचार । झट कहे सिर बांधि है भार । नृप बोलें परवत रूप देषि । सिंहासस धरती में प्रेषि ।।६६७॥ मारव का वचन नारद बोले सुनि हो राव । असत्य वचन का देखो भाव ।। वे ही वयण बोले भूपाल । प्रासण सहित गया पाताल ||६६मा। घसु भूपाल नरक में जाय । सहै दुःख तहा बिललाम ॥ झूठ श्रवै अरु कर भन्याव । ते प्राणी बहुते दुख पाँव ॥६९९|| सगली सभा प्रथम भई । बहु फटकार विन न दई ।। पापी दुष्ट पाप का मूल । राजा तणा भया ए सूल ||७०॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्धपुराज राजा मुंह देखी जो करै । नरक निगोद सदा दुख भरै ।। परवत द्वारा सन्यास परवत ने अति वढ्या कलंक । छोड़घा नगर लोक की संक ।।७०१॥ संन्यासी पे दिक्षा अई जाय । पंच अग्नि साध मन लाय ।। देही छोडि हुवो वह देव । अवधि यिचार पाप के भेद ।।७०२१। पोरस बरस की देही करी । कंध जनेऊ धोती परी ।। गोपीचन्दन वा दस तिलक । राने नयण सो भयो पलक ।।७.३॥ पोथी को गिर जटा लग्नास । असा धरा देव में भाव ॥ मेरा मुखतं निकली बात । मैं अब कर जगत विख्यात ।।७०४।। विप्र संन्यासी वेद पढाई । वह विध प्रकट कर सब आई ॥ पाप भेद भण जे विन । पाप वुधि में भए विचित्र ॥७०५॥ माक्त राज संवत रिविस्वर राजगिरि का । राजा मरुत समोध्या आई ।। कहींक जज्ञ करो तुम एक । वडा रचाउ गुगल अनेक ।।७०६।। सकल जाति के प्राणों जीय । रालो बांधि उणां की ग्रीव !! मोडा खाडा खणवो बडा। तिहां उनने हीमै भरि षडा ।। ७७७।। वहै जीव पावैगे सुर लोक । होसी जस तुम नही हो मोक्ष ।। होम जज्ञ विधि राजा वी । दस देस ने दोन्ही चिठी ।।७।। सव कुटंध वाभरण सब चसे । देस देस के भूपति मिले ।। जज की ठाम पहुंते प्राय | च्यारों वेद पढ़ें तिहिं ठाय ||७०६॥ नारद कथा श्रेणिक पर्छ नारद की कथा । इसका पारण माता पिता ।। ब्रह्मरूचि ब्राह्मण परमातिरी । संन्यासी की दिक्षा धरी ॥१॥ दंपति पंच अगनि करि जोग ! ताबई मान मनका भोग | कंद सूल का करें अहार । माई गरभ थिति परमा नारि १७११६॥ मुनिवर तत्र पाई निकल । देख्ने दंपति जप तप तिहाँ करें। मुनिवर वात धरम की कही । जन दोन्यां मिस जिय में धरी।७१२॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पमपुराण बैंस नर कोंब नहिं डार । बहुरि कर नहीं अंगीकार ।। जे जोगीस्वर माया गहै । परिग्रह बहुत लीयां ले रहै ।।७१३॥ जिसका जनम प्रकारथ जाइ । अंतकाल पीने पछिताम ।। सिरणा मात्र न परिग्रह लेह । काकी सब कोई उपमा देइ ।।७१४।। जे तुम जोग करो धन तजो । माया छोडि जिनेस्वर भजो ।। ब्रह्म रुचि का संसप मिट गया । स्त्री त्याग दिगंबर भया ३७१५। परमा कहै मोहि विक्षा देहु । जैन धरम पालों परि नेहु ॥ बोले मुनिवर ग्यांन विचार । गर्भवती नाह ले दीक्षा सार ।।७१६॥ तर वह स्त्री बन में ही रही । दसपास पूरण निरमई ।। नारक का जन्म भया पुत्र नारद रिष मुनी । माता मनमें सौच घनी ।।७१७।। मैं दिक्षा लेकर तप करों। अवर न कच्छ चित्त में धरौं । मा का निमित्त हाय सो सही । मेरे माया मोह कल नहीं ।।१८।। पानां मांहि लपेट्या पुत्र । तरु तलि म्हेल्या लक्षण संयुक्त ।। इन्द्र मालिनी प्रजिका पं जाय । लीन्ही दीक्षा मन बच काय ॥७१६] वहाँ बालक नित वधै पुनीत । पुन्या के कछु होय न पित्त । पुन्य रिक्षां कर सब कोइ । अगले पुण्य सहाई होम ।।७२०।। जंबक देव जात हो चल्या । थक्या विमारण न हात हल्या ॥ अवधि विचार सुर मत माहिं । नारद मुनि हैं या वन ठांहि ।।७२१।। देव आय करि लिया उठाय । विजयाद्ध पहुंचाया जाय ।। गुफा बीच ले राष्या वाल । देव करें ताकी प्रतिपाल ||७२२।। नारव का जीवन विद्या पढि पारंगत भया । वृहस्पति का सा लक्षण लिया ।। आकास गांमनी विद्या पाइ । भीड देष करि राजगिर जाद॥७२३॥ मनमें सोष करवि प्रापणं । इनमें लोग मिल क्यों धणे ।। कोण परवया मगर मझार । भीड़ जुडो क्यों इतनी बार ॥७२४।। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ पापुराण नारद मुनि देखें धरि ध्यान । ब्राह्मण बहु बैठो लिहिं यांन । बहु तपसु जिहां राषे धेर । होम ज्ञिया चाहे तिहि बेर ।।७२।। तिहां नारद मुनि पहुंला पान । जटाजूट घोती तरहांन ।। कांघ जनेऊ पोथा लिथे । हाथ कर्मबल फीची किये ॥७२६।। देव शब्द वाता संस्कृत । नारद जांनि द्विज आदर कृत ॥ नमस्कार कर सब लोग । वंदनीक सब पूजण जोग '१७२७।। संवृत में पूछया वृत्तान्त । जीव जंत क्यों घेरे भ्रान्त ।। भण विन इए को ह्रघात । अग्नि बीच हौमैंगे प्रात ।।७२८।। नाम का उपदेश नारद मुनि विप्र सों कहे । मारचा जीव नरक दुष लहै ।। दया भाव सर्वज के बैन । दूषन दीजे देवत नैन 11७२६।। सकल पातमा प्राप समान । सब की दया कहीं भगबान । संवृत द्विज नारद प्रति भने । रूप रेष अरु सबद न जिने । ७३ ।। उन सरवज्ञ किम श्रापी दया । तू मुरिस कल भेद न लिया ।। नारद बोल सुनि विपर अज्ञ । रूप न रेख जैन सरवश ॥७३१॥ पाए मेद ए तो किए कह्मा । जिसके कहैं वेद तुम ल ह्या । महा अनर्थ लिखा जिहं बीच । अंसा करम करें नहिं नीच '७३। ब्राह्मण कहे ब्रह्मा का ग्योन । जिन सब रची सृष्टि परवान ॥ ए सब पशु होम के काज । अह्म वचन महकिया साज ।।७३३॥ नारद मुनि फिर उत्तर देय । जे ब्रह्मा सब सृष्टि करेय ।। ते सब हुए पुत्र समान । वाने दहन क्यों किया बधान ७३४।। पसु तृणचारी है वनबास । इनके जिनका न करिये नास ।। त्रिषा भूष धूप ए सहैं। ऐसे दुःख छहाँ रितु लहैं ॥७३५।। तिनको कहा कीजिए घात । हिंसक है विडाली जात ।। जीव बद्ध ते मुक्ति न होय । प्रापण पाप करें जे कोय ॥७३६।। पारी गति में सह संताप । जब वे प्राणि उदै व पाए !! मन वांछित नहीं पूजे भास । मंदर दारिद्र तर्ज नहि पास ॥७३७॥ * गयंदनी माणस जग। तुरी गर्भ हसती गति वर्ण ।। गदही उदर तुरंग प्रसूत । तो हत्या से मुक्ति संयुक्त ॥७३८॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाघर एवं उनका पमपुराण ११३ राजा वसु ने लेहु हंकार 1 नरक छोडि पाव इस बार ॥ ह्या ते उठि मुकलि नै चलें । तो जग दाह जागौं मैं भने ।।७३६।। नारन पर उपवर्ग जग्य करपा राज मनवसीकरण 1 विषय पंच इन्द्री का हरण ।। संतोष विन नै दक्षिणा दई । केश लोचनां क्रोध करेई ।।७४।। ध्यान प्रगनि मैं जाल कम । इस विष होम किये है धर्म 14 विप्र संन्यासी उठ्यो रिसाइ । नारद परि सब पाए धाय ।।४।। कोई मूकी कोई लात । नारद मुनि सारयो वह भाति ।। नारद के मन उठयो अहंकार । गही सिला सब उपरि मार ||७४२॥ बे भनेक इहां एक सरीर । इस विध परी नारद पर भीर ।। पकड लिया दोल परब ! सास जलास माथि १७:३।। पापी मिलि दुख दिया बहुत । रावण का तिहां प्राया दूत ।। देखा वाडा पसू अति जीव । नारद ऋषि की बांधी ग्रीव ।।७४४।। सो देखि उपसर्ग सो पाया फिरपा । देख पाप मन कोप्या खरा ।। हिंसा धरणी कही नही जात । रावण सों कही रिष की बात ।।७४५।। रावण द्वारा मारव को सहायता करना रावण सेना तहा पठाइ । कही मरुस ने बांघो जाइ।। बाजै मारू दौडे सूर । दसों दिसा सु रही भर पूर ||७४६।। बाडा तोडि पस सब छोडि । नारद ऋष के बंधन तोद्धि । राजा मरुल बांधि महै लिया । विप्र संन्यासी घका दिया ।।७४७।। भाग्या प्रेसी रावण दई । ए सब मारो पानी सही ।। ए पापीष्ट पाप का मूल । दया भाव इण के नहीं सूल ।।७४८।। इनहि मारि पोउ अवषोज | फेरन होय पाप का चोज ।। जीव विपास बतावै घरम । अंसा करें मीच का करम ||६|| इनके मारे का नहीं पाप । ए जीवा में मारे ग्राप ।। मारिइनन परलय करू । इनहि बैंग तुम पहबट कारखं ॥७५०।। नारद मुनि चित मायी दया । रावग में उपदेस इम दिया ।। ए वांभरए उत्तम कुल भले । रसचा लंपट कुमारग चले ।।७५१।। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ श्रादि पुराण में इनका भेद । सुखी भूप हूं कहीं न भेद !! नाभिराय के रिषभकुमार तिवासी लख पूरब राज संभार ।।७५२ ।। ऋषभ वर्णन रही प्रांष पुरवल एक इन्द्राणि ॥ ए हैं प्रथम तीर्थंकर देव । इनतें चलई घरम का भेव ॥ ७५३॥ ए माया में रहे मुलाम । मन वैराग्य उपजे किह भाय ॥ एक अपरा थी परवीन । जाकी श्राव घडी वोय तीन ॥७५४ ।। पद्मपुराण राज सभा में नाची भली । देश नृत्य उपजी मन रली ।। निरत करत तहां पूरी लाव | खाइ पछाउ परी मुषि ठाव ॥७५५ ।। बोले भूप उठाबो याहि याकी बेग गहों तुम ह । मंत्री कहैं यह पातर मुई। तत्र छोडघा सब पृथ्वी का राज भर दिया अजोध्या राज । यार सहस राजा भए संग वन मौनि गही जिनराज । राग चिमक चिल भई ।। ७५६ ।। आपण चले घर के काज || बाहूबल पोयापुर साब ।।७५७ || दया भाव चित सहर तरंग 1" राजा भवर उठे प्रकुलाइ ।।७५ ८ ।। भूख हमासी सहियन जाय । जो श्रपणे घरि चलिये बाह्र || तो फिर हमें भरत दुख दे | अँसी मनमें वित्त घरे ॥७५६॥ वन फल खाई पो नीर । जोगी संन्यासी तप सहे सरीर ॥ एक हजार वरष गए बीत । श्री जिण उपज्या केबल चित्त ।।७६० ॥ केवल वाणी संस्य हरे । ताहि सुरत भव सायर तिरं || भरत बाहुबलि बंड । जिन भूजवल साधे तु षंड ।।७६१ ।। लक्ष्मी जुडी भरा मंडार । जिसका निरपत न भावपार ॥ गिर कैलास शिखर देहूरा किया। रतनविय संवराया नवा ।।७६२ ।। तो भी लक्ष्मी पार्ट नहीं । दाण देख इच्छा मही ॥ कोई न सेन दोन ने आइ । तब वामल कू थाप राय ॥७६३॥ आदिनाथ स्वामी पे गया । ब्राह्मण का ब्योरा सब का || रिषभ देव की वारणी भाई । वह उपाधि तुम थापी नई ||७६४ ।। जैन घरम के निंदक होंइ । पाप उपदेस कहेंगे लोइ ॥ भरत भनें इन करिहूं दूरि । सय को मार गिराऊं मूल ।।७६५|| Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनि सभाव एवं उनका पद्मपुराण श्री भगवंत चित्त दया दिहाय । सकल ब्राह्मरण दिये छुडाय || चौया षरण जगा सेती हुआ । घोढा वेद एव थापा जुवा || ७६६ ।। सुभूमि चक्रवति किये संधार । तपसी महत्त भये तिहार । तद तें फेर भये उत्पन्न । छोडो इन ज्यो पावो बस ।।७६७३ बामरण छोडि दिया ततकाल । विनयवंत बोले मस्त भूपाल ।। रावण का कनक प्रभा से विवाह कनक प्रभा पुत्री गुएएमई । रावण प्रति विवाह कर दई ७६८|| एक वरस इस वीत्या ठाम । राजा मरुत ने सुख के भाव ॥ कनकप्रभा के भई प्रसूत । चित्रा पृथ्वी लक्षण संयुक्त ।।७६६ ।। हेमांचल गिर रावण गया। भूपति सकल प्राय करि नया ॥। हैमांचल परवत रमणिक । ता विग भूमि खरी सोभनीक || ७७०|| महल करण की इछा करी । सब मिल समझायें मंतरी || ह्या के रहें परदेसी नाम । नाम लंका है पुरखों की ठांम ।।७७१।। ह्या के बसें न कारज होइ ॥ । देखें रूप सराई भला || ७७२ ॥ उनही लोक जाणै सब कोइ तब फिर को मारग को चत्या राजगिर नगर में निकम आय देखें रूप रावण बहु भाइ 1 कोई अदारी देखे नारि । भाषि झरोखा ऊबी द्वार ७७३। कोई गली कई बाजार । सबै किये सोलह सिगार || पुरुष रूप देखें सब लोग बहुरि सराहे पुण्य संजोग ।। ७७४ ।। जिणपद नगर जैसे नरेस । रावण ने जीते सब देस ॥ मिल्या मगाव प्रस्तुति करी । पुत्री व्याट्ट दई सुंदरी ॥७७॥ रावण मनमें बहुत उल्हास प्रजा सुखी इम देह असीम देखें नमर सकल चिहुं पास || शवरप जीवो कोडि वरीस ।।७७६ । बहुत दिवस बीते इस गाँव सकस लोग मन भया उढा । जे बहुरो चसे आपण ठाम || बड़े रहते बोभास ||35:1 उदर पूरा कर वे लोग । यो के भयो गयो वियोग | प्रसाद बढी दोषज श्री घडी की मन इक्षा बरी १७७८ ॥ ११५ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापुराण वरषा पाठ दिवस की झडी । चतुरमास की छविण करी ।। सवहीं की पुगी मन पास । रावण भुज भोग विलास ।।७७६।। रहे सतण महान भावास जोगह हिप का मास ।। राग रंग गावं मल्हार | मंवरष प्रति पन हुन धार ।।७८०।। मोर भंगार पपीहा रटो । चउघा मंडी काली घटा ।। विजुली चिमक गरजै घना । पैसा सुख रावण नै बन्या ।।७।। भाद्रपद के व्रत कोई नठाउं भीजत जाइ । कीचड माहि बहुत दुख पाय || भादो मास धरम का शान | पूजा दणी सामग्री आरण ||GE२॥ सोलहै कारण का दस कर । दया अंग निस वासर धरै ।। पूजा रचना मैं बीत घडी । चरचा कर जैनमत खरी ।।७५३।। दस लाक्षरण का पाल अंग । बहुत वरत धारी ता संग ।। चंदवा तणां बहुत देहुर । रंग सुरंग बिछवणां कर ।।७।। रतनय वस पाल लोग । मन वच कामा साधे जोग 1। पूरणवासी पूनिम चंद । रहस रली मनमे पानंद ||७८९॥ सब ही में दीनी ज्योणार । बहुत बीनली कर मनुहार ।। पुण्य प्रसाद अधिक सुख भया । बेस देस सुख भुगत्या नया ॥८६॥ इति श्री परमपुराणे राजावत अस विधानकं ॥ चौपई वशम विधानक रावण को कन्या का मधु के साथ विवाह रावण मन में समझ ग्यान । कन्यां वेसकर भई प्रमान It उत्तम कुल कोई देख कुमार । करो काज सुख घरी विचार 11७५७।। बहरै कक इन्द्र नर दौड । कैसी बात बाइक भोरि ।। कन्या व्याह करि नीवरू । मन घष का संसा परिहर ।।७८८।। मंत्री देस देस कौं चले । पुरपट्टम सब देखें भले ।। माये मथुरा नगर मझार । हरिवाहन नृप माधवी नारि ||७८६।। मधून पुत्र महा बलवंत । स लछन छवि शोभायंत ।। सम्यग्दृष्टी महा विचित्र । नाम सुणत सब कांप सत्र ॥७९॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंच एवं उनका पद्मपुराण मंत्री देख भया उल्हास विधनां पुरवी मनकी प्रास || हरिया सुळे ही समुझाय 1 मधु कुंवर ने देहु पठाइ ||७६१|| रावण पासि चला तिह बार बरी हाथ ही हथियार मंत्री चतुर अधिक प्रसदार ॥ वाके गुण का अंत न पार ||७८२|| रावण पास जब गया कुंवार | नमस्कार करि करधौ जुहार ॥ अधिक रूप देख्यो भरि नंन । सुभ मंत्री विनवे सुभ चैन ॥ ७९३|| हरिवंसराज 11 बरखी दई देवता सिस । दुरजन देख भनेँ भयभीत || ७६४|| या सनमुख कोई रहे न सूर विद्याधर देखिर माजें दूर ।। से गुणवर बीर के बड़े । जिहां लग चाहैं सिहां लग पड़े ॥७६५ ॥ सेव तुमरि वित्त में धरी । माया सेव करण इस घरी ।। रावरण देख किया बहू भावः । टीका किया अधिक मन चाव ॥७६६।। भनी घडी सुभ दिन साथिया । मंगलाचार कुंवर का किया || सोना दीनां अगर अपार । भांति भांति की करी यार ।।७२७ ।। मधु चित्रा समये सुभवार मगन रहे नित भोग मकारि ।। मुख में बसं मधुपुरी देश । हरिवंसी सुख करें प्रसेस | ७१८ | | मधु का वृतान्त ११७ फिर श्रेणिक पूछें करि जोडि । मधु की कहो मुझ बात बहोडि ।। देव मधु क्रिम हुवा नेह । ज्यों मेरा भाजे संदेह ||७६६|| तब श्री जिस की वाणी भई। सब के मन की दुविला गई ।। धातकी द्वीप रावत क्षेत्र धारा नगर तिही राय सुमित ||८०|| १८०१ ॥ विभवी नाम ब्राह्मण पुत्र दोच्यु विद्या पढ़ें विचित्र । ब्राह्मण पुत्र प्रधिक श्राबीन । पद्मा गिरघा करणका लै बी fte प्रति भिक्षा मांगिर खाई। जैसी ही विष काल विहाय ।। राय सुमित्र विद्या था बॉल राज बैंठि तुझ करूं मोल ||८०२|० बैठ्या राज तबै सुष भई । बहुत विभव ब्राह्मण ने दई ।। आप वराबरी वभिरण किया। राजा बन क्रीडा में गया ||८०३ ॥ घोडा छुटया भील की पुरी । वन देख्या सब सुध बीसरी ॥ तिहां राजा भीले ने तथा । व्याही वनमाला सुख लह्या || ८०४ | Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ | मास एक बील्या तिए देस | फिर माया निज नगर नरेस || ब्राह्मण सुरिंग राज्या प्रति मिल्या 1 देखी बनमाल' चित चल्या ||६०५ ॥ जो ऐसी में भोगलं त्रिया । तो सुख मानो यह चित दया || या के अधिक विद्याप्या मैन | तिस बासर देही नहीं बंन ॥ ८०६ ।। कामल ब्रह्मा हर तप टरचा । तप सब खोइ चतुर सुख करघा || संकर नांच्या गदा कर ल्याइ । तप खोयो रसनारि लुभाय ||८०७|| कामबंद है प्रति बलवंत । धन्य जिको जिन राख्यो दंड ॥ ब्राह्मण छीजै दिन दिन देह । राजा के मन भया संदेह ||5०८11 इह क्यों दुरबल हुबै घर या के भेद न जाये विप्रतं नृप पूछे बात । तुम || प्रपणां भासो विरतांत ॥ ८०६ ॥ पद्मपुराण किस कारण तुझ बीण सरीर तो कु है काह की पीर ॥ सांची बात कहो समझाय । तो मेरो संसय मिट जाय ।।१०।। ब्राह्मण कम बोले वेरा । बाकेँ दाह लगाई में || लाज सबद बोले किस भांति । कांम प्रगन कैसे हिसिरात ।। ८११५ छोडी लाज सुरणाया भेद । इह वरणमाला कारण खेद || राजा कहे सुगों द्विज मिस । तुम कछु सनमें नाराजं चित्त ।।१२।। जो वह इच्छे तो तुम लेहु मैं तोकु दोनी निसंदेह || खठपा विप्र देवी घट गया। राखी कु उपदेश वह भया ||१३|| तुम अभी देयी की जा । मढ बाहर सखीय बसाउ || राणी मह के भीतर गई। देखि सेज विठाई नई ३८१४॥ विषे न खाय मरे प्रभ्योन। जे नारी परपुरुष को रमें ब्रह्मण वचन पयं ताहि । रामो देखि रही मुरझाइ ।। ब्राह्मण सु बोलं वनमाल। परनारी जैसा है काल ||१५|| नरक जाहि वे जीव निदांन ॥ खो नारी नीवी गति मै खोटी गति में भर में सोइ ॥ सूकरी कुकरी गदही होइ । तिल सुख बहु बहु दुख है । छेदन भेदन के दुख सह ॥८१॥ तास फुतनी ल्याने भग। ए फल लई सील करि भंग 11 द्विज के मन को मियों कुफैल दमा भावं प्रगटयो शुभ मैं ८१८॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमि सभाषद एवं जमका पमपुराण ग्राप कर निदा पापणी 1 खोटी बुधि करी में घणी ।। प्रेसा में चित्त प्राण्यां पाप । सो क्यों मिट किया विललाप ||८१६॥ सहमालि निमारमा ! नामजप देखें परा ॥ तब नृप द्विज का पकडपा हाथ | बहुत पाप उप अपघात ॥२०॥ पाप करें प्रगनि जस मरै । विष फांसी फुने गिर पड़े। वा नरक घणां भव होय । ताहि सहाय कर नहीं कोई ।।२१।। ब्राह्मण गमों ऐस सब त्याग । सरि करि अभ्यो घरघा वह सांवि ।। एक दिवस घनहर घनघोर । चली पवन उडि गए महोरि ।।२२।। राजा देखि भयो राग । राजनिति विया सब त्याग ।। सुतने निज पद दियौ नरेस । मापण लियो दिगंबर भेस ।।२३।। दही छीडि गया ईसान | पाया जित स्वर्ग लोक विमर्माण ॥ उन द्विज भ्रमत नर देही यरी । संन्याकी की तपस्पा करी ।।८२४।। मरि कर भया निरमलक देव । अबधि विचार किया बहु भेव ॥ मुमित्र सय था मेरा मित्र । उन मुझसौं रात्री बहु प्रीत ॥५२५।। भब वह मध्य लोक अवतरा । मधु सुमित्र मिलुमो परा ॥ रतन बहुत तिन मयु में दिया । बरछी एक बहु गुगी थिया ।।८२६।। सब सुख सौं राज मधु भूप । कहां लग वरणाउं तास स्वरूप ।। प्रहारह वरष गये जय वीत । बहुत देस के भूपति जीत ।।८२७।। तब फैलास परवत परि गया । श्री जिण विच धरण प्रति नया ।। प्रष्ट द्रध्य सौं पूजा करी । पहें मंत्र जिनवाणी खरी ।।२८।। दुलिंगपुर मल कुवन दिगपाल । सुणि रावण प्राया मुपाल ।। तिनने जीते हैं वह देश । उब उन इहां कीउ परवेस ॥२६॥ पत्री इंद्र भूपर्ने लिखी किंकर जाय दीनता भनी । राबरण नलकूबड परि गया । चिट्ठी पांचि करो तुम दया ॥३०॥ प्रभुगी उसका ऊपर करों । नलकुबड का मय सुम हो । इन्द्र कर पूजा जिण नाथ । सेना दई सूत के हाय ।।३१॥ युख बन घद्ध गाढा सों जैसों भगे । बाहिर नींकल मत सरो॥ पाप गया पहिव बन पान । पूषा करो लिये पंच नाम ।।८३१॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पप्रपुरास वे गढ़ में पहुंचे सब प्राय । दीये किबारे भीतर जाय ।। सो जोजन ऊंचा मठ देखि । दस जोजन चौंडा सु बिसेष १३८३३|| कांगरे कांगुरे धरी कुवांन । हथनां तांका अंत न पान ॥ पूजा करी रावण नीवरचा । देख्या गड सापर मन भरघा ।।३४|| सूर सुमट बहु दिये पठाप । गढ ने हाथी दिये इकाइ ।। दांस टूट कर मस्तक हनें । इनका कद दाव नहीं बने । ८३५।। रावण पर तब भाये घने । असे कठम न देखे सुने ।। गोला गोली लगन वाण । ता गड परि क्या चले सयान ।।८३६॥ यह सुणि रावण चढचा विमांन । ग्यारह मैं मोहणि बलवान ।। ऊपर तं मोली की मार । उलटी सेन्यां होई संघार ।।८३७।। च्यार जोजन गोला विस्तार । जहाँ पड़े तहां परलय कार ।। बहते लोग जुड़े सावंत । तब बोले मंत्री विनयवंत ।।३।। यह गढ कठिन पावै नहिं हाथ । अब फिर पलो लंकापति नाथ ।। बोले भूप महा बलवंत । जो छेकं तो लोग हसंत ।।८३६।। अब इहां रह करि कगे उपाव । जो गढ पाव किए ही दाव ॥ कैलास की खोह में मोरचे किए । बहुत उपाय बिचार नए ।।५४०॥ ऊपर भा नल कूवर घनी । रावण के चित चिता घशी 11 कुपवंत सुनिये है सही । उन जीती है संगली मही ।।८४१॥ एक बार हूं दरसन करउ । दससिर देस्त्र सुम्स मन घरस । वनमाला द्ती नै टेर। रावण पासि जाय के बेर ।।८४२।। प्रस कोई मूर्ण नहीं कोइ । कहिए अंतहपुर की ठोर ।। जो तुम ढील काम की करो। प्रारस वेग तुझ पर हां करो ॥८४३।। दूसी कई भय मोहूं जाय । जंद फंद सों प्रानौं राय ॥ मामरण सजि दूती गई । जोहन मोहन विद्या लई 11८४४।। मंदिर मांहि निरमय रहै बसी । रावण देखि मन में प्रति हंसी ।। पूछो गप कहो सत भाव । कवण'काज पापी इस. ठाव ॥८४५॥ नलकूबड़ को है पटधनी । रूपलक्षण सोहै प्रति धनी ।। तुम सौ बहुत कहीं वीनती । दरसण देहु कृपा करि प्रती ।।८४६।। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभापंच एवं उनका पमपुराण अब तुम जठो चलो उस पास । दोन्यां की पूरै मन ग्रास ।। रावण कह दूती सों बात । पर रमणी सग नरकं जात ।।४।। जी झूठी पातल पड़ी । असे नेह जागौं पर तिरी ।। जेसे उलगण डा कोइ । कुकर दौडि गहै फुनि सोइ ।।८४८।। असी जाणि पराई नारि । सत्त न छोडू इस अवतार ॥ दूती बोली फेर रिसाद । तोहि अभाग उदय भयो प्राय ।।८४६।। जैतू वाकी मानें बात । गढ तोकौं प्राव परभात ॥ रावण कही मंदीमें बंशिक तालिको माग मत्री समझि सीख यह दई । विद्या वा पे है गुणमई ॥ रस में लेह के विद्या मांगि । पाछै उसने कीज्यौ त्याग ||११|| रावण फिर दूनी पं गया। रागी प्रति संदेसा दिया ।। तुम मेरी इच्छा जो धरो । वेग प्राय तुम दर्शन करौं ॥८५२॥ रावण पासि मौं ती गई । रस की बात घणी परणाई ॥ राणि कं मन भयो भानंद । विगस जेम कुमोदनी चंद ।।८५३५॥ विद्या सुमरि करि चठी विमाण । रावण की दिग पहंची भान ।। बी सेम्या परि जाय । काम नहरि कहुं कहां समाय ॥८५४। रावग कहै देवी तुम सुग्णौं । गढ परि जावा चित मुझ तणौं । रागी जंय मुणों नरेस । मैं तुमकों भेजा संदेश ॥८५५।। तुम नो याये नहीं उस ठाम । अब किस विध जैहो उस धाम ।। रावण कन्नै विद्या मुझ देह । तो मैं तेरा मया करे ।।८५|| रावण द्वारा विद्या प्राप्त तब राणी विद्या दी भली। रावण की पूजी मन रली ।। असालक घिद्या सब त बडी । बनसाल गढ़ तिन सौं मढी ।।८५७।। में विद्या पाई तिह वेर । तब सेन्यां लीया गढ घेर ॥ तोंड पोलि कपाट मयंन । घंसे सुभट बाजे जय द्वंद्व ॥५५८।। रावण की विजय लूट लिये सब हाट बाजार । मल कुबड़ तब सुणी पुकार | बढ़या कोप बांधे हथियार । सूर सुभट सब लिये हंकार १८५६| Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापुरास माया श्राय इण पर हरी । देखत सब की मुधि बीसरी ।। भभीषण सन्मुख दोडघा आय । दुहूंघा जुध भया प्रधिका ३८६०।। नलवड बांधिया तुरंत । भभीषण जीत्या बलवंत ।। बनमाल गढ़ सम नहीं और । बहुत देस पहुंच्या वह सोर ।।८६१।। रावण का जस प्रगट्या घरण । उपरंभा भान सुरत घणां । मैं विद्या रावण में दई । मढ़ पायार जीत सब भई ।।८६२॥ मेरी बहुत करंगा कांशा । गई अंत:पुर अनी जाणि ।। रावण ने मद मानर दिया : माता वपन मुस्न मौ बोनिया ।।८६३।। तुम गुरुरणी मुझ विद्या दई । तुम मुझ मात धरम की भई ।। गुरुणी माता साह की स्त्री । पावज आश्रित गांव पुषी 11८६४१। इतनी माता पुयी समान । जोग अजोग कर पहिचान ।। नलकूबर की राजा से बात नल कूबड को लिया बुलाय । तिणसों कही बात समभाय ।।८६५।। जो तुम चाही आपण देस । तो मुझ पाप मानौ धौ येस ।। जो तुम कुछ इंछा सो देउ । अब तुम मांनी माहरी सेव ॥८६६॥ अपरंभा माता की शोर । तुम हठ राज करो सुबहोरि ।। नलकूबड बोले करि ग्यांन । मैं पाया है इंद्र का घांन ।।८६७।। निज प्रति बोझ अवर का होय । ताको भला न ऋहसी कोई ॥ जनम जनम को पहूँ कलंक । अपने जी की मानें संक 11८६।। नल कूबड छोडी वह नारि । विजयाई पहुंच्या तिहबार || रथनपुरहं इंद्र 4 गया । सब वृत्तान्त नर वैसों कह्या 11८६६।। सुणी बात जब कोप्या इंद्र । रावण ने इंल्याउं चंदि ।। मैं उसने दोन्ही यी छूट । उन देश में मचाई लुटि ।।६७०।। देखि जु वाहि लगाऊं हाथ । असी फिर न करें किरण साय ।। पूछ्या जाव फिर तासूमता। भैसी बात सिखानो पिता ।।१।। जिह विधि रावण ने क्यों जीत । युद्ध तणी समझायो रीत ।। सहस्रार बोले समझाय । रावण राक्षसबंसी राइ ||८७२।। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पपपुराण उन कयलास छत्र सिर लिया । बधवरण जम को दुख दिया । बनसाल गढ़ लिया छिनाय । बहुत भूपती साधे जाय ॥१७३ । सुम वासों किम सर भर करौं । रुपणी कन्या दे क्रोध परिहरी ।। अपणो कीज्यो निरभय राज । निज बल समझ कीजिये काज ॥८७४ इन्द्र द्वारा कोष करना तबै इंद्र बोलिया रिसाइ । पुरखा भय बुधि सब जाय !! जे छत्री भरने से डर । तेवौं नरक निगोदी पर ।।७।। मैं केहरि वह वंती पाद । भाज देखि सींघ की छाइ । मैं अब लग कीनी है गई । वाकों बुधि मरण की भई ।।८७६।। सूरवीर सब लिये बुलाइ । देस देस के प्राए राय ।। हय गय रम साजे तिहाँ घने । मब सामंत देव से बने ।।८७७॥ संबी धनुष लिये बह वाण । जम धरम हुग भले नीसांन ।। लाख पचास हस्ति चल डोर । माग वान पारी पोर ॥२७॥ रावस को सेना उनतें रावण सेन्या साजि । निकस्यो युद्ध करण के काज ॥ वानर बंसी राक्षस बंस । धरणे भूपति उत्तम अंस ||८७६11 दैत्यनाथ परदूषण भूप । वेश देश के सुभट अनूप ।। सब सामंत मन माहि मडोल । पालें अपने प्रभु के बोल ।।८८०॥ पचपन लाख डोरि गज चले । प्रस्त्र अनेक सौभ तिहां भले ॥ ग्यारसय छोहरिग दल संग । सिलह संजोग बने सब अंग ।।८१॥ दोउं सनमुख दल भये पाय । दोनू तरफै धुरे नीसांग ।। छूटें तीर तुपकहथनार । जैसे घर पनहर धार ।।८८२॥ दुहुधां लई सूरमा बली । दोयु सेन्या बहु विध दलो ।। राक्षम रूप लडे विकराल । बानर बंसी सब मुख साम ।।८५३॥ देखि इन्हें भय उपजे घनी । देव जेम विद्याधर गुणी ॥ मार खडग मुंउ गिर पड़े । मुड मुड बहु लडते फिरें ।।८८४॥ मही इन्द्र सेनापति तिहंदार । भई भभीषण स्वों तरवार ।। सेनापति अझ भुई गिर्या ! श्रीमाली तब ऊपर की ॥८॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपपुराण कुंभकरण तब कीन्ही दौर । सूरदीर दुई और ॥ इंद्रजीत मेघनाद तय धसे । घणे लोग जम मंदिर बसे11८८६।। सिषवाहनर कनक म सूर । तिनक जुध किया भरपूर ।। श्रीमाली माल्यवान का पूत । घाइ लड्या सेना संयुक्त 1 ८७।। दुरजन दल ए परलय किया । रुधिर तरणा अलि नाला थया ॥ द्वारा युर इन्द्रभूप प्राया चदि बली । अं अंस पुन संग सेन्यो भली पुत्र पिता मौं विनती करे । मेरा कह्या क्यों न उर घरं ।। मोकु प्राशा दीजे पाज । वेग संबारौं तुम्हारा काज ||८६ ।। रावण को बांध? जब माय । मोहि पराक्रम देखो राइ । कहै इंद्र पुत्र सों बात । तुम हो बालक कोमल गात ||८६० अब तेरे खेसण की बात । तुम सुस्स भुगतो इण संसार ।। बालक कीडा की है बयस । सुम बिण काम कवण इंह देस ।।८६१।। तेरा भरण केम देख नंगा | अंमें कहैं पुत्र सो बैन ।। जैवंत इन्द्र बोल करि जोडि । तुम पर बैठो निरभय और ||८६२| रावण पकडौं सेन्पा साज । ज्यो पकड तीतर नै बाज ।। मंसी विध रावण नैं गहुँ । पलमाही स्व सेन्या दहूं ।।८६३|| जयंत इन्द्र करि सुरिष पलांग । भले लिये जोधा बलयांन ।। श्रीमाली सुलडा बहूत । लगी गदा भू पड्या तुरंत ।।८६४) सेवकां पारा करि लिया उठाइ । सीतल पवन बीभनां बाय ।। चल्या कुंबर लिमे हथियार । हस्ती ऊपर भया असवार ।।८६५।। श्रीमाली उपर मारि तरवार । माथा छेद भया तिह बार ॥ सेन्यां विधल रावण की भई । इन्द्रजीत को इह सुध भई 11८६६॥ का परी ज्यां बरस मेह । परवत समान पड़ी मृत देह ।। सूर सुभट तिहां बहु कटे । पाले पांव न कोई हटे ।।८६७|| जयंत कुवर के लागा धाप । माया इन्द्र कोध के भाव ।। इतर रावण चढ़यां दससीस । सब हथियार गहै मुज बीस १८१८ सब सावंत लिये कर संग । दुरजन वल करबे को मंग ।। रावण कहै दिसायो इन्द्र । कोस दोय देख्या मुवचंद्र ||६|| Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंव एवं उनका पद्मपुराण पनि पर बात चल्या इन्द्रजीत को रियो छत्र पमर ता ऊपर भला । का दल पीका ह रावण देखी सुत पर गाड । दोडघा तिहां क्रोध करि बाढ | बारण प्रगति की जाल मेघवांग ज्यों वरषा काल रावण और इन्द्र में युद्ध ०१।। अस्त्र गयंद सूर बहू कटे । तत्र न सेन दुहुंघा घटै ॥ रावण दया विचारे हिये । इत उत को यहां क्यों क्षय किये ॥ १०२ ॥ मुझ ने तो है इन्द्र से काम जासु सम्मुख करू संग्राम ।। सुमति सारथी प्रति समझाइ | इन्द्र साम्हां ही चलिए धाय ।।६०३ ।। 1 वरण चढ्या सिंह के रथ । हाथी चढ्या इन्द्र समरस्य ॥ दो भूप सामही लरे । छुटै बास मेह जिम पडे । ६०४ || अनार खोड्या वांग बुझी अगति उबरे बहु प्राण ।। इन्द्र तरणी रोन्यां बहि बली । इन्द्र भूप विद्या सांभली ॥६७ ७५।। अंकार जब छोड्या बारा । भयां अंधेरा गए सां ॥ उनके सुकंतु नहि अंधेर । रावण का दल माय घेर ।।६०६ ।। उज्वल बारण राजा चित किया । छुटत ही ग्र घेरा मिट गया |1 इन्द्र करें तब वा सो मार गया क्यों नहि मानें हार ||६०७ । १ रावण चन्द्रहास कर गया। भई मार धीरज नहीं रह्या || कातर भाजि छिपावें जीन | सूर सुभट नहीं भोर्ड ग्रीन ||६०८६ ।। अजित कुमार सी इंद्रजीत । दामा जुष भया भयभीत || देखे झांक पिता की छोडि होकि गए दोउ तर तब छोड । ६०६॥ १२५ किस ही भांति टरे नहीं पांव । इन्द्रजीत रह्या तिहि ठांच ।। इन्द्र॑ इन्द्रजीत की गह्या । दावाथि लरें हैं तिहां ।। ६१७ ।। I पतितं दौडं उत्तरे । दीन्यू भूप मल्ल जिम भिरें || कबहूं ऊपर कब तले औसा युद्ध किया उन भलै ॥ १११ ॥ पकडमा इन्द्र बांधि गहि लिया । लेकरि बंदीखानें दिया || सब सेना मन भया आनंद । निरभय थए मिटा दुखद ॥ ११२३ भूपति सकल आय कर मिले। रावण फिर लंका गढ़ चले ।" परियण माहिं बधावा भया । स्मों कुटुंब लंका में गया ।।१३।। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ पपपुराण पुण्य प्रसाद जीत बह भई । पुण्य विभव चौगरपी थई ।। तात पुण्य करो मनल्याय । सुख संपति बाधे अधिकाइ ।।६१४।। पहिस्ल पुण्य तणे संयोग देश बहुते जुडे । जीते भूप अनेक बोल ऊपर करे । इन्द्र नरेन्द्रह साधि सकल जय जय भई । जैन धरम परसाद असाता सब गई १९१५|| इति श्री पपपुराणे इन्त्र प्रभाव विषामकं ।। १३ वा विषामक चौपई महनार का रावण के पास जाना इन्द्र को सब रोके रणवास । अक्षपानी तजि कर उपवास ॥ जयवंत कुंवर बहुत बिसलाय । नगर लोग चितवं बहु भाय ।।१६।। सहस्रार करिक मनुहार । समझाया सगला परिवार ।। अबहु रावण पासै जाउं । मेरा कहा मानगा राउ ।।६१७।। इन्द्रतणी में डार्ड बंदि । ज्यौं परियण में होय प्रानंद ।। सब परियण कौं धीरज दिया । लंकों तग पयाशा विया ॥११।। मंत्री सुषर लिये नप संग । रूपवंत सौमैं सब अंग ।। पहुं ते लंका समुद्र मझार । देखी स्वर्ग पूरी उमाहार ॥६१६।। सिंघ दुवार पहुँमा मूप । वणी पोल तिहा अधिक अनूप ॥ पीलिये खबर रावण सौ करी । मांहि बुलाया वाही घडी ॥६२०॥ राज्यसभा मोही नुप गया । रावण उठकर आदर किया । सिंघासण बैठाया राय । पुरुषा जारिग करी बहु भाय ।।६२१॥ इन्त्र को छोड़ने की प्रार्थना सहस्रार राजस प्रति कहै । पुत्र वियोग मम हिरदा दहै । इन्द्र छोड्यो मने बहु होय । तुमारी कीरत कर सब कोइ ।।६२२।। तुम भाग्या मानेगा इन्द्र । कृपा करित छोडो अब बंदि । बोल. रावण प्रामा यही । नगर दुहार नित उठ सही ।।६२३॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनकी पद्मपुराण धरती छिड़के अपर हाथ तो छोडु उगने का बेर गुणी बाल मल विस्मय भया । माथा नीचे राख्या नया ॥1 तब रावण समझी मन बात राणी चंदन विछके साथ ॥ आग्या भंग करे नहि फेर ।। ६२४ ।। बोले सहस्रार सुभ चैन । मंत्री सबद होय मन चैन ॥ हमही इन्द्र समझाया चरणां । तुम उसकी सेवा करि जाय असुभ करम ताकी मति हरी इन्द्र को छोडना तुम पुरुष जैसा हम तान ।। ६२५|| I महाबली उपज्या रावणा १६२६ । । से उसने रहें समझाय ॥ सीख हमारी लागी बुगे ||२७|| उन तुमसू किया युध जु घणां । पुरुषा वयण सबै श्रवगरणा ।। पुरुषों का मान्या नहीं कया तो दुख मान भंग होय सह्या ॥१8२८ ।। जे सुबुधि पति सुग्यांन । पुरुषां कहूँ सु करें प्रमान ॥ रावरण सहस्रारसों कहै । भ्राता इन्द्र मेरी लिंग रहे ||२६|| श्री साजा बली न प्रर । जो मन इच्छं सोयों ठोर 13 करो राज निरभय भुवनेस ||३०|| जो चाहो श्रापणा देस गले तं द्योटाल्यो राज । मनबंधित का है काज ॥ सहस्रार नृप प्रस्तुति करें। तुम दरसन से दुख दीसरे ||३१|| तुम हो त्र ेसठ सलाका पुरुष | देखत मनमें उपजे हरष ।। तार्थ भए हम प्रभु आज रथनूपुर का पार्व राज ॥६३२ || है बड़ा पुरुषां की यांव। वहां के बसें हम प्रगटे नांम ॥ बेडी काटि दिया इन्द्र छोडि । तोय हथकडी डारी तोडि ||३३|| १२७ हैय गय आभूषण पहाय । रथनूपुर को दिया पठाई ॥ अपने घर पहुंच्या इन्द्र । सब परियन में भयो श्रानंद ||३४|| इन्द्र चित्त में भर में घना इह् उपसर्ग कहां ह्र बन्या ॥ अपान पाणी नहीं रुवं । एसा रहे रात दिन सोच ।।६३५ ।। राणी देश भागि भंडार । सबै भयानक लगे उजार हम गय विभव सेव पालकी । कुछु न सुहाय लगं ज्वालसी ।।१३६ ।। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ पापुरम् इन्द्र की व्यया -जा का मारकरे ग मार शरास वाव ।। बहुत दिवस' बीते इस भाति । तब कछु सुरत भई नृप मात ।।६३७ । गंधमादन पर्वत पर गया । थी जिन मंदिर में प्रगटया ।। नमसकार करि पूजा की। ऊंचे ते सेना दिठ पडी ३०॥ इन्द्र भूप उपज्या मन सोच । सहयक्षोहिणी घा भेग भोग ।। गवण ने मन परसय किये । बहुत दुःख उन मोकू दिये |18३६11 उस रावण का जाज्यो पोज 1 लंका माहि पड़ीयो रोग ।। धाका परलय होम ज्यों राज । उनही बिगाडया मेग काज 18601 मेरे श्री विद्या लक्ष्मी। हय सय विभव तपी नहीं की ।। उन मात्ररण सब यहवट किया। बहुत प्रकार मुझे दुख दिया ।।४।। वाकी संपति जो नास । उन मुझ प्रति ही दिखाई भास ।। इन्द्र सगयय बारंबार । बहुर ग्यांन मय किया विद्यार। ४२॥ समझि समभि मनमें पछताय । मैं क्यों सराप्यो रावण राय ।। सराप दिये अनि दाढ़े पाप । अपनी करनी खाध पाप ।।९४३।। राजभोग थिर नाही मही । प्रारी गति माही मुख नी ।। पुण्य संजोग मिल बहु रिध । पुण्य घटयां नास सब सुधि ।। ६४४। वबह राव कबहु व रंक । काबह जीने गढ मति बंक । कवह बैटि सिंघासण चल । कबहू पायक पोयस दन्न ।। ४५ कवह देव कवह नारकी । कबहू मनुपा हूं तिरण चार यी ।। चदि बदि होइ कर्म की चाल । च्यागति में व्यायै कल 11६४६॥ मज भाग में अच्छी प्रचेत । या परसाद भई मुझ चैत ।। जो बहै इतना करता नहीं । म्यांन मुझे. किम होता सही 116 अब मैसा गरया तप करौं । काटि करम पंचम गति वा ।। मुनिचन्द्र का प्रागमन इह विचार चित बंठा इन्द्र । तिहां एक प्राया मुनि चन्द्र ६४८|| च्यार शान का धारक जिके । दरसन देख होय सुभ मते ।। नमस्कार कीया कर जोर । टूटे जनम जरा की डोर ||६४६|| Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचन्द एवं उनका पद्मपुराण सुणे ग्यांन के सुच्छम भेद । तातै होइ करम का छेद ।। प्रभु मेरे पूरव भव कहौ । कवरण करम ते दुस्ख बहु लहो ।।६५०।। इन्द्र के पूर्व भव मुनि जंप पिछला विरतात । भ्रम्या लाख चौरागी जात ।। लया जनम भील के गेह । थई पुत्री ता कृष्ठी देह ।।६५१।। मुख विकराल चपटी नाक। चुधी प्रोग्ख मुग्य दीसं बांक 11 जनमत मात पिता मर गये । ऐसे दुःख वा पति में भए ।।५।। होते मरि फिरि देही धरी । मुनि दरसन से राजग्रह परी ।। तप करि पहुँती स्वर्ग विमान । पूरण प्राव भुगती सुर थान ॥५३॥ रतनपुर नगर तिहां गोमटराय । कुदमाणी राणी जर आइ । क्षीर पारा तहां हुई पुत्री । तप करि स्वर्ग लोक थिति करी |18५४ || क्षेत्र विदेह रत्नसंचय नगर । प्रसंमत घर्धन रावल अन॥ गुणवंती राणी पटखनी । पुण्यसैन पुत्र भया बहु गुणी ।। ९५५।। राजा ने दीया पद लिया। राज्यभार सब सुतने दिया ।। गुणसेन सुण्या बहुधर्म । सिथल भए असुभ सह कर्म ॥६५६।। लोड राज दिक्षा लई जाइ । स्वाध्यान तपसों मन ल्याइ ।। दही छोहि प्रहमीन्द्र विमाण । भया इन्द्र पाया सुख प्रान ।।१५७।। वहाँ ते चय रथनुपुर देस | सहस्रार के इंद्र नरेस ॥ पूछ इन्द्र कोइ फर जोडि । प्रभुजी मेरी को बहोडि ।।६५८।। कोण पाप मान भंग भया । सब सुख कवण करम ते गया ।। रावण द्वारा इन्द्र के माम भंग के कारण क्यों रावण मुझ दीना दुःख । मूल्या सकल राज का सुरन ।।६५६।। मुनिवर बोले प्रातमग्यांन । जती सुमररण धरि देख्यो ध्यान ।। अरजयपुर नगर अनूप । अगनिवेग विद्याधर मुग ।।६६०|| मानंदमाला पुत्री ता गेह । कोकिल सब्द कंचन सम देह ।। ताक पिता स्वयंवर रच्या । सकल सौज सामग्री सच्या ॥६६१। देस देस के पाए राय । मंडप तल बैठे सब धाय ।। कन्या हाथ लई वरमाल । गुणवंत पेचर गल दीनी डाल 1IEF२|| Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० पपुराण चियो विवाह घड़ी सुभ साव । भोग भुगत कीनी अति वाधि ।। एक दिन सूता था आवास । विद्याधर ले चले अाकास' १६६६।। ग्रानंदमाला जागी तिरग बेर । सेज्यां अकेली देखी फेर ॥ तब उपज्या मनमें वैराग । सकल वस्तु का कोना त्याग ।।६६४|| सावनी नदी तट तीर । परच स्वरत मुनिवर तप धीर ।। विभा लई मुनिबर में जाइ । करै तपस्या मन वच काय ।।६६५।। गूगशा जाग्या सिंह यार । विद्याधर सों कीनी मार ।। भाजि गये दुरजन के लोग । प्रामा निज नगरी में लोग ।।६६६।। देनी नहीं त्रिया घर माहि । चिंता करता गई सांझ ।। गई सुरत मुनि यानक गया । क्रोध वचन मुख सों बोलिया || ६६७|| मेरे डरते लोया जोग । अजी अभिलाषा रास भोग ।। सोहागरिण तें वाई करी | प्राई तुझ मरने की घडी ।।६।। मुनिवर कु' बांध्या यहुभाति । मारचा पाछे मुक्की लात ।। मुनिवर कछुवन आणे चित्त । सहै परीसा पापणं नित्त ।।९६६ इत्तनों है पासु वर्शन । सो मुझन भुगत्या परवान ।। चिदानंद सौं ल्याया ध्यान । ह्यां इसका होसी कल्याण 1|६७०|| वोली नारि पति ने दे गालि । रे पापिष्ट मुनि किया बेहाल ।। ए मुनिवर मन अंतर रहैं । छह रितु के दुख असें महैं ।।६७१|| ते क्यों प्राप्त उपद्रव किया । किरण हित साए प्रत दुख दिया । तेरा होमो राज का मंग । इस सराप दिया तिण संग ।।१७२१ मुनिवर तिथ रिघ की भई । वा सम्म रिख कल्याण ने दई ।। गुणसेन सोच कर मन मांहि । इह सराप दलणे का नांहि ॥६७३।। सीलवंत का वचन न ल । मैं तो पाप बहुत ही कर ॥ वंधण दिये साधु के योलि । अति मधीन होय बोल बोल ।।६७४|| मुझ में घाज भई अब बुधि । माया जाल तें भूली सुधि ।। यब कष्ट ऐसा करूं उपाव । नास पाप लहू सुख ठाप ।।७।। मुनियर करी धरम की टेक । सत्र मित्र सम जाणं एक ।। मुनिवर कहँ ग्यान के भेद । तप करि महेन्द्र भया यह देव ॥६७६॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पमपुराण उहाँ मुनि इंद्र शुधर्म विमांगा । यात्र मुमति रावणा भया प्रांन ।। गुणसेन जीव भया तू इन्द्र । या सनमंय किया तुझ वंदि ॥१७७11 पिछली सुरिंग मन भया अडोल । रावा किया मित्र का बोल ॥ जो उन मोसों कीन्हां जुध । तो मैं लही धर्म की बुधि ।।६।। घा के ह जो मुकत की ठोड । वा परसाद गई मुझ घोड 11 सुध्यां धरम रथनूपुर गया । जयंत कुंवर ने राबर किया ॥७९ इन्द्र द्वारा मुनि शैक्षा इन्द्र भूप दिगंबर भया । तेरह बिंध सौ चारित्र लिया ।। सह परीसरस मास ! करम का पाते । ६. कवलग्यांन सन्धि तसु भई । जे जे सबद दुदुभी आई ।। परम प्रकास संवोधे घने । इन्द्र मुनीन्द्र भेरा वे बने ॥९८१॥ इन्द्र भूप इह विध घली, धग्यो धर्म हट चित ।। भवसागर ते उत्तर करि, सुख भुगतें वर नित्त ।। २।। चौपई भुकति गया मुनिवर श्री इन्द्र । पावं सुख सास्वते पानंद । ज्योति ही ज्योति एकटी भई । इन्द्र प्रमू पंचम गति बही ।।६५३॥ रवि उचोत पंधरा मिटे । केवलवाणी संसय मिट ।। मन धर कथा इन्द्र की सुनै । ते नर अष्ट करम को हौं ।।६८८॥ इति श्री पमपुराने इन्त्र निर्वाण विधान । १४ वां विषानक चौपई प्रजन्सवीधे मुनि को कैवल्य प्राप्ति दीप घातकी मध्य गिर मेर । अनंतवीर्य जिरण केबल वेर । सावन पर्वत पर जीण माथ । इंद्र प्रादि देवता साथ ॥५॥ बैठ विमान देव सब चले । मुकटां की मणि सोमा भले ।। पृथ्वी दसों दिसा उधोत । रतनां तसी विराज जोत ।।६८६॥ बाबा बाजै नाना भांति । सब सुर घले जिनेश्वर जात ॥ देखि विमाण समरण चितवै । तब मरीच मंत्री बीनवं ॥१७॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨ अनंतवीर्य स्वामी जिरादेव । ए सब चने तास पद सेव ॥ अनंतवीर्य को केवलज्ञान पूजा करें ग्यान कल्याण ||८|| रावरंग द्वारा वन्यमा रावण के मन भया श्रानंद दरसन कारण देव जिद || सोलह सहस्र भू संग लिये । वैति विभाग गये || | दई प्रदक्षिणा सुर नर जाय । नमस्कार कीया बहुभाय || दोई कर जोडिर पूछें इन्द्र । बारह सभा में सूरज चन्द्र ।।६६०|| इन्द्र धरणेन्द्र तिहां नरेन्द्र । भया सकल प्राणी प्रानंद || पूछें पुण्य पाप के भेद | सुगत वचन मिट जाये खेद ६६१ । भगवान की वाणी पद्मपुराण ||३|| श्री भगवंत की वाणी होय । भवियरस लोग सु सब कोइ ॥ छ दरबअर तत्व नु राति । नव पदारथ अर पंचगात ।। ६६२ ।। पाप पुण्य का करें सांग । हिंसा तैं गति नरक निदांन || मद्यमांस सहित जे खाद्द | जंवर पंच कठू बरा काहू की चित दया न करें। ते जीव नीची गति प सात बिसन जे चित में घरें । सात असत्य वचन जे मुख सों कहै । व्यारू' गति मैं सुख न लहैं । असत्य वचन चोरी परिह । ब्रह्मचर्य व्रत विध स करें ||१५|| ।! नरक मोझ दुख भरें ।।६६४ ।। परिग्रह प्रमाण करें नहीं मूढ । भव भव में पार्व दुख गुह ।। सात बिसन के सेवहार । ते कबहूं नहीं पायें पार || ६६६ || रोग सोग दुख पटें बिजोग । काहू भव में मिटैं न सोग || पाप करभ के भेद अनंत उनका कहत न त ।। ६६७॥ धरम करत सुख संपत्ति होइ । के मनुष्य के सुर पव होइ ।। मनुष्य जन्म का लाहा लेह | सोलह कारण वरत करे ||१६|| दशलक्षण पालं धरि भाव । रतनत्रय जंपय जिए मांग || अठाईस मूल गुण पार्टी सुद्ध । धरम ध्यान में बुधि ॥९६६॥ चार दान दे वित्त समान । निस उठि दरसन करे विहान || यावर सनही सों करें दया भाव चित अंतर घरं ॥। १००० ॥ - Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुमि सभाचय एवं उनका पपपुराण सारस्त्र पुराण सुरतं मन ल्याइ । निस में भोजन भूलि न खाय ।। में जीव निसमें लेय पाहार । तिरजच माहि मैं अपार ॥१००१1। व्यालू करें न छीजती बार । दरसन ग्यांन चरित्र चित्त धारि ।। उत्तम गति में आरिज खंड । पंचेन्द्री को दीजे दंड ॥१००२॥ संयम को पाल धरि भाव । भोग भूमि पावं सुख ठाम ।। सुपात्रा ने विष सों दे दांन । षट् दरसन को रार्षे मान ।। १७०३॥ माप समान सकल ने जांनि । दया भाव सब ऊपर अनि ।। दान कुगात्र फल नहीं कुच्छ । कुगुरु कुदेव कुसास्त्रां तुच्छ ॥१.००४|| इन संगति नीची गति जाय । घर जे कंद मूल फल खाय ॥ पाप पुन्य को भेद न करें । कुगुरु कुदेवा निश्च परं ।।१००५।। से जीव मरि खोटी गति पडें । भव भव दुख दलिद्र अनुसरं ।। सम्यक दर्शन देखें सुध । सम्यकग्यांन चारित्र सुबुध ।।१००६।। श्री भगवंत ने पूजे नित्त । सुमरे गुणवाद परि चित्त ।। निसदिन गुरु की सेवा करें। मिथ्या सजि समकिस प्रादरं ।।१००७।। के व्है देव के भूपती । सम्यक ते होय पंचमगती ।। समकित बिना न पावं मोक्ष । मिथ्याली ते भव भव दुख ॥१००। सम्यक है चिंतामरिण रतन, लेह पालो घरि घ्यांन । भवसागर को है सगुण, सहित कीजिए मान ।।१००६।। जती विरत तेरह विध धरै । बारह विष तपसों अघ हर ।। क्रोष लोभ ए च्यार कषाय । रागदोष ये देय बहाइ ॥१०१०॥ बाईस सह प्रवाधा नित । द्वादस अनुप्रेक्षा सौ चिप्स ।। भोजन कर उडंड प्रहार · संयम का रासै दिनु भाव ॥१०११।। दस लक्षण के पालै नग धरम सफल स्पौं राषै संग ॥ बारह बरत सरावग करें। पांच अणुव्रत निश्च धरै ॥१७१।। फुनि पाल शिस्यायत च्यार । सातौं बिसन तण जिभ धार ।। पुराम गुणग्रत धारै तीन । सो जाण श्रावफ पर चीन ।।१०१३॥ राष सदा मनमें संतोष । तृष्णा तर्ज तो पाय मोक्ष । लोभरस सेठ की कमा लोभदत्त सेठ की कहो कथा । तिण लक्ष्मी बहुते संग्रही अया ॥१.१४।। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचपुराण कुरी खाइ महादुःख भरं । जहाँ तिहां पायक जिम फिरै ।। सिर पगडी तल धोती बांधि । एक दुपट्टी राख कांप ॥१०१५।। जीरण वस्त्र त्रिया में देय । दान पुन्य कवहीं न करे । राब पुर लोग कृपण कहें ताहि । वह मममें कछुपाएँ नाहिं ।।१०१६।। चारण मुनि पाए तिरा वार । साहणी दौडि करी नमस्कार ।। स्वामी म्हारा पूरघ पाप । छती आथि हम सही संताप ।।१०१७॥ किण प्रकार होसी हम गति । लोभवस के धरमन चित्त ।। अत्र असी विद्या मुझ देहु । तीरथ दरसन सा बारह ।।१०।। तव मुनिवर इक विद्या दई । ताहि सुमर बुधि पाई नई ।। लकलो एक बडो बिस्तार । भीतर ते पोलाइ सार ||१०१६।। विद्या सुमरित स् परि वैठि। तीरथ करगा चाली श्रिय सेठ ।। पैसे नित प्रति तीरथ जाइ । रसन द्वीप पूजै जिण सइ ।।१०२०।। तेनी तेलग दोन्यु लहैं। तेलगि रूस लकहर मैं बडे ।। साहणि चढि पाली माकास । उत्तरं रतन दीप के पास ॥१०२१॥ तेला देख अचंभ भई 1 रतन संकलि गोद भरि लयी ॥ लकडे बीच माइक छिपी । बहुत ज्योति रतनन की दिपी ॥१०२२॥ साहरिण प्राई घरि प्रापणं । तेलण प्रानंदी मन घरणे ।। तेली प्रति दीने सब जाइ । रतन एक गाह विंग ल्याइ ।।१०२३।। साह देख मति अचिरज भयो । सो रतन कहां नै लयो ।। तेला सों पूछ लोभदत्त । मोसी सोच कहो मोहि सत्य ।।१०२४॥ ते यह कहां ते पाया रत्ल । या का मोहि बताबो जत्न ।। तेल भरणं सुरणउ मम रोठ । लकड़े मांहि रहो तुम पंठि ।।१०२।। भई सांझ सेठ तिहां घस्या । अधिक लोम ताके मन वस्या ।। साहणि विद्या सुमरी प्राय । लकडे वैठि दीप को जाय ।।१०२६॥ समुद्र मांझ देख्या सहलीर । इह लकडा साल्पा गहै नीर ।। वा लकडे बति साहरिण गई। हुण्या साह नरक गति भई ।।१०२७।। साहरिण पायी घर प्रापरणे। पूछ वात तर मुनियर भरणे ॥ कहो साहु गयो कि पोर । वाकू मेंदूदू किस ठोर ॥१०२८।। मुनिवर कहैं पिछला वृत्तान्त । डून्या साह लफडे संघात । साहणि कीया मन में सोच । लोभवत का इह नियोग ।।१०२६।। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पमपुराण १३५ नित प्रति जति लक्ष्मी दें दान । पूजे साधु देव भगवान ॥ बिल से भोग दिन मुख में जाइ । भोजन भले भले नित खाइ ।।१०३०॥ लोभदत्त लक्ष्मी लही, कहवन जाण्या भोग ।। पाप करम करि एकठी, ताथी भयो वियोग ।।१०३१|| चौपई भद्रवत्त सेठ की कथा भद्रदत्त सेठ आधीन । बेर्च वस्तु परिग्रह लीन ॥ दान अदत्ता लेह नहीं पाया । बाहर अभ्यंतर चित खरा ॥१०३२।। एक दिन कंचन राय' प्रधान । तसु दीनार पडया मग थान |1 सव दीनार सेठ जब लही । भद्रदत्त चित्त सोच कही ।। १०३३॥ कंचश पास गया तिरा बार । नप कमी को पूछमार : कहा दुचिते बहुत उदास । मुन कहो करी बिसवासि ।।१०३४।। कंचन कहै मो पास दिनार । राजा मुझे सोंपिया संभारि ।। छुट पडे मारग में जान 1 तास सोच कह' बहु भाति ।।१०३५॥ अन्नपान मो कछु न सुहाय । तिण कारण मै रह्यो मुरझाय ।। वे दीनार सेठ तब दिये । भमो सुख कंचन के हिये ।।१०३६।। भद्रदत्त की प्रस्तुति करें। धन्य सेठ तु लोभ न धरै ।। सगला लोग सरा, लाहि । ऐसी बात' सुरणी नरनाह ।।१०३७॥ दई सेठ ने घणी विभूति । श्रादर मान किया अद्मूत ॥ ताको जस प्रगटयो संसार 1 सत तें लछमी लही अपार ।।१०३८।। सति मारग अंसा भला, ताहि करों सब कोड ।। दोन्युभव जस बिस्तर, बहुरि मोक्ष पद होइ ।।१०३६।। चौपई कुंभकरण द्वारा धर्मोपवेश की प्रार्थना भकरण पूछ कर जोडि । स्वामी भाषो घरम बहोडि ॥ फवरण पुन्य तें लहिये मुक्ति । तैसी मोहि सुरणावो युक्ति ।।१०४011 मनतवीर्य जिरण कहै वखारण । कारह सभा सुणं घरि घ्यान ।। समिकत जे पाल परिचित्त । उत्सम ध्यान विचार नित ॥१०४१५ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ पद्मपुराण समव्याक वेदकसम किती । निश्चय विवहार दोष विष थिती ।। परिहंत समान देव नहीं कोइ । गुरु निर्ग्रन्थ संतोषी होइ ।। १२४२॥ सास्त्र ते जिस माहीं दया । इष्टष्टि करें नहीं भया ।। देव कुदेव है पूजे नहीं । पाखंडी गुरु की बात न सही ।। १०४३।। कुसास्त्र में मान नहीं पांच । निग्रह कीजे इन्द्री पांच ॥ श्रपरोक्त कीजे उपवास | खोटे व्रत ते होय पुन्य का नाम ।। १७८४ ।। बरत कर के कंदमूल को खाय तो किया कराया निरफल जाय || य माहार कहें हम व्रती । मनुष्य जन्म की खोदं कृति ११०४५ ।। च घडिया प्रथमी करे । प्रथवा घडो दोय प्रशासरं ॥ रात्रि भोजन निषेष कहीए मानुष की जात ।। १०४६॥ भोजन रयण त तिहुं बात जे नर रयण भोजन खाहि । राध्यस सम जारिगये ताहि || पशु जाति से हैं अमान जैसे मांस भषी हैं स्वान ।। १०४७।। I कीट पतंग माकडी घणी । वाफा दोष न जाय न गी ॥ ते सब गति प्रति षोटी लहैं । रोग सोग दुख भव भव सहैं ।। १०४८ ।। : केई जनम दलद्री हो । थोडी प्रात्र हैं जिय सोह || लख चौरासी भ्रमैं संसार । ते कवही नहीं पाव पार ||१०४६॥ भोजन रथण त बरि ध्यान । ते भव भव मुख लहैं निदान || पंचमि गति पावें निरवारण | सकल लोक में उत्तम ॥१०५०।। वहाँ ; जेनर निशि भोजन करें, कंद मूल फल खांई ॥ ते चिहुं गति भ्रमते फिरें, मोश ग्रंथ तिहां नह ।। १०५१ । । रात्रि भोजन त्यागे सर्व । उत्तम कुल पाव बहु दर्द भले भले मिंदिर प्रवास | के सुख विलस के जाइ प्रकास ||१०५२ । तीस लक्षणी पावें नारि । रूपयंत रासि के उपहार ॥ स गामिनी कोकिल गया । समद्र सुरात मन उपजत चैन ।। १०५३।। पुत्र सपूत होहि तिसु भले । बहु खोटे मार्ग न च ।। सज्जन कुटंबरु भाई घणे 1 प्रादर भाव कहत नहीं बणे ।११०५४ ।। छहीं राग अरू सीस रामणी । होहि नृत्य सुख सोभा धरणी ॥ कनक मई पाई अति देह सोचन कमल है ससि नेह ||१०५५ ।। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचन्द एवं उनका पद्मपुराण कूडल सो दोन्युं करणं। बड़ी आव भुगतें सुख सर || जैन धरम सौं राख प्रीत । सतत धरम की पालें रीत ।। १०५६।। नित उठि द्वारा पेषरण करें । जनम जनम के पातिग हरे ॥ मुनिवर क विषयों दे दान । यहाँ भेय का रा मान ।। १०५७ ।। बारह सभा सुविध धर्म । अशुभ भाव के टूटै कर्म ॥ ई भूप दिगम्बर भये । किनहीं व्रत श्रावक के लिये ।। १०५८ ।। जैसा वित तैसा ले व्रत । जनम जनम का दुःख जहन्त ॥ रावण द्वारा व्रत ग्रहण वसों बोले भगवान तू ले व्रत कटु निश्चय आन || १०५६।। रावण सोच हिया में करें। सीलवन्त की इच्छा घर ।। परनारी सेवें अग्यांन | पावैं अंत दुख की खांन ।। १०६० ।। जैसे स्वान ले बम्बां प्राहार। जैसे विषई झूठ गंवार | द्वार दुगंध निवास । सहि देख मन होत उल्हास ।। १०६१ ।। मेरी तीन खंड में प्रां । मां बरत स नहीं जारण || एक भांति व्रत पाली सही । जे नारी मुझ इच्छे नहीं ।। १०६२ ।। तांका सील पंड जाइ । इहे वरत मुख बोलवे राइ ॥ श्री जिरा पास नेम इहलीया । आमैं को फल दाता भया ।। १०६३ ।। कुंभकरण भभीषण व्रत लिया। करि डंडोत यांगा किया || आए लंकासह परिवार करें धर्म मन हरष प्रपार ।। १०६४ । चन्द्र धरोन्द्र सुरयानक गए। श्री जिनवाणी सुमरे हिये || सत्र के मन का संख्य गया। परम प्रकास जगत में भया ।। १०६३ ।। डिल्ल अनंतवीर्य भगवंत धरम बहुविध कह्यो । सुषम भेद प्रगाम सुरत सब सुख लह्यो । व्रतधारी भए भूप मोक्षमारग गए । भवसागर लें जीव उतरि शिवपद लाए ।। १०६६॥ इति श्री बापुर श्री अनंतनीयं धर्म व्याल्याण विभाग 21 पन्द्रहवां विधानक चौपर्ड हनुमान का जीवन १३७ इहां कि कीया परसन्न । हनुमान की हो उत्पन्न ॥ श्री जिनवाणी दिव्य ध्वनि होइ । बारह सभा सुख सब कोई १०६७।३४ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमपुराण गौतम स्वामी निरग भएँ । सभामध्य पंणिक सुणे । विजयारध दक्षिण दिस ओर । प्रादितपुर नगरी तिही कोर । १०६८ राय प्रहलाद नगरी को धणी । केतुमती राणी तुम तणी । पवनंजय पुत्र भया शुभधरी । पल पन बढ देह गुण भरी ।।१०६६॥ गर्यत सम वेसपुर पेस । महेन्द्र विधाघर तहां नरेस ।। हवनवेगा राणी सुदरी । सो पुत्र जनम मुख करी ॥१०७०।। प्रथम अरिदमन दुजा उत्पाद । अंजनी सुदरी पूनम पांद ॥ रूप लक्षण गुण महा प्रवीण । सोलह भात बजावं बीण १०७१।। छहों राग पर तीस रागणी। विद्या पड़े सरस्वती वसी॥ प्रजना के विवाह को पर्वा. राजा महेन्द्र तब मता उपाइ । मंत्री चा लिये बुलाइ ॥१०३२ अमर सागर सों मता विचार । कन्या बडी भई इह बार । उत्तम कुल जे राजकुमार । तिहां लगन भेज्यो इस बार ||१०७३।। प्रमर सागर बोल्या मंतरी । रावण की कीसं है खरी ।। असे सुकीजे सनमंघ । राक्षसबंस ज्यौं पुनिम चंद ॥१०७४।। इंद्रजीत दूजा मेघनाद । वेद पुराग बजावं नाद । पराक्रमी वे चरम सरीर । मौभमार्गी एका भव तीर ।।१०७५।। असे उसके महा सपूत । कन्या देहु सुख होइ बहुत 11 सुमति मंत्री फिरि दूजा कहै । मेरे मन इह संसा है ।। १०७६।। रावण के घर इतनी नारि । पटरांणी सोलह हजार ।। कुमरां कहैं बहुत मस्त्री । एक एक सेती गुमभरी ।।१०७७।। उस धरि कन्या दीये नहि वर्ण । श्रीपेन राजा गुण घने ।। चरम सरीर प्राक्रमी बली । उकौं देह होयगी रली ।।१०७८॥ तारा धर मंत्री समझा बैन । कनकपुर नगर सोभा है मंन 11 हिरणनाभि राजा तिरा ठाम । तस पटरानो सुमना नाम ।।१०७६॥ सौदामनि तास उम्र भया । मोक्षगामी सोमें सुभ कवा ।। वाके गुण का पार न कहीं । अमाबली भूप को नहीं ।।१०।। संदेहपारिष कोले परधान । सौचामनी के मन में वल्लु ग्यांन ।। वैराग भाव कमर का चित्त । संसार समौ अनित्य ।।१०८१॥ जो उसको उपर्ज वैरागः । वाक लम न करता त्याम ।। कन्या. विधवा सर क्यू दिन भर.क्यो करि दिवस कंत विन टरै ।।१०८२॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंच एवं उनका पयपुराण वाहि महारह बरसो के गए। दिव्या से केवल उपजए । पहुंसे मुक्त रमणि की ठौर, पावागमण कर बहोरि ।।१०८३॥ पत्रनंजय कुमर विजयारध देस । रूपबत मति बड़ो नरेस ।। ताका मुरण व्योरा सों कहै । कहत सुरसत कछु अंत न खहे ॥१४॥ रितु वसंत का मागम भया । राम रंग सब घरि घरि भया ।। कामनी मनि रसि प्रतिभली । परिघरि गाई ममल रली ।। १०८५।। फूले फूस मोरे तरु म । नव पल्लव सई भई प्रचंभ ।। भ्रमर भ्रमरनी कर गुजार । जिहां तिहाँ नावंति धमाल ॥१०८६।। राकल भूप मावे कैसास । महेंद्रसेगम की पुगी प्रास ।। राजा महेन्त्र एवं रामा प्रहलार की भेंट तिहां पाया राजा प्रहलाद । वा संग सेमा बहत्त जगाष ॥१०५७।। दोनू मूपति मिले गल लामि 1 रूपयंस प्रति पूरण भाग ।। बारंबार पूछ कुसलात । पूजा कर जिणं को सुप्रभात ।।१८।। राय प्रहलाद महेन्द्रम् कहैं । मेरे मन को गंसा बहें ।। नुम क्यों दुर्बल अधिक नरेस । अपग चित की भणउं अमेस ।।१.२१।। महेन्द्रसेन बोले भपती । मृझ घर कंचा अंजनावती ।। रूप नषसा सब गुग संयुक्त । धरम भेद जागी सुबहुत्त ।।१०६०।। पवतंजय के साथ विवाह प्रस्ताव पवनंजय पुष तुम्हारा मुण्यां । तामें विद्या बल मुरण घणां ||१६|| पवनकुमर ने अजनी दई । दोन्युकुलो बधाई भई ॥ विवलसाह लिन भज्या पथ । प्रादितपुर पठ्या दूत विचित्र ॥१०६२।। तीन दिवस रहे साव्हा माझि । मंत्री जाय पहूंते साझि ।' पदनंजय द्वारा मंजना को देखने को उत्सुकता पवनंजय पूछ प्रजनी रूप । मुण्यो कुंवर ने बहुत अनूप || १३|| तीन दिवस बीते किह भांति । व्याच्या काम कुमर के गात ।। कम बीते ये तीन दिवस । कब प्रतःपुर होइ प्रवेश ।।१०६४॥ पवनंजय कुमर विषारं ग्यान । सौलवंत किम होय भयान ।। अष्टगुणा काम स्त्री होय । दिव सौं सील बुराल सो ०६५| मोसा पुरुष जो व्याकुल रहे । मोसुभला न कोई कहे ।। प्रहसित मित्र गया कुमार । मन का भेद कहा तिबार ॥१.१६॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण अंजनी रुप सुण्यां में घरणां । मोकु काम व्याच्या चौगुणां ।। जो हूँ देखू प्रपणे नयन ! तो मोकु होव सुख चैन ।।१०६७।। मित्र कहै धीरज धर भास । दोन्यू चल्या भई जब रात ।। अजनी मंदिर विग गए । झरोख निकट रिपतिये भए ॥१०६८।। नैन दशमी रूप अथा । अहा कहीं परस्यौ जाय । वसंततिलका दासी को नाम । अंजनी सौं बोली धर भाव ।।१०६६। बडा भाग मेरा अजनी । पवनंजय सा बर पाया गणी ।। बा सम वली न दूजा और । सीमंगी तू पट की ठौर ।।११००।। कंचन रसन सी जोडी बनी । उसो हैं तुम सोभा धणी ।। पूरब किया पुण्य ते भला । ऐसा वर सौं सनमध मिला ॥११०१।। दासो द्वारा विद्यत वेग की प्रसंसा मिन केस बोल दूसरी । पिता तुमारे कोनी बुरी ॥ विद्य त वेग सा सजा छोडि । करी सगाई ऐसी दौर 11११०२।। वाके गुण का वार न पार । मुक्ति गामी अरु दातार ॥ बाकी तो इक घडी बहोत । कहीं दीपक कहा रवि उद्योत ।।११०३।। समंद श्वांडि लो चयरो भरी । अंसी महेन्द्र सेन प्रति करी ।। पवनंजय को निराशा से बचन पयनंजय सुनी । जानु उर प्रायुध सों हनी ॥११०४॥ सोबत सिंह हुंकारघा रेल । मानु दीया अगनि में तेल | काद पड़ग लीया तिह धार । अजनी सुधा डारू मार ॥११०५।। विभचारणी लक्षण इण भांति । इन सुणि करि कछु कहियन बात ।। प्रहसित मित्र समझावै बैन । कहा न षडग त्रिया परिसेन ॥११०६।। जे वचन सुशि भया मन मंग । व्याह कर नहीं माके संग ।। कहै पवन मै दीक्षा लेसि । प्रात भये सब तजिस्मों भेसि ।।११०७।। प्रात भये उठिया कुमार । मन चाहै ल्यों दिक्षा भार 11 प्रहसित मित्र कुवर मंग चल्या । मता विचार सुपाया मला ।।११०८।। जे तुम लेख्यो दिक्षा जाई । होण कहेंगे सगला राय ।। एक बार लुटें छह देस । पाछे होइ दिगंबर भेस ।।११०६।। दोन गये पिता के पास । म्हार हैं दिक्षा की पास ॥ बीपुर पर चढाह एफ वीणती सुण हौ नाथ । दंतीपुर फौं ल्याउं हाथ ॥१११०।। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि नभाचंद एवं उनका पापुराण १४१ इतनो सुणि सब सैन हकार । चढ्या कोप करि पवन कुमार ।। कूज सेन्या रावसा ताणी बुलाय । दंतीपुर को घेरचा जाय ।।११११॥ बाजै मापु नाना भांति । रोम उठी सूरौं के गात ।।। प्रजनी कान पड़ी ए वास । सीस धुणे चितवै बहु मांति ।।१११२।। विधना कर्वण पाप मैं किया । मंगलबार समै दुख दीया ॥ खाय पछाड धरती पर पड़ी । ददा उपाव सेया बहु करी ॥१११३॥ बड़ी बार में भई संभालि । विभनारिणी कुदीनी माल ।। जन सब भाष्या पोटा बयण 1 सणे पवन देखे निज नंग ।।१११४।। में भबही मां सन्यास । जीवत जनम में भइ निरास ।। नगर माहि अति हुनासोर । व्याह बीच तब मांची रोर ॥१११५।! पवन नाम दुलह का सुण्यां । पवन समान प्राईया मनां ।। अंसी बाव बहै चिहुं ओर । मंसी याहि कुमरि में षोरि ॥१११६।। सुणी बात महेन्द्रसेन । प्रहलाद निकट पाया सिख दंन ।। हमत कहो चूक के परी । तुम प्रापणों मन असी धरी ।।१११७॥ हम तुम में थी पहली प्रीत । कैसे करी जुध की रीत । प्राज चाहिये रह्सानन्द 1 किह कारण तुम कीया अंध |११११८।। पवनंजय मंजमा विवाह महेन्द्रसेन के सुरिण वचन, मिटया कोष का भाव ।। बहुस्वा रहम रली भई, दुई कुल श्रधिको चाब ।।१११६।। चौपई कुबर के मन की बुटक ना आइ । संभा भांवर कीम छर भई ।। अंजनी का भाज्या मन दुख । सुफल जनम करि मान्या सुख ।।११२०॥ भए विदा वीत्या इक मास । जव पहुंचे अपने घर बास । मन सेती भूल नहीं बात । रौवं पुटक कुमरि दिन रात २१।। पवनंजय के मन की घुटक, कवहि न हो दुरि ॥ __ अंजना सुंदरि क्या करे, दीया कुमाया ऋरि ॥११२२॥ यौपई अंजना का सुश मंदिर न्यारा भजनी नै दीया । रहै अकेली रुपै हिया ।। अपणी निंदा बहुतै करै । भुगत्या बिना करम नही टरं ॥११२३।। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पगपुरगरण पवनंजय कुमर धरम की देह । में पापणी किय होइ सनेह ।। के में जिन गुण निन्दा करी । जिनवाणी नहीं निश्चय धरी ।।११२४।। के गुरु का राख्या नहीं मान । के मनपर नहीं सुग्यां पुराण ।। के किस ही को किया बिछोह । के मिष्या सों ल्याया मोह ।।११२५।। # भोजन उठि खाया रति । परनिंदा कीनी बहु भाति ।। तो इह मुझमे भया वियोग । असुभ उबंय बाधा सोग ।।११२६।। ऐसे कहि अंजनी पछिताहि । सखी सहेली कह समझाय || मनमें पित करों मति परिण : करम उदै ते ऐसी पशी ।। १७ अंजनी के है पवन का ध्यान । अब इहो कथा चली है न ।। रतन होप राजा के साथ रावण का युद्ध वरण है रतनदीप का राय । रावण को नहीं माणे दाय ॥११२८॥ रावण ने तब भेज्या दूत । वरण मूप पं जाह पाहत ॥ वासु वातां कई वसीठ । रावण ने तें दीनी पीठ ।।११२६।। जण राचा जीते सब देस । तीन खंड के कर आदेश ।। इन्द्र बंश्रयण जीतिया कुबेर । जम नलकूया पकरचा घेर ॥११३०।। तु समुद्र में छिपकरि रह्या । अब तु मांनि हमारा कह्या ।। रावण सेव करो कर जोडि । प्राग्या मांनि त माय बहुरि ।।११३१॥ तुज वह देस परगने देह । प्रादर सहित नगर में लेह ॥ इतनी सुप कर कोप्या भूप । रक्त नयन भय दाई रूप ॥११३२।। बोल राजा सुण रे दूत । रावण ने सराहित बहुत ।। जे वह बहुत कहा सूर । हममों जुष करो भर पूर ।।११३३१ धना देइ पुर बाहर किया । दुत सरणा मन विस्मय भया ।। दूत रावण पं प्राया फेर। कही सकल उन उत नीचेर ।।११३४।। सुरगत पचम तक उठया रिसाद । सूर सुभद सब लिये गुलाब ।। रतनदीप कू घेरा बाय । सुनत बरण तब निकस्था पाह॥११३५॥ राजा पीरी दो सुस चले । ना जोडि सूरमा मिले ।। दुहूंघा लई बडे सामस । पंदल सुपंदल झुझत ।।११३६।। मैंगल सो मैंगल बह भिडे । रथ सों रथ टूटि गिर पडे 11 रावण को सेन्यां अहटाइ । बांधि लिया पडद्षण राय ॥११३७ रावण का मन दुचिन्ता भया । मत्री सेसी मता तिन किया ।। मंत्री जन दीया उपदेश । खुलाए नगर के भूप नरेस ११३८।। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पपपुराण वरण भूप की घेरमा प्राय 1 अंसा मता नृप किया चपाइ ।। सकल ठोर फौं गए उकील । प्रादो वेग मति ल्याबो ढील 11११३६।। राय बहलार के पास रागरण का सन्देश राय प्रहलाद पं गया बसीठ । चीती दई पढी भर दौट ।। मांधे कागद लिया चढाम 1 पदि पति पत्री नवण कराय ॥११४०। दल सज किया पलाणी दुरी । पवनंजय कुमर वीनती करी ।। पवपंजय द्वारा पुर में पाने का प्रस्ताव तुम मा बठि करो प्रभु राज । तुम भाग हम साथ काज ।।११।१।। पिता प्रागै सुत करें न काम । महा कपूत कहै सन गाम । बोले राजा सुरणी कुमार । तुम क्या कारणौं जुध की सार ।।११४२।। कुमर पितासो विनती करै । सिंह पुत्र किसका भय धरै ।। ताको रुवसा सिखावे दाव । भाजे हस्ती सुरगतो नांव ।।११४३।। हस्ती भाजै थानक छोडि । सिह के सुत की सई न ठोडि ।। पिता कहै दिखायो प्राकर्म | मेरे मन का भाजभम ॥११४४।। जब बोल्या पवनंजय हमार । निराका कारण मिण स्टार ।। कांम पई तब देखो वात । वाह वाघु अनही जास ॥११४५।। सोम माल दरी न बस । ज्यौं सरवर में सोमै हंस ।। कार सनान बहु भोजन खाइ । उत्तम वस्त्र तिन परे जाय ।।११४६।। मांधि हथियार सेना संग लई । बहुत प्रसीस बडे जन दई ।। मनना पवनंजय को विधाई सब कुटुब भेट्या गल ल्याई । तिहां मंजनी टाढी प्राय ।।११४७।। देह मलीन रही मुरझाय । ताहि देखि मन पवन रिसाय 11 वह क्यो पाई है इण वार । निठुर वचन मुख कह्या अपार ॥११४८।। श्रिया कौं लागे मोठे दयण । सूणि सुरिण होय वहुत ही चैन ।। धन्य धन्य है पाज का द्योस । पिय के वचन सुने फरि हौंस ।।११४६।। बहुरि अंजनी विनती करें। नीची दृष्टि बरण चित परै ।। जे लुम थे इस नगरी मध्य । तुमरी निस पावें भी सुध ।।११५॥ मेरे मन ऐसी थी पास । इक दिन प्रभु बोलेगा हास ।। अब तुम गमन करो परदेस । तुम बिन क्यु जोषस्थु नरेस ।।११५१।। बढ़त भांति बीनवे मंजनी । वाकै श्या न पायी चिमी । हस्ती चवमा साथि सुभ घड़ी । वहोत सौज मीनी सुम बड़ी ।।११५२।। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ पपपुरास मानसरोवर उतरे जाय । सेना सकल रही तिह ठांय ।। देख सरोबर निरमल नीर । मंदिर देखे ताके तीर ।।११५३।। ऊंचे बेटा पवन कुमार । देख इत उस दृष्टि पसार ।। पाच सीतल पवन सुवास । पंषी सब दल बैंठिहु पास ॥११५४।। पवनंजय द्वारा पकवा कमी का वियोग देशाना हस आदि बह जलपर जाँव । सर विंग करें किलोन प्रतीत्र ।। वाई कुद जल भीतर पडं । तिहां रि प्रति क्रीडा करें ।।११५५ ।। चकवी चकना रयरा वियोग । व्याप्पा तब कांत का सोग ।। भाई जय देखें जन मांहि । ताकौं समझ अपणा नाह ।।११५६॥ निरखं झांई कर पुकार । कबहां जाय चई बुम डार ।। सोसल नीर अगन सम लगै । अस सब निस चकवी जग ।।११५७।। असा दुख पवनंजय देख । मनमें उपजी दया विशेष ॥ भजना से मिलने को या बाईस बरस मुझे ब्याहा भया । अंजना सुदरी ने दुख धया ।।११५८।। र हूं चल्पा जुष के काज । झुझि मई को पूरी लाज ।। मुझ वियोग अंजना मरं । विना वस जनम इह गिरं ।।११५६।। किरण विध जाय अंजनी सुमिनु । सोक वियोग बाकों सब दन्नौं ।। घर से विदा होय मैं चल्या । फेर न येन कहै कोई भला ॥११६०॥ प्रहसित मित्र सों पूछी बात । मंजनी दुख पाया बहु भाति ।। याकी चूकि तउथी का नांहि । ददा कही क्या लागे ताहि ॥११६१।। कवरण जसन देख अंजनी । मोकू कठिन प्राई यह बनी ।। सज्जन कुटंब लोग की कांरिग । दोन्यु कठिन वणी है प्राणि ।।११६२।। प्रहसित कहै चलिये प्रच्छन्न । जैसे कोई लष न दिल ।। एक सोच उपज्या इण वार । सेना में हंगी जो पुकार ॥११६३।। समाधान दल का तुम करो । ता पार्छ यहां से तुम टरी ।। मुगदराय सौं भाषी बात । हम समेद गिर जाय हैं जात ॥११६४।। इहां तुम सावधान बह रहौ । श्री जिन के दरसन हम लहाँ ।। बहुत हार फूलन के लिये । चंदन केशरि उत्तम फल नये ।।११६।। बहोत सौंज ले दोनु चले । करि पानंद हीए में खिले ।। प्रजना पवनंजय मिलन प्रजनी के मंदिर में गया । प्रहसित मित्र बाहर ही रमा ॥११६६।। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलि सभाचंद एग उनका पापुारण १४ अंजनी ने देख्या जब पौन । उठी पुकारी तु है ह्यां कौन !! दहा को बबै जगावण लगी । पुरुष देखि भंजनी भगी ॥११६७।। बोले पवन उरै मति नारि 1 है पायो तेरा भरतार ।। इतनी सुणि मन भयो उल्हासि । विघनां पूरी मन की प्रास ।।११६८।। नमस्कार पवन सौ कियो । दरसण देग्यत दुख बिसारियो ।। बंठा सेज्या ऊपर प्राय । गद गद वोल बोल बहुभाइ ॥११६६।। दासी बात कही छी बुरी । मैं वाकी कछु चित्त न घरी ।। मोकु दुख लिख्या ई भांति । कर्म रेखा मेटी नहीं जात ॥११७०॥ तब पवनंजय धीरज देव ! प्रपणे मन नहीं पित करेइ ।। मैं तो श्राप या प्रयोग । तुन यानि ।।१ हम तुम है दोउं बालक देह । बहुत दिना दुख होत सनेह ।। सोभा रयण चन्द्र से वर्ण । असे सूख देखेगी धणे ॥११७२।। जिम पावनी निशा के समै । चंद्र प्रकासि ज्योति कू गर्म ।। जब म्है नआए किया परकास । तब ही जागो भोग विलास ॥११२३३॥ दोऊ वोलें अमृत बंण । दंपति मिले भया सुख चैन । दोन्यू करें कोक की रीत । प्रथम ममागम विया भयभीत ।।११५४॥ गरब सृज भुगत्या बलवीर 1 दोन्यू मुग्ली इक मया सरीर ।। बहरयां ते मूते गाल लागी । बीती रात शणि गयो भागि ॥११७५।। पवन सरूप देखि छवि शांति । हारि शमि मांनि भाज्या प्रातः ।। वि उदयाचल उग्या आई । दरसरण देख्या चाहै राइ ।।११५६।। वसंतमाल परमातहि जागि । पायी निकट बारी लागि ॥११७७१ . पौलि खोलि पाई इसा पास । अंजनी वैठी नीच जास 14 कुंघर जगाया कर पद नांगि । बागि पदन अंगराया अाप ॥११७८।। मंगुली चटका अरु जंभाइ । रक्त नया बहतै घमाइ ।। गंतरा काजि सुरत गई भूलि १ भए मगन दोन सुख के भूलि ॥११७६।। प्रतसित पास पवनंजय गया। भला मता दीन्यु मिल ठया ।। पाबेर भया प्रगट इह ढाम । कातर होह हमारा नाम ।।११८०।। सन कोई फिर पाया कहै । कपूत नाम प्रथ्वी पर लहै । बागे पहरि भये तय्यार । अंजनी कर प्रधिकी मनुहार ११५॥ हमने काज रावण का कारण । कारज साधि वेगा फिरणां ।। अपणां भान राखियो अहोत्र । में से कई पयनंजय बोल १११८२। अंजनि के भरि पाये नैन । कहो कुटुंद सों अपने बैन । मैं असनात किया है माबि । मर रहे लो लागं लाज ॥११८३।। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपुराण बोले पचन सुणों हो स्त्री । अंसा भय तुम ना चित धरी ।। तीस मास लगि वर्ष न कोइ । फिर पात्रं भाग वतीन न होइ ॥११४॥ अंजनि बोली दो कर जोष्टि । तुम बिलंव मोहि लाग पोडि ।। जे तुम कहो कुव सौं बात । कोई न दोप नगं किण भांति ॥११८५।। अजनी सेती कह समझाय । सबसौं मुह मिल हुये हम जाय ।। तुमसौं विदा हुए थे नहीं । तातें प्राइ मिले हम सही ।।११८६।। अंजना को मुद्रिका देना जो तुम कच्छ मनमें भय करो। मुद्रिका मेरी तुम कर घरो ।। इह सहनाणी दिखाइयो नारि । हमकों सीष भायो इण बार ॥११८७।। पल्या पवनंजय और प्रहसित । यतु विर्माण चाल्या विहसित ।। पाकास गामनी विद्या संभारि । दोन्यू पहुं ता कटक मंझारि ॥११८८।। सोरठा पुन्य संजोग होय, मो साजिद सुख सनम है ॥ विषय बेल फल होय, तम अंसा बहु दुख सहै ।।११८६॥ इति श्री पद्मपुराणे पवनंजय अंजनी मिलाप विधामकं ।। सोलहवां विधानक चौपई अंजना द्वारा गर्भ धारण करना सुख में मास गये गुबीत । प्रगटत भई गरभ की रीत ।। पीत वदन कंचन सम जोति । दिन दिन उदर प्रति ऊंचा होत ॥११६०।। केतुमति द्वारा पूछताछ चलै चाल गयंवर की भोति । केतुमती जब सुणी रह वात ।। मंजनी पासि प्राइ पूछी सुरति । तेन कवरण करी रह करतूति ।।११६१।। सांचे वचन कहो मुझ प्राथ । देषज ताहि लगाऊं हाथ ।। उज्जल कुल को कालष घटी । असी चिता बास मैं बही ।।११९२३ अंजना द्वारा स्पष्टीकरण अंजनी बीनवं दोइ कर जोडि । मोकु कछुवन लाग पोडि । मानसरोवर परि तुम्हारे पूत । देश्या चकवी वियोग बहुत ॥११६३।। मेरी दया विचारी हिये । हात पाय रात सुख दिये । च्यार पहर मुझ मंदिर रहा । प्रात भये उठि मारग गया ॥१११४॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पमपुराण मैं उनने बहु विनती करी । कुटंन सौं कहो वात इण घरी ।। बे बोले यह लो मुंदडी लेउ । जो कोई पूछ तो वह पेज ॥११६५।। जो मेरी मानु नहीं वात । देव मुंदडी मार्नु सांच ॥ केतुमती बोली रिसस्वाद । निठुर वचन भाष्या बहु भाइ ॥११६६॥ बाबीस वरण विवाह को भए । तेरा नाम सुणत दुस्ख सन्ते । जो तेरी ह देखता छोह । महा कोप उपज था वोह 1:११६७४। चला गमय तुझलों रिस करी । तेरी दया नहीं उर धरी। मंमी तोस्यू क्या सनमंघ । बह फिर प्राया खनै बंध ।।११६८।। विभचारिणी ते किया कुकर्म । मोसु कहै पवन का भर्म ।। अंजना को तारना लाी लात मारी घणी । और टौर अजनी को हणी ।।११६६।। वसंतमाला परि कोपी बहत । हे विभचारिणी तुर्ह ऊत ।। सेरे प्रागै कारण इह बा । झुठा पवनंजय कुदे दुवा ॥१२००।। सोकु देषि कहा हूं करउ । मारि तोहि जम मंदिर पर । अकुरूरा किंकर लिया बुलाइ । इनकी पिता घर ले गाइ ।।१२७१।। महेन्द्रपर मांहि लेके छोडि । दोई जीवस्पों क्या मारू औरि ।। जो मैं अव दोन्यू जीव हतों । नोतम बंध भमु चिहगती ।।१२०२।। इह बात प्रहलाद नप सूनी । क्रोध लहरि उपजी चित घनी ।। वेगि निकाल मंदिर तें देहु । या का नाम न फिर फै लेह ॥१२०३।। मजता का निष्कासन एदन करत काढी प्रजमी । वसंतमाला ताफै संग दिनी । उनके पीछे किंकर हुवा । बहृत तरास दिखावे कुवा ॥१२०४।। कल्क वेगि वेगि लुम 'बलो। उनका चरणन परती लौ ।। असुभ करम ते इह दुख भया । पावें भ्रमी महेन्द्र की धिया ।।१२०५।। कठिन कठिन वन दर गई । किकर के मन चिन्ता भई ॥ इह पवनंजय की पटधनी । या को बेला प्रेसी वणी ॥१२०६॥ अब में छोहीं इनको दुःख । इनके दिन फिरए वह सुख ॥ सुण पवन मारै मुभा ठौर । सब मुझ कोरा झुलाव और १२०७।। किंकर कर दीनती बहु भाप्ति । मेरी चूक नाही कछु मात ।। तुम्हरे सासु सुसर ने कहा । उनके बचन तुम्हें इस सह्मा १२०८।। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i पद्मपुराण मैं सेवक विन कर जोडि । मेरी मिस न प्राण पोडि | कोस प्यार जब नगरी रही। भई रय वन आश्रम गही ।। १२०सा अंसा दुख प्रजनी कु भया । देखि रुदन दिनकर लोपिया || इह सब दोस करम की देव | ऊंचे नीचे उसास बहु लेइ ।। १२१ ।। गरज सिंह हस्ती सिंह ठौर | वन में करें स्थाल प्रति सौर ।। इनका दुख देखि सब पंछी रोवें । पात विखाइ भूमि पर सोवें ।। १२११।। इक दिन बीतें बरस समान । मनमें सुमरें श्री भगवान || वसंतमाला की जांघ पर मूंड | वन भयदायक दीस सूट ।। १२१२ । कठिन कठिन वह्न पीडित भई तब क भय चितलें मिट गयी || सुमरे जिनवर बारंबार । असुभ करम के टारन हार ।। १२१३।। दूहा धरती पांव न जे घरं, सोवं सेझ अनूप ॥ बनमें निस दुखस्यों कटी, पांव चली भरि धूप ।। १२१४ ।। चौपई जना का महेन्द्रपुरी जाना भ प्रभात महेन्द्रपुर गयी। पिता द्वारि जाइ ठाली गई || पीलिया भीतर जारण न देइ । वसंतमाला ताहि जंपेइ ।। १२१५।। वह अंजनी राजा की घिया । याक असुभ करम दुख दिया || मसेन को सुधि देहु । तेरी सुला आइ तुझ गेह । १२१६।। सिलकपाट पौलिये का नाम । पहूंच्या राज सभा की ठांम ॥ नमस्कार करि भाषी बात | अंजनी आई आज प्रभात ||१२१७।। प्रीति को दिया उपदेश । श्रादर सों कीजे परदेश | नगर छवावो हाट बजार । बहुत भांति कीजे मनुहार ।।१२१८ ।। तब प्रकरूर कहै समझाम । मेरी बिनती सुनिये राय ।। केतुमती यह दीनी काहि । उनके चित ए चिता बाकि ।। १२१६ ।। बाईस बरष ब्याह कौं भए । पवनंजय निज मंदिर गये 11 पवन गया रावण के काज । इन ल्याई दोन्यु ं कुल लाज ।।१२२०|| याकु भई यरभ की थिति । तुम राखो जे श्रा चित्त । पिता द्वारा निष्कासन इतनी सुरात कोपिया भूप | रक्त नयन पर क्रोध के रूप ।। १२२१ ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पापुराण १४६ बेग नगर ते देहु निकार । उनको नोक बड़ी कुमार ।। बसंतमाला राजा पं गई। करि डंडोत चरण को नई ।।१२२२।। अजनी बहोत लाडली सुता। वागों मोह बहुत तुम हुता ।। निसदिन जीव सम गिरणते ताहि । बाका वचन डारते नाहि ।।१२२३।। अंसी अति प्यारी वो धिया : केतुमती बाकी दुग्न दिया 11 मानसरोवर पवनंजय गया । चकवी सदन देखि भई दया ।।१२२४।। महाते प्राय किया संजोग । च्यार पहर निस भुगते भोग 11 करी खोज तब कीजों क्रोध । नीको न्याय समझो नृप बोध ॥१२२५।। केसमती इह दीनी काहि । याको अव बनी अति गादि ।। पिता गेह नहीं पामें ठाह । हारे थके विरछ की छाह ।।१२२६।। सब मंत्री समझाब ग्मान । बोई मित्त नहीं प्रान पान ।। बसंतमाला ऊपर रिस करी । तू विभचारिणी है अति परी ॥१२२० । सब ओर से तिरष्कृत ए सब भई तुझ ही तें पोडि । तो कौं दुख दीजे ते थोडि ॥ हेला ईट पत्थर की मार । नगर माहिं तें दई निकारि ।।१२२८ः। जिहां जिहां तं भाई वंघ । घरि घरि फिरी जाणि सनबंध ।। कोई वारनु न देषन देह । द्वार हो ते पाथर लेय ||१२२६।। सब कुटज को छोडी प्रास । दोन्यु नारि लिया वनवास ।। हस्ती सिंह चीते तहां फिरें । महा भयानक वन में उ ।।१२३२ ।। गे पीट कर पूकार । त्या देही घाब विकार ॥ भूख पियास सतायं देह । कपडा फार्ट लाग पेह ।।१२३१॥ प्रासौं चले इस्त्र व्याप्या धरणां । ऐसा जोग करम का वण्यां ॥ पवनंजय मोसों अस करी । विछोहा समै प्रीत चित घरी ।।१२३२।। सासु सुसरे दई निकार । मास गिता कछु करी न सार ।। करम विपाक जाणि मनमादि । जननी पिया दया उर नांहि ।।१२३३।। या मुझसौं का किया न मोह । निर्दय बने असर नहीं लोह।। जो मृगपतो मुझने इहां खाइ । दुःख सकल बियोग मिट जाइ ।।१२३४।। तातील लागै तन तप । छिन छिन नाम जिनेपबर जपं ।।। केस उखारि र पीट हिया । कवण पाप पूरब मैं किया ।।१२३५। बार बार सुमरै भगवंत । तुम विण कुरण सरणागति संत । दूजा कोई नहीं सहाय । बेर बेर सुमरै जिराय ।।१२३६।। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० बसंतमाला समझा ताहि सुख दुख करमतरा फल अहि ।। इन होत न लागे बार। कबहुक रंक कबहु भो बार ||१२३७।। नहि देखि धीरज नहीं घरै । वसंतमाला अंजनीक || प्रजा का गुफा में शरण लेना परवत ऊपर गुफा हैं भली । दोन्यु गिरिवर ऊपरि चलों ||१२३८ तिहां भीयंग करें फकार | बारह कोस होइ वन छार ।। देखत वन लागे भय धरणी । नभि सुरत श्रार्य कंपणी ॥१२३६ ।। भांडी सूल पडे चिहूं प्रोरि । पांव धरण को नाहीं और कपडे भाडो सो लग फटे । वारिफ कोरि देह को कटं ।। १२४०॥ पग भीतर वह कांटे गि । अंसे दुखों परवत चहुँ ।। तिहां ठोर षोह बहु परी । वाहि देखि वह दो डरी ।। १२४१ || की वृक्ष नल चले न पांव | वसंतमाला बौली यह भाव ॥ जिस तिम चलकर यांनक यहीं । गुफा मांहि निरभय है रहौ ।। १२४२॥ देवी बुलि दुनिया पिंड पाव विपास हुआ ई पंड || लेइ उसास गजनी | चला न जाय कठिन गति बनी ॥१२४३ वादाही कहीं नांव दी विविध किरण दिस जाउं ॥ ३ वसंतमाला कर पटया माइ । यांभती ढेकली गुफा में जाय ।।१२४६। सघन वन में सुनि दर्शन मुनि वंदना पद्मपुराण ठि गुफा में आश्रम लिया मातंग वन सकल दृष्ट में किया || देखें वृक्ष मनोहर फले । ता वन में मुनिवर तप करें ।। १२४५।। नासा हष्टि श्रातम ध्यान तेरह विष पाल भरि ध्यान ।। सर्व्हे परोसा बाईस धीर मुनिवर वन में भय नहीं धरं । देह तसी ममता परिहरें ॥ ग्यानवंत जिस समुद्र गंभीर । मुल्या भव्यां बतावें तर ।। १२४७।। छह frg को भ्याएँ नहिं पीर ।। १२४६० जाक है उत्तम छिमा यादि । पंथ इन्द्री का लहें नहीं स्वाद || अंजनी आइ प्रदक्षिणा दई । नमस्कार करि चरणां नई ।। १२४८।। वसंतमाला किया परणाम बारंबार पर्छ गुणग्राम ॥ समाषांन पूछें मुनिशय । मुनिवर भर्गो करम परभाव ।। १२४६ ।। महेन्द्रसेन की इह पुसरी । सस सील संयम गुण मरी ॥ प्रहलाद राय पवनंजय पूत । बाईस वर्ष दुख दिया बहुत ।। १२५७ ।। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समानंद एवं उनका एमपुराण १५ चलती बेर किया संजोग । ऋतुमती ने दिया विजोग ।। पाई ही हुभा सहा । असुभ कर्म उदय भया प्राइ ॥१२५१॥ मैंस करम सब ही कु लगे । बोई नाहि करम ते भग अंजनी बसंतमाला सुप चहै । थी मुनि सब आगम की लहै ।।१२५२।। बसंतमाला द्वारा पति वियोग का कारण पूछना बसंतमाला पूछे कार जोडि । बात हमारी कहो बहोरि ।। कैसा जीव गरम किम पड्या । कठिन पाप करके अवतरचा ।।१२५३।। किम वियोग हम को इह भया । पूरव पाय कवण हम थया ।। वोले मुनिवर लोचन ग्यांन । पुन्य जीव गरभ भयो प्रांनि ।।१२५४॥ पाको दूसण नाहीं कोइ । अंजनी पाप उदय त होइ । महापुनीत धर्म की देह । चरम सरीर पुष तुझ गेह ।।१२५५॥ मुनि द्वारा समाधाम हनमान होसी तुझे पुत्र । कामदेव बलवंत बहुत ।। उसका भव पूरबला सुणौं । रोग सोग मन को सब हणों ।। १२५६।। जंबू द्वीय भरत क्षेत्र आहि । अमितगति नगरी ता माहि ॥ मंदिर अभिप राजा धरमिष्ट । नंदीनमें सम्यक दृष्टि ।।१२५७।। जया देवी स्त्री ता गेह । मी पुत्र की मोम गेह ।। रितु बसत खेल सब लोग । नंदन वन में बृक्ष अशोक ॥१२५८।। रागरंग गार्ने सब और । सकल जगत में सूख का सोर ।। विद्याधरी जोषिता घी । चली जात आकास गामणी ।। १२५६।। देखि दमैं दौडया प्राकास 1 मुनियर निरष गई ता पास ॥ नमस्कार करि पूछया घमं । जुरणे वचन ते लागे मर्म ।।१२६०॥ एक दिन मुनि को दिया आहार । विनययंत होइ कीनी सार ।। नित उठ रार्ष मातम पान । अत समं पढ़ पंच प्रमु नाम ॥१२६१।। देही तजि गया सौधर्म विवान । भया देव पाया सुख ठाम ।। व्हां ते चय मृगांकपुर देस । सूरज चंद्र तिहां राम नरेस ।।१२६२।। प्रीय अंग ताकै पटधरणी । सिंघ रथ पुत्र सु सोभा वणी। समकित पुरण भमा काल । उपनां जाय स्वरगपुर वाल ।।१२६३।। विजयारध तहां परननदेस । सुकच्छ नाम तिहां तणों नरेस ।। कनकोदरी राणी सुदरी । बनवाहन पुत्र भया सुभषही ।।१२६४।। जोमन समै विवाही नारि । वीतें निस दिन भोग मझारि ।। विमलनाय स्वामी अरिहंत । निरवाए गये 'श्री भगवंत ।। १२६५॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ पापुराण तिए अवसर धनवाहन राय । रामकरत सुख में दिन जाय ।। मगहर देवि भगो बैराग्य । राजविभुति • बहीं त्याग ।।१२६६।। लषमी तिलक मुनियर डिंग पाई । दिक्षा लई वयन मन काद ।। तेरह विष धारित्र सो ध्यान । वयावरत करौं उत्तम ग्यान ॥१२६७।। सोलहकारण दसलक्षण बरत । रतनत्रय पालत गुण धरत ।। बारह अनुप्रेक्षा चितप्रेषि । माईस परीस्या सहैं विशेष ।।१२६८॥ बारह विध तफ्सों मन ल्याइ । ब्राह्माभ्यंतर एक भाइ ॥ सब जिय प्राप समान जानि । धर्मोपदेस कर व्याख्यान ||१२६९।। प्रातमदरस ज्योति सी लगी । सास उसास ग्यान करि पगी ।। मास उपास पारणां कर । अंसा तप गरबा तन धरं ।।१२७०।। लांत स्वर्ग में अमर विमाण । देही ब्रांडि भया मुरयांन ।। वहां ते च तुझ. कूषि में प्राइ । पुन्पवंत बंचन सम काय ।।१२७१।। अब भव सुरिण अंजनी तगी, कहैं संषेप वांग ।। वचन लगे अमृत समां, वोल ग्यान प्रबान ।।१२७२।। चौपई विजयारध नगरी तिहा अगणे । सुक्छ भूप मब का दुन्न हग ।। ताकं घर पटराणी दोइ । सीलवती पतिवरता सोइ ॥१२७३।। कनकोबरी न लक्ष्मीवती । दोन्यु मोम गुण गुणमती ।। लक्ष्मीमती प्रतिमा जिरण पूजि ! अन्नपान प्रारोगै तुझ ॥१२७४।। कनकोदरो द्वारा जिन प्रतिमा को बोरो कनकोवरी लब प्रेमी कगे। प्रप्तिमा चोरी कार्ड में धरी ।। लक्ष्मीवती बरत तें उठी । जिनप्रतिभा नहीं पाई पुठी ।।१२७५।। लक्ष्मीमती मन व्यापी पीर । अतस्त्राई नहीं पी नी ।। श्रीमती अनिका तव प्राइ । लक्ष्मीमती देख मुरझाय ||१३७६।। तासौं अजिका कहे समझाय । प्रवर प्रतिमा पूजो जाय । वेग समान करि भोजन करो । भाव तुमारो पुरण सरो ॥१२७७11 जिण अग्यान तें प्रतिमा हरी । अपरणी यति षोटी तिण करी ।। जनम जनम नरकों दुख होइ । प्रतिमा जाणि चुराब कोइ ।।१२७६।। भव भव हृता जीव के रोग । सदा कुटंब में पर वियोग ।। फनकोदरी कंपी सुणि बात । प्रतिमा आणि दई ता हाथ ।।१२७६।। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुनि तभावंद एवं उनका पयपुराण १५३ मैं तो महापाप इह कियो । प्रतिमां ले जल में राखिगो I लक्ष्मीमनी न्हाई ति बार । प्रतिमा पूजि करि लिया श्राहार ।।१२८।। कानकोदरी कु चिता भई । वाही समै राजा पं गई ।। . जो प्रभुजी मुझ प्राग्या गोह । तो मैं अब संपम व्रत ल्यौह ।।१२८१।। राजा की प्राग्या जब पाय 1 श्रीमती अजिका पास प्राय ।। विनती करि चरगान को नई • भीमाँ गंमो यूल जो भई ।।१२८२॥ दिक्ष्या देह ज्यों छूट पाप । जो तप किये मिटे मलाप ।। दिक्ष्या दई जिनवाणी कही । रापारूद व काया देही ।।१२०३।। तप करि किया करम का घात । देही तजि पाई सुर जात ।। इन्द्राणी थई सौधर्म विवरण । हां ने भई तू अंजनी मागि ॥१२८४॥ बाईस घडी जिन प्रतिमा हरी । वाईस वर्ष ही प्रापदा सही ।। अगछाग जल प्रतिमाधरी । वनमें पग उगाहरणे किरी ।।१२५५।। सुणी धरम उपल्या वैराग्य । मुनि के उठि चरण में लागि ।। मैं गर्म तें हो निर्वृन । दीक्ष्या लेई करूं शुभ व्रत ।।१२८६|| पुत्र जन्म को भविष्यवाणी बोले मुनियर ग्यान विचार । तेरै होई पुत्र अवतार ।। रामचन्द्र लक्ष्मण का मित्र । बहुरिज कर परम की रीत ॥१२८७।। कामदेव महा बलवंत । ताका नाम होसी हनुमंत ।। पयनंजय से फिर संयोग । बहुत बरस मुगतेंगे भोग ।।१२८ ।। तेरे असुभ करम सब गये । मुख अनंत देवगी नए । व्यौरा सुध्या किया नमस्कार । बेटी अाय निज गुफा मझार ।।१२८६।। मनमें रहसि भई अलि । चित में राषे मुनि के बोल ।। यत्र चिता तब ही मिट गई । प्रमटया तिमिर रजनी जब भई ॥१२६०॥ दुष्ट जीव हैं वनमें घने । महा भयानक शब्द है सुने ।। दावानल सा बन सब जलं । गज टक्कर तें परवत हिल ।।१२६१॥ झाई सबद तें गुजे गुफा । भव ब्यापं नहीं जीव में कुफा ।। बसंतमाला अंजनी बिललाई । सोवं धरती पात बिछाइ ॥१२६२॥ असे दुगत मौं बीतं पड़ी । इक इक पलक बरस सम दरी । एक पहर अब बीती रयन । यां सेन्या के हिये अचल धन ||१२६३॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापुरपण रतन चूलि खेघर तिह ठांह । रतननूला रागी का नाम ।। रतनचल का अपनो स्त्री के साथ आगमन अंजनी का दुख सुनि उपनी दया । हहै विलाप वावरण न किया ।।१२९८॥ इनका दुख करौं अब दूर । असे वन में ए कोई सूर ।। वाही बना देवता प्राः । एव म बंतर की अवधि जपार १६५! ई के गर्भ में है हनुवंत । महोच्छे जाके करें बहु भाति ।। महाबली अर चरम सरीर । साहसवत महा बलवीर ॥१२६६।। असे बालक तणां अवतार । याही भव पाव सिब सार । गंधर्व जाति के आप देव । मंगलचार करण को रोय ।।१२६।। सब परवत पर भई सूखास । महारमणीक सोभै चिहं पास 1। गावं गीत पर नाचे षड़ी । रतनचुल' चित अचरज धरी ।।१२६८1। अबही झदन होइ था दु'द । पलमै देख्या होन आनंद । भरे तलाब अर' पर्वत झरे । भूके रूाव भए सब हरे ।।१२६६।। छह रितु के लागे फल फूल । सीतल पवन मुख सम तुल्य ।। मुनिसुबत की जिन प्रतिमां घरी। गंधर्व देव सेव बह करी ।।१३००। संस्कृत में वे गावे गीत । कर नृत्य प्रति महा प्रवीण ।। देवांगना बजावें वोरण । करें' नृत्य अति महाप्रवीण ||१३०१।। पूजा करी अंजनी प्राय । तीन काल सुमर जिण राय ॥ भी घडी दही कुशुम समाई । वसंतमाला सब लई बुलाई ।।१३०२।। जन इसके सब समझे चिन्ह । सेज्यां पर स्वाई करी जतन ।। पुत्र जन्म भया पुत्र शशि के उच्चोत । तम घट गया उजाला होत ॥१६०३।। रवि कीसी सोभ छवि कांति । बालक सोभ अभी भांति ।। बदन देख रोत्र अंजनी । कहै बचन सुभ अंसी बनी ।।१३।। पुत्र जनम होता घर मांहि । तो मनमांन्या होत उछाह ।। जो होला पवनंजय गेह । पुत्र देखि करता अनि नेह ।।१३०५।। जनम समय देता बहु दांन । पीहर का करता सन्मान ।। अब वनमें ग्राई परदेस । कहा करू किससु' उपदेस ।।१३०।। देवांगना समझा ताहि । मह वालक मेट दुखदाह ।। पुण्यंत जीव जन्मीयो । देव पाय महोत्सव किया ॥१३३७।। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचंद एवं उनका पद्मपुराण १५५ पराक्रमी एकाभव मोक्ष । अंसा पुत्र भया तुझ कूषि ॥ अब अपणं मन करी पानंद । यह बालक जसे भुवि चन्द ।।१६०८।। रक्षा बहुत बरंगे देव | देवांगना करेंगी गेव ।। विद्याधर स्त्री संयुक्त । गुफा दुनारे प्राय पहूंत ।।१३०६।। विद्याधरी बालक विंग गई । देख बदन बलिहारी लई ।। प्रति सूरज रहा बारही ठौर । जहाँ देवता बैठे और ॥१३१०।। बसंतमाला मन चिता करें । मत कोई दुरजन बालक हर ॥ निकलि गुफा में बाहर याइ । विद्याधर विंग बैठी जाइ ।।१३१३।। नप पेचर पूछ विस्तांत । तुम क्यों रहौ वन में इण भांति ।। तुम अपरणांगना भेद । होना अहम ।। १३१२।। खेचर के प्रश्न का उत्सर पिछली बात कही समझाय । इह है सुता महेन्द्रराव ।। भनोवेगा गर्भ ते भई । प्रहलाद राय के सुत परणाई ।।१३१३॥ इस पयनंजय की अनवरी। नाईम बरप वियोग में पड़ी ।। रावण के कारन को चल्य] । चकवी वियोग देख फिर मिन्या ।:१३१४।। मात पिता श्री मिल्या न कुमार । एक रात रह गया तिक वार ॥ केतुमनी है कई निकाल : याकी किनहि न करी समार ।।१३१।। ताधी आई गुफा में रही । सर्वकथा ब्योराम्यूकही ।। मुनिवर पामि मुणे परजाइ । किये करम सो मुगः काइ ।।१३१६॥ बसंतमाला जब पूछ बात । अपणां कहो नाम कुल जात ।। खेचर का परिचय विजयार, उत्तर दिस पोर 1 हनुम्ह नगर बस तिह ठौर ।।१३१७११ विचित्र नाल तिहां भूपती । सदमानण राणी सुभमती ।। प्रतिमूरज है ताको पूत । ठोस सकस कमा संयुक्त ॥१३१८।। अंजणि सुणि हिय मह भरी । मामा सो बोली तिह घरी ।। कंठ लगाय स्वन वरि मिली । वसंतमाला छुडाव मन रली ।।१३१॥ नीर आणि परझाल्या मुख । दोन्या हीए भयो अति सुख । थारु संग नाम जोतगी संघात । तास्यु पुछी जनम की बात ॥१३२०।। कैसी बडी जन्म्या रह पूत । कवरण कवरण लक्षण संयुक्त ।। चैत्र बदि प्रा अधरात्रि । श्रवरा नक्षत्र जदय शशि क्रांति ॥१३२१।। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपपुराण दा समये हुदा परसूत । कौण लगन में जन्म्यां पूत ।। पीही लेइ करि जौतिग साधि । सुपभ नाम संवतसर वाधि ।।१३२२स। सूरज स्वामि वरष का कया । सब निरतांत जोतिमी लह्या ॥ रवि है मीन चन्द्रा पक्र । मंगल वर्ष मीन मीन का सुक्र ॥१३२३।। बुध गीन बृहस्पति सिंह । सनीस्वर मीन का संह ।। पत्री लिए तिमी देय . तभी एने विषि ।।१३२४।। दक्षिणा दई विप्र ने राइ । निवरण करी सब देवां प्राइ ।। भजनो का विद्याधर के नगर जाना अंजनी प्रति बिवाण बैठाई । बसंतमाला संग लई चढाइ ॥१३२५।। विद्याधर ले निजपुर चल्या । सुगन मुहूरत साच्या भला । वहि विवारण चले पाकास । देख्या रनि बालक प्राकास ।।१३२६।। विमान से हनुमान का शिला पर गिरना उछल पडया परबत पर प्राय । अंजनी पुत्र पुत्र विललाय ।। रुदन करे प्रति सूरज घणां । आंसू पार नयण सौं वध्यां ।।१३२७।। मालक पडचा सिला पर प्राय । परवत चुर हुमा तिह ठाइ ।। पुन्यबंत के लगी न चोट । नुख पांव अंगुठा प्रोठ ॥१३२८।। हसौर उछल बारंबार । देय पुत्र सुख भया अपार ।। लिया उच्छंग हिया सौं ल्याइ । पुहने हनू कह पुर में जाइ ।।१३२६।। नगर मांहि अति थयो पानंदं । पूजा करि श्री देवजिणंद ।। बालक बधे नित उत्तम देह । रहै अंजनी मामा गेह ।।१३३०॥ सोरठा सब त बडो ज पुष्य, जल थल में रिक्षा करे ।। संकट बिकट उद्यान, कष्ट पौड सगली हरै ॥१३३१॥ इति श्री पद्मपुराणे हनुमान जन्म विधानकं ।। १७ वां विधानक चौपई पवनंजय के द्वारा रावण से विदा पवनंजय रावण पं जाइ । नमस्कार कीयो सिर नाइ ।। रावरण में प्रति प्रादर किया । बिदा वरण राजा पर किया ॥१३३२।। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण पवन संग बहुँ सेन्यां द६ । बरुण भूपसौं चरपट भई । वरण राय के झूझे पूत । यांच्या करण राय अवधूत ।।१३३३।। खरदूषण तब लिया छुडाय । वरण आणि लगाया पांय ।। पवनकुमार सराह्या भूप । या का अधिक विराजै रूप ।।१३३४।। पवनंजय का प्राविस्यपुर प्रागमन भई जीत लंका फिर गया। आदित्यपुर पदन प्राध्या ।। मात पिता के चरण नया । परियण मांहि बधावा भया ।।१३३५।। अंजनी तरणा महल में जाम । देखी नहीं त्रिया तिह ठांय ।। मन माहीं अति चिता भई । मंदिर थी राणी कित गई ॥१३३६॥ मात पिता सू पूछी बात । मात कह्या उससे बिरतांत ।। पवनंजय का अना के निष्कासन के समाचारों से दुखित होना तिरण कारण घरतें दी कादि । उंण दूषण किया धा बाढि ॥१३३७।। बोले पबन तन वन! .::। तुम मु ते स 161 तब तुम देते वाहिर निकाल । वा बिन प्राण जाहि इह बार ॥१३३८।। वाकी मोहि बतावो सार । अजनी पठाई किसके द्वार ।। वा हम भेजी पिता के मेह । तुम उसकी सुधि जाकर ले हि ।।१३३६॥ प्रहसित मित्र लिया तब साथ । दंतीपुर तहां महिंद्रनाथ ।। पवनंजय का ससुराल काना पवन कुमार सुसर ५ गया । उन सनमान बहुत विध किया ।।१३४०।। अंजनी तणे महल में गया । देखी नहीं सोच तिण व्या ।। कन्या एक देखी तिण ठांब । पूछ बात पवनंजय राव ||१३४१॥ उन सब कहीं सुसर की बात । काही सुता पिता पर मात ।। प्रेसी सुगस खाई पछार। बड़ी बार तन भई संवार ।।१३४२॥ महेन्द्रसेन सौ तब कही प्राणि । तुम क्यो दई मजना जाणि ।। महेन्द्रसेन बोलं समझाइ । याकु मासु पोलभा लाइ ।।१३४३।। सो हम प क्यू गखी जात । प्रोलभा ते सुकुल लजाइ ॥ पवन तिलक धरि घरि सुध लेइ । कोई निश्च खबरि न देह ।।१:४४।। प्रहसित सों पवनजम कहै । तुम फिर जांहि खबर वे लहै ॥ प्रहलाद केतुमती पं ज्वाह । ए वारता कहो समझाय ।।१३४५।। जो मैं प्रजनी पाऊं कहीं । तो मुझ प्रारण रहेंगे सही । बो वह मेरे च न हाथ । तो मैं भी प्राण तजू उस साथ ॥१३४६।। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ पपुराण प्रहमित मित्र बहु विनती करें । तुमने छोडि जाउ किरण गरे ।। अंजना की तलाश भरतक्षेत्र हूँ सब देश । अजनी पाच कोई नरेस ।। १३४७१। पवनंजय विदा मित्र ने दई । हस्ति परि चढि गोधगा लई ॥ चन परबत देखी बहु ठौर ! रुदन कर पीढ़ कर तौर |! १३४८।। पचडी घटकी कर पुकार । कपडे तनके फाडे डार ।। इस वन में वह कोमल देह । वन भय देखि भई मर षेह ।।१३४६।। कं वह दुष्ट मिनावर गही । के विद्याघर ले गया मही ।। के उन दीक्षा लीनी जाह । अन्न पांगी बिन मुरझाय ।।१३५०।। में भी मरू याहि वन वीचि । ऐस दुखनं पाली मीच ।। हस्ती मती भगा कुमार | तु फिर जाह पहलाध के द्वार ।।१३५१।। गन्न प्यास तू दुनिया होइ । मेरा दुख जाग नहीं कोई ।। प्रहलादराय को पधनंजय का संदेश प्रहलादराय सों इम जाय कहो । पवनकुमार अगा में नायो ।। १३५२।। हस्नी लि रुदन प्रति करै । शासि पासि कुवर के फिरः ।। प्रमित गया जहां प्रहलाद । पवनंजय वचन के पुत्र प्रादि ।:१३५: ।। वह अंजनी बिन तर्ज परांरग । मैं तुम खबर करी यान ।। राजा सुणते खाई पछार । रोवै पीदें सब परिवार ।।१३५४।। कैतमती आई सूणि सोर । प्रहमित बातां कही नहोर ।। कोतुमती रिस' करी अनंत । ल व पापा छोडि तुरंत ।।१३५५।। केस खसोर्ट कूट हिया । सब टियरण दुख अधिवा किया ।। तिनका दुख बरण्या नहीं जाय । असे सफल लोग बिललाइ॥१३५६।। सीलवती कुदिया कलंक । इन क्यों व्यापी अंनी संक ।। अंजना की तलाश देषा देश के पेपर प्राइ । प्रहलाद में बात कही समझाय ।।१३५७।। पवनंजय प्रजनी ढढे जाय । उनको तम प ल्याई राह ।। पर जो आई महुंच नहीं । पत्री लिखी प्रति सुरज जही ।।१३५८।। भेज्या घुत प्रतिसूरज पास । उनी बात कही परकास ।। पचन प्रजनी के कारण । मापण दुख कीने घणे ॥१३५६।। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पमपुराण १५६. मान पिता विभव घर त्याग । ढूढरण कारण गया है भाग ।। पवनंजय को तुग ढूढो जाय । अंसा काहै प्रहलाद जु राय 1। १३६ ०१। अनिसुरज जलीलों दई । यो कुरा सुन नहीं ।। प्रजना को चिन्ता असे सुने प्रजनी बैन । चिता ब्यापी भयो कुचन ।।१३६१।। अब ली थी उसकी मृम मासि । नौ लीया अब बनवास ।। अब हूं तजू आगने पारा । अंसी मोहि बरणी है आंण ।।१३६२।। वसंतमाला सूरिज पं गई । सफल बात तासू वीनई ।। तुमारी भाणजी व्याकुल होइ । तुम या धीरज देवो कोई ।।१३६३।। प्रति सुरज अंजनी सौं कहै। तु काहे को चिता गहै । बठि विमारण प्रथी सब देरिन । पवन मिला तोहि विसषि ।।१३६४।। सज्या बिमांग चल्या आकास | देखे बहुपुर पट्टण वास ।। प्रहलाद तणे विद्याधर घसो । विभाग प्रारूल भले सब वगे ॥१३६५।। चले बहुत विद्याधर भूप । प्रतिसूरज पहुंच्या रवि रूप ।। देस्य सकल पवन का खोज । वहुत विनय कर सत्र सौंज ।।१३६६।। देन्या हस्ती वन के माझि । पहिचान्या सम ही जन ताहि ।। हस्ती ने देखी बहु भीर । वन में कोई न पावं तीर ।।१३६७।। पट्टा चुखै अधिक मयमंत । परिदक्षणा देवे बहुभांति 11 प्रमु रक्षा कर गयंद । बल न विद्याधर का बंद ॥१३६८।। कागद की हथणी दिजलाइ। हाथी बांधि लियो तिन डाय ।। पस्न बैठा कर संन्यास | गही मौन जीव तजि प्रास ।।१३६६।। पवनंजय की प्राप्ति प्रहलाद देवि अति निता करें । मति यह रूप दिगंबर घरै ।। माथा चुच्या पुत्र का जाय । बहुत प्रकार करी गमझाय ।।१३७०।। इह दीक्षा की नाहीं बार । बब तुम सुख मुगतो संसार ।। ग्रागै जब संपति छ भला । तब दीक्ष्या लीजा मन रली ।। १३७१।। मौन माहि इन सन इम कही । त्रिपा वियोग संन्यास मैं गही ।। जब अंजनी मैं देनु नैन । तत्र मैं बोलू मुख सों बैन ।।१३७२।। अन्न पान मैं तब ही खाउं । मैं अब घरया मरण का भाव ।। तब रोब विद्याधर धणे । राक्षस वानर बंसी जणं ।।१३७३।। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १यपुरण प्रति सूरज बोल हंसि बात । हूं बुलाऊं पवनंजय इक भांति ।। तब सई बोल बेग बुलाय । तीन लोक में होद जस नांव ।।१३७४१ प्रति सूरज पवन किंग जाय । प्रथम भेद भाथ्यो समझाय ।। और सव बात गुफा की कही । पुत्र जनम सुण रहस्या मही १२३५ मुनि केवली गया था जान । वन में नारि देवी विलालात ।। दया निमित्त मैं तहां प्राइया । भागाजी कु विमाग परि लिया ।।१३७।। अंसी मुणि मन प्रानंद भया । सब ही का संसा मिट गया । बहरि कथा वालक की कही । रूप लक्षण वा सम कोई नहीं ॥१३७७।। रवि नै देखि बालक उछल्या । तिहां ते आइ परबचन परि पइया ।। बहुत दुख चित चिता भई । हमारी सेन्या मगली हई ।।१३७८ ।। बालक की सुरिंग रोब पौन । हाई हा कर सब होन ।। प्रति सूरज तब बोर ज । बालक जाना नही पान ।।१३.!! सिला फूटि थई चकचूर । पुण्ययंत्र के लगी न मूर' ।। गूठा चूप खिलक स्वरा । पुन्यवंत बालक तिहां परा ।। १३८० ।। लिया गोद अंजनी कु दिया । हनूरह में प्राथम लिया ।। सेना सहित हनुम्ह गये । मब राजन को भोजन दिये ।।१३८१।। जना पचभंजय सिलन मास दोय को सकस नरेस । बिदा मांगि पहुये निज देस । पवनंजय अंजनी सुख के भाव । पुत्र तणां घरया हणुमंत नाम ।। १३८२। कामदेव हैं सब त बनी विपकी कसा जगन में चली ।। हमान का सुणं चरित्र । धन संपति बहु लहै पत्रिष ॥१८॥ सुणि पुराण जे निश्चय धरं । काटि करम भव मायर तिरै ।। रवि प्रकास नै भये प्रघर । पावं मोक्ष नास भव फेर ।।१३६४।। जाय मुगति में निरभय और । अावागमन न होय बहोर || दरसन ग्यान तब लहैं अनंत । बलबीर्य का नाम अन्त ।।१३८५।। चरित्र सुरण हनुमान का, धरै परम दिढ चित्त ॥ निश्चय पावै परमपद, होइ मुति की थित्ति ॥१३८६।। इति श्री पद्मपुराणे पवननय अंजनी मिलाप विधानकं ।। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुमि समाचन्द एवं उनका पपपुराण चौपई १८को विधानक धरण द्वारा रावण से युद्ध वरगा मुगी पतंजय मह त्याग ! लोड़ि कट व वन में गये भागि । अब मैं भुगती निरभय राज । रावण सौं क्या अटका काज ।।१३८७।। रावण का कछु भय नहीं घरू । अब मैं पकडि बंदि में करू ।। रावण सुरशी वरण की बलि । महाकोप उपज्या सब गात ।।१३८८।। देश देश को दूत पठाइ । सकल भूपत्ति लिया बुला बुलाइ । दोइ सहस्र अषोहिणी दल बुड्या । वाजंत्र वाजै मारू पुरघा ॥१३८।। वज दमामा प्रर सहगाहि । मधपुरी को घन घेरी जाई ।। भेजा दूत हनुरूह देस । पचनंजय को दिया संदेस ।।१३६७।। पवनंजय रावण की मांगि। चल्या देखि बेग्य। फरमान ॥ हनुमान द्वारा युद्ध में जाने की इच्छा नब हणुमंत कहै इण भांति । मौकू माग्या दोजे तात ।।१३६१॥ मेरा तुम देख्यो पराक्रम । होइ सहाइ तुम्हारा धर्म ।। पुत्र अयण सुणि हंस्या पवन । पुत्र कीया तहां गवन ॥१३६२॥ सेना बहुत लई तिन साथ । त्रिकुटायल देखि छिप्यो दिननाथ ।। तिहां उतरि के प्राश्चम लिया । भया प्रभात पयाणां किया ।।१३६३।। संवरण पास गया हणुक्त । देश्या ताहि बहुत हर्षवंत ।। बहुत प्रति थी बॉल भूप । वाका देख्या अधिक स्वरूप ।।१३६४|| वाकी कथा कहैं सब लोक । पर्वत परि पत्या माता भया सोक ।। पुन्यवंत के लगी न चोट । परवन गिला भई सब षोटि ॥१३६५॥ सिला फोहि टुझाडे करे । हगौंमान जीक्त ऊबरे ।। बहुत सिरावै रावण राय । पवनंजय भली करी बहु भाय ॥१३६६॥ अंसा बली भेजा मुझ पास । पूरंगा मो मन की आस ।। खेना देखी नाना मांति 1 केई सरह की उनकी जात ।।१६६७|| 'रतनदीप घेरचा चिहुंकोर । बरग राय पाया चढि भोर ।। सकल पुत्र प्राए बढि संग । मारू सुरिण कातर खित मंग ॥१३६८।। मुरवीर मन कर आनंद । दुचां सुभट कर चद बंद ।। गक्षमपंसा दिये अहराइ । बानर बंसी बोले राइ ।।१६ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापुराण .- . भाज्या रग से लाग लाज । अब फिरि को भूप के काज ।। सिमट लोग फन मनमुख भए । इद्रजीत मेघनाद दोऊ गा! ।। ५४७०।। उतने कुमर इतते नृप धने । घरग पुत्र इनों ने हने ।। मार मार दोऊ घां होई । भूमें सुभट हटं नहि कोय ।।१४.१॥ रावण पाप कटक में अभ्या। बीस भुजा दस सोरनी वस्या ।। स्थंह तणे रथ कंट्या भप । तब हणुवंत धाया दलरूप ।।१४०२।। वांचे वरुण के बहु पूत । वरण राय तब प्राय पहुंत ।। मनमैं सोचा रावण राय । जे बालक ने मारै ठाय ।।१४०३।। असे समझ पाया गामही । झमे लोग न हारि मानई। वरण एक विद्याने संभारि । रावण परि छोडि तिरा बार ||१४०४।। भकरण द्वारा विजय के पश्चात् सूटपाट करना रावण ऊपरि विद्या यही, हनुमान वह विधा गही ।। वानर वंसी ने ब्राधिया कुमार' प्रेरया वरण लोह की धाष्टि ।। १४०५।। आण्या बांधि रावण के पास । कुभकरणस्यु बोल्या हास || लूटो नगरि करो तुम बंदि : जिहां तिहां जाई मन्त्राई दुद ॥१४०६।। सूटो जिको तिकोही लेह । कुंभकरण इम आग्या देह ।। लुटया नगर हाट बाजार 1 राजा का लुटपा मंडार ॥१४०७।। बहुत नारि नर लीन्हें बांधि । सीलवंती मरं विन अपराध ।। कोई जीभ पंड करि मरें। सील मंग तै पतिव्रता डरै ।।१४०८।। केई कुभकरण का रूप । गग प्रभागप सु देखे भूप' ।। पनि भाग जे याकी नारि । यह उनके ऐसो भरतार ॥१४०६।। केई पुत्र पत्र विललाइ । कई मात पिता कोई भाइ ।। गिणक कुटन बिछोहा भया । परिबस पड़ों बहुत दुख सहा ॥१४१०.। कई बांधि लाई संगि नारि । कई ऊंटां परि असबार ।। कई लई गाडना डारि । बहुत बांधि घेरी तिण धारि ।।१४११।। मंसी विधि रावण वै आंनि । कुंभकरम्प पाया वलिवान ।। सगली दधि तब कर पुकार । रावण सुणि करि दया विचारि ।। १४१२।। बावरण द्वारा लूट की निन्दा करना ए तुम क्यों बांधी अस्तरी । कुभकर्ण ते कीनी बरी ।। अर्थ दर्व दे छोडी बंदि । अपणें घर तुम करो प्रानंद ।१४१३।। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनि सभाचंच एवं उनका पपपुराण जाको वस्तु लटि में गई । ताकी ताहि मंगाय करि दई ।। रावण में सब दई असीस । तेरो भलो करो जगदीस ॥१५१४।। रावण फिरि लंका में गया । सुदरमा सहज ही लिया ।। जे जे राबद करै संसार । धरण किये बहुते नमस्कार ॥१४१५।। मैं तो चुक करी थी धणी। कछुवन मावे कहतां बणी । मैं तो अधिक मूढता की । तुम्हारी भाग्या चित्त न धरी ।।१४१६।। वरण को पुनः राज देना वरूगा म्य तव दीना छोडि । बंधए सफल दिये नृप तोहि ।। वरण फेर करि पायो ग़ज । रतनदीप वा सारघा काज ॥१४१७।। चन्द्रनग्या को महाप्रभा पुत्री । हनूमान ब्याही सुभ घरी ।। वानर वंशी राजा वर्णन अपनां पुहपथी नगर शुभ देस । हनुमान कुदिया नरेस ।।१४१८।। किंपपुर का राज नल नौल । श्रीमालणी रांणी सुभसील ।। श्रीजयंता ताकी सुता । हनुमान कुदीनी मुखलता ॥१४१६।। विजयारच गिर किन्नर गीत । कन्यां बाकी च्याही सुभ रीत ।। विधपुर र हैं सुग्रीव । सुतारा पतनी धरम की नीय ॥१४२०।। भावमंडला पुत्री ता गे । रूपन क्षरण करि सोभ देह ॥ कन्या बडी सयानी भई । राजा के मन चिता श्रई ।।१४२२।। कहै स्वयंवर छाडं आजि । देस देस के भूपति काज ।। जा गन्नु बान्या छान्दै माल । कन्या मो व्याहै भूपाल ।।१४२२।। राजा मना विचार भन्ना । देस देश को त्रितेरा चला ।। पूतली लिली सबै को जाइ। जहां लग थे प्रध्वीपति राय ॥१४२३॥ महां तहां के राजकुमार । चितेरे लिस्त्री सुरति मवार ॥ हनुमान भी लिखी फूतनी । समझि हाइ प्रति सौंपी भली ।।१४२४॥ देशी भाव सकल मंडला । हनुमान उपरि चित चल्या ।। राजा बाकी मृरति लिखाय । हनुमान पं दूत पठाय ||१४२।। गया दूत जे हशुमंत । रुपलक्षण का नाहीं मत ।। दीया पटले वाक हाथ । किया 'पयाना दूत के साथ ।।१४२६॥ तिहां नारि होमै मथमंत । जहां जाय निकस हणुमंत ।। भामंडला नप दई पठस्य । भोग भूमि नप करें उछह ॥१४२७।। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण प्रजनीपुत्र जाण्यां इक योर । छत्रपति नाम विराज ठौर ।। निरभय राज कर तिहां मूग | दुष पिता सब डारी कूप ॥१४२८।। प्रथमकांड थेरिपक सुण्यौं, विद्याधर की बंस।। मिघ्या पेदन मिट गई, सगली ही मन मस ॥१४२६।। इति श्री पहापुराणे प्रगान रावण iti ।। १६ विधानक सोरठा बे कर जोडि नरेस, श्रेणिक फिर परसन करें ।। रावण वंस परमेस, मैं बहु बिघ करके सुण्या ।।१४३०11 चौपई जिन कोई बर्फ त्रिदोष का धरसी । सी मैं उनके मुख सुरगी ।। केवल वयण बाह्यो समझाय । सब संसय तिहां मिट जाय ।।१४३१५ किम जपजै चौबीस निणंद । द्वादश चक्रवर्त्त गुणवृन्द ।। नव नारायण बलिभद्र भए । प्रति नारायण कैसे थए, ।।१४३२।। बावण पुण्य पूरब भव किया । कवरण स्वर्ग तें चय प्राइया ।। किम मुरु पास दिया लई । कवरण भूमि ते इह थित भई ।।१४३६।। अडिल्ल वागी यांन गंभीर सबै जिरगवर कही । गौतम करें बस्तान सुरगै श्रेणिक उर मही ।। समकित मों धरि प्रीत सुरण मत ल्याइक । सकल बंस का भेद कह्मा समझाके ।।१४३४।। जंबुद्धीप भरतषंड कोसांबी नगरी समुष नपति करें राज दया चित प्रागरी ।। सुखी धर्स सब लोग दुखी कोई नही, आई रितु बसन्त सब न श्रीडा चही ।।१४३५।। बोरक सेठ एवं वनमाला वर्णन वीरकसेठ तिहां रहे वनमाला असतरी। रूपवंत गुरणचतुर सनावण प्रतिपरी ।। सकल प्रजा नप साथ सुवन क्रीडा करी । देख त्रिया नप नैन सुदित चिता धरी ।।१४३६॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभार एवं उनका पमपुराण वनमाला पर राजा का प्रासक्त होना वनमाना वित चल्यो देवि भूपाल को । राज रिद्धि सब देखि भयो सुख वाल को ।। मो सी नारि सकए राय घर जोदए । कहा चरिणक पर जोवन थिरता खोइये ।११४३७॥ राजा सोच अधिक मन में करें । नरपति कर अनीत सुमर नरको पई ।। हूं नृपति धरमिष्ट पाप कसे करू। व्याप्यो भधिको काम सु धीरज किम धरों ।।१४३८।। राजा को व्याकुलता गही राय तब मौन भेद नहि पाइये । कर वैद्य उपचार सु मौषध ल्याइये ।। कह दोष पित्त वाय का ग्रन्थ बिचारि के । उसको रहै न विकार विहार के २६ पंडित जोतिग कहँ ग्रह चाल को । नवग्रह खोटे व्या या भूपाल को ।। मुख बोले नही बोल सुग्रह खोटे लगें ।। बहुत बळी गंभीर जुड़े प्रीतम सग ।।१४४० ।। सुमति नाम एक मंत्रबी, पायो भपति पास । लोग उठाय दिये सर्व, पूछ करि अरदास ॥१४४१।। सेवक स्यों मनकी कहो, किंण कारण गही मौन । सौच बात मुख उचरो, तुम मन संसय कौन ।११४४२।। राजा मंत्री सों कहै, सांभलि सुमति सुजाण ।। बनमाला में देख करि, चये जात हैं प्राण ।।१४४३।। मंत्री विनद राय सों, तुम नृप प्रछो सुग्यांन ।। परनारी के संग थी, होइ घरम की हारिग ।।१४।४।। बोलें नृप अकुलाय करि, सुण हो मंत्री बात ।। ग्यांन भेद कब लग भणों, वा विनमो जीव जात ।।१४४५।। मंत्री सोच विचार कर, दूती लई बुलाइ ।। भेजी धनमाला कनें, लीनी तुरत मंगाय ॥१४४६।। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ पापुरगण दोन्यु की इच्छा फली, कियो जुगति सों भोग 1 जसे दुखिया मानवी, मूल रुख वियोग ।।१४४७।। बीती निशि सूरज उदय, दंपति कर स्नान ।। सुमरै श्री भगवंत की, मुनिबर पहुंता प्रान ।।१४।। उठि द्वाराप्रेषण करयो, मुनि को दियो प्रहार ।। दंपति वह विनती करी, जिम थाये निस्तार ।।१४४६।। जाप करत तस भूमिप, पडी वामनी याय 11 वे दंपति दोउ मृवा, थिजसार्द्ध उपजा जाय ।।१४५० ।। उत्तर श्रेणी हरिपुर नगर, तहां पक्म गिर भूप ।। मृगावती राणी उदर, जनम्यां सुपम स्वरूप ।।१४५१।। अडिल्ल पूर्व जन्म हरि विभ्रम घरा जातिगी विन ने । दिन दिन बई कमार मराजा केतु ने ।। रुपर्वत सोमंत सुख परिवार में । दान सुपात्र सहाय भयों संसार में ।।१४५२।। गेघपुरी को नरपति ताकी अस्तरी । वनमाला का जीव गर्भ तमु अवतरी ।। मनोरमा धारधो नाम जोतिगी त्रि में । रूप लक्षण सामोद्रक काह तमु तनँ ।।१४५३ । जोवनयंती देखि हरि विभ्रम को दई । लगन घडी सुभ माधि विन चौरी छई ।। रहम रली सों व्याह रह रंग प्रीत गरें । फूलन की कर रोज में सुख रीत सौं ।।१४५४।। बोरक सेट की तपस्या बीरक सेट उठि हाट तें, पायो गेह मंझारि ।। चिता चित उगजी घणी, लिहां न पाई नारि ।।१४५५।। घर की सुधि सब बीसरी, टू घर घर जारि ।। कहीं न पाई अस्तरी, जती भयो तिण धार ॥१४५६।। करी तपस्या जुगति स्यों, लही देवगति जाय । उपनी अवधि इक भवतणी, हदभाव सौ प्राय ।।१४५७।। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण दंपति पिछला बर सु लो वाल्या श्राकास मुलगा ॥११४५८६११ । हूं पूर्वे थो वाणियों तू पुथ्वीपति भूप ॥ सत्र जो तू दया के भाव बल करें, हुं लडू जुध के रूप ।। १४५.६ ।। चौपई देव होकर पूर्व भय की अपनी स्त्री को दुख देना दंपति को दुःख दोने घो। सुर का क्रोध कहां लगगि १३ गहिहि गया उछालि । धरती पडतां फैले स्माल ।। १८६०।। कहै समुद्र में देहु बुडाइ | कैले धरू सिला तलि जाइ || के या मोंड करू चकचूर । नखसिख तोडि मिलाऊं धूलि || १४६१ || दूहा बहुत त्रास उनको दिये, उपनु जाती ग्यांन ॥ पूरब में पाली दया, तो सुर लह्यो विमान ॥। १४६२॥ चौपाई जो अब इनकी हत्या करू । नोतम पाप श्राप घट भरू ॥ जं मानुष करें कोई पाप । जप तप करि निज हरं संताप || १४६३ सा मेरा दोष टलें प्रखरीत राखुं जीव दया सुं प्रीत ॥ लोड दंपत्ति प्राणी दया 1 नारि पुरुष मन आनंद भवा ।। १४६४ ।। वृहा चंपापुर क्षिरण दिसा, छोडें दंपति जाय । हरिणिपुर को नृप थयो, हुवो प्रताप अधिकाय ।। १४६५ ।। चौपई १६७ जन्म्यामांनी महागिर हर्ष ।। हरवंसी जनमिया कुमार ।। १४६६१ राज करत बीतें बहू वर्ष महा प्रताप प्रगट्या संसार हिर्मागर बसु गिर पीछे भए । महीधर आदि पुत्र बहु थए ।। केई स्वर्ग देवगति पाई । केइक मुक्ति विराज्या जाइ ॥ १४६७ ।। बहुतै नया बसाया देस हरिबंसी चहुं भए नरेस ॥ सीतलनाथ का दरसन किया। हरिराजा का समए भया ।। १४६८।। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ पद्मपुराण सीतल नाथ जिनेन्द्र ते, हरिबंसी हुए प्रनंत ।। नांम वहां लग वरगाए, कहत न मावे शत ।।१४५६।। चौपई मुनिसुव्रतनाथ का जन्म मागर नगर सुमित्र नरिन्द्र । पोमा देवी मन मानंद ।। सघन ग्रह नगरी में बसें । दुखी दलिंदी कोई न नौ ॥१४९०।। पदमादेवी पिछली राति । सुपने देखे नाना भांति ।। स्वेत गयंद दृषभ अस्यंघ । लक्ष्मी माला पूनमचंद ।।१४७१।। सुरज उदै मच्छ जल्न तिर | कन सरोवर निरमन भरें ।। सिंघासा रतनन की ममि। देखी श्रगान बल निरघम ।।१८७२।। कुंभ जुगल देख्या जल भरया । देव विमान अनूगम भरपा ।। देख्यो धरणेन्द्र देवता माग । थयो प्रभात उटी जब जाग ॥१४७३।। सोलह सपना देख्या ३ महि । सुलिन भूः स कहो ना बात ।। सूणे सकल सुपना के बैन । विगसन बदन भयो उर चन ।।१४७४।। होय पुत्र विम्बन का धणी । हरिबसी कूल वाणी वणी ।। तीन लोंक के सुरपति पाई । श्री जिन के सेवेंगे पाय ॥१४७५।। नरपति पगपति दानव देव । ए सब प्रानि करेंगे सेव ।। पंचग्यान कर त्रिभुवन पति । धर्म प्रकासि पंचमी गती ॥१४७६।। सुणि पिर जयण हीये सुख भया । अंचल गाठि बांधि के लिया ।। श्रावण बदि दोइज सुभ घडी । प्रभृजी प्राय गर्भ थित करी ।।१४७७॥ आसरण कंप्या सुरपति इन्द्र । अवधि विधार किया प्रानंद ।। श्री जिन देव तों अवतार । उतर सिहासरण कियो नमस्कार ।।१४७६।। फूटी जम तब लिये बुलाइ । नगर कुसागर बेगा जा६॥ छपनकुमारी देवि पठाइ । गरम सोध लणं प्रभा ॥१४७६।। रतनवृष्टि फूलों की दृष्टि । जे जे करत भये अघ नष्ट । देवी सब मिल सेवा करें । गत दिबस टारी नहि टरै ।।१४८०|| जैसे रवि बादल की छोह । इम गरभ माहि दंप जिगशाह ।। स्वाति बूद पर दमके पत्र । श्री भगवंत पहा पवित्र ।।१४८१॥ बसाख बदि दसमी सुभवार । श्रवण नक्षत्र भयो अवतार ॥ सरपति संग अपरा घणी । प्रेसपति साज्या विधवणी ।।१४।। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभासद एवं उनका पद्मपुराण १६६ चले देवता जे जे कर । इन्द्राणी जिगा नर ने हरै ।। माया का बालक उतै राखि । लीया उचाइ दीनता भाखि ।।१४८३।। पति की गोद दिये जिनराय । दरसरण देशि महा सुख पाय ।। बाजे वाजै नाच देव । दसौ दिसापति प्राए सेव ॥१४८४ ।। मेच सुदरसण पांडुक सिला । तिहा महोच्छच कीना भला ॥ करं उघटणा मंगल गीत | धीराचारि की बहु प्रीत ॥१४८५॥ सहस प्रोत्तर इन्द्र ने भरे । और देवता बह कर परे ।। श्री जिया ऊपर डारें आसिा । काजल नयन सहित मुख पान ।।१४८६।। बौंधे कणं वन की गई। कूडल तणी जीति अति हुई ।। प्राभूषण पहराय अनूप । सब सिंगार सोभे रूप ।।१४८७।। अष्ट दरब सू पूजा करी । कर प्रारती विनती करी ।। श्री जिनवर माता में प्राणि । तिहां वार्ज प्रारदि नीसारण ॥१४८६।। इन्द्र घरमांन्द्र सूर ल गये । वररुया रतन पूष्प वरगये ।। तीस हजार वर्ष की प्राय । बीस धनुष की ऊंची काय ॥१४८६।। वाहैं जोतिगी लगन विचार । मुनिमुखत त्रिमुयन प्राघार ।। मुनिसुकतनाम का जीवन परिया मांहि बघावा भया । जनम समय बहु धन खरचीया ।।१४६।। वेले संग देव के बाल | क्रीडा कर तक रूप विशाल ।। सात सहस्र अरु बरष पचास । ता पाछ मन भया उल्हास ॥१४६१।। जसोमती ब्याही वर नानि । रूपवंत शशि की उपहारि ।। भोग करत दिन बीते घणे । भयो गरभ जसोमति तणे ॥१४९२।। दक्ष पुष जनभ्या शुभ घडी । पग्य माहि बधाई करी ।। पंद्रह सहस्र वरष करि गज । मृग मृगनी देखे वन मांझ ।।१४६३।। बिजली पडि करि दोन्यू मुवा । ताहि देखि मार विस्मय हुग्रा ।। मन में धरपा धरम सो काज 1 दक्ष पुत्र को दीनों राज ॥१४६४।। सुपरणां सरसी जांसिंग विभूति । मुरलोकांतिक प्राणि पहूंत ।। धन्य धन देव सबद सब करें । प्रमु प्राग शिव सुरका धरै ।।१४६५।। चढे पालकी प्रभु बन लाछ । सिंघ नाम ले लोंच कराह ।। भए विगंवर मातम ध्यान । मुरपति किया चारित्र कल्याण ||१४६६। वैसाख वदी दसमी दिश चित्त । नो वरष रहिया छदमस्त ।। बैसाख वदी नवमी शुभ वार । दारे करम पातिया चार ||१४६७) Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० पपपुराण प्रकृति तरेसठ टी जान । उपज्या प्रभु कू केवल ज्ञान ।। पाए चतुरनिकाय के दव । पूजा का बहुत विध देव ॥१४६८।। जोजन तीन रच्या समोसा । भव्यजीव का संसय हा ॥ कंचन कोट रतन के तीन 1 सिंहासन भामंडल लीन ||१४६६|| चा- दन के वृक्ष प्रनि बने । वृक्ष अशोक शोक को हरण ।। वरणी षातिका प्रति गंभीर । तिस में दी निरमल गीर ।। १५००।। मानस्थंभ मान कहर । देखत दी मन निर्मल करै ।। अठारह गणघर बैठे पासि । च्यारों म्यान' के हैं वे भास ।।१५०१॥ बागी बेट सुण सब कोय । बारह सभा का समय खोय ।। गरधर ब्योरा कहें घस्सारण । भन्न जीव सांभलै वषांग ।।१५.०२।। दानपती हा नप वाहत्त । सहसराय लीयो चारित्र । असाख बदि चौदसि निर्वाण । संमेदगिरि गए मुक्ति भगवान ।।१५०३।। जोते जोति जाम करि मिली । पूजा इन्द्र करें मन रली ।। पाल प्रजा दक्ष प्रमु मुघ । महाबली अति धर्म स्वल्प १५०४॥ एलवृद्धन कू दीया राज । आपण किया मुक्ति का साज I1 श्रीवर्द्धन जयवंता भया । सार्क पुत्र कुनम वलि थया ॥१५०५।। महारथ पुल वासकेत बलबंड । बहु भूपन से लीया दंड ।। वासकैत के विमलावती नारि । रूप सील संयम की पार ॥१५०६।। जनक मप ताक उर भया । दान मांन सबको बहू दिया ।। दया दान सयम नित करै । पुण्या प्रताप तेंदुरजन डर ।।१५०७।। दूहा हरिवंती राजा हरिवंसी पुनिवंत कुल, भूपति भए अनेक ।। काटि करम सिबपुर गए, पांच नाम की टेक 1॥१५०८।। चौपई कोई पंचम गति को गए । कई स्वर्ग देवता भए ।। हरिबंसी बसाए बहु गाम । इनका कुल तीस की ठाम ॥१५०६।। इक्ष्वाकवंस प्रादीश्वर किया । जिनकी कथा सुणौं धरि हिया ।। उत्तम कुल सबही तें प्रांदि । तिनकी चाल कथा अनादि ।।१५१०।। आदिनाथ मुनिसुव्रत लों, नरपति भए अनंत ।। नाम कहीं लग वरण, कहत न मा प्रच ॥१५११॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंच एवं उनका पयपुराण चौपई रणही बंस बहु भूपति भए । काटि करम शिव पानक गये ।। केई पहुंता स्वर्ग विबांग । केई भया पृथ्वीपति प्राणि ।।१५.१२।। कोई पहच्या नरक मारि। केई पहच्या स्वर्ग विमांग ।। जैसी करणी तैसी गति 1 धर्मध्यान में राखै मति ॥१५१३।। सति समान दान अरु वृत्त । देवशास्त्र गुरु राखें हित्त ।। च्यारिउं दांन भाव सों देइ । सो ऊंची गति का सुख लेइ ।।१५१४।। इष्वकासो राजा वन्त्रवाह वर्णन इष्वाक बसी विजय नरेम । भूगते नगर अयोध्या देस ।। हेमचूल रागी पटवणी । मानू कनक कामनी बणी ।।१५१५।। सुन्दामन ता पुत्र जनमिया । कोतवती तसु व्याही त्रिया || प्रथम पुत्र वज्रबाहु भया । दुजा पुरीन्द्र पराक्रमी थया ।।१५१६।। दोन्यू कुमर विद्या बह बढ़े। बन पौरस सू बहते बढ़े। हथनापुर हंसवाहण राय । चूडामणी राणी पटवाय ।।१५१७॥ मनोदया पुत्री ताके भयो । सो वनबाहु कुमर को दई ।। लिख्या लगन साध्या सुभ द्यौस । व्याहण चाल्या नृपं मन हाँस ।।१५१।। पुरों इसो पूछ नव वात । चलोकरण मुनिवर की जात ।। नासा दृष्टि प्रातमध्यान । ताको सोभे भ्यालं म्यांन ।।१५१६।। बसत समि परवत परिजाय । वचवाह हस्ति पहिराय ।। मुनिवर एक तिहा नप करै । जैसे केस सुदर नर धरै ।।१५२०॥ पातमभाव' लगायो जोग । छांडे मकान जानि के भोग ।। तन बाईस परीया सहै । प्रष्ट काम कमिती यहैं ।।१५२१।। ता की अधिक विराज जोनि । निग समान गरिग्रह नहीं होता। दोनू कुमर मराहै पाइ धनि मात्र जे असे भाइ ।।१५२२५ । अज्रबाहु तिहां लाया घ्यांन । देख्या मित्र उश्यसुदर नाम ।। कहै दिम चाही दिक्षा लिया । वैरागभाव मैं ते चित दिया ॥१५२३॥ कंवर भणं तब अधिरज कहा । मनुष्य ही पाल चारिग्र महा ।। उदय सुदर बोल तब मित्त । जै दिक्षा तुम पाणी चित्स ।।१५२४।। में भी संयम त्यों तुम साथ । मेरी प्ररज सुणों प्रभु नाथ ।। दसनी सुनत वसन सब डाली । मन वैराग्य भयो भूपाल ।।१५२५।। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ पपपुराण तब उठि मित्र वीनती करी । हासीक ना सांची चित्त धरी ।। तुम तो चले ब्याह के काज । कवण समय दिक्ष्यां की आज ॥१५२६।। बोले कुमर सुपन समरिघ । मात पिता कुरण भाई दंध ।। जैसी पर फुलत है सांझ । श्रमे सुख कू लवकं मांझ ॥१५२३।। विणमत वाहि न लाग वार । अंसा है संसार अमार ।। धन्य धन्य तू मेरे मित्र । तें मोहि कही परम की रीत ।।१५२८।। तुझ प्रसाद सिय मारग गहु । तेरा गुण मैं कवि लग कहू ।। अंसी बात सुणी परवार । बाल वृद्ध पाए ति बार ||१५२६। दादी माता सब मिल ग्राद । प्रौर करें बट ज- समय ।। तु बालक जोबन की बार । करो विवाह भोग मंसार ॥१५३०।। कुबर भणं संसारा थिति । जोषका कोई सगा न इस ।। सोग विजोग रहद की घी । कयही रीती काही भरो॥१५३१।। सब साता तं पात्र सुख । अशुभ करम उदय ते दुल ।। सुख भुगतै जो सागर बंध | इक पलके दुख मैं सब दुद ॥१५३२।। तात हू अब तप पाचरू' । परम नाव भवसायर तिरू । गुणसागर मुणितर के पास । दिक्षा लई सुगति को प्रास ॥१५३३॥ दोई सहस अरु नः स कुमार । भए दिगंबर केस उतारि ।। मनोदया सांभली यह बात । दिक्ष्या लई अजिका के पास ।।१५३४॥ विजयसेन सुरेन्द्र मनिभूप । बैठे सफल सोग के रूप ।। वह बालक सुकुमाल सरीर । कैसे सहेगा परीस्या पीर ११५३५॥ हम तो राज भोग बहु किए । ऐसी कछुवन पाणी हिये ।। जरा च्यापी देही जो जरी । कैसे होय तपस्या खरी ॥१५३६।। जोवन समय संभाल्या नाहिं । अब पिछताया होवे काहि ।। समझाये सब मंत्री ग्राम । जो कछु सधै सो करि जाय ।।१५३७।। सोई घडी सधै सन धर्म ! वाही घडी करें अप कर्म ।। सकल राज रिष करि त्याग । विजय साह हुमा वैराग्य ॥१५३८।। पुरिंदर प्रति सोप्पा निज राज । प्रापण किया दिगवर साज ।। विजयसेन संग राजा घने । भए जती मद पाठी हणे ॥ १५३६।। निर्माणघोष घोष मुनिवर के पास । भये साप मन पूजी पास ।। पुरीदर राजा पृथ्वीपति अस्तरी । कीसिषर पुत्र भया सुभ धरी ।। १५४७ ।। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका प कोलियर राजा बन te कुसाल नम्र हरेन्द्र नृप रूप ता घरि पुत्री अविक अनुप || कीर्त्तिधर सौं ब्याई चात्र ।।१५४१ ।। महदेव्या कन्या का नाम । माया लोभ न लाके रती ॥ भूप पुरेन्द्र हुवा जब जती क्षेमंकर पामै दिक्षा लई । आतमध्यान मे सदा रहे६ ।। १५४२ ।। कीवर अधिक प्रतापी भया । पृथ्वीतणां राज सच लिया || सकल भूप तसु मारणे प्रांण । या सम राय न को बल जान ।।१५८३ ।। एक दिवस सूरज कौं केस किया ग्रहण प्रसुभ के है ।। सुरज छिप्या भया अंधकार 1 उडगन जौति भई संसार || १५४४ । राजा देखि ति चिंता करी । भैंसी प्राउ जरा सी घरी ॥ जैसे केतने रवि कु मया । व्यापत जरा पराक्रम दया ।। १५४५ ।। रवि तो छूट जाय ततकाल । जरा च तब पापं काल ।। मंत्रिया सौ इम कहै भूपाल । तुम बालियों धरम की चाल ।। १५.४६ ।। प्रजा देस की कीज्यो सार | हम अब ले संयम का भाल ।। मंत्री सर्व कहें सीस नवाय । तुम बिन क्यों देस साध्या जाय ।११५४७ ।। तुम भुगतो पृथ्वी का राज 1 हम तुम आगे संवागं काज ॥ परा लोग करे सब भाग हमारा कया सुरणों तुम राय ।।१५४८६ ।। तुमारे राज प्रजा सब सुखी । तुम आगन्यां में कोई न दुखी ।। तुम जिन छोड्यो राज आपणां । तुम तें हम सुख पाया धरणां ।।१९४६ ॥ करो राज भोग मन ल्याइ | संतति होइ दीक्षा त्यो जाइ ।। राजा इनका मात्र्या का राज भोग में फिर रम रह्या ।। १५५० ।। परजाने बहु दीना दान । घर घर बाजे भानन्द निसान ॥ इक दिन जनम्या पुत्र उदार तास सुकोसल नाम कुमार || १५५१।। मंत्री की एक हिकमती । पुत्र ने राखियो गुपती ॥ ब्राह्मण मने किये सब जाय। राजा पासि हुवो मति ल्याइ ।। १५५२ ॥ जब एक मास वीत कर गया । ब्राह्मरण जब प्रासीरवाद दिया || दई दोब राजा के हाथ । पुत्र जनम जाण्यां नरनाथ ।।१५५३ ।। चूहा हुआ सुकोमल तणी फिराई । प्राय राय दीक्ष्या लई जाय ॥ तेरह विध चारित्र व्रत लिया । श्रातम ध्यान मुनीश्वर किया ।। १५५४ ।। इति श्री पद्मपुराणे श्री मुनिसुव्रत बच्चबाहु कीर्तिभर महासन बनं ।। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ पपुरास २० वो विधानक बौपई कोसिषर की तपस्या कीतिघर मुनिवर मनप धरै । मास उपास पारगा करें ।। म परीस्था वीस पर दोइ । दयाभाव युगलां पर होइ॥१५५५ बहत वप से तप किया । नगर प्रहार निमित्त अाइया ।। ट्वागपेषण करें न कोइ । गजा द्वारं ठाडा होइ ।।१५५६।। झरोखे बैठी सहदेवी नारि । पावत देख्या मुनिवर डार ।। देख साथ मन बहुत रिसाई : सामढधा पर पिचा: ए मुनिवर हैं बहुत बुरे । गज भौग सुख देख्था जर ।। महा दुःख मौं नाहिए राज । तिगान कहे नरक का राज ।।१५५८।। अपरणां घर खोवे व्है अती । पुत्र कलित्र की चित न रती ।। घर लजि भीख मांगना फिर । लाज' कारण बसतर परिहरै ।।१५५६।। घणां विशां खोचे घरबार । देह जलाय कर जिम छार ।। थोडं सब संसारी सुरन । छह रिता वे भुगतं दुःख ।। १५६०।। असी कुबुद्धि इनामें होइ । बुबै आप और घर खोइ ।। एक मास तरणा तजि पून । छोही समली राज विमूति ।।१५६१।। वालक की न दया चित धरी । असी इरिए सब कीनी बुरी ।। अब दो याहि दरस हि कुमार । तौ वारो भी ले जाहि गंवार ॥१५६२ । निज किकर बोल इम कह्या । राजमी पुर मा देखा जिहां ॥ तिनको मारि मारि परहा कर उ । इस उपदेस हिया मां घरउ ।।१५६३।। मुनिकर फिर गया वन माहि । कर तपस्या वासुर सांभ ।। मनमा कछु नहीं प्रांगण आग 1 जोति स्वरूप सौं लाया ध्यान ।।१५६४।। विप्र संन्यासी पांचो भेष । तिण की प्रस्तुति करें विशेष ।। ते गावं अजोध्या में घरों । तिगा पं कुमर कोक विष भगे ।।१५६५।। खोटे वेद रात दिन पड़े । जिनके सुण्यां नरक थिति बढे ।। प्रेसी विध प्रगट्यो मिथ्यातः । जैन धरम की कोनी घात ।।१५६६।। तब ते इहां मिथ्याती बसें । खोटे वेद कीये तिनों से ।। बसंतलता ये देख चरित्र । मंदिर माहि रुदन बह करत ।।१५६७।। १. रात्रि विम Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंर एका उनका पन्मपुराण १७५ राजकुमार के द्वारा वैराग्य रागकुवर तर पाय सों कहें । तेरे मन की चिता रहै ॥ जो कोई तोसु बोलें बुरा । ताकी रमना खंडु छुरा ॥१५६।। असंतमाला इम कह समझायं । तुमारा पिला भया मुनिराय ।। वह आना था लेण प्राहार | माता तुमरी साई मार ॥१५६६।। वासों राज भोग बन किये। जिसकी दया न पायी हिये ।। प्रांगा वसाए मिश्यमती। पुर में कादि दिये सब जती ।। १५७०।। तुझ को निकसण दे नहीं द्वार । बांधि राख्यो तु कारागार ।। ता कारण में किया रुदन । इम सांभल नप मोडमो बदन ।।१५७१॥ असं रात्रि महला परिजाय । डोरी बांधि तलें उतराय ।। तिहां मुनिवर वैठा था एक । दई प्रदक्षिणा आए विवेक ।।१५७२।। नमस्कार करि बारंवार । बहुत प्रकार कीन्ही थुति सार ।। जनम जरामृत ओलं जीव । चिरकाल की गाढी नींव ।।१५७३।। च्यारौं गति में डोल हंस । कहि नीच कभी उत्तम बस ।। रोग सोग प्रारति में फिर । बिन समकिन भव सायर पई ।।१५७४।। प्रभुजी मो पर कृपा करेइ । मद दघि तार मुकति पद देइ ।। मंत्री मिले प्राय सब पासि । समझावै विनती मुख मासि ॥१५७५।। यव लग थे सुम बाल प्रवेश । अब जोबन तुम भए सचेन ।। हम संसय टूटण की बार । तब तुम ल्यो हो दीक्षा भार ॥१५५६।। कुल माहि कौन छै कुमार । ताको राज सौंप हो सार ।। पिता तुम्हारे अब दिक्षा लई | महीना लणं सुन को मुदई ॥१५७७:1 अब तो तुम मुगतो ये सुन्न । चित्रमाला पावं है दुःख || याकै बालक नाहीं कोइ । ता की गति कह कैसे होइ ॥१५७८।। जब संपति हो तुम गेह । तुम तब करो दिगंबर देह ।। बोले भूपति वचन बिचार । चित्रमाला के गरम का भार ॥१५७६।। बाकं पुत्र होयगा वली । पूरंगा सब की मन रली ॥ वाको मैं दीया सब राज । जब वह जनमें तब सारी काज ।।१५८५।। इतनी कहि लब वसन उत्तारि । किया लोंच सिर केस उपारि ॥ ल्याया निदानंद सों ध्यान । गुरु संगति पाया बहु ग्यांन ॥१५८१।। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठोर तपस्या सहदेवी प्रारत में मुई। देही छोडि सिंघणी भई । दोन्यू मुनीस्वर करत बिहार । भवि प्रमोद गये वन मझारि ।।१५८२॥ घणहर करि छायो प्राकास । मुनिवर तिहां रह्या चोमास || वरष मेह मूसलाधार । तिहां मोर कुहकै प्रणपार ।।१५८३।। जल पृथ्वी पर उमडया प्राइ । नंदी नाला घले अधिकाय ।। दोन्यु मुनि परवत पर जाय । देखि सिला बैठे तिण ठाइ ।।१५८०४।। यार महीने का संचार : असा विकिरा ।। वरष मेह पवन अति चले । इनकी देह न तपते टलं ॥१५८५।। स्याम मुवंग मल पाट देह । इंस मछर तन चूटे एह ॥ बुंद झरै तर बारंबार । बेलि घणी लपटी ज्यों हार ।। १५८६।। उगी दोब देह विपरीत । महा भयानक बन भयभीत ।। देख कातर फार्ट हिया । जिस बनमाहि इनौं तप किया ॥१५८७।। प्रासोज कात्तिक माई रित्त । चंद्रमा ज्योति विराजे प्रति ।। गति चौमासय पूरण योग । साहार निमित्त चित बै नियोग ।।१५८८।। वाही वनमें सिंघणी प्राइ । मुख पसारि प्रा पूछ उठाई ।। भय दायक देख्यां डर होह । ता वन में नावै जन कोइ ।।१५।। सुकुमार साधु सिंघणी नं गह्मा । नलि मारि के पाबां ताल लाहा ।। भर्ष मांस कछु दया न करें । अले स्मंघरणी मुनि ने हग' ।।१५१०।। इह पूरव भव का सनवंध । भुगल्या वर्ग यही कछु बध ।। मुनिवर सुकल घ्यांन मन दीय। । केवलग्यान अंत हिरण भया । १५९१।। सुर लोकांतिक जै करें। सूकुमार मुनीस्कर मुक्त बरै ।। घेही दहन देयता करी । वह सिंधणी तिरण ठांग पी ।।१५६२।। फीतिघर बोले तजि मौन । तेरा वन क्यों कीया गोन ।। सुच्छ प्राव भब तेरी रही । कोष छोडि मन समता गही ॥१५६३।। लियो संन्यास तजे निज प्राण । पाया पहले स्वर्ग विमाण ।। कीसिंधर सहि केवलग्यांन । धाम प्रकास गये निरवाल ।।१५६४।। चित्रमाला के पुत्रोत्पति-हिरण्यनाभ विचित्रमाल लिय जनम्यां पूप्त । हिरवनाभ लक्षण संयुक्त ।। जोबन समय विवानी नारि । अहितमती शशि की उणहार ॥१५६५|| राजकरत दिन बीते घने । तिण ठामें एक कारण वणे ।। पारसी विखाव नाई प्राइ 1 श्वेत कोस सिर देख्या राय ||१५६६।। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाबंद एवं उनका पद्मपुराण कक बीती जीवन बेस दई दिखाई धवले केश || जमके दून दिखाली दई । मेरी याद अकारथ गई ।। १५६७ ।। घरम राह में किया न कुच्छ । अब तो श्राव रही है तुच्छ । देह जाजरी तप क्रिम होइ । श्रव पिछताये अवसर खोय ।।१५६८ | सकति समान किया कुछ जाय। तप र दर्शन करो मन मांहि ।। वृष राजकुमार को गा लघु पुत्र को राजा किया । विमल साध में संजय लिया ।। १५६६ ।। सिकरणी राणी पटखनी । सीलवंत अति सोभावनी || दिन बीते सुख मांहि बहुत। तब इक फिकर आणि पहुंत ।। १६७०। दक्षिण दिश का राजा बली । उन सब भूमि तुमारी दली ॥ व्ह का ऊपर करिये राय । या कारण आयो तुम पोय ।।१६०१ ॥ मेना बहुत भूप संग चली। सुर सुभट सोभैं प्रति वली ॥ नगर राज राणी नैं सोंग | आप चत्या दुरजन गरि कोप ।। १६०२ ।। उत्तर श्री के सुगी नरेस | नधुष बल्या नृप दक्षिण देस || रांणी न कोपी लिवेर ॥१६०३॥ रांणी असी महा विचित् ॥ उरण सब लई अयोध्या घेरि करि संग्राम भया ग्रासल दक्षण साधि नरपति थाइया । राजा को व्यापा जुर ताप । उगजी ज्वाला भयो संताप || नाई देख भेद सब कहै 1 या को कोई जतन न रहे ।। १६०५ ।। रागी बात सुगी श्रति कोपिया ।। १६०४ । । १७७ या का मरण होयगा सही । पंडित वेदों ऐसी कही || राणी नित जिन पूजा करें। पंच नांम का सुमरण करें ।।१६०६ ।। हस्तपालि श्रीया सुभ नीरयासों छिड़को राय सरीर ।। किया मंगोल अधिक सनेह ।। १६०७ ।। दगध रोग की भागी पीर ॥ लेकर जल मंत्री नृप देह सीलवती का लाग्या नीर राजर को सुख उपज्या नया । फेर सुहाग राणी को दिया ।११६०८ ॥ बहुत दिन बीते भोग मभार । स्यौंदास पुत्र ने सौंप्या भार आवरण भए दिगंबर रूप । स्योहारा राज करें तो भूप ।।१६०६ ।। कनकाभा व्यांही अस्तरी । सिघसेन जनम्यां सुभवडी || is का व्रत करें पुनीन । श्रावक करें परम की रीत ।। १६१० ।। स्पोवास द्वारा जीव हिंसा पर प्रतिबन्ध नगर मांहि डुडी फिरवाय जीवबंध को करम काइ ॥ सुशियो हिसा नाम । ता ं लूट लीजिये गांम ।।१६११।। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ पापुराण राजा आमिष अाहार नित लेई । मांस बिना कल मुख में ना देई ।। सुदर नाम रसोईदार । राजा आगे करी पुकार ।।१६१२॥ श्रावग तणौं अठाई प्रत्त । तातै प्रामिष कोई न करत ॥ राजा द्वारा मांस खाने की इच्छा राजा कहै जो आमिष ल्यावै । तो मुझ आजि रसोई भाव ।।१६१३॥ ब्राह्मण कियो नगर तलास । बधिका के घर में नहीं मांस ।। कई न पाया तवे मसाशां गया । बालक मृतक उठाय कर लिया ॥१६॥ रांध्या प्रारण रसोई बीच । असे करम किये उस नीव ।। राजा खाइ बडाई करै । बहुत सुबाद हुआ इण परं ।।१६१५।। तीन से गांव विप्र को दिये । विप्र को सूख हना अति हिये ।। त्यावे नित बालक चुराइ । ता वालक ने राजा स्वाइ॥१६१६।। नगर लोक मन मिता भई । छिप छिप सुरति चोर की लई ॥ बालक गह्मा रसोईदार । लोका मिल पकड़धा तिन बार ॥१६१७।। मारधा घणा पासली तोडिन पुछया पीछे सबै उह चोर ।। तु नित वालक ले ले जाय । तो हम मारेंगे ठाइ ।।१६१८।। द्विज बोल्या राजा के काज । इनको मांस रसोई काज || नृप आग्या से मालक हरे । प्रजा लोग सुस कर परजले ॥१६१६॥ सिरसेन कूवर जाय । मंबीयो सेती कही समझाय ।। राजा है परजा के वाडि । खेत कर जे बाढि उखालि ॥१६२०।। अंसी हम परि हुई अनीति । कैसे बसे लोग भयभीत ।। सब मंत्री मिल कियो विचार । स्योदास भूप तब दियो निकाल ।। १६६१!! सिघसेन का राजा बनना सिधसैन्न प्रति दीन' राज । भयो सकल मन बंचित काज।। स्पोदास भूप अरु सुदर द्विज । बनमें देल्या प्राचारज ।।१६२२।। नमस्कार मुनिवर कू किया । पाप पुन्य का भेद पूछिया ।। सुण्यो घरम आमिष का दोष । राज लिया संजम का पोष ।।१६२३।। महापुर नगर किया परवेस । राजा विनां पलथा बह देस ।। तहां का राज स्योदास ने दिया । दंड सकल रायन परि लिया ॥१६२४॥ सिंघसेन पं भेज्या दूत । हमश्राप मिलो तुम पूत ।। सिंघसेन बोलियो नरेस । प्रजा मोहि दीयो नृप भेस ।।१६२५।। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचंद एवं उनका पधपुराण १UR कारण कवरण पिता सों मोहि । सांची बात कहं मैं तोहि ।। दूत गया तब राजा पासि । निठुर पचन मुख कहे प्रकास ।।१६२६।। कोप चढया भपति स्योदाम । मन में जूद्ध करण की प्राम ॥ अजोध्या नगर घेरचा चिहूं अोर । सिधसेन सों कीनी झोर ।।१६२७।। सिंघसेन कू बांध्या पाह । फेर राज जन मुगत्या प्राइ ।। राज करत कितना दिन गये । चेत्याधर्म दिगंबर भए ॥१६२८|| सिधसेन कूसोप्या राज । स्योदास किया मुक्ति का साज ।। वाके पुत्र भया बर भरथ । चतुर्वक्र पर हेमारथ ॥१६२६।। दशरभ उदय पाद पृथ्वीरथ भए । अंजिनरथ इंद्ररथ पाए ।। दीनानाथ मायंत वीरसेन । प्रीतमन कमलवध सुभचन ॥१६३०|| कामलवाचवा रविमन और । वसंत तिलक तो सोमै ठोर ॥ कुमेरदस अकुधभगत । कीर्तमन अमा सुरज रथ ।।१६३१।। दुदुरय मृगेन्द्रसेन प्रापली । दमन हिराकुल मां की 11 त्रुम प्रसपल कफुथल ननुरेस । रघुराजा जीते बहु देस ।।१६३२।। ग्रहण भूप परतापी भया । बल पौरष प्रति प्रतिपाल दया ।। है प्रथवी मती राणी पटवणी । रूप लक्षण गुरण सोभा प्रती ॥१६३३। ताकै गर्म दोइ सुत भए । अनंतरथ दसरथ निरभाए । या राय के धरम सुकाज | अनंतरथ को सोप्या राज ।।१६३४|| सहस्ररश्मि रावण सौं युधि । वा समैं एक ऊपजी बुधि ।। वशरष का राजा बनना प्ररण अनंतरथ दोर्नु प्राई । सहन रश्मि में दिक्षा पा ॥१६३५॥ राजा दसरथ पाई मही । समद्रप्टी जानु ते सही ।। महषमती नगरी का राम । विभ्रमधर राजा सिंह ठांब ॥१६३६।। अमृतप्रभा नाक अस्तरी । अंबप्रभा भई पुत्तरी ।। गाय दसरथ को दई विवाह । भोग मगन मों कर उछाह ।।१६३७।। मौसल नगर अपराजित भूप | अपराजिता पुषी सुखरूप ।। किया व्याव दसरथ सौ प्राइ । भोग मांहि सुख घन विवाह ।।१६३८।। महारगुर तिलकराइ । भीममती सोम पटथाइ ।। कंकई पुत्री दसरथ कुंदई । राजभौग तहरे विलसत भई ।। मंगलायती नगरी के मात । सुमिना सोमे इह मांति ॥१६३६॥ इति श्री पपपुराणे कौशल महातम पसरप उत्पत्ति विधान Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० पद्मपुराण २१ वां विधानक चौपई दशरथ वर्णन राजा दसरथ अजोध्या धनी । सास्त्र मांहि जिनवाणी मुणि ।। नितप्रति पूर्ज श्री भगवंत 1 गुरु सेवा साधं नित संत ।।१६.४ ।। सरत्र सुनी नगरी में लोग । धरम राज सुभुगतं भोग । राजसभा जे इन्द्र समान । मुनिसुव्रत का सुगा पुराग ।।१६४१।। नारद मुनि का प्रागमन तिहा नारद मुनि पहच्या प्राई । मकल लोक उठि लागे पाव ।। समाधान पूछी बहु भाति । कुरण कण सीरथां करी जात ।।१६४२॥ दीप अठाई में करो गमन । बंठि विमाग चलो जिम पवन ।। पुअरीकणी क्षेत्र विदेह । सीमंधर जिण सासण गेह ।।१६४३।। समोसरण जो पुराण सुणे । सो प्रत्यक्ष हम देखे धणे ।। संसार मेरे मन ते टरा । अनंत गुणां सुदेखो खरा ।।१६४४।। केलि भाषी वाणी सत्य । भषियण सोग सुणं परि चित्त ।। नारद द्वारा रावण की बात करना प्रवर कही रावण की बात । कुभकरण भभीषण ध्राप्त ॥१६४५।। नलनील अब र सुग्रीव । हणुमान सुभटों की नींव ॥ सोलह सहस्र सभा में भूप । हाथ जोडि खडा रहै अनूप ।। १६४६।। तीन घर जीते सब देवा । नरपति सकल कर प्रादेस ॥ निमितम्यांनी सागर की पूछि । मेरी भाव कहो पागम बुझि ॥१६४७।। मैं सब जग बसि कीनां सही । एक खुटक मेरे मन रही ।। काल रहा है मोसुभाजि । वा का जतन करों में माजि ।।१६४८।। कहो वेग मोसु विरतांत । तो मेरे मन होवे सांति ।। तव निमित्ति यह कही विचार । दसरथ सुत लक्ष्मण कुमार ॥ १६४६।। जनक सुता का कारण पाय । ताक हाथ तेरी है प्राय ।। या मनि सुरिण चितवं नरेन्द्र । भूमगोचरी किम व्हे बंध ।१६५॥ दोन्युनुप का किंजे नास । तो मैं रहूं अमर जग बास ।। भभीषण समझा सुरिण यात । दशरथ कनक नाम बहुभांति ।।१६२१॥ किसकों मारौं कहाँ भुपाल । विरण समझयां क्यों करौं जंजाल । तब ही में पहूंच्या तिरकुट । माघे कारण भेजे दूत ।।१६५२।। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाभानंद एवं जनरल पार १८१ जे तुम जाय किहीं छिप रहो । लो अासा जीने की लहो ।। अब मैं जाय जनक सुधि देहूं । तुमकों मकल सुमाया भेउ ।।१६५३॥ दशरथ तब बुलाय मंतरी । मता बिमारं चिता परी ॥ वह पेचर हम भूमि गोचरी । बाको मुरभर कू गाई कगै १६५४।। राजा देश छोडि भजि गया । निज सुरत कर नए श्रापिया ।। अंत है पुर ले राख्या पापि । गंणी वा लिंग सेवक राइ ॥१६५५॥ याही रीत जनक नप से । कलहनी इनकी बह विध टरी 11 कुभकरण भभीषण भूपाल । बहुत ले चले साथ चि डाल ।।१६५६।। पाई मुरति अजोच्या प्रांन । दसरथ है सतस्त्रनै सथांन ।। याही विध बाह्रकुमारि । दोउं सिर ले गए तिण बार । १६५७।। दोऊ नगरी पीटं लोग । सब परियण मैं बाळो सोग ।। रावण पासि आरिण दोज सीस 1 पुजा दान मिमित्त जगदीस ॥१६५८।। अपना मन कीया निश्चंत । अमर हुवा रावण वलवंत ।। होणहार टार्यो किम दरै जाइ । जै कोई करें कोडि उपाव ।।१६५६।। दशरथ जनक पूर्व दुख दिया । या भव को इनमें व्यापिया ॥ बहुरि पुन्य कीया सुभ काम । प्रगट भया तासों फिर नाम ।।१६६०।। दोन्यु नृप आए निज देस । बहुरि दोन्यू भए नरेस ।। टरयौ कलह निर्मबो प्रानंद । हुवा सहाई धर्म जिरवंद ।।११६१५ । होणहार कैसे टल, बहुविध कर उपाय ।। अरण होणो होगी नहीं हह लिमित्त का भाव ॥१६६२॥ इति श्री पपपुराणे दशरथ जनक काल बला टालण विधानकं ।। २२ वां विधानक चौपई कैकयी मर्यान कौतिग मंगल उतर सैन । शुभमति भूप प्रजा मुख चन ।। पृथ्वी राणी ता पटधनी । द्रोगापु कैक्या पुत्री वणी ॥१६६३।। लक्षण रूप सकल गुणभरो। महा विचित्र के पुत्री ।। छही राग तीस रागणी । अठतालीस नंदन सोभै घणी ।।१६६४।। नाद भेद वीणा के भेद । ग्यांन सास्त्र के जाणे भेद ॥ देस देस की बोली बैंन । कोकिल कंठ सुगात सुख चैन ।।१६६५॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ लिखे पढँ बहू शास्त्र पुराण । च्यार वेद का करें वांग || जातिग वैदक भरणी व्याकरणं । श्रागम कहे मन संसय ह ।। १६६६॥ चदा बहतर कन्ना । जुधरीत को जाम भला || सीलनंत रूप की खांनि । तीन लोक का सम ग्यांन ॥। १६६७६ कन्या भई विवाहण जोग । सुमति मंत्री राजा पूद्धियी नियोग || मंत्री सबसा लीया बुलाय । बैटर मता बिचारें राय ।।१६६८ ।। कन्या सो हैं गुरण भरपूर । यातें सरस होय जे मूर || तासो समकि कीजिए विवाह | उत्तम कुल १३ स्वयंवर रचना मंत्री कहें स्वयंवर रवी देश देश ते ग्राव रस्य पद्मपुराण । भली भली सौ जो विहां संचो ॥ कन्या के कर माल दिवाय ।। १६७० ।। जागलि बार तास सो वरी । यह विचार हिये में घरों ॥। बहुत भले पाटंवर आणि । जिस ते बहुत समाने ताण ॥। १६७१।० कनक बंभ रतनन की जोति । नरपति आए तिहां बहुत || परिवाहस हुमप्रभ भूप सिंहास वहां घरं अनूप । १६७२ ॥ तब कन्या वरमाला लई । ताकं माथि नृपति इदई ॥ चकडोल चहि कन्या निहां ग्राय । विराली बनाव घाड़ || १६७३ ॥ वशरथ द्वारा युद्ध दसरथ के गले घाली माल । तब सब कोप उठे भूपाल || कहै एक एक नगर का थी। यामै बल पौरिष क्या हरणी ॥। १६७४ ॥ पकडनाये रावण के लोग भागि बच्या अब सुगतें भोग || परि रोक के किया। माला दई राजा की धिया ।। १६७५।। अष्ठे बड़े फिर चांले राय का राजा की मारे ठाई ॥ हरिवाहरण हेम प्रभु मैं गए। अँसे बघत ऊनु त्रुनिए । १६७६ ।। मंगला नृपां यह मत्ता विचार । दसन्थ को घेरा सिंह बार ॥ सुभमति राय करूँ समझाय । कर्कयां सो अयोध्या ले जाइ ।। १६७७॥ हम इन सौ समभंगे बात बोले दसरथ राजा सुखों। तुम निज घर पहुंची कुसलात || इनकी तो मैं पल में हों ।। १६७८ । तुम देखो मेरा प्राक्रर्म । इनका मारि गमाउं भर्मं ॥ चढघा कोप- दसरथ सूपती । रथ पर बैठी उजली रती ।। १६७९ ।। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण विद्या साधी पूरण हीच | कैकेया प्राय बैठी रथ बीच तुम कोज्यो निर्भय हों युभ्र । रथ तुम भरमा चलाऊं सुध ।।१६८०। सुभमति को सन्यां सब चली। जानें सकल युब की गली ॥ हरिवाहन के सनमुख शेड | चा धनुष वांग ने छोड ।। १६८१।२ सह न सके दशरथ के बारण । राव हो के भूले अवसान || भाजे तब हो सकल नरेस हम प्रभु जी उपदेस ।। १६८२ । । रोडपति नहीं रहें । कुल कलंकजुगि जुगि कौं दद्दे 11 तब सब सम एक भये । सनमुख लन भए ऋथए ।।१६८३॥ सूरवीर दोउं धां लड़ें। पंदल सूं पैदल कट मरें ॥ हाथी छूट हावी भुत ६.१६८४ ।। नगन खडग दामिन जिम दिये। छुटं गोली सर कातर छिौं । जैसे बरखे घरणहर बार से पडें दोऊं तरफ थी मार ।।१६८५ । है॥ दुधां पड़ी पर्वत सम लोभ । तिए को गृध्र मार मार वाणी तिहां होय । कायर धीरज वरं न कोय ।।१६८६ ।। १८३ हेमप्रभु के सनमुख भया । मारी गदा टूटि रथ गया || हेमप्रभु गिरपडिया सब रथ नीचें आए ससु पाव ।।१६६७।। लांग मूल को लेकर भजे । दशरथ जीत्या बाजा बजे || राजा सर्व सरब को नये । छोडि कोष निर्भद गये || १६६॥ सुभमति ने दोणी ज्योनार । सगलां की करिकं मनुहारि ॥ क्या दई दसरथ को व्याह । गये अजोध्या घ उछाह ॥१६८९ ॥ मंत्री सकल वधाई करी । सकल प्रजा सुख श्रानंद भरि ।। नया जनम दशरथ फिर पाय । कलस कालि पद बैठो राय ॥१६८० भोग मुगति में बीतं घडी । देस प्रदेस की रति करी ॥ जिहां हिां दशरथ गुण चलें । दुरजन दुष्ट बहुत दल मले ।। १६६१ ॥ वहा देश देश के भूपती, मांन दसरथ प्राण । कुलमंडल नरपति भया, रघुबंसी जग भाग ॥। १६६२ ।। चौपाई सकल ठाम की चिंता मिटी दुख संताप की रज सब कटी ।। निरभय राज करें नरनाह । कैकया के गुण करें सराह || १६६३|| Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ स्वप्न फल देखी बहुत प्रकार गुरण भरी । अवर बात रा की चित भरी ।। राखी सुं बोलं तिरण बार। जो चाहो सो मांगो नारि ।। १६६४।। तब केकया बीलं सुंदरी। प्रभु मुझ वचन देहु इ घरी || जब चाहूं तब लेस्यू' मांग एह वचन तु द्यो हम त्याग ।। १६६४ ।। सोरठा महा विचित्रा नारि वा समय उन बुधि करों ॥ P पावँगो तिरा बार, जिए बिरयां इच्छा करें ।। १६६६ । इति श्री पद्मपुराणे केकया वर प्रवानं विधानकं ॥ २३ व विधानक चौपाई पराजिता रामो द्वारा स्वप्न दर्शन पद्मपुरा अपराजिता राखी पटणी | सीलनंत अति सोभा बरणी ॥ भले महूरत पाली राति । सुपनां देख्यानानां भांति ।।१६६७ ।। स्वेता गयंद ऊजले वर्ग । देख्यो सिघ गर्जना कर || देख्यो सनिकी का बाजे बाजे गुण पाहू जागो तक चत्रित भई || जा दशरथ सू सुपने कहे। व्यौरा सुरिण ग्रगणित सुख लहे ।। १६६६ । सूर्य उदय देखा परभात होइ पुत्र त्रिभुवन का घरी । जाकी महिमा जाड न गिरणी ।। कुल उज्जल बालक तारातरा । नाम जपत होइ पालिंग हरण || १७०० या सम बली न हुजा और प्रेमा अधिक प्रतापी जोर ।। सुणि पिय सबद भया शारमंद | चित में ध्यानं देव जिसमंद ।।१७०१ ।। सुमित्रा द्वारा स्वप्न दर्शन सुमित्रा राणी पिछली राति । सुविना देखे उटी प्रभाव ।। गर्जत देख्या सिंह केहरी लक्ष्मी कलस सकल गुगा भरी || १५०२ ॥ कमल फूल घट ऊपर घरे | देखे समुद्र लहरि उच्छरे । सूरज उदय निर्मला देखि । देख्यो पूनम चंद्र विसेष || १७०३ ।। सुदरसण चक्र देव तिरा बार । जागि उठी मन हरस जयार ।। पति सो कही सपने की बात । सुखे सुपन फल नाना भांति ।।१७०४ होसी पुत्र महाबलवंत । सीन खंड का राज करत ॥ ताकी सरभर अवरन कोय तीन लोक ताको जस होय ।।१७०५ ।। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनि सभाचंच एवं उनका पापुराण १८५ लक्ष्मण जन्म नवमासं जब जनम्या पूत । रूपवंत लक्षण संयुक्त ।। पंडित तडि लगन सुभ लिया। दान मान मन वांछित्त दिया ।।१७२६।। लक्ष्मण नाम कुंवर का धरथा । बमनत रिध सिंघ गुण भरया ।। भरत जन्म कंकय गर्म भरत भया पुत्र । बहूत रूप अरु सहा विचित्र ।।१७०७॥ अपराजिता के राम जन्म अपराजिता भई परसूत । रूपर्वत लक्षण संयुक्त ।। पदमनाभ ससि की उद्योत । सब परियण में सोभा होत ॥१७०८।। सुप्रभा पुत्र सधन भया । सो भी देव लोक ते चया ॥ रामचंद्र पदम का नाम । म्यारौं वीर दिये पियाम ।।१७०६।। सेवा करें देवता धने । बोल भासा सोभा बने ।।। च्यारों बाल खेल अति करें । देख आप सब का मन हरं ॥१७१०।। रावण के घर में मम शफुन रावण के घर उलका पात । बिजली पडो कांगिर ढह जात ।। रात दिवस रोवै मजार । कूकर रोवै बारंबार ।।१७११॥ मेंगल चारि सुपने मांकि । बोलें काग होइ जब साझ ।। उल्लु बोल दिन तिहां धणे । असी चिता मन रावण तणे ।। १७१२॥ दशरथ प्रजोध्या का धणी, ताक पत्र जु च्यारि ।। रामचंद्र लक्ष्मण वली, भरत सत्रुधन सारि ॥१७१३।। अडिल्ल पूजे श्री जिगराय सुगुरु सेवा कर, वाणी सुग मन लाय सुद्ध समकित धरै ।। प्रगटयो जस संसार कीति बहु तिण तणी, देव सुपावह दान दया पाल घणी ।।१७१४।। चोपई धारों भाइयों द्वारा विद्या सीखने का वर्णन कंपिला नगर का थान । भारग सिर क्षत्री का नाम ।। जब उह पुत्र सयाना भया । निस्य उसाहरणा आव नया ॥१७१५।। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपुराण गांगर फोडे मिकसै परिणहार | गली गली में नावं गार। मात पिता भए कलि कांन । दिया निकाल कुपात्र हि जान ।।१७१६।। भूस्या प्यासा दूषित घरगां । असा ताहि कठिन दिन वण्यां ॥ मांग भीस्त्र उदर निठ भरै । इण विध गया राज गिर पुरै ।।१७१७।। कुसाय राय नगरी का धणी 1 ताके विद्या साला वणी ।। वस्वासुत ते गुरु प्रवीण । प्रावध विद्या सिखा लीन ॥१७१८।। कुबरु साथ शिष्य बहु जुरे । सीखें विद्या ते इण पर । तिहाँ एलते पहुंचा जाइ । दानसाला मां भोजन षाद ।।१७१६।। सीख विद्या रहै उन पास । वह विद्या सोबी उन पास ।। राजा पासि गमा इक बार । नृपति अग्रे कही पुकार ।।१५२० ।। भाया एक विदेसी भेष | उन विपाशाली सबसे ।। कुकर न लही विद्या होगा । परदेसी ते महाप्रवीण ।। १७२१।। राजा ने गुरु लिया खुलाय । सिष्य प्रतें गुरु कह समझाय ।। राजा देखत चलायो बारण । अंडे बडे छोडे जाणि ।। १७२२।। राज सभा गुरु पहचे जाय 1 गये वायूध साला की छांय ।। राजकुवर सर छोड़े गले । औरा का सर बांका चल ॥१७२६।। एल प्रदेशी धनुष कर गया । गुरु का वाकि सुध लह्मा ।। टेढे सर कू छोडत भया । राजा का संसय मिट गया ।।१७२४१३ गुरु परदेसी परतुष्ट मांन । कन्या देण कही तिरण जारिण । एल प्रदेशी ज्ञान चित किया । माहिन समान गुरु की धिया ।।१७२५।। एमई ब्याहु तो लागई दोष । किस ही अनम उह नहीं मोक्ष ।। अरब रात्रि तब भाग्या एल । प्रजोध्या नगरी प्राया तिह वेर १७२६।। दसरथ नप के प्राया पास । अपना गुण कीना परकास ।। राय दशरथ ने कन्या दई । इसकू तिहां सुख थिति भई ॥१७२७।। च्यारू' राजसुत तिहाँ मिल्या । विद्या गुण सीख तिहा भला ।। इति श्री पपपुराणे रामलक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न विना विधानकं ।। २२ वो विधानक चौपाई जनक मूप विदेही अस्त्री । निर्मग्र राज करै तिहं पुरी ।। चक्रध्वज पुर का इक घणी । मनसेरपी राशी तसु तरणी ।।१७२८।। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनि सभाचंद एवं उनका पराग चित्रोत्सवा पुयी ताकै उर भई । साप पक्षण सोभ उरमई ।। धूम।। निजवाहा : लि । चितः ।।६।। राजसुता सेती अति प्रीत । एक बिमारी खोटी रोत ।। दोन्यां ने मिल कियो बिचार । नगरी छोडि भज्या तिरण बार ।। १७३०॥ लषमी घणी लेकर नप सूता । निकसे दोन करके मता ।। विदरभ देस प्रकृति सिघराय । ए उस नगरी पहुं ते जाय ।।१७३१।। दंपति नमे नगर के पासि । छाय झुपडी करें विलास ।। धोया बाय दलिद्री भये । लकड़ी बेचत कछु दिन गये ।।१७३२।। कुंडल मंडल राजकुमार । वन क्रीडा आये इक बार ॥ देखी श्रिया रूप गुण रासि । कुमर काम की उपजी प्यास ।।१७३३।। असी भेज सिम नई खुलाइ । नृप सग मिली महा सुखपाय ।। रात दिवस मुगले सुख भोग । इनका ऐमा बण्यां संजोग ॥१७३४।। विन राबिलाप विष पाया घर संझया यार । मूना घर पाया दिन नारि ।। सारा दिन का हारा यका । भया अकेला गई कालिका ।।१७३५|| त्रिया त्रिया मुख कर पुकार । वही रोवै खाय पछारि ।। गली गली में रोवत फिरै । राय अग्रे जाय गिर पड़े ।।१७३६॥ मेरा न्याव करो तुम नरेस । मेरो अस्त्री गई तुम देस ।। मुझ नारी तुम देहु ढुढाय । नरंतर तजों प्रारण विष खाम ॥१७३७।। सरगी भाइ तुमारे में बस्या । महास पर बिगस बिन वसा ।। सजा मंत्री लिया बुलाय । लिगम बात कही समझम्य ।।१७३८।। राजा बारा वायत्र जब वह विप्र आवै मो पासि । तब तुम झूठ कहो के साज ।। मग मंत्रीय सभा सब जुरी । विप्र फेर पायो ता घरी ।।१७३६।। मंत्री इक बोल्या दण भांति । मैं देखी मारग में जात ॥ पोदनपुर के मारग मांहि । मैं आव था देखी तरु छांह । १७४०।। प्रारजिका तिहां तप करें। घणी साथ चेली तप करें।। मखी एक प्रति रूप की खाणि । उनको दिक्षा लीनी अनि ॥१७४१६ बेग जाय पोदनपुर क । रहा क्यू सोर करत है मूढ । विप्र कू सब ही दिया बहकाय । पोदणपुर उरण सोधरण जाय ।।१७४२।। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ पपपुराण देखे वन उपवन च पोर । देवी गुफा परबत की ठोर ।। देह सिथल वन देस्मा भला । जिहां तिहां देवालय मिला ! १७४३ ।। पाई नहीं फिर प्राथा विप्र । ताकी पावन देखा नृप ।। बडी दार तब दीया लगाय । गाय मारि कर दिया भजाय ।।१७४ ।। मुनि वीक्षा बन में बहुत दुखी बिललाय । पारिज गुपति मुनि भेटथा जाय ।। सुणे धरम के सूक्ष्म भेद । सोह करम की टूटी खेद ।।१७४५।। दिक्षा लई दिगम्बर भया । जैन घरम निश्च चित दिया । सियान रहैं नदी के तीर । सहै परीसा काया धीर ।। १७४६।। उनाले गिरि पर बरि जोग ! तप भानु लू बाज रोग ।। माल पसेव पाप बहि जाय । अंसा तग साधैं मुनिराय ॥१७४७।। बरषा काल वृक्ष के तल । वर्ष मेघ अरु नाला चल ।। पानि चूर्व मुनि उपरि पडै । मांडर डांस सदेह. सौ लगे ।।१५४६। लागे वेलि अंग लपटाइ । मुनिवर सहैं परीसा का ॥ चिदानंद सौं लाया ध्यान । दया छह काया की जान ।।१७४६।। रत्नावली का राजा द्वारा पुट करना मनरण रत्लाबली का राम । अहिकुडल का सुण्या अनाय ।। चऋपुरी तिण घेरी प्राय । कुडल मंडल निकस्या प्राय ।।१७५०।। दुहुधां जुध भया भयभीत । फिर प्रामा गढ़ भीतर जीत ।। भूद किवाड गोला को मार | अनरल भूपति मानी हार ।।१७५१।। किहि न पावै गढ का भेद । राजा के मन उपजी खेद ।। दिन दिन हुवे दुरचलि देह । वालचंद्र सेनापति पूछ एह ॥१७५२।। किण कारण देही तुम षीण । मन की बात कही परवीण ।। राजा सेनापति सों कहे । मेरे मन में संसा रहे ।।१७५३।। मंत्री द्वारा उपाय बतलाना चऋपुरी माई निज हाथ । तार्थ चिता है मन साथ ।। बालचंद्र बोलें बलवान । कुडल मंडल पकड़ो राजान ।।१७५४।। बालचंद्र ले सेन्या संग । गढ़ ततकाल कियो तिण भंग । कुंडल मंडल बांच्या जाय । निज पति पास माया तिहं ठाय ।।१७५५।। दई मार पग सांकल घालि । सी रीति पड्या वह जालि ॥ मसन उतारि दिया सन्न छोडि । वन में गया करम की सोडि ।।१७५६।। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचन एवं उनका पद्मपुराण १८९ राग्य भाव तिहां अवरा मुनिवर तप करें । नमस्कार करि पाइन प? ।। सांचा कहो घरम समझाय । मेरा पाप कट किहि भाय ॥१७५७।। राज रिद्धि मद बरम न किया। विपति ने कहगा समझिपा ।। मेरा किरण विष होई सहाइ । किम भवसायर उतरों पार ॥१०५३।। उपदेश बोल मुनिवर लोचन ग्यांन । सप्त विसनत घरम की हारिग ।। सातों नरक अनंता भ्रमै । खेदन भेदन बिनसह जमैं । १७५६॥ मुख त्रिषा का नाद अंत । इण विध प्राणी दु.ख लहंत ।। जे तीरथ बहुतेरा फिरै'। भद्र होई कुदान नित करें' ।।१७६७।। क्रोष मांन माया मद होइ । अंसा गुरु सेयो मत कोइ ।। नख पर केस लोरर्थ बहाइ । प्रापा वणतं ह्र' पाप उठा ।।१७६२।। प्रण छाणे जल करें सनान । अस गल जल पीने जल पान ॥ ते निहच नरक में बाद । इग्ण विध धरम घरो मन ल्याव ।।१७६२।। समकित मुघ आत्मा जोइ । दया भाव जाके चित होइ ।। मनुन देव गति ऊंची लहै । दुष्टि हुवै सो नीची गति राहै ।। १७६३।। राजा द्वारा अरण वत ग्रहण करना सुरिण राजा तबै अणुव्रत लिया। हिंस्या झूठ चोरी परविया ॥ नमस्कार करि मारग गया । इह संसा उसर्फ मन रह्या ॥१७६४ । मेरा कुटंब भरण की वंदि । वे छूटै तब हुबै आनंद ।। अब हूँ साधू कोई देश । बांधू मैं पारिग अरन नरेस ।।१७६५।। मै मपणे बल छुडाउँ जाइ । अइस चित वत राजा पाइ ।। तरषा पिव लागी तित भूश्य । देही सकल गई तिस सूख ॥१७६६।। अंत भया प्राण का नास । सुमरयां प्रभु पांघ की आस ।। समकित सो पार्य गति भली । अग्रे पूजंगी मन रती ।।१७६७।। चित्रोत्सवा द्वारा वीक्षा लेना चित्रोत्सबा उपज्यो वैराग 1 सकल विभूति कुटंब ही त्याग ।। प्रापिका पास ली विक्ष्या जाइ । बईबरत कर बहु भाइ ॥१७६८।। बारह विष तप साध नित्त । निसवासर अनुप्रेक्षा चिस ॥ तप करि कष्ट अनि देही दहै । सत संयम प्रातम सुध लहै ।। १७६६।। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. पापुराण देह छोडि लियो स्वर्ग विमांश । उहां तं च जनक घर प्राण ॥ सीता का गर्भ में प्राना विदेहा गरभ मागि थिति करी । कुढल मंडलीमी तमु धी ।।१७७२।। पिंगल मुनिवर तज्जे परांग । पुहच्या महापणुक्र विभाग ।। अवधि विचार एक भय तगी। श्रवण पुन्य तं सुरगति बरणी ॥१७७१।। पिछली सूरति ते कोप्या देव । कुडल मंडल का जाण्या भेव ।। उन मेरी थी लीनी नारि । मुझको मारि दीया विकालि ।।१७७२।। मोहि धरणे दुख दीने भूप । तब मैं भया दिगंबर रूप ।। तप प्रसाद अंसी गति नही ! ये दोन्यू विदेहा उदर में सही ॥१७७३।। जनम समें ताकू मैं हरू । प्रपरण मन मान हूं करू । देवभरिका फा | अंसी सुरत चिन सुरराज ||१७७४।। सीता भामण्डल का जन्म नव माल जब पूरण भए । पुत्री पुत्र जनक परि भए । देवता द्वारा बालक का अपहरण बालफ लिया तब देव उठाः । पकडि वाह गया ले जाइ ।।१७७५।। मारे पेडि तवं बालक हंसें । तब सुर तरां क्रोध मन बस ।। तू कुडल मंडल था मूष । चित्रोत्सवा देखि स्यरूप ॥१७७६।। तिसमें चुराय लेय तु गया । मो कू भी ते' प्रति दुख दिया । तब मैं था भिक्ष क प्राधीन । पिगल विप्न मै वह सम कौन ।।१७७७।। फैकू गगन गरुड ले जाय । डालू सिंध में मच्छ तोहि खांय ।। के पर्वत पर पटकू तोहि । सिला तले दाबू अइसा छोहि ।।१७७८।। से मन में करें उपाष । बहुरि भया दया का भाव ।। में था विप्र भिक्ष क प्राधीन । दया भाणि साधे गुण तीन ।।१७७६।। सम्यक्रदर्शन सम्यक ग्यांन । तप करि भया देवता प्रारिण ।। अब मैं नया पाप क्यों करूं । याकूले सुभ थानक घरू ॥१७८।। रथनूपुर विजयारच जाय । राय तरणे मंदिर बइठाय ।। नृप सब बालक लिया उठाइ । सुदरसना राणी लई जलाय ।।१७८१॥ उठितू पुत्र तहही जण्या । मोइत प्रांखि उठी जब सुथ्यो । हूँ थी बांझि जण्या सुत केम । बिना गर्भ सुत होवै एम ॥१७८२॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण १६ राजा काहै गर्भ तुभ गई । सोचें कहा लहु सुत मूद्ध । देवता का कुबल दिये । तिनको देखि अचंभ भए । १७८६॥ सांचे पुष जण्यां मैं ग्राजि । किण पहराये कुडल साजि । तब राजा बोल्यो सत भाय । या वु सुर ल्याया इण्य ठांय ।।१७८४।। पुण्यवंत मह शशि की जोति । मारियो सेट होति :: नगरी मध्य खबर यह दई । राणी पुत्र प्रसूता भई ॥१७८५11 सुख में बधं श्राय के वाल । प्रगगिात धन खरच्यो भपान ।। जनक राजा द्वारा विसाप विवेहा बालक देखें नाहिं । रुदन करें नपना परवाह ।।१७५६।। जनक राय रोब तिण वार। हम क्या पाप विराा करतार ॥ अंसा कवण पुत्र मुझ हरॆ । पूरव कर्म उदय दुख पड़े। १७८७।। देण देश कौं पत्र लिखा । करू इलाज पाव किण ठाइ ।। राजा दशरव मेरा मित्र । वह दू दंगा अंतर प्रीत ।।१५५८।। राजा दशरण द्वारा खोज दशरथ सरित हूँ सब यांन । वहीं न पाया अपणे जान ।। जनक त्रिपा सों कहैं समभाय । पुण्यवंत वालक बहु भाय । १3८६।। वहै तो बढे काहु के गेह । तुम चिंता न करो संदेह ।। जे छु मनमंध है हम साथि । तो प्रारिण मिलावंगा जिग नाथ !!१७६० । कन्या का सीता नाश रखना फंन्या का मीता घरचा नाम । लीला कर बाल सुख घाम !! रूप लक्षण पाशि की जोति । गुण वरण्या कहूं पार न होत ।।१७६१।। वस्त्र प्राभरण वण्यां सब अग । गोद लिया परियरण उच्छरंत ।। दिन दिन बाद्वै सुखस्यों तेह । मात पिता अलि धरै सनेह ।।१७६२।। इति श्री पपपुराणे सोता भामंडल उत्पत्ति विधान २३ वो विधानक श्रेषिक द्वारा राम सीता विवाह को फानने की इच्छा जब जोडे श्रेणिक नुप हाथ । एक ससम मो मन जिनमाथ ।। रामचंद्र सीता का ब्याह् । किण विध किया जनक नर नाह ।।१७६३।। राम कवरण पराक्रम किया । कैसें व्याही जनक की घिया ।। वाणी काहैं तब जिनराय । गणधर वचन कहै समझाय ।।१७६४॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ बिजयारव गिरि दक्षिण और वर वर देस और विदग्ध कैलाश गिर उत्तर की ठोर ॥ I में उमाल नगरपति बग्ध ।।१७६५।। द्रवर पर राजा सिंह नम्र | अंकन और मुफ्ती सन || म्लेछ पंड का राजा जुडघा । सा मता उनु कर मिया ||१७६६।। श्रारज पंड पर कीजे दौड़ । कोई नहीं नामी तिहूं ठौर || रावण हैं लंका का देस । इह ठाम जाय हम करें प्रवेश ।। १७६ जनक की नगरी मिविलापुरी पर प्राक्रमर पचपुरास म्लेछ षंढ का दोडया भूप । ढाहत फोडत भावें जम रूप || मिथलापुरी जनक तिहां राय । घेरथा नगर म्लेच्छ श्राय ॥। १७६८१४ जनक दसरथ कनै दूत पठाइ | लिख्यो सकल विरतांत बनाय || जनक द्वारा दशरथ के पास सन्देश भेजना म्लेच्छ मोहि घेरा हैं श्राप । थारा मेरा दिया उठाय ।। १७६६।। पीडा परजा कु दे हैं बनी । देबल अहि गउ तिहां हरी || साधां कृ देहैं उपसर्ग जिसकु' तिसकु मारे खड्ग ।।१८०७ ।। दूत का अयोध्यापुरी श्रीमा मैं तो प्राय गढ भ्यंतर र प्रजा दुःख किए भिरते सहु ॥ । प्रजा सुखी तो राजा सुखी जो कुछ प्रजा पुन नित करें परजा पीडित राजा दुखी ।।१८०१ ।। ठा अंस राजा ने पई ॥ उनका डर ते प्रजा सब भजे । जो हूं भाजु तो कुल लजं ॥। १६०२ ॥ तुम जो मेरा ऊपर करो तो मैं निकल दुष्ट स लरों ॥ I श्रासा दूत अजोध्यापुरी | राजसभा देख सब जुरी ।। १८०३|| दसरथ का पुत्र संयुक्त | करें सलाम प्राय तिहां दूत ।। दिया लेख राजन निज हाथ बांस पुत्र सू करे नरनाथ १८०४ ।। रामचंद्र कु राजा करो। हाल कलस मुक्ट सिर घरो ।। करो आरती पटह बजाय । हू साधू म्लेच्छ ल जाय ।। १८०५।। रामचंद्र पूछें, तब बात । मोकू राज क्यु देत होतात ॥ दसरथ कहै तुम सुग्गी कुमार । म्लेच्छां परिजास्यां दा बार ।। १८६६। तुम साधो पृथ्वी का राज | हम जायें करिता पर काज ॥ रामचन्द्र की जाने की इच्छा प्रकट करना श्री रामचन्द्र बोले बलवीर | करो राज मन राखो धीर || १६०७॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणि भगानं ए; शायपुर ११३ वे मलेच्छ जैसा सुण लिया । वहां सिंध अग्रे चालिया ।। जो तुमारी सरभर कहा होइ । ता परि भला कहें सहु कोइ ।।१८०८।। हम हैं प्रमुजी भाग्या देह । सकल म्लेच्छ मिलाऊं खेह ।। राय भगा तुम हो लघु वैस । वे म्नच्छ भयानक देस ॥१८०६।। किस्ग पर जुध्र करोगे जाय । असे भूप कहीं समझाय ।। रामचंद्र तब उत्तर वह । स्यंघ पुत्र किसका भय करें ।।१८१०।। हस्ती जूथ सबद सृण डरै । वे भाज सकल सुभ बीसरे ॥ निगामा एक करें वन दार । हम सू जोये वह मान हार ॥१५११।। अइस उनहीं लगाऊं हाथ । फेरि न बोल' काहू साथ || गमचंद्र लक्ष्मण तिहां चले । सुर सुभग संग लीने भले ॥१८१२।। राम का मिथिला ममन मिथलापुर मां पहुंचे जाइ । इनका दल दृष्टि न रामाद ।। जनक कनक ने छोडे बारण ! मारि म्लेच्छ किये घमसारण ।।१८१३।। उत मनेन्द्ध नीसांन बजाय । जनक कनक भेट्या गा लाइ ।। दाजे बजै भेरि करनाइ । बहुत मूग माये उस ठांइ ।।१८१४।। जनक तरणा दल हटया जारिग । धणे लोगां तज्या परांग ।। राम द्वारा युख करना श्री रामचंद्र धनुष टंकार | गया धनुष लक्ष्मण कुमार ॥१८१५॥ पडे घाइ दल ऊपर जाय । दुई वां जूध भयो वह भाई। दुरजन जाय बहवट करें । तब म्लेच्छ सब फिरि के लरं ॥१८१६|| लक्ष्मण ऊपर पाये धाय । नोडचा रथ मारे दूरजन राय ।। श्री रामचंद्र पहुंच्या निह बेर । मारि म्लेच्छ किये सब केर ।। १८१७॥ इनका है पविजेग प्रताप 1 इण प्रकार धाए प्रभु श्राप ।। अंशका भाजे जिम देवि । रवि की प्रगट किरण विशेष ॥१५१८।। जैसे पटल महा धनबोर । माग 'फाट पवन के जोर ।। मलयां की फौज चली सब भाग । ए दोडे उन पीछे लाग ।।१८१६।। हम अल बल हवा घणां । राम प्रसाद पौरिस प्रति वरपर ।। कई जिसने मारठोर पड़ी लोथ तिरण को नहीं बोड ॥१८२०।। राम का प्रादेश रामचंद्र इह पाग्या भई । हिंसा जीव करो मति कोइ ।। भागे का पीला भक्ति करी । अब तुम अपणे थानक फिरो ।।१८२१।। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ पपुराण रामचंद्र लक्ष्मण की जीत । जनकराय सों बांधी प्रीत ।। जज सबद कर सब लोग । भाजे लाके सव सोग वियोग ॥१८२२।। इति श्री पद्मपुराणे म्लेच्छ पराजय विधानके २४ वां विधानक चौपई जनक की इच्छा जनक बिचारी तब मन मांहि । असी वसत कछु मेरै नाहि ॥ रामचन्द्र के अग्ने धान्ने गुनों को पार नह: १21 सीता देण की इच्छा करी । नारद कान बात यह पष्ठी ।। नारब द्वारा कन्या को देखना नारद जुध इनौं का देखि । अपणं मन हरपियो विशेष ।।१८२४ । कन्या देखणा कू धरि भाव । माया प्रतहपुर की ठाव ।। जनक मंदिर नारद मुनि गया ! दर्पण लीयो भी यहां सिया ।।१८२५३। नारव को देख सीता का उरना कन्या देख अपणां वरण । सब सरीर बीस लगि चरण ।। सीस जटा जुट देह मनीन । हाथ कमंडल पीली लीन ।।१२।। कटि पडदनी प्रति तापस मुनी । शीलवंत नारद रिष गुती ।। देखी वाया सीता डरी। भाजी कन्यां वाही घडी ।।१८२७ मा मा करि दोही घर माहि । नारद पाई दो ताहि ।। पोलीदार जाबा नहि देहि । नारद सेती वाड करेहि ।।१२८॥ भया कोलाहल नरपति सुण्यां । वहा सार अंतहपुर गां ।। आगन्यां भई दौडे सब सूर । प्रावध वहुल लिये भरपूर॥१८२६।। नारद निज विद्या संभालि । गिरि कइलास गया तिहं काल ।। ऊंचे नीचे लेइ उसास । नहीं श्री जीवण की पास ।.१५३०॥ नारद का विचार नारद मुनी चल्या बड़ी वार । मनमें उपज्या तव अहंकार ।। मौसु नृप जनक असी करी । मोहि देखि सीता भाजि दुरी ॥१८३१।। मिथलापुर जनक की मद्दी । करू उपद्रव तो नारद सही ॥ लील्या पट्ट सीता का रूप । रथनूपुर चंद्रगति भूप ।।१८३२।। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पगपुराण १६५ प्रभामंडल है तासु कुमार । नारद गयो तिरण सभा मझारि ।। उ लोग जोडे दोउ हाथ । दरसन देखि नारद फुनि नाथ ।।१८३३।। नमस्कार बहुत विध किया । नारद ने बहु प्रादर किया । प्रभामंडन ने पट्ट दिखाइ । निरखें रूप अधिक सुख पाइ ॥१८३४।। पदमावती के सुरपती धणी । के किनर सोभा अति वणी ।। बोले नारव सुरणो कुमार । इन्द्र केतु सुत जनक भुवाल ॥१८३५।। मिथलापुर का मुगत राज । विदेहा राणी लाज जिहाज ॥ नाप्त गरभ सीता प्रमतरी । उसका रूप लिख्या तिस घही ।।१८३६।। इस सरत बा मैं गुण घरपे । हाव भाव बढ़ जायन गिग्गे ॥ रामचंद्र को इहै दई निमित्त । तबै इहै मेरे पायी चित्त ॥१८३७।। भामण्डल की सीमा को पाने की ! 4सी त्रिया भामंडल जोग्य । विद्याधर जे भोम नियोग ।। इस कारण पाया तुम पासि । चलो मिथलापुर पूजै प्राज ॥१८३८।। भामंडल की सुध बीसरी । सीतां सीता चिज़ में धरी ।। जे हूं मिलू जनक की सुता । दरसरण देखें भाग चिता ।।१८३६।। घरि प्रांगण ता कछु न सुहाय । अन्न पनि मुख कबहुं न खाय ।। दिन दिन कुंवर भ्रमता जाइ । सन सूके राणी पिछताय ।।१८४०।। प्रभामंडस मन सीता लामि । सुख संसारी दीया त्याग ।। मान पिता की लज्जा करें। विरह अगनि सूदेही जर १८४१॥ मंत्री सोच कर अधिकाइ 1 ता दिन देखी फुतली राय ।। वाही दिन से है यह सूल । या की प्रौषधि मंत्र न मूल ।।१८४२।। राशी का संसव किया । सासू सुसरां सूभेद यह दिया । जव ते पट्ट देख्या इह पूत । तव ते याकू' लाग्या मूत ।।१८४३।। स्वारण पान वस्त्र सब तज्या | बह तो करें तुमारी लज्या ।। तुम पूछो सिसका बिरतांत । कारण कवरण तुम सूके गात ॥१८४४।। मात पिता कुचर डिंग गए । वाका मन भी पूछत्त भए । नरमति कहे करो सनांन । भोजन नीरखावो तुम पांन ।।१८४५| प्राभूषण तन सो संवारि । तुमने इंछा सीता नारि ।। अब हम जतन व्याह का करा । तेरा कारज वेग ही सरा ॥१८४६।। भामंडल का दुख अब गया । करि सनांन उठि भोजन किया ।। चनगति द्वारा उपाय सोचना चन्द्रगति मन सोचे घणां । कुछ हरषं कुछ चिंतावरणा ॥१८४७।। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ पगपुराण राजा जनक भूमि गोचरी । प्रवर रहै वह भिथलापुरी।। रथनूपुर तें दूर यह देस . बेटी कबहू न देय परदेस ॥१८४८।। जे सीता पाशिये दुराय । होय घनीत रहसि सब जाय 11 उनके घर में गाई सोग ! हम ना करें गई लोग !! १८४६ : चपल बेग सू कही बुलाय । तुम भव मिथलापुर में जाम ।। जनवराय आगों मुझ पास । बाकू कछु न दिखाज्यो बाम 1१3५.०|| चपलदेग चाल्पा सिरनाय । चदि विवांग मिथलापुर माइ ।। विद्याधर द्वारा मायामयी प्रश्व रचना अम्व एक विद्याघर विया । द्विज गहि हटवाई गमा ॥१८५१।। तापरि रतन जडित पलांण । नाबत कूदत कर खांचा ताण ।। प्रस्त्र प्रशंसा जनक नृप सुणी । मुगल तहां सराहे दुणी ।। १८५२।। भाप जनक नप देखरा चल्या | मुरण लच्छन सब देख्या भला ।। व्यापारी संपूछा मोल । तब वह बांभण भाषे वोल ।।१८५६।। पृथ्वी असा प्रस्थ नहीं। बहे मान्यता प्राज्य जनक है सही ।। तुम निमित्त अघौं इस ठांव । दोइ सहम्न सोनिया भाच ।।१८५४.। व्यापी बु. दिया दिनार | घोडा ले बांध्या दरबार ।। बह प्रकार सेवा तिस होड़ । निहीं मास बीता व. दोड ।।१ ।। किंकर एक यायो इस ठांय । कही हथनापुर मह लगाय ।। दुरजन बाद धेघा सब देम । तुम चलि को उपर नरेस ।। १ ५६.। नगी य त भब सम्यां पला । अस्त्रमतिल धिरे निसांगा ।। सूर मुभ लीया बह मंग । बाजा वाज लहर तुरग ॥१८५७।। परवत पासि ढोल बह पडे । हाथी तिरण प्राग टार न टरें ।। तब वह अस्त्र लिमा मंगवाय । ता ऊपर चढ़िया नग्नाह ।।१८।। ह्य नप सहित उड्या आवास । सेन्यो साहिं शोक को श्राम ।। सेन्या फिर मिचलायुर जाय । न वा भूप थाप्या तिण ठाय ।।१८५६.1 जनक प्राकाम गमन जब किया । पुरपारण बहुता देखिया 1 सन पृथ्वी का देख्या देस । मन अानन्द्या जनक नरेस ।।१८६० ।। विजयारध गिर पता जाय । अस्व मांग में उतरथा ग्राम ।। सुधी बाला चतं तुरंग । रम्य करणा वन देखि सुरंग ।।१८६१ :: सहस्रकुट चत्शलो जिहां । वन उपवन सरवर है तिहा ।। पछी बैठा करें किलो: । बोल बागी अमृत बोल ।।१६६२९ । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचन्द एवं उनका पत्रपुराण सीतल पवन कमल की बास । भ्रमर गुजार करें चिटु पास ॥ राजा जनक का विद्याघरों की नगरी में प्रागमन . HINोलि मिना लामा बती । हनी दोहा कोमा घगी ।। १८६३।। हाल कलन प्रतिमा परि भने । अस्त्र वांधि करि राजा नल ।। गोपुर देखि भयो मानंद । बहुत बृक्ष निहां पति थंध ५१८६४।। भीतर जिन सामन की टौरि । देखी प्रतिमा च्यारौं पोर ।। नमस्कार कीनू नरनाह । पूजा अरजा अधिक उछह ।।१८६५।। सेवा सुमररंग चारू बार । रहस्य प्राया मन में तिरग वार ।। राजा श्री जिणवर का ध्यान । घोडा छोड गया स्वस्थांन ।। १८६६।। विद्याधर का फेरया रूप । पहुच्या तिहां चन्द्र गति मूष ।। जनक राव प्राण्यां इस देस । चलो वेग तुम मिलो न रेस ।।१८६३|| जिन थान में ब्रठा श्राद । ढील कर। तो वह उठि जाइ 11 गाह परिवार विद्याधर मिले । श्री जिन जाति रूप निहं मिले ।।१८६८।। बजे बहुत बाजे कर नाय । बहु लोग पूजा की जाय ।। माभलि जनक चढि देनि उत्तंग । बहुत लोग भग पचरंग ।।१६।। देचा चंद्रगति तग विधागा । के एक है सजा बलबाग ।। के भूमि केई प्राकास 1 उत्तरघा भूमि चैत्यालय पास || १८७०।। नमस्कार करि बइठा भूग। गणसभा ददान अनूप ।।। जना प्रति पूछ चन्द्रगति । के इंद्र के धारणेन्द्र नुम नि ।।१८७१।। के तम विद्याधर के इन्द्र । तम पहचे वो थान जिणंद ।। आनिन सके मस प्रस्थल प्राइ । अपनां भेद हो समझाय ।।१८७२।। बोपे जनक मैं भूमिगोचरी। राजकर या मिथलापुरी ।। माया रूपी घोडा आनि । अायो हूँ इस थान ।।१८७६।। चन्द्रगति द्वारा सीता के विवाह का प्रस्ताव चन्द्रमति न पादर करें । एक वास की इच्छा धरै ।। तुम पर सी.ड़ा पुत्री सुरणी । मेरा सुत प्रभामडल गुनी ।।१८७४।। निषा करि कन्या तुम देहु । विद्याधर सु होट सनह ।। कहै जनक तुम सुणु हो राय । सीता दई सम रघुराय ।।१३७५।। जब मैं वचन न देता ताहि। कहा तुम्हारा फिरला नाहि ।। चन्द्रगति बहुरि जनक मू कहै 1 रामचंद्र बल केता गेहे ।। १७६।। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ एमपुराण ताजो पुत्री तुम देई । उनसू प्रीन अधिक कर लेइ । समचन्द्र गुग्ण वरण भूप । वा सम कोई नहीं भनि रूप । १८७५|| बरबर म्लेंच्छ मिथलापुर प्राइ । बहुता न घे. या मैं धाः ।। रामचन्द्र ते मारघा घरि । गा भा ज ते माये फेर || १८|| वा समये मैं बीनी सिया। तासु कथन मैंने यह किया । चन्द्रगनि कहै हम देव समान । मुमिगोचरी हैं पमू समान ।। १८७६।। कहा म्लेच्छ हैं इसा वगक । उनकू मारू में इक धाक ।। बांधु मलेछ पल में पचषं । वे देहैं मोकू मिल दंड ॥१५८०।। हमरी संका रावा मन धरै । भमिगोचरी क्या सरभर करें । जो तुम हमसों करो सनेह । तो हम मिखावें विद्या अनह ।।१८८१ ।। प्राकास गामिनी विद्या देह । देश देश का कौतुहल करह ।। सब पृथ्वी पर हो तुम बली । हम सों प्रीति किये होवे रली ॥१८८२।। जनक का उत्तर वहरि भगा जरा क इह भाइ । तुम समुद्र वे तो भील रा॥ बापी मीर पिदै सव कोइ । समुद्र उदक न वांछ कोइ ।। १८३|| तम हो शशि वे सूर्य समान । देखत भान कला होइन । गाहल पत्र दीस मन्जु भांति । सुरज तेज सो नासी क्रान्ति ।। १८८४१। अनि पतंगै त्रिण बहु ज । दीप जोति मंदिर सब बलं ।। होइ जजाना सब घर माहि । ता मरभर क्या कार है राइ ।।१८८५॥ तुम गयंद वह सिंह केसरी । विन देखें भाज सिंह घडी ।। विनाधर मुणि कोपे भणे । इन हमकों ऐसे अब गगो ॥१८८६।। भूमिगोचरी पषु सम चलें । हम अाकाश तं पृथ्वी बने । किसकी तु बहु कर सराह । भूमिगोचरी बरखाग ताहि ।।१८।। फिरि जनक नप एसें कही । बंम इख्याक दसरथ रुप सही ।। ताकै पटराणी हैं चार । पुत्र चारि तिशश फूचि अवतार १८८८।। एक सो पांच राणी हैं और । ने सोमैं मंदिर की ठोर ।। उत्तम प्रादिनाथ का बंग । घरमा तीर्थ भए जिन अंस ||१८६।1 पंछी जिम तुम उडो प्रकास । ऐसा बल पौरष उपहामि ।। जो तम दिक्षा लेण मन करो। प्रारजपंड ते सिय मंचगे ।।१८१०।। तिहा सलाका सठ पुरुष । पूर्ज सुरपति मान हरष ॥ इहां कोई प्राचै सुर देव । करण चैस्य जिणावर की सेव ११८६१।। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाबंद एवं उनका परापुराण १६ आरिजपंड सम देंग नहीं और । महापुरुष उपजे तिन और ॥ रामचंद्र लक्ष्मण बलवंत । तिन के गुगा को नाहीं अंत ।।१८६२।। चन्द्रगति द्वारा स्वयंबर रचाने का प्रस्ताव चन्द्रगति ये कहा जपदेस । रच्यो स्त्रयभर जनक नरेल ।। बचावतं धनुष है एक | वा. लो मंडप तल का 11१८१३।। जो नर करें धनुष टंकार 1 बाण चलाने मंडप पार ।। काकू दीजे सीता धिया । पैसा बत्रा जनक सौं कह्मा ।।१८६४। जनक राय सोचे तिरण मार । कछु मन हरष कडु विस्मै सार ।। रामचंद्र ने धनुष ना उठ। मेग वचन प. सब झुट ॥१८६५॥ चंद्रगति प्रभामंडल सुकुमार । विद्याधर सह लीना सार || रथ परि जनक राय बैठाय । मिथलापुर के बन में प्राय ।।१८६६।। मियिला नगरी केई भूमि केई प्राकास । उतरे मिथला के बिहु पास ।। देखि नन मन भयो उलास | भामल मन लील विलास ।।१६।। जनक भूप नगर में गया । सकल लोक को अति सुख भया ।। गली बंटाई बाजार उछाड । झाकै अटा झरोखां वाडि ||१८१८।। हाट पटरण छाई सब ठोर । बाजा ब. नग्न में सोर ।। इस्ती चढया उछाले द्रव्य । दई असीम प्रजा मिल सर्व ॥१८६६।। पट बट जनक नरेन्द्र | राजसभा में अधिक नरेन्द्र ।। कलस द्वालि फिरि बैठा राज । सीधा सगला मानछिन काज ।। १६००। रणवास में राजा जनक राजा जनक गया रावारा । ऊंचे नीचे लेद उसाग ।। बिदेहा राणी सेवा करै । चमर सहेली के कर ढलं ।।१६०१।। पूछ राणी सुरणो नरनाथ । तुम चित मटके का? साध ।। कवरण देम की देखी नागि । तासू मन लाग्यो अपार ।।१६०२।। मन माने तुम ब्याहो ताहि । मेरी बात सुरगों नर नाह ।। तब राजा बोले सत भाव । पिछला भेद सुगाया राय ।।१९०३।। मायामई अस्व में लिया । मो विजयारध गिरि ले गया । विद्याधर घेरचा सब देस । सीता मांग भामंडल नरेस ।।१६०४॥ बजरावरत धनुष है एक । वाकी उनकी है इन टेक ॥ जो कोई कर धनुष टंकार । सो ही कन्या का भरतार ||१६०५।। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० रामचंद्र न सके संभार । वे ले जाहिं सीता नारि || यह चिता मेरे मन बसे । रामनें न द्यू तो जग हंस ।।१६०६ ।। रणी द्वारा चिन्ता प्रकट करना इतनी सुरात राखी पिछताय जनमत भया पुत्र का हसा हाय हाय करि व घरी जब राजा समझावं त्रयग्ण मारू' विद्याधर सब ठौर । सीता स्वयंवर कारण पाप उदम मेरे श्राय । कन्या जाइ तो पूरा मरण ।।१६०३।। सी कठिन श्ररिश के बरी || अपां मन राखो तुम श्रयन ।।१६०८ ।। वे नहि आवैगांव न गौर ॥ पचा‍ राजा ने तवं स्वयंवर रच्या । भली भली सीज कर मच्या ॥१६ देस देस कु पठाएन । सबल पृथ्वीपति श्रई पहुंस ।। रामचंद्र लक्ष्मण भरत । सघन सब का ले मन हस्त ॥ १३१ ॥ श्राए सव मंडप राजान । कन्यां कर जयमाला आन ॥ सुभस्वर ता है धीयता भंग | रतन जडित कर डी सुरंग ॥। १६११०० खेचर भूचर भूपति घने । पहरि ग्राभूषण अव एक ते एक नृप भाये बली । कहां लगि वरण नामावली १३१२ नापुर का हरिवाहन राय । ता डिंग घनप्रभु बैंट आय || केतुमु दुरमुख और प्रभामुख | श्री जैवांगारस का गुरुमुख ।। १६१३।। मंदिर विसाल श्रीधर शुभमनी || मंत्रम के पृरु नृप और ।।१६१४।। जराजा भनि सुप्रभा पती वीश्वर पंचत्र भद्र सिंह को गोविंद का राव राजा भोज भोजलिंग टाइ || वाय नाम सगल का कहै । कन्या देखि फिर मारग महे ।। १६१५ ।। राजकुंवर देते वह भांति । रामचंद्र को देवी क बजाव धनुष तिहां घरथा | मैत्रा करें देव न पड़ा ।। १२१६ ।। जे कोई धनुष चढाव ग्राम मो सीता नं परशय ॥ जैसी बिजली तैसा बच्छ । ज्वाला व्रत घनुष व अ ।।१६१७।। फिर निहां पाग महान कं सूपनि जार्थ भारि ॥ कई धनुष पास नहीं जाई । सूर सुभट करें बहु उपाय ।।१६१६ ।। जो कोई पहुंच किया ही भांति । भस्म होइ प्राणजात ॥ भूपति कहूँ जनक कहा किया। इतने लोगों के प्राण जुलिया ॥१६१२॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुरा हमने छोड़ा सा व्याह । हम जीवत अपने घर जा || रूपयंत प्रिय सों क्या काज | बुरी भलो सेती रहू लाज १९२१ ।। मारा मान भंग इत भया । ब्रह्मचर्य पाले हम नया || सकल भूप त्यां हारी मान । रामचन्द्र उट्या तिए कार ।। १६२२।। राम झरा धनुष खंचना दशरथ नृप की आग्या लई । त्रिभुवन नाथ सो प्रणपति करी || अघि सम तेज चन्द्र उणिहार । रामचंद्र का बल अंत न पार ।।१६२३ ।। जैसा भेस सुदर्स धीर सोभं कंचन वरण सरीर || जिम समुद्र प्रति श्रगम प्रथाह नहीं राम गुण को अवगा ।।१६२४॥ कर सूं धनुष जब लिया उठाई | क्षमें लिया संघाइ ।। करि टंकार गह्यो जब बाण | गरज्यो धनुष प्रति मेघ समान || १६२५ ।। बोलं मयूर पपीहा रखें। दादुर सबद सरोवर र घरतीस्वर गिर कंपे घरगे । जलह नीर तब उछले घणे ।।१६२६ ॥ सीता द्वारा वरमाला डालना जं जे कार देवता करें । पहुप वृष्टि व सिर परें || रामचंद गले वाली माल । जे जे कार करें भूपाल ।।१६२७।। २०१ मान मंग विद्यावर भए । लजावंत होई उठि वए || जनक दसरथ के वाजे बजे 1 ता सवय सों दुरजन लजं ।। १६२८।। सिघान परि दसरथ राय । नमसकार कियो सिंह प्राय ॥ सीताराम को जोडी बनो । ते सोभा मुख जाइन गिनी ।। १६२६ मी म्तु नहीं जग माहि । जाकी पटनल दीजे ताहि ॥ चंद्रकिरण पेचर भूपति कंन्या ग्रस्तदस गुणवती ॥१६३० ।। रामचंद्र कृ दई विवाह । सीता संग श्रधिक उछाह ॥ लक्ष्मण ने लोनां करि धनूंष । उतारि चढाइ किया मन सुख ॥१६३११ राजा मकल रहे मुंह वाहि । इन सम हम कोई जोबा नाहि ॥ भरत सोच कर मन बहुत । एक पिता हम चाहे पूत ।। १६३२३१ भी पनुष उठा नहीं काय हनु का प्ररच पुन्य सहाय ॥ पुन्य प्रार्थं ए हुआ बली । इनकी सरभर किम पाएं रजी ।। १६३३३ केकईति पुत्र की और मन मलीन देख्या सिंण ठोर || सूरत मन की लावी यास । पति स वचन कहै बहु भांति ।। १६३४ भरत ताँ मनमें वैराग । दीक्षा लेसी सब पर स्याग ।। कनक गेह सुप्रभा नारि । लोकसु श्री पुत्री तिसा द्वार ।।१६३५ ।। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमपुराण भरत का लोमसुदरी में विवाह वाहि कहो वरमाला सेहि । भरत तणे गले घालेइ ।। मनक कनक प्रति कहै त्रुलाइ । कन्या आई मंडप ठाए ।।१६३३।। देखें सकल भूपती राइ | माला दई भरत गले बालि ।। लोकसुदरी व्याही भरत । तजि बैराग भोग सुख करत ।।१६३७॥ प्रे करम महा बलवंत । मोह सिंधु में बुड़े अन्त ।। भवसागर तें कठिन निकाल । जे उछल काहु बाल ॥१९३८।। मोह सिला ले बोले फेरि । जीव करम में राख्या घेरि ।। जनक नरेन्द्र दीनी जिवणार | वेस देस के नृप की कर मुनहार ||१६३६।। मिष्ठामों का वर्णन मंडप तल में बैठा मप । सोवनथाल भरि रखे अनूप ।। रत्लो जडित तवाई घरे । सुवन कटोरा दुग्ध ले भरे ॥ १६४०॥ फीरणा फीरणी अरु न रफी स्वेत । धेबर लाडु पस्या हेत ।। लरमे सीरा पूरी धनी । बहुत सुवास तनो की मनी ।।१६४१।। धोल बड़े व्यंजन बहु भांति । हरे जरद बहु गमें न जात ।। भात दाल भति घ्रत्त सुवास । सिखरण का दौना रि पाति ।।१९४२।। तामें यूरा लायची लोंग । मेवा मेल्या तिहां मोहन भोग ।। मीठा मिरच जीरों का मिल्या । लूण संघात तिहां बिल्या ।।१९४३। जीम्या भूपति एकई पांति । चनु लेड मुख गोध करात ।। लोग कपूर केशरि जावतगे। बी डा बांच्या चोली धरी ।।१९४४।। झाये रत्व कनक नग जरे । बीहा बांधि तिन अग्रे घरे ।। नृपति खाय सभा के बीच । लगाए अडिग चाव गला नीच ।। १६४५।। केसरि छिडकी बहुत गुलाब । रंगारंग हुयां बहु भाव ।। कामणि मावै मंगलचार । सह कुटख को पावै नार ११६४६।। चौरी रची उषंड बराच । प₹ बेद धुनि पंडित राइ । वाजा बह बाज दरबार । नत्य करें' गाई नर नारि ।।१९४७।। रामचंद्र सीता का व्याह । दोऊ कुल में अधिक उछाह ।। बाही लगन विवाहो घणी । ते सुख सोभा जाय न गिणी ॥१६४८।। सोदा बहुत दिया भूपती । नाही गिणत मंताछती ।। रहस रली सु सुधरघा काज । प्राय अयोध्या भुगत राज ||१६४९। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पम्पुराण दुहा चल कुटंब लक्ष्मी घणी, पाई पुन्य पसाइ ।। रामचंद्र लक्ष्मण बडे, भए मुकटमणि राय ॥१६५७।। इति श्री पद्मपुराणे रामचंद्र सीता विवाह बरणम विशनक २५ दो विधानक चौपई प्रयोध्या मागमन सह परिवार अयोध्या माह । करी बधाई दशरथ राई ॥ सुख में बीत पाठों जाम । भोग्यां भुगतें सस्ताराम ॥१६५१॥ मुद अषाढ प्रष्टमी सुभघडी । पूजा की सामग्री करी ॥ देव सथान संघारमा धरणां । भला भला चंदोबा तणा ।१९५२॥ पष्ट दरब सब लीये सुध । पूजा पर्दै पंडित सुधि ।। गंगा का जल उत्तम नीर । भरे कलस झारी तिहं तोर ||१६५३॥ अति सुबास जल भरधा सुपास I 4 ाई कर परिवार । अरचा चरथा पूजा पाठ । 4सी विध बीते दिन पाठ ॥१९५४॥ मावासी कर सांतीक । जसम खलं धरम की लीक ॥ किया महोछव श्रीं जिन थान । देवसास्त्रगुरु प्रवान ॥१९५५॥ गंधोदक लेना गंधोदिक सिर लिया चढाइ । महल मांहि फिर दियो पठाई ।। मर राणी निज अंग लगाइ । सुप्रभा ने नहीं पहुंच्या जाइ ॥१९५६।। जे व # विया गंधादिक लेइ । ताकू पुत्र जिनेश्वर देइ ।। कुष्टी का तुष्ट जु भग । निरमल होइ देही अगमग ।।१६५७॥ कंचन सम काया तसु होइ । निसचे वत करें जो कोह 11 सुप्रभा राणी की व्यथा सुप्रभा राणी कर अहंकार । प्रणसण लें पौढी तिणवार ।।१६५८।। पसचाताप मन में प्रति घरै । हीन पुन्य जो पूरब करें । पति का तो बाहुं दूषण नही । तात हमारी कारण न रही ।।१६५६।। अब मैं तज दूंगी निज पराण । हमारी प्राज पटाई काण ।। राजा पाये महल मंझार । देखी पड़ी सुप्रभा नार ।।१९। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपुराण मलिन रूप देखी वहां पडी। जाणे प्राण जर्ज इस घडी ।। दशरथ आइ पलंग परि वैटि । राणी उतर कर बैठी हेट ॥१६६१।। बांह पकड़ कर नई उमाय । पोलंग पर मिज पाम बिठाय ।। किरा कारण तू करें प्राहकार । किरण मनुष्य तो कूदई गार ||१६६।। ताकी जीभ कदाऊं तुरन्त । जैसे ही पाऊं सुध तंत 1। सुप्रभा कहै सुणो नरेस । मोकू कहा देखी होगा भेस ।।१९६३ ।। सकल कला गुण माहिं प्रवीण । कयाप वस्तू मैं जाणों होगा ।। गंधोदक सब क' तुम दिया । मेरे ताई क्युन वांटिया ।। १६६४।। प्रत्र हुमरूमोडि संन्यास । अपग जीत्रण की तज पास ।। गय का ते सुण्या पुराण । अंसी चित्त में मूल न प्राण ॥१९६५।। कोष कार जो प्रात्मा है । लख का दुरुपहै ।। बुमति मरण भवभव होइ दुख । चिहु गति माहि न पाद सुग्न ||१६५६।। गंधोदिक लीयां थी कंधुकी । सुप्रभा रांगी क्रोध मा की ।। सुप्रभा बोल सुणु नाथ । मुंह मोडमा भीर ईनह हाथ ।।१६६७।। मिल्यो तिहां सगलो रावास । बैठी घेरि राणी चिहुं पासि ।। इह गंधोदिक श्री जिनवर तणों । इस पर क्रोध न कीजे घणों ॥१६६८।। कंचुको को नत्म का प्रावेश अंजली भर निधडकी सब प्रिया । ततभिरा क्रोष पयाण प्रिया ।। राजा कंचुको सौं तब कहै । वेग नांचि राणी सुख लहैं ।। १६६६।। कंचुकी का उत्तर बोल बचुकी सुपी नरेश । वृध्य भए पंडुरा केस !! टूटे दांत देहीं जा जुर्ग । सघ सरीर में लीलरी पड़ी ॥१६७०।। कांप भरण थर हरै सरीर । बहे नाक नैणा थी नीर । लाठी टेक सुर द्वीले भए । तरुणा पाका पौरुष गये ।। १६७१।। जसी फूल है अति सांझ । जिम जोबन विनस पल मांझ ।। हूं किरा पर नाचू भूपनी । यही में बल रह्या न रती ॥१६७२॥ तुमार ही इहै प्रसाद । बहुतरा सुख मुगते स्वाद ।। रूपरंग चतुराई घणी । मुझ सो कोई न गुणी ॥१९७३॥ वृद्ध भये कला सब घट गई । अष्यर पद की सुध भई ।। शरथ पर प्रभाव दसरथ के मन सांची लगी। वैराग भाव की चेष्टा जगी ।।१९७४१॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभासंध एवं उनका पापुराण -- -- -- -- .. ------ बोबन जल बुदबुदा समान । पलमै हो जाइ तिहां हांनि । जोबन समें धरम कबहू ना करें । अगल भव' कुयो हित धरै ।।१९७५।। जीव लपटियो माया जाल । आय अचित्यो व्या काल । जरा घटाई देही मांस । तो भी इच्छै भोग विलास ।। १६७६१ अगली सुघ सब दई विमा । पुत्र प्र लक्ष्मी लाई नार ।। सुपना की सी है सब रिद्ध । जागति कबहु न दीस सिव ।। १६७।। सकल विभूत पुण्य नै होइ । ताका भेट समझ सब कोइ ।। पुण्य सिवाय' सगां कोई नहिं । कहा राचे ऐसा सुग्ब माहि ।।१६७६।। उग्मज विगणसे होइ विछोह । ताम कहा कीजिये भोग ।। धन्य साथ जिन तजियो गेह । ममता कबहुं न गम्न गह ।।१९८०॥ मेरा है यह पुत्र सपूत 1 तिसकों साँपों राज विभ्रत ।। आतम का हित करू मन लाग्य । घरमाध बस मन बच काय ॥१८५११ ग्रंसी चित चिता नप करें । पंच महाव्रत कब मन पर। सर्व विभूति मुनि से धर्मापदेश का श्रवण सर्वसूति मुनिबर 4 प्राइ । च्यार म्यान झलक तसु वाय ॥१६८२॥ बहुत शिष्य मुनिवर ता संग । तीन ग्यांन सों सोम अंग ।। केइ तम तल केई जिन भूमि । केई सिला फेई परवत गिन ।। १६८।। केई सरिता के तट तीर । धरयो व्यांन मन मेरु सुधीर ॥ रितु चौमासो काली घटा । सकल मयगा मेघसों पटा ॥११८।। चमक दामिण गरज घरमा। मसल धारा बरमै घणा ।। मुनिवर बैठा श्रपणे ध्यान । लगबूद प्रति तीर समान । १९८।। सह परीस्या बीस भन दोय । दया भाव सब ऊपर होइ ।। वाजा बजे बहुत परभात । उ लोग जिन सूमर प्रान । १६८६। कार सनान जिन पूजा करी । भूपति मुनि बंदन चित घरी ।। राय संघात चाल्या बहु लोग। देख्या साध ग्रात्मा जोग ॥१६८७|| दीनी तीन प्रदक्षिणा राय । केवलि वाक्य सुण्या मन लाय ।। सकल संदेह चित्त का गया । राजा फिर मंदिर प्राइया ||१६८।। रांशी सों वह मंदिर मांझ । राजा सेन्च कर दिन सांझ ॥ भोग मुगति मैं बीतं काज । दसरथ कर अजोध्या राज ॥१८॥ इति श्री पद्मपुराणे विश्वमूति मुनिवर समीप धर्म श्रवण विधामक Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भामंडल की चिन्ता २६ वां विश्राम चौपई गई चउमास सरद रितु आई । कालिक मास यहा सुखदाई ॥ घान पांण पांणी का स्वाद । कूले कमल करें अलि नाद ।.१६६० ।। चंद्रसूरज की निरमल क्रांति । उज्वल जन सो बहु भांति || आमंडल मन चिंता घणो । अई कंसी करम गति बनी ।। १६६१ ।। पद्मपुराण मम इच्छा सीता की करी । व्याही राम भूमि गोवरी ।। हम विद्याधर देव समान । हमारी कयन रही कांग्२१६६२४ मी खुटक रहे दिन रात वस्तज कही मन की बात ।। बृहतकेल सामलि सव व 1 करें सोच मन मां बहु खेद ।।१६६६ ।। वोल अन्य मंत्री तिहां घराणं । दात्र न को हम पास ई ॥ सीता सम कोई नहि नारि स्वा मध्य पाताल मकारि ।।१६६४।। रामचन्द्र सम अवर न बली । ते सीना सु मान ली । लक्षमण त यो प्राकमं । उनकी सदा सहाई बमं ।। १६६५॥ ।।१६।। जब सीता व्याही थी नाहि । तव चोर ल्यावते ताहि ॥1 तब कैसे लेता रामचन्द्र । हम किया जब झुठा अब वह कैसे हरियन जाय । राग लषा से देव डग || बृहस्पति के मंत्री तब कहै। कहा सोच तुम मनमें रहे ।। १६६७।। विद्याधर हम जइसा देव । सीता हरन लागे ई भेव || 4 राम लक्ष्मण मांई जुभ भूमि गोचरी लई असुन ||१८|| हम विमाण चटि ले अकास | भूमिगोचरी के पुरवा ॥ भामंडल वीमाण चढ चलें । गृह मंत्री सब मिले ॥१६६॥ बहुत सुभट संग लीया चहा । पहुंचे विदग्ध देस मा जाय ।। भामंडल को जाति स्मरल होता महीघर परवत देख्या बहूदे पूरब भब करते इहां राज । जाती समस्या भया रेंग २०० दिज नारी राखी के काज ॥ तप कर विप्र भया वह देव चित्रोत्समा मै जुगल भए । २००१॥ जनमत समं मुर्के सुर हत्या | चंद्रगति तां मंदिर से धरा ।। महाकुबुधि बिचारी बुरी बहन हरन की इच्छा वर्गे ।।२००२ ।। अपने कुल की निन्दा करी । बाई मुरा मृतक सभ परी ॥ बहूर गये रचनूपुर देस | चन्द्राइरा देश्या भैस ॥। २००३।। सुत Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभावंच एवं उनका पद्मपुराण २०७ वंद मिया खुलाय उपचार | सौत कामल र घरे समार ।। कामिन फेरै देही पर हाथ । बीजणा करै मरती तिण साथ ।।२०।४।। व सचेत बोलियां कुमार । पूछ राय पुत्र की सार ॥ पिछला कह्या सकल सनमंध 1 विनया कारण हुआ अंध ॥२००५।। सीता बहिन हवाको भ्राता । उपजे कुख विदेही मात ।। जनम समै हरि ल्याया देव' । तुम घर छोड दिवा इह भेव ।।२००६।। सकल सभा सांभलि सन मंत्र । सब संसार जाणियो घंघ ।। पोता कूदीनू सब राज | चले सुत पिता दीक्षा काज ॥२००७।। महेन्द्र गिर इक उत्तम थान । सरवभूत हित मुनि ढिग यांन ।। करि जोड कीनुनमस्कार । प्रभु हमें दिक्षा छौ इसबार ॥२००८।। बाशबाने गुनी जमा ! नत्य पपर सिरण ठाय ।। कर पारती महोच्छा घणे । भाट जज कार जनक भणं ॥२००६।। प्रभामंडल जनक सुप्त सूर । ग्यांनवंत दासा भर पूर ।। धन्य धन्य घरी धरम की देह । घरमध्यान सुस्याया नेह् ।।२०१०॥ सीता द्वारा पिता के नाम पर चिलन सीता सुध्यां पिता का नाम । सोचे घणां राखि वित्त ठाम ।। जनक पुत्र इहै है नुप कौण । मो संगि जनम हुवा था जोण ॥२०११।। कोई हर ले गया जनम की वार । ताकी कबन्न न पाई पार ।। सीता के भरि पाये नैण । रामचंद्र तव पूछ वयण ।।२०१२।। किम हम भरे कहा तुस दुःख । तुम कू है मुह माम्या सुख ।। सांची बात कहो समझाय । क्यू दिलगीर भई किरण मार ।।२०१३14 पिछली कही जनक की बात । मो साथै इफ जन्म्या म्रात ॥ बाकू कोइ ले गया उठाइ । बोल भाट जनक सुत राय ।।२०१४ तुम चालो तो देख्या जाई । दरसन मात को पाऊं गय ।। दशरप का मुनि के पास जामा बीती रयण भयो पर भात । दयारथ चल्यो मुनिवर की जात ।।२०१५।। च्या पुन सहित परिवार । बहुत लोग भए प्रसवार ।। विद्याधर की सेण्यां घणी । मंदिर माया रूपी बनी ||२०१६।। राजसभा खेचर की जुडो । भने प्रजोध्या छाई खरी ॥ दरसन कियो मुनिवर को जाइ ! नमस्कार कीया बहू भाइ ।। २०१७।। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापुरत विद्याधर प्राय सब मिले । समाधान पूछे बहु बने ।। चरचा कर धरम की सर्व । सातों तत्व और षट द्रव्य ।।२०१८11 नब पदार्थ नै काया पंच । जिनवाणी मुख कोन संच ।। ग्रादि अंत की चरा करे 1 जिनेश्वर बावय हिये में धरै ॥२०१६।। दशरथ नृप पूर्छ कर जोडि । प्रमुजी इनकी कहो वहोट ।। किशा कारण यह लेत हैं जोग । छोरे केम राज सुख भोग ।।२०२०।। मुनि द्वारा बसलाना बोले मुनिवर ग्पांन विचार । विदग्ध देस महीधर को पार ।। कुंडलमडल तिहां भूपती । पिंगन्न विप्र की तिहां पियनी ॥२०२११ नारि लई विघ्न की छीन । विप्र दलिद्री का प्रति दीन । चक्रध्वज प्रभावती का सूता । गजा ले त्रिय भोगता ॥२०२२।। वित्र महा दुख घणा मन करया । जती पास संयम पादश्या ।। तप करि लमा महेन्द्र विमाए । पिछला भव समझ धरी ग्यांन ।२००३।। मारण कुडल मंडल गह्मा । बांध्या ताहि बहुत दुख दिया ।। बहरि कुडल दीया छोडि । मुनि मुख सुनी करम की खोडि ।।२०२४। तिहां अणुव्रत लिया मन लाइ । चित्रोत्सवा तप कीया जाइ ।। दो उपज्या गरम विदेह 1 जनक मूप के जुगलया एह ।।२०२५।। वर समझि इन दासक हरुमा । गया गया गिर कंदर फिर्या ॥ विजयाग्ध रथनूपुर जाय । चंद्रगति फिर घेऱ्या प्राय ।।२०२६।। पुष्पवती नै पाल्मा याहि । नाम घऱ्या प्रभामंडल ताहि । नारद लिखी सीता का रूप । प्रभामंडल तब मोहा मप ॥२०२७।। उन बांछी हरगो कू मीया । जानी सुमरण ग्यान उपजीया । इग्ग बारण उपज्या वैराग । राज रिध दी सद ही त्याग ॥२०२८॥ व्योरा सुरिण सब चक्रित भए । सब संदेह इनू के गये ।। प्रभामंडल द्वारा प्रश्न करना प्रभामंडल नब पूर्छ प्रश्न ! चंद्रगति पुष्पवती प्रसंग ।।२०२६।। कवरण सनमंघ इणु संग मिल्या । पुन समान इनु के पक्ष्या ।। भरतक्षेत्र मोद श्म गाम । विमुच चित्र निवस तिरण ठाम ।।२०३०॥ अनकोसा ताकी है स्त्री । प्रतिमूत पुत्र सरिसा पुत्तरी ।। ग्याना विप्र उर जामात । सरसा कुले भाज्या प्रात ।।२०३१।। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाबंद एवं उनका पमपुराण २०६ मात पिता सुत निकसे खोज । तीन व्याकुल रोवं रोज ।1 भर्मा सौज सों छोट्या गेह । तीनू बिछुडे ढूढत एह ।।२०३२।। बहत प्रकार ले ले नाम । दृहत फिर नगर पुर ग्राम।। घर कू चोर लूट ले गये । तीनु फेर भिखारी भए । २०३३।। विमुच विप्र जमना पर गया । भिक्षा मांगि निज मारग लिया। इन कुवास नरइ मलीग । भ्रमत भ्रमत देही भई छीन ।।२०३४।। उरजा देखि तब वामौं मिली । अनुक्रम बात पाछली गिली ।। इनव सनी कही समभाय । बेटी किसके घर समाय ॥२०३५।। हम तुम दोन्यू एक ही जात । मे एन नी है ति !! पुष कू मिले गया मंदेह । सरचार पुर गये दोऊं एह ।।२०३६।। कमलांति अनिका के पास । दिक्षा लई सुगति की प्रास ।। विमुच चिन भी दिक्षा लई । करी तपस्या मन वच कई ।।२०३७।। पहुंचे तीन ग्रीन बिमाण । अदभुत सरिसा भवर कयाग ।। तीनु थाप प्रान की प्रान । करें बहुत मिथ्या मत ध्यान ।।२०३८।। जन धरम की निंदा करें। मिथ्या घरम को निश्च धरै ।। सरसा बहुगति भ्रमी अथाइ । अंत भई हिरणी परजाइ ॥२०३६।। चल्यो केहरी पाछे दोडि । हिरणी धसी दवानल माहि ।। बहरि कनक परवत परिजाइ । सिंघ देखि भागी उनकाय ।।२०४०।। छुटे प्राण हिरणी तहां मुई । चध्वज सुता चित्रोत्सवा भई ।। ग्यांना अम्या बहुत संसार । घूमकेत धर लीयां अवतार ३२०४१।। पिंगला नांस पुत्र ते भया । चिवोत्सवा पुगल ले गया । प्रतिभुत च्या गति भ्रम्या । अंत समं हंस गति जम्यां ।।२०४२॥ ताराछ सरोवर क्रीडा करें । एक दिन गाय कोच में पडें ।। लाग्यो कीच पोख भर गई । उन सके अपाहिज भई ।।२०४३।। जिनवर थान जाइ गिर पड़े । जसोमित्र तिहाँ मुनि तप करें। अंत सुण्यां परमेष्ठी नाम । किन्नर देव भया तिण ठाम ।।२०४४।। दस हजार संवतसर आव । कुंडलमंडल हवा राव ।। विदाघ नगर का राजा हवा 1 पिंगल संग पहुंची चित्रोत्सवा ।।२०४५।। त्रिया चोर द्विज नै दुख दिया । पिंगल तप करि देवता भया ।। विमुच जीव चन्द्रगति भूप । प्रनकोसा पुष्पावती रूप ।।२०४६॥ उरजा भई विदेहा नारि । चित्रोत्सया सीता प्रवतार । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० भाई बहिन मिसन पद्मपुर भाई बहन जुगलिया भए । पुत्री पुत्र जनक घरि गए । २०४७ ।। पूरव भव का कारण मिल्या । इस सनबंध इसके घर पल्या || सुन्यो सकल पिछलो बिरतांत । उठी रोम सब ही के गात ॥। २०४५।० भामंडल सीता मिले रोइ । समझावै उनको सब कोइ || जनक कनै ए सब बेग पुचाई । अनिडा विदेहा माई ||२०|| गया दूत पत्र दीया ताहि । वांचित मोह उदय भयो आइ ।। पवनवे तब कहै तुम चलो । पुत्र भावना सेती मिलो ।। २०५७।। चत्रे विमान सहित परिवार भयो सुख मन हरष पार || गए अजोध्या मिले गल लागि । मात पिता मिलिया बड भागि ।।२०५१।। धन्य जननी जिन पायो वीर | बाललीला देखी सवीर | गति । भो शुरू अति दिखलाई करत रामचंद्र के मन उल्लास | सकल कुटंब मिल्यो ता पास ॥ भामंडल कहै दिक्षा लेहु । रामचन्द्र समझा देव ॥। २०५३ ।। सुम बालक जोवन भरी देह हम तुम हुवा अधिक सनेह || जब हम दिक्षा लेस्या जाई । तब तुम हम संग लीज्यो भाइ ।1२०५४ ।। भामंडल सेना सयुक्त । रथनूपुर में जाय पहू व 1 जनक कनक का सव परिवार। मिथलापुरी गए विहवार ॥२०५५१ सीता राम अधिक सुख भया । बहु प्रकार आनंद सब या I सगलां की चिंता मिट गयी। दिन दिन सहस विभव गुगा थई ।। २०५६ ॥ अहिल पुण्य उदय परिवार बर्ष दिन दिन धरणां विधुरं प्रीतम मिलें बहुत घरि सजणा ॥ मेरी सागे पाय धरम परभाव ॥ संपत्ति मिलें अनेक कृपा जिनराज सौं । २०५७।। इति श्री पद्मपुराणे भामंडल समागम विधानक विमानक २७ चाँई कार का मुनि के पास जाकर अपने पूर्व व पूछना राजा दशरथ मुनि पास गया। नमसकार करि चरणी नया ॥ स्वामी मो मन र सन्देह | मो भव भाषो लहू ७२०५६।। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभापंच एवं उनका पयपुराण कवरण पुण्य ये पाई रिद्ध । जनक कनक सुत च्याज घिध ।। सरवभूति मुनि भवधि विचार । ज्यों ज्यों भ्रमै संसार ।।२.५६।। हम तुम रुल्या अनंती बार । श्रमता कबह न पायो पार ।। तीन लोक में नहीं विसराम । स्वर्ग मध्य पाताल सुगंम ।। २०६०।। च्यारौं गति में डोल्यो हंस । कर उत्तम कब नीव बंस ।। सप्त तत्त्व के सूच्छम भेद । जाय मुगस संसम तरु छेद ।। २०६१।। नित प्रति राखे उत्तम ध्यान । जन घरम का सुर्ण पुराण ॥ दान चार दे वित्त समान । प्रौषद अन्न अभय का दांन ।।२०२६२।। जीव तत्व का सुरण बयाए । एक जीव निरंजन जान । दोइ प्रकार संसारी प्रांन । भव अभव्य जीव धरि ध्यान ।।२०६३॥ भव्य सोही जाणं ये भेव । मन वच सस्य जिनेस्वर देव ।। पूजा दान सामायिक करै । पाप कर्म सर्व परिहरे ॥२०६४।। तो निश्चय सिद्धालय जाय । समकित सूरह दया के भाव ।। कई सिद्ध होइंगे और 1 पावंगे तो निर्मय ठौर ।।२०६५।। प्रभम्य जीव दरसन से दूर । देव शास्त्र गुरु समझ नहीं मूल ।। जिन वागी मान मुहाइ । गुरु कुदेव कुशास्त्र ते पार ॥२०६६॥ मक्ति दया न समभ, कूछ । च्यारों गति मांहि सर्व तुच्छ ।। उपजत बिनसत लगे न वार । ऐसे जीव ले संसार ।।२०६७।। तिहं लोक घिरत घट जिम मरें। सिहां के जीव नहीं नीवरे । मोक्ष थानक भरि पूरन थाइ । नरक निगोद न रंच घटाइ ।।२०६८।। परम अपरम क जीब प्रजीव । काल प्राकास द्रव्य षट नीव ।। नय पदार्थ प्राने पंच काय । सकल भेद कहियो समझाय ॥२०६६।। सेना पर नग्र तिहां बसती घणी। उपसत नप भामणी तस तशी। जैन धर्म सौं प्रीत न चिप्स । चंडी मुंडी मंडी पूजे सु विस १३०॥ मिथ्या परम करें मन लपाय । तीरथ तीरथ सप्त भ्रमाय ।। दया दान समझ नहीं भेव । पाप प्रमाद की इच्छा करे ।।२०७१॥ कर परत वा कंद मूल । तिल दाणा बहुला फल फूल ।। सिंघाडा वींध्या को पून । परत खांग ने सीधा लूए ।।२०७२।। काया पोष परस बहू किया । झूठी क्रीया सौ मित पीया it . जल में कूद विराषं मीन । आश तिलक मान करि हीन ॥२०॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ पपपुराण प्रणवारण जल कर रसोई । बहुत पाग ताकू नित होइ ।।। मरि करि पहुंते नरक मझार । चउरासी लख भ्रम्या अपार ।।२०७४। बशरथ के पूर्व भाष भ्रमत भ्रमत इंद्रकपुर नग्र । करें राज राजा जसोभद्र ।। धारणी त्रिया तासु पट घनी । घारण पुत्र सोभा अति बनी ।२०७५।। व्याही नयरण सूदरि नारि । पाया मुनिवर लेण पाहार ।। विधसुद्वारा पेपरण किया । ऊंचा पासण वैसा दिया ।। २०७६।। घरण धोय जल सीस चकाइ । वश्यावर्त किया बहु भाइ ।।। मास उपासी मुनिवर अती । सुध अाहार दिवो मुपती ॥२०७२।। अषय दान दियो मुनिवर नहीं । भाषिक पुनीतण दंपति कहा ।। समकित सुपालं अनुवर्त्त । देवसास्त्र कर गुरुभक्त ।।२०६८।। पुरण प्राव करि तज्या परान । क्षेत्र विदेह घातकी आन ।। भोग भूम दंपति तिहां पाई । दोनृ भए जुलिया प्राइ 11२०७६।। तीन पल्य की प्रायु प्रमाण | भुगति तीसरे स्वर्ग विमांश ।। उहां तं चए प्रथइ देस । नदघोप म्है तिहा मरेम 11९०८०।। वसुघा है तावी असनरी । नंदवरधन जनम् सुभ चरी ।। कोडि पुरव की भुगती पान । जसोधर पास सुण्यां घरम के भाव ।।२०८१॥ दिक्षा लही जतीश्वर पास । जसोपा मुनि नौकांतिक याम ! नंद बरधन पंचम सुरथान । भगत प्राव फुन नंया निदान ।। २.४८ २ ।। मेरु सुदरसन पछिम बोर । विजयाराध परवत की और ।। ससीपुर नग्र रत्नमाली भूप । विद्युलता राणी सु स्वरूप ।।२०५३।। सुरजय ताक भया सुपुत्र । विद्याधर बल भू संजुक्त ।। सिंघ नन बच लोचष राय । रत्नमाली चढे जुधकर भाय ।।२०६४।। दारुन युध दोउ षां भयो । रतनसाली न कोष उपनु भयो । प्रगनि बाण कर लिया संभारि । मारि मारि किये दुरजन ठार ||२०६५।। देव एक प्रायो तिरण ठाम । समझाया रत्नमाली नाम || जो मारंगा इतने लोग 1 तो होसी भव भव विजोग ।।२०८६।। में कोई एक जीवन हन ! साकों हुवे नरक फी गर्ने ।। भव पिछला देव निज कहें । राजा क्रोध छोडि इम कहै ।।२.८७॥ गधारी नगरी नृप भूत । उपमती नामा रोहित । हिस्या कर था घणी । इक दिन लबधि पुन्य की वणी ।।२०८८।। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनि समाचंद एवं उनका पमपुराण दशरथ का पूर्व भव कमल गर्भ मुनि पागम भया । सुरिए नरेस पूजा कू गया ।। प्रदक्षिगग। दई नप तीन । नमस्कार करि बोल दीन ।।२०६९।। स्वामी कहो धरग समझाय । पाप पुन्य का कैसा भाय ।। कहैं मुनीसर सुणो नरेस । पुनि त जस होव देस बिदेस ।। २०६०।। पुन्ग तेह्र संसार में रिद्ध । पुनि ते पाय सगली सिद्ध ।। फाप करम नित कर ते मून । दया पाल हिस्या रूद ।।२०६१।। मरि कार चहूंगति माहि भ्रमई । खोटी गति मां बनस अमई ।। राजा सुण्यां घरम का भाव । थर हर कर कंप्या सब गांव ॥२०६२।। उत्त नरेन्द्र उपसमी द्विज । दिव्या पाल ब्रह्मचर्य ।। तप करि पहंता स्वर्ग विमारा । पख्य पांच तिहां प्रायु पमाण ।।२०६३।। प्रोहित जीव मिथ्या मन धरी । न घरचा राजा के घरी ॥ उहा ते लोक य भए ग्राह । रापहस्त मत का जीव है राइ ॥२०६४।। प्रोहित जीव त्रय बड़वा भया । हस्तनी गर्म बडवा जिय चया । हस्ती भूपति का गजराय । बहुत दिबस तिहाँ गए विहाय ।।२०६५ जुब शम लागे बहु धाय । छुटा प्रांगण संग्राम की ठांव ।। धीमत पुत्र हसति घर जाइया । जोजन गचा राणी व्याहिया ॥२०६६।। पर सूदन पुत्र हस्ती का जीव | दिन दिन बढे सुभट की नींब ।। जाति स्मरण उपज्या तिरा वार । कमलमर्द पले तप सार ॥२०१७॥ सतार स्वर्ग पाइया विमाण । हस्ती जीव मंदार वण प्रारम् ।। भया मृग तीहां पुरी याव । उपग्या गरभ भीलन की ठाव ।। २०१८|| कालंजर भील कहाचे नांव । आखेटक करम स् राखे भाव ।। मरि कर गया सरकरा भूमि । कठिन करम तिहां पाया झूमि ।।२०६६]] भ्रम्पा जोनि चरासी लाख । समकित कदे न मुलत भाप ।। भ्रम संसार मनुप गति नही । तिहा पाइ कछु पाश्रम गही ॥२१००। मैं अब आई संवोध्या तोहि । असुभ करम का टूटा मोह ।। करी तपस्या छोडे प्राण । रलमाली नृप तू भया यान ।२१०१।। रत्नमाली अन सूरज रजै । दोउं करया पाप का कर्ज ।। तिलक सुन्दर मुनि पै तब पाइ। दिक्षा लई मुगति के भार ।।२१.२।। सूरज रज महा सुक्र विमाए । उहां ते पय रसश्च भया प्राण ॥ नंदघोष ग्रीवक ते चा । सरवभूति मुनिवर घे भया ।।२१.३॥ चय इक देव हुवा है जनक । रत्नमाली जीव भया है कनक ।। इम्। विघ मुश्यां सकल परजाद । संसय मन त गया बिलाय ।।२१०१। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपुराण सब परजाइ दसरथ सुष्पा, ज्यों ज्यों भमियां हंस ॥ पुन्यवंत सब जग प्रगट, सवतै उसिम वंस ।।२१०॥ चौपई रशरण का वापिस घर पर माना राजा फिरि प्रायो घरमांहि । मंदिर गये भई तब सांझ ।। सरद रितु सुहावणी घणी । प्राभूषन की सोभा घनी ।।२१०६५। चंदन अगर सों अंगीठी भरी । यास मदक रही लिन खरी।। ऊन मई सेज्या पाटवर सोडि । केसर भरे गीदवे तिण ठोर ।।२१.७।। दुग्धपान के कीजे भोग । जो दूख मल देख प्रसोग ।। बिछे गिलम तिहाँ प्रति ही अनूग । तरणे चंद्रवे सेज्या रूप ।।२१।। उत्तम औषध खावे वरणाइ । तिनले गुण वर में नहीं जाइ ।।। पैसे मुखिया मुगतं सुख । दुखियां तरणां सुणु अब दुल ।।२१०६।। फाटे बसतर लूपी देह । मैली मन पर पाप मनेह ।। काठा मन प्रनं पानी भये । द्यौस होई धाम में तपै ।।२११०।। कठिन कठिन सों बीत काल । पाप करम का एही हवाल ।। जैसी करली तैसी गति । जाण र संसारी थिति ॥२१११।। शुशुभ अशुभ का भाव ए, देखो समझि विचार ।। सुपना का सा सुख ए, जाति न लागं चार ।।२११२१ चौपई पैराग्य भाव-रामान को राम मोपना राजा मंत्री सब लये खुसाइ । मब हम दिक्षा लेस्या बाई ।। रामचंद्र को सोप्या राज। प्रजा तरणी बह राखं लाज ॥२११३॥ मंत्री कदन कर तिए बार । राणी रोई महल मझार ॥ भरत विचार कर आहि । सोचं बहुतिहां मै दुखदाहि ।।२११४॥ अषम पुम्ब म तरचा । मोत मांही राक्षा करया ॥ अब मैं दिक्षा लेस्यु पिता मंग । ओं नहीं हवं मेरा मान मंग ॥२११॥ कैकेपी पुत्र देख्यो विरकत्त । राजा वर प्राण्यो तव विस ॥ मई भूप पास तिसरा पार । सकल सभा कीयो नमस्कार ॥२११६॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचन्द एवं उनका पयपुराण २१५ कैकयी का वश रथ के पास जाना एवं प्रपने वर मांगमा प्रर्द्ध स्यंषासण दियो नरेस । हाथ जोडि बोले भवनेस ।। मोकु दर दोना तुम क्या किया । अब मोकूदीजे करि दया ।।२११७।। तुम सम दाता कोई नहीं 1 जुग जुग की तरहै तुम मही ।। गोल राय सुरणों फैकिया । अब हम चाहे दिष्या लिपा ।।२११८।। जो कटु बस्तु मली मो पासि । मांगि बेग त्यो पुरौं मास ॥ राणी नयाँ झरे बहू नीर 1 व्याप्या कंत बिछीहा पीर ॥२११६।। नीची देखें धरती खणं । बनी बेर पीछे मुख भणे ।। भरत लेगा कहत है जोग । मैं किम सहस्यों पुत्र विजोग ।।२१२॥ अब जो भरत ने द्यो राज । तो अब रहै हमारी लाज ।। दारम द्वारा विचार राजा दशरथ कर विचार | कठिन वस्तु तं मांगी नारि ॥२१२१11 रामचंद्र सुत महा पवित्र । लक्षमण मेरै महा विचित्र ।। भरत राज पाव किए हाथ । हारयो वचन त्रिया के हाथ ।।२१२२।। रामचन्द्र जे पाव राज । भरत कर दिक्ष्या का काज 11 पर कोयी पुत्र विजोग । मोकू बुरा कहैं सब लोग ॥२१२३॥ रामचंद्र हरि लियो बुलाय । सन विरतांत फहै समझाय || कैकेयी मैं कह्यो वर दैन । बल करि कियो राज सब सन २१२।। ओं मैं वाच कुवाच अब करू' । पृथ्वी मांहि अपजस सिर परू ।। भरत लेय जो दिल्या जाय । तो कैकयी मरे हलाहल खाय ।।२१२५॥ मोहोह घणो अपलोक । यो मुझ मषिक व्याप्यो सोक ।। भरत राज देहु संसार । रामचन्द्र बोले तिरण वार ॥२१२६।। मात पिता की माया सार । जाका वचरण कुंए सफे टार ।। निज मंदिर पनि देख भरत । दीक्षा की मन इच्छा परत ॥२१२७॥ कब सो पिता निकस घर बार । ताके लेस्यु संजम भार ।। दुलाया राय सभा के बीच । राम बचन ज्यों ममृत सींच ।।२१२। भरत को पामंत्रण प्रजोध्या का तुम भगतो राज । अब हम कर परम का काव ।। विरण भरत सुणी सुम सात । यो राम नक्षम है आरा २९२९॥ इन हजुर किम मेठों पाट 1 फस्या नै ताली मोनु हाछ ।1 सज्य विभूत परष मंबार । जारणों सह संसार असार ।।२१३०॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ पुत्र कालित्र सगा नहीं कोय । संपति तणां विछोहा होय ।। देही प्रादि कोई साथ न चले । अब मैं फिर माया में मिले ।।२१३१।। जो तुम दिक्षा समझी भली । मैं भी संयम ल्युमन रली ॥ हमने किम नाखो इह माहि ! राज भोग की इच्छा मांहि ।।२१३२।। राम लक्ष्मण द्वारा प्रस्ताव रामचन्द्र लक्ष्मण दम कहै । हमारं चित्त प्रेसी क्यू' रहै ।। तुम बाल घर जोवन वेस । तुमकू दियो पिता सब देस ।।२१३३।। अजोध्या नणों राज तुम करो । मज आथम दिशा धरी ।। दोई कर जोडि भरत इम क है। तुमारी प्राग्या में सरदहै ।।२१५४।। तुम प्रमुजी कार हों घिस की सेव ! मोकू यहि समझामो भेद ।। रामचद्र भरत मुइम कहैं । हम वन वेहड किनर रहे ।।२१३५।। . सेवा करि हैं कुगा की जाय । वन में बैठि जपत्रिणराइ ।। दशरथ के चरणन को नये । बिदा मागि माता पं गये ॥२१३६।। माता के पास जाना राजा दसरथ भयचक्र भवा । माछा बाइ धरणि गिर गया ।। सव सेबग मिल थामे दह । पुत्र बिछोहो व्याप्यो तेह ।।२१३७।। माता सुगात साद पछाई । बड़ी बार तन भई संभार ।। माता कई मुणु रघुनाथ | हम कु भी ले चालो माथ ।।२१३८ ।। भरत राज पिरथी का रहौ । तुम अपने घर बैठा रही ।। रामचंद्र बॉल सूण माल । रवि प्रागें शशि की नहीं कान्ति ॥२१३६॥ राम का उत्सर हम प्राग किम रह राज । वह पट बैठा हम कू लाज ॥ हम दक्षिण दिस करि हैं गौंन । बन बेहद निहां नाहीं भौन ।।२१४०।। नुमकू किस विध लेफर जांहि । गैला में दुम्स कसे साहि ।। जब हम कहीं लहे विथाम । तब तुमसों मिलवे का काम ॥२१ ४१॥ सीता साथ लही तिरणबार । वज्रावत्तं धनुष संभार ।। हम तुमकू कहा देख्या कपूत । भरत ने सौंपी राज विमूत ॥२१४२।। लक्ष्यसाहाराकोष करना .. : .:. I :.:.... .. .: पिता न समझा धरम की चाल । हम कू'दीया देस निकाल।। त्रिया परित्र भूरूपा राय । लक्ष्मण ली तब भौंह चढाय ॥२१४३।। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंब एवं उनका पयपुराण धरती उठाऊं वक्राकार । भरत माहि बल कहा अपार ॥ नगरि मोहित देहु निकाल । राज देहु रामचंद्रगण इस बार ।। २१४४।। बरिगना मा । दोध जहर सब ही मिट गयो । पिता प्राम्या किम दारी जाय । हम भव भव करम बंधाय ।।२१४५।। रामबनवास राम मांहि मोते बल अति । उपां न प्राणी अपने चित्त ।। तातै कहि हैं ए वर्ण । पिता तणी प्राम्या नहीं हणे ॥२१४६।। प्राग राम अने पाछै सिमा । लक्ष्मण ताक पाछ किया ।। श्री जिन स्यालय जाय । विष सेती बंदे जिन राय ॥२१४।। मकल कुटुब नगर का लोग । पार्छ लागि चले मन सोग ।। राजा दशरथ भरथ सत्र घन । सब रणवास भयो सब मून ।।२१४।। मोहनत बिदा कर दिये । वे तीन तवं वन मा गए ।। रो स्वर्ग लोक के देव । सबै पृथ्वी प्रगा पायो भव ॥२१४६।। लोग कहैं चलिस्यां संग सम । बन खंड में कसें बिसराम ।। सूरज देख दुख का भाव । जाइ छिप्पो प्रस्ताचल ठाम ।।२१५० ।। पंछी रुदन करें चढ़ रूख । जलहर गए सकल जल सूत्र ।। भई रयण जिण पंदिर जाह । नमस्कार करि बैठा ताइ ।।२१५१।। भरत पत्रुघन पायो राज ! दसरथ गयो दिष्या के काज ।। राज बहुत भए गग्य । राज भोग सहु जन करि त्याग ||२१५२।। इति श्री पपपुराणे भरत राम, राम लक्ष्मण वनवास, दशरथ विक्षा, विधानक २८ वां विधानक चौपई पनवास की पचम रात्रि रामचन्द्र लक्षमण अरु सिया । जिन मंदिर में पाश्रम लिया ।। भई रयण सोया कछु बार । परध निस चाले घनुप संभार ॥२१५२।। निकसे एक नगर के बीच । देले मंदिर ऊंचे अरु नीच ।। अपनी अपनी सेज्या ठोर । सोब लोग न सुणिये सोर ।।२१५४।। कांमी थके त्रिया गल लाग । केई सुरत करें हैं जाग 11 माई निया मदन सिंस गया । कोकिला पंडित जन किया ॥२१५५१५ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण केई हारे पडे बेसुध । केई मूरख महा कुबुधि ।। केई कथा घरम की चलें । मुणं भेद अस्थी मुख लहैं ।।२१५६।। कई दुखी दलिद्री पडे । ट्टी झुपड़े के मल गिरे ॥ कई पडे माहि बाजार । कई पडे रहैं पइमारिनी सार ॥२१५७।। चोर फिर पर धन हरे । पाहरूवा वा सबद सूरण रै'।। देखे मकल नगर के चिह्न । दुखी सुम्बी देख्ने भिन्न भिन्न ।। २१५८ '। पुह फाटी उग्यो जब भान । बहु सावंत अजोध्या ते प्रान ।। मारग घेर रहें वे प्राय । रामचंद्र जिह्न पंडे आय ।।२१५६।। राजानी का अनुगमन छोडा रथ कौसिल कर लए । भूपति सकल पयादे भए । सस्त्रिया भू मनि घरते पांव । चल्या न जाय थके लिए पांव ।।२१६०।। जोता निबहै पावें घने । कालिंद्री जमुना कहने ।। उछलं लहर मच्छ बहु चलें । गड़गडाट सों जन न हलं ।।२१६१।। सच सह राजा विनती करें। प्रभु हम कसे पार उतरें। तुम तो प्रभुजी उतरो गार । हम कैसे पहुंचे निरधार ।।२१६२।। समको वापिस जाने को कहना रामचन्द्र बोले सुण लोग । तुम स्या मारै सहु विजोग ।। हम तापरा वन बेहरु तारा । करिही कहा हमारे पास ।।२१६३।। तुम फिर जाउ घर प्रापणं । दिन पलटघा मिलिवो प्रापों । रामचंद्र सीता गहि बोह । परि गया तिहां तटनी धांहि ।।२१६४१ बैसा एक रूल तलि जाय । बारि खडा भूपति बिललाइ ॥ देखो असुभ करम का भाय । असा क्या दुख व्याप्या प्राय ।।२१६५11 प्रवर मनुष्य की कीजे कहा ! राम रारीखा इह दुख लहा ।। हम फिर जाहि कर कहा गेह । करि हा चिदानंद सों नेह ।।२१६६।। सब मिल अंसी चितब चित्त । इनु जिन भवन करी जाइ पित्ति ।। श्री जिन मंदिर उज्जल वरण 1 वृष्म प्रसोग दुख के हरण । २१६७।। पूजा करी जिनेस्वर भगत । ऊंचें चढि देख्या सब जगत ।। ठाम ठाम देख्या देहुरे । रतन संभव मुनि तिहां तप करै ।।२१६८।। देइ प्रदिक्षणा पूछे धर्म । अती सरावग का सब मम ।। पार उत्तरि प्राये सब राय । सुण्यो धर्म तहां चित्त लगाय ।।२१६६।। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंव एवं उनका पद्मपुराण बहुत भूपतियां दिक्षा लई । घरम में सुणि निश्चय थई ।। बहू श्रावक का व्रत लिया । दया धरम मांही चित्त दिया ।। २१७०।। फिर गया अजोध्यापुरी भरत मूं मिले बीनती की ॥ कही बात सगली समझाय रुदन करें सुण दुग्ख अधिकाय ।। २१७१ ।। दशरथ द्वारा रुवन एवं वंराग्य २१६ ॥ २१७४॥ दसरथ करें करम व्यवहार | पुत्र वियोग भयो दुःख अपार ।। करण करम में खोटा किया 1 पुत्रा हैं देश निकाला दिया ॥९९७॥ बहुरि समझिया मन में ध्यान अंसा मोह में भया अयान ॥ कुरण कुण भवका चितको पुत्त । केई पुत्र कलित्र संजुत ॥ २१७३ ।। स्वरगां का सुख के के बार | देवलोक की भुगतो नारि ॥ चिह्न गति का दुख सुख धरणे । देह और सों प्रीत न पुद्गल घरांत घरें सब जण जीव संघाती कहिए कौं पांच चोर हैं काया बीच। विष मय करें करम वित्त नीच ।। २१७५ ।। विषय अभियान मैना हुआ || गाईं प्राण का नाम । श्रही समान इन्द्री सुख जास २२१७६ ।। मोह जेल बंधियो संसार | सूरख मगन द्वयँ निरधार || स्वारय रूपी है जय सार | धरम एक जिय को प्राघार ॥ २१७७।। । बारह धनुप्रेक्षा दुवै चित्त । श्रतम ब्यान विचारें नित || दसरथ मुनि सा तप करें । चिदानंद लिच चित्र में घरे ।। २१७८ ॥ अपराजिता रोवें दिन रात 1 कैकई मांग करें बहु भाति ।। भरत करें माता का सोच । कहै चन्न देखु माता मन सोच ३।२१७६६। भरत का राम के पास जाना उनकू ग्रानि बिठाऊं राज | उन भाग में साधू काज || भरत सत्र ुघ्न अस्व पलांरण | बहुत संग लीवा राजान ३२१८० गये पार बैठा तट ठां ॥ पहुंचे कालिंदी पर जाय ह्वां तंमार पूछत चले । छठे दिवस राम के मिले ।। २१८१।। उतर दूर भी करें इंडो । विनती तिनसों करें बहुत ॥ ग़वें सत्र ुघन भरत नौर। रामचंद्र बोलें तिएा दौर् ।।२१८२ ।। भरत बीन कर जोटि । तुम प्रभू हो त्रिभुवन सिरमौर । वर बोझ चलें किम बहल हमसू राज चल नहीं यल ॥२९८३३ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० पमपुराण तुम राजिन लक्ष्मण परधान । तुम प्रभु हम छत्र उठावन वान ।। पत्र घन हारेंगा चमर । तुम पर बैटि बांध कमरः ॥२१८४१॥ संकषी का प्रागमन पाई पाई कैकई माद । राम लसण उटि लागे पांय ।। रुदन कर समझा बाप्त | तुम बिन दुख पायां दिन रात ।।२१८५'। प्रजोध्या चालि राज तुम करौं । मेरी चूफ न जित मैं धरौ ।। लघु भाई सेवंगा चरण । तुम त्रिभुवन के तारण तारण ।।२१८६।। रामचंद्र बोले सुण मात । हमकुवनवास दिया है तात ।। पिता भाग्या कि.म कोने मंग । हम तपसी भेष है सुख भग ।।२१८७।। भरत सत्र न हम दीया राज जि सारी सिकार ॥ तुम सब बिदा अजोध्या किया । प्रापण उठि वन मारग लिया ।२१८८।। विद्युत मूनी प्रजोध्या बास । भरत सुनै जिन मत का पास ।। अरहनाथ के मंदिर जा६ । तिहू काल जिन पून रचाइ ।।२१८६।। धरम मार्ग का कोजे काज । प्रजा सुखी भरथ के राज ।। राम का उज्जयिनी जाना मालव देस जीणी नयर । वन उपवन को देखत सर ।। २१६०।। गाय , मैंस चरं तिहां घणी । खेती हरियल सोभा बसी । मनुष्य न दीस किणही ठौर । नगर सोमै रमणीक सु और ।।२१६१।। लक्ष्मण राम प्रचंभा करें । इहां का लोक कहां हैं दुरै ।। देखो पन्वत ऊपर जाय । सकल बात भाषो तृम प्राय ।।२१६२।। लक्ष्मण जाय परवत पाया । देख देहुरो प्रतः सूख बदया ।। नमस्कार करि तक गरि चढयो । मनुष्य एक तहां दृष्टि पडयो ।।२१६६।। ताहि देख मन सोच मांहि । ताको भेद न पाऊं जाहि ।। के इह मनुष्य मे उभी ठूठ । कैसे बिन समझ्या कई झूठ ।।२१६४।। इह कू देखू अपने नयन । तब में कहूं राम सौ बयन ।। उतर रूख को वालिंग चल्या । पंडा मांहि बह पावत मिल्य। ।।२१६५।। लषी देह कूबड़ी षेह । फाटे बसतर लागे छह ।। नंगे पांव दुषित प्रति रूप । ताहि साथ से पाए भूप ।।२१६६।। रामचंद्र सीतां ढिग मागि । बटोही में जाण्यों देव समारिण ॥ रहे यह इन्द्र अथवा धरणेन्द्र । के विद्याधर सूरज चन्द्र ।।२१६७।। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभासद एवं जनका पद्मपुराण २२१ रामचन्द्र ता करुणा करी । तू कहा वाल्यो किरण नगरी ।। सिंधोवर मिलन देस मालवो नगर उजण । करै राज सिंघोदर सैण ॥२१६८।। नसापुर नगर थकी हूँ चल्यो । मफिरमा सम्टी भलो ।। गमचंद्र पूछ फिर बात । उरण ममकिन पायो किरण भांति ।।२१६६।। पंथी भरणे राय विरतांत । दशारण बन अहेडे जात ।। इह बन छोडि किरण कारण गया। प्रीतदरसन मुनि दरसग भमा ३.२२००।। ग्रीष्म रितु पर्वत बहू तपै । ध्यानारूद तहां भगबन जपं ॥ राजा मुनि ने पूछ याइ । काया कष्ट महो किरण भाइ॥२२०१॥ मनुष जनम के लाहा लेइ । तप करि वाद जला देहि ।। आत्मा कु कही दीजे दुःख 1 पंचइंद्री का भूगतो सुख ॥२२०२।। भोजन कारण घर घर फिरो। निरस सरस प्रहार करो ।। आतम दुख करो तुम बुरा । मनुष्य जनम दुर्लभ है खरा ॥२२०३।। बोले मुनिवर भूपति सुरणौ । मैं निज सुस्व कहां लग भणु' ।। गजा हंस करि पूछ बात । तपै सिला दुख पावै गात ।।२२०४।। उड़ घूल' दुख सहै सरीर | भूख पियास परीसा पीड ।। मुनिवर भरणे सुणु भूपाल । इन्द्री विषय दुख का जाल ।।२२०५६ सात नरक भुगत हरण साज । विषय सेच्या बिगरै सहु काज ।। जे जीव विषय इन्द्री की करें । मान तजत कछु बार न धरं ॥२२०६।। कारण मोह पिप है जीव । नमैं संसार दुख की नीव ।। राजा सुणि चरण कुनया । पाग प्राक्रम सगला मिट गया ।।२२०७। जती सरावग का सुरिग धर्म । अणीवत लीया सुभकर्म 11 मुनि प नेम लेई तिरण बार । अरिहंत बिन न करू नमस्कार ।।२२०८॥ गुरु निर्गथ अरु शास्त्र जैन । इनकू सेकं कर मन चैन ।।। राजा पाये अपने गेह । दया परम सुलाया नेह ।।२२०६।। विषय बिना रहे नहीं घटी। श्री जिनवाणी हिरवं घरी॥ प्रीतिवरधन मुनि मास उपास । निषल्या धरि भोजन की मास ।।२२१०।। बजकरण द्वारा पेषण किया । मुनिवर · तब भोजन दिया ।। बरखे रतन पुष्प तिरा बार | मुनिवर जब लीयो भाहार ।।२२११।। राजा पासि रहा उहै प्राइ । नमसफार कर किए। प्राय ।। मुनिसुव्रत की प्रतिमा घडाइ । मुदडी में थे वा लगाई ॥२२१२।। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ पपुराण नमस्कार प्रतिमा कू करै। तुमारी काण न मनमें घरै ।। लोक में कछु समझत' पड़ । रंधर विन राजा सों कहै ।।२२१३।। सिंहोदर मन कोप्या राई । गते नयन क्रोघ के भाय ।। बृहद गति बन्न किरण पं. मगली बात कही समझाइ ।।२८१४:। सिहोदर कोप्या है गां । ताका जीव क' चा हण्यां ।। जे तुम भाग जाइ किरण ठाम । तब तुम बचो तजो यह गाम ।।२२१५६॥ पूछ त जारणी किरण भांति । मोसू कहि समझावो बात ।। कूदनपुर नगरी का नाम । समुद्र सिंग वणिक तिथ ठाम ||२२१६।। जमणा माम माकै धनी : दो ग प ।। विद्युत ज्वाल प्रथम सुत्त भया । वृहतगत दूजा कू थया । २२१७ मोकू पिला ठम्य बह दिया। विराज हैत उज्जेणी गया ।। कमला लता गरिएका कदेखि । मन मटक्यो ता रूप बिसेष ।।२९१८॥ प्ररथ खोयो सब बलिद्री भवा । अंति समझ चोरी चित दिया । सिहोदर मंदिर गरिएका गई । श्रीघरी गिरणी को देस्त्रत भई ।।१२१६। कुडल देखि चितवै तिए बार । अपणे 'अल धरे उतार ।। सखी सु' बोली बेस्या अस्त्री । मोक कुइल लाग बुती ।।२२२०॥ बसे कुडल है रागी कान 1 असे मोकू दीजे अनि ।। मैं सुरण नृप मंदिर में गया । सिंहोदर मू पूछे क्रिया ।।२२२१।। किण कारण तुम दुचिते घणे । चिता कवन तुम्हारे मने ॥ बज्रकिरण मन दुविधा वरं । मरी कांग नब नहीं करें ॥२२२२॥ प्रतिमा में वह कर नमस्कार 1 मान मंग बर ममा मारि।। मेरा प्रत्र खाबै वह राय । मोसू ऐसा करे दुराव ।। २२२३।। बाक मारू तो सुख लहूं। वह मतो मैं तो सू कहूं ।। ऊंचं चति देखियो नरेस । धेरणा उननं तुम्हारा देस ।।१२२४|| वधकिरण तब गढ मैं गया । कागुर कांगुरै बैठा मुरवा ।। पौलि कियाड मजबूत दिवाय । जुध निमित्त का बेटा गह ।।१२२५।। रंधरविसुत सिहोदर का दून 1 बज किरण पं प्राय पहुंत ।। कहै क तू प्रतिमा कू नवे । जती पारित सुगिा वयू निजद ।।२२२६।। जनह सुहावै ग्रेसी रीत । सब चाहे किया प्रतीत ।। तु काहे क खोब जीव । राजा प्रतै न वाबो ग्रीव ॥२२२७।। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण २२३ बोले बजकिरण भूपति । राजरिध छोड़ सब भती॥ धरम द्वार हमने तुम देहु । दंपति जाया निकाला लेहु ।।२२२८।। मैं निस्चे छोडूगा नाहि । राज भोग की ग्रंछा नाहिं ।। दून घर आया नप पासि । त्राक एन. निरंजन पामि ।।२२२६।। धाम द्वार की इच्छा ताहि । राज भोग की इच्छा नाहि ।। सिहोदर फिरिया भुपनि । सेना पड़ी सब धेरै धरती ।।२२३॥ पास पास सब दिया उजाडि । तबतं गाजे हैं मन छोडि ॥ सुरमीत मते मम प्राइया । इसकी खवर मैं अभी पाझ्या ॥२२३१॥ लागी अगनि जली पडी । बली टूट अंग परि पडी। हेम साकली रत्न सों जडी। रामचंद्र दीनी तिण घडी ॥२२३२॥ परदेशी गहुँतो निज ठाम । भया सुखी जगत में नाम ।। जहां ते चले असन निमत्त । दशांगपूर चरगाल करी थिति ।।२२३३।। चन्द्रप्रभ की पूजा करी । लक्ष्मण सुबोले तिरा घडी ।। मन माहि सु सीघा लान । दिन सेती न्यू भोजन स्लाम ।।२२३४।। लक्षमण की बनकिरण से भेंट सीतां त्रिषायती है घणी । दशांगपुर तिहां गाढ अति वणी ।। बटुंधां घेर रहै सामंत । लक्ष्मण ने जातां बरजंत ॥२२३५।। धका धूम करि भौतर गया । गढ की गौलि खडा जिम भया ।। बा किवाड अटल तिहां दगणे । सूर सुभट रखबाले घरखें ।।२२३६।। लक्ष्मण सूपूच तू कुएँ । विहां से किया तुमने गौण ।। वहेक हम पर देगी प्राय । अन्न हेत हम गढ़ में जात 1॥२२३७॥ पोले दीनी खिडकी खोलि । वनकिरण यादर सों बोलि ।। तुम किहां ते आवरण किया । लक्षमण को मादर प्रति दिया ।।२२३८।। ओले लक्षमण सुनौ मरेस । अन इछा याये तुम देस ।। पंचामृत सू थाल भराद । लक्षमण मागे धरा मंगाय ।।२२३६।। तब बोले लक्षमण कुमार । भाई भावज हे जिण द्वार ।। उन जीम्या बिन में किम खाउं । कहो तो तिस पास ले जाउं ।।२२४०।। भोजन अन्न दियो भरि थाल । लक्षमण नै बूझे भूपाल । लक्षमण ले पायो जिण धाम । जिहां बंठा श्री सीताराम ॥२२४१।। असी पाणी उत्तम वस्तु । राम कहैं लक्ष्मण ने हस्त ।। फासु जीमण प्राण्यां भला । बहुत मुगंध ता माहि भिल्या ।।२२४२।। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ पप्रपुरा करि महार मन रहसे घरणे । बज्रकिरगा की प्रस्तुति भरणे 11 धन्य यह सम्यक दृष्टि भूप । अंसा भोजन दिया अनूप ॥२२४३॥ सिंहोदर वाक् देहे दुःख । किस विष हो या सुख । हम तो खाया इसका धान | या का कारज कर प्रमान ॥२२४४।। अधमरण का सिंहोवर के पास जाना लक्षमण भेज्या सिहोदर पास । पुण्य जीव का किम करें नाम ।। वावर्त धनुष ले हाथ । तरकस बांधि खडग ले साथ ।।२२४५।। राय द्वार से उभा भया । पोलिय मटक्या जांगण न दीया ।। कहै किमाई हूं भरत का दूत । कही सिहोदर स्यों इह सूत ।।२२४६।। राजा ने तब लिया बोलाइ । भरथ संदेसा कह्मा समझाइ ।। वालोचन कहा किरी बिगाड़ । ते उसका दिया देस उजाड ।।२२४॥ यह तो सेव श्री मिनराव । तं वाक् भयवंता आज ।। वा को वेगि छोडि तू देई । इह अपलोक मती तू लेह ।।२२४०।। बोले राजा सुरिण हो दूत | अंसा कहा भतं रजदून ।। पापणं देस मनावो प्राण । ता पाई हूं राखस्यौं कारण १२२४६।। बजलोचन वाव मुझ धान । बहुरि भंग कर मम मान ।। बाकू भला लगाऊं हाथ । अंसी करे न काहू साथ ॥ २२५०1 जो याकू मैं अब छोडि । तो बिगड़ें और इ या होड ।। बोले लश्नमा सुणू नरेस । या त छोडि मानि उपदेस । २२५११ गजा कहे सुगा रे तू भूतु । दा मंग तु का हुवं प्रारूह ।। जसा हुबै उसका सूल । असा तंग हहै मन ।।२२५२५। सक्षमण और सिहोदर के मध्य झगडा लक्षमण कह पाया तुझ मरसा । मान नहीं भरथ की मरण ।। कोप्यो भूप आदि सब सभा । क्रोध सकल ही के मन षुधा ।।२२५३॥ कई गदा गही तरकार । समला प्रावध लिये संभार । लक्षमण कहै ढील क्यों करी । तृम में बल है तो वेगा लहो ।॥२:५४।। ध्याय परे सब ही सामंत । लक्षमण कर प्राण का अंत ।। जाहि गहै ता पटक मूमि । मारै मुठी लात घुस ।।२२५५।। मारि थपेड करै संहार । सगली सेन्या दीनी मार ।। राजा देखि प्रचंभा करै । एक पुरुष भंसा बन धरै ।।२२५६। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंच एवं उनका पद्मपुराण २२५ राजा घाइपया तिस बार । बोल सब्द मार ही मार ॥ कोई निझट प्राई नहीं सके । जा पकड़े ता मारै बकं ॥२२५७।। तोडया रथ प्रावन मासांहा : ८.र! हे रसा : इल तो कोई हितू हमार । सब दुर्जन कीने महार ॥२२५८।। सिहोदर के धाए सुभट्ट | गदा खडग से किया संघट्ट ।। गोला सर वर्षे ज्यौं मेह । निर्वत के लगे न देह ।।२२५६ ।। बज्रावर्त्त लक्षमण संभार | सगला दिया मारि कर छार ।। मारे खडग विजली मी प्रात्त । दारुण जुध भया बहु मालि ।।२२६७ ।। देम्बे लोग अचंभ होइ । इन्द्र कहे धरणेन्द्र है कोई ॥ या विद्याधर के इस देव । सिहोदर सोचं मन एव ।।२२६१।। सिंहोवर को लक्ष्मण द्वारा बापना लक्ष्मण तब दुपट्टारोह । सिहोदर में बांच्या दोध ।। मार लात धमुके घणे । रांपयां उसकी विनती भणे ।।२२६२।। मोहि भीख दीजिये भरतार । तू दुजा मेरै करतार । लक्ष्मण कहैं रघु पासि ले जानु । जे वे करें दया का भाव ।।२२६३।। नो मैं छोड़ पा को न्याइ । ल्याये रामचन्द्र की ठां ॥ चंद्रप्रभु की पूजा करी । रामतरपी प्रस्तुति चित घरी ॥२२६४॥ वनकरण सेती रघु कहैं । मागि वेग जो इच्छा बह ।।। बजकरण फहै मांग रह 1 सिहोदर ने छोद्धि तू देह ॥ २२६५।। राज्य का बटवारा धन्य घन्म भासन लोग । अभयदान का दीया जोग ।। सिंहोदर कु दसांगपुर दिया । उजेपी का राज वनकरण किया ||२२६६ ।। बहुत राय दरसन कू माय । तीनस कन्या भेट क्यों ल्याइ ।। रामचंद्र लक्षमण कहैं बात । हम परदेसी फिरें भ्रमात ।।२२६७।। वन में फिर तहां घर नाहि । कैसे इनस्यों करें विवाह ।। वारह बरस फिरी बहु देस । ता पाछै समझिये नरेस ।।२२६८।। राजा सकल चीनती करें । अब ए कन्या किरण ने रे ।। तुमको प्राणी ए घरि भाव । कसे दीजे और छांव ॥२२६६ ।। कान्या सकल रही मुरझाय । जैसे फूलमाल कुम्हलाह ।। रामचन्द्र जिरण थानक गए । प्राधी रात विदेसी भए ॥२२७७।। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ पद्मपुराण मनमें कल नहीं अहमेव । सुमरत चले जिनेसुर देव ।। २२७१।। जिनवाणी निाचे धरें, दया करै षटकाय ।। दुरजन मकल बरणां नमैं, श्री जिन परम सहाय ।।२२७२।। पर उपगारी राम हरि, परदुख मंजन हार ॥ पर कारज सारा निमित्त, प्रगटघो जस संसार ।।२२७३।। इति श्री पपपुराणे वनकरण सिहोदर विधानक २६ वा विधानक चौपई लक्षमण और विद्याधर मिलन रामचंद्र सौता तिसाया भया । नीर लेण कु लक्षमण गया ।। तहां सरोवर निरमल नीर । छाया रागम विहंगम तीर ।।२२७४।। नेत्र तसकर विधाघर भूप । विजयाई पति मणी अनुप ।। क्रीडा देखन पायो तिहाँ । वन लीला सव निरस्त्री जिहां 11२२७५।। देख्यो लक्ष्मण पेले पार । रूप कांति कर दिपै अपार ॥ बहुत लोक भेजे ता पास । मन में उपज्या अधिक हुलास ।।२२७६॥ सेवग प्राई कर नमस्कार । करै वीनती बारंबार ।। चलो प्रभु बुलाधै तुम य । तुम दरसन देख्या को चाव ।।२२७७॥ लक्षमण विद्याधर हिंग गयो । नेत्रतसकर प्रति मादर दियो । लक्षमण उठि बीनती करें। वैसाच्या सिंघासण परै ।।२२७८॥ पुछ माए तुम किण काज । कवण वस्तु बांछो तुम प्राज ।। लक्ष्मण वोले सुणों नरेस । प्राहार निमित्त पाए इण देस ।।२२७६।। रामचंद्र सीता जिण थान । मैं पहुंच्या पाणी कुत्रांन । नेत्रतसकर बोलिया तिह बार । सलोदन तेडिया रसोईदार ।।२२८०।। व्यजन भले संवारे भोग । हीरे पीले बहुत पयोग ।। अतर पकवान संवारे धरणे । उसम घी मीठा में बरणे ।।२२८१।। गम बुलाये तिहां नारद । सीता सहित अधिक पानंद ॥ नेत्र तसकर चरान नथा। बहुत प्रकार महोत्सव किया ।।२२८२।। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ मुनि सभाचंद एवं जनका पद्मपुराण सिंघाएगा ऊचे बैठाय । कर ग्रारती से पाय ।। रतन जडित सोने के चौक । कर उबटण मूले सोक ||२२८३।। करि सनान फिर भोजन खाइ । बिदा होइ मागे जाऊ ।। वन में देखी सुभट मेटली + मारग को रोकी जिहां गली ।।२२५४॥ ग घसि करि तिर भागे गमे । कंचुकी देवि अचं मै भए ।। देखी काम्या बहुत स्वरूप । वा ममान कोई नहीं चुप ।।२२८५।। सामुद्रिक की सोभावणी । अन्य कहां लग बरम्, गुणी ॥ लक्ष्मण द्वारा प्रान लक्ष्मण निस न पूछे बास । बालषित्य नृप मेरो तात ।।२२८६।। पृथ्वीदेवी कुखि हूं भई । कुबड नन महा सुख मई ॥ घरम राज मैं बीते घडी । दुरजन दुष्ट सेती थरहरी ॥२२८७।। राजा मलेच्छ है रुद्र भूत । चहि आए सेना संयुक्त ।। पिता मेरे से किया शुष । वांधि ले गया करि बल बुध ।।२२८८।। पृथ्वी देवी कारण कंत । निसदिन रुदन कर बहुमंत ।। वसुधा मंत्री निमती बुझिया । कहि हौंबहार सूजिया ।।२२८६।। राणी जब बालक ने जणं । सो तो सब दुर्जन कू हणं ।। महरि गज नगरी को करें । दुरजन तिस के पानां पड़ ।।२२६ कल्याण माला हूं पुत्री जशी 1 निमित्त प्रानी में भैसी भरगी ।। कन्या एक पुरुष के भेस । वनमें रहे नित्य दिसष ॥२२६१।। दोई पुरुम को दरसरण लहै । ताहि देख दुख कोई न रहे। सिहोदर नृप को मैं दई । या कारण मैं वन में रही ।।२२१२।। मेन्यां मो पड़ी । बिह पास । कुचुकी निकट मोहि इह पास ।। मैं तुम दरसन पायो प्राज । हवा मनवांछित मम काज ।।२२६३|| एक अचंभा मो मन घणा । जो मैं पुत्र होता गुराण गणा ।। तो नगरी बा होता माज । पुत्री कैसे पावै राज ॥२२९४।। रामचन्द्र इह भाम्या दई । यही भेष रहो तुम थई ।। तीन दिवस रहिगो वन माहि । प्राधीरात छोडि तिहां जाइ ॥२२६५।। कल्या जागि कई बिललाइ । में सोय गई वे उठ गये प्राय ।। मेकन्ला नंदी उत्तर वन गए । करकारण वन देखन भए ।।२२६६।। वाम वृक्ष वेर के काग । देख्यण पेड नारियल लाग ।। सीता तबै विचारघा सौंन । हसी जुध दो घडी में पौन ॥२२६७।। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० पद्मपुराण अत जीत काग। भलो । रामजत चाटती ।। असुभ सौरग की छोडि बचाइ । वन ही वन निकसे रघुराइ ।।२२६८।। हनभूत राजा से युद्ध रुद्रभूत राजा ति ठांम | सेना घणी क्रोध के काम ।। रामचन्द्र से मांडमा जुध । हारी सेन्यां भई असुष ॥२२६६11 रुद्रभूत पग त्याग्या प्राइ । रामचन्द्र का दरसरण पाइ ।। रामचन्द्र पूई घिरतांत । उन भाषी पिछली सब बात ।।२३००।। कौसंबी नगरी का नाम । अहित अगन विप्र तिण ठाम || प्रतिसरजा ताकं नारि | रुद्रमत पुत्र मई अवतार ||२३०१।। सात दिसण का सेवणहार । तसकराइ करत घेरपा कोटवाल । विस्वानल राय पास ले गया। नृप तब उस पर कोपिया ।। २३०२।। कहक इस सूली देइ । किंकर उस गह्या बहुत दुख देई॥ सेठ एक नृप प्राग जाइ । विप्र जाणि के दिया छुडाइ ।।२३० ३।। उहाँ त में प्राइया इह देस । काकोनद मलेछ पं भया नरेस ।। बालषिल्प को मुक्त करना रामचद्र इम आग्या दई । बालपित्य नै छाडो सही ॥२६५४।। मलेच्छराय ने दीया छोड । सेवा करी दोय कर जोड । सभा सहित कुबडपुर माइ । करी वधाइ बालषिल राइ ।।२३.५॥ सिहोदर बच्चकिरण भी मिले । इंद्रदत्त बिदा कर चले ।। इनका दुख कीया सब दूर । बालषिल सुख लह्या भरपूर ।।२३०६।। दहा रामचंद्र प्रति ही बली, लक्ष्मण भी बलवंत ॥ परफाज के कारण, करें उपाध अनन्त ।।२३०७।। इति श्री पापुराणे बालषिल्य विमोचन विधानक ३० बां विधानक अडिल्ल बन आमरण रामचन्द्र लक्ष्मरण कुमार साथै सिया । प्राधीरातनि पंड गमण तहां तें किया ।। बिदस धन सुप्रसन्न नदी परवाहनी।। तरवर अशोक सधन वन शोभा बनी ।।२३०८।। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पयपुराण २२९ चौपई सौता की प्यास बुझाना पंषीयातणी सुहा बोल । छाया सीतल बेल तंबोल ॥ उत्तरमस्तोही बन गए । महाभयानक देखत भए ।।२३०६।। सीताने लागी तिस घणी । पर्ड चूप बहुत अणमणी । कदिनकट न देखीए नीर । लागी त्रिषा अर्मत अधीर ॥२३१०॥ अंचे चदि देख्यो कोई ठाम । उहाँ ते देख्यो अरन इक गांम ।। कपिल विप्र बस तिस ठोर 1 अगनिहोत्री अरु ठाढी पोल 11२३११॥ यहां ते गए ब्राह्मण धर एह । करुणावंत परम की देह ।। देख प्रदेसी दया ऊपजी । सीतस नीर झारी भरि लई ।।२३१२।। पाणी पीय लिया विश्राम । कपिल ब्राह्मण पायो ताम ।। वी' पोट कांक्षा परि लियां । लकडी का बोझा सिर किया ।।२३१३॥ अंगोछा मस्तक परि लपेट । मैली षोती बाधी देह ॥ बांध जनेऊ तिलक ललाट । जाणं होम क्रिया इह बाद ॥२३१४॥ विप्र द्वारा कोष करना देह कूबड़ी चपटी नाक । अति कुरूप रही तसु प्रांस ।। देखि विदेसी घर के पास 1 क्रोध वचन मुख बोल्या तास ॥२३१५॥ मीट चकार मुस्वस्यो बोल वरहाई । कुवचन कहीं त्रिया ने जाई ।। देसी क्यू बैटमा दीये । लाज नहीं कछु इनके हिये ॥२३१६ । पोन पोल फडता फिरई पई। असे इनको जक नहीं पाई ।। ए उठि चलेइ देख सब लोग । बहुन भीड़ दरसन के जोग ।।२३१७।। कपिल विप्र लोगां सौं कहै । ए निलज्ज ऐसे ही रहूँ । कहा इनका दरसन तुम करी । मूढ लोग तब बोलें बुरो ॥२३१८।। लक्षमण कोपि कपिल द्विज गह्या । फिर फिराय पटकन कू चहा ।। रामचंद चित करुणा पाइ । कपिल विप्र कू दिया छुडाइ ॥२३१९।। दया के पात्र हरि ने समझा रघुनाथ । इस पर कहा उठावो हाथ ।। जती संन्यासी विप्न अतीय । बाल वृद्ध नारी पसु जीन ॥२३२०॥ पसु अपाहज मत मारो भूल । इनकी हत्या है अघ मूल ।। प्रापते सबल ता ऊपर चोट | परजा जीव दया की प्रोट ।।२३२१।। लक्षमण दया चित्त में परी। धन्य साध जे रहैं वन पुरी ।। पापी किरपण जे अग्यांन । उनको कलो न पाणु थान ।।२६२२॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० पपपुराण बस्ती में दिन माग अब हम धलि बनधासा लेइ । बसती में फिर पांव र देश ।। वनफल बीण करें प्राहार । किस किस की सुगिा माई राष्टि ।।२३२३ ! । बसती तजि आये वनवास । अंधकार निभवासर साम ।। वरखा रितु धगाहर चहुं ओर । काली वट सोम चिहुं पोर ।।२३२४।। रवि की किरण छाइ धग लई । सब पृथ्वी अंधियारी भई ।। वरखे मेह मूसलाधार । चमकं दामिन घारू बार ॥२३२५।। लक्षमण राम दुचिते घो। छाया बिणा रहबो किम वर ।। दृष्टि पसार देखि बिपास । मंदिर देखे चित्त उल्हारा ।। २३.६।। राम लक्षनरण का मान्दर में विधाम करना मंदिर में बैठा तब जाई । कपड़े निचोड करि दिये सुखाइ ।। भई रयम पोट्टे तिण ठाम । इतरकरण देव का नाम ।।२३२ 311 इल् देखि ततक्षमा भजि गया । विनाषक प्रत संदेसा दियां ।। दोड विदेसी अस्त्री एक । मेरे थान रह्या कर टेक ।।२३२८।। देव द्वारा मायामयी नगरी को रचना देवता बोल्यो अघि विचार । बलिभद्र नारायण अवतार ॥ ए पाये हैं मेरे देस । सेव कर सेवग भेस ।।२३२६।। नगर संवारया मिदर भला । रल बधित सवर्ण निरमा ।। वाही जागई सेज्या संवार । गिलम चंद्रवा वांदरबाल ||2|| देव पुनीत ग्रामषा प्रगी । पागणी अन्न गोंज मन यो ।। हाथी घोडा रथ पालकी । बसती बनी नई गम की ।।२१। लक्षमण राम उठे परभात । सीता जागी बीती रात || गंधर्व जात के मार्य देव । बहुत प्रकार करी सुर सेव ।।२३३।। राम लक्षमण तब करें विचार । या वन मैं तो थी हजार किस प्रकार ए भई विभूति । नय यह वनसुर याय पहंत ।।२३६३।। करि ईहोत बीनती करें । वप्लो राज हम मेवा करें। बठि झरोसे भुगतो सुख । नगर देख मूले सव दुग्ध ॥२३३४।। कपिल ब्रामण को चिता कपिल बि सिर लकड़ी भार । बन तें काठि आए तिण दार ।। निषा माहि देख है नगरी । कंचन मंदिर रतन सू जहो ।१२३३५।। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंच एवं उनका पञ्चपुराण तब द्विज मनमें अचरज घर । इहां तो थे वन बेहड घने ।। किण प्रकार इहां हुवा नगर । राति बी वाले वणीयो सगल ।।२३३६।। के छह सपने है परतक्ष । के ममता माया है को जक्ष || ऐसे सोच कर था वटा । मिन परिणहारी भरि सिर घना ।।२३३७॥ पूछ ताहि इ नगरी कोरण 1 काहै, परिणहारी रामपुर भौन ।। पु न नगी हह माया करी ।।२३३८।। पौलीदार रनवाले घर । पापी दुष्ट नै परहा कर ।। धरमी हुये सो दरसा लहै 1 देखी माणस दूर रहैं ॥२३३६।। पूछ विप्र में किरण विघ बाऊं । पणिहारी कहै से श्री जिरण नामु ।। मुरिण पै सुण्या धरम का भेद । ताते हुमा पाप का विछेद ।।२३४०11 धर्मोपदेश सुनना चरित्र सर मनि पास जाइ। नमसकार करि लाग्या पाई ॥ सुरिण जिणधरम अणुवत लिया । धर्म लेस्या माहि चित दिया 1।२३४१।। राम लखश का दरसण पाद । कपिल विप्र ने लिया बुलाइ ।। बहुत विभव विन कुदई । मंनमें कछुवन पाणी नहीं ॥२३४२।। दहा जैन घरम पाल सदा, दया कर बहु भाय ।। नवनिधि पाव जगत में, बहुरि मुक्ति में जाय ।।२:४३|| इति श्री पगपुराणे कपिल जैनधर्म व्याख्यान श्रवण विधानक २१ वां विधानक चौपाई चातुर्मास के पश्चात् गमन सुख में इहां बीतो चउमास । बहरि फिर निकले बनवास ।। विनायक पति जोड़े हाथ । नमस्कार करि नमायो मांथ ॥२३४४|| जै सेवा मुझ से भई हीन । षिमा कीज्यो विनाधीन ।। बिन उपदेश कियो इह काज । क्रिया करो सेवन परि प्राज ॥२३४५।। रामचंद्र लक्ष्मण का ईन । तेरा नगर में पायो चैन ॥ तं बहु कीनी सेया भगति । तेरा सुजस भया सब जगति ॥२२४६।। हम तुमबु सकुचाया भाय । तुम जस महिमा कहिय न जाय ॥ इनका मोह देव बहु किया। मोती हार मान कर दिया ।।२३४७।। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ एयपुरास कुंडल दिया सिया कू प्राण । ताकी जोति रवि किरण समान ।। नगर छोर वन मारग गया। नग बसे थे ते घर रहा ॥२३४८।। माया रूपी खिरी विभूत । लोग उदास भए तव बहुत ।। विजय वन में गमन वन ही वन पारग कू चले । विजय हरि के वन में नीकले ।।२३४६ ।। पृथ्वीधर थे तहां भूपति । इंद्राणी राणी उचल मती ।। वनमाला जाकं पुसी । सप लक्षगा गुरण सोम खरी ॥२३५० । कन्या भई विवाहण जोग । निमित्तग्यांनी इम कमा नियोग ।। लक्ष्मण की पटराणी होइ । दसरथ दिक्षा लई या सोइ । २:५१॥ लक्ष्मण राम गये वनवास । भरत सधन करें विलास ।। लक्ष्मण कू अव पार्थ काही । कन्या व्याह दीजिये जिहां ।।२३५२।। सकल कूटन रहसि मन करें । कन्या बह सुख मन में धरै ।। राजा सुची प्रजोध्या बात । दसरथ दिक्षा लई इण भांति ।।२३५३३। बनमाला का लक्ष्मण पर प्रासक्त होना वनमाला कहै लक्षमण बिन और । मेरे पिता भ्रात को और ।। लक्षमण कूसुमर दिन रात । इण भव मेरे अन्य न बात !1२३५।। सांझ पडयां देवी की जात । वनमाला पाज्ञा लहितात ।। कहै कहूं फांसी ले मरूं । कंत बिना कैसे दिन भरू' ।।२३५५।। छांछि ऊतरणा तरु सू बांघि । गल में मेल्यो थाहै फाधि ।। लक्ष्मण ने भाई सुभ गंध । देखा गया ते सन बंध ।।२३३६॥ याहि देखि तरु हे छिप्या । वनमाला लक्षमण गुण जप्या : वनदेवी विनती कर । जे लक्षमण मोकू अव वरं ।।२३५७॥ तेरा मंढ चुणाउं देव । पूजा करू ब्रहत विध सेव ।। गल में चाहे फांसी लिया । इस भव मेरै लक्ष्मण हिया ।।२३५८ ।। अगले जनम होई जियो मेल । अमें करें वह कन्या खेल ।। लक्ष्मण का प्रकट होना तब प्रगटमा लक्षमणां कुमार । तू अपघात करं किम नागि ।।२३५६॥ मैं हूँ नक्षमन तु रख मन ठाव । न पताजं तो ग्घ द्विग प्राव ।। इतनी सुरिण कढणी लइ खोलि । ऊझल केरिक छोले बोल ||२०६० Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचन्य एवं उनका पद्मपुराण राम का लक्षमण के लिये में पूछताछ रामचंद्र जाग्यो अधरात । निहां न देख्या लक्षमण कुमार ।। सीता पूछो कित गया । तर समय इम बोली सिया ||२३६१ ।। पुकारो तुम वेंगा दोडि रामचंद्र करें सोरा सोरि || रामचंद्र पूछें हंसि बात | कैसे समझे तुम विरतांत ||२३६२|| श्रासीवाद तू ऊनै दिया । सांची बात कहो तुम सिया ।। सोता द्वारा उत्तर सीता कई पर निस गई। चंद्रप्रकास उजेली भई ।। २३६३ ।। वाही घडी लक्ष्मण वनमाला | दोऊं आये रूप रसाला ।। जैसे रथरण चन्द्र को प्रीत । भैसे सदा श्रानन्द की रीत ।। २३६४।। रामचन्द्र किन लक्ष्मण देठि । वनमाला सीता के हेठ || चारू वारता कथा कहै । सब सुख सुहावरणां लहैं ।। २३६५ ।। सीतल चाले पवन सुवास । वनमाला पुंगी श्रास || म की तलागा दासी जागी देवी थान । कन्यां नं रोवें हैरान || २३६६ ।। सूर सुभट बहु चौकीदार तुरी पलाणां गहि हथियार || केई पाला केई सुवार । निकसे सब कन्या की लार ।।२३६७।। यनमाला देखी इस ठोर । सब सन्या का हुवा सोर ॥1 देख्या रूप राम लक्षणां । चंद्रसूरज का जोडा बन्यो ।।२३६८ ।। के इह इन्द्र स्वर्ग त भाइ । किसकी पटंतर न दीया जाय || करि प्रणाम बिन बहु भांति । तुम हो कवरण कहां तुम जात ।। २३६१ ॥ २३३ रामचंद्र यह लक्षमण वीर । सोहैं दोम्यु कनक सरीर ॥ कही प्रभू सब बात पांछली । सगलां के उपजी मन रली ||२३७०|| जै जै सबद करें सब लोग । सगला का भाज्या मन सोग || राजा परसि खबर तब दई । संगी सुनि आनंदित भई २३७१ ॥ छाया नगर हाट बाजार | धरलें उमही वर नार ।। रामत सो प्रति रूप। मूपति दीनी भेट अनूप ॥ २३७२ ।। करि महो व याज्या बजवाय । रहस रली सू' हुवा उछाह | बैठ सिंहासन रामचंद्र । सफल प्रजा मन भयो प्रानन्द ।। २३७३ ।। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ।। २३७४ ।। लक्षमण पृथ्वीधर नृप पास करें बधाई मन उल्लास || महासुख में थयो विहांण । और बजे आनंद नीमां अनंत || रव भव के पुत्र तें पायो सुखं वनमाला रहगी घणी देख्या लक्षमण कंत १२३.७५ ।। इति श्री पद्मपुराणे लक्षमण पटरानी लाभ विधानक · ३२ वां विधानक चौपर्ड प्रतीषीर्य राजा द्वारा प्रयोध्या पर श्राश्रमण श्री नंदनगर प्रतिवीरज राव वायगत दूत प्रभीषर करें आय 1 दिया पत्र राजा के हाथ । विमुष प्रधान पढी सहु वात ।। २३७६३ विजय साल वत्रचर भूप । वेगरथ सिंहरथ जम के रूप || श्रासह मंगल त छोर । हम गय रथ पासक नहीं थोर ।।२३७७॥ मिलेछ षंड का राजा बना। श्रार ॥ ये सब प्राय एको भए और बहुत आवेगा नए ॥२३७८ ॥ चिठी देख चलें नमकल । प्रजोध्या मारि चहे भूपाल || भरत सत्रुधन करें ऊपर दौड़ । दस क्षोहरणी दल हुवा इकठोर ||२३७६॥ रामचंद्र त दूत ने कहैं । श्रतिवीर्य क्यों उपद्रव च ॥ कहा भरत तुम किया बिगार | हमसे कहो बात निरधार ||२३८० ॥ लड़ाई के कारण बोले दून भरत के बैन प्रतिवीर्य बेटा सुख चैन 11 सहज विचार कियो मनमांहि । भरत भेट मुझ भेजे नाहि ||२३८१ ॥ सब राजा मानें है आरण भरत सत्रुघन करें न कारण ॥ गुरु द्वारा सन्देश पद्मपुराण सुरत बुध्य तिहां भेज्या दूत । श्रजोध्या मांहि जाय पहुंत ||२३८२|| भरत सत्रुघन ने कहो जाय । प्रतिवीर्य सेवा करो आय || देश लोड के जाब | भला चाहो तो मो संग ग्राम ।।२३६३ ।। कं 'तुम शत्रुघ्न का उत्तर 1 जैसे पड़धा अगन में तेल सोबत सिंघ जगाया हेल || कोपि सत्रुघ्न बोलं वाक्य । वाकी सेवा हम जो करें। सा कहा अपर जल घरं ॥ उन तो तो सिंघ जगायो । वह जीवत छूटे किए पायो । २२८५।। प्रतिवीयं लंगो कहा बराक || २१८४॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण २३५ प्रब वह बचें हमत किरण भात । देखज ताहि लगा हाय ।। दूत का पुनः निवेदन बोल दुत कोप करि धणां । तुमतो हो बालक बुध्य विनां ॥२३८६।। अतिधीरज है इन्द्र समान । रावल भूप मा तसु मांए। ।। पिता तणं भोले मति भूल ! किसके भोले करत हो फूल ।।२३८७।। बात कहे तां काहा तुम वित्त । बहुत गर्भ कहा करते हो चित्त ।। उत्तर प्रत्युत्तर सत्रुधन कहै अरे सुग दूत । वाकी करत है साह बहुत ।।२३८८।। जैसे गज रूई का फल । तिरगा एक कर कस खेह ॥ जसै घरमात वैसाख । लोर्ट भूकं त्यावं तन राख । २३८६॥ हस्ती की सरभर कहा करै । वह मूरखि जो हम से लड़े ।। वाकु कहि तू वेग संभारि । मारू मीड मिलाऊंछार ।। २३६॥ दूत दिया धक्का दे काहि । दूत बल्या दत्ता मन बाम ।। युद्ध को तयारी मग पास परकास्यो भेद । अतिवीर्य सुरिण कीयो मन खेद ||२३६१ देश विदेश के मानि जोडि । जनक कनक राजा हैं और ।। वनकरण सिहोदर राय । प्रजोध्या ते वाले हरि प्राइ ।।२३६२।। अब वे तुम परि ढोवा करै । तुमतो घर में निण्चल पडे ॥ भतिवीरज कोप्पा तिण दार । बहुत भूपति ने लिए हकार ॥२३६३।। प्रतिवीरज सूजनक तणों सनबंध । सबही प्रारण जुडे बलवंध ।। राम लक्ष्मण कोप्या केहरी । दसौं दिसा कापी भय धरी ।।२६६४ । प्रतीवीर्य गर्भ मनमांहि । तब लगि नहीं देख हरि छांह ।। सनं भरत सी वांध्या बर । अब वे हमकू मार घेर ॥२३६५॥ पृधीषर का निवेदन पृथ्वीधर बिन कर जोडि । तुम दोई वार कर हो झोड ।। बार्फ दस जुडिया अधिकाय । कसं जुष करोगे जाय ।।२३६६।। हम कू माग्या द्यो तुम प्राजि । अब ही करें तुमारा काज || बोल रामचन्द्र तब बली । पराये बल पूर्ज नहीं रली ॥२३६७।। पापणा बल तो मावै काम । पराया भरोसा करें न राम ।। रथपरि बैठि रामलक्ष्मणां । सीता डिग सुख मान धरणां ।।२३६८।। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ पद्मपुराण प्रथ्वीधर के प्राठों पुत । नंदनगर में जाय पहुंत ।। सीता कहे मुण हो रघुनाथ । किम वरण जुध अतिवीरज साथ ।।२३६६ ।। वहेनर्ष दलबल प्रतियणा । प्रतिवीरज किम जावं हा ॥ बा का तो है अतिवीर नाम । बहुत राय याये उस लोम ||२४३०॥ जैसा नाम तैसा पराकरम । अतिवीरज के मन पाया घाम 11 भरत शत्रुध्न को आमंत्रण भरत सत्रुधन लीया बुलाय । प्रपणे हेतु करो इकठाय ।।२४७१।। तब ईणसी माडो जुष । अपन हिरदै बिचारो बुध ।। राम लखन मन हंसि कर इम कहे । अनंत वीरज नाम वह लहै ।।२४०२।। से निरबल ते कहे अतिवीरज माहरे प्राग हैं अनवीरज ।। हम हैं प्रति ही गंडवा । वाका भय तुम क्या क्या हुवा ॥२४०३|| भरत सत्रुधन कुल प्रताप । या परि वह घाय हैं पाप ।। जे हम मान साकी संक । कैसे चीतेंगे गह टांव ।।२४०४:: जो बल नहीं पापणी भुजा । कहा प्राणि करि है नर दुजा ।। भरत की सेना भरत के मैंगल सात स झोर । चौंसठ सहस्त्र अश्व हैं और ॥२४०५।। बाकं दस क्षोहरपी दल जुडमा । इस सेती जावं क्रिम लड्या ।। जे हमपं जीत्या नहीं जाइ । भरत सत्रुघन करि है कहा प्राय ।।२४०६॥ जो हम यह सरगते नांहि । भरत दूत मारया था जाहि ।। अतिवीरज सेती जो होती राड । इह उनको हाता तिए बार ।।२४०७॥ रघुवंसीगा न ती लाज । अजोध्या तणे बुझता राज ।। हम रावल की जाएगी नहीं सार । वाकी डार प्रव ही मार ||२४०८।। मोरा ने काहे कू हलू । मारे चाहो सो फरु मतो ।। जब लग दिवस माथय नाहि । प्रबही चालि मारिये जाय ।।२४०६। मतो विचारत ह गई रात । तब ही समझेगे परभात ।। जिन मंदिर में बासा लिया । जिन प्रतिमा का दरसरण किया ॥२४१०॥ वृति परम मुनि कू नमस्कार । पूजा रचना वारंवार ।। गरिसका का स्प गरिणका मसाई संजूत । करि माई नृत्य बहुत ।।२४११।। बहरि गई नृप के दरवार । देखण चले लोक हजार ।। सकस कला पात्र गुगवंत । नुपके मार्ग गावे बहुत २४१२।। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभासंच एवं उनका पमपुराण बाज बीण मृदंग पर ताल । मृगलोचनी सोहै सुविसाल । दंत नासिका वणे कपोल । मधुर वचन कोकिला बोल ॥२४१३।। सुधर कलाई सोभै हाथ । बेरणी बरणी मुयंगम नाथ ॥ कूच अति कठिन उदर विचली। स्याम केस की सोभा भली ॥२४१४|| कदनी जंघ चरण अति भले । गज मति चाल हंस की चल । वा रहे सोलह शृंगार । आई पात्र राज के दुवार ।।२४१५।। ठाम काम प्राभूषण वणे । अति वीरज राजा तव सुणे ।। सभा जोडि बंठो नरपति । गाउँ गुण कोकिला अति ।।२४१६॥ नृत्य के भाव नाचे पात्र दिखावै भाव । थेई घेई करतां देखें रान ।। कबहु लटि शूट पर पुल । मानौं भौं नाग का चल ।।२४१७॥ ज्यौं घटा मांहि दायित । सरल सरीर नदीजोन ॥ कबहु उछल तो तांन । मार बैंचि नैन सर बारण ।।२४१८।। सभा मोहि ताकरि पायो दांन । वस्त्र कनक लीधा मासमांन । नए गीत गावं अपछरा । देखण कू सुरपति मन टल्या ॥२४१६।। भरत शत्रु जस गुण गाये । प्रतिवीरज को समझाये ।। तेरा मंत्री बुधि हीण । ताकी मति दीनी है षीण ।।२४२०।। भरत शत्रुघन रजपूत । महाबली च्यार अवधूत ।। जे तुम चाहो अपना त्राण । भरत भूप की मानू प्राण ॥२४२१ । वह सूरज सम तुम हो चंद । रवि अग्रे कला प्रमंद ।। पैसी सुणि कोप्या मन राम । उठी सगली सभा रिसाइ ।।२४२२।। राजा कादि खडग लियो हाथ । गरिएका परि तक मारयो मांथ ।। टूटी तरवार बची भपछरा । प्रपणे मन का भय नहीं करचा ॥२४२३॥ पासरी का उसर पातर बोली सुरिण हो नरिद । भरत ध्यान ते मो भया प्रानंद । कटयो नहीं मेरो इकबाल । तेरा खरग टूटा मिटे जंजास ॥२४२४।। जवें भरथ भावंगा भाप । होइ सहार भरत गुरण जाय । सुरिम सब लोग अचं भया । सबै विचार उपाया नया ॥२४२५।। मंत्री तब समझाये बैन । देहि सीख राजा नैं मंन । भरत सुमरण ते पातर बची । मपणे मन तुम समझो सची ॥२४२६॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ पपुराण भरत ने वालि करो नमस्कार । तो तुम जीव का होइ उबार ।। राजा कहे कहां है भरत । ताकी हम आज्ञा सिर धरत । २४२७।। राय कह गरिएका सुरिण बात । जे तुम चालो मुझ संघात ।। तिहाँ पाप बैठा श्री राम । लछमण सीता सों जिण घाम ।।२४२८ ।। राजा श्री जिन मंदिर जाम । अष्ट द्रव्य पूज रचाय ।। सौता के या भाव होना घरम मुनि को करि डंडोत । रामचंद्र पग नम्या बहुत ।।२४२६॥ सीता के मन उपजी दया । लक्षमण स्यों कही कीजिार मया ।। प्रतिवों को प्रभयदान रामचंद्र लक्षमण कृपावंत । अतिवीरज सों बोले दगण मन ।। २४३०॥1 करौ राज तुम निर जाइ । अयोध्यापति की आज्ञा पाः ।। बहुरि न करों भरत सु बैर । अवर देस दीनां तुझ फेर ।।२४६१।। बोले प्रतिबीरज भूपाल । राज करत जे व्यापा काल ।। मरि करि जीव नरक में पड़े । ऐमे दुःख नीची गति भर ।।२४३२।। छह पंड तणी पाच राज । माया मध त्रिसमा दिरण काज ।। अब मैं लह्यो धरम को मार्ग । अन्द तक रह्यो माया में लागि ॥२४३३।। प्रतिषीयं द्वारा वैराग्य सेना तुम प्रसाद अब भयो सचेत । अब हू फळं धरम सू हेत ॥ केसरवत्र सुत में दे राज । प्रापन कियो दिगंबर साज ।। २४३४।। तीन रतन तेरह विष धरम । दशलक्षण व पाल छह कर्म ।। अवधिज्ञान मुनिवर कू भया । जीव जंतु की पाले दया ।।२४३५।। नासा हष्टि प्रातमाध्यांन । घरम कथा का कर बखांण ।। सहै परीस्या वीस प्ररु दोई । देह मात्र परिग्रह होइ ॥२४३६।। द्वादस भ्रष्या मुलाइ चित्त । दया भाव सगलां सी नित्त ।। जैसे पिता पुत्र सों नेह । षट् काया सों पाल नेह ॥२४३७।। दश लष्यण गुण चक संभार | भाव सोलह भावन सार॥ भारत रौद्रम्यान करि दूर । घरम सकल राख भरिपूर ॥२४३८।। भरत सधम सुर्ण इह बात । उस ५ दिव्या पालं किस भांति ।। प्रतिवीर्य मांहि अति क्रोध । उन पाया किसका प्रतिबोध ।।२४३६।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि मभाचंद एवं उनका पमपुराण २३३ भरत कहै इस बात समझाइ । सुरबीर व्रत पाल न्याह ।। कायर पाल किम चारित्र । पाल' दिष्या सकल पवित्र ।।२४४०।। जैन धरम दुर्लभ घरगा, पाल बड़े कुलीन ॥ कायर पाल केम तप, अग्यांनी मति हीण ।।२४४१क्षा प्रतिबीरज अति ही बली, करी धर्म सों प्रील ।। राज रिधि सब छोड करि, भज श्री मरिहंत ॥२४४२।। इति श्री पपपुराणे अतिवीरज विधान ३३ वां विधामक विजय और प्रतिवीर्यजुत, रामचंद्र के भक्त ।। पाया गज नंद नगर का. प्राट्या जस सहु ज़क्त ॥२४४३।। चौपाई विजय राजा का विचार विजय असफंदन करें विचार | अंसी वस्तु कहा संसार । राम लक्ष्मरण में दीजे भेट | अंसी कवरण वस्तु शुभ होत ।।२४॥४॥ रबि दा मात रितुमाला पुत्तरी । प्रति बीरज सुता रूप गुण भरी ।। लक्ष्मण कू दीनी सिंह बार । बहुत बिनय कोनी मनुहार ॥२४४५।। चस्या भरत फिर प्रजोध्या देस । मारग में मिल गयो नरेस ।। विजय भरतफेदन चरण कु नया । भरत ताकुटि कंक स्माइया ।।२४४६।। कंदर्षमा सुता बिजय सुदरी । भरत निमित्त दीनी घडी ।। प्रतिवीर्य को कठोर तपस्या मानगिर पर्वत पर प्राय । प्रतिनीरज बैठा मुनिराय ।।२४४७।। कर तपस्या मन बच काई । यान लहर उपज बह भाय ।। तप के तेज देही मैं जोति । मानुपुन्य शशि उधोत ॥२४४८।। भरत शत्रुधन विजय प्रसफेद । गए तिहाँ प्रतिवीर्य मुनींद ।। उतर सिंघासण कर प्रणाम । सह परिवार गया तिरण ठाम ॥२६॥ पर्वत मारग महा कठिन । चढगये नृपति बहुत जतन ॥ मुनि कूदेखि भयो पानंद । वंदे चरण कमल मुख कंद ।।२४५०। विनयवंत करि बयावृत्य । पन्य साष पाल जे परित्र ।। सुरणे परम सब पातिग गये । नमस्कार करि बहु विष नये ।।२४५१।। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपपुराण पाए प्रजोध्या मुगत राज । मनवांछित हुवा सब काज ।। विजय प्रसर्फदा किया विदा । प्रीत रहै। सुधा सका ।।२४२२॥ पृथ्वीधर कह करो विवाह । राम व हैं हम तो बन जाह ।। पूरण दिन होसी धनमाहि । तबै ध्याह करणे की चाह ।।२४५३।। बनमाला को छोड़कर भागे बदमा बनमाला नं लक्षमण कहै । बारह वरस वन मांही हैं ।। तुमने साथ ले कहाँ दें दु ख । फिर प्रावै तब होवै सुख ।।२४५४।। तब वनमाला रोवै घणी । सक्षमण समझावं कामपि ।। हम फिर पावेंगे तुम पास । करो मति मन चित्त उदास ।। २४५५।। होवें समकित बिन सूल । मिथ्यादृष्टी मिथ्या मैं मूल ।। अंशा हम कुजो होवं पाप । जे हम फिर प्रा नहीं प्राप ।।२४५६।। आधी राति उठे दो भ्रात । सीता ले पाले संघात ।। मुलोचना नगर सुलोचना नन के वन में पाए । अन्न पाणी प्राण भोजन किये ।। २४५७।। जिनमारग ये निकसे पाय । देखि रूप सब मोहित थाय । ए अपने मन निर्भय पल । देखे देश गांम प्रति भले ॥२४५८।। खेमांजलपुर पाश्रम लिया । रामचंद्र लक्षमण निय सिया ।। देस देस के मानस देष । भांति भांति की बोली भेष ।। २४५६।। रंग रंग के पर्वत धने । नामावली कहां लग गिरणे ॥ एक मनुष्य कहे था बात । सत्रुद्रम की कछु कही न जात ॥२४६० ।। जित पना की प्रतिज्ञा कनक भाजन की प्रस्त्री। जिस पदमा वाकी पुत्री ।। राबा 4 कीनी इक टेक । मेरे हाथ की बरछी सह एफ ॥२४६१।। बाकु पुत्री देई विवाह । करह मंगलाचार उद्याह ।। पैसा पृथ्वी पर है कोण । मरण मापणां चाहे जोरा ॥२४६२॥ जो कोई निज तज दे प्राण । कुण विवाहै भैसी जाण ।। जीव करघा तजै घरबार । जीव समान नहीं संसार ॥२४६३।। मिह सौंमा तूटं कान । वाको पहरे कोण सयान || मंसी भरणकरी मेंने सुरगी । बाहिर बुला कर पूछी घणी ॥२४६४॥ लछमण राम प्रचंभा किया । देखें इह राजा की धिया ॥ अंसा गुण वामैं है कहा । एता गर्म मनमें है गहा ।।२४६५।। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाब एवं उनका पपपुराण २४१ लक्ष्मण का मितपदमा के पास जाना लछमण गया नगर के पार । ऊंचे घर जैसा फैलास ।। फटिक समान ऊजले वर्ण . जिन मंदिर देखें दुख हो । ४६६।। लक्षमण पहूंता राज दुवार । पौल्पा प्राय फिरचा पडदार ॥ तुम हो कोण कवण कहां जाव , मो सों बात कहो सत भाव ।।२४६७॥ हम प्राए नप दरश निमित्त । लेखण कारण हुवा चित्त ।। पोल्या कहै कुछ उभा रहो । मैं अब जाय राय ने कहों ।।२४६८।। भूपति प्रत वही समझाय | रूपवंत कोई प्रायो राय ।। तुम दर्शन कू ऊभो द्वार । हुकम हुवै तो ल्याउ हकार ।।२४६६।। राजा पासि लाए बुलाय । लक्षमण राजसभा में जाय ।। पूछे नरपति तुम ही कोण । कि नगरी सौ कीया गोरग ||२४७०|| लक्षमण कहै हम भरत के दास । इह बात सूरणी परकास ।। जिसपदमा पुत्री तुम गेह । तुम हती बहला की देह ।।२४७१।। ज प्रतिया है तुमारी सांच । तो तुम मुझ बरछी मारो पांच ॥ अचरज कर गय मन माहि । असा धीरज यामें काहि ॥२४६२।। जो मैं 'बालू इस पर घाम । अब बस च बुरा है नाम ।। पमा द्वारा बग्छो के बार करना लक्षमा कह कहा कर विचार । बेग पांच वरली मोहि मार ।।२८७३।। अगन' प्रजलती एक चनाय । लक्षमण ग्रही बीच मां धाइ । दूजी बरछी फैंको बली । लक्षमण ने पकडी मन रली ॥२४७४।। लक्षमण की विजय होना इण विध चुकी पांच चोट 1 पुन्पर्वत धरम की प्रोट ।। तब राजा लक्षमगा कु नया । जितपदमा दीनी निज धिया ।।२४७५५ लक्षमण कहै पन में मोहि भ्रात । सीताराम जगत विख्यात ।। उनकी प्राम्या ले करों विवाह । मेग वचन सुरणों नरनाह ।।२४७६।। राम राणी सहित राम के पास आना राजा राणी जितपदमा पृत्त। मंगलाचार गीत यिध करी ॥ परियण सहित राम पं चले । बाजा बहुत बजाये भले ।।२४७७।। उडी धन प्रालोप्यो भान । सीताराम विचार ग्यान ।। लशमण मुकछु भया विरोध | ऊंचे चढि करि लेई सोधि ।।२४.७८।। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9X. पपपुराण देख्या रहस रली सू लोग । पावत देख्या करण संजोग || सद्म' पाइ चरण कु नया । जित पक्षमा सीता पद लया ।। २४.७६ ।। क्रियो महोत्सव पुर ले गये । पुन्य प्रसाद वह सुख्न भये ।। अधिक पानंद नगर में भया । जित पदमा चित हरष्या थया ।।२४१०।। सोरठा पूरब पुन्य पसाय, जिहां तिहां रख्या करै । जीत भई सब ठाइ, रघुबंशीन प्रताप अति ॥ २४८१।। इति श्री पपपुराणे मितपणा विधामक ३४ वां विधामक चौपई जितपमा को छोड़कर भागे वतना राजा सौंज व्याह की करें। ए चलणे की इम्छा करें ।। जित पदमा सू लक्ष्मण कहैं । तू अपने मन निरमै रहै ॥२४८२॥ फिर आव तव कास्यों ब्याह । तुम क पत में कहां ले जाहि ॥ जित पदमा के लोयरण झरे । नगर लोक सहुँ विनती करै ।।२४८३।। लक्षमण राम रहे हम देस । पुन्यवंत ए बड़े नरेस || राणी राय करै अरदास । पूरण सकल मनोरथ पास ।।२४८४ प्ररथ गनि वन मारग लिया गम लखरण जनक की घिया । राम लक्षमण का संसयल गांव में पहुंचना देख्यां गाम नगर रु नयरी । बंसथलपुर बसती खरी । २४८५।। लोग भागते देखे घणे । तीजे दिन इक कारण बने ।। बाजा आदि मजना परवल पर कोई बार पुकार । ताके भय भाजे संसार ।।२४८६।। पुरुष छिप मुहरा मभार । विहां रहेंगे सांझ सार ।। बाजे घण दमामे ढोल । ज्यों वह कान पड रहीं धोना ।। २४८७।। को कोई वह सुणं हवार पुरुष नपुसक होवे शिण बाः ।। कोई सुणि हरि तर्ज पणि । असा दोष अछ तिरण यांन ।। २४८८ । सोना सुरिण बोली तब चैन । इस पर्वत परि होइ कुचन ।। इन लंग्गा संग तुम भी चलो । भय की ठौर रहे नहीं भला ।।२४८६ ।। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाबंद एवं उनका पचपुराएर २४३ राम लक्षमा' इ ! मुणे में जा बोला मा ।। राम द्वारा विचार करना दख्यण दिम इक पर्वत ठाम । हाक श्रवण सुसा हर गांम ।।२४६०॥ सो प्रतष्य हम देख्या प्राजि । मनांछित का हुवा काज ॥ गिरवर पर कुण कर पुकार । ताका डर मानै संसार ।।२४६१॥ सीता जो तुम डरपो घणी । तुम भी जाहे जहां ए दुरणी ।। रामचंद्र सीता लक्षमण । परबत चदि देख है सब धन |॥२४६२।। रवण भई बन के सब जंत । हस्ती स्यंघ बोलें दुरदंत ।। स्याला सबद भयानक लग । राम लक्ष्मण उस बन में जग ।।२४६३।। बसन उतारि पहर कोपीन | धरे ध्यान ऊभा तप लीन ।। जैसे सोहैं कलस सुमेर । प्रेसे सोहत हैं तिण वेर ।।२४६४।। प्रबगरों का निकलना नीनांजन नगर की उरिणहार । अजगर निकले तिहां च्यार ।। दामनी जो निहानीवल । फ कारता अगानि पर जले ।।२४६५।। महा भयभीत करें चिघार । इनके हे ममकित आधार ।। बहुत चिंघारे विनषे भये । 'न्यवंत डर भय नहीं थए ।।२४६६।। च्या अजगर रूप धरि देव । राम लक्ष्मण की कीनी सेव ।। पूज चरण बजावं वीरण । नाचे गाव गीद नवीन ।१२४६७.। वेशभूसरण कुल मूषण मुनि पर उपसर्ग करना वा वन में देशभूराण मुनी । कुलभूसरण कर तपस्या घनी ।। राज्यस प्रांगा दिखावै नृत्य । वह अपने मन भम ना कृत्य ।।२४६ ।। उनकों चाहें तप से दाल । वह हैं मन च काया हसियार ।।। अंधकार घरग घटा बनाई । उपसर्ग दिया मुनिवगंत धाइ ॥२४६६।। प्रडिल्ल मुनिबर ग्यांन गंभीर चित्त प्रातम दिया. हृदय सुमरि नवकार ध्यान निर्मल किया ।। प्रारत सेंद्र निवार धरम सुकल गह्या, ऐसा सुभट मुनिराज कष्ट बहुला राहा ।।२५००। चौपई राम लापण का मुनि के पास जाना लक्षमण राम सौरग सब चल्या । बनावतं धनुष मंभाल्या भला ।। साथां ने क्यू देहै दुःख । वितर भाज्या उपज्यो सुख ॥२५०१॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ दो मुनिवर में केवलग्यांन । जय जयकार करें सुर श्रान ॥ पूछें गम हज कर जोर । नोल बंध किम पिछली खोर ।। २४०२ । कारण कवरण उपद्रव किया। वितर किम तुम कू दुख दिया || व्यन्तरों के पूर्व भाथ पद्मपुराण बोल मुनिवर पूर्व भव भाव । पानी नगर विजयगिर राव ।। २५०३ ।। पट्टराणी नामै धारणी । भोग भुगति रति मान घरणी ॥ अमृतस्वति राजा का दूत उपयोगा स्त्री उदित पूत ।। २५०४ ।। मुदित नाम का दूजा पूत । वसुभूत विप्र भित्र बहूत || उपयोगादि पाप को रीत । अमृतस्वरि तें रहें भय भी । २५०५ ।। पर्वतभूत मंत्रीय तुला । श्रमृतस्वर कहीं दिया पठाय ॥ वसुभूति विप्र कू' लीया साथ विप्र षडग लीयों निज हाथ ।। २५०६ ।। श्रमृतस्वरित कति मारि । आप कही उपयोगा नं सार || वे दोनु मन रहसे घर डांव पढे दोन्यु सुत हीं ।। २५०७ ।। वां दोन्यां वीर सुरपी इह बात । इरण भाभरण मारधा तुम तात । श्रत्र तुम कू मारेंगा श्राह । सावषाण रहज्यो इस ठाइ ॥२५०८ ।। इक दिन सोवें था दोउ भ्रात मारा श्राया द्विज अघरात ॥ उदित ने मारी तरवार | वसुभूत मारया तिरण बार ।। २५०६ ।। विप्रजीव म्लेच्छ अवतार । खोटो ज्यौंन भ्रम्यो संसार ।। मतिवर्धन मुनि का श्रागमन मतिरधन मुनिवर मुनी अनधरा श्रारज का ग्यानी गुनी ॥१२५.१० ।। वसंत तिलक वन में तें श्राय । छह रितु फूल फले बन राय ।। सुका तरवर हुवा हन्धा । जलहर सकल तर सुभरा ।। २५११ ।। माली गया राय के पास कही वीनती सह सब भासि ॥ राजा महु परिवार हकार । हाथी नहि वाल्यो नरपार ।। २५१२ ।। नगर लोक चाल्यो नृप संग । पहरि तने आभरण सुरंग || वन के निकट गय जब गया। गजते उतरि भूमि पर दिया ।। २५१३।। मुनि की तपस्या मतिबरधन मुनि के संग घने । वे ठाढे ध्यान मांहि प्रापणे ॥ कोई पदमासन तप करें। तीन रतन हिरदे में घरं ।। २५१४।। गजा अस्तुति करि दंडीत | दरसन देखि सुख भया बहुत ॥ नरपति हैं सुण मुनिराम तुमारी है राजा सी काय ।। २५१५।। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका यमपुराण २४५ तुम काहे कुलीया जाग । छांडे सकल राज के भोग । ओले मुनिवर सुरगौं विचार । गजभोग तिहां थिर न संसार ॥२५१६॥ सुभ अरु असुभ करम परभाव । भ्रमैं जीव पाये नहीं पार ॥ सुपना का सा है सब सुन्न । बहुर लहैं नरक का दुख ।२५१७॥ इल ऊबर निगोदरी वास । जनम भरणा नहीं टूटी पास ।। दिष्या ने पावै सिव पास । निरभ लाभ भोग विलास ॥२५१८॥ दर सन ग्यान बलवीर्ज अनंत । सासन सुग्ब लहै बहु मंत ।। विजय परवत सुरिण दिव्या लई । मज विभूत पुत्र को दई ।।२५१६।। उदित मुक्ति द्वारा वैराग्य सेना उदित भूदित उपज्यो वैराग । भये दिगंबर घर सब त्याग ।। सम्मेद सिखर की मनसा वरी । गुरु आग्या लीनी तिहं घरी ।।२५.२०।। वन मे गाए भील की पुरी । मग नहीं लहै तिहां स्थिति नरी ।। साष जोग धरम के काज । ग्यान अकुस में मन अज राज ।।२५२१।। पंचइन्द्री की रोके चाल । मोह करम की तोडे माल ।। म्लेच्छों द्वारा उपद्रव मलेकछ प्राय तब कीनी बुरी । साध हतया की इच्छा करी ।।२५२२।। उदित कहै मुदित सौं बात । म्लेच्छ पा है घालण घात ॥ हमकू मारयां चाहँ बाइ । तुम राखो दिल मन वच काय ।।२५२३।। अपमुवित्त राखज्यो ठौर । टूटे जनम मरण की डोर ।। उन मत्य उपसर्ग निमित्त । पापी पाप विचार यो चित्त ।। २५२४॥ पहुंच्या तिहां भील का राघ । दोन्यु मुनिवर लिये छुड़ाय ।। तिन म्लेच्छा ने मारपा बांध । नोन क्यू दुःख दिया साथ ।।२५२५॥ पुछ रःम राय की कथा । बाके भव भाषो सरवथा ।। भरत नगर तिहां दोइ किसाण । सुरपक करपल्लव जानि ।।२५२६।। सुकतवाल कहारिया घोर । तिण किसारण छुष्ठाया तिण छोर ॥ उन बालक जब बुधि सभारि । तप करि उपज्यो राजकुमार ॥२५२७।। सब मलेबु का हुवा राय । करै राज सोमा अधिकाय ।। सुरपक करपल्लव धरम जाणि । तप कर उदित भए यहां पान ॥२५२८।। पूरव जनम दिया प्रभय शन | ता सनबध छुड़ाये इस धान ।। म्लेच्छां को दीनी प्रति मार । मरि करि पहुंच्या नरक मझार ||२५२६ ।। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ पापुरास तोड व उदर पूरा भई । संन्यासी पं दिव्या लाई ॥ पंच अमनि साधी बहुभाति । मरकरि भया देय को जात ।।२५३०।। प्रगान केतु माम तसु भया । दिन मुदित समेदगिर गया ।। उदित मुक्ति द्वारा निर्धारण प्राप्ति समाधि पर करि स्टे प्राण । पाया स्वर्ग मे देव विमांग ||२५३।। अरिष्ट नगरी प्रिय वन मप । कंचन नामा मारि राना ! दूजी पदमावती अस्तरी । रूपवंत लष्यण गुएभरी ॥२५३२५ दोऊ देन चये अंत पाय । पदमावती गम भए माय ।। प्रथम रत्नरथ चित्ररथ और । रूपवंत सोहै तिण ठार ॥२५३३।। ग्राभा और प्रगनिकेत वृत्त । अनरष नांम रूप बहत ।। राजा सुण्यु धरम व्याख्यान । छह दिन अाच रही परमांन ।।२५३४।। राज भार पुत्र ने दिया । आपण भैम दिगंबर लिया । रस्मरथं श्रीप्रभा सौं ब्याह । राजभोग में कर उछाह ।।२५३५॥ अनरष राजा का मान भंग एवं वैराग्य प्रनरध कर राम सौ बर । मात्र राज प्रथी का खर ।। चित्ररथ मंत्री सौ मत्र विचार । सना जोड कीए जुध भार ।।२५३६।। मान भंग अनरध का होय । भये संन्यासी ग्यांन वियोग ।। काय कष्ट सूसा, जोग । हाडे सब ससारी भोग ।। २५३७।। रत्नरथ चित्ररथ मुनिवर ५ गये । राभिलि धरम जतीसुर भये ।। ईसान स्वर्ग में हुवे देव । मुर बहु करें तिना को सेव ॥२५३८।। बेसभूषण कुलभूषण का जन्म। सिधरत्नपुर क्षेमकरण न रेस । बिमलाराणी पतिव्रता भेष ।। नाके गर्भ स्वर्ग हें चई । सभूषण कुलभूषण भई ॥२५३६।। सागरघोष भूप की साल । विद्यापदि दोउ भए गुणाल ।। पउदह विद्या बहत्तर कला । सर्व विद्या सीखी गुरण भला ॥२५४०।। विप्रसाष दोऊ शिष्य ले जाय । मृत गुण देव आनंझो राइ ।। सागरघोष बहु पायो दान । मंकर कीयो सनमान ।।२५४१ ।। नरपति असा कर विचार । जोवनवत भयो सु कूमार।। रूपवंत नृप को कोइ मुता । ताहि समझि काई कीजे मता । २५.४२।। उहै भूपति को जांच जाइ । ग्रेमी बान विचार राय ।। चमीडा दोऊ कुवर वनक्रीडा चले । ह्य गय रथ पायक बहु भले ॥२५४३।। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचन्द एवं उनका एमपुराण २४७ रथ परि बैठा दोन्यु वीर । रुपलक्षण करि दिपै सरीर ।। कमलोस्दा झरोखे द्वार । वडी नयन याभरण संवार ।।२५४४१ देसभूषण कुल भूषण देखि । यासों कहूं विवाह बिसेष ॥ वे दोन्यू आपस में जिद । नारि रूप दिया में निंद' । २५४५।। उततें भाट प्रावता मिल्या । प्रासीबाद दीया उन भला ॥ क्षेमंकर के कुल पानंद । विमला उदर भए भुविद ।।२६४६।। चिरंजीव व ज्यो तुम सदा । इनका सुजस बखासी मुद्दा ।। कमलोत्सबा का विचार कमलोत्सवा इनकू देखिया । धन्य बह जिन दोड भया ।।२५४७।। प्रेसी सुणी सबै इन बात । सोच कर मनमें दोउ भ्रात ।। सराहा इन मैया की ठौर । हम मनमें पारसी थी और ।।२५४८।। जे इह अनि राषती भाव । नोऊन कहती बहिन का भाव ।। हम तो चित मां प्राण्या था पाप | क्यू उतरंगा इह संताप ॥२५४६।। मन ही मन में बांधे करम | जामवंत किम कर अधरम ।। विग यह जनम धिम् संसार । विषय भाव में रहो मंघियार ।।२५५० ।। अब किण विध मिट सी अपराध । करें तपस्या मन वय साध ।। दोनों भाइयों के वैराग्य भाव फिर पाये जहां माना फ्तिा । वंग तणां करि दोन्यू मना ।।२५५१।। कहै कि हय तुम इह सनबंध । इन्द्रिय विषय पाप का बंध ।। अब तुम हम क् प्राग्या देई । तो हम मुगि पास वन लेहिं ।।२५५२.। माता पिता द्वारा संताप दंपति सुनि मूरछा गति प्राइ । पुत्रां प्रतं कही समझाय ।। तुमारा न देख्या मंगलाचार । तुम दोनों बालक सुकुमार ||२५५३।। करो राज तुम भुगतो सुख । कारज विन कवर। सही ए दुःख ।। चउथै प्राश्रम दिक्षा जोग । अत्र मुगनो संमागे भोग ।।२५५४।। कुमारों का उत्तर एवं वैराग्य लेना बोले अवर संसार असार । व्यापत काल न लागै बार ।। बाल वृद्ध सगला ने काय । काहु की करुणा न कराइ ||२५५५। आया ले मुनिवर 4 गये । लुपे केस दिगंबर भए ।। बारह तप तेरह चारित्र । अठाईस मूल गुण है पवित्र ॥२५५६।। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ पपपुराव तीन रत्न पालें धरि भाव । साथै तप या विष इण ठाम ।। मनरध संन्यां कौमुदी नन । सुम राजा जा की बल अग्र ॥२५५७।। रतिवंती राणी सम्यक दिष्ट । ग्यान क्रिया में अधिक श्रेष्ठ ।। राय सुरणीधा ऐसा महह । दरसन कारण चल्या तुरंत ।।२५५८।। असे तपसी करिए सेव । राणी निंदा करं पश्चेव । वाद भयो रासणी अन राव । समझ केम सुभासुभ भाव ।।२५५६।। साधुदत्त मुनि के उपदेश । राणी मांडपो बाद नरेस ।। नागवता का प्रनरष तपस्वी के पास जाना नागदत्ता कन्या सु कही । अमरध पासि जाह तु सही ।।२५६०॥ सारे दिन रहियो वन माहि । तपसी पास जाइयो सांझ । जब वह चुके प्रापया ध्यान । वाकुल्याज्यो कणिका थान ।।२५६१।। पुत्री गई जहां अनरध । लाग्या ध्यान पातम के मध्य ।। कन्या की पाई तब वास । अनरध कहै फली मन प्रास ।। २५६२। मैं तो बहु प्रकार तप किया। अपछर यह फन्न पाइया ।। तब कन्या तापस ने हैं । मेरी माता मनोहर रहै ।।२५६३।। तु पूत्री अपनो वर ढोल । मब तुम चली मीहि घर गल ।। तुम चरणन की सेवा करू । तुम साथै तप त प्रादरू ॥२५६४।। तव तापस प्राध्या पास । कन्या बोली बचन प्रकास ।। अब तुम चलों माता के पास ! मोकू देसी तुरत निकास ।।२५६५।। तपस्वी का कन्या के साए जाना तपसी चाल्यो कन्या मंग । बिमा माजी जिम व्याघ्र कुरंग ।। तिहां सुमुख राजा जा छिप्या । वेस्या के घर प्राया नपा ।।२५६६।। वेस्या दई अपणी पुत्तरी । भोग भुगत मानें तिह घडी ।। दुशान्ती होना राजा तब बांध्या तापसी पनिया सौ पीटयो करि हंसी ।।२५६७।। रारूपो राति पाइगा बीच । मन लाद की मांडी की ।। प्रभात भये बुलायो तुरंत । मुड मुडाय क पाछगां बहुभंत ।।२५६म। गादह चढाइ फिराया देस | अंसा किया तपां का मेम ।। मरि करि मुगती सातो न । ऐस सहै भव भव उपमर्ग ।।२५६६।। अंत भया बांभण का पुत । मंन्यासी हूं तप करै वहुमंत ।। ज्योतिग पटल देवता भए । वा सनमंध हमनै दुख दा ।।२५७०।। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनि सभानंद एवं उनका पमपुराण २४ प्रमन्तवीर्य मुनि के पास बेवों का जाना इक दिन चतरनिकाया देव । अनंतबीर्य दफन सेव ।। तिहां इन्द्र में पूछी बात । मुनिसुव्रत उपजे जिननाय ।।२५७१।। उन पीछे कवरण होइ केवली । देमभूषण कुन मूषण कथा चली । दोनों मुनियों के केवलशाम होना उनक उपज केवलज्ञान । उन प्रभु देव विचारधा ध्यान ।। २५७२।। पूरव भव का जाण्यां भेव । प्राया उपसर्ग कीया गहेव ।। मंकर पर विमला माय । ले संन्यास तजी निज काय ।।२५७३।। पहुंचे सौधर्म स्वर्ग विमारण । उपसर्ग देख पाए इस ठाण ।। महालोचन मकर जीव | प्राया मोह करम की नींव ||२५७४।। हम घातिया की सहू टाल । माया माह का तोंञ्या जाल ।। केवलग्यांन उपन्या इस घडी । सुर नर सह मिलि सेवा करी ॥२५७५।। वूहा रवि प्रताप जग भ तप, ग्यानी ज्योति अनंत ।। सुरणत भेद संसय मिटे, सुख पावे बहु मंत ॥२५७६।। इति श्री पपपुराणे समूषण कुलभूषण केवलज्ञान विधान ३५ वां विधानक चौपई सरप्रभ राणा द्वारा राम का स्वागत सरप्रभ सस्थल को राई । बंसगिरि सोम बहु भाई ।। बारह सभा सुर्ण तहां घरम । रामलखण को पायो मर्म ॥२५७७।। भूपति सकल वर्णन कू' नए । दरसन पाइ कतारय भए । नारायण बल अष्टम अवतार । सुमरमा हुषे जीव मापार ॥२५७८।। सुप्रभराम गयंद सवार । पंचवर्ण कीने इकसार ।। कियो महोसव पाण्यो गेह । दीपं यह कंचन मय देह ॥२५७६।। फिर छन्त्र सिर कारं चंबर । विछ कुमुम सम मारिंग और ।। बहु पकवान मिठाई पनी । बहत भांति की रसवती वणी ।।२५८०।। भात दाल तरकारी घृत । रस गोरस दौनां भरि पत्तं ॥ रतनसवाई कंचन पाल । चौकी जहत बहु मोती लाल ।।२५८१५॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० पद्मपुराण सुवर्ग भारी अमृत नीर । जीमैं राम लक्ष्मण दोउं वीर ।। गीना ने नीयो साहार ! दई मुख सोधि वह पान संवार ।।२५८२।। अरगजा वाल्या बास गंभीर । वात उपजे सुख सरीर ।। लक्ष्माण गम बस गिर चले । वनक्रीडा देखत मन बस ॥२५८३।। चैत्यालय देग्न बहु भाइ । रतन विंच बीमों जिनराम || कहीं कंचन के देहुरे । कहीं पाषाण लगाये खरे ॥२५८ ।। कर प्रतिष्टा पूजा दान | सकल भूपती मानं प्राण ।। रामचंद्र लक्ष्मण सों कह । वर्ण नहीं जो हम एहां रहें ।।२५८५।। लोग नारे हमरी सब सेव । भरथ सीव सौ रहिये छेच ।। कैसे रहिये भरण की ठौर । रहैं जहां वहां लष न प्रौर ।।२५८६ । खतवादी श्री रामचंद्र, लक्षमण वित्त विवेक ।। बंगगिरि तजि प्राग चले, धारि घरम की टेक ।।२५८७।। चौपई राम का प्रागे गमन राम गिरि शनि वनमारग चले । बह प्रकार तरु देखे भले ।। अगले वन सब देखे सघन । मनुष्य न दीस मारिंग कठिन ।।२५८८ ।। निस बान र तिहां एक समान । सघन वृक्ष दीस तिहां भान ।। राारे दिन चलिया कोस एक । गिरि फंदरा में रह्या टेक ॥२५८६ ।। वनफल बोरस करें माहार । पहुँचे करण रेवा तट पार ।। उत्तम वृक्ष लागे फल फूल । सीतल पवन जाय दुख भूल २५६।। विहां जम्य रामचंदर रहैं । अनफल मारिण अन्य न चहैं ।। बन जीवन काल बासरण मोदा तिहां संवार । रसवंती करै सीता तिरा बार ।। २५६१।। पानन की पातल लें यणाइ । सुरही धेनु का दुग्ध मंगाइ ।। नारिकेल के तंदुल अनुप । दाडिम दास मुख स्वरूप ।।२५६२।। चारोली पिस्ता बिदाम । ए बसता खाई कर पाराम ।। राम द्वारा चारण मुनियों को प्रहार बेना चारण मुमि सीता दृष्टि देखि । मास उपवासी दिगंबर मेष ॥२५६३।। रामचंद्र ने सीता कहे । उठो वेगि पडगाहो गहैं ।। दोन मुनिवर ने देय प्रहार । रामचंद्र उठियो तिणवार ॥२५६४।। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण नमस्कार करि पूजे चरण । मुनि दर्शन भव पातिग हणं ।। बयाक्त करि दीयो दान । विधि सेती कीयो सनमान ।।२५६५।। मुनिबर को दीनी मुखसोधि । अपैवान बोले प्रति बोधि ।। पुहुप रत्न वरषे तब घणे । सुर नर सब जे जे कू भरणे ।। २५६६।। गद्ध की कथा गृध्र एक बैठा तरु द्वाल । भव सुमरा उपज्यो ततवाल ।। केह वेर लही मानव देह । धरमध्यान सुधरयो न सनेह ।। २५६७।। प्रकारथ खोयो सब जन्म । नटवत भेष करे सब कमै ।। मानुष होय कचह्न पुन्य न कियो । शास्त्र सुरगन को चित न दियो ।।२५६८।। मुनिवर को नहीं दियो प्रहार । घरयो नहीं व्रत संजम भार ।। पंषी भयो नित प्रामिष भष्यो । अब मैं कैसे प्रलेष लिष्यो ॥२५॥ चरणोदक मुनिवर का पिया । अंसा ग्यांन गृद्ध को भया ।। गपीन ते कहा भंयम पर्स । मुनिवर चरणों में चित मिलं ।।२६००।। जदरला सम भी ब ना कहः न । रामचंद्र पूछ विरतान्त । सुगुरु पनि गृपनि मापे बात ।।२६०१।। जनपद करण नाम तिहां देस । महूत नग्र ग्राम बहु बेस ।। कई गिरिपर कई नलें । कई बसें नदी तट तले ।।२६०।। कई निबस महा उद्यान । कई निकट नगर के थान ।। करण कुडल का इंडक भूप । अस्वकरणी राणी सस्वरूप ।।२६०३।। प्रवस्य मी राजा आसक्त । भई रयण करिवा चाल्यो रित्त ।। मारग में मुनि ध्यानारूल । सर्प एक मंगायो नृप ढूढ ॥२६०४।। मुनि पर उपसर्ग कीढी बढी साध की देह । परिवस्य के गयो भूपति मेह ।। मुनिवर तब मांड्यो संन्यास । वाके देह तरणी नहीं आम ।।२६०५॥ विसहर मृतग चुब गरल । असो अंहि घाल्यो मुनि गल || जो कोई जाय उतारं सांप । तब वह वासो कर संताप ।।२६०६।। अन्य देश का भूपति शाई । देख्यो सर्प मुनिवर की काई ।। अस्व ते उत्तरि मुनीसर पठतारि । राजा ये कीया नमस्कार ।।२६०३।। उत्तम वस्त्र में पूछियो सरीर । यावृत्त करि मेटी पीर ॥ गयो मूष उपसर्ग निवार । दंडक फिर प्रायो तिण बार ॥२६०८।। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ पद्मपुराण बोले कि उसार सांप | उतारया अनही राजा भाप || चढे कोप कई कैलू प्रांन सा नं मोडूं इस थान । २६०६।१ मुनि के चारों ओर अग्नि जलाना फिर बोल्या वाडा चहुं फेर । काठ संभारो बहु तिहां घेर ॥ काहूं कु निकलर मत बोह । दावानल माहीं कोचो व्योह || २६१०११ पापी दुष्ट विचारी बुरी । श्रई नरक जो की घड़ी ॥ व्यारों तरफ लगायी आग । मुनिवर ध्यान निरंजन लाग ।। २६११।। लग्या झील देही सब जरें । मुनिवर नहीं ध्यान तें दरें ॥ पात्रकध्वज सबन को देव । अगनि बुझाह करी मुनि सेव ।। २६१२ । । वाही अगनि देही सब जाल । सकल प्रथी बल हुई लाल || दाभे जीव जन्तु सब मुये । राजा नरक सातवीं गये || २६१३|| भरभ्यो लख चौरासी जोंनि । अब ए गुद्ध भए करि गौंन ॥ हमारा भत्र देख्यो परतक्ष । वानारसी नम्र रहे तिहां रक्ष ।। २६१४ । । अचलराय एवं गिरदेवी द्वारा मुनि को आहार बेना श्रचलराम गिरदेवी अस्तरी । रूप लक्षण गुण सोहें परी ॥ त्रिगुप्ति मुनिन कु दियो प्रहार | दिखाया भाषणां हाथ पसार ।। २६१५।। मेरे सतति होय कि नांहि । भाषो मोहि जिम मिटें दाह || मुनि बोल्या होसी सुत दोइ । सुगुपति गुपति तेरे गरभ होय ।। २६१६ ।। सोमप्रभ प्रोहित है राय । सोमिला स्त्री गर्भ के भाय ॥ सुकेत और अग्निकेतु द्वारा बोक्षा लेना प्रथम सुकेत अनं श्रगनिकेतु दोनू वीर है बहु देत । २६१७ ॥ सुकेत अनंतवीयं मुनि पास। दिक्षा लही सुगति की प्रास ॥ अनिकेतु संन्यासी भया । पंचगनि साधी तप किया ॥२६१८ ॥ सुकेत् विचार ग्रेसा ध्यान । प्रगति केतु तप करें प्रग्यांन ॥ काय कलेसयों दहे सरीर । अन्य जीब किन भावे पीर ।। २६१६।। सूक्षम बादर विराधे प्रान । अणगालं जल करें प्रसनांन ॥ वा कुं परमो धूमैं जाय । गुरु सू प्राज्ञा मांगी माय ।। २६२०॥ प्रनंतवीर्यं सुकेत सू कहें। अगनिकेत मन मिथ्या है ॥ तुम्हारा मांगा नहीं यंन । प्रग्यानी किम समझें अंन ।।२६२१| कोष मान माया का षणी । जैन धर्म खोडा की अणी ॥ रागदोष वाकं मन बसे । संयम विन्या नहीं जल्दसं ।।२६२२ ।। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाव एवं उमका पयपुराण २५३ वह तो समझगा इस भांति । तोय्यु हम समझावं वात ॥ प्रकर महाजन सुधा सिरी । वाक साथ तीन प्रतर तिरी ॥२६२३।। प्रावैगा गंगा जल भरण । तीन दिन पाछै उसका मरण ।। पावैगी नूडा अवतार । बीजे भव महिषी अवधार ॥२६२४।। उहाँ त भी मरि विलास के ग्रेह । जा कंवर ग्राम सुतो हुइ एह ।। जती सुकेत भ्राता पं गया । दोग्पांसू तिहां मेला भया ।।२६२५।। वाही समै रुषराजव पाइ । तमें मुकेत बोल मुनिराय ।। अगनिकेत नं पूछे ग्यांन । कहो कल प्रागम व्याख्यान ॥२६२६।। इस कन्या का क्या होइ लिखत । तो मैं जाणतु महत ।। अगनिकेत को तुम भरणी । तुमारा ग्यान सही मई गिरगो ॥२६२७।। कन्या का भविष्य सोहराय नहीजो दिन मा को नहिं टरे ॥ भेड भंस गति ह भी सुता । विसाल देह रूप की लता ॥२६२८।। जब कन्या होइ जोवनवंत । प्रवर विलास मामा सु कहत ।। इह कन्या मोफु तुम देह । भागजी जाणि कही उण लेहु ।।२६२६॥ व्याहण प्राया मामा द्वार । अगनिकेत पायो तिण बार ॥ है संन्यासी प्रवार सुपाया । इह तो सुता सेरी इह छाया ॥२६३०॥ तू कहा ऐसा हुम्रा अग्यांन । बेटी व्याहृन कुजोडी जान । अंसी कथा कन्या नै सुरणी । उपजी अवधि भव सुमरणी ।।२६३१॥ कन्या द्वारा वैराम्य के भाव धिग् धिंग भाई मोहनी करम । असे जीव भ्रमैं है मम ।। इह अचिरज सब लोग्यां सुग्यां । भया वराग सबही मरणा ।।२६३२।। अनंतवीरज मुनिवर लिंग गय।। दिष्या लई करि मन दच कया ।। रामचंद्र सीता में सुरें। अबर तह गृद्ध वीनती भरणं ।।२६३३।। अचल राजा गुपति सुगुपति । अनिकेत लह्या समकिस ।। प्रवर प्रवर मामा विलास । विधरा नाम और कन्यां तास ॥२६३४।। धरम मारग हम मोसुकहों । तुम प्रसादै गति उत्तम लहों ।। रात्रि भोजन हिंस्या मृत्त । प्रइसी रीत वह पंषी धरत ॥२६३५।। मुनिवर गए मारणे यांन । सिष्यावृत्त भविजन मान ।। लक्ष्मण ने हस्ती वस्य कीया । परि ताके पति माइया ।।२६३६।। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ पुष्पवृष्टी देखे तिहां ढेर । जटा पंची देस्या लिए वेर ।। रामचंद्र सू पंछी कथा | प्रभु में कह्या भेद सरक्ष्या ।। २६३७ धन्य साथ जे तारी तरं । बेर बेर सबै अस्तुति करें । सम मिया गया संदेह | दया धरम सू घरघोस । २६३८।। सोरठा नरदेही नि पाया, दांत सुपात्रां दीजिये । सुरंग तां सुख याय, अंत मोष्य पद पावहीं ॥२६६६ ।। इति श्री पद्मपुराणे रामचन्द्र सुपात्र दोन जटापंषी विधानक विधानक ३६ चौपई राम का आगे गमन अग्रे चले की दछा करी । करन रंधा नदी बहै ति खरी | नाव बिना किम होजे पार । सा तिरा यां करें विचार ।। १६४० ।। महर मांहि सत्ते साह एक । ताकी सोभा बणी अनेक ॥ छत्री कलस भुगताल घो। सिंहासरण परिश्यत अनेक चंदवा चंदन अरगजा और बाजा बाजे ताके पास पार उतर देखे बहु देस रंग रंग के गिर भाषांन । उत्तम योर रहे मन सांन ॥ कहि भरं पर्वत तं नीर | कही नंदी निकसी तिहूं तीर || २६४४ ।। दंडक वन में पहुंचना धन की शोभा पक्षपुराण दंडक वन में पहुंच जाय । बहुत पुष्प फूली बनरा || सोहै वन सुगंध यति बाग | देखत उपजे चित्त उला ।। २६४५ ।। डिल्ल रतन जोति सूरज सम ।।२४४१ मज्या मोठे अधिक विवेक 11 बहुत जुगति राम्रो ति ठौर ॥२६४२ ।। उसपर चढि चाले वनवास | वन बेहड़ प्रति परयत बैस ।। २६४३ ।। वेलि चंबेली जातिक चंपा केवडा | बने सरोवर कमल नीर निरमल भरर्चा ।। अमर करें गुजार सुसब्द सुहावणे । फुले फूल अनंत कवल कब लग गियो || २६४६ ।। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुर्मि सभा एवं उनका माधुसरण २५५ नारिकेल खजुर अंध अ ग्रामली। नींबु सदाफल बेर संव कहजे भली ।। मड पीपल अरु महुवा छांह मौतस जिहां । सकल जाति के रूख देखि बहु सुम्य लहः ।। २६४७।। केसरी अगर सुबास पुष्प चंधन घागे ।। दाख चिरूजी अवर पेड पाडल नगगे ।। पुगी वृक्ष उतंग जायफल के वगणे । धान तरणे बहु खेति तिहा मुदर भने ।। २६४८।। चौपई कहि इंसने कहां चकोर । बोलें सब्द सुहाबन मोर ।। कहे तीतर कहूँ लब कपोत । सारस क्ग बतक बहोत ।।२६४६।। धूध का गिरध बटेर । सवा सागे पंपी वह हेर ।। जै जै सबद करे' चिहुं वोर । राम नाम सुम रण का सोर ।।२६५०।। दंडक पर्वन तिहा उतंग । मुफा में रहे सिंघ उमंग ।। कहुं चीता कहिं सारंग रीछ । सांभर सूकर गैंडा हीछ ।।२६५१॥ प्रारणा मैसा सुरही गाय । पसु जाति सगला तिह ठाइ ॥ सरवर माहिं कमला का फूल । चलै पवन अति सुख का मूल ।।२६५२॥ नल समीर तिहां गंभीर । गाव सगला सुख सरीर ।। सबल वृक्ष हाल पात । भयो पानंद वन में बहु भांति ।।२६५३।। कीडा कर हंस बन मांहि । झरना झरै निहां सीतल छांह ।। हरवं सकल दिवस धन्य आजि । रामचंद्र प्राए वन माझि ।। २६५४।। बन मोभा देखें प्रति भली । गति दिवस देखें मन रली ।। रंग रंग के दिपै पाखांन । दम किरण उद्योत है भान ।।२६५५।। फिटक सिला की जोति अनुप । सब ठा सोहै महा स्वरूप ।। वंडक वन की शोभा ता तलि करावरन बहै । महा मगनि उज्जल जल रहै ॥२६५६।। परवस की झांई जलमांहि । भले वृक्ष तहां सीतल छाह ।। स्वर्ग सुर ससी उडषण पणें । जल में दीसँ' अति सोभा वणे ।।२६५७|| रामचंद्र लखमण पर सीमा । जटा पंषी निज कर पर लीया ।। करि सनान जल क्रीडा करी । नीर उछालं अंजुल भरी ।।२६५८।। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ पूर्व कला वे सुख किरण पर रखें जाइ । विष नगर बस तिस ठांइ ॥ बरखा कृति का प्रागमन भया । तहाँ प्रभु ने वासा लिया || २६५३ ।। दंडक मन अति उत्तम ठोडि | तिहां रघुपति त्रिभुवन सिरमोड || पंचवरण बादल श्राकास व मेह अधिक सुखराम ॥२६६०।। पर्वत ते उत्तरें जल भौमि दामिन जोति पृथ्वी पर होइ । दंपति रहसि करें सब कोड || २६६१ । काली घटा रही प्रति भूमि || वहाँ दंडक वन बासा लिया प्रगटधो तिहां चउमास ॥ रामचंद त्रिभुवन धरणी, मन में घर उल्हास ।। २६६२ ।। इति श्री पद्मपुराणे रामचंद्र वंत्रक वन निवास विनासक ३७ विभागक मक्मरण को सुगन्ध प्राना पद्मपुरा‍ लक्षमण वन कोड़ा को जाई| बहुत सुगंध उठी तिरप ठांय || लक्षमण मनमें करें विचार । इह सुगंध कमी अपार ।। २६६३।। भैसी कही देखी न सुखी । इह सुगध वन में धी क इह मम सरीर की बास के इह रामचंद्र की सुवास ।। २६६४ । लषमा सौचे बारंबार इस विध वास नहीं संसार || इहो कि पूछे कर जोडि । श्री जिन भाष कथा बहीति ।। २६६५।। सी है किसकी सुवास । नारायण जु सराही ताल || श्री जिन भावें समझाय । श्ररिक राय सुखँ मन ल्याय ।। २६६६ ।। आदिनाथ स्वामी छदमस्त । नमि विनमि मांगें हवस्त | सुपरधा नहीं हमारा काज || २६६७ । हम हैं राज नग्री का कौन ॥ विजयार का सौंप्या राज ।।२६६८ ॥ भरत बाहुबलि पायो राज भाषी बात तो प्रभू मौन धरमेन्द्र ने दीयो इन राज बाके बंस धनवान भया । अजितनाथ के समोसरण गयो ।। भीम नाम राष्यस पति देव । श्रामा करण श्री जिन की सेव ।। २६६६ ।। घनबाहन स्यों भया मिलग्प | त्रिकूटाचल कु ले चाल्यो प्राप । दीयो लंका को तब राज । जोजन आठ लंक गढ साज || २६७० ॥ सुनि सेती पूजी इह नाथ || सो हार दियो वा हाय वार्क अंस रावरण भयो बली । सिहं षंड साध्या मन रली ।। २६७१ ।। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनकी पद्मपुराण बा भगनी है चंद्रनषा परदूषण पर राशी राखा ॥ बार्के गर्म पुत्री भए । संक सुंदर निरमए ॥२६७२ ।। सूरजहास पड़ग निमित्त संगुरु की तपस्या सूरनहास षडग निमित्त संवूक साध्या तब बहु भंन || बारह वर्ष दंडक वन रह्या । साधी विद्या षडग तब लया ।। २६७३।१ दिवस सात औंधे मुख रह्यो । संबूवर षटक न ग्रह्यो । ने पड व मो हाथ । तत ले जाऊं अपएँ साथ ।।२६७४ ।। तस सुगंध वन भयो सुवास | लक्ष्मण गयो षडग के पास ।। बहुत कष्ट श्री पायो । बारह वर्ष सह्यो उपसर्ग ।।२६७५ ।। आप ही आवं कर्म प्रमान ॥ असे वासू स्यायो ध्यान तब मैं ले जाऊं निज गेछ । इरण प्रकारे साधी जन देह ।।२६७६३६॥ लक्षमण द्वारा सुरजहास की प्राप्ति लक्षमण सूरजहास नै पाइ पुण्यवंत नारायमा शह ॥ ततषिण मूठ वडग की गही । जारणी जोति सूरज की नहीं || २६७७ ।। २५०७ देख्यो बहोत ऊजले वरण | नगमा चादै परिष्या करण |" यो है कसोख देखू चलाय । या की कैंसी बार ठहराय || २६७८ ॥ वेडो बस की रह्यो तिहा मंत्र कुंवर बैठो ति ठाइ ॥1 लक्षमण करें बेड़ा परि फोट संबूक कुंवर कटघो तिल वोष || २६७६।। उत्तर मुंड धरती पर पडचा । गिरी लोष तिहां लक्षमण खडा || सुरजहास खडग छह भेव करें देवता सगला सेव || २६८०।। देव सकल बोलें तिए बार ए पुग्यवंत यष्टम प्रवतार ॥ संक कंवर जु कोया तप । विद्या निमित्त किया बहु जप ।। २६६१।। हा वर्षे कष्ट बहु सहा । बाका हेत मन ही में रह्या ॥ बिन लहरों पार्श्व फिम भांति । बारह वर सदुगात ॥२६८२ ॥ वोहा बिना पुन्य पावें नहीं, कष्ट सड़ै दिन राति ॥ हीन पुन्य परभव किया, सुभ फल केम नहंत १२६८३ || पुन्य जिहां हिां फिर इतना लहै सुभाय || 2 विद्या विभव सरीर सुख, सो मिले अगाऊ याय ।। २६६४ ।। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ देव पुनीत आभूषणों को प्राप्ति चन्ना द्वारा बिलाप चौपई देत्र पुनीत आभूषण घनं । कैंसर चंदन सोभा वरणे ॥ देवां ने लक्षमण तू दिये । नमसकार चरणन कू क्रिये ।१२६८५। स्वडा लगी बहुबार || अनिद्या लक्षमण कुमार वन सीता रामचंद्र सु कहे । लक्षमण कहा अब लग बन रहे || २६६६।। वेगा उठि वाकी सुधि लहू । जटा पंषी तुम मोकू दे 11 तुम तब ही लक्षमण पहुंचे प्राय । तब पूछें सब रघुपति राइ ।। २६८७ ।। कहां ते लया । लक्षमण तक व्यौरा सब कथा || तब वह करें बहुत श्रानंद 1 खरदूषण घर हवा बंद ||२६८८।। पद्मपुराण चन्द्रनखा प्रा थी नित्य । पुत्र सनेह षणु थोचित ॥ नित प्रति देती मांन प्रहार करती सदा पुत्र की सार 11२६८६ । देख्या बडा बांस का कटया 1 पुत्र ने देख्या मन सहु घटभी || कुमर खडग किस पर चलाया 1 वन कु काटि कहां उठि गया ।। २६६०॥ चन्द्रनखा को राम लक्षमण से भेंट अग्रे देखी सुत की लभ । पद्मा मुंड कुंडल की बोय || रोवं पीर्ट करें पुकार ।। २६६१ ।। देख्या कुंवर खाई पछाड किस दुरजन मेरा मेरा सुत भई चित्त भ्रम विचारें एह । उठो पुत्र कहा करो चरित्र । तेरी बाट जोवें सब मित्र । चन्द्रहास रावस में खडग । तुम चाहो लियो वह मांग || २६६३|| यां । चन्द्रनखा सिर पीट घरणां ।। विद्यासु काटि निज देह ।। २६६२।। बहुरि संझल करि बोल मात । देखु में किरण कोषा घात ॥ राम लक्षमण कु देखे कही। इन मेरया सुत मारथा सही || २६६४॥ देखि रूप सो भइ आसन । धन्य वह नारि ज्यासों ए रतन ॥ चन्द्रमा रोवे तिण द्वार सीता भाय पूछी ति सार ।। २६६५३० किरा कारण तू रोवे घरपी कहो सांच काहे अखमी ॥ चन्द्रनखा बोलै तव दैन। मेरा जीव कु ́ महा कुचन ।। २६६६ ।। मात पिता मेरे को नाहिं | अब में गही तुमारी छांह || जे लक्षमण मोकू वरं व्याहु । तुम जाई समभावो ताहि ॥२६६७|| Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण नहीं लक्षमण ने इच्छा करी | मान मंड भई विद्याधरी || afs विमास लंका को गई। रामलक्षण मन ऐसी भई ।। २६६८।। जो इच्छं थी चन्द्रनखा, लक्षमण घरी न चित्त ॥ कुमति विचार प्रति घणी, कवण नहे त्रिय हित ।। २६६६ ।। इति श्री पद्मपुराणे संबध विधानक ३८ वां विधानक धौ चंद्रनखा का खरदूषण के पास जाना चंद्रा पहुंची निज भूमि । कपडा फाडि मचाई धूम || खोस्या केस लगाई बेह | नखत सब दीलरी देह || २७०० || रवि खरदूषण में गई । सोगवंत तिहां बोलत भई ॥ पूछे पति सांची कहो बात तो कु कि कही अवदात ॥२७०१ ॥ जिन वरांक तेरा किया सूल। वाका मरणां श्राया मूल ॥ जे यह छिप चाइ पाताल | माह घेर ताकू ततकाल ।।२७०२।। चंद्रनखा कहे दंडकारण । तिहां संबुक गया तपकरण || सूरजहास खडर तिहां लह्या । रहें भूमिगोचरी तिहां ॥२७०३३ २५६ मेरा पुत्र उनु मारिया 1 मोसूं घणी करी है प्राणीया ॥ मैं तो घी करी पुकार । कोई सहाय भयो न तिए बार || २७०४|| [ अबला वह पुरुष सरीर कैसे उनसों हुवे धीर ॥ I सब राखन बहुतेरा करघा । एक बटोही विहां दिठ परचा ||२७०५ | उन मोकू तब वह खुदाय मेरा सील रहर पूरा भाइ ॥ लवर का कुचित होना वरण कोच्या सुण बात । पढ हजार भूपति संघात 11 २७०६ ।। 'सह मंगल लसु डोर । हम गय पायक रथ बहु और || मंत्री मूंछे त मंत्र मंत्री मंत्र को तिरए मंत्र | १२७०७ ॥ बारह वरष कंवर तप किया । लक्षमा श्रावत ही पग लिया || शिवा करें देवता धसे । वासी जुध किया किम वहाँ ॥ २७७८ ॥ जी तुम शुभ्र करल की बात भेजो द्रुत दशानन पास एकठा होय सैन्यां बहु खेय । तब तुम वास करे ||२७०६।। जुष Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपुराण रावरण के रास दूत भेजना इतनी सुणि भेजा विहां दूत । रावण पासि जाय पहुंत ।। मोलह सहल मृकटबंशा ज़हे । हाथ लोरि गम पागे पडे ।। २७१०॥ दस सिर बीस भुजा बलवंत ! चन्द्रहास खडग सोमंत ।। असक्त बारण गदा तसु पाम । इन्द्र समान विभव बल तास ।।२७११॥ खरदूषण का दंडक धन पहुंचना खरदूषण बेटा के मोह | बहुरि उठा नारी का छोह ॥ बड़े झुझारू बड़े विमाण । दंडक वन ते पहुंचे पारण ।।२७१२।। सुण्यां देव नंदीश्वर ज्याइ । के कोई दुरजन चढ भाव ।। के कोई गरुड चढ आकास । रामचंद्र इम बोलें भास ।।२७१३।। देखे दस नांगी तलवार । बावतं धनुष संभार ।। सुर जहां सरकात सौं भरा । एक मनुष्य विड़े तल मरथा ।। २७१४।। उन अस्त्री उनके घर जाइ । कहो सकल व्योरी समझाइ ।। ता कारण चढि लाए घणां । अत्र सावधान हुवा ही वण्या 1।२७१५।। सुण्यां सवद सीता निज कान । रामचंद्र सुलिपटी आंन ।। बहुत सोर काहे ने होइ । केसरी सिंघ दहाई कोइ ।।२७१६।। लक्षमण तव कर वीनती । तुम सीता संग छोडो मती ।। लक्षमण द्वारा युद्ध करना इनसू जाय करूं मैं युध । में हारू तब लीज्यो सुघ ।।२७१७।। हार जाणौं तब पूर संख । तब कोज्यो तुम मेरा पक्ष ।। सूरजहास सडस कर लिया । वजावत देकार तब किया ।।२७१८।। उततै छुट्टै विद्या वारण | बरछी धरसे गदा मेघ समान ।। गोला गोली पउँ अनंत । इतत झूट बजावत्त ॥२७१६।। लक्षमण के लाग नहीं घाव । विद्याधर झलै तिण ठाव ।। जैसे कमल सरोवर मांहि । असे मुछ मुवि मध्य तिरां हि ।।२७२०॥ हाथी घोडे पर्वत ढेर । पड़ी लोथ सगलो वन घेर ।।। झूझे सुभट स्वामि के काज | जिन धान लाये की लाज ॥२७२२॥ राबरण का मागमन रावण सुरिण पायो तिस बार । पहुंच्यो दंशकवन है मंझारि ॥ रामचंद्र सीता बैठारि । रावण दृष्टि सीता पर डारि ।।२७२२।। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुमि सभाचन्य एवं उनका पद्मपुराण सोता को देखना सीता की देखी छमि घरणी । ते मुख गोचर जाइ न भरणी ॥ जे सीता के नख की कांति । म्री नहीं मंदोदरी गात १२७२३ ।। जुध तणी गति गयो भूल । उपजी कुबुधि मरणा अनुकूल ॥ करें सोच सीता किम हरु ३ में तो सील महाव्रत धरू ।। २७२४ ।। H सोचै बरखा वर्ण नहीं बात || सोलवत टालों कि भांति अथ लग में नहीं करी अनीत । छोडूं नहीं घरम की रीत ।।२७२५ ।। अब जो सुसरा कोइ । तो अगलोक प्रथो पर होइ || जो मैं छोडू सी नारि । तो बिरहानन सहूं पार ।।२७२६ ।। सी वि या ले जाउं । कोई न समझैं मेरा नांव ॥ करणगुप्ति विद्या का ध्यान करना २६ १ करणगुपति विद्या संभारि । विद्या बोली बात विचारि ।।२७२७|| रामचंद्र सीता के पास । लक्षमण जुध करें व्रन नास || रूसी हरि कड़ी ने गणों नहीं १२७२८॥ संख नाद सबद मैं करू । तव तुम आपण चित मैं घ करके नाद तब ऊपरि भाइ | लक्षमण एम गये समझाइ ॥ २७२६ ।। जं तुम संखनाद करो भरपूर । रामचंद्र उठि जावें सूर ।। तब तुम तुम सीता हर ले जाव! इस प्रकार तुम करो उपाव || २७३० ॥ रायण द्वारा शंखनाद करमा arsat वारण भयो अंधकार | सिंघनाद पूरघो विचार ॥ राम का लक्षमण के पास जाना नाद करत रघुपति सांभल्यो । रामचंद्र लक्षमण ढिंग चल्यो || २७३१ ।। रावण द्वारा सीता हरण खोटा हुवा राम ने सौंग । सीता ले रोवण करें गौण ॥ पुहुप विभाग से बंटा चल्यो । निकले मनि पाप विचार न करचो || २७३२ ।। सीता का बिलाप सीता राम नाम उर जपं । लौंचं केस देह प्रति ॥ रे पापी कह तू है कोण मोकौं लेना चाहे जिम पौन || २७३३ ।। जटायु द्वारा आक्रमण रोवें सीता पीर्ट निज देह । जटा पंषी प्राकर्म करे एह ।। मारे चोंच रावण के सीस नष सौंध करें बहु रोस ।।२७३४ || Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ पद्मपुरास चसै रुधिर रावण के मुख्य । जटा पंषी दीयो अति दुःख ।। रिस करि राबण पंषी गहा । तोड़ी पंस छेदन सुख लहा १२०३५॥ नाखि दियो पड्यो घरती माय । अधमुवा सुसं तिए ठाय ॥ रावण द्वारा खेद करता सीता देख करत बिल्लाप । रावण खुणे सीस निज माप ।।२७३६॥ अनंतदीरज स्वामी प्ररहंत । तिरापै लियो सील इणभंत 14 कवण कुबुषि उपजी मोचित । परनारी सो बगाया हित ।।२७ ३७६१ पतिनता है सीता सती । इसके मन में पाप न रती ।। छोष्टि राज में दिया सेहं । उपनु बराम विचार मेव ॥२७३८।। याने ले लंका में जाउं । बिन बांछा मैं संग न करूं । इसकी इच्छा होवे जब । कल संम मिलाप में तब ।।२७३६॥ माही तो वह पुत्री समान । इस विचार पहुतो निज थान ।। लक्षमण रामचंद्र सो काई । तुम क्यों नाए वहाँ कुण रहै ।। २७४०।। मैं तो सब दुरजन संहार । खरदूषमा को मार्यो डार । राम का विलाप रामचंद्र तब बोले बैन । सिंघनाद सुरिण भया कुचन ॥२७४१११ रामचंद्र फिर पाये तिहां । सीता दृष्टि पही नहीं वहां ।। रसाय पशर धरती पर गिरे । सीतां सीता मुख ते करें ।।२७४२॥ फाटे वस्त्र सिर केस खेसोट । गह्यो धनुष किस पर करें चोट ।। वन बेहरु सरवर प्र वृक्ष । कहीं न देसी सरता प्रतष्प ।।२७४३।। जदर पंखी मारप में गया । सास उसास ते बाहै मया ।। पंच नाम संभलाए कान । जहा पंधी का चया प्रांन ॥२७४४॥ सीता तुमते रही कठि । वह तो नाद सबद था झठि ।। हम कु तुम छहा देहो दु ख । वठि प्रावो देखो तुम मुख ॥२७४५|| व्याकुस भया रघुपति का मन । स्थन करत तत्र भ्रमिमो वन ।। दोइ भाई तीजी सीता संग । भयो विछीह जीव का अंग ॥२७४६।। हेर्या बन हेरी सब खोह । रामचंद्र ने व्याप्पा मोह ।। बहुत वियोग मया तिरा बार 1 उठनहर सब खायं पार ॥२७४७] जैसा दुख रघु नै भया, कहाँ लग कर बाग : चित भरम्था त्रिभुवन घरणी, मल्या सकस साल ॥२७४८।। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण इति श्री पद्मपुराणे सीताहरण रामविलाप विधानक ३६ वां विधानक चौपई लक्ष्मण खरदूषण युद्ध लक्षमण खडदूषण सों जुध कायर देख रही ना सुष || सूरवीर मन करें उल्हास । सुर नर असुर करें कार । २७४६ ।। विराधित चन्द्रोदिक का सुत । विद्यावर सेना संजुल || लक्ष्मण को कीयो नमस्कार | विनयवंत है बारंवार ।।२७५० ॥ प्रभुजी मुझ को प्राग्या देहु । दुरजन दल नाषु करि बेहु ।। लक्ष्मण विद्यावर प्रति कहूँ। मेरा पराक्रम अब तू लहें ।। २७५१ ।। देख जु इनक्कू परलय करू । खडदूषण जम मंदिर घरं ॥ fare व विस्मय होय । या सम दूजा बली न कोष || २७५२॥ धन्य धन्य करि विनती करें। खदूषण सों जे तुम लई ।। सब सेना बाकी में हणू 1 अपने चारों अदर गि ।। २७५३ ।। विद्याधर विद्या संभालि लडदूषण के सेनापति का काल ॥ वा सनमुख विद्याधर हुआ 1 पायक सो पायक लडि मुवा ।। २७५४ रथ रथ टूट गिर पड़े। हाथी सूं हाथी तिहां भिड़े || खडदूषण विद्या संभालि । गर्दभ मुख कीया तिस बार ।।२७५५ ।। 1 बडी दाढ भयदायक व अब मैं लेस्यू सुन का बेर २६३ कक तें मेरा सुत । ॥ चंद्रनखा दिगोई तँ घेरि ।। २७५६ ।। अब तुम को भेजु जम पास तो कू अबर जनम की आस || खच चलायो कात्रिक बांण 1 लक्षमण के लाग्यो भाई कां ॥ १२७५७ ॥ लक्ष्मण को खरबूषण पर विजय लक्षमण कहें सुखि रे तू गंवार | तू तो गदहा की उरिहार || सिंघ दह् सरभर किम होइ । अव तु श्राया आपा खोइ ।।२७५८।। मारचो द्वारा लखण नै खचि । टूटया छत्र निसान रथ पंच ।। खरदूषण करती गिर पड्या | गहि तरवार भूमि पर परचा ||२७५६॥ 11 लखमरण सूरजहास संभार 1 मार्या खरदूषण भूपाल || ज्यू माली उडि जांय बयार हम सब सेन्या भागी हार ।। २७६०। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपुराण जीत्या सक्षमण जै जै थई । पुष्प वृष्टि लक्षमण पर हुई ।। आया रामचंद्र के थान । देख्या सोबत चिता भई प्रान ।।२७६१।। सीता नहीं देखी तिण ठौर । मनमें चिंता व्यापी और ।। रामचंद्र जगामो जाय । पूछी चिता खबर सुभाय ।।२७६२।। रामचंद्र बोले तिण वार । किम ही चोरी सीता नारि ।। के कोई सिंघ गया है खाय । के छल कर ले गया कोई राय ।।२७६३॥ लक्ष्मण का विलाप लक्षमण कर बहोत विलाप । कवण कर्म से भयो मंताप ॥ वन मैं प्राय लिया याश्रम । कोई उदय भयो अशुभ कर्म ।।२७६४॥ इहां व है सीता का हरण । पाब नहीं तो पूरा मरण ।। विद्याधरों का प्रागमन विराधित विद्याधर तिहा प्राय । रामचंद्र के लाग्या पाइ ॥२७६५। रामचंद्र पूछ इह कौंन । इनू कितही ते कीया गौंन ।। लक्षमण नैं महिमा करी घणी । या की कीतं जाई न भणी ।।२७६६।। मो कू कीनी बहुत सहाय । चंद्रोदिस सुत विराधित राय || लक्षमण विद्याधर सूकही । तुम मीता कुटूडो सही ।।२७६७ ।। जो नहीं सीता की सुध होई । हम दोन्या में बचैं न कोइ ।। चारों प्रोर मूत मेचना कनकजटी का रतनजटी पुत्र । ठाम ठाम पठाए दूत बिचित्र 11२७६८।। रतनजटी सुशियां इह बोल । राम राम करि पुकारें रोल ।। रावण के पास जामा तिहाँ जाइ रावण कू घेर 1 पापी ल्याव सीता इण बेर ।। २७६६।। रामचंद्र त्रिभुवन जगदीस । अब तू जाइ नबावो सीस ।। तेरी लंका होइ विणास । इम भास विद्याधर तास ॥२७७०।। तो तू जीवंगा दिन घणे । नाहीं तो पौवत हणें ।। भयो जुझ रावण सुतिहाँ । रावण सोच कर है जिहाँ ।।२७७१।। इसके साथ सेन्या है घणी : मैं एकाकी सुअंसी वणी ।। माया सों सीता मृत करी । रतनजटी इह पिता घरी ।। २७७२।। या कारण प्रायो इस दौर । सीता मुई करि दुख प्रति जोर 11 रावण प्रतें लगाऊं हाथ । वा को बांध ले बा साथ ।।२७७३।। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभावंच एज उनका पयपुराण २६५ रे पापी रावण बुषि हीण 1 इह तो बहन भामडल की चीण । तेरा कादंगा दस सीस । तोड़ेगा तेरी भुजा सब बीस ।।२७७४।। राधा ने तब मारी बाण । रतनजदी तब पड़या ममुद्र में प्राण ।। पंच नाम का सुमरण किया । समुद्र तिर बाहर प्राइया ।।२७७५।। कपि द्वारा देखना कपि पर्वत परि उभो भयो । राथण लंका में तब गयो ।। विराधित नैं हूँ की सब दिसा । सीया न लाधी मनमें संसा ।।२७७६।। सब फिर पाये नीची दृष्टि । राम लखन में व्यापियो प्रति कपट ।। बिराधित न बोले रामचन्द्र । पूरव भव के स्त्रोटे दृद ।।२७७७३। असुभ उदय हम पाये दुःख । तुम मो काहि न बांस सुख ।। अवर फिरे तुम च्यारू देस । मेरा तुम मान्यां उपदेस ।।२७७८।। सकल हमारे कर्म की चाल । तुम चिंता मत करो भूपाल ।। विराधित बोल विनती करें । प्रभु अपणे संसय परिहरे ॥२७७६।। दीप अढाई दुई जाई । तुमको सीतां देहां प्राइ ।।। इक चिता इक मन में घशी । तुम खरदुषण ग्रीवा हपी ।। २७८०॥ प्रसंका गढ में पहुंचना रावण कुंभकर्ण बलिर्बत । भभीषण इन्द्रजीत सामंत ।। मेघनाद में बस अपार । किषंदपुर सुग्रीव अंगद गुण सार ॥२७८१।। किषंदपुर नल नील हणुमान । ए तुमसौं करि हे घमसांन । घलहु प्रलंका गढ़ लेहु । संव कुमर निकाल के देहु ।।२७८२।। पवन भामंडल विद्याधर राव । वे सब प्रागे हैंगे प्राव ।। दोय रय सभराउ भले । लक्ष्मण राम प्रलंका चले ॥२७८३ ।। आइ प्रलंका गढ़ ले लिया। चंद्रनखा सुत काढिक दिया । धे पहुंचे रावण के पास । राम कहे भलो वनवास ।।२७८४।। सीता विन सव देस उजाड । रामचंद्र चितवं उपगार ।। श्री भगवंत का तिहां देहरा । पूजा करी भाव सुबग ॥२७८५॥ पष्ट द्रव्य सू पूर्ण पाय । दुख संताप गए विलाइ ।।। हरण विध रह प्रलंका मांहि । सीता कारण चित कराहिं ।।२७८६॥ असुभ कर्म परभाव ते, वाधी चिता बेस ।। जो कछु लिस्यो लखाट में, ताहि ग कुरण पेत ।।२७८७।। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण इति श्री परपुरारणे सोता वियोग विधामक ४० वां विधानक चौपई रावण की सीता के समक्ष गर्वोक्ति रतनजटी कांपर्धत विसावण देखे दक्षिसनको चित्त ।। मंद चाल से चले विमांण । रांधण खग्या काम का बारण ।।२७८८।। सीता प्रति बोले प्राधीन । मुख दिखावो मोकू परवीन ।। जे मोकू दर्शन नहीं देह । मेरे प्रार। छुटेंगे अबेह ।।२७८६।। तुम कारण प्रारण मम जांहि । इह तो पाप सगलो तुम थाय ।। तपसी कहा राम लक्षमणा । तिनका दुल मानै मत घरमा ।।२७६०।। कहां अजोध्या तिनका धरणी । वनमें रहूं तपसी रूप खुध्या घशी ।। मैं तो नरपति सक समान । इछो सो पावो मन मांहि ॥२७६१।। सर्व प्रश्बई पर है तुम राज । करो भोग मनबंछित काज ।। जे तू मेरा कोरा सिर में देइ । तो मै मनतें तजू सनेह ॥२७६२।। सोलह सहस्र राणिया मझार । तुझे पटराणी करू सिरदार 11 तुमकू' फेर दिखाउं सुमेर । देखो यह सागर यह फेर ॥२७६३।। एह सुख देखो छंडो सोग । राजरिष का भगतो भोग ।। सोता का करारा उत्तर गीता कहै सुणरे पापीष्ट । जे तू खोये खोटी द्रष्ट ।।२७६४।। जे तू फरसे मेरी देह । ह्यू' सराफ तू होगा बेह ।। परनारी भगत ने मूढ । पड़े नरक दुख सहै अटूट ।।२७६५॥ मेरे रामचंद्र का ध्यान । उन दिन तसक्षण तबो परांण ।। राम बिना जितनां नर और । मेरै तात भ्रात की ठौर ।।२७६६।। हस्त प्रहस्त खरदूषण का लोग । चालकेत महाखेत के मन सोग ।। गिरवा नरम भूपत्ति मिले प्राइ । खरदूषण तिहां मुझ राई ।।२७६७.। रावण निकट प्रायक मिले । खरदूषण की सुणी पर जले ।। गुण ग्रीवाहर रछ बाग । तिहां फल फूल रहे थे लाग १३२७६८।। मशोक वाटिका में सीता को रखमा मसोष वृक्ष तले सीता राखि । चन्द्रनखा बिनय सहु सालि ।। सरदूषण संबूक को मारि । हमें पताल से दिया निकारि २७६६।। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाधव एवं उनका पमपुराण चममता का रावण से निवेदन रावण चन्द्रनखा ने कहैं । तुझ उपाय ए कल लगे । एता सब तुझ भया उपाय । मारघा वरदूषण सा राव ।।२८३०।। गांव देस्यां तू बैठी खाह । अपण तन मन राखो ठांह ।। अंसी. कहूँ अंतहपुर जाइ । सेज्या पोहे व्याकुल काइ ॥२००१।। मंदोदरी द्वारा श्रवण से पूछना एवं रावण का उत्तर मंदोदरी पूछ कर आः । दुचिते • • 'ए तुम रेशि ।। रावण कहै सीता की बात । हरि लीयो वाकु इण भांति ।।२८०२।। खरदूषण संबुक कुमार । लक्षमा ने वे मारे सरि ॥ अवलोकिनी विद्या ने पूछ । वन मो बताई सगली मुह्म ।।२८०३।। मैं बाकी सीता को हरी । वाहि विछोहा कत की पडी ।। वाकं राम नाम की जाप । अत्नपाणी बिन महै कलाप ॥२८०४।। बेसी चतुर दूती जो होइ । वाकू जाय समझा कोइ ।। मो सती जो मान रति । तो मेरे जीय की मिट चित ||२८०५।। वा बिन ए जात हैं प्राण । सुध बुध मुजि गई सब स्वारा ॥ मंदोधरी मन करे बिचार । करू उपाव तो बचे भरतार ।।२८०६।। दूसो का सीता को समझाने का असफल प्रयास हुनी सुघड विचक्षण नारि । था को ततक्षा लहे हकार ।। मीता ने समझाया जाय । अन्नपाणी जो अब ही साय ।।२८०७।। गवरण तीन खंड का धपी । राम लक्ष्मण तपसी मुरगी ।। उनके कारण क्या इतना दुःख । करो भोग भुगतो मब सुख ।।२८०८।। दुती चली ग्रीवारक ठाव । सोभा देखी नंदनवन भाव ।। भले वृक्ष बेल बहु वणी । नामावली न जाये गिरणी ।।२००६।। छन्द्रलोक सम उपयन बन्या । मीना सबद प्रमोफ ताल सुन्या ।। आ मुख राम नाम का झ्यांन । ताक चित्त न प्रार्य प्रान ।।२८१०।। मृती जस रावण का गाय । करै नश्य बाजिन बजाय ॥ सौगन त न देख सिया । प्रति पतिव्रता जनक की धिया ।।२८११।। दुती दूत कर्म सब किये । सीता के का नाही हिए ।। हाव भाव दिखलाये घने । मन नहिं माने सीता तने ॥२८१२।। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ दूहा दूती फिर आई सबै किये बहुत उपचार | सतरा करतार सु, कवर डुलावा हार ।।२८१३|| चौपड रावरण की व्यकुलता रावण से दूत कहे वया सोता तो खोले नहीं नयण || अन पांणी तजि लियो संन्यास 1 ऊंचे नीचे लेत उसास ॥। २८१४।। पद्मपुराण बहुत भांति समझायी ताहि । मंत्र मंत्र कछु लागे नाहि ॥ सुगी वात रावण अकुलाइ । हाथ मसलकर बहु पछाइ ॥१२८१५|| षिण बाहर बिण भीतर जाइ । ता के चित्त कछु न सुहाइ ॥ भ्रम्या चित्त सब सुध वीसरी । चिना मिटे न एक घरी ॥२६१६ । भभीषरण व्यास मंत्री ते डाय | बंटि मतो इं भांति उपा! मस्त्रियों द्वारा विचार रावण क्या ले विभल हुयो । वाको कछु भेद न पाइयो ।।२८ १७ ।। सुभन मंत्र मंत्री इम कहै। खरपा के सोग में रहे || इह आश्चर्य विचारं खरा । बारह वर संबुक तप करा ।। २८१८ ।। सूर्यहास खडग तब लाया । लक्ष्मण नै पल ही में गया || वे दोन्यु थे मेरी वह अँसा मारय छिन मांहि ।। २५१६॥ ता कारण रावण दुख वरं । अम्मा चित्त सुधि बुधि बोस रे ।। पंचमुख दूजा मंत्री कहै बैन । गवा को इस विश्व नहीं चैन || २०२॥ लक्षंमरण एक खरदूषण दल घरां। उन तो सब सेन्या न हन्यां || खरदूषण मार्या संबूक । तातें होइ रह्या है मूक ।। २८२१ ।। सह श्रामती तीजी मंतरी । उनतो समभि बात कही खरी || यश्वग्रीय प्रतिनारायण हुआ । सुप्रतिष्ठ नारायण ने ष्यो किया ।। २६२२ ॥ श्रत्र अह लक्ष्मण है प्रति बली । खरदूषण की सेन्यां दली ॥ मार्क सेन्यां जुष्टत न दार रावण के मन इस विचार ३२८२३|| । चांचा मंत्री बोलं विनयवंत वह तो रामचंद्र सु मिल्या उसका मित्र बली हनुमान । रामचन्द्र सों मिलि है मन || तो लंका टूट हि घडी । ऐसी बात चित्त में घरी २८२५॥ विराधित विद्याधर बलवंत || वाका हित सुग्रीव सों मिल्या ।। २८२४ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समानंद एवं उनका पद्मपुराण सुग्रीच राज भ्रष्ट जो कर । लंका परि हथनांला घरं ।। सूर सुभट रा चिटु पोर । सुग्रीव गज छुडायो ठोर ।।२८२६।। विद्याधर इक किवंदपुर गयो । तारा राणी सुपासक्त भयो । मुग्रीन दियो देस ते कादि । सूरज के सुत चिंता बाढि ।।२८२७।। बहुत सोच दुहं धां वणी, निसनासर यह ध्यान 1॥ रामचंद्र सीता धरणी, दणै कहा प्रब प्राणि ॥२८२८॥ इति श्री पद्मपुराणे माया पुकार विधानक ४१ विधायक चौपई राम सुग्रीव मिलन किपंध नगर पूरज रम भूप । ताको पुत्र सुग्रीव स्वरूप ।। मारा राणी ताक पटवणी । नगद पुत्र बन्न सोभा घगी ।।२८२६।। मुग्रीन दंडक घन माहि प्राय । देखी लोथ पड़ी तिरण ठाय ।। बटोही पूछ सुप्यो सब भेद । भनी सोच मन में अखेद ।।२८३७।। मेरे मन इच्छा थी और । खरदूषण झुझ्या इम ठौर ।। अब हूं मना कवरण सू' करू । राबरण की सरणागति परू 11२८३१।। बहुरि विचार कर सुग्रीव । जो मोकू बांध दस ग्रीव ।। रामचंद्र सों जाकर मिलु । तो मैं राज लहूं निरमलू ।।२८३२।। सात क्षोहणी दन्त सुग्रीन के संग । जाके भयो राज में भंग ।। राम लक्षमण पं गयी सुग्रीन । करि डंडोत नवाई ग्रीव ।।२८३३।। मलिन कप सुग्रीव कू देखि । पूछ रघुपति ताहि विशेष ।। राम के द्वारा सुप्रोष के सम्बन्ध जानकारी पाना विराधित सूपूछयो विरतांत । सुग्रीव दुखित है सो कहि भांति ।।२८ ३४।। विराधिस वचन कह समझाय 1 किषधपुर नगगे का राव ।। मायारूपी विद्याधर एवा नाय । सुग्रीवरूप अंतहपुर जाय ।।२८३५।। तारा राणी कर विचार । इह तो है प्रवरं प्रणुहार ।। किंकर तब ही लिए बुलाय । कही बैग सुग्रीव पै जाइ ।। २८३६।। वन क्रीडा कू भूपति गयो । मेरे मन एह संसय भयो ।। किकर दोश्या वनह मझार । दुचिता देख्यो भूप तिरण बार ॥२८३७।। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. पपपुरात सोचं नृप किकर कूदेखि ! अंगद गया मेर दक्षण विसेष । वाकू लागं कछु इक बार । तो इहै माया इस विचार ॥२८३८।। कै मन कुवर भयो वैराग । दिष्या सेहे मह कुत्याग । के तारा राणी दुख दिया । यह कारण हूं दुश्चिता भया ।।२८३६॥ पहुंच्या किंकर विनती करी । प्रभू चलो उठि या ही घडी ।। एक अचंभा देख्या ग्राज । तुम सूरत कोई पायो राज ।। २८४७11 अंतहपुरी कियो परवेस । राणी तुमसौं किया सुंदेस । राजा अायो नगर मझार । दरवाने रोक्या तिणवार ॥२८४११॥ भटक बचन मुख सेती है । राजा घस्या तिहां यह लह ।। मपणी सूरत देश्या और । दोनुभूप करें तिहां सोर ।।२८४२॥ मंत्री सोग गर ! गट प्रत रार पद दिया । वे दोन्यु नप दिया निकाल । बाढी मन में चिता जाल ।।२८४३३। जब लग समझ पड़े कछु नहीं । तब लग राज तुमारसही ।। विराधित दुजाइ हणमंत । उनै न पाया इनका मंत ॥२८४४।। ए दोन्यु एक उणिहार । इनका न्याय नही निरधार ॥ राम द्वारा सुप्रीम को राबवेना रामचंद्र की किपा मई । सुग्रीव भूष को उपमा दई ।।२८४५॥ तुमारे दुसमन को मारी ठौर । अपणो कीम्यो राज बहोरि । जो न सुधारों ठेरा काज ! तो मैं दिष्या लेस्यु प्राजि ॥२८४६।। धिग घिन इरण संसारी गैत । ता कारण ऐसी विपरीत ॥ जसा दुःख तुझं तसा मोहि । हूं अब देस माध यो लोहि ।।२८४७11 तू भी करो हमारा काम । सीतां सुरगानो ठाम ॥ कहै सुग्रीव सात दिन माहि । बाकी मृधि पहुंचाऊं पाहि १२८४८ ।। सात दिवस में जो मोहि काम न करों । तो हूं अगनि माहि जल मई ।। भेज्यो दूत विट सुग्रीव पाम । बहे चढ़ि पाया जुध की प्रास ।। २०४६ ।। दोनु तरफ वारण पुष भया । सुग्रीव गक्ष मारि घर गया । निर्भयवंत ते गया अडोल । ह्यो सुग्रीव त्या फिर बोल ॥२५॥ रामपास इक दूत पठाइ । मेरी मदद करो जो प्राय ।। सुग्रीव की विजय उन तो मारि किये चकचूर । मो सू जुध भया भरपूर ॥२८५१।। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाव एवं उनका पद्मपुराण रामचंद्र सेना बहु जोडि । विट सुग्रीत्र परि दोनी दोड ॥ afa दोष नख श्राइ | बाजा मारू सबै बजाइ ११२८५२ ।। । दोन्यू छोडे विद्या वांण । बहुलां का उड़ गये परां रामचंद्र भय करें न गात । विट सुग्रीव लडे इस भ२८५३९९ सुग्रीव राज पायो फिर देश बहुत आनंद सुख लह्यो नरेस || रामचन्द्र का महोछेक किया । तेरह कन्या भेट ल्याइया २२५५४।। सुप्रीव द्वारा तेरह कन्याओ को भेंट में बेना चन्द्राभान हुदा शाहिरी को प्रतधरा नाम चडपी श्रीकांति सुंदरवती चन्द्रसम क्रान्ति ।। २८५५॥ मनोबाहनी च्यारू सिरी । मदनोत्सवा गुणवंती खरी ॥ पदमावती निवती बहुरूप । गुण लाक्ष्य प्रति दिसं अनूप || २६५६ ।। पुग्य संजोग मिली ए नारि । रूप लक्षण गुण अगम अपार || रामचंद्र कुं करि इंडोत । सगलां विनती करी बहोत || २८५७।। २७१ देस देस के आये राय । कोई नही हम तुष्टं श्राइ ॥ तुमारी सेवा हम करि हें भली । बहुत भांति होसी मन रसी || २८५८ ।। श्री रामचंद्र पुनवंत घरम श्रवतार हैं । पुन्य गुण बल रूप लह्यो भरणपार है ।। कनक वरण कामिनी के मन चाव है । हरी जु सीता नारि असुभ पर भाव है ।। २८५६ ।। इति श्री पद्मपुराणे विट सुप्रीय विधानक ४२ विधानक चौप कन्याओं के हाव भाव ताल मृदंग बजा दी || नो तन तान से चार वरं ।। २८६० ।। अधिक सोच सीता को नित्य ॥ कन्या सकल परम परवीण कई गायें कई नृत्य जु करें। रामचन्द्र का डुल्या न चित्त कांनी हाव भाव बहु किया राम लक्ष्मण बोले ति बार । वन के कछु न आई हिया ।। २६६१ ।। सुग्रीव अपतु काज संवार ।। परी सुख की मानें रुचि । सीतों का ऋतु करें न सोच ।। २६६२ ।। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ पपपुराण राम लानर किराजपुर जाई : सुप्रोम में आत कही समझाइ ।। सुग्रीव प्राय चरण कू' नया । प्रमुजी मोह रूपर कीजे दया ।।२८६३ः। प्रस सीसा सुधि ल्याऊ नोहि । तब मैं करूं तुमारी सेत्र ।। रामचंद्र मुग्रीव सू काहैं । इह मंमय मेरे मन रहै ॥२८६४।। मोह फंद में बिसर मयो सूत्र । प्रन में प्रसी थापु बुधि ।। द्वारा माता प्राप्ति की कथा ज्यौं अक्षदत्त नै माता लही । तारा इस मुनिवर ने कही ।।२८६५।। जक्षदस किम पाई माइ । ते विरतांत कहो समझाई ।। अंजन नगर भूप तिहां यश । गजलदे नारि उनम पक्ष ।।२८६६।. यशदत्त वेस्मा के ग्रेह । देव कौतिग धरै सनेह ।। दमंत्रवती ताकै निज बसे । जक्षदत्त-तासूनित हंग ॥२८६७।। तारायण मुनिवर यह देख । जक्षदत्त समझाया प्रेष ।। इह तो तुझ माता परत । कहा प्रग्यांन मया दत्तदक्ष २०६८।। कुवर भणं कैसे इह मात । व्योरा सुभाषो ते बात ।। मुनिवर कहैं मृतकक्सी देस । कनक महाबन सुण उपदेम ।।२६६॥ धरणी नाम तास की नारि । घनदत्त पुष लियो अवतार ।। दमंत्रवती व्याही प्रस्तरी । रूप लक्षण सों सोम खरी ।।२८७०।। क्नदत्त बाल्यो लाद जिहाज । दमंत्रचती ने सौंपी लाज ॥ रत्नकयल दे तिसको गया । दमश्यती सुग्रम स्थित भया ।।२८७१।। सासू सुसर दई निकाल । उत्पलका संग दीनी नारि ।। रोवत परली साह की बहु । कोप न मैठन देव कहूं ॥२८७२।। विणजार संगि दुख सौं जाई । बनफल कबहु भोजन खाइ । उत्पल दासी भयंगम उसी । देह छोडि जम मंदिर पसी ।।२८७३।। रही अकेली दुसित घणी । असुभ कर्म ते प्रेसी वणी ।। भयो पुत्र प्रति चिंता करी । में तो सुस अनम्यौ इस घड़ी ।।२८७४।। जे रातो पालू किह भांति । रनकवल में लपेटी राति ।। जमराय को दीया पूत । जलदत्त नाम संयुत्त ।।२८७५१॥ मंत्रवती को दीया दाम । वह तो रहे वेस्यां निज ठाम ।। जे तेरै मन प्राव नहीं । रत्नकवल गांठ कीडी में सही ॥२८७६।। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचं एवं उनका पद्मपुराण २७३ जनदत्त मुरिण दोडियो तुरंत । रत्नकवल गठडी में बहुमंत ।। माता सूपूछया सब भेद । मनतें कुमति भई सब छेद ।।२८७७।। धनदत्त सेती भिलियो कुमार | भयो भानंद सकल परवार ।। इगा विध तुम कौं सीता मिलं । सूर मुभट बुलाइयो भले ।।२८७८।। चारों ओर सीता को खोज दोप प्रवाई में सब ठौर । बेगां जाइ करो तुम दौर ।। जहां सीतां देखो तुम जाइ । तिहां की खबर बेगा धो ग्राम ।।२८७६।। देम देस को नरपति गए । सुग्रीव बहुरि चरण को नए ।। प्रमुजी मोक्पाग्या होइ । मैं भी थानक सोषु कोइ ॥२८८०|| बैठि विमाण चल्यो सुग्रीव । काब्रु पर्वत की प्रायो सीन !! रतनजटी विद्याधर तिहां । फरहर्ना देख्या मेजा विहां ॥२८१ इह किसकी शुजा फरहराइ । उतर भुमि तिहां देखें प्राइ । रतनजदी हरप्या तसु देखि । इह कोई है दुरजन भेष २८८२।। रतनजटी और सुग्रीक की भेंट सुग्रीन भूप पूछ रतनजटी । ते कहि रावण सीता हरी॥ मैं बहु तेरा किया उपाय । ता ते कोई न लागी डाव ।।२८५३।। गम का नाम जपं श्री सिया । दुखित बहुत जनक की धिया ।। सुनि सुग्रीव रतनजटी ल्याइया । बंठि विमारण रराम दिग ग्राश्या ।।२८८४।। रतमजटी द्वारा संका का परिचय रतनजटी कीयो नमस्कार । बान मकल भापी गिरधार ।। . राक्षसपुर इस सायर मांहि । सातस जोजन चौडाइ जाहि ।।२८ ५।। एक बीस जोजन की लंबाई । त्रिकुटाचल नव जोजन चौडाद ।। पचास जीजन की उंचाइ । वा सम गढ नाही किण ठ ।।२८८६।। तीस जोजन के लंका फेर। रावण कुभकरण ज्युमेर !! भभीषण से दुरजन सब हरें । इन्द्रजीत मेघनाद बल परें ।।२८५७।। पंद्रहस क्षोहणी दल संग । इंद्रादिक कियो मान मग ॥ यस नगर बस ता पास । मुर्वा सुमेरपुर महिलादपुर बास ॥२८॥ जोधपुर हरिपुर सागरपुरी । मधासुर तिहा नगरी ।। रामण सम भूपति कोई नाहि । ऐसे वपन सुण नरनाह ॥२८८६।। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण भइसी पईज कहा तुम करो । सीता तणो सोग परिहो।। भवर विधाहो भुगतो भोग । कहा करो तुम इतना सोग ।।२८६७|| राम कहँ सीता विन प्रौर । कस् नारि प्राणन को ठौर ।। रायणक भेजू जमलोक । रहै सदा लंका में सोक ।।२८६१।। जांबुनव मंत्री का कचन जांबुनद मंत्री कहै चयन । अपने मन राखो चन ।। सीता किसर्प मारणी जाइ । रवि समान तपै रावण राय ।।२८६२।। जैसे बंदर मोर के काज । व्याकुल भयो छोडि सब राज ।। मैसे तुम भरमहो राम I जिह भरम्या का सर न काम ||२८६३।। बंबर मोर की कथा पूछ राम बंदर की बात । उसका मोर गया किंह भांति ।। बना नंदी चैनपुर नगर । सर्व रुचि रहे नांभी सगर ।।२८६४|| गुण पूरणा बाकी अस्तरी । विनमदत्त जनम्या सुभ घडी ।। ग्रह लछमी परणाई नारि । जोवन बैस सुख भोग मझार ॥२८६५।। विसालभूत द्विज सों बहु प्रीत । ग्रहलछमी बीमारी विपीन | द्विन सौ कही विनयदस कुमार । हम तुम सुख मुगत संसाः ।।२८६६।। बाहाए मन में पाप विचार । विनयदत्त को लेगमा प्ररण मझार । बोधि नेज सौं ऊंची डारि । फिर आयो विनयदत्त के द्वार ॥२८६७।। ग्रह लछमी जणाई सार । मैं मारया तेरा भरतार || दोन्यू खुसी हुअा मन बीच । विसालभूत कीया कर्म नीच ॥२८६८॥ दया न समझ्या मारपो जजमान । जिसप लेता नित उठि दान ।। छुदर सेठ का वन में गया । वाहि तर तलि ठाढा भया ।।२८१६।। ऊंचे कू देख्या विनयदत्त । चच्या डाल परि दया निमित्त । खोलि दिया सर्ब रुचि का पत्त । वा पहुंचाया घर जुत्त ।।२६०० ।। ब्राह्मण सुत भाज्या तजि देस । सेट परे नपाई बट्ट भेस ।। नउतन जनम पुत्र का भया । दर के हाथ सुमोर उडि गया ।।२६०१॥ राजकुमर में पकरयो मोर । छुपर कर पुर में प्रति सोर ।। विनयरा प्रतै हुंदर इम फहै । मो सेती तुझ प्राण ए रहै ।।२९० २१५ मेरा मोर कुवर ने ग्रह्मा । अब वह तेरा मान हा॥ मेरा मोर छुद्धाय दे मो हाय ! मैं तो भषा किया तुम साथ ।।२६०३॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचन्द एवं उनका पपपुराण वह तो भपति यह वाण्यां हुँदर । कैसे मोर लहै वह भगर ।। विनयदत्त बोले तिण बार । हुं वाण्या इह राजकुमार ||२६०४।। कसे कहूं राज मों जाइ । अउर मोर लेह मन ल्याइ ॥ वह तो मोर फिरणे का नहीं। एह बात हम तुझ सों कही ।।२६०५।। पैसा कवरण बली है सूर । रावणस्यो सरभर कर पूर ।। लक्ष्मण का क्रोधित होकर निश्चय प्रकट करना इतनी सुशि लखमण कोपाइ । जो रावण में वल अधिकाय ॥२६०६॥ तो क्यू उन चोरी न ल । वा कुबुद्धि मरण की भई ।। कायर डर नपुसक लोग । चोर अन्याई मार्ने दुख सोफ ।।२९०७॥ क्षत्री डर मरने का करें। निपचय जाय नरक में पडे ॥ अब लो रावरा पा बलवंत । दन मैं जब लग बलवंत ॥२६०८।। केहरि की नब सुण हंकार । निरमद हूँ नासै तिरण वार ।। लखमण कहे इण परि उपदेस । राजसभा में सुण्यो नरेस ।।२६०६।। कुसुमपुर नग्रप्रभा स है। अभुमा त्रिय निरिम सुख लहै ।। प्रात्मसंशि ताक सुत भया । इक दिन वन क्रीड़ा को गया ॥२१॥ प्रथमसेन का दरसन पाय । सेव करी बहु मन बघ काइ । उन तपसी चुरा इक दिया । सर्व गुरणों का परचा किया ।। २६१११॥ राजा की राणी अहि डसी । गारुड गुणी जुड़े मुरण बसी ।। औषध जतन लग नहि काइ । प्रातम शक्ति राजा पंजाइ ।।२६१२।। नुरा घोह लिया पंच नाम । इसी थी ज्याचेती नृप भाम ॥ राणी का विष उतरा सुण्या । राय तणा मन रहस्या परणां ॥२६१३।। प्रात्मशक्ति को दिया बहु साज । बहुत विभव पर माधो राज ।। कुछ लछमी गडी थी कहां । खोदण गया प्रारमसक्ति तिहां ॥२६१४॥ मजगर लेकरि गया पाताल । देखि षोह तिहाँ पस्या मुवास ।। अजगर ने मारी फौंकार । उठे सिला मारचा तिह वार ।।२९१५।। लिया द्रव्य सर्ष उन जाय । हम सीता छोई किण भाय ।। मैसें उन प्रजगर • इण्या । तैसे हम मारेंगे रावणा ॥२६१६।। मंका करि हैं बकचूर । हम प्रागै काहा राषण सूर । सकल भूपती गोसे वयण । सुणों प्रभू राखो चित्त चन ।।२६१७।। वीप पातकी अनंसवीर्य जिनेस । रावण ने पूछे बहु मेस ।। तीन पंजीते सब देस । भाग्या मान सकस नरेस ॥२९१८|| Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ पद्मपुराण अषण को मृत्यु के सम्बन्ध में भविश्यवारणी मेरी भाव कवण है हाथ । ब्योरा सू कहिए जिन नाथ ।। श्री भगवंत की वांनी हुई । कोटि सिला उठाव जो कोई । २६१६।। वाम करि है तेरी मीच । निसचे जागि बात मन बीच ।। कमन द्वारा शिला उठाना जो तुम सिला उठावो जाइ । तो राबण कू मारो भाइ ।।२६२० । लखमण कहै उठाऊं सिला । तब मो पौरिष देखा भला ।। सुग्रीव साथ नुपति सब चले । साजि बिमरिण सौंज मौ भले ।। २६२१।। राम लक्षमण विमारण परि बैठि । पहुचे कोटि सिला के हैठि ।। परम निसा गई सिला के पासि । तिहा होड भिवपुर की प्रासि ।।२९२२।। नमसकार करि बारंबार । माठ मिध गुण पढे संभार || बहुत विनय सों पूज चिनेम । मुनिसुव्रत पूनिया नरेस ॥२६२३।। लक्ष्मण पवधा पंच प्रभु नाम । मिला उठाई लाई तिम काम ।। जोजन एक सिला उच्चंत । मठ जोयरण चकली दीपंत ॥२६२४॥ दश जोजन की हैं लंबाइ । लक्षमण ततक्षरण लई उठाइ ।। जंघा लग पहूंचाई मान । बहुर परी तब वाही श्रान 1॥२६२५।। जज देव ददभी भई । ए लक्षमण नारायण मई ।। नल रु नील अन मुग्रीव । सब में मता मैं गाही नींव ।।२६३६।। बहरि नरेन्द्र कई प. बन्नी । कथा नारायण की तब चली। सात नारायण ग्रागै हुमा । तिण थी प्रतिनारायण मुवा ।। २६२७।। केई कहै इन उठाई सिला । रावण कैलास उठाया भला ।। कोई कहे रावण विद्या सहाइ । हम लहै विद्या लेड उचाई ॥२६२८॥ इन उठाई देही के बल । लक्षमण महाबली भू मटन ।। कोऊ कहै ए दोनू भात । रावण का दल का न जात ।।२६२६।। ए उसको जीत किस भांत । अंसा करो दोनू घर सात ।। रामचंद्र पं भूपति गए । राम कह कीले किम पए ।।२९३०।। गि बलो लंका परि प्रबं । रावण मारि दाहों गढ सबै ।। कह भूप सुणो त्रिभुवन राय । जब वह सीता देइ पठाइ ॥२६३११! तो कीजे काहे कू जुध । हम वाकू समझा तुष ।। भभीषण ज्ञानवंत परमेष्ट । दयावंत है समाकित द्रष्ट ।।२६३२।। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचं एवं उनका पद्मपुराण तासू कही बात समझाइ हो कहै है रावण नैं जाइ ॥ रावणा के सीलव्रत की टेक । श्ररण बांछित किम तजे विवेक ।। २६३३ ।। सिमा तुम्हारी देगा प्राणि | भेजो दूत कोई चतुर सुजां ॥ पवनपुत्र बली हणमंत सूरवीर महाबल श्रनन्त ।। २६३४ ।। जो वह जाए तो गाने 'या। श्री पंगा ! लिपा पत्र विवरां सूं भला । द्रुत लेई ततक्षप चला ।। २६३५।। इति श्री पद्मपुराणे लक्षमण कोटि सिला उतक्ष पा विधानकं ४३ व विधानक हा रामचंद्र लक्षमरण सबल परदुख मंजया हार ॥ कोडसिला उठाइ करि, प्रगट भए संसार ।। २९३६ ॥ चौपाई श्रीपुर नगर राना हुनुमान । सर्व सुखी परजा तिरण ठांम ॥ नगर सीम कछु जाय न गिट्टी । स्वर्गपुरी की महिमा बली ।।२६३७ ।। अनंग कुसमा खरदूपरंग पुत्री । दक्षिण मांति फुरकै खरी ॥ लंका से व्रत का ग्रागमन २७७ नरमंद दूत लंका तैं आइ । संबुक दूषन की कहे समझाय ॥२२८॥ रामचंद्र लक्ष्मण दोउ वीर सीता नाम त्रिया उन तीर 1 अक्षमता ने मारा संबूक । खडवूषण भी हयां अचूक || २६६६ ॥ । सेना जुड़ी नरपति घने । नांमावली कहां लग मिले || ऐसी बात अंतहपुर सुगी रोष हणुमांन सब दूंगी || २६४० ।। अनंग कुसमा सब परिवार भई सुरखा खाय पछाड | पोर्ट हियोर खोस फेस हा हा कार करे बहु भेस ।। २६४१ || पी बजवा अंन कोकिला | अंमा सबद उपों का नीकला || वैसे भीमगोचरी करण हा विष प्रगट भए भर जौरा ।। २६४२ ।। खडदूषण सा मारया राय करे सोच प्रति दुखित मयाय ॥ श्रीभूत सुग्रीव का दूत : ग्यानवंस प्रतिबल संजुत || २६४३|| कवा काज प्राये तुम दूत। सा कारिज करण बहुत ॥ हनुमान को करि नमस्कार । पवनपुत बोले ति बार | ।। २६४४|| Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ पद्मपुराण करि जोडि करि बोले दूत । निरभय वचन कहै अदभूत || किषंदपुर का राजा सुग्रीव माया रूपी विट् सुग्रीव || २६४५३१ रान लिया सुग्रीव का छीन । सुग्रीव आप किरिया आधीन ।। राम लक्षमण भूमिगोबरी । ति जाइ वीरगती करी ।। २६४६ ।। रामचंद्र का दरसन पाय तिण सु भेद कह्यो समभाइ ।' मेरो दु:ख दूरि करो तुम दूरि । कांम करो करुणां भरि पूर ।। २३४७।। बिट सुग्रीव दूत दोउ जुटे। बहुत सुभट दोऊ घां कटे ॥ रामचन्द्र ने मारया चोर । सुग्रीव ने दीया राज बहोरि ।। २६४८ ॥ इह सुरिण हनुमान श्रानंद । धनि धनि पुरुष राजा रामचंद्र || पर दुख भंजन हैं श्रीराम । कोटिसिला उठाई लक्ष्मण ताम ।। २६४६॥ F उनकी सीता किया ही हरो | तिए थी खबर तुम कोई नीकली ॥ हनुमान सुरिंग प्रस्तुति करें। कुल कलंक सुग्रीव के हरे ।।२५।। 1 मंडला सुग्रीव की धिया । पिता राज सुणि हरवा हीया || आवरमान दूत को दिया । उचित दोन बंदीजन लीया ।। २६५१|| सुगात दुःख समा बुझि गया । बोजा बाज बधावा भया ।। हनुमान द्वारा राम के दर्शन करना हनुमान सेन्यां ले वरणी । बैठि विमान सांभा प्रति वणी ।। २६५२।। घोडे हस्ती रथ सुखपाल | लागे कनक रतन बहु लाल || राम लक्ष्मा दरबन निमित्त । किषिधपुर प्राये हनुमंत ।। २३५३|| कोडि सिला का सुन्या बखान । अनंतवोर्य का वचन प्रमाण || ये गवस का करि हैं नास हूँ सेवा करिहं उग पासि ।। २६५४।२ किवंदपुर की समराई गली सुग्रीव भूप माने अति रली || घरि घरि बोधी बंदरवाल । घर घर छाये हाट बाजार ||२६५५ ।। बहुत लोग लगवाणी चले । जाय करि हनुमान सु मिले || हस्ती पर हनुमान कुमार । सेन्मां चली नगर मकार ।।२६५६ ॥ सिघासरण बैठे रामचन्द्र । लक्षमरण पासि सो जिमचंद सुग्रीव नल नील बैठे तिण पासि । विराधित मंगद अंग सुवास ।। २९५७॥ बहुत नरेन्द्र सभा में खडे । सूर सुभट महागुरण भरे ॥ छत्र वर रघुपति सिर करे । वदनही जोति सोभा प्रति टरें ।। २६५६ ।। स्वाम केस नोषण प्रति वरणे । नासा कपोल विराजे घर || रक्त उष्ट्रदंत छवि कुंद हीरा जोति काफी बुंद ||२५|| Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुति सभा एवं उनका पुनग हया कंठ मुजा सोभंत । उदर कमर केद्रि की अंत ॥ कदन्नी जंत्र कमल से च । नख की जोति जैसी ससि करणं ।।२६६०॥ रवि प्रताप शशि की ज्योति । हनुमान को दर्शन होत ॥ राम का हनुमान को गले लगाना चरण कमल बंदे हणुमन्त । रामचंद्र भए कृपावंत ।।२६६१।। कंट लगाइ सनमुख मठाइ आदरि मनोहारि बहु भाय ॥ E पवनपुत्र द्वारा प्रस्तुति २७६ I राम नांम त्रिभुवन आधार ।। २६६३॥ पवन पूत बोले कर जोडि । प्रभू तुम गुन का नावे वोरि ।। २६६२ ।। जैसे रतन समुद्र में घने ते गुरण जाय न किस पैंगिणें || तुमारे गुण प्रभू अगम अपार तुम जीया बरबर मलेछ । बकाव सिंघोदर राजा ने जोत । पिता वचन दंडकवन में लह्या सूर्यहास । संधुक खडदूषण कीए नास ॥ प्रति सुग्रीव विद्या बेताल | तुम कू देषि भाज्या तत्काळ १४२६६५।१ परपंची कु मारमा ठोर । सुग्रीव राज दीया बहोर || किरण ही पास न हुवो न्याव । सतक्षय कीयो तुम उपाय ।।२६६६ ।। धनुष को खँचि ॥। की पाली रीत ।। २६६४ ।। - कहां लो धरणों तुमारा उपगार । इह जस कीरत चले संसार || बेद पुराण कथा यह चले। सीता को आरणों को मिले ।। २६६७ ॥ सफल जनम मेरो सब सही हणुमान बात एकही ॥ रावण परि संका को जाउं सीता को आप इस ठांव | २६६८ ।। रामचन्द्र बोले जगदीश जे तुम वचन मानें दशशीश || तो सीता मां हम पास चोरी सुं श्राभ्यां उपहास ।। २९६६ रावण चोरी सृ ले मया । तुम चोरे तो प्रपयस नया ॥ सीता पाणी सब सज्या वाकु योनुं कुल की लज्या ॥२७०॥ इम बिन यह छोगी प्राण । इह मूंदडी दीज्यो सहिनां || कहियो मन रखियो निषचंत । किबंधपुर राम लक्ष्मण निवांत ।। २६७१ ॥ पाणी वाकु खबाज्यो बाद। निरभय मम राखियो बीरपाइ ॥ जांबुनंद बोल्या अंतरी । उन इक बुधि बताई खरी ॥ २१७२ ॥ रावण लंकापति बलवंत । जिसकी प्रागन्यां तीन बंड ॥ कुंभकर भीषण वीर इन्द्रजीत मेघनाद प्रति घर ।।२६७३।१ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० पपुराम लंका के रस्त्र वाले घने । पंपी जारण न पाच किणे ।। तुम इण विध जाऊं पर छन्न । लख न कोई इसे जतन ।।२९७४|| तुम हो एक वहै हैं घणे । तिनसुधिगाडयां नहीं वरणे ।। मनुष जनम पावना कठिन । देख सोच के कीज्यो गमन ।। २६५५।। हनुमान जब चनें विमाण । त्रिकुटाचल को कियो पयान ।। रघुपति गले लाइक मिल्या । नक्ष्मण सादर कीने भल्या ।।२९७६|| सीव लगै भूपनि सब प्राइ । पहुंचाए तिहां हणुवंत राय ।। हणुमान सुग्रीव मु कहै । राजा सब किषिदपुर रहैं ।। २६७।। मबरै लोग बुनाबो सूर । सेन्या जोडो दल भरपूर ।। माग चले रघुपति के काम । मनमें सुमन सलाम ||२६७८॥ डिल्ल रामचंद्र जगदीसर परमपुनीत हे ।। भव भव की हैं पुन्य धर्म सों प्रीत है । सूर सुभट सब प्राइ मिले बच्च पती ।। राबरण भया सुन हीन राम आगी रती ।२६७६।। चौपई प्रगट्यो पुनि मिलइ सब सुख । जनम जनम का मूल दुःख ।। सज्जन मित्र मिल बह लोग । मनबंछित सब मुगतै भोग ।।२६८०॥ ताते पुनि करो सब कोइ । पुत्र कलित्र लक्ष्मी बहु होइ ॥ रामचंद्र का मुणं पुराण | भव भव पात्र ते कल्याण ॥२६८१।। दहा चद्धि विमाण हणुमंत, चल्यो राम के काज । भूर सुभट अति ही बली, रूपयंत सव साज ।।२६८२।। इति श्री पद्मपुराणे हनुमान संकर प्रस्थान विधान ४४ वां विधानक चौपई महेन्द्रपुर नगर बढि विमाण देखे बहु देश । दंती पर्वत महेन्द्र नरेस ।। महेन्द्रपुर की शोमा भति वेष । भया मोह मन प्रति परेप ।।२६८३।। इस नगरी मेरा ननसाल । गर्भ समै मा दई निकाल ।। मेरी माता कुं दुख धीमा । परजक गुफा में मेरा भव भया ।।२६८२॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण अमृत गुपति मुनि देख्या सही। अंजनी सू ́ सब पिछली कही ।। इह राजा महेन्द्रसेन 1 मुझ माता कू देता नहीं चैन ॥२६८५|| तो क्यूं होता इतना दुख रतन खुल तँ पाया सुख || अब मैं दा सो लेहूं बेर । महेन्द्रपुर कू मारू पेर ।। २६८६ ।। हनुमान द्वारा महेन्द्र सेन से बदला लेना बाजे मारु चिक्यो महेन्द्रसेन । सूर सुभट सूं बोलं वया ॥ करण देस का श्रध्मा राइ | सेना सजो युध के भाय ।। २६८७।। दुधा छूटं विद्या बारण प्रसन्नकीत्ति भागें बलवांन ॥ भया जुध प्रनीति को बांधि । महेन्द्रसेन कोप्या सिर सांषि ।1२८८ ग्र असदन हार | धाए सनमुख करि मारामार ॥ पर्वत सिला विरख उखारि । पर्ड की हनुमंत परि मार ।।२१८६ | तब हनुमंत विद्या संभारि । वानर बहुत भए विकराल || जा कू पकड़े लुचं देह । कबहु उठाइ सिला कु लेह || २६६०|| जाकू मारें होइ संहार । तोडया र महेन्द्र तिरए बार ॥ कूद चढे हणवंत विमाण । मारं मुकी क्रोध मग प्रांण ॥२६६१॥ पुरुषा सम नाना कु जारिए || | पुकारें सकल लोक जे साथ ११२६६२ ॥ अंजनी सुत इह है हनुसनि ।। हनुमान तब राखे कारण उस ऊपर तू उठाव हाथ दुहिता कु मार अभ्यांत २८१ परस्पर मिलन I इतनी सुरात मिल्या गल ल्याइ । जैसा सुखं था तिसा दिखाइ ।। २६६३॥ कुल मंडण तू उपज्या पूत । सकल गुणां लक्षण संजुक्त ॥ प्रसकीति दिया तय छोडि । मिलकें प्रस्तुति करी बहोड ।। २६६४।। पुर मैं प्राणि महोछा करें | सब विरतात सुरिण मन में घरं ॥ मोकू हे कारज उत्ताल | तुम किषंदपुर जाज्यों दरहाल ।।२१६५ ।। रामचंद के सेवजं पाय । सेना ले वेगां तुम जाय । महेन्द्रसेन प्रसकीति चले । श्रीपुर जाइ मंजनी सूं मिले ।।२१६६।। बहुत दिया लक्ष्मी ने चीर । कथा कही सुख हुन सरीर ।। हनुमान लंका कूटं गया हम किमंदपुर कुं गम किया ।। २६६७।। रामचंद्र लक्ष्मण में जांय । सुणी सुरत सुग्रीव नरनाह ॥ महेन्द्रसेन श्राइया नरेस | चादर बहुत दिया श्रानंद २६६८। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापुराण महा भया मिलाप कुटव सू, महेन्द्रसेन नरेन्द्र ।। हनुमान पर अंजनी, माया प्रति प्रानन्द्र ॥२६६६।। इति भी पमपुराणे महेन्द्रदोहिता मिलान विधानक ४५ वो विधानक चौपई दधिमुख दीप मातरा देस । मंदिर स्वेत शोभा बहु भेस ।। वन उपवन में बावरी कूप । महा रमणीक सुहावै रूप ॥३०००।। मंतर वन सुभ थांनक खगे। अजगर स्यंघ देख मन डरो ॥ तिहां दोइ मुनिवर तप करें। प्रातम ध्यान सु निश्चघ घरै ॥३.०१।। कायात्रों द्वारा तपस्या कन्यां तीन फिरें तिरा ठाव । दावानल सुजल ए भाव ।। एक तप कर न डोले वित्त । चनं पसेव परीसे सहत ।। ३७०२।। नद्वारा दावानल सुझाना हनुमान कु उपजी दया । समंद्र मांहि त जल भर लिया ।। दावानल बुझाई दीयाइ । सगला तपसी लिया बचाइ ।।३००३।। उनक विद्या को सिघ भई । जाय भेक प्रदक्षिणा दई । दोई घडी में पाए फेर । मुनि दर्शन कीया तिरा बेर ।।३.०४।। हनूमान कीया नमस्कार । पूछयो कन्या का व्यवहार ॥ . तुभ सप करो कवा निमित्त । अपनी बात कही उत्पत्ति ।।३.०५।। के विवाह की भविष्यवाणी मिवादेस नृप गंधर्वसैन । जाकी कन्या बोले नयन ।। अमरवती राणी गर्भ भई । चद्ररेषा पहनी थई ।।३.०६।। भंगमाला विद्युतप्रभा तीसरी । हमारे पिता स्वयंवर विष करी ।। दस देश के नृपति प्राय । कोई न हमारी दृष्टि पडाह ।।३००७॥ मनिमगह नृप फिर गये । परियण मांहि सोच अति भए । मुनिवर क् पूछयो मो तात । ए कन्या दीजे किरण मांति ।। ३.०८।। मुनिवर बोले म्यान बिचार । विट सुग्रीव जो मार बार ।। सो होसी इएका भरतार | मुनिवर कह गए उपगार ॥३.६॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचं एवं उनका पद्मपुराण सकल देस का देख्या राय । वह है कवण तिसका मुंडं नाम || मुनि के वचन यह कुठे पडे । यह संसय परियण सब करें ।।३०१० ।। मार्क विद्याधर था। मेरे पिता सू ́ कहै समझाय ॥ मैं हूं विद्याधर बलवंत । कन्या विवाह यो मोहि तुरंत ।।३०११ ।। बासी कही जो मारे ताहि । विट सुग्रीव नाम है जाहिं ॥ सो विवाह सी इ नं न्याह । तू अपने घर के उठ जहि ॥ ३०१२ ॥ I बारह दिन हम कूं इत भए । मुनिवर कूं भ्रष्टम दिन यए ।। श्रगारक आग लगाई वन । तुमे उपाया मोटा पुन्य ।। ३०१३ || षष्ट वरष जो तपकू करें। तब इह विद्या ताकू फुरं ॥ तुम दरसन विद्या सिध भई । महापुरुष खो तुम गुण भई ||३७१४ || गधर्व सेन द्याये भूपती बंदे च देखि मुनि जती ॥ हनुमान सूं पूछा भेव । सकल बात सुशि कोनी सेव ।।३०१५॥ रामचन्द्र हन्या चिट सुग्रीव । किषंदपुर हैं समंद की सींव ॥ उनसों बाद मिलो तुम राइ | हम लंका सीता कनें जाइ ||३०१६।। राजा सुणि कियो उल्हास । ततक्षण गयो राम के पास || रामचंद्र लक्षमरण मूळे मिल्या | गंधर्व सेन बली प्रति भला ।। ३०१७ कम्यां तीनू राम कौं दई । मन की चिता सह मिट गई । यधिक उछाह भयो मनमांहि । सकल दूरि भाजी उरदाह ।। ३०१८ ।। हा मनवांछित कारज भए, तप साधे थी तीन ॥ विद्या की तिहां सिघ भई, पाय वर प्रदीप ||३०१६ || इति श्री पद्मपुराणे गंधर्वसेन लाभ विधान ४६ व विधानक चौपई २८३ हनुमान का प्रागे जाना त्रिकुटा बल गिरि ऊंचा थान । ताहि न सके उलंघ विमान || पास रही चाल्यो हनुमान । वा पर कोट देख्यो हनुराय ||३०२०।। प्रथम मंत्र मंत्री सो कहा । यह गढ कवर। सवारधा तिहां ॥ तब मंत्री बोले सुविचार | सीतां ही तब ए सवार ।। ३०२१ ।। खरदूषण मुक्या सुभ्यां । एक पुरुष सगला दल हूण्यां ॥ जब कहू ये यहां श्राचं बो तो हम दल सव परलई होइ ।। ३०२२॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ पपपुराण तार्थ माया का गढ करया । बहुत सौंज सुभट सौं भरपा ।। कोई देख सक नहीं कोट । जो कोई जोवे ता परि चोंट (३०२३॥ इसनी सुरिंग चाया हगावंत । तोडि पोलि भीतर पैसत ।। बजमुख एवं हनुमाम को वार्ता बजमुख सांभान इह वात । चत्रो को उनी रोम गात ॥३०२४।। दोनु जुध करें बहु भाइ । दोन्या माहि न कोई हटाइ ।। हावंत क्रोध चढं तिण बार । वचमुख झापा तिहां राव ।।३.२५॥ लंका सूदरी वनमष की धिया । पिता जयर सांभलि जुध किया ।। सेनां गोडि हणवंत से लई । मन में क्यार पिता को परं ।।३०२६।। छोड़े विद्या वारण अनंत । झूझे सूरबीर सामन्त ।। देख्या हनुमान का रूप । लंका सुदरी माही भूप ॥३०२७।। लंका सुन्दरी और हनुमान के मध्य प्रेम होना ऐसा रूप पुरुष नहीं क्रोइ | जैसा सु संगम अब होइ ।। उतसौं हणुमंत देखी ए नारि । हाथां सू छोडे हथियार ॥३०२८।। दोनू के रहमि मन भया । लंकासुन्दरी के विमान पे गया । दोनू के मन उपजी प्रीत । भूली सकल युध की रीत ॥३०२६॥ लंका सुदरी वारण पर लिख्या । उलटा छाण हनुमान पै नषा ।। दोन मिलिया कियो विवाह । सुख भोगवै मन उछाह ।।३०३७।। रहसरली सूपुर में जाइ । पंचइंद्री सुख भुगत काय ।। हणुमान बोले तिरा बार । हम जाड हैं ल'का मझार ।।३.३१।। रामचंद्र का करना काम । हम बिदा देख रम भाम।। लका सुन्दरी पूछ बात । सुण्यां सकल पिछला विरतांत ॥३०३२॥ लंकापति का प्रभाव कहिक लंकापति अति बली । तिण रोकी है सगली गली । तिहां देवता सके न पेठ । तुमको होइ है रावण सू भेट ।।३०३३।। पकडे तोकू' यह राखे बांधि । जे तुम चलो मता मन सांघि ।। कहे हणसंल जो रावण लरै । वा का भय हम चिस न परै ।३३०३४।। इण विध जाइ की परवस । कोई न लहै तुम्हारा भेस ॥ हनुमाह द्वारा समभाना लंकासुदरी पिता का सोग । रोवं धणी अर भया वियोग ।।३-३५।। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभा एवं रनका पपपुराण २५५ इस विष समझावै हसावंत । वाका थाई मही निमित्त ।। क्षत्री जे रण में दई पीठ । कुल कल क लागे तसु दीठ ।।३०३६॥ वा का जाणह इह विध लेग्स । ताका कबहू न करो परेष ।। समझाई ल का सुन्दरी । लिखे कर्स सों टरै न घरी ।।३०३७॥ जंशाक जमानाब सा मुन भी श्रीव ।। तुमारा था असा संयोग । पिता मरण पुत्री संभोग ।।३०३८ । अब तुम सोग करो सव दूरि । सुष भुगतो वांछित भर पूरि ।। भोग मगत सों बीती रात । राम के काम उठया परभात ।।३०३६।। पुण्य पुरुष प्रति ही पली, इक पलमें मई जीति ।। देव षेचर सुस्त्र ते लह, छह ही धरम की रीत ।। ३०४०।। इति श्री पमपुराणे लंकामुग्दरी विवाह विपानक ४७ वां विधानक चौपाई हनुमान का संका में पहुंचना सका में पहुंच्या हणमंत । भभीषण ने जारिण दयावंत ।। अंजनी मुत संदिर में गया । मादर मान बहुत तिण दिया ॥३.४१॥ विभोषण से भेंट बेर बेर पूछ कसलात । बडी बार बतलाया घात ।। कह मभीषण सुरण हणवंत । रावण कू उपनी कुमत्त ।।३०४२॥ सीता कुल्याइया चुराय । परदारा सब को खय जाय । वेस बेस हुवा अपलोक । राजनीत में दोषी होक ।।३०४३।। तीन षंड का रावण राय । खोटी मति इंण करी अन्याय ।। 4से भूप कर्म ए करें । पृथ्वी पर अपजस सिर पर ॥३०॥ सत्तम करम कर बो नीच । उसम मध्यम में क्या बीच ॥ मैं याका सेवक हनूमान । तासे में कही है भान ॥३०४५।। सीता रामचन्द्र कू' देई । इतना जस के तुम लेहु ।। विभीषण का रावण को समझामा भीषण सुणि रावण पं गया । बहुत भांनि कर समझाइया ||३०४६।। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ पचपुराण सील रतन मत खोवो वीर । सीलवंत सुख लहै सरीर ।। सीलवन की कीरत हो । सोहं न कोई ।।७।। लक्षमण खरदूषण ने मारि । सेनां सकल करी तिरण द्वार । रामचन्द्र लक्षमण दोक वीर । जान सकल जुध की भीर ।। ३०४८।। जब घे प्रागा इस ठौर । मांचंगी लंका में रोड ।। सीता देई रघु पास पठाइ । प्रथवी तणे दुःख मिट जाय ।।३.४६।। रापण का कोषित होगा इतनी मणि कोप्यो दस सीस । मेरी कवण सकै करि रीस ।। रामचंद्र से मारे घणे। इनको गिणती मा को गणे ।। ३०५० ।। मव में सीता मांगी सही। अंसा कवण पुरुष है मही ।। सीसां भेजा उन पास । लार्ज कुल हो उपहास ॥३०५११ कहा करेगा तपसी राम । मोसुजीत सके संग्राम ।। जीती है मैं सगली मही । मोकू किह का ही डर नहीं ॥३.५२।। हनुमान का वानर रूप धारण कर सीता के पास पहुंचना भभीषण कही हगवंत ने प्राय । हनुमान उठि वन में जाय ।। प्रमदा बन में बैठी घणी । फलें फूल वृक्षावली वणी ॥३०५३।। लंगूर रूप विद्या सूकरमा । सीता कू देखण तरु परि पढपा ।। वदन मलीन हंगलो छ हाथ । सुमरण जाप जप रघुनाथ ॥३०५४॥ जाकै राम नाम का ध्यान । वाफ चित्त न पाये मान । दई छाप सीता हिंग जाइ । निरषत सीता नयन उघाडि ॥३.५५॥ तज्या सोग मन भयो उलास । दूती मुख देख्यो सु प्रकास ।। जाय रावण सो विनती करी । सीता सोग तज्यो इण घडी ।। ३०५६।। दूती ने दीया बहु दान | मंदोदरी पठई सीता थान ॥ मन्दोदरी और सीता की वार्तालाप मंदोदरी प्राय सखी संजुक्त । सीता की प्रस्तुति की बहुत ॥३०५७।। सीता बोली तवं रिसाइ । हे निलम्ब मति पाप कहाइ ॥ राम तरणी सुधि पाई प्र. । मेरा सोग विसर गया सबै ।।३०५८।। भली करी ते छोटा सोग । रावण सुभुगतो सुख भोग | तुमकुं सब तै करि है बड़ी । भलां समझि से छोडी गुढी ।।३.१६|| Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समापार एवं उनका पापुराण २८७ मंदोदरी कहें छाप ते लही । वे तपसी मुवा हैं कहीं ।। घिरा ही पंछी प्रांगणी छाप । तू मन में गरमै है प्राप ।।३०६०।। काह बन में मारघा तापसी । पंछी छाप से नायो नसी ।। वाप देव मन गहे गही । कहां प्रमोध्या ताकी मही ।।३०६१।। एक नगर के वे भूपती । रावण तीन खंड का पती ।। उनका इतना करें भरम । अंसा बचन लगाया मरम ॥३०६२।। सोता सारा राम के सेवक को प्रकट होने के लिये कहना तब सीतां बोली सत बन । राम का सेवग देख्या नयन । कोई हो प्रगटयो प्राय । मेरे मन को संसय जाय ।।३.६३॥ हनुमान का सामने आना हणुमान प्रगटमा सिरा याद । रही सहेली दृष्टि लगाय ।। के इह सुर के खेचर मूप । के इह कामदेव का रूप ॥३-६४॥ सीता कू किया नमस्कार । प्रस्तुति बहुत करी तिण वार ।। नि धनि हो तुम सीता मात । ग्यारह दिन दुख सह्मो इण भांति ।।३०६५।। देह सुकाई करी पति पीण । राम नाम सुभरण में लीन ।। अपणा राखियो मन अडोल । रामचंद्र बम बोल्या वोल ॥३०६६।। किषधपुर में सेना जोडि । प्रत्र करि हैं लंका परि दोड । सीता के प्रश्न सीता कहै सुणु हणुमान । तुम अन राम कद की पहचान ||३०६७।। मैं तुम क नहीं वेख्या सुष्पां । किस विध उणस्यों सनबंध नण्यां ।। उनु के कारण आये लक । मन में कछु प्रन प्राणी संक ॥३०६८।। ध्यौरा सू समझा वात । मिट संदेह सुरिए विरतांत ।। लक्षमण तणी कहो कुसलात । छाप एह पाई किग भांति ।।३.६६।। के रामचंद्र ने दीक्षा लई । के इह छाप पडी तुम पई ।। हनुमान का उत्तर हणवंत बात कही समझाइ । रामचंद्र दंडक वन रहे पाइ ॥३०७०।। संबूक चन्द्रनखा को पूत । साधी विद्या तप किया बहुत ।। द्वादश वर्ष में विद्या फुरी | सूरजहान प्राया तिह घडी ।।३०७१।। लक्षमण ने बह लीया सहग । संबू कू मार किया उपसर्ग ।। चंद्रनला देख पुत्र का सूल । तब सुधि गई सबै मूलि ॥३०७२।। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ पापुरात खरदूषण सू करी पुकार | कपडे फादि लगाई हार || खरदूषण मति क्रोध कराय । रोन्यां ले तिहां घाये प्राय ।। ३०७३।। लक्षमण वासू मांडभो जुध । रावण ने इह पाई सुघ ।। कोष में चले पुन्हप विमाण । दंडक वन में पहुंच्या प्रांन ।।३७७४।। तुम को देग्नि राम के पास । बाकी सुधि गई सम नास ।। गजनीत सहु वीसर गई । तुमारे हरन की इछा ठई ॥३०७५।। सिंघनाद रावण पूरिया । रामचंद्र लक्षमण 4 गया ।। रावण में तब तुम हरचा । जटापंखी बल करि तिहां लड्या ॥३०७६।। वाको गहि रावण मारिया । ऊपर बैं धरती डारिया ।। लक्षमा रामचन्द्र क देख । कहिक तुम क्यों पाए लेख ॥३०७७॥ सीता छोड प्रामे एकली । एह तुम बात करी नहीं भली ।। बेग जायो मीता के पास । तुम बिन दुख होवेंगा गात ।।३०७८।। द बन चेहर सब खोह । उनकां तुम सेती अति मोह ।। सिवकति पाया पंपी जटा । देखा अतसमय रन बटा १.७६।। पंच नाम सुरणाए कांन । अटा पंषी गया स्वर्ग बिमाण । लक्षमण खरदूषण नै मारि । तुमरा हरणे सुण्या तिरण बार ॥३०८०॥ रतनजटी तुम पाछै दौडि । प्राण करी रोवण सूझोडि । रतनज टी के लाग्या पाव । समुद्र में पड़े रतनजटी राव ॥३०८१।। उहाँ त तिरि कंचू गिरि गए। रामचन्द्र ने मेव तिण दिये। बिराधित मैं लंका पाताल । प्राणि बिठाए रघु ततकाल ।।३०५२।। मुग्रीव राज परपंची छीन । तात हा फिरथा प्राधीन ।। रघुपति परपंची को मारि । सुग्रीव राज दियो तिबार ।।३०८३।। उनी वा किया उपगार । ता कारण हम कियो है विचार । रावण तीन खंड का भूप । सीलवंत करुणा का रूप ।।३०६४।। ताकी कीरत है संसार । अठारह सहस ताक घर नारि ॥ मैं सेवक रावण का सही। मेरा बचन फिरंगा नहीं ।।३.८५।। तुमकू देगा मेरे साथ । ले पहुंचाऊ जिहां रघुनाथ ॥ सीता हनुमान सू कहै । तुमसे कि राम लिंग रहे ॥३.७६।। मन्दोदरी का कथन राम पास कित्सा दल जुनया । मंदोदरी बोले एहो षड़ा ।। के इह बली के राम लक्षमणा । और न कोई बस्या जसा ।।३०८७॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पापुराण २८१ जब होता रावण का काम । हनूमान करता संग्राम ।। वह वाके भाई की ठोर | अंसा हितू न कोई और ।।३०८८।। चंद्रनखा की दीनी पुत्री । अंसी याकी कुपा करी ।। या के कर्म प्रेसी मति दई । याकै हिरदै भैसी मति दई ।।३०६॥ कहां राम भुम गोचरी । ताके दूत होह माया इस पूरी ।। भुशीव मति मरणे की भई । किंपदपुर तपसी कुदई ।।३०६०।। अब जो सुणे रावण पण बात । देख जू तोहि लगायें हाथ ।। हनुमान मन्दोदरी संवाद हणवंस कह मंदोदरी सुणु । तो पं बुधि नपं को गिणु ॥३०६१।। तरी धुधि भई होला । खोट भुति राव को दास । तोहि कहे थे नव जोबना । तो में गुण एका नहि वण्यां ।।३०६२॥ तो मैं जो होता गुण सार । तो वह क्या नै हरता परनारि ।। खोटा करम उद तुज भया । तेरा गुण सगला गिर गया ॥३०६३३॥ रावण की पूती त भई । पटकी महिमा सगली गई। तू वहरण रावण की सही । वाके जीव का तोकू डर नहीं ।।३०६४) से मति दई मरण की ताहि । तोहि रंडापा की भई चाहि || मंदोदरी पादि कोपी सब नारि । रे बानर कहो बचन संभारि ॥३०६५॥ कहो राम लक्षमण कूमारि । बानर बंसी कहा गंवार ।। जितने जुड़े राम के पासि । होसी उनु सगला को नासि ॥३०६६॥ सीता का उत्तर सीता चोली सुगों सब तिरी । राम लखण की कीरति खरी॥ पहला बरबर मलेछ कू जीति । वजावर्त ते सब भयभीत ॥३०६७।। अंसा धनुष पहाया तुरंत । उनसे को नहीं बलवंस ।। खरदूषण मारघा संबूक । उनका कारण है महा अचूक ।।३०१८॥ सेना का नाही कछु काम । रावण कू मार नहीं राम ।। समुद्र उतरि जो पावै एक । रात्रं रघुबंस की टेक ।।३०६६ तुम अब निश्च होस्यो राह । तुम जसीति मा होस्यो भांग ।।३१.०॥ मन्दोदरी का नाटक मंदोदरी प्रादि प्रहारह हजार । सहुं मिल बोल मुह थी गाल ॥३१०१॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पधुरास कोस सब झंझोडे बांह । हनुमान अहटाई जांहि ।। सकल नारि घरती मैं मिस । कैरी हनूमान को लेइ चल ।।३१.२।। वसन फाडि लों, सिर केस । गई तिहां दणकष नरेस ।। हनुमान का सौता से निवेरन सीता सों बोलौं हनूवंत । तुम कछु मन मां धरो मति चित ।।३१०३॥ जो तुम कहो तो प्रब ही ले जाउं । अपर्णी मन राखो चित ठाउं ।। अन्न खावो जल पीवो मात । नमस्कार कीयो बहु भांति ।।३१०४।। हनुमान द्वारा भोजन इला नालग यो कदै हनन । करो रसोई जन बहुमंत ।। किये पकवान सुगंधा घणा । यहरि रसोई उत्तिम दणा ॥३१०५।। भात दाल उसम बहु घृत । प्राशुख जल सों स्नान करंत ।। श्री अरिहंत का सुमरण किया । एक पहर दिन कर उगिया ।।३१०६॥ मन में भैसी इच्छा धरी । कोई मुनीस्वर मावं इस घड़ी ।। प्रथम सुपात्र नै धुवान । पाई हम करिहं जलपांग ॥३१०७॥ पूरब जनम किया मैं पाप | तो इह भयो मोहि संताप ।। के में दान कुपात्र है दिया । के सुत मात बिछोहा किया ।। ३१०८।। सोसा द्वारा प्राहार ग्रहण करना सीता जी लीयो पाहार ! इला हणवंत जौम्या तिण बार ।। सीता का चिन्तन सीता चित्त राम की बात । तीरथ करण पिया संग जात ॥३१७६।। के में मुनिवर कियो अपमान । के जल पीयो अणछाण ।। के मैं भोजन सायो राति । के जिन घरम न सुहात ।।३११०॥ श्री भगवंत भज्या निण भाब । समकित चित्त न हुबो मुहाव ।। कूगुरु कुदेवा की कीनी सेव । कुशास्त्र उर धाऱ्या भेव ।।३११११॥ कंदमूल फल खाये घणे । भला शास्त्र मन घर ना सुण ।। परनिंदा कीनी अधिकाइ । तो इह उदय भया मुझ प्राइ ।।३११२।। अथ पात चुवै हग भरे । तबइ हनुवंत वीनती करें ।। जं तुम मात चलो मुझ साथ । पहुंचाऊं तुमनै जिहां रघुनाथ ॥३११३।। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाषद एवं उनका पद्मपुराण सोता के बचन सीता कहूँ सुरणो हणुमान । रामचन्द्र आयें इस भांन ॥ तो मैं चलू' तिनों के संग। उणां विषां चलयां नहीं रंग ।। ३११४ । । हनुमान का प्रस्थान २६१ सीताजी की आग्या पाइ विदा भए तब हावंत राय ॥ पुहष गिरिवर पर टाढा भया तहां बहुत आई है तिरिया || ३११५सा वन क्रीडा देखें थी नारि । हृणुवंत रूप देखिया प्रभार ।। वाजे वीण सुणावें तांन । कोई कह रही हणुमान ।। ३११६॥ मन्दोदरी का रावरण के पास जाना मंदोदरि संग गई सब तिरि । रावण सु पुकार स्यां करी ॥ हनुवंत तरण को विरतांत । उठ्यो कोपि रावण मुशि बात ।। ३११७ ॥ रावण का क्रोषित होकर युद्ध का ग्राह, वाम सूर सुभटां कु आज्ञा दई । वेगा मारो हनुवंत जई ॥ दोड्या बहुत सुभट तिए बार हाथों में नांगी तलवार ।। ३११५ ।। गा गुरज बरछो तोर कहांन । इाँ प्रकारे घेर्यो हनुमान || हनुमान का युद्ध कौशल I लांगुली विद्या भली संभारि । ठोरि ठौर के वृक्ष उारि ||३११६।। मारे सुभट किये सिहां बेर । उजाडि दिया उपवन चिहुं फेर ॥ fear थंभ मिंदिर सब काहि । चौपट किये निहां ढेर उखारि ॥३१२०॥ सूरवीर झुके सिंह ठौर । कायर भाजि गये सब और ॥ हनुमान बैठे तिन यांम जाके लिए राम का नाम ॥ ३१२२ ।। रावण सुणु सुभट परिहार सब भेज्या बहुला असवार ।। इंद्रजीत ने मेघनाद । जारौं सकल जुध ग्रन बाद ॥ ३१२२ ।। मारि मारि करि दौड़े घणे । जइसे जम प्रापन के हणं ॥ हनुमान सनमुख भया प्रांरण | मारई सिला करे घमसारण ।। ३१२३॥ मैंगल को पकड़े बिहु पास फेंके ताहि घो रहे ठांय ॥ तर उपाद्धि कर मारे सीस। एक ही बार मरें दस बीस || ३१२४॥ सेनां कुभी राक्षस वंस । इन्द्रजीत मनमें करें संस || हुणवंत एक महा बलवंत । जिए मारे सगले सामंत ||३१२५|| Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ पपपुराण इन्द्रजीत मेघनाद इम कहै । इन्द्रभूप हम ही तब गहै ॥ इह विध हम तें कोई न लड्या । हावत उपरि ढोवा कर्या ।। ३१२६।। स्ट सर गोला जिम मेह । घरती गगन उडी अति पेह ।। गदा खडग की हो मार | जित जित दीस बानर वारि 1।३१२७।। जाफू पकड़े मई झझोर 1 लंका मा हुया तब सोर ।। इन्द्रजीत द्वारा हनुमान को पाना इन्द्रजीत विधा संभार । नाग पास है इन्द्र का जाल ।।३१२८॥ बासौं बांध लिया हरणवंत । माऱ्या धरणां किया दुखवंत ।। रावण पास प्राया हणुमान । कोप्या क्रोध बहुत मन प्रान ॥३१२६॥ बांधि मुसक हथकडी दास । गल में नौष जडे तिहंकाल ।। पांव माहि बज्र सांकुली । मारे वहुविध हणवंत बली ।।३१३०॥ प्रमजीत द्वारा हनुमान का परिचय देना इन्द्रजीत रावण सु कही । मुमगोचरी का ट्रत है ग्रहीं ।। इण पहिली महेन्द्रपुर जाय । महेन्द्रसेन जीते तिहं ठाइ ।।३१३१॥ भेजा ताहि कनै रामचन्द्र । गंधर्वसेन का मिट्या दंद ॥ मुनिबर का उपसर्ग निवार । भेज्या किषधपुरी मझार ॥३१३२।। अबकोदि लंका का तोहि । बज्रमुखी नै मार्या ठोहि ।। संकासुन्दरी प्राप विधाहि । बहरि पाया का मांहि ।।३१३३।। सीता ने खबर राम को दई । मंदोदरी प्रादि मान मंग भा ॥ पुहपक वन इन दिया उापि । वाहे बहुप्त हाट बाजार ॥३१३४।। मिंदर घरणां मिलिया द्वार । सुरसूभट बहु काले मार !! रावण का कोषित होना फोड्या कुना जाब तालाब । रावण कहै क्रोध के भाव ।।३१३५।। मैं तोहि ऊपर राल था मया 1 तू उठि रामचंद्र पं गया ।। राम लक्ष्मण सौ कद की प्रीत । उनको मिल्या भया तू मित्त ।।३१३६।। मेरा घर तुम कू नही भया । मेरा गुण तू बीघर गया ।। खरदूषण की तो कुन्या दई । देस मांहि तो कीरत भई ।।३१३७॥ बहत देस दीने तुम सही । तै प्रापणे मन अंसी नहीं ।। कहां राम लक्ष्मण तापसी । भ्रमति भ्रमति उन पाई महीबसी ।।३१३८।। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एणं उनका पपपुराण उनका दूत भया है प्राण । तोइन भई कोक की काण ।। पई निलज्ज पणा है तेरा । जिय में फल विवेक नहीं धरा ।।३१३९।। पवनंजय का तू नाही पूत । काहू वरांक ते उपज्या दूत ।। जं तू होता उत्तम बंस । तो नाही मानता उपदंस ।:३१४०।। प्रध तोकुं भार कम निरजीव । चंद्रहास सु काटू ग्रीव ।। हनुमान का उत्तर हनुमत बोल्यो निरभय वैन । तो पापी को होसी कुचन ॥३१४१॥ प्रठारह हजार तेरै थी मस्तरी । ते काहे क सीता हरी ।। तेरा मरण पाया है मही । बोटी मति में मनमें धरी ।।३१४२॥ रत्नश्रवा कुल व्योमा भया । राक्षसवंस कलंक से दिया ।। तेरे कुल का हू है नास । मन्त्र तु छोजि जीव की प्रास ॥३१४३।। तेरा नहीं देखण का मुख । चौर जार क्या मान सुख ।। रावण कोपि गह्मा कर खडग । हणवंत को कियो उपसर्ग ।।३१४।। देख बहुत पुरुष अरु नारि । नंगा करि फरयों घर बार ।। मपणां प्रमू नै ज्या दीषा पीठ । ताका सूल ए सब दीठ ।। ३१४५।। घर घर का रावडा बहु जुई। बार सेह सह मूठी भरें। हनुमान का मायामो मिचा नारा संका वहन हनूमान सब बंधन तोकि। विद्या की संभालि यहोडि ।। ३१४६।। लंगूर रूप तिहां सेना करी । बीजसी सम पूंछ भनि संभरी ॥ सगली लंका दई जलाय । सगला मंदिर दीए उहाय ।।३१४७॥ घोपटि करि सका का देस । पछि विमान हनूमान नरेस ।। सीता सुण्यो पकड्यो हनुमान । रोव बहुविध कर मायान ।।३१४८।। इला वाहन कहै चिंता मत करों । हनुमान अपरं बल धरौ ।। लका कूदङ्वट करि गया । सीता प्रासीरवाद यह दीया ॥३१४६।। चिरंजीव है हणमंत । सीता असीस कहैं बहुमंत ।। तिहूंलोक झंजो तुझ नाम । लहियो सदा सुख विश्राम ।३१५०।। हनूमान साका फिया, पुन्यवंत बलवान ॥ वानर राव जस प्रगट्यो घाँ, कारिज कियो प्रषांन ।।३१५१।। इति भी अपुराणे हनुमान सीता मिलन विधान Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ रायपुर ४८ वा विधानक चौपई हनुमान का एन: राम के पास प्राकर पूरा वृतान्त कहना हणुमान सेन्या में मिल्या । फिरे छत्र ता ऊपर भला ।। किषधपुरी में पहुंच्या जाइ । प्रपणे मंदिर बैठा प्राइ ।।३१५२।। सुग्रीव आदि भूपति सब चले । हनूमान सेती सहु मिले ।। संका तणु सुम्युविरतात । सुग्रीव कह रघुपति सी बात ॥३१५३।। बीती रयण उगोयो भौण । राम पास पहुंचे हनुमान ।। नमस्कार करि करी रंडोत । तिहां भूपति खडा बहूत ।।३१५४।। पूछे राम सीता कुसलात । हनूमान कहैं सब बात ।। प्रमदा वन में सीता रहै । दूती वस वचन तिहां कहै ।।३१५५॥ सीता प्रनपाणी नहीं रोच । नाडि निवास कर बहु सोच ॥ उसकै सदा रहे तुम घ्यांन । मनमें कवन प्राय प्रान ॥३१५६।। मैं उनक खपाई रसोई । राति दिवस बीत हग रोइ ।। सब दूती मैं दई बिडारि । राबणा प्रागं करी पुकार ||३१५७।। रावण तो भेजी निस सैन । मैं लंका में कियो कुचन ।। तोडि बाग फोड्या सब गेह । लंका जाल करी सर खेह ।।३१५८।। तुम सू प्राइ कहा संवेस । मन प्रार्य सो करो नरेस ॥ राम की चिन्ता राम नयन सेती बहै नीर । आ हिरदं सीता की पीर ॥३१५६॥ धिम विग भाई असा जीवरण हम जीत्रत सीता दुःख घणा ॥ जे सीता का दुख करें दूर । तो हम बली कहावै सूर ॥३१६०।। जिम केहरि दावानस मांहि । ताका बल चाल कटु नाहि । असी कठिन बरणी प्रब आम । इण विध सोच फर रघुराय ।।३१६१।। लक्षमण कहे तो पहुंचो लक । तो मन की पोषं सक संक ।। धन्य सुग्रीव धन्य हनुमान । इनुदई सीता सुषि प्रानि ।।३१६२।। अब जो भावमंडल व संग । रावण तणो करें मान मंग ।। सुग्रीव सेती बोलें रघुनाथ । भामंडल प्राय हम साथ ॥३१६३॥ बाकू हम ढिग लेहु बुलाय । के हमने धो पंथ बताइ ।। सायर तिर हम लका आई । तुस इहो रही प्रपणी हाई ॥३१६४॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभापंच एवं उनका पद्मपुराण २९५ राजाओं द्वारा निवेदन मिवनाद बोले भूपली । हनुमान कोनी यह गती ।। उपाड वृक्ष दाहै प्रासाद । प्रवर कियो रावण सू बाद 1॥३१६५।। सवीर मारे दह लोग । घरि घरि कियो लका में सोग । लका वास करो जण खह । कुना वापा काहे सब खेह ॥३१६६।। रावण मन में राख बर | सगला मारेगा घेर ॥ रावण ने पकडी अनीत । विसर गया धरम की रीत ॥३१६७॥ युद्ध की तैयारी वासु सब मिल करस्यां जुष । प्रवर न कछु बिचारो बुधि । चंद्रमरीच इम भरणे नरेस । नुए एकठा भए सहु देस ॥३१६८।। रामचंद्र का करी उनगार | रावण मारि मिलावो कार ।। धनगति गज धुन गति करकेत । भीम नल नील सुग्रीव समेत ॥३१३६।। वन मूकरण पर भूपति घणे । सब का नाम कहां लग गिरणं ।। महेन्द्रसेन पबनंजय राय । प्रसन्न कीति की अधिकाइ ।। ३१७०।। विद्याधर एकठे सह भए । सेना जोद्धि राम संग गये ।। प्रश्वनी मुवी पंचमी दिनेस । दीतवार को चले नदेस ।।३१७१।। नक्षत्र कासिका मेष था लगन । प्रबर भए सभी सुह सुकन ।। लक्षमी सिर गागर दही । बलं मगनि तिहां घुमां नहीं ।।३१७२।। पीछे वित मंद समीर । बोल काफ वृक्ष गुण धीर । मुनिधर दं देखे से अन्न । तीसू उपजे काया चन ।।३१७३।। लका तणां गिरा कांग्रा । राबण चित तब चमक्या खरा॥ घड़ी साध सुभ कीया पयारा । सेना जुसी दिनां उनमान ।।३१७४।। राम लक्षण होऊ चढे विमारण । हय गय रथ पायक नीसांन ।। मैंगल' होरि लाख पचास । बहुत विद्याधर रघुपति पास ।।३१७५।। देल धर परवत परि गया। समुद्र नाम राजा तिहो रहा । नल ने पकडि यही नरेन्द्र । आरिण दिया वाको करि बन्द ॥३१७६।। लाग्या रामचंद्र के पास । छोडि दिया तो रघुराय ।। बेल'घरपुर इण ने ले जाय । कन्या च्यारि हरि नै दई प्राय ।।३१७७॥ श्री कमला दूजी गुणमाल । सुश्री रतनचुला सुविसाल ।। उहां चले भये परभात । सुवेल परबत पहुंचे रघुनाष ।।३१७८।। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ पपपुराण सुखेम राय परि भेज्या नौल । पकडिया तुरत न लागी ढील ॥ हंस दीप कीयो विश्राम | सब सेनां उत्तरी तिण ठाम ।।३१७६।। जव लग भामंडल नहीं मिले । तब लग हंस वीप से न चले ।। रही सेन सगली तिन ठौर । भूपत्ति प्राय मिले सब पोर ।।३१८०।। अडिल्ल पूरय पुन्य उदै बहुत सेना जडी जीत भई मग चलस ही साधी पुरी ।। चरण नये सब प्राय भूप बघणं दिन दिन अधिक प्रताप बढ चऊ गुणं ॥३१५१॥ इति श्री पद्मपुराणे राम लंकापुरी प्रस्पान विधानक ४६ वा विधानक रावण का चिन्तन रावण अंसी पाई सुषि । क्रोघवंत होई सोचे दसकंष ।। अजोध्या नुप मूमिगोचरी । हम ऊपर प्रा डर नहीं करी ॥३१८२॥ देखो इनहे लगाऊ हाथ । मेरे लोग सब मिलिया साप । यह देखो संसारी रीत । जिरणकौं मैं जाणे था मित्त ॥३१८३३॥ सेवग मोसों औरी भए । अंसा कर्म उनां न किये ।। रामचंद्र किषधपुर राखि । सुग्रीव मेरी अपकीरत भाष ।।३१८४॥ हनुमान प्रवर नरपति मिले । मेरा उदय न चाहे भले ॥ उनको समझा मैं पापणां । एसड़ किये उन्का उपणा ।।३१८५।। जे तपसी सों मिलते नहीं । तो पाए सकते नहीं। ए ल्याये उनकू इस ठौर । एती सेन्यां उन साथै जोरि ।।३१८६॥ ऐसा निकर नहीं कोई और । ताथी मांधी इण ठा रोर ।। देख जू इनसी ऐसी करू । पकडि लेय जममंदिर पर ।।३१८७।। मेरा भय कछु चित्त न पर्यो चित्त । अपरणा नहीं विधार्या वित्त ।। परजा र ल का मांझि । कर सोच निस वासर साझ ।।३१८८।। पुर की तयार रावण के सोलह सहस्र भूप । मुकुटबंध ते दिपै मनप ।। मारिच मगदत्त प्रमीचंद । हस्त प्रहस्त अने असफंद ॥३१८६।। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाब एवं उनका पयपुराण २६७ राजा धणे सभा में खड़े । एक एक तें प्रतिबल भरे॥ रावण के बाजै नीसांन । रहै सेना सबद सुरण कान ।। ३१६०।। सोरठा पनि पनि आज दिनस, करं काज जो प्रभु तणों ।। पानंदीया नरेस, सबद सुनत रणभेरि को ॥२१६१॥ चौपई मोसानों का रावण को पुनः समभामा ओधा सुभट जुड़े सव माय । कुंभकरण भभीषण राय 11 इन्द्रजीत बोले कर जोडि । उज्जल कुल मति लगावो खोडि || ३१६२।। अब लौं जस निर्मल चहु देस । परत्रिय चोरी सुनो नरेम ।। बदै प्रपलोक का किये अनीत । समझो प्रमू परम की रीत ।।३१६३।। वेद पुराण सुणी इह बात 1 परनारी है विष की जात । खाय हलाहल इक भव मर ! परदारा त भव भव दुख भरै ।।३१६४॥ सीता रामचंद्र कू' बेहु । निर्मम बैठा राज करे ।। अठारह सहन हतं तुम नारि । रूपवंत शशि की उणहारि ।।३१६५।। कहा एक सीता बापड़ी । ता कारण एह अड़ी पापडी ।। रावण का पुन: कोधित होना सुरिण रावण कोपियो बहुत । इन्द्रजीत क्यों उरप पूत ॥३१६६।। प्रस्त्री है चिंतामणि रत्न । जो मा पार्द काहू जतन ॥ हाथ बढी किम दीजे छोडि । भूर सुमट को लामै षोडि ।।३१६७।। अंसा भय किसका मैं घरू' । जे अपणी टेक तंटरू । जो तुम जुध करके सौं डरो। जाय कहां छिपकै दिन भरो ।।३१६८।। विभीषण का इन्द्रजीत से वपन भभीषण इन्द्रजीत सौं कही । तुम सम कोई दुरजन नहीं ।। तू नै इसे सुणाये वन । या के मनकू भयो प्रचंन ।।३१६६।। भली वात याहे लाग बुरी । प्राई याके मरण की घडी ।। राम लक्षमण दोऊ बलबंत । उनका सेवग है हनुमंत ॥३२००।। सुग्रीव पौर विद्याधर घणे । भामंडल पराक्रमी सुणे ॥ दिन दिन सेना उन संग बर्ष । पल में उनके कारज सघ ॥३२०१।। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ पमपुराण इनै अपणा नहीं जाण्या मर्ण । मीर जाय मीता का हाँ । राषण का विभीषण पर धावा बोलना उधो कोप रावण सुगि वात । चन्द्रहास ऊपरि धरि हाथ ।।३२०२।। भभीषण क मारण निमित्त । असी खोदि विचारी चित्त ।। भभीषस का तब चढयो विरोघ । गह्या थंभ पाथर का सोध ।।३२०३।। दोऊ त्रीर क्रोध के भाय । कुभकरमा बोल्या समझाय ।। भाभील सा सुकाहै लु परि जाइ । तब लग कोष घटै मन मांहि ।।३२.४।। मीतल वचन रावण ने कहै । भभीषण लंका में नहीं रहै ।। मात पिता बहु पायें पर्छ । सगला सजन अरज करै ।।३२०५।। विभीषण का राम के पास जाना तीस क्षोहणी दल लिया माघ । चल्यो सर्ण जिहां रघुनाथ ।। तीन सहस लिया संग नारि । और सकल छोडया परिवार ||३२०६॥ हंस द्वीप है जिहां श्री रामचंद्र । गयो भभीषगल को सब दु'द ।। वानर बंसी भभीषण देख । असी समझ कर मन प्रेष ॥३२०७॥ रावण भेज्या है जुध निमित्त । हनुमान अवि संभल्या सामंत ।। गहि हथियार उमा सबै तिहां । प्रागन्या होय तो अब मार इहां ॥३२०८।। वस्त्रावर्त धनुष गहि राम । समुद्रावतं लक्षमण गहि साम 15 भभीषण सेना बाहिर रही । भाप प्राय पोल्या सौ कही ।।३२००६।। विभीषण का द्वारपाल से निवेदन भभीषण प्राय खडा है वार । मेरा जाय कहो नमस्कार ॥ प्राग्या होय तो दरशन करै । सेवग प्राइ चीनती कर ।। ३२१०।। करी वीनती हूँ कर जोडि । भभीषण भा है तुम पौलि ।। मन्त्रियों का परामर्श प्राग्या होय ना देव च । मंत्री नाग मतो कर्ण ।।३२११।। रावण तना भभीषण बीर । कछु परपंच पाया तुम तीर ।। अव इह जो मांडेंगो राडि । ग्रावायो मति सभा मझार ॥३२१२।। मति सागर दूजा मंतरी । उरणी इक बुधि उपाई खरी ।। सदस्य भभोषण भयो बाइर । दूती इसा कह गई सबेर ।। ३२१३।। तुमारी सर्ण भभीपर पाव । कपा करो तो दर्शन पाइ ।। भभीषण रामचंद्र कु देखि । लक्षमण तणु रूप अति प्रेप ।।३२१४॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचन्द एवं उनका पम्पुराण २६६ হিশীলা রায়। ২ম জা বহাল ग़मचंद्र का देख स्थरूप । बंदे चरण भभीषण रूप ॥ राम कहैं प्रात्री लंकेस । तोकु दिया लंका का देस ।।३२१५।। भभीषण मन में भयो प्रानंद । मेरे तुमही देव जिणंद ।। कहो सकल किम लडिया भ्रात । होवे क्रोध में की बात ॥३२१६।। गिरगो भ्राता थे वे दोइ । चंगापरि जाग सब कोइ ।। सूरज देव राज सु करंत । मतिवती पटराणी गुणवंत ॥३२१७।। सुगुपति मुनि भाष्यो धर्म । लीयो त उरण जाण्यो मर्म ।। गिरगोभूत जाम था कहीं। इनै रत्न लिखमी चह लहो ।। ३२१८॥ आवत देखे लोग बहत । ढांक बही लखमी संयुक्त ।। फिरि वे पाए परि प्रापणं । उहां अवर की भवर वर्ण ।। ३२१६।। कोसंबी नगरी के मध्य । बहधन सेठ कूपदा मध्य ।। अहदेव महादेव दोइ पूत । बहुधन मूवा प्राव पहुंत ।।३२२०।। ए दोन्यु उदिम कू चल्या । वे रत्न लखमी पारा भला ।। लषमी घर लाया प्रारणे । वे दोई जाई धरती पणे ॥३२२१।। दोन्यू लडे न मानें हार । गिरि गोमूत सू भई राजि ।। गोमूत कूमार तिन ठोर । अमुभ कर्म त हुवा और ।।३२२२।। प्रहदेव महादेव ल्याया रतन । गिरि पहिचान्या सब जतन ।। गुग्गी बात मन में पबिताइ । उ लहरि पावक के लाग ।।३२२३।। मैं क्यु मारघा अपना वीर | अइस समझि न धारं धीर ।। तात करम इह करतृति । लोमैं दणे पिता ने पति ।।३२२४॥ सुशी बात भाज्या संदेह । हंसडीप दिन पाठ रहेइ ।। सेना के साथ संका द्वीप में पहुंचना इयोढ सहस क्षोहणी दल जुड्या । रार सहस राक्रम के पया ॥३२२५।। भामंडल साथ क्षोहणी सहस । अष्ट दिवस रहे द्वीप हंस ।। बाजा बजाइ लंका में गए । ए सबद रावण के भए ।।३२२६।। सोरठा रावण सकल बुलाये लोग । अंसा वण्या लिहां संजोग ।। सूर सुभट सब इकडे भये । दानई धारी भूपति नए ।। ३२२७।। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 पप्रपुराए रावण खोटमा कुट, अंतरिगति सोच्या नहि ।। नोइ धरम का सूल, सज्जन ते दुरजन भया ॥३२२८॥ इति थी पमपुराणे भभीषम राम समीप प्रागमन विधान ५० ब विधामक चौपई अक्षोहिणी संख्या श्रमिक नप जोडे दोड हाय । क्रिमा करि भाषी जिन नाथ ।। भोहिणी गिनती किस भांति । मोकू समझायो बिरतांत ।।३२२६।। श्री सरवज्ञ के उत्तम वैन । सुगते सब के मन बैन ।। गोतम स्वामी करें बस्नान । बारह सभा सुगा धरि कान ॥३२३०।। अष्टप्रकारी सेन्यां संग । च्यारि च्यारि इक हक के अंग ॥ पति हाथी घोडाने स्थ । पायक और सुभट बहथ ।।३२३१।। हारी एक पयदल पांच । तिगुनें एक एकतै वाच ।। असी विघतं गिणती बढे । इस लेखे अाठ लो बढे ।।३२३२॥ आय क्षोहिणी कहै छ। पति १ सेना २ मुष ३ अनीस ४ वाहनी ५ चमू ६ बरू ७ दंड ८ से आठ प्रकार की सेना कहीं। नवमी अक्षाहणी कहजे । नवघोडा : पर तीन रथ ३ तीन हाथी ३ पन रह पायक १५ ए च्यार प्रकार सेना वा भेद छ । हिवं मुख कहै छ। हाथी ६ रथ ६ घोड़ा २७ पयदल ६१ पयादा १३५ ए प्रतीक हुई 1 अथ बाहनी कहैं छ । गज ६१ रथ ६१ घोड़ा २४३ पक्यासीय दल च्यार से पांच । ए वाहनी कहेजे । चम् कई छ । दोय से तियालीस २४३ हाथी रथ २४३ सात में गुणतीस ७२६ घोडा बारी से पनरा १२१५ पयादा ए चमू कहेले 1 विरुधनी कह छ। रथ ७२६ सात सै गुणतीस हाथी ७२६ सात से गुणतीस । घोडा २१८७ इकबीस से सत्यासी । पायक छत्तीस से पैंतालीस ३६४५ । हिबई दंड कहे छ । इकबीस स सत्यासी २१८७ हाथी। इकबीस से सत्यासी २१८७ रथ । घोडा पंसठ सौ इकसक ६५६१ । प्यादा नवसौ पैतीस । पर दस हजार हवं ए दंडक कहेजे । प्रक्षोहणी को छ । गज इकबीस हजार । पाठ सं सिहत्तर रथ । पैसठ हजार छ: सं दस घोड़ा । एक लाख नौ हजार तीनसे पचास पैदल । एक अक्षोही कहे जे । प्रथम पति १ सेनापति २ गुलम ३ वाहिनी ४ पंचम सति । छठी प्रतिनांच ६ । सातमी च ७ । प्रनीकनी मने दस गुनी भई ।] रोनों दलों के सामर्थ्य की पर्चा इतने से क्षोहिनी उक होय । इस विध समझो गुनीयन लोय ।। दोई बांदल हुमा इक ठोर । मत्ता कारं दान्यु फोजां सोर ।।३२३३।। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचंच एवं उनका पपपुराण ३०१ कोइक कहे रावण दल घर । रामचंद्र संग थोडा जना ।। राक्षस बंसी है बलवंत । वानर वंसी किम होह करंत ॥३२३४।। जे सध्यस वानर कु भई 1 अंसे लोक मापस में बक ।। कोई कहै बली हनुमान । लंका कूढाही उन भनि ।।३२३५।। सब लोगन कू दीनी मार | बन उपवन फर दिया उजार ॥ सनमुग्य कोई बुध न करि सके । इसही विध राष्यस संसकं ॥३२३६।। कोई कहै रावन अति बली । कुभकरण की कीरत भली ।। इन्द्रजीत मेगा ननदल । नप पौंग ३010 रामचंद्र जीत किस भात । रावण का बल कहा न जात ॥ कोई कहै ए दोन्यू वीर । दंडक धन में कोई न तीर ।।३२३८॥ खरदूषण सु' लक्षमण लामा । सेन्यां सूधी परलय करना । रामचन्द्र पे बचावर्त । लक्षमण कनं समुद्रावतं ॥३२३६।। रामचन्द्र लखमण सु पुनीत । रावण करी पाप की रीत ।। जिहां परम तिहां व जय । रावण का होगा क्षय ।।३२४०।। ऐसे आपस में करें सोच । अन्य वस्तु की भूली रूच ।। कोण मरं कोण जीवत बचे । को अर्थ बात मैं पचं ॥३२४१।। घरम मार्ग क्रिया सुध मूल । रात दिवस मन किया अडोल ॥ जे कोई छोडि जाइ संग्राम । दिक्षा ले करि प्रातम काम ॥३२४२।। तो होब लोक में अपलोक । कातर कहैं तानू सब लोक ।। भैसी प्राणि धणी है कठिन । तांकों का न होवे जतन ।।३२४३।। इह भव सागर में जीव । भ्रमैं च्यार गति गाढी नींव ॥ धरम दया से उत्तर पार । जो कोई सह संयम का भार ॥३२४४॥ भारत रौद्र निवार करि, धरम सुकल परि ध्यान प्रातम सौ लष ल्याइक, तो पाबे निरवाए ॥३२४५।। इति श्री पपपुराणे उभय बल मान विधान ५१ व विधानक चौपई पुख के लिये सैनिकों का प्रस्थान रावण नप इम प्राज्ञा दई । साजो सैन भूप सज गई । रामचंद्र सों करियो जुध । सन कू भई मोह की बुधि ।।३२४६।। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .०२ पद्मपुराण अपने अपने गेह मंझार । कर प्रालिंगन सब नर नारि ।। पुत्र पौत्रादि सकल परिवार । लपट कंठ प्र. कर पुकार ।।३२४७॥ पोषी देह स्वामी के काज । अब जो रहै तो पूरी लाज। जे जीवांगा तो मिलि हैं प्राय । उत्तम क्षमा कहि निकसे जाय ।।३२४८॥ रो कदव सब बारंबार । उन कब्वाप्पा मोहि अपार ।। न कछु जनम सेवग का जान । लजि कुटुंब देवं निज प्रान |1३२४६।। कर बीनती रोवै प्रस्तरी । जब तुम जीत फिरो तिण घरी ।। जब हम तुमत हुनै मिलाप । तुम मुझे होह संताप' ।। ३२५०।। अपणांसजो तिरा बार । तुम बिन सगलो जगत उजाड ।। कोई नहीं विधाही नारि 1 ते तेही समझ सुख की कार ।।३२५१।। मोह फंद में बांधी दनी । अंसी कठिन सबसौं वनी ।। कोई प्राभरणं फरि भसमांन । सुथरे बागे पहरे भनि ।।३२५२।। सब हीं में बांधे हथियार । अपरगा प्रपणा रूप संचार ।। पूज्या पहलां देव जिर्णद । सुरवीर मन फर ब्रानंद ।।३२५३।। धन्य दिवस सही है प्राज । साध स्वामि धरम का काज ॥ कोई कहे कित सीता हरे । ता कारण इतने बल जुडे ।।३२५४।। कुण कुरा मरि हैं रण के मांझ । राबरण मांही प्रषरम की झांझ ॥ सीता को ओ देई पठाइ । तो कां जुध होता इण बार ॥३२५५॥ प्रब हम जाई दिखा लेहु । छोडि सब संसारनि एहु । कातर कई लोग सब कोइ । ए विचार उनके मन होइ ।।३२५६।। रावण के बाजै नीसान । निकले सकस लोग तजि थान ।। हस्त प्रहस्त भगाऊ चले । लिगां के संग सुभट बह मिले ॥३२५७।। मारीच स्यंध जान भूपती । स्वयंभू प्रथोत्तम उजल मती ।। पृथ्वी वल चंद्राम अवर चंद्रसुक । नरपति बहुत प्रबर असुक ॥३२५८।। कुभकर्ण अन इन्द्रजीत । मेघनाद अति महा पुनीत ।। अढाई कोडि कदर प्रसवार । सोमै जिसा देव उणिहार ॥३२५६।। रतनवा पर मालवान । रावण चाल्यो गज पलाए । केई भूमिर केई विमान । छाई किरण जाणु लोपें प्रांण ।।३२६०।। होबै कोलाहल सबद न सुरग। उडो घल संघियारो बणे ॥ पचास लाख रावण की डोर । हस्ती मात उभ पौर ।।३२६१।। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूनि सभापंद एवं उनका पद्मपुराण रावण को सेन्या बली, सिसको नाही मत ।। एक एक रथी सरस रावण अति बलवंत ।। ३२६२।। पति श्री पमपुराणे हनुमान लंका प्रस्थान विधानक ५२ वां विधानक चौपई राम को सेना रामचंद्र प्रब साजी सैन । कीयो गबन महरत प्रेन ॥ नल अरु नील प्रगाऊ चले । सूर सुभट लीने संग भले ।।३२६३।। हनुमान जांधूनंद समान । जैमित्र चंदाभ बलबान ।। परवन कुमर रतन महेन्द्र । भामंडल बद्ध अपर नरेन्द्र ॥३२६४।। बिक रय प्रति कंठ महाबल । सूरज उदय सरव प्रिय प्रदल ।। बेल प्रिय सरव सार्दूलबुध । सर्वोत्रएन सरव बुध ।। ३२६५।। निव निष्ठ प्रच संत्रास । विधन सुदन नटवर पास ।।। पापी लोल महामंडल । संग्राम बषल का बहु वल ॥३२६६॥ परम घीर प्रस्तर दिनवांन । भगदत्त द्र पद पूर्ण चंद समान ।। विधुसागर निससागर मूप । प्रसकेद पादप चंद्र सरूप ।।३२६७।। इंद्रोवधि और गोतर वास । सकट पौन बनकरण पास ।। बलसील सिंधोवर समेद । प्रचल साल आण सुभ भेद ।। ३२६८।। महाकाल अवर रविकाल । प्रगतिलक सुलेन तरवाल ।। भीम महामीम रथ परम । मनोहारि हर मुस्ख बहु भरम ।।३२६६।। धरमति सार अर सुरजजटी । सिबदूषन प्रवर रसनजटी ।। विराषित मनोहर सेम 1 नंद नंदनी विधत वाहन जो हेम ।।३२७०।। बहुत मूप की सेना वणी । नामावली न जाये गिरणी॥ पचीस लाल हाथी की छोर । सुग्रीव साथ उभा नप और ॥३२७१।। भावमंडल किरान छन । भने लक्षमण महा विचित्र ।। बाजा बान होवें सोर । अंगद प्रगाऊ हुदो तिण ठोर ।।३२७२।। रावण के हस्त प्रहस्त योद्धानों को हार दोउं सेन्या सनमुख भई प्राय । हस्त प्रहस्त स दोर राय || उत नल नील ल. शास्त्र बांधि । बदन जुध भयो वह भांति ।।३२७३।। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.४ पपुराण हस्त प्रहस्त के लाग्या घाब । अझ ऊभा सेनापति राव ।। नल नील दोऊ जीत्या वीर । रामप्रताप अति साहस धीर ।। ३२७४।। श्री रघुबल प्रता, इनका पल त्वत धर्मा ।। रावरण मन संताप, हस्त प्रहस्त बोन्यु मरया ।। ३२७५।। इति श्री पथपुराणे हस्त प्रहस्त मप विधानक ५३ वां विधानक चौपई हस्त प्रहस्त कथा शिक नप पूछ कर जोडि । हस्त प्रहस्त की कथा बहोडि ।। राक्षस बंसी के सेनापती । उनै हणे बहुते भूपती ।। ३२७६।। इन सनमुन कोई जीत न सके । नल नील प्रागे किम भकं ।। नल नील ने मारया ततक्षणे 1 इह प्रचिरज काछ कहत न बरणे ।।३२७७।। इनका भेद स्पोरा सु कहो । इह संसय मो मन का गहो । श्री जिन की वाणी तब हुई । बारह सभा सुरग सच कोंइ ।।३२७८।। श्री गौतग समझाव भेद । सब संसय का हो विच्छेद ।। कंस सुमत सोमर का नाम | इंद्र कपिल वाभण तिण ठाम ।।३२७६ ।। करण खेती करम किसाण । ते नित करें क्या सु दाग । नित उठि दान सुपा देह । पूजा रचना सदा करेइ । ३२८॥ रागद्वष इन के मन नहीं । सोक पड्यो उपजान्यां कहीं ।। निस्वा कुटुंब नयासिक दार । इन्द्र कपिल द्विज लेहु हकार ॥३२८१।। मांग दामनि उपज्या खेस । मार किसाण द्रव्य के हेत ।। भोग भूमिहर क्षेत्र जाइ । दोन्यु विप्र देवगति पाइ ।।३२८२।। दोय पल्य की मूगती माय । सहा ते लही स्वर्गगति ठाव ।। निस्वा कुटुयन बन के मांस । दोनु घले पड़ गई सांझ ।।३२८३।। दोय पल्य की भुगती भाव । उहाँ त लही स्वर्गगति होव ॥ निस्वा कुटुंबन वन के मांझ । दोनु चले पड़ गई सांझ 11३२८३।। सीतकाल सुदुखित भए । मरकरि सातमी नरके गये । भरमे लख चौरासी बौंनि । ते दुख वर्ण समं कवि कौन ॥३२६४।। दौऊं विप्र घर सुत भए । जनमत मात पिता मर गये ।। दुख में दोउं समाया भए । संन्यासी पं दिध्या लये ॥३२८५॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचन्द एवं उनका पयपुराण ३०५ पंचाग्नि साचं तप करें । कबल जोग सखा ही धरै॥ दोऊ हाथ उन ऊंचा किये । नख बढाए मृगछाला लिये ।।३२८६।। बड़ी जटा उरग्यांन मिध्यात । भये देव दोऊ वे भात ।। दक्षिण उर विजयाद्धं मेर । अरंजय नगर वहु फेर ॥३२८७॥ वहन कुमार अस्वनी प्रस्तरी । वे दोउं देवां स्थिति घरी ।। कंपिला सकार दूजा असो करा । अरवनी राणी गर्भ अवतरा ।। ३२८८।। रथनूपुर इन्द्र के पास | करता सेवा प्राधिक उल्हास ।। इन्द्र कपिल द्विज नृप के संग । दुरजन दल को करता मंग ।।३२८६।। इनके सनमुख कोई न धपं । ए प्रधान रावण के तप ॥ इन्द्र कपिल वे स्वर्ग में गये । वहां से चयरि सूर्यभट भए ।।३२६७।। सुख माही कीने बहु भोग । भये दिगम्बर साधो जोग ।। वाईस सह परीमह गात । दया लाख चउरासौं जात ।।३२६१।। तेरह विध चारित्र पालें । काया तजि सुर भया विसाल ।। उहाँ त चव किंषदपुर भाइ । सूरजरज के नल नील कहाद ।।३२६२।। पूरक भव के ए सनमंध । तातं लिया वर प्रतिबंध ।। ग्यांनी वयर कर नहीं कोई । कद्र परिणाम खोटी गति होय ॥३२६३।। रण अन बैर दल नहीं वाहू । जनम जनम बहुत दुख सह ॥ जे राख दया सुभ भाव ! उनका तीन लोक में नाम ।। ३२६४॥ सर्वसेती उत्तम क्षमा करें। खोटे बंधन जिय में धरै ।। जित जावे तित प्रादर होइ। उसकी कीत्ति करें सब कोइ ।।३२६५॥ सोरठा पूरख भव, प्रतिबंध, भुगत्या बिन कैसें टलै ॥ दही कर्म सनबंध, या माही एको तिल न सरे ।।३२६६।। इति श्री परापुराणे हस्त प्रहस्त नल नील पूर्व भव वर्णनम विधान ५४ वां विधानक चौपई दूसरे दिन का पुद्ध रावण सुणि सेनापति बात । उमा क्रोष सुभटां के गात ।। दो धा सेन्यां उठी परभात । करि सनोन सुमरे जिण गात ।।३२६७।। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ प्रभूषण पहरे निज अंग । सस्त्र बांधि चाल्या नृप संग || रक्षा की ठांभ खडा दोउं श्राय । पद्मपुरा मारीच के सनमुख भये जाय ||३२| घोडा से घोड़ा तब लड़ें। मंगल सों मंगल प्रति भिड़े | रथ को रथ पर दिया हिया पेल से भिडं ज्यों खेलत द्वी मल्ल ३३६ 1 दो षां वर विद्या बारा । गोला गोली करें घमसान || होइ । पीछा पाव न हटिहै कोई ||३३०० ॥ मार खडग टूक तीसरे दिन का युद्ध मारं गदा व के सम्मान । सेतपराजा भुझे बलवान ।। सिंह जी कोष करि लडे । बहुत लोग दोऊ भी करें ।। ३३०१ ।। प्रथम राय शुभ के पडा । उई मद संसत्र अघन दल जुडा ।। भई मार इतते टलें न सूर क्रोध करि भट लड़ें बल पूर ।। ३३०२ ।। सकनंदन पाप ध करें । पापनंदन झुझि कर पई ॥ रामचंद्र के भुझे लोग रवि श्रा लोप्पा करि के सोग ||३३०३ ।। भई यस मिटियो संग्राम सघलां ही पायो विश्राम || भयो दिवस उम्यो जग भनि । दुषां जुटधा सूरमा भान ।। ३३०४ ॥ वर्षा बाप पडे चहुं ओर जैसे पई मेह की डोर ॥ I जुडा भूप छोडे जुरवनि । विसोलदूत के हरे पनि ॥ ३३०५ ।। वानर बंसी प्रति भयभीत | राक्षस बंसी की भई जीत ।। सुग्रीव आयो गज पलांग । श्रर्ज करें बाद हनुमांन ॥ ३३०६ ॥ तुम भव ही बैठो हरण ठाम सक्षस वंस ऊपरि दोडूं मैं जाम || हनुमान वाया केही राक्षस बंसी की सुध बीसरी ।।३३०७ ।। भाजें जिम मंगल मदमयवंत । सुर्खे सब केहरि गरजंत || तब कोप्या रावण बलवान । अवर धरणे विनती करे ांन ।। ३३०८ ।। तुम ग्रागे सारं हम कॉम हमारा देखो तुम संग्राम ॥ धाए तिहां भूपती धरणे । पड़ी मार दुरजन बहु हणे ||३३०६ || हनुमान सबै गदा संभारि । बणां भूपति मारे बारि ॥ रावण की सेना चली भाग । तबै उसके हिरदे दोइ नाग ।। ३३१०॥ कुभकरण अनै संबुकुमार । चन्द्ररु सार्दूल दल भार ॥ जंबुमाली सन उदरी सुत बाल महोदर तीन पुत्र सुबिसाल ।। ३३११ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाबंद एवं उनका पपपुराण धाय पडे सब एक बार । जंबूमाली काषक वान सों मार ।। तन्त्र झुझ राबण का पूत । कुभकरण कोपिया बहुत ।।३३१२॥ भूर्या बाण कुभकर्ण छोडिया । सोइ गया सन्नु काया मरण ।। देखें तबै तिहां नल नील । धाय पडघा ज्यों उतर धील १।३३१३।। मार गया तीर तरवार । भाम्या कुंभकरण तिण मार ॥ जीते रामचंद्र के बली । नस पर नील सह सेना दली ।।३३१४।। राबरण चद्धि दोडियो नरेन्द्र । इंद्रजीत बोले बल घुन्छ ।। हमा प्रागन्या कीजे तात । देखो नुष करू' किहं भांति ॥३३१५।। मनवांछित ह कारज करू । दुरजन दल जम मंदिर पर। लोकसार हस्ती सुपलान । इन्द्रजीत दोडे बलवान ।।३३१६॥ मेघनाव जंबूमाली पले । अस्त्रास्त्र बहु कर लिये भले ।। भकरण प्रवर हनुमंत । सृग्रीव इन्द्रजीत सामंत ||३३१७॥ मेघाहन भामंडल लई । बनकरण विराधीत दोउ भिडें । ज्यों धमहर वरष घनघोर । छुट सर गोली चिहूं प्रोर ॥३३१८।। बरछी गदा चक्रों की मार । बामें लोह उड अंगार ॥ गज सेती गज टक्कर लेह । घोडा सों घोडा मरझेह ।।३३१६H पयदल रथ तिहाँ माझे घणे । मनमें हरष धरि जोधा घणे ॥ इन्द्रमीत राय सुग्रीव कह भाइ ! हमारा देस परगना खाइ ३३२०॥ हमारा हर तें धरा न चित्त । समझ नहीं प्रापणा वित्त ।। देखि तोहि लगाउं हाथ । दूरि करौं देही से मांथ ।।३३२१॥ सुग्रीव छोडे विद्या यांस 1 राक्षस दल कोमा पलहाण ॥ इन्द्रजीत छोट्या मेघवारा । वरष मेष मुल्या अवसांग ॥३३२२।। पई बीजली परलय कर । पबन वान सुग्रीव संभरं ।। उ. पटल राक्षस दल उई । रावण सुत क्रोष मन वढं ।।३३२३॥ अंधकार बाण कू छोटि ! भया अंधेरा सुग्रीव की वोड । नागपासनी विद्या संभार । लपटे सर्प मुरछा तिह बार ३३२४॥ सुग्रीव की नागपास सौं बांधि । मेघनाद एही विष सोधि ॥ भामंडल कुंण ही भौति । कर मूरछा सांस न गात ३३२।। कुंभकरण पकड़े हणवंत । दोनू भुजा भरि घाव दंत ।। जंद फंद भल्यो कृणुमान । वा समये ना छुटे प्रान ॥३३२६।। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ विभीषण का राम की परामर्श पद्मपुराण मभीषण राम लक्षमण सों कहे । तुमारे दल में सुभट न रहे || सुम याते रहियो सावधान । सुग्रीव भामंडल के लाग्या न ॥ ३३२७।। उनकी ल्याऊं लोथ उठाम । जो कोई दरिंण प्राय उपाय || अंगद सोच कर मन मांहि । सुग्रीव भामंडल रहे हाहि ।।३३२६ ।। कुभकरण सों हुवा जुब । बाकी मारग वाही सुध || हनुमान छुटि करि गया। बहु उपाय अंगद ने किया ।। ३३२६ ।। भीषण प्रायो लोध ॐ लेन । इन्द्रजीत मेघनाद कई वन ॥ हम तो जीते हैं सब लोग । हमारी सरभर कू कोने जोग ||३३३० ॥ वावा आए करवा जुध या सनमुख किम लरिये युष || I पुरुषां परि किम करिए घाद । अब इहाँ चलें नहीं कहूं दाव ।। ३३३१ ।। समभिग्यांन भाग्याति घरी सुग्रीव लोध इनको देखे पढ़ी || I भीषण देखे इन ही की प्राइ । पढे मूर्छा मृतक की नांइ ।।३३३२|| लक्षमण रामचंद्र सू कहै । नल ककु विद्याधर गहे ॥ उनसों जीत सकें नहीं कोई | रावण सूं किरण परि जुख होइ ।। ३३३३०० रामचंद्र बोले सुरण वीर । श्रपणां मन तुम राखो घीर ।। रावण कुमारं ठाव । समर मांहि राखो तुम भाव ।। ३३३४।। देशभूषण कुलभूषण केवली चितागति देव कहीं श्री भली || जय तो हुवंगा काम | तुम चितारो आउंगा उस ही ठॉम ।।३३३५ ।। देवों द्वारा राम को विद्या प्रदान करना रामचन्द्र में आए देव | नमस्कार करि कोनी सेव || रामचन्द्र भाष्यों विरतति । सुर विद्या दीनी बहुभांति ।। ३३३६ ।। विद्या सिष करि कारज किया । दोष रथ विद्या सिव का दिया || छत्र चमर मोतियन का हार चितवत सेन्या होड अपार ||३३३७॥ मनति कारंज सब होइ । दुरजन जीत सकें नहि कोइ ॥ विद्या लई सकल सुख मूल । मन की चिता गई तब मूल || ३३३८५ वहा जैन धरम सब से बडा, निसवल राखे चित्त ॥ संकट विकट उद्यान में, आइ मिलें बहु मित्त ॥३३३६|| इति श्री पद्मपुराणे विद्यासहाय विधानकं ५५ व विधानक Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पयपुराण चौपई राम रावण द्वारा युद्ध की तैयारी रामचन्द्र लक्षमण इह चित । पहरा देव बस्त्र पवित्र ।। चंद्रहास बांधा तरवार । प्रायुष सगले लिये संभार ॥३३४०।। व सावर्त समंदरावर्त । लिये धनुष रणजीत के करत ॥ सिंघरथ ऊपर चढे रामचन्द्र । गरुड वाहन लक्ष्मण वृद ॥३३४१३। सेन्यो चारू साथ जो लई । रिव की किरण उभिल भई ।। कांपे तरवर कांपी मही। कंपे मिरिवर जलहर सही ॥३३४२।। रामचन्द्र कोप्या भगवान । कोण कोण का जासै परान ।। रामचन्द्र सुमरिया जिणंद । दोनू सोहै निम सूरज चंद ।। ३३४३।। प्राकाश गामिनी विद्या संभार । रथ सु फरस चली तिबार ।। वहै पवन लागे तन व्याल । उतरघो विष चेत्या मपाल ।।३३४४।। नाग फास के टूटे बंध । भया उजाला भाज्यो अंध ।। जेते पड़े थे मूविंत । बोल उठे नाम भगवंत ॥३३४५।। राम लश्नमण का दर्शन पाम । मन पाश्चयं भये सब राय ।। राम लक्ष्मण थे भूमिगोपरी । किरण विष इनने विद्या फुरी ||३३४६।। विद्या द्वारा मूलितों की मूर्धा दूर करना माकाश गामिपी इन ही ने किया । जीव दान सब ही कू' दिया ॥ उठे सकरख लोग मुवि पड़े । विद्या लाभ सुरिण रह जे घणे ।।३३४७॥ सुग्रीव भामंडल पूछ सहुबात । सितागति सौं सनबंध किस भात ।। रामचंद्र लक्षमण समझाय । देसभूषण कुलभूषण मुनिराम ॥३६४८।। बंसलगिरि उपरि घरचा प्रातमध्यांन । उनक' उपसर्ग भयो तिरण थान ।। हम उनका उपसर्ग निवार । केवलग्यान उपज्या तिरण चार ॥३३४६॥ पाये सुरपति पूजा करी । चिंतागति मिश्र भयो तिण घरी ।। दोन्यु मुनि का था इह तात । तपकरि भया देव की जात ३३५०।। या सम अवर नहीं सुर कोइ । इन्द्र समान चितागति होय ।। इन म्हारी स्तुति करी पक्षी । जैसी बात वासय भरणी ।।३३५१।। है सेबग थारो रघुपति । जब चितवो तब प्रातित तब तुम मूवित होय पढे । पितागति ने चित मध्ये घरे ॥३३५२।। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण प्राये देव तिरण विद्या दई । ब्योरो सुणि चिंता मिट गई ।। सुभ मा भसुभ करम का जोग । सुभ के उर्व कर बहु भोग ॥३३५३।। असुभ फरम तै पावै दुन । दोनू सरभर दें दुख सुख ।। धर्म चितवता दूर्दै पाए । पुण्यवत का टले सताप ॥३३५४|| संकट विकट में घरम सहाय । सुरपति नरपति सेव पाय ।। परम समान सगो नहीं कोह । घरम हि तै बहु विष सुख होई ।।३३५५।। ब्रहा परम दान सक्तै बडा, पातै भलो न मोर ॥ संसारी मुग मुक्त परि, फिर देर र ३५६!! इति भी पपपुराणे सुग्रीव भामंडल समाधान विधामक ५६ वा विषामक ___ चौपर बोनों ओर के योद्धानों द्वारा युद्ध इह प्रकार नृप रावण सुण्यां । पाए पाप राम लक्ष्मणा ॥ लंकापति हस्ती सुपलारण । पती सेन्या बाजे नीसाग ।।३३५७|| इत मारीच इत है सुग्रीव । बनमुस सारन जुष की नींब ।। मिरस अवर जुटे सुक्रोध । मेघनाद विराधित ए जोष ॥३३५८॥ भेदयंत अंगद दोउ लडें । कुंभकर्ण हगुमांन सू भिडें ।। मंभीषण वेख्या रावण दृष्टि । क्रोध भई बोल्या प्रभिष्ट ३३५६।। रे कपूत मूरख अम्यान । भूमगोचरी का सेवग भया मान । तो फू अवही मारूठोर । प्राप्ता जाणि दिया है छोडि ।।३३६०।। विभीषण रावण पुर भभीषण कहै सुण रे पापिष्ठ । तें तो करी पाप की दृष्टि ।। सतवंती सीता कुहरी 1 पाप पुन्य का भेद न धरी ।।३३६१।। सेरी भई प्रायु बस बीग । तातै बुधि है भई मलीन , जे तू जीया बाहै भ्राप्त । रघु ने मिलाउं मां हर संघात ।।३३६२।। सीता देकर लागों पाई । तेरा प्रान में देर मुडाइ । इसनो सुरिणत रायण कोपिया । क्रोषवंत तब वे भया ॥३३६३11 जैसा सुतंसा में जुटे । पाछे पाव न कोई हर्ट । सनमुख भए भूपती घणे 1 उनके नाउ कहाँ लगि गिणे ।। ३३६४।। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचंद एवं उनका पद्मपुराण धनुष बैंचि करि मारे बाप । भभीषण के कंठ लाम्या वाण ॥ टूटया धनुष भभीषण वच्या । वह जुष दोघा मच्या ॥३३६५।। विजुली सम घिमक षडम । बाई रहां तिहां सगला सरग ।। तिहां होवे तीर तुपक की मार । बधार सुकर संघार ॥३३६६॥ मार खड्ग मुख गिर पड़े । तो न सुभद घरती पर पसे ।। मुस साता भी नहीं बना ।। ३३६७।। स्रोशित की वैतरणी बद्दी । पडी लोथ कहां रही नहीं मही । हाथी घोडे झुझे घणे । परवत सम र तिहां वणे ॥३३६८।। पग परवे . रहीयन ठौर । दोउ ी मांची बहु कोहि ।। राम कुभकरण सूपुष । लक्षमण ने इन्द्रजीत सूविरुष ।।३३६६।। दुइंधां बांण पई ज्यों मेह । भालिन फूट इनू की देह ।। लक्षमण इन्द्रजीत लिंग माय । मपडि रथ सौं पटके जाइ ॥३३७०॥ रावण की सेना भाजि के चली । इन्द्रजीत संभाल्पा बली ।। रथपरि चढचा बहुरि संभारि । सेन्यां सकल लई इंकार ॥३३७१।। बुबा बाण छोरुया इन्द्रजीत । लक्ष्मण सूर्यवाण मन' चित ।। छोडे बारण उजाला भया । अंधकार सगला मिट गया ॥३३७२।। नागपासनी छोडी विद्या । गरुड बाग में होई भिधा ।। वह विद्या लक्षमण ने गही । छोडी इन्द्रजीस सामही ।।३३७३।। रावण का सुत मुयिंत । नाफ फास सुषि तुरन्त ।। कभकर्ण रामचंद्र सुलई । रथ समेत वह ऊषा पडे ॥३३७४।। रामचंद्र फिर रथ परि बढे । या समए क्रोष प्रति म ।। नाग फासि बोध्या कुभकर्ण । मूर्थावंत प्राण का हर्ण ॥३३७५।। लागे सर्प उनू की देह · काटै तिह का प्राण हर लेत् ।। खंचे देह सुन व्याप घणां । अंसा.कष्ट उनों कों बणां ।।३३७६।। भामंडस इन्द्रजीत डिंग प्राण । रथरि डाल लिये बलान ।। विराधित कुंभकर्ण सिके उठाय । रथ परि ततक्षरण लिया पढाय ॥३३७७।। समन रावण युद्ध बोले रावण सुरिण लक्षमणा । तेग भी पाया है मरणां ।। लक्षमण बील रावण सुण । तो कु अब पलही में हों ।।३३७८॥ दारुण जुष दोउषां होय । द्वारि न मान हूँ में कोम ।। प्रसक्ति बारा रावण दे तारिए । लक्षमण के उर लाग्या आणि ॥३३७९॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ पद्मपुराण गिरमा भूमि सांस लब थक्या । रामचंद्र रावण सों जुट ।। बापत्तक बाण जू छुट । रामचंद्र रावण सौं जुटे ।। घणी बेर लग कीया जुध । रावण नै मारि किये बेसुध ॥१३॥ गज के रथ सू दीया हारि । सिंघों के रथ चढे संभारि ।। उहाँ त फिरि रावण दिए डारि । मारि गदा तिहां तिह बार ।। ३३८१५॥ कोई न घाव रावण के फुहा 1 रामचंद्र तय ग्रंसा कहा ।। अरे रावण तेरी उमर है घणी । तू सटा है अबकी भणी ।। ३३ ।। संका जाइ पाश्रम गहों पर बयर रक्षा को हो । तेरे टूफ टूक जब करूं । तोकू से जम मंदिर पर्स ॥३३८३॥ रावण सब सेन्यां ले साथ । लंका पहुंच्या हरषित गात ।। मैं सक्षमणां मारा है सही । मोकू कुछ पिता है नहीं ।।३३८४।। जे रामचंद्र मुझसौं फिर लई । यात का कारिज ना सदै । भ्रात पुत्र की चिन्ता चित्त । देखो यह संसार प्रनित ॥३३८५।। दुख सुख जीव तर्ण संगि लग्या । असा ग्यान उणसम जग्या । कर सोच ग्यान घरि चित । होणी टर न अंसी स्थिति ||:३८६॥ मडिल्ल लक्षमण पडया प्रचेत राम व्याफुन घरण ॥ रावण भए नचित क्योंकि दुरजन हणां ॥ असा प्रवर न कोई तो हाथ रावण मर। देखो कर्म प्रभाव कहा ते कहा कर 1 ३३८७।। इति श्री पद्मपुराणे संग्राम विधान ५७ वां विधानक चौपाई राम विलाप रामचंद्र लक्षमण कपास । देख्या मृतक कह न सांस ।। रघुपति देवरि खाइ पछाड । रोवं पोटै बारंबार १३३८८।। हाय भाइ इम कसी बरणी 1 मंत्री वात कहैं ये घरणी ।। जब हम छोडि अजोध्या चले । सब परिवार कह मिले ।।३३८६।। लक्ष्मण कु नीके राखियो । मनोहार वाणी भाखियो । किस भांति नै चलावो चित्त । पक्मण कोज्यो भक्तं हिस ।।३३१०।। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनि सभापन्य एवं उनका पयपुराण मो कारण लक्षमण जीव दिया । अवर महिरी बिछडी सिया ।। किम दिखाउं मुख प्रापणां ! मोहि अपलोक चढया है घणां ।।३३६१॥ मैं देश्या भाई का मरण । अवर भया सीता का हरण ॥ काठ संकेल अगनि मैं जरूं । लक्ष्मण का कैसे दुख भरूं ।।३३६२।। सहु राजन सू रघुपति कहै । तुम हम संग बहुत दुख लहैं ।। मेरा बहुत किया उपगार । पर उपगारी हो भूपाल ।।३३६३॥ बोले भूपति इस परि बात । जीवैगा लक्ष्मण तुम भ्रास ।। इसका हम करि हैं उपचार । चउकस राखो चोकीदार ।।३३९४॥ दुरजन कोई सक्र नहीं प्राइ । कोई उपाधि न करि है यहाँ प्राय ।। दिसौं दिसा रखवाला रहो। उला पैला का प्राइट लहो ।।३३६५॥ राब जागियो नरपति चिहुं ओर । चौकीदार मिलो कर सौर ।। तिण थानक कोई पैठ न सके । सहु जागियो इम जाण न सके ।। ३३६६।। इदिस पापो सतीद, म वलाप विधानक ५८ वां विधानक चौपई मन्दोदरी और सीता का विलाप रावण मन में चिता करें । कुंभकर्ण इन्द्र जीत दोउ मरे ।। रोवं राणी मंदोदती । सुवरण वाम तरणी असतरी ।।३३६७।। कैसे जीवां अइसे दुःख । अब सहु वाद उनू विण सुख ।। अंसा दुष रावण के मना । सीता शुष्पो मुनो लक्ष्मणा ॥३३६८।। रोब लूच सिर के केस । राख सदा राम सु सनेह ॥ हम मरती तो टलतो पाप । मेरै कारण हुवो विलाप ।।३३६६।। सीता तब समझा बैन । अपनां चित राखो तुम चन ।। लक्षमण का होगा जतन | असा दुख निवारे यतन ||३४००।। सीता समझि रही मुरझाय । अव सेनां मैं करें उपाइ ।। भामंडल और चन्द्राति का प्रागमन भामंडल जागियो नरेस । चंद्रप्रति में कियो प्रवेस ।।३४०१1। पूछ मामंडल तू कूरण । किह कारण ते कीयो गौरा ।। बोल परदेसी दरसन निमित्त । मैं तो ध्यान घरचा है चित्त ॥३४०२।। भामंडल को है भूपति । लक्षमण के बाण लाग्या सकति ।। रामचंद्र बैठा उन पास 1 रघुपति तिण थां बहुत उदास ।। ३४०३।। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचपुराए चंद्रप्रति तब बिनती करै । मैं हूं वंद्य कारज तुम सरै ।। भामंडल इतनी सणि वात 1 वाकी ले चाल्यो संघात ।।३४०४|| खेडा माहि रोक नहीं कोइ । इनका मन बांछित जो होइ ।। रघुपति को उन करि डंडोत । नमस्कार फिर किया बहुत ।।३४२५।। रामचंद्र पू॰ तिरण बार । इहै है कोण तुम लार ।। कहें ए वैद्य गुणवंत । लक्षमण जतन करें बहुभंत ।। ३४०६।। परदेसी कूपू राम । तू कितत्तै पाये इण झाम ।। ध की जीवन कहानी कहै विदेसी अपनू भेद । विजयारघ तहां विद्या भेस ।।३४०७।। गीतपुर नगर समेइल राइ । सुप्रभा राणी रूप को काम । ताके पुत्र चन्द्रप्रति भया । बल पौरिष मो मो नया ।। ३३०८।। बेसंधर का सहस्रबीयं पुत्र । चंद्रबारण मोरिया तुरंत ।। में पाया जाय अजोध्या मांहि । तिहां भर्थ भूप पाए सांझ ।। ३४०६।। मोकू देखि दया उन करी । गंधोदिक छडक्या उणा घडी ।। उत्तरमा दोष मोकू भया चेत । उनां परम सुकान हेत ।। ३४१०॥ मैं उटि भरत सू विनती करी । इस विद्या हैगी गुरण भरी ।। इसका मोहि सुगावो भेद । भरत भूप भाष्यो सब भेद ॥३४११॥ महिन्द्र उदै रावरा मेष भूप । गुणसाला राणी बह रूप ।। वा गर्भ बिसल्या भई । रूप लक्षण सोभे गुण मई ।।३४१२।। स्या को कथा जब वह कन्या कर सनान । वह जल पहुं रोमी धान ॥ तिनका रोग सबही मिट जाई । सकति बारा का दोष बिलाइ ।।३४१३॥ अजोध्या माहि रोगी थे घणे । वाही जल तें नीके कणें ।। तब से प्रगट भया वह नीर । गई सकल रोगी की पीर ॥३४१४।। पूछ भरथ विसल्या परजाइ । बाका भब भाषो समझाय ।। कवण पुन्य त पाई सिघ । जिसके चरणोदक इह विष ॥३४१५।। सकल रोग कू परिहा कर । असे गुण भरणोदक घर ।। नोले मुनिवर ग्यान विचार । क्षेत्र विदेह स्वर्ग अनुहारि ॥३४१६।। पुंडरीकनी सीमंधर जिनंद । चक्रवत्ति त्रिभुवम पानंद । चक्रधरा वाकै पटधनी । रुपलक्षण गुण सोम खरी ॥३४१७॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुमि सभाचंद एवं उनका पमपुराण ३१५ अनंगसेना ताक पुत्तरी । दानादिक गुरग में लावण्य भरी ।। जोवन समै पुनयंस को दई । दोन्यां मां प्रील मति भई ॥३४१८।। एक दिवस प्रनंग कुसमा नारि । सोवत देखी दुरपरि तिह वार ।। विजयाद्ध का विद्याधर धीर । देखी त्रिया आया सिंह तीर ।।३४१६।। गही बांह विमाए बैठाइ । ले के विजयां फू ते हाइ । मंदिर मांहि भई पुकार । त्रिभुवन नंद सुणी तिहं बार ।।३४२०॥ भेजे सुभट सुता की खोज । सब परियण मां मांची रोर ॥ विद्याधर देख्या गमन मायास । अनंग सेना बैठी ता पास ॥३४२१।। वह षेचर एह भूमिगोचरी । सकल लोग बोल्या तिण घडी । रे रोक सुरा हो दुर पीर । हमसू जुध कर तो वीर 11३४२२।। पडी मार तीर तरवार । टूट्या रथ भाज्यो तिण वार ।। वह कन्या रयते गिर पड़ी । पंचनाम सुसरण पाखडी ॥३४२३॥ महा उद्यान भयानक ठोर । कर विलाप रुदन प्रतिधोर ।। मात पिता का सुमरै नाम । मनुष न दीस है तिरण ठाम ॥३४२४।। हाय कर्म ते अंसी करी । भूख प्यास सों सुष वीसरी ।। वहै विरयो कुण होइ सहाय । वहै विरयां कछु न बसाय ।।३४२५।। दहा चक्रवर्ति की थी सुता, करती भोग विलास ।। प्रशुभ कर्म के उदय से, पजी प्राय वन वास ॥३४२६।। चौपई वनवास के दुःख तिहां स्यंघ चीता बह ब्याल । भयदायक रट बहु स्याल ।। वन के भयदायक तिरजंच । एई सीत वस्तर नहीं रंच ।। ३४२७।। अंसा दुख सों बीत काल । मन फल खाइ सुप्ता भूपास ।। उनानं तप सव मही । सीतल ठौर न पावं कहीं ।। ३४२८।। दुख में वीतै पाछु जाम । तिनहीं नहीं कभी विधाम ।। बरषा प्रागम वरष मेह । सहे परीसा कोमल देह ।।३४२६।। पवन चले वरषा झकझोर । चमक दामिन आइ मदा घनघोर ॥ छोडि पास ससारी भोग । मन बच काय लगाया जोग ।।३४३०।। दोय हजार वर्ष तप किया। अन्न पाणी तजि संयम लिया ।। भव्य तीन सु विद्याधर माह । नमसकार करि लाग्या पाइ ।।३४३१५ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपुराण धन्य साष अंसा तप करें । छह रुति का दुख मन नहीं धरै ॥ चिदानन्द सों ल्याया ध्यान । दया करें राव ऊपर जान ।। ३४३२।। वन में ए तप इण विध किया । जीव दवा संयम ब्रत लिया ।। लमधदास कहैं तुम चलो। त्रिमूषन प्रानंद पिता सू मिलो ॥३४३३।। प्रनंग सेना मन में समझाइ । मैं संन्यास करया रण य ।। छोडे सब संसारी मोह । लबध दास समझाऊं तोह ।।३४३४।। तब उठि गया भूपति मों कहीं । अनंगसग़ देही सब दही ।। उप वन में लीयो सन्यास । छोडि दिये सब भोग विलास ॥३४३५।। त्रिभुवन नंदन देखा निमित्त । प्राया वन में देखी वहुमंत ।। अजगर भया दुरधी का जाप । उन म न पार नाय ।।१४।। इसी अनंगसरा तिहं घडी । देही छोरि स्वर्ग सरी ।। भुगति प्राव द्रोवन मेंघ गेह । गुग्णसाला गर्भ विसल्या एहूँ ।। ३४३७।। इण प्रकार की पाई रिध । चरण उदिक होवे सब सिध ।। त्रिभुवन मंद इह कारण देखि । उपज्यो संसार वैराग परेष ।।३४३८।। जाण्यों इह संसार मरूप । भ्रम्पो जीव धरि नाना रूप ।। देही प्रादि सगो नहीं कोय । संपति लगाां बिछोहा होइ ॥३४३६।। चारू गति भरम्युचिदानंद । सुभ अन असुभ तरणे दोइ फंद 1 कबह रंक कबहु मुवनेस । जसी करनी तैसा भेस ।।३४४०।। मन वच काय लगामा ध्यान । काठि कर्म पहूंच्या निरवाए । वाईस सहस पुत्र समेत । ल्याया चिदानंद सों हेत ।।३४४१।। दुरिम मुनिवर के पास । दिव्या लई सुगति की आस ।। तेरह विध चारित्र प्रत लिया। विधपंच महाव्रत किया ॥३४४२।। तीन रतन बरण्या दस दोइ । बाईस परीसह उन अंग होई ।। उसन काल गिर ऊपर तपै । बरषा सम रुख तलि छिपें ॥३४४३॥ सिमाले सरिता तट ध्यान । उपज्या उन केबलग्यांन ।। गए मुकति तिहां सिध अनंत । ज्योत ही ज्योत भई एकस ॥३४४४।। पुनवसु के त्रिया का सोग । भए दिगंबर यांच्या भोग ।। पच महावत पांचु सुमति । मन बच काया तीनू गुपति ।।३४४५।। बाईस परीसा सह प्रग । द्वादश अनुप्रेक्षा तह संग ॥ छह रुति के सुख दुख सहे सरीर । जारण षटकाय प्राणी की पीर ॥३४४६।। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंच एवं उनका पद्मपुराण || दसौं दिसा बार्क प्राभरण। श्री जिन बिना कोई नहीं स करि देह जाजरी करो। अंत समय सी मन धरी ।। ३४४७ ।। त्रिया दुरधी ले गयां ॥ जं में निर्मल भूपति भयो मेरे तप का एह फल व्हेंज्यां । मो सम बली न दुवा मां कहज्यो ।। ३४४८६ ।। अनंगवर सुं फिर सनबंध हो जो सा किया वह संघ ॥ देही छोडि लही श्रमर विमा श्राव भूगति दसरथ कं गेह अजगर भरि भैसा गति भया ३१७ | पायो स्वर्ग तीसरे थान || ३४४६ ।। भए पुत्र लक्षमण को देह ॥1 । हस्तनापुर जनम जूलिया ३४५० ।। वर्धमान वणिक तिहा रहे । विरराज हेत देशांतर बहै || भैंसा लादि अजोध्या गया । तहां महिष गल कुष्टी भया ।। ३४५१ । कीडा पढि सहें दुख घरपे पाप उदय तें ए फल बरी || कोई बालक मार देल । खेचें पूछ करें वे खेल || ३४५२ || इस दुख नई भईसा मुवा । बचवर्त्त कुमार देवता हुआ || रहे नरक में तिहां नारकी उन कुं दुख करें मार करे ।। ३४५३ ।। समभि कुबोध विचारि चित्त । महय्या महिष अजोध्या करि थित्त ॥ उंन लोग मोकु दिया दुख । अब लेहुं वयर तो पाउं सुख || ३४५४ | उन छोडी कोई प्रसी बयार । सर्व कुंभ या रोग लिए वार || सगला दुखी या पुरलोक । अजोध्या में प्रगटचा था रोग ||३४५५|| द्रोण मेघ की विशल्या पुत्तरी । उसके चरणोदिक पीडा टरी || बहु विशल्या लक्षमण को नारि । या त होइ इनका उपगार ||३४५६।। वृहा पूरब भव सब ही सुणे भाज्या सब संदेह || जैसा कर्म कोई करें, तैसी गति पावेह || ३४५७।। इति श्री पद्मपुराणे बिसल्या पूर्व भवांतर विधानक ५६ बां विधामक चौप हनुमान प्रांगद को अयोध्या भेजना सुभ्यां रामचन्द्र पर जाई । हणुमंत अंगद जोध्या पठाइ ॥ भामंडल कू दीया साथ विरियांन लागी इको जात ॥ ३४५८ ।। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ पचपुराण भरत सोधें या सज्या ठोर । ए पहुंचे भूपति की पोर ॥ श्री बजावें गाणे तनि । रघुवंसी कुल का करें बखान ||३४५६ || भामंडल का उत्तर भर भूप सांभली ए बात । तजि निद्रा वस्तर पहिरे गात || छार उभा देख्या तीन । महा सुषड बजावै बीन ।। ३४६० ।। तिनकू पूछें भरा नरेस | तुम हो हो देश ॥ कवर काज प्राये तुम रयण सांधे मोहि सुरगावो वय ।। ३४६९ ।। ३४६२०० भामंडल बोले समझाय | राम लक्ष्मण डंडक वन रहे जाय ॥ सुरजहास खडग तिहां लिया । खरदूषन संयुक जिहां दही रावण सीता हर ले गया । वानर वंसी का मदद मया ॥ हरि मैं लाग्या सकती यांन हरि के हर ले गए पराण ।। ३४६३॥ देहु नीर संजीवन मूल । वो कछु होषं जीवन सूल ॥ इतनी सुरंग कोप्या भरत । सत्रुधन सुगिर क्रोध करत ।। ३४६४ ।। ऐसा क्या रावण बलवान सीता कु ले गया निज थान ॥ मारू राजा कू धब जाई । बाड़ी समय नीसान बजाय || ३४६५ ।। जागे सब नगरी के लोग । भरत कु व्याप्या लक्ष्मण सोग || सुणिवाजत्र जान्यां सर्वे । प्रतिधीरज सुत प्राया त मैं कोई दुरजन यहां याइ । प्राण चढे वाजित्र वजाय ॥ भए एक नरपति घर । भरत सूं कहे उपाय किये व ॥ ३४६७ ॥ ३४६६ ॥ जे तुम लंका पहुंचो राइ | तो इह रयण बीत के जाय | लक्षमण का होवें काज दिसल्या भेजो इरा सार्थ प्राज || ३४६८ ॥ कंकई गई मेषद्रव के गेछ । बिसल्या सुष्पां लक्षमा सुं नेह ॥ रोबे कन्या लग्या सुन वारा या समे पाऊं जाण ।।३४६६।। तो लक्षमरण अब जीवं सही सूरज उदय क जलन नहीं ॥ सब मिल कियो यह विश्वार । भामंडल संग विसल्या तिए वार ॥ ३४७० ॥ १. लक्ष्मरंग यासु पवन फरस के लाग । उसही घड़ी लक्षमा उठि जाग ॥ श्रसक्ति वारण भाइया आकास । लक्षमण को भई जीने की श्राज ॥ ३४७१ ।। पवनपुत्र पकडो वह बार बोली विद्या पूचं हनुमांन ॥ असक्ति बारण नैं छोड़े प्राणु । पुण्यवंत सों चली न सयान || ३४७२ ।। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचन्द एवं उनका पद्मपुराण ३१६ लक्षमण पुण्यवंत अति बली । विसल्या नारि सर्वगुण मिली । मैं विद्या असी प्रसकस्ति । मोकू जाणे सर्व जगस ।।३४७३॥ भद्र ने र: विधः दई । यहां प्रापा ।। बालि मुनीश्वर गिरि केलास । वा समये असक्ति दिया तास ।।३४७४।। मोकू कोई सके न टारि । जो मिल जल करे संसार ।। विशल्या पूरब भव तप करें । ऐसी रिध उस सपतै फर ।।३४७५।। प्रापत सुरखी विसल्या नारि | अगले भव का लक्षमण भरतार ।। मैं भागी लक्षमण तजि देह । पुन्य बराबर अवर न एह ॥३७६।। विसल्या द्वारा मूर्या दूर करना बिसल्या प्राइ लक्षमण के पास । केसर चन्दन लई सुवास ।। ममचन्द्र कू किया नमस्कार । लक्षमण तशी की बह सार ।।३४७७।। कन्यां सहस्र विसल्या साथ । सब मिल गावं जस रघुनाथ ।। ताल मृदग बजावं कीण । गावं सकल नारि प्रवीण ॥३४७८।। लक्ष्मण का होश में माना लक्षमण तव उठे अ'गराइ । मुख ते सुमरे श्री जिनराइ ।। बोले लक्षमण रावरण कहाँ । मार मार सबद मुख ते भण्या ।।३४७६।। रामचन्द्र समझाई बात 1 असक्त बाण लग्या तुम गात ॥ विसल्या मेघद्रवरण को धिया। प्रसक्त बाण इने दूर किया ।।३४५०।। गाए अनंत बधाये घणे । मूर्या तणे सब दुखरण हणे ।। घेत्या सब सेना के लोग । मूल्या तब परजा का सोग ॥३४८१।। वाईष परिषह उन सहे, पंडी प्यार कषाय ।। असुभ करम सब दारि करि, भया नरायन राय ॥३४५२।। इति भी पापुराणे विसल्या मागमनं विमानक ६० मा विधानक सबल को मंत्रियों द्वारा समझापा रावण सुनि लक्षमण उपचार | किये सचेत विसल्या नार ॥ सकती बाण से हवा असफति । पुन्यवंत कुकछु न लगत ॥३४८३।। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० पपपुराण बंठि सभा वह मंत्री बुलाई । पूर्छ मासा लंका जाइ ।। मृगांक मंत्री बीनती करें । कई सांच प्रभु हिरदै वरं ॥३४८४।। स्पंघा के रथ श्री रामचन्द्र । ते जाणं विद्या के बंद ।। गरड वाहन लामरण कुमार । विषल्या जाणे विद्या सार ॥३४५५॥ जे तुम चाहो भगत्यां राज । राक्षस बंसी रास्त्रो लाज ।। सीता ले मिलो राम के संग । जो न होवई राज का मंग ।।३४८६॥ सदा रहै ज्यों ऊन सौं प्रीत । छूट कुभकरणं इन्द्रजीत ।। राबरण का मन्तव्य रावण कह सुण मंतरी । भेज्यी दूत उनप इन घरी ॥३४८७।। रूपवंत हुवे चतुर सुजाण । निरभय बचा सुगा जाम ।। छुडावो कुभकर्ण इन्द्रजीत । हम उनसौं करें मंत्र को शैत ।।३४८|| मैं नहीं वा करें घमसान । चाल्या दूत सुघड सुजांन । रावण के व्रत का राम के पास जामा सुग्ण उपदेस राम पं गया । सेन्या देखि विधार इह किया ।।३४८६।। इन है सेम्यां प्रति छ । राषण के है सब कुछ। जाह पौलि ठाडा भया दूत । रामचंद्र सेन्यां संजूत ।।३४६०॥ पहुंच्या त्वरति बुलाई बसीठ । स्वामी काज को देइ न पीठ ।। रामचंद्र का दर्शन पाह । नमस्कार करि ऊभा जाइ ॥३४६१॥ विनती करू सुण हो रघुनाथ । कुभकर्ण इन्द्रजीत छो भी साथ ।। रावण सु राखो सनमंध । इत उत तं चूक इह घंध ।।३४६२॥ प्रजा बचै सब का दुख जाय । छोडा क्रोध धर्म के भाय ।। राम का उत्तर रामचंद्र वोल तिण बार । जो सीता भेजै हम द्वार ॥३४६३।। भाई पुत्र उसका देउ छोडि। जब वह जीया पाहै बहोडि ।। रावण के व्रत का पुनः निवेदन दूत कहै सांभलि राजान । रावण सम कोई नहीं प्रान ॥३४६४।। उन जीत्या है तीन पंड । सव भूपन प लिया हे दंड ।। जीत्या इन्द्र दो दिगपाल । राक्षस बंसी बली भूपाल ।।३४६५॥ जं तुम जीया चाहो राम । तो सीत का मति लेह नाम ॥ छोडो कुंभकर्ण इन्द्रजीत । तो तुमसौं छूट नहीं प्रीत ॥३४६६।। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमि सभावंद एवं उनका पमपुराण ३२१ हमारे कुल को लाग गाल 1 बोल नहीं बबन संभाल ।। सीता कु दूजा कहे भरतार । नगै कलंक तिहुँ लोक मझारि ॥३४१७॥ रामचंद्र जो ढील न करें। रावण फू हम परलय करें। लक्षमस भावमंडल सू कहै । दूत कु कछु दोष न लहै ॥३४६८।। रावण के बचन कहै इस कौर । याकू कडू न लाये खोडि । सिंह कोप हस्ती परि करें । मुखक परि कछु काज न परं ॥३४६६॥ इह बसीठ संदर सामान । ता परि कोप स्मंध क्या नान ।। इतनू कहि मार क्या पाप ! जोग्या नीतं समझ पाप ||३५००।। बलि वृद्ध विप्र तापसी । जोगी जती षुद्र मानसी ।। पशु भाथित पंषी अस्तरी । इन मारि भुगतं गति बुरी ।। ३५.१।। दुत मार का लाग दोष । सकल ही जीव दया को पोष ॥ जिहां दया तोहां परम । अदया जाणहु पाप का ममं ।।३५०२५॥ भावमंडल का घट गया क्रोध । लक्षमण नै दीया प्रतिबोध ।। सामंत दूत फिरि बोले बयन ! समझो राम ज्यु पावो चैन ।।३५.०३॥ तीन सहस्त्र विद्याधर सुता । व्याही सकल सुख की लता || जो विद्या तुम चाहो राम । मानु नगर भलेरा गाम ॥३५०४।। पुहपक विमान छत्र सुखपाल । हार्थी घोडे मोती लाल ।। प्रर्द्ध राज लंका का लेहु । सीता का हट छाडि देड्ड ।। ३५.०५।। राम का प्रत्युत्तर तब श्री रामचंद्र हम कहैं । अरे मूढ तू विवेक न लहै । रावण के कोई मंत्री नाहि । भली बुधि समझावै ताहि ।।३५७६।। नारी देकर मुमतो राज । ते अपणो बिगाडे काज ॥ वातै भलो जांणु प्रतीत । वन में रह प्रासम सुप्रीत ॥३५७७।। फिर पयादा वन फल खाइ । वा सम सुखी अवर न कहवाइ । श्री जिन जी लगावं ध्यान । राखं सदा पातम ग्यांन ॥३५०८।। दूहा राज काज घीया तो, भुगतं सब विष सुख । घिय जनम वा पुरुष को, कुल है लगावै दोष ।।३५०९।। धक्का दीया दूत को, दिपा सभा ते काढि ।। वचन न बोल समझ फरि, तातै व्याप गाडि ।।३५१०| Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपुराण चौपई व्रत का रावण के पास पाना गया व्रत रावण के पास । भाषी सकारन बात परकास ।। भामंडल वचन कह्मा समझाइ । लक्षमण ने तब दिया छुड़ाः ।।३५११।। वह तो हठ छोई नहीं, तजे न सीता नारि ।। घरम नीत जे सुम करो, बेग विटाबो राडि ।।३५१२।। इति श्री पपपुराणे रावण वृत प्रागमन विधानक ६१ वां विधानक चौपई रावण द्वारा चत्य वचना राबरण सुणे दूत के बैन । कर सोच मन भयो कुचंन । कुंभकरणं अने इन्द्रजीत । मेघनाद तीनू भयभीत ॥३५१३॥ वे बंध में भुगत राज ! मेरा हुआ धनां अकान ।। वे ठाडे गलथं हाथ । सोगवंत करि नीचा माथ ।। ३५१४11 बहुत किया उनसों संग्राम । हारि न माने लक्षमण राम ।। मानों अब मुझ कैसी बने । निसर्च वे प्राण मम हनं ।।३५१५।। असी विद्या साधू कोइ । सुरजन सके न सनमुत्र होइ ।। बडी धेर उपज्यो चितांन । सन राई सांतिनाथ जिन थान ।। ३५१६।। मुनिसुव्रत स्वामी की सेव । करू बिब बीसौं जिनदेव ॥ सहस्रकूट कंपन देहुरे । रतन बिब कंचन मों जड़े ||३५१७॥ देश देश चीठी पठवाह । करो चत्याले सगली सज्याइ ।। पर्वत बन नगर प्रने गांम । भए देहुरे उत्तम ठांम 11३५१।। पूजा प्रतिष्ठा करें सब लोग । धरै भाव करि तीनू जोग ।। मंदोदरी आदि प्रठारह सहस : पूर्ज सब त्रिय उत्तम वंस ।।३५१६।। धरम महासम हिए विचार । देव गुरु सास्त्र कर मनुहारि ॥ पूजा वान करें सद नित्त । दया धरम सों लगाया चित्त ॥३५२।। इति भी पपपुराणे शांतिनाथ मुनिसुव्रत त्यालय विधानक Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनि सभाचं एवं उनका पपपुराण ६२ वा विधानक चौपाई मस्टाहिनका महोत्सव फागुन मास अष्टमी स्वेत । अठाई वत्त करें धरि हेत ।। नंदीश्वर दीप जिनेस्वर भवन । सुरपति कर तिहां गवन १३५२१।। अमराथिप पूजें जिन देव । कर नृत्य मन बच सुनेह ।। कंचन कलम पीर जल लाव । ते ढाल मस्तक भगवान ।।३५२२।। ग्तनपुंज रि पूजा करें । जे जे सबद पाप कू हरें ।। खेचर भूचर चल्यालय भगवंत । रचना रचै तिहाँ बहुमंत ।।३५२३।। तो बन्न थे सोभय ठोर । बाजंतर बाज तिहां सोर ।। अष्ट द्रव्य सामग्री धरणी । वांदरवाल को सोभावणी ॥३५२४।। पंडित मुनी पढ़ जिनदेव । कहै ग्यांन के सूक्ष्म भेद ।। वर्त अठाई उत्तम ध्यान । करुणा भंग वखाणे ग्यांन ।।३५२५॥ दूध दही रस घृत की धार । श्री जिन पूजा बारबार ।। दुहंघा वोर कर सब धर्म । जीव जंत करूणा का मम ।।३५२६।। सब ही सू' छोडे तिहार । पुन्य काज लागे चई फेर ।। चरचा करै घरम की रुची । पास क्रिया बहुत ही सुची ।।३५२७।। सामाईक कर त्रिकाल । सावधान सब ही भुवाल ।। प्रात्मा लिव ल्याब बहु भाइ । विठसू वृत्ति कर सब राय ।। ३५२८।। वत्तं प्रवाई जे करें, रास्ने समफित मुघ ।। सो ही उत्तम जिन सही, कर धर्म की बुष ।। ३५२६।। चौपाई शांतिनाथ मिदर सु अनूप । पूजा करें तिहाँ रावन भूप ।। मष्टांग कर नमस्कार । प्रस्तुति पर्व सु बारंबार ।।३५३०।। मन में विचार अंसा भाव । जिहां लग बसे नगर मन गांव ।। पाठ दिवस का पोसा लेह । नित उठि दान सुपात्रां देहि ।।३५३१॥ जमदंड फु इह-प्राग्या भई । कुरा फेरि दुहाई दई । जे ते हैं उत्तम कूल लोग । आठ दिवस अठाई जोग ।।३५३२।। प्रारंभ तनि करी दिढ घरम । पाठ दिवस छोडो सब कर्म ।। जा के घर में नाहीं प्रश्न । तिस क् यो मुंहमाम्या पन्न ।।३५३३।। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ पद्मपुराण मंडारहु दीज्यो ताहि । जो कुछ चाहे सो यो बाहि ॥ सुणु सहु लोक भयो आनंद । पूजा र श्री देव जिनंद ।।३५३४।। तीन फाल पूर्ज जिनदेव । सुरण सास्त्र गुरु की सारै सेव ।। दान सुपात्रां विधि सौं देइ । मठाई व्रत सफल कर लेह ।।२५.३५।। अ# जाप राखें चित ठौर । गहै मौन ध्यापइ न है और ॥ कोइ चरचा कोइ अातम ध्यान | कोई कहे परम व्याख्यान ।।३५३६।। रावण द्वारा विद्या सिडि का प्रयत्न रावण चौबीस दिनो की टेक । सिघ हो तब विद्या एक ।। जाकी वह विद्या सिघ भई । दरजन जीत सके नहीं कोइ ।।३५३७॥ वे पूज स्वामी सांतिनाथ | रावण सुमरं जहां हाथ ॥ विस न चल रहै मन धीर । जाणु बैठा बज्र सरीर ॥३५३८।। विद्या सावन कारण, दिवकर लाग्या ध्यान ।। होनहार समझ नहीं, कहा होइती प्रान ।।३५३६।। इति श्री पद्मपुराणे रावण विद्या साधन विधानक ६३ वां विधानक मडिल्ल सुरखी इसी जब बात कह सव संजुप्त सू।। उनतो लगया ध्यानक श्री श्री भगवंत सू ।। जो कोई पाश्रम लेई पुरुष के मान करें। वह नहीं छोड बांह सर्म की कान की ॥३५४०।। चोपई व्रत साधना के कारण युद्ध सन्द होना कैसी विघ उसकों दुख देई । उनतो कियो परम सूनेह ।। बाक करें धरम की हांन । होइ पाप समझो धरि व्यान ॥३५४१३॥ जब हमसू वह सनमुख लडे । तब हम भी उसमे जुध करें ।। घरम नीत सू कीजे जुधि । पाप कर्म की छोगे बुधि ।।३५४२।। वरत अठाई उसका सही । बाकी दूषण है यह नहीं ।। वानर मंसी कहई नरेस । तुमतो कहीं परम उपदेस ॥३५४३।। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पपपुराण ३२५ जई बालक तो बिगड़े कोज । तो नहि लाग उनको लाज !! हम मारै रावण जाइ । ए आठ दिवस जाइ विहाइ ॥३५४४॥ दूरणमानी वा निहाय । पपर, वैदिवाण ।। मकरध्वज राजा संटोप । रतिवर्द्धन छाया करि कोप ॥३५४५।। बाताहरण अरू सूरज उद्योत । महारथ पीतंकर बहु जोत ।। नलनील अरणं नृप घणे । नामावली कहां लग गिणे ॥३४६।। पहुंचे लंका संभले वे भूप । रस्त्रबाले कर रावन रूप ।। कोप्या सकल सुरवा घेर । मंदोदरी समझाय तिरण बेर ।।३५४७।। संकापति प्रागन्यां दई । हिमा कर्म करो मति नई ।। ए इस यांन धर्म की ठोर । अझ कीये ते लाग पोरि ३५४७।। प्राग्या बिन कीजे नहीं जुध । मॅसें कहि मंदोदरी बुधि ।। सगला मिल सोही पोल कुवाउ । लंका माहि पड़ी तब राहि ॥३५४६।। बंदरों द्वारा लंका में उपद्रव करना लंगुर निज विद्या संभार । वानर वारन घर घर वारि ।। जाकू पकई लोचं गात । वालक अस्त्री डरप बहु भांति ।।३५५७१। रावण की माला लई छीन । लु ताहि बहुत दुख दीन । भाजे लोग कोट में घसे । लुटै गाम वानर जु हंस ।।३५५१।। पत्रपाल द्वारा रक्षा क्षेत्रपाल कोप्या तिण धरी । माया रूपी सेना करी ॥ मुख बिकराल राजा नयन । मुदगर हाथ मार मुख वचन ।।३५५२।। कोई रूप स्बंध अरु सांप । प्रगनि रूप धरि देह संताप ॥ लांबी हातिदेह प्रस्थूल । पकई विरछ उपाइँ मूल ॥३५५३।। उनु वृक्ष की कोनी है मार । बानर बंसी मानी हार ॥ भाजि छिपे मूल्या मबसान । छुदरा दुख लंका के थान ।।३४५४।। बहुरउ विद्याधर संभार । मारे देव मनाई हार ।। वे भाजे ए पीछा करें । देखें सकल अचंभा परें ।।३५५५।। पूरणभद्र मणिभद्र खेत्रपाल । विद्याधर मारे भूषाल । भाजे नरपति लंका जोडि । सूरवीर फिर लई बहूरि ।। ३५५६।। सनमुख भए विद्याधर भूप । अह नहीं क्रोध के रूप ।। कर देव वीजली वात । बल पर पवन हट नहीं राति ।।३५५७।। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ पापुराण बरस मेह मूसलाधार | भाजे विद्याधर कुवार ।। वे दोन्यु देवल मांझ गये । हाथ जोडि तिहां ठाढे भये ।।३५५८।। वानर वंसी कुमर सब प्राइ । हम दुख दिया बहु भाई ।। श्री जिन सांतिनाथ के यान । रावण राय लगाया ध्यान ||३५५६।। सव परजा मूउनों दुख दिया । जिन मंदिर में उपद्रव किया । तुम अग्ने हम कर उपगार । बरजो तुम उनसौं इंग बार ।। ३५६० ।। लक्षमण कह रावण है चोर । सीता हर ल्याया इस ठौर ।। साथै विद्या सुमजीत । एहै कवण धरम की रीत ।।३५६१।। मब हम वह सरभर हैं सही। जे वह विद्या पायै नहीं।। तो हम पाएँ सीता नारि । जई विद्या न हुवै प्रधिकार ।।३५६२।। कारिज हमारा बिगडे सही । अवर सोच हमकुक नहीं ।। पापी • तुम भए सहाइ । हमारा दुख तुम चित्त न सुहाइ ।।३५६३।। अइसा तुम कछ करो विचार । टरै ध्यान पावै नहीं पार ।। कहें देव हम बोल नाहिं । परिजा दुख करिय न चाहि ।।३५६४।। जासों बयर तामु करो युध । अंसा वचन कहे गए सुर सुध ।। सुरणे वचन सब निरभय भये । मन संदेह सहु के गए ।।३५६५।। दहा रामसा साधं ध्यान धरि, विद्या महा अजीत ।। एक खोट वाम बडो, प्रमदा माही चित्त ।।३५६६।। इति श्री पद्मपुराणे समविष्टी देश प्रहार जाकीति विधानक ६४ वो विधानक मंगव का संका में जाकर वहां की स्थिति देखना अंगद लंका देखा पल्या । किंषधको गज साध्या भला ।। चौरासी अरु सोहै झूल । घंटा वादि सुहावरण मूल ।।३५६७।। ऊपर बणी अंवारी लाल । जिहां बैंठा अंगद भूपाल ।। सूर सुभट संग भूपति घरणे । पयादा लोग न जा गिणे ।।३५६८॥ बादल मांहि जिम पुनिम चंद । तिम गज ऊपर अंगद सुरेन्द्र । संक्षा देखि नगर की गली । बोधि वोडि सोभा मति भली ।।३५६६।। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि अभाचंद एवं उनका पमपुराण लाल मृदंग बजं गुडगुणी । कर नृत्य पातर रूबडी ।। जिहां जिहां जिन के देहुरे । पूजा पद पंडित सहु खरे ।।३५७०।। बाजा बजै सुहावरण रूम । तिही कामिनी नारि अनूप ।। अगद कूदेखें तिरण बार । धन्य नारि जिसका यह भरतार ॥३५७१।। कोई कह इह जननी धन्य । जिसकी कूख भया उत्पन्न ।। कोई नई बहन है धन्य । जिसका है यह बीर रवन्य ॥३५.७२।। सब मिलि नारि सराहैं रूप । नमस्कार करि फिरियो मुप ।। लंका के गढ़ किया प्रवेश । चंद्रकांति मरिण मिदिर भेस ॥३५७३॥ मंदिर का बहुतं यिसतार । जो मल सो लहै न द्वार । इन्द्र नील मगि मंदिर और । रतन सफोटिक मिदिर तिण ठौर ।।३५७४।। श्री भगवंत का है तिहां सथांन । अंगद नप तिहां पहूंच्या मान ।। नमस्कार करि करी डंडोत । प्रस्तुति जिन की पढ़ी बहात ।।३५७५।। तीन प्रदक्षिणा दई नरेद्र | सांतिनाथ पूजिया जिनेन्द्र । रसनभ त्याला १ . त घामा भगं ॥३५७६।। बेदी माही धनी अनूप । छत्री सो में अधिक सरूप ॥ ध्यानारून राषण को देखना जिहां रावण था पानारुद । अंगद नै तब पाया ढूढ ॥३५७७।। रे पापी पाखंडी नीच । धरया ध्यान कपट मन बीघ । अंसा परपंच करै हैं झूठ । गही मौन जैसा है ऊंट ।।३५७८।। बिन विवेक देही को दहै । सत्य शील का भेद न लहै ।। रावण चित्त हुलावै नहीं। करत बाप्प अंगद नै गही ॥३५७६।। पुहप पठाय मारे मुंह माथ । पकडिझझोड़े दोन हाथ ॥ मंदोदरी आदि सकल रणबास । बोटी पकड़ि पानी उन पास ।।३५८०।। करं आलिंगन मोडे बांह । रावण मूह ते बोल नांह ।। सगली सखी पुकारे घणी। कर कहा अब अंसी बरणी ।।३५८१।। तुम वठा हमको दुख होइ । तुमकों बुरा कहे सप कोड । रावण का तिहां चित्त न टरै । तब नगद मुख से उच्च ।।३५८२।। रे रावण से सीता हरी । हूं ले जाऊं मंदोदरी ॥ मैं तू बली तो लेहु छुडाम । दासी करि हूं पिता की जाय ।।३५८३।। मैं चाल्या जे तोहि दिखलाइ । मति कहियो से पया चुराय ।। रावण मुख ते कछुवन कहै । विद्या का ध्यान जीष में रहै ।। ३५८ ।। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण रावण द्वारा विद्या सिद्धि बिहु भोर उजियाला भया । विद्या पाइ सुख उपज्या नया ।। बोले विद्या प्रभु प्रागन्या देहु । जो मन हुनै सो कार्य करेह ।।३५८५।। रावण काहे लक्षमण कुवांधि । मेरा इंहि विधि कारज साधि ।। बहुरूपिणी विद्या गुण घणें । रावण सों बह बिनत भणे ।। ३५.८६।। आगन्या देहु प्रभुजी मोहि । कुण खुटक हिरदा मा तोहि ।। तब रावण बोले तजि मौन । उठो वेग अब कीजे गौन ॥३५ ॥ बाँधि भाणु राम लक्ष्मणां । तो समझों तो मैं गुण घणां ।। विद्या का रावण से निवेदन विधा कहै लंकापति सुणु । दानव देव सकल मैं हणु ॥३५८८।। चक्रधारी सूकछु न बसाय । अवर सकल को बांघ जाय ।। सौतिनाथ का दरसन पाय । दई प्रदक्षिणा नवरण करा ||३५८६।। प्रदिल्ल बाद नोवार ग्रह मा करें, बिका भई जू सिंघ सुगुण पहला धरै ।। जो यन इस बात सो या है नहीं, मो में विद्या बहुत एक ये भी सही ॥३५६०।। इति श्री पपपुराणे बहुरूपिमी विद्या प्रागमन विधामक ६५ वां विधानक चौपई रावण का गमन सब रणवास जु कर पुकार · अंगद दुख दिया तिण बार । तुम अग्रेसी करी । तुमारि संक न मनमें धरी ।।३५६११॥ अंगद गांड का कहा बित्त । उन कछु भय। प्राप्पा नहि चित्त ।। तुम ने हमारी न अांनी दया । सब निया कूदुख दे गया ॥३५६२॥ रावण कोप कहै ए चैन । महतो ध्यान घणे दिव जइन । जई किरोध करता पन मांहि । तो मोकू विद्या फुरती नाहि ।।३५६३।। वाकु सुधि मरणे की भई । बैंदर वात उपाजाई नई ॥ ने तो सब ही हैं कीट समान । माह मोडक कई धमसान ||३५६४॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाबंद एवं उनका पद्मपुराण सव त्रिया तरी करि मनुहार । पहर श्राभूषण किये श्रृंगार ॥ चल्या मेह बाजा बजवाइ। सुवरण चौका लिया मंगाइ ।। २५९५ ।। सन तेल फुलेल जंबटरणा प्रोन || उता 1 कंचन कलस गंगा का नीर 1 करई सेवा राणी तीर ।। ३५६६ ॥ सांतिनाथ की पूजा करी । भ्रष्ट द्रव्य सामग्री घरी बहूरि प्राय लीया श्राहार । पुष्पक विमारण परि हुवा असवार ।। ३५६७॥ I बहुरूपणी का श्रम देखूं बल । मैसी है या विद्या घटल || जितनी भी विद्या की सईन कंपी धरती गिरि थरहरे । रावण के मंत्रियों द्वारा पुनः निवेदन सब गुण देखे श्रपणे नयन || ३५६८ ॥ रामचंद्र का दल परे ।। रावण के बोलें मंतरी । तुम पाई विद्या गुरण भरी ।। ३५६६।। रामचंद्र लक्षमण हैं बसी सीता देहु ज्यों हो रली || रामल द्वारा पश्चाताप मोहि भई प्राण्यां की लाज । मोहि नहीं सीता स्युं काज || ३६००।। १२६ जई फेरू तो मोहि लगे कलंक सब कोई कहे इन मानी संक || मोकू उपजी बुधि कुषि । तुझि हरि लाया मुली सुधि ।। ३६०१ ।। मेरी धाव थी जो इम ही लिखी। बैठि विमारण देख भू सखी | पुष्पक विमान सीता ठरिंग दिखलाया समता संसार ।। ३६०२ ॥ far for faग है मेरी बुधि । कछु नही करी घरम की सुधि ।।३६०३ । । परनारी मैं काहे हरी । अपनी कीरत कीनी बुरी ॥ जो मैं जटा पंखी के पास छोडि भाषता इंटक बनवास ।। ३६०४ ।। भभी समझा या मोहि । मैं परि कीया प्रति छोह ।। वाके मारण की मति करी । भाई बीछड गय तिन घडी ॥ ३६०५ ॥ जे मैं मानता उस तणां वचन । तो किम होती ऐसी कठिन ।। कुंभकर्ण मर्ने इन्द्रजीत । मेघनाद तीनुं भयभीत ।। ३६०६ । । पडे बंदि मां सब जाइ। ए दुख मो सह्यो न जाइ ॥ उत्तम कुल को कालम स्याइ । सीता कु प्रांणी बुराइ || ३६०७११ सकल लोक निसदिन निा करें। जो सुरिश है सो कहि है बुरें ॥ परनारी है जिसा भुवंग । भव भव दुख होवें जिय संग ।। ३६०८ ।। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० पद्मपुराण मैं समझे था प्रमत पाय । विष समान लागे मुझ दाइ । जई हूँ देहु राम ने जाइ 1 तो सब हंस रक अनं राब ।। ३६.६।। उन अंगद मोसु' करी प्रति बुरी । बिगोया मोहि सब अस्तरी ।। रावण का पुनः युद्ध करने का निश्चय संग प्रौर म उसी का किन जीये ।। प्रभामंडल तम मंडिल करूं । हनुमान जम मंदिर धरू ।।३६१०॥ चंद्रहांस से सजको काटि । उनकू भेजूम की बाटि । देख जू अव मैं अंसी कर' । मारि सबन कुपरलय कर ॥३६११|| दूहां समझि ग्यान विह्वल भया, पहुंची आवजु पूर । धरम रीत जारणी नहीं. उन जु कुमाया कूर ।। ३५१२।। इति श्री पपपुराणे जुनिश्च कृत विषानक ६६ वां विधान चौपाई रावण को वैनिक क्रिया बीती रया फिया सू विहांण । रावण उठि कीयो असनान ।। पूजा करी देव भगवंत । बारबार सुमरै विनयवंत ।।३६१३।। भोजन करि मूषण सवारि । मात पिता की कीनी मनुहार । परनार हाल सब कुदीने कंचन लाल । स्पंधासन बैठा मुघाल ॥३६१४।। तिहां भूपती ठाठे घणा | रावण सोचें मन प्रापणा ।। कुंभकर्ण घा मेरी बांह । इन्द्रजीत मेघनाद भी नाहि ॥३६१शा बै तीनू रामचंद्र में बंदि । उन धिन सगली सेना अंध ॥ हाथ गला थें सोचे सोच । अन्नपाणी थी छोडी रुच ।।३६१६।। देखें तिहां सकल मंतरी । उनू बुषि उपजाई खरी ।। मन की बात उनू सब पाइ । कहै बीनती सबै समझाई ।।३६१७।। तुम कुछ चिता पाणी प्रापण । तुम संग नरपति हगे घणे ।। विद्या एक एक ते भली । पूजेंगी तुम मन की रली ।।३६१।। सुरवीर नहीं करें विचार । उठो देम बांधो हथियार ।। मंदोदरी झांख झरोखा द्वार । कसी प्राजि कर करतार ।।३६१२।। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंच एवं उनका पपपुराण अपशकुन होना रावल पावसाला चल्यो । तिहाँ सुगन खोट सहुँ मिल्या ।। छ सो छट पडघा भूमि । टूटी धूरि पाया रथ झूमि ॥ ३६२०।। प्रागै होह निकल्या मांजार । स्वान कान झारधा तिन बार। खोट सुगन रावण को भए । मंदोदरी सो निज हिये 11३६२१।। मन्दोदरी को चिन्ता मंदोदरी पूर्छ निज मंतरीं । जे रायण टालं असुभ घटी।। मम झावो सुम मेरी बात । ज्यौं नि जावं गही घात ||३६१२।। मन्त्री का उत्तर घोले मंत्री माता सृणु । रावण सम में, मबही ते घणु ।। वेदपुराण कर व्याख्यान । वा सम सुघट न दूजो जारस ।। ३६२३।। हम इव हैं तो मान चुरा । हमारे आहे काज कहा सरा ।। जो तुम ना समझावो प्राप । तोइ हमन को मिद सताप 11२६२४।। मंत्री पास सुरणे उपदेस | गई जहां दसकंप नरेस ।। मन्दोदरी द्वारा रावण को समझाना हंस गमन सोहै मंदोदरी । बहत संग सम्पीयां खरी ॥३६२५।। जमे गम ममुद्र कमिली 1 मंदोदरी इम पति पं चली ।। जैसे सब कालिदरी । तिम वे संग सोहे अस्तरी ॥३६२६५ जैसे इन्द्र इन्द्राणी के हेन । अइसी प्रीत इनांको होत ।। प्रावत देखी रावण निज नारि । बांध था कटिस्युतरवार ।। ३६२७॥ रबोल भूपति कारण कवन | काहे कसूम कोया गवन ।। मंदोदरी बिनचे कर जोडि । मोकू देव मुहाग वहोड ॥३६३८।। प्रमुजी मेरा मानों बयन । करो राज घर बेटा चइन ।। रामचंद्र हैं सूर्य समान । तुम हो सब तारा समान ॥३६२६।। कैसे लग भांन कडेल । बालक ज्यों करता होइ खेल ।। वह हैं तीन लोक के ईस । उनसौ करि न सके कोई गैस ॥३३३३।। सीतां उनकी देहु पठाइ । निरभय गज करो इण ठाइ ।। परनारी है दुष की खांन । तासौं होइ परम की हानि ॥३२३१।। कुल आय होइ जाहि हैं प्रान । श्रमी समझि विचार तु ग्यान ।। सोक नदी अति ही गभीर । चिसा लह ज्यु माग तीर ।।३६३२।। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ कालिन्द्री गम प्रधाह । बुडत बांह गही तुम नहि ॥ उत्तम कुल ए राक्षस वंस । तुम इह किया पाप का अंस || ३६३३ में कुल डोगा परनारी काज । कीर्ति तुम लोई प्रकाज ॥ परनारी के भुगता हार । ते क्षय भए हैं इस संसार ।। ३६३४ ।। अकीत्ति जैसे क्षय गया । श्री विजय की नारी ले गया || घोष भने विजयसेन | श्री विजय के मन भया फुचैन || ३६३५| उन अकीति को मारि । रूपणी त्रियां लई तितार ॥ तुमकू भई कुबुद्धि । अप जीव को करी न सुष ।। ३६३६|| सीता देहू रामकू जाहि । निर्भय राज करो तुम राय ॥ का हमारा करो तुरंत । ज्यों नगरी में होवें संत ॥ ३६३७ ।। FR रावण का उत्तर रात्र कहै मंदोदरी सृणु । अर्क कीति सम मो मति गिलों ॥। मैं जीते हैं सकल नरेस इन्द्रभूप मान्यां आदेस ॥ ३६३८ ।। -4 1 उत्तर प्रत्युतर पद्मपुरा I मेरा बल है प्रगतिहुँ लोक । तू कोई चितवं मन सोक ॥ कहां राम हैं भूमि गोचरी । जिसका भय तु चित्त में घरी ।।३६३६। ' उनकी सेना दवट करू । राम है बांध बंदि मैं घरू ॥ जे में आणी सीता नारि । फेर सकू कैसे इस बार ।। ३६४० ।। मंदोदरी सुणियो माथ मेरा बच्चन तुम मातुं नाथ ॥ ३६४१ || कहां दीपक कहां सुरज कांति । तुम दीपक रवि हैं रघुनाथ ॥ भानु उदय सब दीपक किसा। उनका बल मार्गं तुम जिस १३६४२ ॥ तुम काहे को होवो दुखी। सीता देइ तुम रहो सुखी ।। रावण बोलं करि नीचो माथ करें सोच बहुत है साथ ।।३६४३।। जे पुरुष काहू का कर ग्रहै तो क्यूं छोडं किसी के कई || मोहि भई श्रां की कारण । कैसे छोडू अपणी जाणि ॥ ३६४४ ।। मंदोदरी विनवे सुणु नरेन्द्र । परनारी है पाप के फंद ॥ कीरत नासं अपजस होइ । पति परतीत करें नहीं कोई ।। ३६४५ ।। फल इन्द्रायण अधिक स्वरूप | सा परवारी का रूप || देखत लागे सोभावंत । फरसत खात लगे विष मंत || ३६४६ ।। जैसे मणि भूयंग सिर देख जो कोई लोभ करें वह पेष ॥ 1 उसे बिपाल बाई' तसु प्राण । वह मरिंग तय कोई भुगते प्राण || ३६४७॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभा एवं उनका पमपुराण ३३ जे बाँबी में डारे हाथ । निसर्च हुवं प्राण का घात ॥ समझि बूझि भया प्रग्यान । परनारी हरि करिते प्रनि ।।३६४८।। जाइ नरक भुगतै चिरकाल । छेदन भेदन दुख का साल ॥ ताती फुतली ल्याव अंग । ए फल लगे सील के भंग ॥३६४६।। जे कुलीन ते पाल सील । तज सील जे कूल कुवैन । सीता मो कू मांगी देड । तुम इह मेरा वचन करेड् । १३६५।। जे तुम चाहो हो अप्ति रूप । मैं हूँ सयतें महा स्वरूप ।। जंसा कहो तसा करू' भेष । शैक्रिया रूप कर असेस ।।३६५१।। सोता नै यो मेरे साथ । पहुंचाऊ जईने रधुनाथ ।। रावण का क्रोषित होना सी सुरिण कोप्या दशशीस 1 भह चडाई नयनही बीस ।।३६५२ । तू मेरा अग्रे सूमाह । रावए तब इण विध रिसाह॥ परपरुषां की प्रस्तुति कर । मेरा भय जिव मैं न धरै ।।३६५३।। तेर कहा रामसू काम । तो कजात हे उनकी ठाम ।। मन्बोदरी का पुनः निवेदन मंदोदरी कह फिर बैन । प्रीतम तुम राखो चित जन ।।३६५४।। इतना गुण सीता में कहा । ता कारण इतना हठ गया ।। यह तो कोई इच्छ नाहि । अटल सील करते है ताहि ।।३६५५।। उत्तम मुल जनक की धिया । महा सती राम की त्रिया ॥ जे कुल हान तजे ते सील । विभवारी कुल छ नींव ।।३६५६।। बिना कारिज मरि है ए जीव । ए सब पाप पड़ेंगे नव ग्रीव ॥ पहिला तजं आपनी वेढ् । तव परवारास्यु किसा सनेह ॥३६५७।। जिनकी तुमने सीता हरी । तोहि मारगे इस पड़ी ॥ सीख दंत मानु तुम बुरा । तुम मरने कारन ही धरा ।।५६५८।। विसन कुमार बिक्रिया रिख । टारा दुख बाका पुनि सिप ॥ मलि पं मांगी पंड जु तीन । तब बोल्या वाँभण मति हीन ।।३६५६।। लोटा भाग योभण का सही । तीन पैडि ही मांगी मही ।। इतनी सुरण तव धाई देह । मानषोत्तर पर्यंत पग देह ॥३६६०॥ दूजा चरण सुदर्शन मेरु । तीजा पग • रमा हेर ।। तीजा वरण बलि के होए । देवा ने संबोष सर दिये ।।१६६१॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ३६६३ तुम हो जती दिगंबर भेस । समझयो ग्यांन दया उपदेस || तब मुनिबर कुं उपजी दयरसिकू छोडि बनवास लिया ।। ३६६९ ।। मूलां ने दीजिये बताय । ग्यांनी मूरख नहीं हि ॥ सीता देहु ज्यु मिर्ट राष्ट्र मानुं वचन ज्युस घाड आग भए नारायण सात । प्रतिनारायण सारे इरा भांत ।। प्रथम त्रिविष्ठ बिजई बलभद्र । अवग्र मारे कर चक्र ।। ३६६४ ।। सुप्रतिष्ठ प्रचल दुजा अवतार | तारक मार किया मंधार । स्वयंभू धर्म तीजे भए । डन उन हयां समए १३६६५ ।। पुरुषोत्तम सुप्रभु चौथो बली । निसृरंभ कीत्तिण ग्रीवा दली || पुरुषसिंह सुदरसन पंचम मेरकुमार जिम मंदिर में ।। ३६६६ ।। पुंडरीक नंद भए छटा मदसूदन ग़ारचा चक्र पडें ॥ दत्त नामात्र नारायण सातए । बल्लभ को मारया बातम् ।।३६६७।। 1 अब है यह अष्टम अवतार तुम प्रतिनारायगा हैं इस बार || नारायण का है इसे नियोग । प्रतिनारायण के कम करें विजोग ।। ३६६८।। तातें मुझे व्यापं हैं इही। तुम लक्ष्मणा मारंगा सही ॥ तानिवऊं बारबार । श्रव जे सके कलह कु टारि ।.३६६६|| अकारथ क्यूं दीजिये जीव । अब कछु करो घरम की नींव ।। अणुव्रत पालो घर माहि । सुख सों बैठा सीतल ह ।। ३६७० ।। छह दरसन विश्वस्य द्यो दान | सास्त्र सुउ नित व्याख्यान ॥ श्रथ तेरह विष चारित्र जीतो । पंच इन्द्री सत्रु ।। ३६७९ ।। श्राठ कर्म जीतो तुम ईस । प्रकृति ते रहे एकमो घडतालीस || भव जल तिर जाओ सित्र मध्य अजर अमर लिहाँ पुरण विद्ध ।। ३६७२।। उत्तम ग्यानी करें न पाय डायो कुभकरण इंद्रजीत रावण का उत्तर पद्मपुराण सीता देहु राम कु श्राप ॥ । मेघनाद छूट ह चैत ।। ३६७३|| रावण सुगि इम उत्तर दे । तुम ए बचन काहे कहे ॥ तोरी कुख उपजे बलवंत । तु किम हो है भयवन्त || ३६७४ ।। में तो प्रतिनारायण नहीं । कोण नारायण है इस मही ॥ इंद्र भूष सम अवर न कोई । वाकु बस कोको भ्रम खोइ || ३६७५|| ऐसे हैं ये कहा कि जिन की तुम मानों हो धाक 1 मरण सु कातर हो सो उरे । सरस होइ सो बैगा मरं ।। ३६७॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभानन्य एवं उनका पद्मपुराण ३३५ कर राम लक्षमण सू जुध । अब मैं अवरन सम बुध ।। भई ग्यण प्रस्त भया भान । पाशि की ज्योति उदय भई प्रान ।।३६७७॥ रावण को रात्रि रावण अंतहपुर जाइ । भोग भुगत सों रमण विहाइ ॥ नगर लोग सब माने रली । कोई दुखी न सोभा भली ।।३६७८1। घरि पनि मुमत :." हा प्ररोग । उज्जल सिण्या उजत वर्ण । सोमें सिहां चौद की किरण ।।३६७६।। सुरगपुगे सुर करें बिन्लास | बैठी नारि कंत के पास ।। फूल सुगंघ अरगजा ल्याइ । जिसकी वास मधुकर लुभाइ ॥३६००।। बीण बजागी गावं तान । बोल बचन सुख की खान ।। सखी विवक्षरण होने वाइ । पान नवार्य वीडी वरणाइ ॥६६८१॥ बाउका वग्यां बिराज दंत । सोहैं हीरा की सी मंत॥ काउक काला जाणई विचित्र । सोहैं हाय कमल के पत्र ॥३६८२।। कोमी कामनी मय मंत । वोले सबद कोकिला मंत ।। ते सुख किसप बरणे जाइ । जे वरणें तो पार न पाइ ॥३६८३॥ सुख सू भुगते च्यारू जाम । करि सनाम सुमरे जिन नाम ॥ पूजा करी निरंजन देव । भोजन भुज विचारं भेव ॥३६८४।। युद्ध के लिये प्रस्थान प्रभु की माशा बजे निसांन । सुण्यां सबद डोहै बलवान ।। काहू कू ज्या बालक मोह । रोब नारी प्रभु भयो बिछोह ॥३६८५।। आँसू नयन भरे सब नारि । जुध करण चाल्या भरतार ।। कहैं कत सुणु वर प्रान । म खाए हुं प्रभु को धान ।। ३६८६॥ स्वामि काज को धरा सरीर । करो काम मन राख्यो धीर ।। करें बेगि भ पति का काज । जै विधनां अब राखें लाज ||३६८७॥ जीवांगा तो मिलस्यां प्राइ । सह कुटंव भेटघा गल लाई। भया बिदा ने पलायां तुरी । ऊंची चदि देखें सब तिरी ॥३६८८।। गए दूर सब दृष्टि न पई । मूरखाबत नारी गिर पड़े। रावण की सेनां तच चली । भई भोट पामै नहीं गली ।।३६८६।। देखें पटा अटारी लोग । ह्य गय पायक सुभट मनोग ।। भूपति तडे बडे सामंत । वान वारी पले बसवत ॥३६६०॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पापुराण धोडा रय भने सुखपाल । हस्ती पर रावण भूवाल ।। दस सिर वीस भुजा सोचत । के आकास ग्रामी विद्यावंत ।।३६६१॥ भूमिगोधरी पृथ्वी पर चल । विद्याधर ऊंचे बहु भले ।। लोप्या भानु न दीस पाकास । महासंघट सेना चिहुं पास ||३६६२।। ब्रहा । रावण की सेना चली, कंप्या सब संसार || सूर सुभट जोधा घने, कहत न पा पार ३६६३।। इति श्री पपपुराणे रणजोग विभाग ६७ विधामक चौपाई मन्दोदरी से मन्तिम भेट मंदोदरी सु रावण इम कहै । तू काहे रिता चित महे ।। सुभटां साथ बर्ण है काम । जो जीवता बचे संग्राम ॥३६६४॥ फिर तोहि सेती होइ मिलाप । हौंणी होइ टर नहीं प्राप ।। बहु विध समझाई अस्तरी । बिछड़े कंत हिए गम भरी ॥३६९५।। ॐो पनि देखी सब सैन । घरि अंगरण जीवकुकुचेन ॥ में समझाई रचि पचि हार । वचन न मान्या मोहि भरतार ॥३६६६।। अब के कहा वरणावै दई । अठारह सहस सोष चित्त भई ॥ एक सहस मंगल मयमंत । स्थसों लगे अंजन गिर मंत ।।३६६।। छत्री कलस प्रति सोभा बणी । रतन जोति सी दमकै घणी ।। राबरण बैठा रथ परि प्राइ ! दस सिर सोहैं बीस मुजाइ ।।३६६८।। इन्द्र रथ सम रथ नहीं कोइ । प्रेसी सुणी रघुवंसी वोर ॥ राम द्वारा युद्ध की तैयारी रामचन्द्र केहरि रथ चढे । गरूड वाहन लक्षमन बढे ॥३६६६॥ सेना चली चतुर विध संघ । सुर सुभट मन उठ तरंग ।। इंट्ररथ रघुपति ने देखि । पूछ इह का कहो परेषि ॥३७००। के परफ्त के कोई देस । कहीं न देख्या इसका भेस ।। अंगद बोले जांबूनंद्र 1 इह रष रावण विद्यावत ।।३७०१॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचन्द एवं उनका पन्नपुराण ३३७ लक्षमण सुणि कोपा बहु भाइ । वा सन मुख सेना ले धाइ । धोनों को सेनामों में पुर इत उत सेना सनमुख भई । कादि वडग लडाई लही ।।३७०२॥ दंती अजनपिर जिम जुटै । मद के मांते चुने पट । मारें टक्कर टूटै दंत । मसतक फूट बहैं रकत्त ।।३७०३।। छोडें चरखी मारे बाण । पंदल सब झुझं घमसान ।। किसही काहि लई तरवार । बाइ पडे करि मार मार ।।३७०४।। तीर तुपक का ला, घग्य । सुरमा सभी लड़ें तिह चाय ।। तव न मान दोधां हार । घायल घुमे राह मझार ।।३७०५।। रूडमुड परवत सा पहे। रथ सुरथ अस्व मु अस्व भिडे ।। दोउ धां मुझे भूपत घरपे । उनु' का नाम कहाँलू गबणे ॥३७०६।। धनुष खैचि तक मारै वारण । कहतू का छं. तिहां प्राण ।। ग्रघ श्रादि भर्ष तिहां माइ । सुरनर किंनर देखें जाइ ॥३७०६।। वांने धारी जोन लरे । उनू के पीछे पाय न पई ।। कातर भाजे जं रण कू देख । कोई न उवरं मंसा लेस्त्र ।।३७०८।। अंसी कठिन वाणी चिहुं फेर । जित भाजं वित मारें घेर ।। वहरी संग बहरी मुटे । तिनका कोष बहने घटे ।।३७०९।। मार गदा करें चकचुर । चक मारतां मुझे सूर ।। वरछी मारै लेइ उंचाई । कोई महि कर देह बगाई ॥३७१०।। बाथों बाथ लई बलवान । सोणत बई अति नदी समान ।। है हनुमंत उतै मारीच । घेरि लिया सेना के बीच ॥३७११।। तब पाए अंगद सुग्रीव । संदुव कुभ वित्रम रण सीव ।। पडी मार रावण की सैन । झझे राक्षम भया कुर्चन ।।३७१२।। चिह कोर धाए सामंत टे खडग लोह बात ।। जात्रा देखें हारे लोग । याया पाप जुष के जोग ।।३७१३।। रामचंद्र लक्ष्मण बलवंत । सन्मुख ए धाए न्यवंत ।। पुन्य त हो निज जीत । पापी मरें महा भयभीत ५३७१४।। रावण रामचंद्र सो कहैं । अजहू कटु सास रहे ।। मार तो वेग संवारि । लक्षमण घोल छात विचार ।।३७१५॥ रे गंवार पापी चोर । प्रथक परि मार ठोर ।। बनावत राम कर गह्या । लक्षमण लसुद्रावसं ले रया ॥३७१६॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ धनुष लीया रावस नै सादा वा छुटै विद्या वारण || भभीषण मयत सु जुध बांध्या में भूपति बहु बुध ||३७१७।। दहा बहुत जुष दोघां दो, कब लग करें चखा ।। सुर असुर गंधसु, सहू जीवने दीये पराए । ३७१८ ।। इति श्री पद्मपुराणे रावण लक्ष्मरण जुध विधानक ६८ वां विधानक चौपई देवताओं द्वारा श्राकाश से युद्ध का अवलोकन करना पुर। पद्म दस दिन होते दोन टरं ॥ मरण सुर असुर किनर गंधर्व । देखें जुध सरा सर्व ॥ ३७१६ ॥ वर्षों फूल होई जंकार | इन जस प्रगटचा संसार || चन्द्रवस्त्र 2 सत्तरी। टि विमांग बाई सुंदरी ||३७२०|| देखे जुलै तुम हो कवन ध्यान होय ॥ चन्द्रवर्धन राजा की श्रिया । जा सगँ श्रीबाही थी सिया ||३७२१॥ तब हम लक्ष्मण पिता दई । जे लक्षमण जीतें व कही ॥ हमारे मन का कारण होइ । नातर हममें जीवं नहि कोइ ||३७२२ ।। इतनी सुणि देई यसीग 1 लक्षमण जीवो बहुत वरीस || उंच चित्त लक्षमण वली | यानंदे सब मन में रली || ३७२३ ॥ किनर दीया सिधारथ वांश। वह विद्या पाई विहान || रावण द्वारा खिन्ता करना रावण मन में करें विचार । किमहि न मानें लक्षमरण हार || ३७२४ | विघत विनायक छोड़े यारण । लक्षमण बाकी करं न कोण सब विद्या छोडी सिंह बार चले वांग ज्यों घनहर बार ।।३७२५।। कारण सकल निर्फल होइ गए । रावण सांच विचारे हिए ।। मेरी विद्या बार अचूक इह विरयां पराक्रम गए सूक ।। ३७२६ । । बहुरूपणी विद्या सभालि । कोम चढे रावण भूषाल | लक्षमण का वकवांण छोडि । एक मुंड रावण का तोडि ।। ३७२७॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंच एवं उनका पयपुराण ३३१ अनेक रूप में रावण का लामा टूटघा एक भया होड़ दस प्रोरि । वीसत दूगी मुजा सिंह योर ।। सुरजहास लक्षमण कर या । कार ड रकत लिदा नद्या ।।३७२८।। ज्यों ज्यों का त्यौं त्यों बधैं । सहस्र मुड सुज दूरगां वद ।। ज्यों ज्यों काटे भूजा अरु मूड । लाख सीस भुज दोई लख दंड ॥३७२६।। मकल मुजा प्रायुध को लिये | मार मार सबद मुस्ख किये ॥ जिहाँ काटे तिहां चले रकत । नंदी बहे उवै सह अंत ॥३७६३१५ परवत मुड मुजा का भया । पकी लोथ पग जाई : दिया । सोना नंदी बहै तिहां लोथ । हाथी घोडे रथ सूर वहोत ।।३७३१।। जैसे मगरमच चल तिरै । असे लोथ रकस में फिरें ।। जेता रण अशा दोउ सेन । तिनका कहि न सके कोढ़ बैन ।॥३७३२॥ रावण की सब सुष वीसरी । लक्षमण मुजा की तब हरी।। रावण द्वारा सकघलाना रायण तब संभाल्या चक्र । सुदर्शन नाम भयानक वक्र ॥३७३३।। सहस्र देवता सेवा करें। पक सुदर्शन वह गुण धरं ।। रावण के कर माया सिंह घड़ी । रवि की ज्योति सब उन हरी ।।३३३४।। विमक सकल' भाज्या रण खोग | कोण कोण का होय वियोग ॥ जिहां चक्र चले सब दल । कोई न बर्च फिर जीक्त मिले ।।३७३५।। चक्र तेज त सह जन उरं । वा सनमुख कोई न उबर ।। रामचंद्र लक्षमण सुग्रीव । भामंडल भमीषण नींव ॥३७३६। हनुमान सुभट थिर भए । कटु संक न मान हीये ।। बोल रामचंद सक्षम।। रे बरांक सोच क्या मना ।।३७३७॥ छोडि चक्र कह ई टूक । बजावत सूहनू' अचूक ।। कोप्या रावन चक्र फिराह । छुटया सुदर्शन मुख जाइ ।।३७३८॥ समचन्द्र कर वजावत । लक्षमण कर समुद्रावरत ।। मभीषण संभाल्या त्रिसूल । पक फेर गमावं मूल ।।३७३६॥ हनुमान जड़ाई गदा । सुग्रीव बन संभाल्या तदा ।। चक्र नै छोडि कर चकचूर । पैसा मता कर सब सूर ।१३७४०॥ चन्द्ररस्म पर भूपति घणे । छलबल निपुण राम संग बणे ॥ सुदर्शन चक्र लक्षमण लिंग जाई । तीन प्रदक्षिणा दीनी आई ।।३७४१॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० लक्ष्मण द्वारा चक्र प्राप्त करना लक्षमण में वह बैठा हाथ पुन्य समान मगा नहीं को पुनि सहाय दुर्जन होन । पुन्य पार्वं कुष्य प्रवीन ॥ पुण्य ते भोग मुगत संसार । पुन्य बडो त्रिभुबन आधार ।।३७४३।। पुन्य तैं दुख दालि जाइ । संकट विकट में पुन्य सहाई ।। जलथल महियल में भय दरें ठग ठाकुर ने उपद्रव हरे ।।३७४४ 1 पुण्य सहाइ हुना रघुना || । पुन्य ही ते जग में जस होइ || २७४२ ।। मुन्य से कंचन वरण सरीर । रोग योग ने व्यापै पीड ॥ सब जग से भय नहि ताहि । पुन्य समान भला कछु नाहि ||३७४५ पुन्यपान सिट । पुन्य तें पावें सुर की रिश्व पुन्य पापरिया सुख । पुन्यवंत का भाजे दुख ।। ३७४६|| सोरठा पद्मपुराण रघुबंसी सुपुनीत चक्र सुदर्शन पाइया || तब सब भए नवीत, रच भव के दुन्य सु || ३७४७ ।। इति श्री पद्मपुराणे चकसुदर्शन लाभ विधानकं ६६ वां विधानक पपई लक्षमण चक्र सुदर्शन पाय । आनंदे रघुवंसी राइ ॥ रावण का पश्चाताप रावण र बेर पिता | शुभी सब भेन्या इसाइ ||३७४८ ॥ हयगय रथ अरथ भंडार 1 पुत्र मित्र संगी नहीं लार ॥ नारी लक्ष्मी प्रा फिर जाई । जैसे बुंद बुद जाइ विलाई || ३७४६ । हूं माया जाल मांहि पडचा । परनारी जाय करि हरभा ॥ मैं मामा तजि लेता जोग तो क्यूं होता इतनां सोग ।। ३२५० । लक्ष्मी तज न सक्या अग्यांन । मोकु छोड़ि गई सुविज्ञान || जे नर माया के बस भए । वर्म विदारक स्थान ही हिए ।। ३७५१ ।। जनम अकारथ खोय। भाप | अइसां रावन करे विलाप || अनंतवीयं स्वामी के वचन । ते मैं देखे भेद भिन्न भिन्न ॥। ३७५२ ।। कोटिसिला उठा जाइ । वक्र सुदर्शन पाने श्राइ ॥ सेनिस रावण कु । हुआ परतक्ष श्री जिन भएँ ।। ३७५३। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पमपुराण राज मद में मैं हरा अंघ' । वांच्या अमभ कर्म का बंध ।। चन जोवन सुपने की रिध । जाग्या वस्तुप्रन देखें सिघ्र ।। ३७५४।। ओ मुरख ते मोह बसि पई । ६ यो भत्रमायः में नाई। जे विषफल को देख लुभाइ । जाके भग्वे प्राण उड जाई ।।६३५५॥ उस खायां इक भव ही मरै । पर त्रिया ते भव भन दुरद भरे ।। विभीषण मारा लक्ष्मण को परामर्ग रावण अपणी निंदा करं । भभीषण यु लक्षमण उच्चर । ३७५६।। अवर नृपति जो माण प्राण । ज्या का पात्र हम काम ।। तो करो राज लंका का नहीं । जीन दान त्राको सही ।।३७५७।। रावण का क्रोधित होना रावण मणि अगनि जिम बौ। रे लक्षमा क्या मन में खिल ।। मैं रावण हूँ वली बलवान । थे ते चक्र नहा पत्र प्रान ।।३७५८।। चक्र पाया क्यु काज न सर । जैसे चक्र कुमार का फिर ।। चक्र फिरार होय न कछु । जंस धन पानी कृल तुच्छ ।।३७५६।। वे मन में ही अति गरवन्त । क्षुद्र पुरुष गर्भ बहुवन्त ।। जे तु नारायण होता माज । मैं कहू सोही कर तू काज ।।३७६०।। इन्न सरीखा फेरे तू रूप । तो तू सही नारायण भूप ।। नु नारायण कैसे भया । दसरथ देश निकाला दिया ॥३७६१।। वन बेहट सू भ्रमता फिरचा । सब से कुछ कहुं न बल करया ॥ मैं बालकस्यों बूढा भया । तब से में प्राकर्म वह दिया ।३७६२।। मो पे हे विद्या बल कही । हूं रावण जीती सब मही ।। मोकू तू जाणं है भले । मो सू कहा चक्र को चले । ३७६३।। तु भरम्या है चक्र फिराए । वरांक पुरखा एहै सभाय ।। जितना तरे संगी मपाल । मारु गदा घस पाताल ।३७६८।। में रावण किस की करू सेव । तुम कु अब जिम मिदिर देव ।। निठुर वाक्य बोल्या बहुभाति । सकल सुण्यां राज रघुनाथ ।।३७६५।। लक्ष्मण द्वारा चक्र से राषण का वध करमा लक्षमण कोप्या चक्र फिराई । छुटया ज्यौं बीजली काई ।। रावण इन्द्रधनुष कर गला । अपर्ण बल पौरप उमटा ।।३७६६।। चन्द्रहास खडग नीकाल । रोक भार चक्र की चाल || लाग्या छत्र रावण के हीए । दोए खंड होइ प्रारण उस गये ।।३७६७।। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ एपधुराग जाग पडै गिरि सुमेर । मोभ दंत गिरचा रण घेर ।। राक्षम बंसी रोवं मूप । सुग्रीव प्रादि सोग वे सरूप ॥३७६८।। रोवें सकल उपा. केस । देखें सब रावण के भेस !! हा हा कार करै वह सोर । रावण मृत्यु पडा तिण ठौर ॥३७६६।। परनारी के कारणी, रावण दीये प्राण ।। इह तन भपणा खंडीए, समझो एह सृजाण ।। ३७७०॥ इति श्री पद्मपुराणे वसनीय बष विषानकं ७.वो विधानक चौपई विभीषरण द्वारा भाई के मरण पर विलाप करना भर्भरा या को दोहे पोर चई घां लोग ।। हाइ भाई ए सैंने क्या किया । मेरा कहा से नहि माना हिया ।।३७७११ जो मोहि सेती भई माछु चूक । गही मौत रहै ह्र मूक ।। किरपा करो सुणावो वयन । तो अब मोहि होय सुख चैन ॥३७७२।। सम बिन कैसे जीऊं वीर । तेरे दुख सों जल सरीर ।। तुम दिन घले जात हैं प्रान । आइ सूळ मृतक समान ।।३७७३।। रामचन्द्र लक्षमण तब देख । भभीषण पड्या मृतक के भेस । वैद्य बुलाइ कर उपचार । ऊषद दे करि बीजमां बयार ।।३७७४।। बडी बार में भया सभेत ! व्याप्या मोह भाइ के हैत ।। राबरण का तब पकडे हाथ । ले ले ला छाती माघ ।।३७७५।। बार बार प्रालिंगन करै । हाय वीर तु परयन मरै ॥ बहुरि भयो वह मूविंत । जारी भया प्राण का अंत ।।३७७६।। बहुत जतन सों भई संभार । अंत हैपुर पहुंची यह सार ।। रावण की रानिपों द्वारा पिलाप करना मंदोदरी रंभा चंद्रांन । चंद्रमन उरबसी त्रिय प्रान ॥३७७७।। मलीन रूपणी सीला रत्ल । रस्नमाला रामोदरी बिला । लक्षमी पदमा सु विसाल । रानी सहस्र सभी बेहाल ॥३७७८।। पीट' छाती कूटै देह । सब मिल घाल सिरमें पेह ।। बिन सब मिल रावण भोग । सब नगरी का रोनें लोग ।। ३७७६।। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचन्त एवं उनका पुरा हाय करम ने कहा किया। बिधना भई महा दुख दिया ॥ कैसे जीने कंत के मुठी। सब मिल पोटे अपना हि ॥३७८०१ कोकिल सबद सुहावन बोल । सब परिवामां मांची रोर ॥ सब श्राए जिहां रावण गडया | देखें लोब जय पर्वत गिरा ||३७८१ ले ले हाथ लगाने हिये । इन व बहुने सुख दिये 1 बहुत भांति के भुगते सुख । ग्रब कु जी कंत के दूख ॥। ३७८२ ।। श्री राय को सरे । सब नारि श्रलिंगन करें। जे सीताकुं देता । याने येता प्रांगा १३७८३ ।। भूमिगोचरी की अस्त्री हरी । परनारी ज्यु पैनोरी ॥ सी विध रावण का मरें । करम प्रदारे किम हरे ।। ३७८४।। ३४३ रामचन्द्र लक्षमण तब श्राइ । समभावें इनकु बहु भाइ ।। रावण का था यही नियोग । अब तुम तओ सकल निज सोग || ३७८५॥ भावमंडल कहै उपदेस । सुणुं वचन भभीषण भुवनेस || रावणरा में साका किया । रह्या खेत सनमुख जिय दिया || ३७८६ ॥ ते बलवत टेक सों मरे । तिनका पावन रस में दरें ॥ धन्य पुरुष जे राग्वं टेक । ते सहस्र में गिखिये एक ॥३७८७॥ पत्री होंय मर पडि खाट जनम अकारथ सिसका घाट 11 इह रण था सुभटां की चोर । श्रसा मरण न पायें और ॥२३७८८ || धनि पनि ए रावण महावली । जाको जुवस्वों पूजी रली ॥1 चक्र लाया में चित्त न किया । ए दिढ रामसा मन में दिया ॥ ३७७६॥ सफल मरण ए तिन विघ जान से हैं उत्तम परमाण || श्रेष्ठ मरम & 1 संग्राम मांहि जे क्षत्री मरी के तपकर संजम व्रत धर ||३७६० ॥ जीत घाठ करम घरि ध्यान से उपजाओं के वनशान ॥ पार्ने अजर अमर पद ठांम । जुग जुग रहे उनू' का नाम ३७६१॥ से संन्यास तजैं जे प्राण । समाधि मरण जग में ए जान ॥ श्री विष सौ मरे जो कोइ । ताका सर्व विघसे जस होइ ||३७६२॥ सों का किम करिये सोग ऊन का ह्ठ बखाने लोग || तीन लोक में अमर है जान | वेद पुराण करें" हैं बात ||३७६३|| वे नहीं मुवा सदा है भ्रमर । अरिदम सा मुखा जान्यां सगर || Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३॥ पचपुरगण मरियम की कमा अईसा केसो गर्ह न्याई । जे वह मुबां जीव छिपाई ॥३७६४! अष्यरपुर नगर हरदध भूप । लछमीवती परणी सुखरूप ।। अरिदम पुत्र वा गर्भ भया । जोवन समं उछाह अति थया ।। ३७६५॥ यसुसुदरी व्याही प्रमतरी । रूप नष्यन गुण लोचन भरी ।। राजा राणी भए चैराग । गजचिमूत मकल साहिवी त्याग ।।३७६शा अरिदम पुरु का राजा किया । ग्राप जाइ संयम व्रत लिया ।। अरिदम अधिक प्रतापी पया । भूप प्रताप सकल छिप गया ॥३७६७।। सब पृथ्वी का जीत्या नरेस । मनाय प्राण लीया सह देस । फिर माया प्रक्षरपुर नगर । हाट बाजार छाए तिहां सगर ।। ३७९८11 घर घर बांधी बांदरवार । भया रहसि प्रति नगर मझार || घरि घरि रली बधावा भए । परियण में सुख उगों नये ।। ३७६६।। बहुत प्रानंदस्यौं पायो सय । रत्नमुष्ठि भर द्वारत जाय ।। राजा मंतहपुर में भयो । राशीमसि योग ।।३।। जो कछु नई बात तुम सुगी । अंसी हमस्यौं कहिये मुणी ॥ राणी फहे तुम मुशियो कंत । कीरतपर मुनिवर सु महंत ।।३८०१॥1 इक दिन पाए लेग पाहार । भोजन पाय घल्या तिण बार ।। मैं पूछया तुमारा परताय । कब यावै प्रभित्रीपति प्राप ॥३८०२।। मुनि वोले जीतेगा सब मही । पण बाकी भारवल तुछ रही ।। धा दिन त चिता है मोह 1 सृणु प्रभू समझाई तोहि ।।३८०३।। राजा सुम्पि के गयो उद्यान । जहाँ बेठ्या भूनि प्रातम ध्यान ।। पुछ मुनि मूतव ही नरेन्द्र । मेरे मन की कहो मुनिद ।।३८०४।। बोल मुनिद पूछो तुम प्राय । रह दिन सात जीवण के राव ।। पूर्छ नरपति कारण कोणा । समझायो स्वामी तजि मौन । ३८०५।। कहैं मुनीस्वर सुणो मृवाल । विद्युत पात सों तेरा फाल ।। सोचे मूपति मुनि सुण वात । कार उपाव बचे जिव घात ।।३८०६।। बुलाह मंतरी मतो उपाइ। मुनि के वमन निरफल जाई। एक जतन सुउदरी राव । लोह की कोठी तुम करवाइ ।।३८०७।। बाड वाम राजा तुम पैठ । सांगाल लगाव इवा हेठ ।। वज्र सांकुल कठाडयां वांधि । डार दह में जिहां नीर अगाध ।।३८०८।। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुमि समापद एवं उनका पमपुराण जहां दामनी का नहीं प्रवेस । या प्रकार बीवस्यौं नरेस । छह दिन बीत सातवां भया । इबै ठि द्रह भीतर गया ॥३८०६।। नावांसुसाकुला लगाइ । उठी घटा सहज के भाइ ॥ घन घटा होइ संसार उवार । कड़की दामनी मारपा तिणबार ||३-१ टूटा इवा राजा दोइ खंड । होनहार महा प्रचंट ।। करम रेख किम मेटी जाय । होरणहार सौ कहा बसाय ॥३८११।। राजा वीजली में मारिया । उन मरणे का अति भय किया । असे का सोग करसा म्याइ । रावण झझा सामों ध्याइ ।।३८१२।। प्रीतकर ने पोया राज । अरिदम मुका सरमा नाहि काज ॥३८१३॥ करभो सयाणय बहुत बिध, मंत्र जंत्र अने उपाइ।। हौंणहार टलनां नहीं, बहुत वरणावो दाय ॥३८१४॥ इति श्री पयपुराणे परिवम विधानक ७१वां विधानक चौपई रावण का दाह संस्कार करना रामचंद्र लछमन संजुत्त । तिहां वंठा भूपती बहुत ।। भभीषण ने बहुते समझाम । दहन क्रिया कीजे अब जाई ॥३१॥ रावण लोन लंड का राव । जाका तिहूं लोक में नाव ॥ वेगी क्रिया तास की होइ । काया बिगडन पावै सोड ॥३८१६।। जो मृतक कौं होई भबार । उपजे जीव वा देह मंझार ॥ म्यानवंत डील नही करें । उठी वेग ज्यौं कारज सरं ॥३८१७।। सब मिल गए मंदोदरी पास । अठारह सहस जिहां त्रिया उदास ।। सोगवंत बैंठी सब नारि । देख राम नैं करें पुकार ।।३८१।। नैनन नीर तहै असराल । रो सगली खाइ पछार ।। तब रघुपति समझाब ताहि । भभीषण वीनवै गहि बांह ।।३८१६।। मंदोदरी बोली तब बान । दहन क्रिया कोज्यो भली भांति ।। साज विमांग पदमसिर गए। चंदन अगर वहू विष सए ॥३८२०॥ पदम सरोवर अंदर भनि । चिता संवारी उत्तम धान ॥ बोले त श्री रामचन्द्र । कूभकर्ण इन्द्रजीत हम बन्छ ॥३८२१।। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ पद्मपुराग मेघनाद और बंदमय । च्यारू' अटके मनिह भये ।। इनकम तुम छोडो जाइ । दरसन कर पिता का आइ ।३८२२।। छानर बंसी बोले तव राह । रावण ते वे बल अधिकाइ ।। जे वह लूट तो लें वर । राक्षस बंसी मिल उनसों फेर ।।३८२३।। अंसा बल हम पे है नहीं । अब मैं उनसु' जीत कहीं ।। उनकू मारि करो तुम ह । दूरजन सूअब कसा नेह ।। ३८२४।। मारि मारि करि लीजे जीव । अव ही उनकी काटो ग्रीव ।। समचंद्र चित करुण। माइ । उनका पिता जसं इस ठाव ॥३८२५।। अब नहीं दरसन पाय तात । बहुरि देखेंगे किह भांति ॥ फिर बोले सेना के लोग । अंसान' किम छोड़न जोग ।।३२६॥ भावमंडल कहै छोडो उननं । जे तुम भय राखो नहि मनमें ।। तुम मति कीज्यौं जनसों राडि । जब वे चतुर तो हम भी व्यार ॥३८२७ । जो वे फिर भी हमसौं लई। तो हम भरोसा नाहीं करें। भावमंडल अने हनुमान । सुग्रीव अंगद चले बलवान ॥३०२८।। बे न्यारू हैं बन के माझि । महादुखी है दिवस न सांझि ।।। लोह पिजरा चहुंघां मूल । ऊभा तिहा दुःख का मूल ।।३८२६।। हाथ हथकड़ी पवि साकुली । मन में तोष देह सब जली ।। मन का छोइया सब संदेह । राजभोग से तज दिया नेह 11३८३०।। प्रयक छूटै तो तप करें । फेर नही भवसागर पड़ें। अंसा ऊनो किया या ध्यान । भावमंडल तहां पहुंच्या श्रोन ॥३८३१।। के रावन झुझ्या संग्राम । तुमनं कोक लक्षमण राम ।। दरसन करो पिता का ग्राइ । खोलि पिजरा अपने संग ल्याइ ॥३८३२।। नीची इस्टि गंवर की चाल । प्राचं ते ण्यार भूवाल ।। भकर्ण एवं अनमोत को छोडना रामचंद्र प्रति मारणे सर्व । गलत भया जोत्रां का गवं ॥३८३३॥ कह राम तोक्दू छोटि । जो तुम बेर न करो यहोडि ।। बोले कूमवर्ण इन्द्रजीत । हमतरे छोड़ी संसारी रीत ॥३८३४।। जन छुटै तब दिध्या तेहि । राजभोग जल अंजलि देहि ।। बेडी काडि छोझ्यिा कुमार । रावण कोरिया करी संवार ॥३८३५।। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृमि सभाब एवं उनका पपपुराण वहता ने उपज्यो वैराग । घर परियण सगला सुख त्याग ।। बहुतां ने मांडपो संन्यास । अन्नपारणी तजि करै उपवास ।। ३८३६॥ कोई भए संन्यासी रूप । कोई गए लंका में भूप ।। अपरणे जाइ मुटुव वे मिसे । घरि घरि कथा राम की चले ॥३३॥ अपर मध्य मुनि का संघ सहिस प्रागमन अपर मध्य मुनि लहर तरंग । छपन्न सहस मुनिवर ता संग ।। रिधवंत से वे साघ । जिहां रहैं तिहां मिर्दै उपाधि ।।३८३६।। बैर भाव सब ही का टरै । कोई नहीं उपद्रव कर ।। लंका में वे प्राया मुनी । ज्यार ग्यांन का घारक गुनी ॥३८३६।। नादि का सारसग : दापू पाया वहलोग ।। तपकिरात कंचन सम गात । सब कोई करै मुनीस्वर जात ।।३८४०।। असा मुनि तब करता गौन । तउ रावण ने हतता कौन ।। जादे समें रहै वे जती । तिहां कष्ट नहीं व्यापं रती ।।३८४१।। मुनि को केवल ज्ञान की प्राप्ति सर्व मही है स्वर्ग समान । दोहस जोजन लौ परवान ॥ सुकलान प्रातम ल्यो लाई । केवलम्यान भया मुनिराइ ।।३८४२५ अनंत सत स्वामी अरिहंत । भया जनम घातकी भगवंत ॥ इन्द्र धरणेन्द्र बह विच देव । जनम महोछव कीनी सेव ।।३८४३।। मेरु सुदर्शन पांड का मिला। श्री जिण का माहोछव किया ।। सहस्र अठोतर कंचन कुंभ । खीर समुद्र नीर भरि सुभ ।।३८४४।। कलस द्वालि जय जय करी । तीन लोक में महिमा धरी ।। श्री जिन जी जननी को दिये । सुरपति फिर सुरमालय गये ॥३८४५॥ धरणेन्द्र' का मासन कंपित होना भासण कंप्या तब धरणेन्द्र । अवधि विचार कियो आनंद ।। त्रिकुटाचल लंका में पान । अपर मुनी कू केवलग्यांन ।।३८४६। जय जय सन्द देवता करें। बाजा वाजें देव उजरें । राम द्वारा विचार करना रामचन्द्र या अव सुणे । तब भूपति सोचे मन घणे ॥३८४७।। अंसा कवरण बली इस ठाइ । जिसके बाजा ब. श्ह भाई ॥ रामचन्द्र लक्षमण सुग्रीव ! भावमंडल प्रगद गुण नींव ॥३८४८।। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ एमपुराग मलनील कुंभकरण भूप । इन्द्रजीत मेघनाद अनूप ।। लंका सींच गए सन राय । जय जय धुनि सुरणी तहां प्राइ ।। ३८४६।। राम का मुनि के पास जाना सब मिल समझ्या इम राजान मुनि नै उपज्या केवन ग्यान ।। उतर धूप पयादे चले । ले पूजा सामग्री भले १३८५०।। दे परदिक्षणा करी बंडोत । रघुपति पूछ धरम बहोडि ।। च्यारू गति भाष्या मुनि भेद । सुभ र असुभ करम का खेद ।। ३८५१।। उत्तम किरिया संगी जीव । मध्यम प्रघर मगति की नींव ।। भारत रौद्र ने नीची गांत । सात बिसन नरक को मिति ॥२-५२।। धरम सुकल जीव का प्राधार । भवसागर तें उतर पार ।। इन्द्रजील मेघनाद जोड शेइ हाथ । हमारा भव कहिए मुनिनाथ ॥३८५.३।। बोले मुनिवर ग्यान विचार | सब जीवों का होइ प्राचार ॥ भूनि द्वारा पूर्व भवों का वर्णन जंबूदीप भरत छह पंड । कोसंबी नगरी तस मंड ॥ ३८५४।। भवदत्त पंच सेठ के पास । रूप लक्षन गुण अति सुविसाल ।। सम्यक दृष्टि दोऊबीर । सकल जीव की जाणं पीर ।।३ ।। ग्यान समुद्र मुनि प्रागम भया । दोऊ वीर परसन कू गया ।। पूछि क्रिया सरावग जसी । क्रीया करिके कहो सव भती ।।३८५६।। सोभल परम अणुव्रत लिया । मुनि के पास बैंठ तप किया । चंदरस्मि नगरी भूपाल । दरसन कू प्राया ततकाल ।।३५५७१। करि प्रदक्षिणा कहै नमोस्तु । धर्म वृद्धि बोले मुनिरस्तु ।। मंद सेठ ता नगरी मांझ । पूर्ण जी जिन वासर सांझ ।।३८५८।। लक्ष्मी घणी महा परमेप्ट । चले चाल जे सम्यक दृष्टि ।। इन्द्रमुखी वाकी अस्तरी । जिनवाणी निाच मन घरी ॥३८५६।। सेठ चल्या मुनिकर की जात । हय गय वाहन नाना भांति ॥ बहुत लोग पाए, संग सेठ । राजा विभव छिपी ता हैठ ॥३८६७।। पचसम देख अचंभा करें। नंद सेठ इतना बल घरै ।। राजा ते अधिक परताप । भरभ्यां चित्त बिसारी आप ।।३८६१।। मेरे तप का एही निदान । पाउं जनम याके घर पान ।। छोडी देह भया गर्भ आई । इन्द्रमुखी सुख उपज्या काइ ॥३८६२।। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभापंच एवं उनका पापुराण सप के महातम का परबेस । चन्द्ररस्मि भयानक रेस ।। गिरे कोट के कांगरा भूमि । कांपी मही माए झुम झूमि ॥३८६३१५ निमित्तग्यानी जोतिगी बुलाइ । इह निमित्त पूछ बलराइ 11 कहैं जोतिगी जोतिग देखि । नंद पुत्र के ग्रहै बिसेष ।।३८१४॥ दोई पुत्र भुगतेंगे राज । 4से सकुन भए हैं प्राजि ।। राजा सोच करि कर विचार । होणी होइ सक को टारि ॥३८६५३। जे उसका हैं यही निमित्त 1 तो क्यों माणों विकलप चित्त ।। राजा गरभ की चिता करै । नवमास पूरा अवतरै ॥३८६६।। रतन वरधन जनमिया कुमार । वदन जोति शशि की उनहारी ।। पाई बुद्धि प्रति भए सचेत । राजा सेव करें वह हेत ।।३८६७॥ रतन वरधन परतापी भया । पृथ्वी जीत मति ऊंचा थया ।। सकल भूपति से पाइ। कर बंदन देखें सब भाय ।।३८६८॥ भवदत्त तीजे स्वर्ग विमान । इन मन मांहि विचारा ग्यान ॥ हम थे पुत्र सेठ के दोइ । पसचम जीव रतनवरघन होइ ॥३८६६।। राजविभव में हुचा अंध । बार्क नहीं परम का बंप ।। भरमंगा वह इस संसार । माया फंद में लहै न पार ॥३८७०।। तात वाहि सम्बोजाइ । ज्यू वह भवसागर में ना भग्माय ।। अंसी चित घर आए देव । घारचा रूप दिगंबर भेव ॥३८७१।। पीलिया जांग न देखें ताहि । रतनवरधन रूप धरया नरनाह ।। राजसभा मांही सुर गया । पूछ नरपसि अचरज भया ।।३८७२।। सुर समझाद पिछली बात । हम तुम थे दोन्यु भ्रात ।। तू पसचम हूँ हो भवदत्त । माया मोह में डूप मत्त ॥३८७६।। अजहूं समझि जिम पावें पार । रतनबरषन कू' भई संभार । तजे राज तप साध्या जाइ । नवग्रीबा परि पाई ठाई (1३८७४।। उहाँ ते चये अरवर नग्न । द्रोन्यु देवराज के कुवर १५ राज भुगत उपध्या बराग । भए दिगंबर सब धन त्याग ।।३८७५।। तप करि दसमें स्वर्ग विमान । मंदोदरी गर्म भए त मान । पसचम जीव भवा इन्द्रजीत । भवदत्त मेघनाद इह रह रीत ११३८७६।। इन्द्रमुखी इच्छा इह धरी । ऐसा पुत्र भए सुभ घडी ।। चन्द्ररसम सेठ भरनंद । भए जती भला गुरुवंदि ।।३८७७।। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० माकुरास तेरे तप का यह फल सही हमारा बहरि गुटगानी इन्द्रमुखी मंदोदरी भयो । इह विभूस नव पाई नई ।।३८७८।। सांभलि परम दिगंबर भए । मंदोदरी पश्चतावा किये ।। विधवा भयी पुत्र हवा जती । कुंभकरण है इह भती ॥३८७६।। अब हम दिन कैसे भरें । बारह अनुप्रेष्या चित परै ॥ मंदोदरी संग अठारह हजार । सीस सहस्र राणी परिवार ॥३८८०॥ प्रारजिका सहस्र अहतालि । दिक्षा ले सुमरपा तिहूं लोकपाल ॥ चंद्रनखा भारजिका मृत लिया ! कर तपस्या मन बच कया ॥३८॥ प्रातम ध्यान लगाया जोम | प्रवर विसारधा समला सोग ॥३८-२॥ सुण्यां भवोतर पाछला, मन का मिटया अधमास ।। राक्षस पंसी प्रसिबली, कर मोक्ष की प्रास ।।३८८३।। इति श्री पापुराणे द्रजीत भेषभार भव निकम विपानक ७२ का विधानक मरिल राम लक्ष्मण का संका में प्रवेश रामचंद्र लक्षमण चलि लंका । सकस सेनो की मिट गई संका ।। सेना सफल भई इक ठौर । इन सम बली न दूजा और ॥३८६४।। पचास लाख हाथी की डोर । ह्य गय रथ का नाही बोर ॥ हस्ती पर रामचन्द्र लक्ष्मण । सोहैं जैसे हैम रतन । ३८८५॥ स सुदर्शन आगे खरे । जिसकी ज्योति तेज रवि ह ।। भूपति भूप चले सम संग । सोमैं उनके भले तुरंग ।।३८८६॥ हाट बाजार छाए चउहर्ट । देखें नारि प्रदारी अटै ।। कोई झारि झरोखा तिरी । स्वर्ग लोक की सोभा घरी ॥३५८७।। जर्क सके समाने पणे । जिहां तिहाँ सु बरावर तणे ॥ बिराषित सुग्रीव हनूमान । रथ बैंठा अंगद बलवान 1॥३८८८।। नरपति अवर बहुत ही वणे । नामावली कहां लौं गिणे । रसनष्ट कर रामचन्द्र । दरसन देख्या होइ प्रानंद ।।३८५६।। पहूंचे पोलि लंका के कोट । इनकी छवि भांति भया प्रोट ।। रत्नावली पूछी सीता बात । पहप करण परवत विख्यात ||३८६011 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुति सभाव एवं उनका पद्मपुराण उह वन में इह सोता सती । सुझीया सेव करें बहुभती ॥ भावत देख्या श्री रामचन्द्र । रहसी सेवग भयो आनंद ।। ३८२१॥ जैसे शिपूनम की ज्योति । एक पति का है प्रति उद्योत ।। सीता को बशर बहु पसार सुप्रिया कहै। श्री रामचंद्र का प्रायम लहै ।। ३८६२ ।। देखो सीता दृष्टि उधार । करो दरसन बेग भरतार || सिर सीता के जटा मलीन । दुरबल देह धरणी प्रति खीन ।। ३८६३।। ३५१ कंत विद्रोह ज्या सिणगार । बहुत लगी काया सुछार ॥ जाऊँ रामचन्द्र का ध्यान महासती जगमें परधनि ||३८६४ ।। पतिव्रता जनक की धिया । घपना मन सब विष हठ किया धनि सीता जे पायें सोल । पंचइन्द्री विषय रार्ष कील 11३८६ प्रपा पति ने जामाता सुदिश्य ।। सीता सत दिन राष्या भला । निश्चें से तब रघुपति मिल्या ||३८६६ राम सीता दर्लम खोलि दृष्टि देयो रघुनाथ | नमस्कार करि जोड़े हाथ || ज्यू जल पी सुका खेत । फूलै फल बहु होइ सचेत ॥ ३८६७ ॥ प्रेस सुखों व ग्ररीर । विछोहा की मूल्या पीर भयो समागम देह संभार । लक्षमण भाइ मिल्मा तिवार ||३८३ सीता कु मस्तक नवाइ | नया वर्णनां लक्षमण राष्ट्र ॥ प्रसीस दई सीता भांति । बिछोहे की पुछी सब बात ।। ३८६६|| भामंडल बहन सू मिया । सब परियण सुख माध्यां भला ॥ विराधित सुग्रीव प्रवर हनुमान मलनील अवर अंगद प्रांत ।। ३६०० ॥ भूपति सकल करें नमस्कार । दई भेट फूलों के हार 11 कुंडल कर मोती अति दिपैं । जिनकी जोसि क्रान्ति रवि छ ।। ३६०१ ।। राम लक्षमण ज्यों सूरज चंद सोभैं दोन्युं अधिक प्रानंद || इन्द्राणी की सी जोड । सीता राम सोभ सिंह ठौर । ३६०२॥ चंद्र रोहिणी जोंडो बली । श्रसी इनकी महिमा घणी || सुखों बीतें वासर रयन । सकल प्रथी में हुआ चयन ।।३६०३ ।। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ पपपुराण मडिल्ल अशुभ करम सब टाल आइ शुभ करम भले, दोउधां दल संघार सूरमा प्रति भले ।। सीता का सत फला जील रघुपति भई, रावण पाट्या कडज जु कोरत सब गई ॥३६०४।। इति श्री पमपुराणे सोसा राम मिस्राप विषामकं ७३ वां विधानक चौपई लंका की शोभा लंका के गढ भ्यंतर चले । तिहा चैत्यालय देखे भले ॥ रतन समान लगे पाखारण । तिनको ज्योति दिपै न्यों भान ।।३६०|| सांतिनाथ जिन प्रतिमा तिहाँ । सहन कूट चल्यालय जिहाँ । दान कीया देव निमद ' सीता के मानद६॥ सब नरेस लिहां प्रस्तुति करें। जै जै सबद सुगत मन भरै ॥ परिक्रमा दीनी सिहाँ तीन । ताल पखावज वजावं बोन ॥३६०७॥ घुरे दमामा नै करनाइ । साल भेर वा तिहां ठांइ ।। गुणीयन गावं जिनपद भले । पदं सतोत्र भूपति सब मिले ॥३६०८|| सांतिनाथ देवनपति देव । इन्द्र धरणेंन्द्र कर सब सेव ।। देइ मुक्ति तिहाँ निरभय घान । अजर अमर जिहां पूरण म्यान ।।३६.६।। असी वस्तु नहीं संसार । जिसकी पटतर कहै वीचार ॥ दरसण अनंत ने ज्ञान अनेत । बलवीरज का नाही मन्त ॥३६१०॥ सारण तरण सांति जिन भये । भव्य जीय त्यारि मुकति को गये ।। सब भूपति मिल पूजा करें । सांतिनाथ पूजा मन धरै ।।३६११। तिहां समाली पर माल्यवान । रतनश्रवा नरपति सिंह थान । गये भभीषण इनके पास । भूपति वे बंटा उदास ।।३६१२॥ मोह प्र ते व्याकुल घणे । संसार रूप समझावं इने । चटुंगति माँहि अमर नहीं कोइ । जामण मरण सब हो को होइ ॥३६१३१ मल विध हैं संसारी भोग । अंसे नंदी नाव संयोग ।। उत्तर गार पार बीछा गये सर्व । पुत्रकालित्र भूमि पर दवं ॥३९१४॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ पद्मपुराण मडिल्ल अशुभ करम सव टाल प्राइ शुभ करम भले, दोउधां दल संघार मुरमा प्रति भते ।। सीता का सत फला जीत रघुपति भई, राबरण पाट्या कुटज जु कीरत सब गई ॥३६॥४॥ इति श्री पद्मपुराणे सीता राम मिलाप विषानक ७३ वां विधानक चौपई लंका की शोभा लंका के गढ भ्यंतर चले । तिहां चैत्यालय देखे भले ।। रता समान लें। पारा । तिनको ज्यान में क्यों भान ||३०|| सांतिनाथ जिन प्रतिमा तिहां । सहस्र फूट अस्यालय जिहाँ । दरसन कीया देव जिणंद । सीता के मन में प्रानंद ।।३६.६॥ सब नरेस तिहाँ यस्तुति करें। जज सबद सुणत मन भरें ।। परिक्रमा दीनी तिहाँ तीन । ताल पखावज बजा- बीन ॥३६०७॥ धुरे दमामा नै करना । कंसास मेर वा तिहाँ ठाह ।। गुणीयन गायें जिनपद भले । पढे सतोत्र भूपति सब मिले ||३६०८|| सांतिनाथ देवरपति देव । इन्द्र घरगेन्द्र करें सब सेब ।। देव मुक्ति तिहाँ निरभय थान । अजर अमर जिहां पूरख ग्यान ।।३५.६॥ मैसी बस्तु नहीं संसार । जिसकी पटंतर कदै वीचार ॥ दरसण अनंस ने जान अनंत । बलवीरज का नाही अन्त ॥३६१०।। सारण तरण सोति जिन भये । भष्य जीव त्यारि मुकति को गये ।। सन भूपति मिल पूजा करें । सांतिनाथ पूजा मन धरै ।।३९११॥ तिहां सुमाली पर माल्यवान । रतनश्रवा नरपति सिंह थान ॥ गये भभीषण इनके पास । भूपति दे बैठा उदास ।।३६१२।। मोह अंध तं व्याकुल घसें । संसार रूप समझावं इने ॥ पहुंगति माँहि प्रमर नहीं कोई । जामण मरण सब ही को होइ ॥३६१३॥ इस विध हैं मसारी भोग । जैसे नंदी नाव संयोग ।। उतर गाए पार बीछड गये सर्व । पुत्रकालिन मूमि पर दर्व ।।३९१४१ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुमि सभाचंद एवं उनका पमपुराण जैता विभव तेजा संताप । मूल घोडा बहलो पाताप ।। पौधा चिता कनहीं ना मिट । सोग किये कामा बल घट ।।३६१५॥ कहूं : कला व पुत्र ! काहं होइ मित्र कवहु होइ सत् ।। कबहू भाई क्राबही हूं वहिन । भ्रम जीव मोह के जतन ।।३६१६५ ग्यानी सोग तो इस भांति । इह चिता छोडो दिन रात ।। सुख दुख जाणं एक समान ! हिरदै राखें उत्तम म्यांन ।।३६१७१। राखं सदा धर्म सौ प्रीत । पुण्य पाप की जागी रीत ॥ चिंता कूछडो तुम मात 1 म्हें सेवा करि हूँ बहुभांति ।।३६१८॥ दे प्रतिबोध मारणे निज गैह । रसोई करवाई बहु नेह ।। विदेहा रावण पटघनी । तार्क संग सहेली घनी ॥३६१६॥ बइठे मिदिर सांति जिणंद । सुमरण कर देव गुरु बंदि । रामचन्द्र लभमश नै सिया । विदेहा कु प्रादर बट्ट दीया ||३६२०॥ छोडो सोग करो चिप्त ठांव । हम सेवा करि है बहु भाइ ।। तुम माता मन राखो चैन । कर छीनती मधुरे न ॥३६२१॥ विभीषग द्वारा राम का स्वागत तिहां भभोषण प्राये पहुंच । काकं हिये घरम की रुचि ।। दोद कर जोडि वीन खरो। चलो प्रभू भोजन बिध करो ||३६२२।। बाजा बाजे मन प्रानन्द । हस्ती परि चढे रामचन्द्र ।। न्वक्षमन प्रादि भूपती सबै । भभीषण हरखं मन में जबै ॥३६२३।। मेरा धन्य जनम है प्राजि । राम माए इतना दल साज ॥ मो परि फ्रीपा करी जो प्राज ! मेर इहो पाया भोजन काज ॥३६२४ महोछव सब नन में किये । सबही प्रानचा निज हिये । पदमप्रभू निज मंदिर गये । दरसन देखि अधिक सुख भए ||३६२५।। पूजा रचना बारंवार । सकस नरेस करें नमस्कार ॥ रतन जड़ित कंचन के कालस । उत्तम नीर बास तिहां सरस ॥३९२६ उबटणां ल्याए बहुत सुबास 1 भ्रमर न छोरें उनके पास ॥ हेम रतन की चउकी वणी । रतनजोति बिराज पति घणी ॥३६२७ रामचन्द्र लछमन विहां न्हाइ । मदन कर मर्दनयां प्राइ ।। सकल भूपति करि करि सनांन । पुजा कीनी श्री भगवान ।। ३९२८॥ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ विध व्यंजन I वह पकवांन और व्यंजन धने । भात दाल सामग्री मिले || कनकसचाईं सोवन थाल बैठा जिमैं सब भूल ।। ३९२६|| निरमल जल सौं भारी भरी। पी भूपति मानें रती || दूध दही जीमें सब भूप । षटूरस व्यंजन व fter माह से मुख नोषि । चोबा चंदन त्या सुगन्ध ॥ पहिरि भी दस्तर सुवास । सीतल पवन भींजरणा व्यार ।।३६३१ ॥ अनूप ॥ ३६३० ॥ भभीषरण जस प्रगटै भया । सब सेनां कुं भोजन दिया || राजदेहु मन पर बैठाई || ३६३२|| तिहां पट्ट बैठा सोभा धरणो ॥ मंत्री मंत्र करें सुविचार | कोई कहे अजोध्या धमी कोई कहे लंका बडी ठाम इही ठाम दीजिए राज | मनबंधित सी सब काज || प्रठोत्तर कलस राम पै बार । लक्षमण को नींका बंठार !१३६३४ । रायरण तीन षंड का राव ।। ३६३३६८ दिया राज लंका का सवं । कंधन कोट लहे बहु पर्व || लक्षमण बिसल्या सू करि व्याह । सब मिल मंगल करें उछाह || ३६३५ ।। पद्मपुराण एक था दसग नगर को राव | रूपवती कन्या का नांव || कुबेर इस बार खिल भूप । कन्या कलसण माल सरूप ||३९२६ ।। उजेरणी नगर सिहोदर राव । बच्च किरण राजा सिंह ठाइ || भेजी कम्| बहु गुणवंत । व्याह लक्षमणां बलवंत || ३६३७|| जे श्री रामचन्द्र की मांग कियो विवाह दुःख सब त्याग || जे नारी पूरन पुनि कर दई । राम लक्षमण की नारी भई ।। २६३८ ॥ सुख में बीत गए घट वर्ष । सब नगरी मानें बहु हर्ष अजीत एवं मेघनाथ द्वारा निर्वाण प्राप्ति इन्द्रजीत मेघनाद तप करें। रिघ पाय सब कु परिह ।।३६३६| मेघनाद ने केवलग्यांत । इन्द्रजीत घरि श्रातमध्यनि ॥ टूटे चारि घातिया कर्म । उपज्या पंचम ग्यान सुधर्म ।। ३६४०।। विध अरियर हैं गए सिषपंथ । मेघबर तीरथ ग्यांन समर्थ ॥ तुरंगी गिर पर्वत के थान | जंबू माली तप की ध्यान || ३६४१|| हिमंदर पायो सुबिमांण । सुख विलास में हो विहांन ॥ अत्र के वजवीसी तप करें I एवंव क्षेत्रई जिम पद पर ।।३६४२ सा Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनि सभाषद एवं उनका पद्मपुराण अनंतबोध घर प्रथम जिनंद । मुगति रमणी सूख होइनानंद 11 कुंभकरण तप कर बहुत । नरवदा नदी पर केवल हुंत ||३६४३॥ सुरपति करें महोछब तिहां । देही छोडि पहुच्या सिब जिहाँ ।। मई स्वामी मुनिवर तप करें । पोदनापुर में ध्यान दिद धरै ।।३६४८॥ प्राकास मामिनी पाई रिध । सम्न तीरथ फरस्या उन सिघ ॥ नप करि गया पचमे रवर्ग 1 भया देव मिटिया उपसर्ग ।।३६४५४॥ मारीच मुनी तिहा साथै जोग । फर वंदना सही लोग ।। पाई रिध तप के परसाद । राग झंडे सब बाद ॥३६४६।। महें बाईष परीसा धीर । सा तप साध वलवीर ।। नीता सम सती नहि कोइ । प्रन के भव गरगषर पद होइ ।। ३६४७।। गवण होइ देव अरिहन्त । वांगी झालनी सिवपद संत ॥ इह पूछ बेसिक कर जोडि । सीलवंत नारी भीकर ।।३६४८।। जे नारी उत्सम जल बरी । पालै सील कपमा चढी॥ जिस्य ने दोक कुल की लाज । ते नहीं त सोल का काज ॥३६४६॥ जे विष वे पाल हैं सील । मन गयंद नै राखै कीस ।। मीता किण कारण अधिकाइ । गएरापर होइ मुरुति को जाइ ।। ३६५०।। श्री भगवंत तब कहैं विचार । सीता महासती है नारि॥ विपत्ति मई फिरि कत के संग । अगाया किम ही करी न भंग ||३९५१ रावण हरी परीसह सही। नपणां सत टाल्या यह नहीं ।। ग्यांन अंकुस सों मन गयंद । बैंगग्य भाव सों राख्या बंद ।।३६५२।। या का सत से जीरया राम । मन वांछित सन सीधा काम || जे मन बच पास छह कोइ । ऊंची गति पाय जिव सोइ ।।३६५३।। लोक लाज' सो राख सत्त। निसबल रहे न कनका चित॥ वे क्यों बाकी सरभर करें । जैसा भाव सइसी पति भरें ॥३६५४॥ जैसी करणी तैसी ठाव । पानं घरम ची सील सूहाव ।। पंचबैसि रामथान का ग्राम । नौदर विन रहै तिस टोय ॥३६५५।। अभिमाना वाकी प्रस्तरी । अंसें अगनि पवन त जरी ।। द्विज को सदा देहि वह दुःख । कदे न राख घर में सुख ।।३६५६।। रात दिवस कलह वे करें । बाह्मण देखि भैसी दुख भरे ।। नौदर बाभरण पान्यां अन्न । अभिमानां निकस गई वन्न ।।३६५७॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एमपुराण पोदनापुर का रुद्र नरेस । वामनी उठि गई तिहां देस ।। पुहुप कर्ण नगर ना नाम । सवध प्रसाद राणि तिह ठाम ॥३६५८।। हेमकर पंडित तिहाँ गुणी । राजा कंदरप क्रीडा पणी ।। लम्या पांव राजा के माथ । मनमें सोच करै नरनाथ ॥३९५६।। भया परभाति काया कार सुघ । बैठ पाट बिचारी बुध ।। भूपति बहुति सभा में प्राइ । नमस्कार करि लागे पाई ॥३६६०।। पंडित गुणी माए परधान । राजा उनसों पूछ ग्यान ।। रामा के माथे त्यावै चोट । वासों कहा कीजिये खोट ॥३६६१।। मंत्री बोले सब तिरण धार । वाका घर्ण काटो भुपार ।। हेमंकर द्विज बोल्या करि ग्यान । बैही चरन तुम उत्तम जान ॥३६।। दीजे वाहि भला ग्राभरण । असी बात सुस्पी उन कर्ण ॥ भये कोप सभा के लोग । इण विष किम भाषी ये फोक ।।३६६३।। विप्र ने कहा भेद समझाय । बहुत विभूति दई तक राइ ।। मित्र जसा ब्राह्मणी एक । प्रसांक द्विज भुवो घरि टेक ।।३९६४।। सिघई कदर प्रवर पुत्री । तिहां जंटसाल द्विज + थिति करी ॥ सीखी विद्या भए सुजान । सस्त्र सास्त्र सीखर परवान ।।३६६५।। राजा की पुत्री उन हरी । सिंघईद दोड्या सिंह घरी ।। धेरमा द्विज तिहाँ हुवा जुध । सेना की खोई सब सुष ।।३६६६।। कन्या जीत गया निज गेह । सबध प्रसाद ने छोड़ी देह ॥ वित भया नगरी का सव । सब भूपति में प्रगटपो नाव ॥३९६७।। सील वृधि श्रीवृधन संजोग । पोवनपुर का भुगतं भोग ।। राजा सुकेत वापरपुर षणी। भूपति सूवा भय च्यापी घणी ।।३६६८।। सिंघोद देवी ता असतरी । धीवरषन की संका धरी ।। रयण समय दंपति उठि भगे । पोदनापुर बन जाइन लगे ।।३६६६11 तिहाँ भुयंग उस्यों सिंघ इंद । देवी राणी के हुवा दुद ॥ रोवे पीट वन मैं वहीं । तिहां सहाय हुबा कोई नहीं ।।३६७०॥ मधु मुनिंद कर तिहां तप । दयाभाव थी जिनवर अप ।। मुनि में सपरस प्रा वियार । मृतक विष उत्तर भई संभार ।।३६७१।। श्री मुनिवर कू करी इंडोत । पूजा स्तुति करी बहुत ।। बीती रयण उगीयो भाण । विनयदत्त पहुंच्यो तिहां प्राय ।। ३६७२॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाषद एवं उनका पपुराणा ३५७ सुण्या भेद रात का सेठ । प्रस्तुति कार उनकी लिंग बैंठि ।। श्री बरधन पाया भ्रूबाल । सिंघ इंद सुमिस्या सिंह काल ॥३९७३।। सील वृद्ध भाया सूमिली । क्रोध लहर दोनु की टसी ।। श्रीवर्धन जोडघा दोउ हाथ । मेरा भव भाखो मुनिनाथ ॥३६७४।। अवधि विचार कर मधु मुनि । सोभापुर नगर प्रश्री घणी ।। भद्रसेन अाधारिज तिहाँ । राजा धर्म सुरग नित जिहां ।। ३६७।। एक दिन घाल्या जती के पास । मारम में पाई खोटी बास ।। दुर्गंध ते भया जीव बुरा । राजा अपणा घर कु मुडा ।।३६७६।। एक नारी को पैसा दुख । देह वसाई गंधावै मुख ।। जिहां निकस ते गली बसा३ . : नारी यह एक प्राइ !! मुनि दरसन पाया तिण नारि । गया दुख बहे उतनी बार ।। अमल राम सुणि अघरज करै । अगुवत गुरु पास घरै ।।३६७८॥ पाठ गांव पाठ को राखि । राज विभूति पुत्र को भाषि । दया दांन विचार ग्यांन । भाउ बोकार सौधर्म बिमान ॥३६७६।। उहां ते चई श्रीवरधन भए । सुपा धरम चरण कुनाए । मित्रजसा पूछ परजा: । दह माना है किह भाई ॥३६८०॥ वित्र नै तर वे दिया सराफ । नगरी जलै उदै भयो पाप ।। बहुते लोग क्रोध की पाइ । हुतासन में दियो विप्र जलाइ ॥३९८१।। वह द्विज मर करि हुबा बस्मन । रसोई कर रामा के दिन दिन ॥ एक दिन मुनि नप के घर माइ । भोजन निमित्त ऊभा मुनिराइ ।।३६८२।। वरांमन मुनि कू विष दिया । देही छोडि सुरपद पाझ्या ।। विप्र मरि करि पहुंच्या नकं । लख चौरासी रह्या गर्क ।।३६८३॥ मित्र जसा भई अस्तरी । मसोषसरक की हुई पुत्री ॥ राजा पूर्छ एह संदेह । पुरुष सौं नारी भई क्यु एह ।।३६८४॥ काहैं सुनीसुर सुणु नरेस । अब तुम परतक्ष देखो भेस ।। राजा सुकात राज में मुषां । भोजन पुत्र सेठ की अस्तरी हुवा ।।३६८५।। अभिमानां प्रसाद लबध की असई । कररूह की राणी तब थई ।। मधु मुनि किया अंत संन्यास । ईसान स्वर्ग पद पाया वास ।।३६८६।। जे कोई धरै धरम सूचित । निस, पावें पंचम गति ।। भवजल तिर जाई सिव मध्य । तिहाँ सालती पूरए रिध ४३९८७।। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ पद्मपुराण घरम ध्यान लष ल्याइ कार, घरै ज संजिम भार ।। चिहुं कति भ्यंतर ना रुलै, पावै सुख अपार ॥३६॥ इति श्री पपपुराणे मधु प्राल्यान विधामक ७४ वां विधायक भारर मुनि का प्रयोप्या में प्रागमन नगर अमोध्या उत्तम थान । भरथ प्रताप सपै ज्यू भान ।। परजा सूखी दया चित घमणी । इन्द्रलोक की सोभाबरणी ॥३९८६।। अपराजिता मिदर सतखणे । पश्चात्ताप कर मन आपणें ॥ मेरी कुख रामचन्द्र भए । जोवन समश के उठि गये १३३६६०।। घरती पर घरते नहीं पांव । वन वेहद भ्रम दुःख के भाव । पुत्रों में देखू किरण मांति । अपराजिता रोबई मात ।।३६९॥ अन नारी ता संग । ज्यौं घनहर बरसे बहती गंगा ।। नारद मनी पाए सिरण परी। नमस्कार प्रसतुत बहु करी ।।३६६२।। चउका दिया बैठणां प्राण । बहत कियो प्रादर सनमान ॥ सीलवंत वे नारद मणी । जटाजूट याणी करि मुनी ।:३९९३॥ कमंडल पीछी कर में लिये । भसम लगाइनल धोती किये । अपराजिता से प्रश्न पूर्छ नारद कहो मो मात । सुकोमल का कुल उसम भात ।।३६१४|| राजा दसरथ की परवगी। मुम फिम हो किम अणमशी ।। तब बोली अपराजिता माई । नारद मुनी तुम थे किस ठाइ ।।३६६५॥ रामचन्द्र लक्षमण वनवास । तिम् कारण हम रहा उदास ।। थातकी खंड में पूर्व विदेह । सुरेन्द्रपुर नगर गया था एह ।।३६६६ त्रिलोक ईस जिन का अवतार । मिदर मेरु सुरपति तिही वार ।। ल्याई करी जनम की रात । हारि कलस उपजाई प्रीत ||३११७॥ इंद्र घरणेन्द्र भारती करें। नर मानुप बह सेवा करें । प्रामपरा पहराय कीए गिगार । माता न सोप्या तिण बार ||३६९॥ नईस कप ह्या मैं तिहां । तुमारा भेद कछुअन मैं लाया ।। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाबन्द एवं उनका पपपुराण ३५६ राम कपा सर्च प्राण हित मुनि पै सुरणी । रामचन्द्र की कथा उप्प भरती ||३६६&II रामचन्द्र लक्षमण अफ सिया। दंडक वन में प्राश्नम लिया । सीता कूरावण ले गया। रामचन्द्र लक्षमण में दुख भया ॥४000) विराषित सूचीष राम सू मिल्या | रावण सूजुषा किया उनों भला ।। लक्षमण लाग्या सकती वारण । टुबा पूरछा गए परांण ॥४००१॥ दोवसामेष की चिसल्या धिया 1 उर्व जपाव लक्षमण का किया ।। सुरणी बात अपराजिता माय । गिर गई भूमि मूर्छा खाइ ।।४।०२|| में लक्षमण के मार सनि । कैंसी हुई उनू की गती ।। सीता का सुषमाल सरीर । वन बेहल तिहां अन्न न नीर ।।४००३।। बन फल खाइ रहे बन माहि। बंदी बीच महादुख ताहि ।। आय पड़े समुद्र मंझार । कैसे पाऊं उनकी सार ३४०४।। नारद मुनि बोले समझाई। लक्षमा बीया करें उपाव ।। बांध्या कुंभकरण इन्द्रजीत । मेघनाद में किया भयभीत ||४००५ रावण ने मारी राज वे करै। तुम मन में चिंता मति पर। अब मैं लंका गढ़ में जाइ । राम लक्षमा प्राणु इस ठोइ ।।४००६।। नारक का लंका में प्रागमन । नारद चाल्यो बैठि विमारण । त्रिकुटाचल कुकियो पयांन 11 पदम सरोवर रावण की चिता । अंगद क्रीडा कर सुख की लता ।। ४005|| अंतहपुर अंगद के संग 1 खेल राणी मन उधरंग ।। चउकस बैठे चौकीदार । नारद पूछ रावण सार ||४७०८।। रखवाले कहैं सुरिग रे प्रस्यांन । तू माकाम से बैठा भान ।। रावण कुमारचा लक्षमण और । रामचन्द्र सा बली न और ।।४००६।। प्राई किंकर लक्षमण सों कही । अंगद ने तब हांसी गही ।। तपसी कूल्यावो मो पास । देखेंगा राम तब कर उपहास ।।४०१०॥ हस्ती चढ अंगद सु नरेन्द्र । नारद कु' ले चाले करि बन्द ॥ धकाधकी सूककर गहिलिया । रामचन्द्र प्राग कर दिया ॥४०११॥ राम द्वारा नारद का स्वागत रामचन्द्र नारद कु देखि । अादर दिया ऋषीस्वर प्रेष । नमसकार करि बैठाया पाट । भूपति सभा जुड़ी थी ठाट ॥४०१२॥ रामचन्द्र पूर्छ कुसलात । मुनि जी कहो परनी की बात ॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० नारद द्वारा अयोध्य अम पद्मपुराण नारद कथा प्रजांच्या कही । अपराजिता कई सुख नहीं ॥ ४०६३ तुम कारण करें दिन रमरा । उनके मन को नाहीं चयन || जो तुम उनकी सुध ना लेहु । प्रासा तर्ज जांणी निसंदेहु ||४०१४।। वेग चलो तुम मेरे संग । सोग वियोग सब होवे मंग ३| रामचन्द्र लक्ष्मण सुगि बेन । व्याया मोह भरे दोऊ नैंन ॥ १४० १५॥ राषित सुग्रीव गद हनुमान | इनको प्रस्तुति कहीं यखानि ॥ तुम कीया परमारथ कांम तुमसे रही हमारी माँम ||४०१६ || परदुष्व मंजन तुम भूपती । तुमसों उर हों हां किम भर्ती ॥ भावमंडल की प्रस्तुति करें। तुम तं ए सब कारज सरं ||४०१७।। बहिन तरी मेटया सव दुख । तुम प्रसाद हुआ सब सुख || भीषण सु बोले रघुनाथ । जे तुम धांनि मिले हम साथ ||४०१८| तो हम जीत्या लंका देस । हमारा तुम मान्या उपदेश || अजोध्या की हम करि हैं गोन। तुम उपगार सकेँ कहि कौन । ४०१६ लंका राज हम तोकू दिया। भभषा बहूरि चरण को नया ॥ मेरी अरज सुग्गों जगदीस करो राज तुम बहुत बरीस || ४७२०|| हू' सेवग विनर्क कर जोडि | मात मुलावों इस ही ठोर ॥ हम पे राज सधैं कि भांति । मैं सेवग सेक दिन राति ||४०२१ ।। रामचन्द्र बोलें लनमरणा । जनम भौम देखा को मना || फिर बोले भभीषण राह | सोलह दिवस रही इस दाइ ॥ ४०२२ ॥ अयोध्या में राम द्वारा बूत भेजना सावधान हो जन सगर ॥ भेज्या दूत अयोध्या नगर विद्यग्धर तिहाँ भेज्या दूत । अपराजिता प्रावल देखे ल ||४०२३॥ अपए दूत भरत के पास सुखी जीत मन भया हसास || asta दिया दूत को दान । प्रादर भाव किया सनमान ॥२४०२४ ॥ अपराजिता केकई में श्रान । सुखे बचन भया मन प्रोन ॥ पीछे श्रावत देखी संन । बहुत हूवा नगरी में चैन || ४०२५ ॥ रतन कंचन बरसे सिंह घरी । सब अयोध्या कंचन सू भरी ॥ भरत भूप यह श्राग्वा दई । अयोध्या फेर समारो नई ||४०२६॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनि समाचब एवं उनका पपपुराण सकल गेह कंचन के किये । रतनजडित चित्रसाली किये ॥ विद्यापर माये सूत्रधार । ते मंदिर प्रति भले संभार ।।४०२७।। जे जे द्रव्य हीण था लोग 1 तिण का मेटचा सब ही सोग ।। जे कोई नगर गये ये छोडि । उह दुनिया से प्राणि बहुरि ॥४०२८।। बहुत लोग अन्न भी बसे । लंका से यह प्रधिकी दिस ।। राजामंदिर सब से भला । देखतही सब का मन खुला ॥४०२६।। बारह जोजन लांबी मही । दस जोजन चोदाई सही । मगरी का कंधन मई कोठ । अन्य सह मिट गई सउद ।।४०३०॥ श्रीजिन का चैत्याला कियो । प्रादिनाम मंदिर तिहाँ भए ।। दोई सहस यंभ की साल | सहन कूट सोमं सुविसाल ।।४०३१।। सहन थंभ की वेदी वणी । बंदरवाल मोती की मणी ।। सहस्र एक ध्वजा तिहां लगी । रतन जोति चहुँदिस जगी ।।४०३२॥ कमल सरोवर वापिका कूप । सीतल पवन सुहावन रूप ॥ अवतीस जोजन वन बई पास । 'फूलै फसें बह वृक्ष सुवास ।।४०३३॥ सोलह दिन में संगडा सही । सुर नर देख प्रचंमें रही । रामचंद्र इह पाई सुष । बसणे की कोणी सब घुष ।।४०३४।। मजोध्या कंचन की घणी, रतन लग्या बहु भाइ ।। अमर सुख व शोर करि, मोहे सुरपति माइ॥४०३५।। इति श्री पयपुराखे साकेत परपन विधान ७५ बा विधायक राम सीता का अयोध्या गमन लंका राज भभीषण दिया । अजोध्या कूपवारणा किया ।। बठि घले पूलपक विमाण । विद्यापर संग है बलवान ।।४०३६।। त्रिकुटाचल नंकागढ़ छोरि । झाई सोमैं है चिहूं पोर ।। पुष्पक विमान से सीता को मार्ग का परिचय देना मेरु सुदर्शन देख्यो सिया । पूर्वी कवरण ए ठाम सोभया ।।४०३७।। बोले राम सुदर्शन मे । महोछा श्रीजिन जनमत वेर । ए है जनम कल्याणक ठाम । इनका सुया पुराणु नाम ।।४०३८।। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ पद्मपुराण दंडक वन देख्या राम । तुम इसके हसे या हमि ॥ उहां ते बाई देखी वह नदी । चारण मुनी आए ये जटी ||४०३६ भोजन दान दिया था उने । जटा पंखी पूरव भव सुने । जटा पंखी इत सेती गह्या । रावरण वां के प्राण कु दह्या ||४०४० || गिर पर्वत देख्या वही । देसमूषरण कुलभूषण सही ॥ उनु का जब उपसर्ग निवार । केवल म्यान लखा णि बार (४०४१ बालखिल्य जिहां था भूप । कल्याण माला पुत्री सुम्वरूप ।। पापम । ५२॥ दशांग नगर बाकर नरेस तिहां प्राय परदेसी भेस ।। उन दीया या हम त आहार वाको दुःख चले थे टार ॥ ४०४३। अयोध्या दर्शन श्राए तिहां प्रजोध्यापुरी। कंचन मंदिर सोभा अति खरी ॥ सीता पूछ इह नगरी कोण | कनकमय दो हैं जिहां भौन ॥ ४०४४ ॥ लंकां है दीसे आगरी । बसें सघन उत्तम जन भरी ।। रामचंद्र बोले समाइ । अजोध्या जनम भूमि यह होइ ॥ ४०४५ || विद्याधरें संवारो न । सा कोई अवर न थांन ॥ श्राए जिहाँ बीस बेहुरे । रिषभदेव सोमें प्रति खरे ||४०४६ ।। उत्तरे भूमि जिनदरस निमित्त । भरत सत्रुधन आए पहुंत ॥ देखी सेन्या घरी विभूति । पुहपक विमा सोभा संजुक्त ||४०४७|| राम लक्ष्मण भरत शत्रुधन मिलन रामचंद्र लखमण के पाउ । भरथ सत्रुघन लाग्मा परि भाउ || उनु लगाया जननं कंठ छूटि गइ मन मोहिली गंठ ॥४०४८ मैंगल डोर लाख पचास । श्रस्य रथ पाइक चहु भास ॥ देखें नारि पुरुष सब लोग । सब नगरी में मिट गया सोग ||४०४३ ॥ पुहपक विमाण परियारू वीर । सो कनक वरण सरीर ॥ मोती माक हीरा लाल । बाले रामचंद्र परि उछाल ।।४०५०।। सीता सती बहु सोमं पास जैसे पूनम ज्योति प्रकास || विधित कू देखि लोग सब कहूँ। चंद्रोदिक सुत इने संग रहें ।। ४०५१५० जब खरदूषण सू भई मार । तब विराधित किया उपगार || दंडक वन ले गए पाताल | रामलखण पहुंचाए हाल ।।४०५२ । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलि सभाचंर एवं उनका पपपुराण देख्या झंगद मुग्रीव हनुमान । इन सुग्रीव सेनां सब ांन ।। रामचन्द्र का कोया माज । राखी रघुवंस की लाज ।।४०५३।। हुनूमान बल महिमा घणी । इसकी बात प्रामें भी सुणीं । भावमंडल जनक का पूत । देव एक कीया यह पद ॥४०५४|| जनमत ही सुर ने इह हरपा । विजयाद्ध' गिरि गिर पड़या ।। पहपावती नै पाल्या याहि । पुन्यवंत पराक्रमी ताहि ॥४०५।। जितने राजा सेना साथ । जैसे इन्द्र देव की प्राथ ॥ बाजंतर बाजे बहु संग । ता सबब सुख पायें अंग ।।४०५६।। गावे गुरिण जन मधुरे वैयन । कर राग होई सुख चैन ।। विरदावली जाचक जन कहै । नगर लोक अकित होइ रहें ।।४०५७।। अपराजिता मवर कैकया । सुप्रभा और सकल सुख भमा । सतखिण मिंदर बहठी जाइ । दरसन देखें पुत्र का प्राइ ।।४०५८१५ निकट पोल माइया निवारण । माता पुत्र मु भया मिलाए ।। चारू माता के पद नए । भरे नयन तव उनके हिये ।।४०५६।। कंठ लगाय परियण भेटिया । नए जनम ए अब प्राइया ।। प्रसुभ कर्म त भया वियोग । पुन्य उदय ते भया संजोग ।।४०६०।। प्ररिल्ल पूनि मिलं कुटुव पौर सुख संपति घणी, वृद्धि होइ परिवार जिती भाब प्रणी ॥ वरो धरम सुप्रीत रिष बह पाइये। मध्य लोक सुख देखि मोक्षपुर जाइये ।।४०६१।। इति श्री पापुराणे श्री रामचन्न समण प्रयोध्या प्रागमन विधानक ७६वां विधान मौपई अयोध्या वैभव दोदकर जोडे श्रेणिक राक्ष । प्रमु जी कथा कहो समझाइ ।। केती विभय राम के भई । केती पृथ्वी साधी नई ।।४०६२।। श्री जिन वाणी गहर गंभीर । सुरणत भाजै प्राणी की पीर ।। गौतम स्वामी ब्यौरा कहूँ । सुशि थेणिक मन निघच गहै ।।४०६३!! कनक कोट चतुःसाला नाम | तीन कोट प्रमोच्या ठाम ॥ एक कोट नगर के फेर । दुजा कोट फिर भीतर घेर ॥४०६४॥ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ पद्मपुरा सीजा कोट सब ही तें बडा । पातिका तीन निरमल जल भरया || याक' पोल वा किवा | हस्ती पोल बनी मभर ||४०६५।। जिन प्रतिमा की महिमा घणी । ढालि कलस प्रति सोभा दरी ॥ रतनजोत सो चिहुं घोर | चंद्रमा बरणे घणे सब ठौर ||४०६६ ।। बी पुतली जिहां लंजत सोमे सब ठामै बहु संत ॥ वृक्षावली का वर्ग कटाव जनू को कहां लग वरणाव ||४०६७ || सभामंडल झरोखा सु प्रनूप । सुख सेज्या परि पोहे भूप ।। हू सुगंध पाटंबर तिहां मानसभ बिराजै जिहां ॥ ४०६६ ।। पट्ट फिरें सिर छ । अमर करें गंगाजल जत्र ॥ सो सहस्र मुकट बंघ राई करें सेव तेव मन वच काई ||४०६६ ।। वैजयंती सभा तहां जुड़ी । बर्द्धमान मंदिर रिध बढ़ीं ।। अनोपम गदा खडग कनकार सूर जहां सुसोमं तरवार ||४०७० ।। बच्या समुद्रावत्तं । सा धनुष बहु सोभा धर्त । उत्तम वस्त्र सोमं सब अंग । जर्क सुबसन वरले पचरंग ॥ ४०७१ ।। पंचास लाख गउ को खीर । छपन लाख गज लक्ष्मण धीर ॥ सत्तर कोटि नगर में झांन तीन खंड के भूपति जान ॥ ४०७२ || सेव करें नित सकल नरेम । नरपति खगपति मानें प्रादेस || चक्र सुदर्शन जोति प्रपार गर्दै तीन लोक मझार ||४०७३।। च्यारू नीर पट्ट बैठे नित्त । सकल सभा में उनु का चित ॥ वन उपवन के फल अरु फूल देखि ताहि पथि करि हैं भूल १२४०७४। उछले जल फिर उतरें भूमि । वृक्षावली तिहां रही भुमि ॥ मंदिर करणे सब रोस के भने | तिहां बैठि नृप मान ले ॥४७७५ ।। निर्मल नीर बहे तिहां गंग ॥ F उह गढ की मोट || ४०७६ ।। रघुपति सेव ॥ श्रस पास पर्वत उतंग गिरवर ते इहै ऊंचा कोट छिपे भानु सुर्ग सुख तजि मोहे देव । अजोध्या इं रामचंद्र की श्रागन्य भई । धर्मसाला सब रायो नई ॥ ४०७७॥ पर्वत परिस्थाल किये। नगर नगर जिन मंदिर भए । अटूट भंडार घट है नहीं । भोग्य भूमि सब है नहीं ।। ४३७८ ।। सीता की नगर में चर्चा नगर नगर चर्चा इह चली। रामचंद्र कौनी नहीं भली ॥ सीता कू रावन ले गया। सीतां का सत कैसे रहा ||४०७६ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमि सभा एवं उनका पपपुराण रामचा सा कर ए कर्म । कैसे रहे अन्य का धर्म ।। में नारी पाहिर पग देइ । ताहि सुभट कैसे घर में लेइ ॥४०८०।। उत्तम कुल को पूरी लाज । पर घर में तिन सों नहीं काज ।। असी चरचा पर घर हो । प्रसुभ कर्म मति नधिो कोइ ।।४०८१॥ भरत के मन में वैराग्य भरत तणों मन भया राग । सकल रिष सौ मेल्पो लाग ।। राजभोग विष समस्या सबै । सब ही विनासी जाणों मबै ।।४०६२६ जोवण जल बुदबुदा समान । जरा ज्या तव थकै परोन।। पांचु इन्द्री हुवं क्षीण । पराक्रम थक देही होइ होण ।।४०६३|| सब कैसे पाल चारित्र । चार कषाय जीव के सत्र ।। विषय सप्ताइस सह दुख के मूल 1 जे प्रग्यान मोह में मूल ||४०८४|| लोही मुत्र हाग आमिष । ताहि देखि जिय मार्न मुख । काया की काचा पिंड । जिम कुंभार बणाव भंड ॥४०६५।। एक धरी में होई चार i से सू काही करे यार। मनुष्य अनम किस ही विष लहै । सयम को निश्चय सों गहे ।।४०८६।। इह विभूति संग्या उपहार । सोभी जात न लागं वार ! जैसे दावानल बन बहै । बड़े वृक्ष पल में भस्म फरि रहे ।।४०८७।। सब बन भस्म कर वह प्राग । तउ न हार पल पल जाग्य ।। जेता धनगर ताहि । तो भी पावक तृपत न नांहि ॥४०८८।। ऐसे भुगत सब जग मही । तो भी तृष्णा मिटती नहीं । ज्यों समुद्र मति ही गंभीर । गंगा नदी मिल्या सब नीर १४०८६।। समडे मही समुद्र किह भाति । से जीव मोह के नसात ॥ राग छोगो करि ज्यान । सुख दुख सममें एक समान ।।४०६ जैसे गंगाजल के पास । काक घरं मामिष की मास ।। मृतक परि बैंक चला जल माहिं । उठ लहर प्रगम पयाह १४० ११॥ समुद्र मांहि पहुंच्या बह काम । तिहां तं निकसै न मारग लाग ।। देखें उबक चिहं दिसि मोर । उहने का पात्र नहीं ठौर ॥४०६२।। ऐसे जीव माया बस पडे । भवसागर में भ्रमता फिरें ।। जैसे मौंरक पंकज रुचि करें । तिहाँ मुबंग भाप पकडं ॥४०६३॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपपुराण असे लोभ वे जीव नै दुःख । नई पहचाई तिहां नहीं सुख ।। इह विभूलि सपणं चरिणहार । अब हूं ल्यू' संयम का भार ।।४०६४॥ करें विचार भरय भूपती । किरण ही प्रकार होस्थुजसी ।। अब जहूं संयम प्रत धरू । सकल लोक मुज भास बुरू ॥४०६५॥ भब लू राज अकेल करा । रघु ने देख जैन प्रत घरचा ।। कछु राखिये लोकाचार । कछु कीजिये जीव का प्राधार ।।४०६६। जसें केहरि पिंजरा मांझ । इम भरथ विचार वासुर सांझ । राम से भरत को प्रार्थना . रामचन्द्र सों बिन भरथ । माग्या घो तो लेहुं चारित्र ॥४०६७।। राम का उसर रामचंद्र समझावं बात । तो का राज दिया है तात ।। हम पाग्या देथे कू कौन । सुमारे मिलन कू किया था गौन ।।४५६|| करो राज परजा सुख देहु । चाउथ पाश्रम दिल्या लेहु ।। चक्र सुदर्शन तुम पै रहो 1 जो कुछ भाग्या हमसू कहो ||४०६६ छत्र धरावी अपने सीस । तुम हो सन पृथ्वी के ईस ।। सत्रुधन पमर दारंगा खड़ा । लक्षमण मंत्री सब गुण बडा ॥४१००। सीन पंख का भुगतो राज । हमने नहीं राज सौ कान । करें वीनती भरत कर जोडि । कीया भोग मछु रही न खोडि ।।४१०१।। स्वर्ग लोक सुख देखे बरणे । तो भी जात न जाणे मसे ।। इह विभूति बिनसत नहीं वार । माया में मरि धर्म संसारि ।।४१.२५ ऊप नीच गति भरमै जीव । सुभ प्रसुभ की बांधे नीव ।। करो दान पालो रतन तीन । च्यार दान विष सौं द्यो नित्त ।।४१०३।। दयाभाव सों राखो चिस । सुन दुस्ख सम जाने मानवंत ।। समझा मंत्री परवीन दया दान राखो मन चित्त ।।४१०४।। कारिमो दोस परिवार। कोई न चल जीव की लार ।। धरि चारित्र लहूं गति मोक्ष । सिहाँ सासत्ता सुख संतोष ॥४१०५।। स्यंषांसन सौं उतरना भरय । तब लक्षमण कर है थुलि ॥ भरत को पुनः राम के द्वारा समझाना अब ही तुम मति छडो राज । जोबन सम नहीं तप का काज़ 11४१०६।। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पपपुराण वंगग भाव हम चित्तै घरै । हमारे संग तुम तप मापरं ।। केकझ्या माता विललाइ । गणी रुदन कर यह भाय ।।४१०७५३ सीता प्रबर विमल्या आइ । सह परिवार को समझाइ ॥ कोमल काया लघु है बेस । महा कठिन मुनिवर का भेस ।।४१०।। षट रितु के दुख कैसे सहो । सज्या भूमि परीसा लहो 11 नीरस भोजन वन का वास.। किम छोडो तुम भोग विलास ॥४१०६॥ स्वर्ग लोक सम है यह रिद्ध । अन्य जनम किण देखी सिर ।। बावक धाम पालो घरमांहि । परजा दान करो नित चाह ॥४११०॥ वाल समै तप करणा नहीं । चउर्थ प्राथम विष्या कही ।। बेग चलो अब करो सनान । हमारा वचन सुणुदे कान ॥४१११॥ पकडि बांह खेंचे सह प्रस्तरी ! ल्यायें उबटणां सुगंध प्रति खरी ।। र अल घोर रू अंग गरम पान ' नहीं भंग ॥४११२॥ पूजा करी श्री जिनदेव । सफल प्रस्तरी करें ऊभी सेव ॥ त्रिलोकमंडण छूटो गयंद । तोडि बंधण करचा प्रति दुद ।।४११३।। पाई हाट मंदिर अरु पौल । सब नगरी मां मांची रौर ।। छाट मगन जंत्र भरु बोए । गज नहीं माने कोई कारण ।।४११४।। उन्मत हाथी का प्रकस्मात प्रागमन जिहां भरभ कर पूजा ध्यान । मैंगल भाया उनहीं थान || व्याकुल हुई सब प्रस्तरी । भरथ भूप मय चित्त न धरी ।।४११५॥ रामचंद्र लक्षमण इह सुनी । उनकू देखत हूं सब दुनी ।। डार फास हस्ती कू' धनी । मान नहीं कोष का धनी ॥४११६॥ देखि भरथ कू हाथीनिया । नमस्कार तन बहु विध किया ।। भरथ नरेस प्रचंभे भया । या का मद काहे ते गया ४११७|| जाती समरण भयो गयंद । पुरव भव का समात्या बिंद ।। ब्रह्मोसर सुरग सुरगति पाई । उहा ते पंड राजा के माई ||४११।। दान येह कीया यह मान । तातें हस्ती उपल्या प्रांन । दीजे कटु दया के निमित्त । बयात्रत कोजे वह मंत ।।४११६॥ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरस सोरठा जो कछु दोजे दाम, तमो सकल अभिमान कू॥ पावा निरभ्य बान, या परम परमापसून १२॥ इति श्री पापपुराणे विभुवम मसल मसोम विधान ७७ वा विषानक चौपाई परस का हाथी पर बढना हाथी सहा परम के म्यांन 1 राम लक्ष्मण विंग पहुंचे मान ।। भूपर खेचर नरपति धने । चउषां फेर मनख इम भणे ।।४१२१॥ इह दंती सब ते मयमंत । फैसे भाव धरपा इन संत " भरत प्राइ चढे ता पीठ । सीता विसल्या प्राक्रमो दीठ ।।४१२२॥ एभी संग घडी तिरण मार | अपनी अपनी ठाम विचार ।। डोली डोला अनं चकडोल । रथ पालखीया बहुत अमोल ॥४१२३।। सेना बहुत पली ता संग । पहिर प्राभूषण भले सुरंग ।। कुसुम प्रमोद मंदन बिहार । तिहा पाए सगला परिवार ॥४१२४|| उतर मंसहेपुर सम गये । सगले सोग अचं भए ।। इह गंवर या महाबलीष्ट । कमा रहा मान करी दिष्ट ।।४१२५।। हवी बारा तप साधना बहु महावत पाए पास | मला मलीदा सौंज सुवासा हायी खाये न खोस गयन । सेबग बोले मधुरे वैन ||४१२६॥ प्राभूषण गरे सब डारि । गज नहीं देखें पोखि उपाहि ।। पाया प्रनै सथानिक खडा । खम्बा सफल सउंम तिहां पड्या ।।४१२७। से खडा खंभ पाषांन । तैसें मंगल स्थाया घ्यान ॥ जन की बात न पा कोइ । ए अचरज सब के मन होई ।।४१२८।। पंचक ग्रंथ संभाले वैद्य । अजषध ल्याव मन में खेद । विद्याधर जंत्र मंत्र बहु करें । कुछ उपाय नहीं सुसरं ॥४१२६॥ कर जीतिगी ग्रह चाल । कोई कहै मारघा है इन पाल । अंसा गज पृथ्वी पं नहीं । ए रावण या पारोषन सही ॥४१३०॥ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाम्रक एवं उनका पपपुराण जो कोई कहै सो कर उपाव । कोई न जाम उसका भाव ।। अपनी प्रपनी सम ही कहैं । भोई बदन कोई रहै ।।४१३१॥ करें जतन सब गुणीजन, बद्मक ग्रंथ विचार ।। मन की को जाग नहीं, रहे सकल पनि हार ।।४१३२॥ दति श्री पद्मपुराणे त्रिभुवन असंकार समाधान निधान ७८ वा विधानक चौपई देश भूषण कुलभूषण मुमि का मागमन देशभूषण कुलभूषण केवली । प्रजोध्या प्राए पूजी रली ।। महेन्द्र धन प्रति उत्तम थान । सो क्षेऊ चन्द्र अरु भान ।।४१३३।। तीन लोक में प्रगटे मुनी । रामचन्द्र लक्षमण मह सुनी ।। रघुपत्ति मन में भार उछाछ 1 दरमन हित चाले नरनाह ।।४१३४। भरथ सत्रुधन चारों वीर । सोहैं कंचन वर सगर ।। विमुवन अलंकार हस्ती फ्लाण । तिहां बाजे आनंद निमाण ।।४१३५।। सुग्रीव नील अंगद हनुमान । भूपति संग चले बलवान ।। अपराजिता अर केकईया । मुप्रभा संग चाली बहु त्रिया ।।४१३६।। सीता आदि चली बहुनारि । प्राने लोक सफल परिवार ।। पहुँने धन तब उतरे भूमि । दर्णन पाय चरण को झूमि ॥४१३७।। दई प्रकमां करी इंडोत 1 काही वाणी धरम उद्योत ।। कमी विध धरम जती का होइ । कैसे श्रावण पालें सोइ ॥४१३८।। केवलग्यानी शान अपार । कह धरम मुनि प्रामा प्रधार ॥ घरम समान सगा नहीं कोइ । धरमही नै ऊंची गति होइ ।।४१३६।। धरम सहाय जीव के सम । अन्यवि बरज्या रंग पतंग ।। मैसा है संसारी भीग । कबहु साता पसाता जोग ।।४१४०।। बरमाह सेती इन्द्र फणीन्द्र । सकसि पर देव जिणंद ।। ऊंची गति बहरि निराणा । पाव मोक्ष मासता थांन ।।४१४१६ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुरास लक्ष्मण द्वारा हाथी के सम्बन्ध में जानकारी चाहना लक्षमण पूछे द्वे कर जोडि 1 हाथी की कथा कहिये बहोड ।। किरण कारण इण कीया दुद । समता भई भरत कू वंद ।।४१४२।। केवल लोचन ग्यांन अगाध । पूजत हैं प्राणी के साध ।। नगर प्रजोध्या नाभि नरेस । मरुदेई सरस्वती के भेस ॥४१४६१ सरवारय सिच रिषभ देववास 1 छह महिना मागे परफास ॥ भई भोमि कन क सी सरब । रतनवृष्टि वरण्या वह दर्व ॥४१४४।। गरम जनम काल्याणक भए । सुरपांत खगपति सब ही नए ।। बनवृषभनाराच संस्थान । प्रथम जिनेन्द्र महा बलवान ।।४१४५।। लख त्रियासी पूरव राज । पार्छ किये धरम का काज ॥ चार सहस्र मपती साथ | आतम ध्यान धरै जिन नाथ ॥४१४६।। जसे सुदरसन अटल मेर। असे तप साधै मन धेर । अनि भूप सहि सके न भूख । लगी त्रिषा मन लाग्या सूख ।।४१४७।। तव वे मुनि कर विचार । जई फिर जाउ नगर मझारि ॥ मार भरथ सहु मैं ठौर । तात मत हम थाप मार ॥४१४८।। दरसन च्यारि निराले भए । उनने भेष निराले किये 11 उनमें भृष्ट भया मारीच 1 ग्यानामृत तें सब को सींच ।।४१४६।। सुप्रभा राजा प्रहलना प्रस्तरी । ते भी बसें अजोध्या पुरी ।। पुत्र दो वाकै गम भए । सूर्य उर्दै चन्द्र उर्द निरभये ।।४१५०।। जब वे कुचर जोबन के बैंस । मारिच पास सुण्यो उपदेस ।। संन्यासी का साथै जोग । छोडि दिया संसारी भोग ।।४१५१।। ध्यारू' गति भरम्या वे दोइ । कबहं देव मनुष गति होइ ।। कबहुं कि तिरजच गति फिरें । तप कार राज पुत्र अवतरै ।।४१५२।। हस्तनागपुर हरिपति भप । मनोनता राणी सु स्वरूप ।। तास गर्म चन्द्र उधम जीन । कुल कर नाम धरम की नींव ॥४१५३।। विश्वकर्म विप्र अगनिकुल नारि । सूरज उदय लिया अवतार ।। सुरति रति माम पुत्र का घरचा । बेद पुराण विद्या सूभरचा ॥४१५४।। हरपति राजा तपा गया । राजभार कुलकर दिया ।। सुरति रति प्रोहित भूपति हेत । संन्यासी महंत शिष्य सों हेत ||४१५५।। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुगि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण पंचा अगनि साधें वन मांहि । करें तपस्या बार सभी 1 नरपति सुणि दरसन कु चल्या । श्रभिनंदन मुनि देख्या भला ।।४१५६ ।। तेरह विष चारित्र का घणी । मति भूल भ्यान प्रवधि उपनी ॥ मुनि देख्या बाकी ढिग जाय । नमस्कार करि लाग्या पाई ||४१५७।। मुनि बोलें राजा सु बन । दादा निज देखू तुम नंन ॥ जिहां तापसी साथै ध्यान | जलें सरप वर लकडे थान १४१९५८ ।। राजा गया ते लकडा निकाल । चीरघा ठुठ निकल्मा व्याल || जैन धरम की घरी परतीत | धन्य साथ जे इन्द्री जीत ॥४१५६ I पाही जाण्यां सत्र भेष । निश्त्रं जैन परम सु प्रेष ॥ सुरति रति प्रहित तब शिक्षा देइ ||४१६० ॥ राजा चाहे दिक्षा लेई ૨૦૨ तुम चालक घर संतति नाहि । संतति बिन दोक्षा नहीं काहि || जे बिन संतति तप को धरें। मर करि जीव कुगति में प ||४१६१८ जब वह पुत्र सु ईसरथ अपना कुल का करिये घरम सौंपो राज रिध सब गर्थ ।। । अनि भेष घरो मति भरम ।।४१६२ ।। नारद सुं वाद किया बहुत ॥ सा प्रोहित बरै जै भडक ।।४१६३ ।। 1 यों क्षीरकदम का पर्यंत पुत्र वसू भूप को भेज्या नरक । श्रीमदारांणी सुरिण बात । राजाने समझावं बहुभांति ॥ नृप वाकर मानें नहीं कहा। प्रोहित वोट दिया में गह्या ।।४१६४ ।। सो विप्र कहे समझाय । राजा जैन धरम रुचि ल्याइ || सीख हमारी सुराणं न राय । मेरा जजमान हाथ ले जाये || ४१६५ ।। विष देकर मार इस घडी । राशी प्रोहित इह चित्त धरी ॥ विष देकर सब मारया रात्र राणी कु कोट चुवं सब काम ||४१६६ । । प्रोहित सातवां नरक दुख पाय राजा उगं भरम्या जौन मीडक मूसा मृग नै मोर ऊंच नीच गति भरम्या भाइ । महा दुःख सों तिहां विहाय ॥ अंत समय भए इक भौन ।।४१६७॥ कुकर गति दोन्युं इक ठौर ॥ । प्रोहित जीव हाथी की काय ॥। ४१६८३ हाथी ने रोष्या तिहां कीच ॥ कोना खाय गया भी और ।।४१६६॥ राजा जीव मींडक जल बीच फिर मीडक उपज्या सिहं ठौर Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ पचपुराग मींडक जीव मूस गति पा4 1 हाथी ते दिलाव गति प्राय ॥ मूसा कु दिलाव किया भक्ष । दोनं उपज्या जल में मच्छ ।।४१७०।। कुकडा मच्छ बिलाव में मुसा । धीवर ने गह्या जाल में धस्या ।। उहां से मरि बोभण के गेह । राजमही नगर विप्र का एह ।।४१७१।। बहु बाके सिंध जजलका अस्तरी । मंतर सौ पुत्र जपे सुभ पड़ी ।। प्रथम रमन दूजा विनोद । मात पिता ले पाले गोद ॥४१७२।। जोवन समै विचार एह । रमन धरै विद्या सुनेह ॥ कुपद मनुष पसू तें बुरे । जिन कछु भेद चित्त नहीं घरे ।।४१७३।। पशु भला जो उठा बोझ । मूरख जैसा जंगल रोझ ।। गुनी होय तो समझे ज्यान । कुपढ़ कहा जान पहचान ।।४१७४।। गुण ते राज सभा में काण । पादर भाव सदा सनमान । गुण हीणां जैसे बिनुमति । जैसे पंखी बिनू पाखि ।।४१७५।। अंसी सोच वाणारसी गया । गुरु पं जाय चरण • नया ।। सिहां सिष्य पड़े थे घने । सेवा करें उन विग भरणे ॥४१७६॥ वै सिष्य भोजन देव याहि । रमन पड़े मन में उछाह ।। च्यारू बेद पड़े मन स्याइ। छिया कला सीष्या बहु भाइ ।।४१७७।। गुरु प विदा होय करि बल्या । राजग्रही बन देख्या भला ।। बर्षा भई घनहर घनघोर । बरषा भई बन नाच्या मोर ॥४१७८।। भीजत चस्या रमण तिण वार । देख मढी इक वस्त्र उतार ॥ वस्त्र निचोड वह सूतो तिहां । स्थामा भावज प्राई जिहां ।।४१७६।। विनोद त्रिया असोग दत्त सूनेह । जन कीया वचन जष्य के गेह ।। जब उठ स्यामा बन गई। विनोद विप्र तरवार नांगी सई ।।४१८।। श्रीया पाछ चाल्या लाग । असोगदत्त अ यावे या जाग ।। कोटवाल के प्राया हाथ । बांध मसक वह ले गया साथ ॥४१८१।। गई वांभणी मंड के बीच । रमन सोचे था लागी मीच ।। विनोद जाणं यह इस का जार । खडग फाति तसु सीस उतार ॥४१८२।। देह छोडि मैसा भया अंध 1 दोनू जले वयर सनमंघ ।। भये भील मृग गति पाइ । वन मैं रहे वायू भए काह ।।४१८३।। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाबंद एमे उनका पयपुराण नगर कपिला राजा स्वयंभूत । विमलनाथ दरसन हित जुस ।। वे दोनु मृग प्रा खडे राय ! जिन मंदिर राखे तिहाँ जाय ॥४१८४॥ मनपाणी वास तिहां हरथा । सेवा कर जतन सुखरा ॥ समाधिमरण में त्यागी देह । विनोद जीव सेठ के भया गेह ।।४१८५।। नाम धनदत्त लषमी गेह अपार । वाइस कोडि जुड़ें दीनार ।। रमन जीव लहि स्वर्ग विमान । भए पुत्र पनपत्त के प्रान ||४१८६।। वारुणी नाम सेठ की घणी । यारणी जाके पुत्र थिति वणी ।। निमित्तम्यांनी पंडित बुलाइ । जनमपत्री लई लखाइ ॥४१८७॥ घड़ी मृहस उत्तम बार । उपज्या वराग तजै घर बार ।। इतनी सरणी दंपती वात । पुत्र नै बरजें बाहर जात ।।४१८८॥ वन उपवन मंदिर संवराह । वाणां पीवणां सेवा सार ।। फूल पान उबटणां सनांन । प्राभूषण दे बहुना प्रारण ।।४१८६।। अंसी जुगत दिन बीते घणं । प्रभात समय सुपनों में सुरणे ॥ अगले भवन में दोद आत । घर के मा पर ! भानु उ बाजेतर होई। जै जै सबद कर सब कोई ॥ श्रीधर मुनि की केवल म्यान । ग्रंगी भूप नै सुगी कान ।।४१६१।। पंच भूमि ते देखी भीर । पहच्या चाहे मुनिवर तीर ॥ तब उत्तरं या रााह का कुमार । उस्या भुयंगम खाइ पछाट ।।४१६२ मर करि स्वर्ग मां देवता भया । मनवांछित सुख मुगतै नया ॥ चंद्रातपुर प्रकास यस भूप । माधई राणी महा सरूप ।।४१९३।। उहा ते चया भया जगदूत । पाई सरोष जोवन संजूत ।। प्रकास जस में दिक्षा लई । राज विभूत जग दूत ने दई ॥४१६४।। भोग मगन में बीत काल । दुर्जन दुष्ट तणं सिर साल ॥ राजा कू उपज्या वैराग । राज भोग कू चाहे त्याग ।।४१६५।। मंत्री समझावै राजनीत । संतति बिना नहीं होय प्रतीत ।। अब होइ पुत्र तब छंडो राज | पालो प्रजा धर्म मु काज ।।४१६६॥ राजा कू लागे बुरा सब कर्म । असं प्रत पाल जिणवर धर्म ॥ राजभोग में छडया प्रार । ईसान स्वर्ग पाया सुभ थान ।।४१६७।। जबू द्वीप क्षेत्र विदेह । अचल छत्री वालहरनी सू नेह ।। रतन संचय नगरी का नाम । ईसान स्वर्ग से चया तिह थांन ।।४१९८॥ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ spx अभीराम पुत्र जनमीया कुमार । हुं षंड रहसी या संसार || जनम समये दीया बहु दान और बजे श्रानंद नीसान || ४१६६ ।। I दिन दिन कुमर बढँ जिम चंद | देख रूप सुख होइ आनंद |1 जोवन समय विवाही नारि । राजसुता वरी तीन हजार ||४२०० ।। पद्मपुराण भोम मांहिं बरतें दिन रयन कुमर बिचारं मनमें जमन ॥ स्वर्ग लोक सुख देखे घर से भी जात न जाणे गिणे ।।४२०११ः इह विभूति संसारी जरजरी । मगन हुवा पाच गति बुरी || वेठा पट्ट तिहां रणवास । ग्यान उदय हुवा परकास ||४२०२ || ए सुख समझें जहर समान । जो कोई भत्रे ताहि जहर समान || विष खाइ एक जु बार विषय लंपटी भ्रमै संसार ||४२०३ ।। जोबन जान न लागे बार पहे जीव माया के आधार ॥ पुण्य पाप जारी एक जाके राखे मन में टेक ॥। ४२०४ ।। ऊंच नीच गति डोल हंस । उत्तम मध्यम पाए हंस || पुण्य उदय पावे बहु सुख । जब विह तव माने दुःख ।। ४२०५ ।। रोग सोग चित श्रारत घरें। अब मैं संयम व्रत कू ध फिरि फिरि जोनी संकट परे ॥1 जैन धरम निश्चय सू करू ||४२०६३ ।। राणी सुखाकर भई थडोल से सुखे कंत के बोल || पाल व्रत तब राजकुमार | एक अंतर लेड अहार ॥४२०७ ॥ पाख महीनें करें पारणा । उमा जोग लगावं ध्यान मंदिर देखे जिहां सतरा || देही दुर्बल कीनी जांन ॥ ४२०६८ ।। काल अनंत इन्द्रियों ने पोष । भरम्या जीव बिना संतोष || बातें देह उस इस भांति सहूं परीसा अपना गात ||४२०६ ।। चउस सहस्र वर्ष तप किया । ब्रह्मोत्तर स्वर्ग पर बासा लिया || धनदत्त सेठ काल को पाइ। लक्ष चौरासी भरम्या जाइ ॥४२१० | पोदनपुर कलाक" द्विज । महिली नारि घर की द्विज ॥ ता घरि अवतरचा घनदत्त भाइ जोवन समये कर्म कमाइ ॥ ४२११॥ जुवा खेलें सेवं सात विसन मानें विश्व लेस्वर पर किसन || ब्राह्मण में सहू को दीये गाल । उनु जब बेटा दियो निकाल २४२१२ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाएंव एवं उनका पद्मपुराण मृदधत निकल्या देसांतर गया । गुरुसंगत विद्यारथी भया ।। बसंत नगर मे विद्या पाइ । बहुर पोदनापुर में प्राइ ।।४२१३॥ ग्रीष्म रित त्रिषा अति लगी । वित्र गेह माता यी सगी ।। तिहाँ प्राइक मांग नीर । महिनी साह्मणी माई तीर ॥४२१४।। भरि भारी पाया जल ताइ । प्रवर चला नयनु परिवाह ।। सब परदेसी पूछ बयन । तै को माता भरे जल नैन ।।४२१५।। कहे बंभणी मेरे था पूत । बाहिर नीकल्या दुःख बहुत ।। जे ते देख्या बँ तो कही । तो मोफु समझायो सही ।।४२१६॥ जब वह वोल्या मैं हूं तेरा पूत । मब हूं विद्या पढे बहूत ।। सकताक' पिता महिणी माम । मिल्या पुत्र कंठ लगाय ॥४२१७।। जिहाँ विहां प्रादर होइ । जोतिग बंधक पूछ सब कोइ ।। बहुत दिना सुभमारग चले । मंत फेर खोर्ट मति गये ।।४२१८॥ सात विसन सेव्या दिन रात । धर्म छोरि कुहाचे कुजात ॥ वसंत अंगना बेस्या रित भया । का संगति सगला गुण गया ।।४२१६।। मात पिता का खोया दवं । वाको बुरा कहैं हैं सर्व ।। लज्यावंत होय देस ही तज्या । ससांक नन गया वह भग्या ।।४२२०।। नंदवन शमा के भंडार । चोरी निमित्त गए तिह बार ।। भूप मता राणी सू कर । प्रभात समय हम दिव्या धरै ।।४२२१।। अंसी चीवर सांभली बात । समझिम्मान कंप्या बह गात ।। इतनी विभय राय ने त्याग । मनम्यां धरा बहुत बराग ।।४२२२।। मैं जन्म्या मात पिता के जाम । भिक्षा करि करि पोषी काय ।। खोटे फरम कमाये धरणे । अब प्रायश्चित कहां लुगिरणे ।।४२२३।। मदमत्त गया ससांक मुनि पास । दिक्षा लई मुगति की आस ।। गंग गिर पै परीम सहै । गुरा निवांन मुनिवर लिहो रहे ॥४२२४।। विद्या पटि समवित चिन घरचा । गुणनिधान केवल तप फुरचा ॥ सुरपति नरपति पूजा करी । देखि विप्र जिन दिष्या धरी ।।४२२५।। प्राचिरज भया सबां के चित्त | कईसी भयाकै मन पिति ॥ मास उपवासी त्यार्य ध्यान | ब्रह्मोत्तर पाया मु विमाण ॥४२२६।। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧ इन्द्र सर्मा इनका प्रताप । सुख मां भूल गए संताप ॥ मदमत देव गए श्रार्बल पूर 1 सुख में भया दुःख का मूर ||४२२७११ भरत के पूर्व भव हा हा कार करें बहु भांति । ए सुख छोडि भ क जात ।। माया मांभि क्या लोक मध्य । समेद सिखर यांनक है सिष्य || ४२२८ ।। हाथी उपज्या अति मयत । सहश्र जूष महे गरजत ॥ जइसे समुद्र गरजना करें ऋह विष मंगल दन में फिरें ॥। ४२२६ ।। जिहां सरवर देख वह भले गंगातट पर पार्क पर | क्रीडा करें कमल तिहां खिले । डरें सकल देखें इस वीर ॥४२३०|| महा भयानक दीसं रूप जैसा बादल सजल बडा स्याम या सनमुख नहीं आवें भूप ॥ पचपुराण पर्वत पर खूब करना भरें। भ्रमर गुंजार सिहां प्रति करें ।। तब रावण आया था जिहां | हाथी सब दल मारे तिहां ॥४२३२।। प्रसादंती मोहै उस ठाम ||४२३१ ।। रावण ने पकडघा उस बार । त्रिलोक मंडल सा नहीं मंगार ॥ रामचन्द्र लक्षमण की जीन । रावण भुक्या हाथी भयभीत ।। ४२३३।। । जाती समरण उपज्या चित्त अभिराम देव स्वयं ते चया त्रिलोक कंटक त्रिलोक मंडल नाम । प्रइरापति सम इसका भाव ॥ भरथ ताँ मन भया नैराय सब घाए वा सनमुन लाग ||४२३४।। भरत द्वारा वैराग्य लेना सोरठा सुरण पिछला सनबंध, सकल सभा चत्रित भई || समझें भेद अनंत पूरव भब सब श्राप है मौन हो रहे प्रनित्त || दसरथ के या सुत भया ||४२३५।। ||४२३६ । । इति श्री पद्मपुराणे भरत त्रिलोक अलंकर भवकोत्तनं विधानक ७६ वां विधानक चौपाई भये अचंभय सगला लांग रहे अमित जैसे सार्धं जोग ।। जाण्या सफल कर्म का बंध। बहुत तज्या मोह का फंद ||४२३७॥ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाय एवं समका पमपुराण ३७५ भरत भूपती हूँ' कर जोडि । नमस्कार कीया तब बहोडिग जीव भ्रम्पो चिरकाल अनंत । हीडत हीडत नहीं पायो मत ।।४२३८।। थके बहुत न लहे विसराम । ज्यो पथिक भ्रमं गामों गाम || सीतल छांह हे अन माहीं । बाको कहीं पाइये नाहि ।।२३६।। चहुंगसि भ्रमत लामो नहीं पंथ । सुण्या नहीं जिणबाणी ग्रन्थ ।। मिथ्या धर्म तं लहीय न ठोडि । प्रभू बिन सराणा नाहीं और ॥४०४० भवसागर अति अगम अथाह । सद्गुरु पक. बूडत नाह ।। अजर प्रमर तहां पा सौख्य । गुरु संगत तं लहोए मोष्य ।।४२४७।। लाभ षण सब दीने डार । कुडल सोभै जोति प्रपार ।। सहु उतारि कर लुचे केस । मुनिवर भए दिगंबर भेस १४२४२।। सहल दीया माई :: । मान बहे मिन मा ।। कैकयी का बिलाप हाइ पुत्र तं कीनी बुरी । मेरी दया हूं हिय नहीं धरी ॥४२४३।। मोबन समें तजे भरतार । पुत्र लिया संयम का भार ।। ए दुःख मैं कैसे करि सहूं । पुत्र बिना हूं कैसे रहूं ।।४२४४।। मूविंत भई कैफईया । संघ उपाव घणा ही किया ।। मई सचेत बहरि बिललाइ । रामलखण बोले समझाय ।। ४२४५।। माता मति करो तुम बिलाप । हम सेवा तुम करिहैं प्राप 11 भरथ जु कुल उधारण भए । सुभट बरत जिण सचिसौं लए ।।४६४६।। कैकयी का वैराग पहले ही मन था वैराग । अब इन करया सकल ही त्याग ।। केकईया मन प्राण्यां ग्यांन । घरम विचार किया सुभ ध्यान ॥४२४७।। प्रथीमती पारजिका के पास । दिक्ष्या लही मुकति की प्रास ।। तीन से मंग पनि प्रसतरी । सत्य सील संयम सुभरी ।।४२४८।। प्रातम ध्यान लगाया जोग । छंडचा सब संसारी भोग । दया भाष नगलां पर नित्य । समकित सु भया निश्चल चिप्स ।।४२४६ भरघो ध्यान भगवंत सुपातम सु धरि प्रीत ।। भरथ भूप ही बहुवली, करी धरम को रीत ।।४२५७।। इति भी पापुराणे भरत केकय । निःक्रमण विधान ८० वा विधानक Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५ चौपाई रिक राय करें प्रसन्न | कौण कौरा संगति हुवा मौन || कैसी कैसी पाई ग्राम तिरका व्यवर सुरगावो नाम ।।४२५१ ।। वाशी एक तसु भेद अनेक सिद्धार्थ रतनवरघन राय । सुसीमा नन्द आनदकंद 1 सुमति महा विधि सेतो चंद || जनवल्लभ इंद्रध्वज सतवाहन । हरि सुमित्र धर्मं बलवांन || ४२५३।० संपूरन नंद सुधन सांत । सहम स्वेतांबर भये छह भांत || केई गये पंचमी गति हैं स्वयं लोकी १४२५४॥ रामचन्द्र लक्ष्मरण द्वारा दुःख प्रकट करना प्राणी कर व्याख्यान मनेक ।। बुशहन जंबुनद परि भाव ॥४२५२।। रामचंद्र लखमण बिललाइ । भरत बिना कछु चित्त न सुहाइ ॥ हा हा कार भए चिहुंओर | आभूषण सब हारे तोडि ।।४२५५ ।। बापुराण रुदन करें फाड़े सब चीर 1 रुदन करें बहु चलं जल नीर ॥ हाम भर हम पाए क्यूं हम भी तो संग दिक्ष्या ल्यू ||४२५६ ॥ तुम बिन कैसे जीव बोर । तुम विडे बहु पार्ने पीर ॥ तब मंत्री समभाव बन । सुखी बात चित राखो चैन ॥४२५७ || राम का राज्याभिषेक 'भरथ ने कीये उत्तम फर्म 1 रघुब सी कुल उपन्या धर्म || सब परिवार चढाई रती । श्राप करी मुक्ती को गती ।।४३५८२ करो राज मच कालो कलस । परजा सुख पावें ज्यु सरम ॥ राम करें राज का काज । लक्षमण राज करो महाराज |१४२५६॥ लक्षमण चले सभा संयुक्त आए रामचन्द्र के पास सब नरपति लक्षमण पे गये । नमसकार करि गई भए । प्रभुजी चलो करो तुम राज । पटाभिषेक करो तुम आजि ।।४२६० ॥ पट ऊपर बैठे दोज वीर द्वारे फलस एक सो ग्राठ बाजंतर बाजया बहुत ॥ दोऊ भ्राता मन उल्लास ।।४२६१।। रतन कनक कलस भरि नीर ।। । पदम नरायण राज का पाट ||४२६२॥ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभायं एवं उनका पद्मपुराण मुकुट छत्र पुन की माल । सोमं मुगलाह अन लाल ॥ प्राभूषण परेण अनूप तीन खंड का से मैं भूप ॥४२६३ ।। " ने सबद करें सब लोग | करें कोतुहल अरि अति भोग || सकल नारि सीता पं गई । पट ठहरिए बधाई वई ।। ४२६४।। विसल्या कू पटराणी किया। विषधपुर सुग्रीव ने लिया || श्रनि नगर नल नील कु दिया श्रवर राजा मांगे सोद दिया ४२६५।। लक्षमण विशल्या राम के सिवा । इनसौं बड़ी शवर न को तिया || करें राज इम आता दोइ । नगर मे हर्ष माने सब कोई ||४२६६॥ लंका राज विभीषण दिया । कंकलपुर सुग्रीव ने लिया || श्रीपुर नगर दिया हनुमान । किंनर नगर रतनजी मान १६४२६७३ भावमडल रथन पुर देस भौमी अपनी लहो दरेस || जेसे राजा थे उन पाम । त्यां त्यां की सब पुगी या ॥४२६८१ वहा अशुभ करम को टाल ऋरि मिले कुटुंब सरेस | मनन छित सब सुख भए पाया बहुला देस ॥४२६६।३ इति भी पश्चपुराणे रामचंद्र लक्ष्मन पट्टाभिषेक विधान ८१ व विधानक चौपाई शत्र ुधन को राज देने की इच्छा राम शत्रुधन लिये बुलाइ | करें वचन प्रभुजी समझाइ ॥ श्रर राज अथवी का सेहू । देस भोग मनुष्य करेहु ||४२७० || निदेसकेछ दरेस | तिहाँ सिहां थापक महेस ।। आई मनमें करो विचार । जे मांगो ज के इरम्बार ॥४२७१।० + बहा पोदनपुर राजग्रही, पुरपट्टा बहु ठांम ॥ जो मन इच्छो सत्रुघन कहो निहां का नाम ।।४२७२॥ चीपई सत्रुघन द्वारा मथुरा का राज्य चाहना ន कर जोडि सघन कहैं। मथुरा नगर मेरे मन रहे । रामचंद्र कहते सिंह बार । मथुरापति का है बल अपार ॥४२७३१ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपराग रावण तणी जमाई वली । बाप बग्छी कहिए भली ।। एक चउट सू हणे सहन । अनि भन्ने है बाप सस्त्र ।।४२७४॥ घरछी कर की कार में रहै । ऐसे गुण गरब तन गहै ।। तुम बासो मति माटो युद्ध । अव र रामको टुप गुप्त ।।२।। सधन कहई सुनों रघुनाथ । कोई मति प्रादो मो साथ ।। मेरी मृजा प्रावध समान । दशरथ पुत्र महा बलबान ।।४२७६॥ ओ तोडी दल प्रति संघट्ट । गरुड चलै सब जाई अहट्ट ।। असा दल बम वाक जुया । मारू घेर वाहि ठां सरा ||४२७७।। रामचंद्र मनम् बहु दिया । मधुराय विगार नह कीया । बिन अवगुन कैसे दुख देह । सबसों राख धरम सनेह ।।४२७८ ।। साधन सून बीमती कर । प्राग्या प्रभु इन मन नहीं धरं ॥ प्रैसा मधु है काहां वरांक । जाकी मानु इतनी धाक ॥४२७६।। जैसे मधु बरा सहेत । वार न लागै उसको गहेत ।। घेर लेउं इस विधि तुरंत । तो मैं सत्रुधन महंस ।।४२८०11 राम लक्षमम् इह प्राम्या दई । सेनौ साथ घनी कर लई ॥ समुद्रावर्त धनुष को लिया । वाजंतर सबद बह किया ।।४२८१॥ माता सुप्रभा 4 गया । नमस्कार करि ठाढा भया ।। प्राग्या द्यो माता जी मोहि । जीतु दुरजन पाउँ सोइ ।।४२८२१॥ माता दीये आसिरवाद । होज्यो जीत भगवंत प्रसाद ।। शत्रुधन द्वारा मथुरा पर चढ़ाई कले सत्रुघन सेना जोडि । पहुंचे प्राय मथुरा की ठोर ॥४२८३।। बहुधा घेरि दमामा दिया । जईसे पंछी पिंजरा किया ।। इह विध घेरी च्यारू योर । सह नगरी मां मांची रोर ।।४२८४।। मधुराजा सोचे मन मांहि । मो सम बली प्रवर कोउ नाहि ॥ धेरघा मोहि सत्रुधन प्राइ । मंत्री मंत्र कर उन पाय ॥४२८५॥ अवारणक धेरे मधुराई । करई विचार वईउतरण ठाई ।। जे उमडै दल मथुरा घणी । या कु सजा लगावै घणी ॥४२८६।। कोई कहे रावणा सा बली । रामचन्द्र सों कछु ना चसी 11 रावण मारि जीते सहु देस । इन समान कोई नहीं नरेस ॥४२८७।। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचार एवं उनका पमपुराण रामचन्द्र का छोटा वीर । याकों कोण सके करि वीर ।। जे सुख फेरि रामचना पढे । एक एक का मुरबह उडे ।।४२८८।। के ते लकारें अपने वार । जल नवका महा गुण सार ।। जीत सघन के हार । मंसी उ कहीं गवार ।।४२८६।। सत्रुधन मेजिया बसीठ । ठाम ठाम दोदिया पीठ ।। द्रुत गए वे नगर मझार । जिहां सहर मथुरा का दरबार ॥४२६०।। सत्र धन पं पाए दूत । पूर्छ नरपति भेद बहुत ।। कुबेरछंद वन पूरव और । मधु भूपति प्रब है वा ठौर ।३४२६१।। क्रीडा करत बीते दिन षष्ठ 1 वे मुख देखि मूले कष्ठ । मंसा में घेरा बा ठवि । अवसर चूका बणे न दाव ११४२६२।। सत्रुधन घाया तोटि किवाड । वन वेहा घेरचा सब बाट । तोडि मंध देडी दई स्वोलि । दे असीस बोले सह बोल ।।४२६३।। तेरी जीत कर जगदीस | सब मिल पाणि नमाचे सीस। अर्घ रात्र घेरया सहु देस । कोटि बाहि कीया परवेस ।।४२६४।। राजा मधु को भई संभार । बरछी रही गेहे मझार ॥ लो राजा मए प्रापनै । धीरज मी छोग्या नहीं वसा ।।४२६५।। सेना मधु सार्थ जब जुरी । दोउषां मार बाण की पड़ी। गोला गोली परवं ज्यु' मेह । चाय लगै सुभट की देह ।। ४२६६ ।। वहा हाथी सूहाथी लरे, रथ घोडे पाहक्क ।। मुह फेरै नहीं सूरमा, पाछी हट नहीं मांग ।।४२६७।। पठी लोथ परवत जिसी, बाजे लाल सुरंग ।। बायर भाज देख रण, हीस खडे तुरंग ।।४२६८।। लोनारण मधू सुत बली, घस्या मृगराज समान ।। घनुष गह्या कर प्रापणं, सधन मारघा तान ।।४२६६।। मल्लयुस गिरया सत्रुधन रथ थकी, दूजा रथं संभार । मारी गदा कुमार के रथ टूटया तिण वार ।।४३००। फिर संभाल दोन्यू लडे, पैसे लई जु मल्ल || कोई हार न मानई, जोवन वंत घटल्ल ॥४३०१॥ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपरापुरा लौंना रण विद्या बान गहि, तोडे धुजा का देर । सधन वडय संभाल करि, लिए प्रॉन जब छंड ।।४३०२।। चौपाई झुझा कुमार मघु सु'एर तणा । पुत्र मोह तब व्याप्या पण ।। चळे कोप सनमुख ए माई । सत्र धन बोलिया रिसाइ ।। ४३०३।। मधु राधा जो तेता नाम । करो वेग तुम सनमुख काम || तो मैं बल है तो तुप्राय | जममंदिर तोहि भेजों राव ।।४३०४।। दोनों दल में माची रार । कामर सवढे पडे पुकार ।। विद्यावान सु छाया भानु । प्र से जुध महा भयवान ।।४३०५।। महासुभट अझ पडि व्यार | कातर भाज गये तिणवार ।। मधु सूदन सोचे मन मांहि । सत छड्या पति रहनी नाहि ।।४३०६।। एक दिन मरणा सही निदांन । काल रहै नहीं किस ही सयांन ।। तात सनमुख झझां आई । कोप्या भूप सांभटी प्राई ।।४३०७|| गदा खरग करि गहे संभार | वान छुटै ज्यौं घनहर धार ।। मधु रामा द्वारा पुरा मूमि में पंराग्य सत्र घन मारी तरवार । मधुराजा घुमैं तिह पार ।।४३०८।। मातमध्यान सु हिये विचार । भरमत फिरमा जीव संसार ।। समकित कबहि न पाया चित्स । मिथ्या मोह भ्रम्सा चहं गति ।।४३०६।। मनुष्य जनम धरि धर्म न किया । जनम' प्रकारय खोइ बार गया ।। पुत्र कलिन हय गय मंडार । इणमें यू ही राच्या निरधार ।। ४३१०।। अष्ट भदों में माता फिरथा । सात विसन सूपरत्रा करया ।। संजम व्रत सू करवा न नेह । विष पभिलाप सुपोषी देह ।। ४३११।। अचानक मरण भए है आज । अब कैसे होइ जी का काज ।।। पन्न पान तजि लियो संन्यास । राज भोग की छोडी प्राम ||४३१२। प्रारत रौद्र राग अन द्वेष । धरम ध्यान मन में करि पेष ।। उत्तम छिमा दसों विध धर्म । दया भाव का जाण्यां मम ।।४३१३।। कायोत्सर्ग परषो न जोग । प्राभूषण पणे छोडे संजोग ।। सत्र धन मादि सकल भूपती । ऊभा देख्या मधुसूदन जती ।।४३१४।। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभापंच एवं उनका पापुराम ३६ हस्ती सू उतरा तिह पढी । नमस्कार बहु स्तुति करी ॥ जै जै सवद करें सूर पाइ । वरष पुहप तहां मुनिराय ॥४३१५।। देही छोड़ि गये सनत्कुमार । भया देव मधुवतनीवार ।। मथुरा के पट सत्र बन बैठि । पूजा दान जिन मंदिर पैठि॥ ४३१६॥ नगर लोग भए सब सुखी । तिहां न दीस कोउ दुखी ।।४३१७।। मधुसूदन भूयति बली, घरमा धरम दिढ चित्त ।। संयम का परसाद ते, भई स्वर्ग मां थित्त ।।४३१८॥ इति श्री पद्मपुराणे मधुसूदन विधान ८२ षां विमानक चौपई सत्र घन राज मथुरा का कर । सह पिरजा सुखस्यों दिन टरै ।। विद्या सूल देव की संगि । उडि गई देव के प्रान भाग ।।४३१६६। सत्र धन राज मथुरा का करें । सह परिजा सुखस्यों दिन ट। सुर के प्रागै करै वखान । सत्र धन हरे मधुसुदन प्राण ।।४३२०॥ राज लए मथुरा का छीन । बा मार्ग मो गुन भए हीम ।। मधु राजा के मित्रों द्वारा प्राकमण सूण्यां देव मित्र मोहनां । वा समय मित्र कोप्या घना ।।४३२१।। अंसा कहा मानुष्य बलयंत । जिने मारथा मेरमा मित्त ।। तल की धरती ऊपर उलट । लेस्य वैर मित्र का पनट ।।४३२२।। हां ते चित गया पाताल । व्यंतर देव बुलाए तिह काल ।। सेन्या जोढि बल्पा तब देव | धरणेन्द्र ने पूछा तत्र भेव ।।४३२३।। कहो चमर सुर अपनी बात । सेना जोडि कहाँ तुम जात ।। चमर इन्द्र कहै समझाई। मेरा मित्र मारचा सत्र घन राइ । वर लेण पाल्या इण घरी | वा निमित्त ए सेना जुखी ।।४३२४।। धरपेन्द्र द्वारा समझाना सूणि बचन बोल्या घरगेन्द्र । सत्र धन लक्षमण रामचन्द्र ।। तीन लोक के हैं जगदीस । इनस कुण करि सके है रीस ||४३२५।। हम रावण कु दीये वारण । सगसी उन आगे मई असति ।। लक्षमण तगी दिसल्या नारि । वा भागें सब मानें हार ।।४३२६।। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका गंवउदक ला कोइ । सब की विद्या निर्फल होइ ॥ दोन्यू देव व्यंतरी पौर । वाहि देखि भाजी घर छोहि ।।४३२७॥ बाक अंग पवन लगि चलें । सब निरोगी होइ पचन में मिलें । हमारी विणा पासू भई खीरा 1 वे हैं महाबली परवीण ।।४३२८॥ अई कउपस राम लक्षमण । बांध मोहि करें बेजतन ।। ते मन मांहि विचारी दुरी । मेसी जीव में इच्छा घरी ।।४३२६।। तब सूर बोल मैं हां देव । कहा मानुष जा का कर भेव ।। बाधु सागर प्रति गमोर । सत्र घन कहा पंसा पलधीर ॥४३३०॥ मध्य लोग में ल्याया सेन । विचार देव घरगन्त्र के बैन । मूमिगोचरी है बलवान । या की परमा मार्ने प्राण ।।४३३१।। परजा ने ऊपर नहीं किया । सम हो का फूटा हिया !! प्रजा को बुख सेना पहली दुःख प्रजा कुछु । मधुसुदन का बैर हूं ल्यू ॥४३३२॥ जुरि ताप पीडा फैलाइ । उछल कउवा जम मागे बिललाइ ॥ मरै लोग मिट गया भोग । व्याप्या दुणा सोग विजोग ॥४३३३।। सत्र.घन कर बगुप्त उपाय । कछुवन चल काल सौं दाव ।। छोहि नगर भजोधया गया । भाई मिले महा सुख भया ।।४३३४।। सुप्रभा माता के सनमुस्त्र । पुत्र विछोहा मिल्या भूले दुख ।। श्रीजिन भुवन इक समराइय। । करी सांतक दान बहु दिया ।।४३३५॥ मनवांछित दान भला सनमांन । बजे लिहो पानंद निसांन ।। सुणी जीत घरि घरि पानंद । सत्र धन के मनमें दुखदुदै ।।४३३६।। में मथुरा पाई थी भली । कवण करम ते मोहि न मिली ।। संपति मिल कर होय बिछोह । जाका हुई घणा श्रदोइ ।।४३३७॥ घर मंगणे न सुहावं ताहि । रात दिवस मथुरा की दाह ।। मथुरा नगरी उत्तम खेत । इसकु बर्छ सुर करि हेत 1॥४३३८।। इन्द्रपुरी से मथुरा सुभ ठौर । वा पटतर नगरी नहीं और ।। पुनि ते सहीए मंसा यांन । मथुरा इन्द्र के लोक समान ॥४३३६।। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंर एवं उनका पपपुराण ३८५ दूहा मथुरा नगर सुहावस, अंसा अन्य न कोई ।। जिनां बह पुरष पून्य कीए, ताहि परापति होइ ।।४३४०।। इति श्री पपपुराणे मयुरा उपसर्ग विधान ८३ वां विधानक चोपई श्वेगिक राय करें प्रसत । मथुरा सूबहु ल्पागा मन । नगर अन्य बड़े हैं अनेक । सत्रुघन किरिया क्यों प्रति टेक ।।४३४।। इतरा किम राखं वह सनेह । कहो प्रमु मो भाजं संदेह । । श्री जिनराय पिछला भव कहें । काहू मन संसा नहीं रहै ।। ४३४२।। मथुरा में जनमें देवकुमार । गदहा लादै मांटी भार || काल पाम पाल करा | लागी अगनि तिहा जल मरधा ।। ४३४३।। उहां त मरि मैमा अवतरमा । वहै बारमैं महिष पद धरमा । मातवें भव विप्र के गेह । कुल घर नाम उत्तम गति देह ।। ४३४४।। रिचा चरिचा मंगत साध । क्रीया घगी सील विण वाद ।। असकति राजा मथुरा धणी । ललिता राशी स्यौं जोडी बरणी १९४३४५।। राजा गये साधने देस । ब्राहाण खोल नंदी केम ॥ राणी देन झरोखा द्वार | वांभगा देख्या रूप अपार ।।४३४६।। टेर लीया ऊपरि बडि बोर । भोगे मनमांनी तिह कोर ।। धमां दिवस बीता इस भांति । मंदिर में प्रायः नृप राति ।।४३४७।। राणी प्रश्चन राख्यो द्विज । राय लष्यो मन में प्रधिरज ।। कही रागी इह नर है कोण । किस विध प्राया मेरे भौंन ।।४३४८ । राणी त्रिया चरित्र विचार । राजा सौ कहै तिया बार || इह भाजपा था बंदीवान । प्राइ घुस्या मंदिर के थांन ।।४३४६।। याके पीछे दौडे सुभट । इतनी कांण मु रहे अटूट ।। बह बोल्या जे टूटू प्राजि । तो दीषित होउं मुनिराज ।।४३५०।। मैं या प्रति छिपाया राज । छोडो याहि दिया ले जाय ।। भूपति सुरिण कीयो नमस्कार । छोड़े विप्र उसही बार ||४३५१।। राज्य भावना विप्र के मनमें पायो सांच । अब हूं जीतू इन्द्रों पांच ।। इन्द्रिय विषय किये बहु स्वाद । संयम बिना जनम गयो बाद ।।४३५२। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखपुराणं तृष्णा लोभ कदे घाट नाहि । भरमत फिरथा चिहुँ गति माहि ।। साध नाम सुउबरे प्रांन । करू तपस्या मातम ध्यान ॥४३५३।। कान्यांण मुनीसुर के हिग गया। केस उतारि मुनीस्बर भया ।। सहै परोसा बीस अन दो । तप प्रसाद ऊंची गति होइ ॥४३५४।। स्वर्ग तीसरे रतन विमान । कर भोग तिहां मुख निधान ।। मथुरा पति तिहा चन्द्रा भद्र । सुधां राणी महा विचित्र ।।४३५.५।। सूरज प्रबद राणी का भ्रात । मखांत पुत्र भए प्राय ।। कनक प्रभा रांगी दूसरी । रूप लध्यन गुण लावन्य भरी ।।४३५६।। कुलधर का जीव पाए तर कुख । जम्म्या पुत्र भए धन सुख ।। रूपवंत रवि जेम प्रताप । रहसे दोनू माय अने बाप ।।४३५७ । जनम समै दीमा बहु दांन । सब ही का राख्या सनमान ।। दिन दिन कूवर बढे पल घडी । देखत नयन रली प्रति खरी ॥४३५८।। सावथी नगरी का नाव । वल्पद्विज बस तिह ठाव ।। अंगक क्रिया विप्र के गेह । दंपति कर सदा सुख सनेह ।।४३५६ ।। अचल पुत्र ता गरभ भया । जोवनर्वत सोम बह कया ।। भूख मांहि सुत दीना कादि । तिलक वन माहि विप्रसुत ताढि ॥४३६०।। अचल कुवर के पाठों वीर । तीन मामा के मम पीर ।। इह तो एक ही दीस बलवंत । निसचे राज लहँगा अंत ॥४३६१।। इसके चाहै हण्यां परांन । कनक प्रभा सुणी इह कान । अचल पुत्र प्रहरी के साथ । मारघा चाहै पुत्र अनाथ ।।४३६२।। जाहि पुत्र देसांतर लेह । करो जाइ काहू की सेव || दुरजन के संग फिरणां बुरा । तोहि उपदेस दिया मैं खरा ॥४३६३।। इतनी सुणत भानिया कुमार । वन में रुदन कर हा हा कार ।। माप सोच करें द्विज तिहां घरणी । के कोई देव के पंडित गुणी ॥४३६४।। के भूपति के बगपति राय । पूबै कुमर विप्र जू प्राय ।। कहो कुमर तूं अपरणा नाम । किह कारण पाए इस ताम ||४३६५।। योनं मचन तब अचलकुमार 1 मोकुवन में दिया निकाल || सा कारण सदन करू' बन मांझ । केसी चितई इण ठां सांझ ।।४३६६॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाधंव एवं उपका पापुराग ३८७ कर विप्र बात इंह भाई । कोसंत्री नगरी इंद्रदस राई ।। मनोग कला वाक' पटघणी । इन्द्रदत्ता पुत्री बह गुणी ॥४३६७।। विद्या गुण प्रति ही प्रवीण । और सकल जाइगां नहीं होरा ।। जो बाहि जीत ताहि वा घर । नमंती कहा प्रचल बसि कर।।४३६८।। बिसान पंडित राधा के द्वार । विद्या सीने राजकुमार || अचल है राव पंडित बसक । राजकुमारी जीती असिक ।।४३६६।। सुख मैं दिन कछु बीते ताहि । अचल हुवा तिहां नर नाह ॥ प्रास पास जीते सब देस | मथुरा प्राह कियो परवेस ।।४३७०।। वाजंतर चंद्रमन्द्र ने सुण : सब सामंत अगाऊ बा ।। राजा मुगी पुत्र की सुध । भए प्रानंद बिचारी बुध ।।४३७१ ।। चंद्रभद्र दिगम्बर भया । मथुरा राज अचल कू दिया । ग्राठी भाई मामा तीन । ए सच जाइ भये प्राचीन ।।४३७२३॥ आप वाभरण पावी तब द्वार । पोल्या भटक कर लिह बार ।। राज सभा में नाचें नट ! विप्र सों कर पौजियां हठ ॥४३७३३॥ राजा दृष्टि वांभरण पर पडी। प्रायो बुलावो वाही घड़ी ।। आभूषण नीका पहराइ । अाप बराबरि राखे राय ।।४३७४।। हर गय विभब दीने बहुदेस । बहतमया नित करें नरेस ।। सुखसों राज बहु अने किया । सावधो नगर विकू दिया 11४३७५।। जय समुद्र मुनिपर पं गये । सांभलि धरम दिगंबर भये ।। तेरह विष सौ चारित परया । दया अंग दस विष तप करपा ।।४३४६।। प्रातम चित्त लगाया ध्यान । महेन्द्र स्वर्ग पाइया विमान ।। चउथै स्वर्ग देवता भए । पूरण भाव तिहां से चए ।।४३७७।। प्रचल जीव सत्र पन जान । प्राप ऋतांत दक्र भया मान ।। सेनापति सत्र धन बली । जाने धरम करम की गली ।।४३७८।। कई जनम मथुरा में पाइ । मथुरा कू चाहे इह भाइ ।। पुण्यवंत पूरव तप किया । ऊंची गति बहूंत' भव लिया ।।४३७६।। सोरठा पूरब मन का नेह, तांते मोह किया धणां ।। रूपर्वत चल देह, फेर राज मथुरा वण्यां ।।४३८०।। इति श्री पपपुराणे सत्रुधन पूर्व भव विधान ८४ वां विधानक Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $55 मथुरा में सात मुनियों का भागमन चौपई पद्मपुराण मथुरा आए मुनिवर सात । चारण मुनि ग्यानी विख्यात सुरमन श्रीमन श्रीनव जाण सर सुंदर जीवन ॥४३८१ ॥ विनयलाल अवर जयमित्र । अष्ट करम जीते उन सत्रु ॥ श्रीनंदा राणी सुंदरी । जार्क पुत्र भए सुभ घडी ।।४३८६२ ।। प्रीत कर मुनि केवलज्ञान । जै जै करें देवता श्रान ॥ श्रीनंदराज घरम कु सुण्या । पुत्र सहित दिगम्बर बन्या ।।४३८३ ।। रय देह पुत्र बालक मास एक । थाये राज काज को टेक ॥। श्री नंदमुनि केवली भया । बरम प्रकास मुकति को गया ।।४३८४ ।। पैसा तु तप करें बहुत । स परिस्या बहु रुत्त ।। इनकी उपजी चारण रिध । पोदनापुर गये नं सातु सिंध ४३८५ ।। ह्वां ते प्राये अजोध्या देस । श्ररहृदत्त देवे मुनि भेख ॥ देखें सेठ मन कर विचार । रति चरमा किया बिहार ||४३८६ ॥ I एकाहे का है ए मुनी । चजमासा माँडे उलं दुनी ॥ वे मुनियोव्रत जिन भन | दरसन हेत किये थे गोन ॥४३८७ || पंडित नई देखे धारण जती । प्रादर भाव किये वह संती || अष्टांग मना सेठ मरहदत्त । सुपो मुनीसर चकत ॥ ४३८८।। * साथ आए मो ह । मैं जनसों कीया न सनेह | अपणी निंदा बहुतै करी। मेरे मन भाई बुरी ॥४३८६॥ कठिन पाप थापक किया । गदगद बोलें उमड़े हिया || वे मुनिवर थे चारण जती । हिंसा करम न लागे रती ||४३६० || बरती हैं घर रहें चरण | दरसन कीया हूं दुख हरण || मैं साधां की निंदा करी । मोहि कुछ न भई सुष सिंह घडी ।।४३६१ ॥ परनिंदा है गाय का मूल । उपजी कुमति गई सुष भूल || अण जाण्यां नर करें जे पाप । मनकू रामभि करे पश्चाताप | १४३६२ पाप छोड करें उपवास तुटै पाप पुन्य की श्रास || जहाँ साध सोइ उत्तम ठाम उनकू देख घरे मन भांम ||४३६३।। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं सनका पपपुराण ३८६ मेरे घर तई मुनिवर फिरें। पादर भाव सभी बीसरं ।। दानांतराय भई कुबुधि । तत्व रूप की करी न सुष ॥४३६४१॥ कोटि मिथ्याती दान दे, एक संजमी न समान ।। अणुव्रती ताथै बडा, महावरती परमांन ।।४३६५।। तीर्थंकर सम को नहीं, जा घर लेहं प्राहार ॥ अन्य भाग उस जीव का. सब ही करें मनुहार ||४३६६॥ चौपाई इस विध च्यार मास पिछताई। कर पाप स्वयऊ समझाई॥ दान देण की इच्छा नित्त । धरमध्यान सों एक पित्त ॥४३६७।। कातिग सुदि सातै सुभवार । मुनिवर पाये वनह मझार ।। छह हति के फल फूले परगे । भरे सरोवर निर्मल भरे ॥४३६८।। अरदत्त सुरिण आया जिहाँ । बहुत लोग संग पहूंचे तिहा ॥ अस्वगयंद का नाही बोर । करै महोछव जंज सोर ॥४३६६।। रामचंद्र लक्षमण सघन । भये प्रानंद सबन के मन ।। धरसन कू आए तिण बार । नमस्कार करें बार बार ।।४४०४॥ स्वामी हम परि क्रीपा करो। भोजन लेइ पुन्य विस्तरो॥ माहार विधि मुनिबर बोले सुनो नरेस । जती न कहै भोजन उपदेस ।।४४०१॥ जे मुनि अपनी भोजन कहैं । पाप खोट अपने सिर गहैं ।। मुनिवर उठे पाहार निमित्त । फासु भोजन लेय तुरंत ।।४४०२।। छह रस ता समझ नहीं स्वाद । ऊंच नीच देख रह प्रसाद ।। कर पात्र करि भोजन लेह । फिरि जोग वन ही मैं घरेह ३४४०३।। धरि घरि लोग नित करें रसोरा द्वारापेषण ढाढा होइ ।। सत्रुधन पूछे जोड़े हाथ । कहो धर्म मोसु मुनिनाथ ||४४०४॥ धरम जिनेश्वर कब लौ चल । प्रागम कही सुरणौ हा भले ।। पंचम काल का प्रभाव कहे मुणीस्वर सुणो नरीद । पंचम काल उपजे न जिणंद ।।४४०५।। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण प्रतिसय की हीवंगी हाण । देव सहाइ होसी नहीं आग ।। उसम जन सेवई मिथ्यात । कुगुरु कुदेव की माने जात ।।४४०६।। उत्तम कुल न करेगा राज । नीच लोग मुगौंगे राज ।। जैन धर्म की होगी हारण । मन वध काय मुनै न बखरण ||४४०७।। माया धारी वगा जती । ते पावंगा खोटी मती ।। श्रावक होइगे निंदक धर्म । देव सास्थ गुरु लहे न मर्म ||४४०८|| खोटा मत पोखेंगे घणें । मिप्यावेव निसर्च सों सुण ।। पुत्र पिता में होइ विरोध । भाई भाई करि करेंगे क्रोध ।।४४०६।। एक भूखा एक मुगरौं सुख । कोई न पूछ दुखिया दुःख ।। जई भाई देइ उधार । दुरजन होइ लई तिन बार ॥ ४८१०॥ कोध कषायो होइ हैं मुनी । प्रायग सेवा न करि हैं धनी ।। -पानी ही हिंध । मिष्मी भादक वि ।।४४११॥ कुगुरु कुदेव की महिमा होइ । खोटा वेद सुम्मे सब कोइ । बहोत लोग होइंगा दुखी । को को होइ है सुखी ।।४४१२।। सत्र घन बोटं सुणों मुनीन्द्र । तुम ऋपा रौं होई प्रानन्द ।। तुम से साधक पाई मो गेह । करमा क्रितारण मिटं मंदेह ॥४४१३॥ मार्शीवार सप्त मुनिस्वर वील बैन । मथुरा राज करो सुख चन ।। घर घर पूजो प्रतिमा भगवंत । चैत्यालय कीज्यो महुमंत ।।४४१४।। पूजा परिचा सूमन ल्याइ । दुस्ख संताप सब जाइ विलाय ।। मुनिवर गए अउर ही थान 1 नरपति पाए अपणों जान ।।४४१५।। रामचन्द्र की प्रागन्या पाइ। मथुरा चले सत्र धन राइ ।। मुनि थनिक वंदे मुनिराइ । रामचन्द्र के पहुंचे अनि ॥४४१६।। द्वारा पेषण कीए नरेस । चरणोदक लाए सुभ पेय ॥ विनयवंत होइ दीए दान । उत्तम भोजन करि सनमान ।।४४१४।। अक्षय दान मुनि बोले बोल । घरि घरि चरचे रतन प्रमोल ।। सघन मथुरा पहुंच्या बली । सकल प्रना प्रति मानी रलो ।।४४१८।। जिनवर मुवन किया उच्चत । पंडित सेव करें बहुमत ।। बेद सास्त्र होगे दिन राति । सुर्ण लोग सुख मांनै गास ॥४४१६॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुनि सभाचंध एवं उनका पपपुराण घरि घरि पूर्ज प्रतिमा लोग । रोग कप्ट भागियो वियोग । सप्त रिय प्रतिमा चिहुं वोर 1 काहू को नहीं लाग सोडि ।।४४२०।। नव जोजन मथुरा लंबाइ । जोजन तीन बसे चौडाइ । सर्व सुखि कोई नहीं हीण । पंडित सुघड बस परवीण 11४४२१।। स्वर्गपुरी से मथुरा भली । महा सुगंघ विराज गली ।। राजा राज विचारं नीत । सर्व सुराख उत्तम प्रीत ॥४४२२।। इन्द्र समान समधन राई । बहुले भुपति सेयं पाई ।। जिसका है रवि जेम प्रताप । भाजि गए सब दुख संताप ॥४४२३।। बोहा मथुरा नगर सुहावना, देवलोक समदास 11 सर्व सुखी निवसें तिही, मानें भोग विलास ।।४४२४।। इति श्री पपपुराणे मधुरा उपसर्ग निवारण विधानक ८५ वां विषानक चौपाई दक्षिण कोड बिजयारध मेर । रत्नपुर नगर बस बहू फेर !! रतन असफंदन खेचर भूप । पूरणांतन राणी सु सुरूप ॥४४२५॥ मनोरमा पुत्री ता गेह । रूपचंत कंचन सी देह 11 हरिमन पुत्र भये वलवंत । सेवा करें बहुत सावंत ।।४४२६।। कन्या जोबनवंती भई । नरपति सोच विचार मही ।। मंत्रीयां सेतो बोले वयन । हूढो नरपति देखो नयन ।।४४२७।। उत्तम कुल लक्षण संजुक्त । कन्यां तें होइ गुण बहुत ॥ मूरिख पंडित देखि विचार । उत्तम कुल मो होद कुमार ।।४४२८।। अति पंडित बैरागी होइ । दिष्मा लेई हैं देगी सोय ।। महामूरिख होह दुःख की खांन । कारज कर जाण पियाण 11४४२६।। देस देस कू भेजा दूत । नारिद रिष तिहां प्राइ पहूंत !! सब मिल उठि चणं कू' नए । दरसरण कीया ऋतारथ भए ।।४४३०॥ कन्नड नग्न किया था गौंन । भाखो बात तजो मुख मौन ॥ बोलें नारव सुणों नरेस । देखे पुर पट्ठण मरु देस ।।४४३१।। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ पपपुराण साधां का बरसन निमित्त । दीप पढाई मांहि ममंत ।। नृप पूछ नारद सू बात । तुम देस देखे भली भांति ।।४४३२।। राजकुमार कोई देख्यो पाप । सास कन्या देहुं मिटे संताग ।। मारद रिष बोले सिंह बार । नगर अजोध्या स्वर्ग उनहार ।।४४३२।। रामचंद्र का लक्षमण बीर | : कंचन शुगर :1 बल पौरिष चक्र उन पास ! तिहुं खंड का भोग विलास ।।४४३४।। भूखेघर सहु से ताहि । उन सम बली अपर कोई नाहि ।। सगाई करो लक्षमण सुराइ । उत्तम कुल रघुपति के भाई ।।४४३५३ । इतनी सुरिण कोपिया नरेन्द्र । हमारा मारथा है वन भाई बंध ॥ रावण उन मारया है ठौंर । लंकागढ़ वाह्या है तोडि 11४४३३।। उन कू मारां तय हम जाई । प्रपणा जनम तब जाला भाई ॥ वरी सु कैसा मनबंध | क्रोध चढे राजा मनि अंध ।। ४४२७।। धक्का दे नारद ने दिया कादि । मान भंग रिस चिंता बालि ।। लिखया लेख पट मनोरमा पेखि । दीये हाथ लक्षमण कूदेखि ।।४४३८॥ बेध रूप नारायण कहै । इहैं पट रूम मैदरूप कहाँ है ।। के किनर के खेचर सुता । देखत उपजै कान की लता ।।४४३६।। इंद्राणी के पदमावती । भोमि गउचरी नही इस भती ।। बोले मारिद गिर बंतासि । रत्नपुर नगर सबही से बालि ।।४८४०।। रतन असफंदन खेचर राय । हरिमन पुष कोच के भग्य ।। मनोरमा पुत्री है गुणवंत । वे नरेस चित्त बैर धरत ।।४४४१।। सीजे जुध' करण का साज । मारो दुर्जन ज्यों सीझ काज ।। विराषित कहें प्रभू तुम सुरणी । सेना जोडि दोऊ को हों ।।४४४२।। वे विद्याधर हँगे घणे । उनु से जुध अकेले न वणें ।। देश देश का तेडो नरेस । राम लछमन चले रत्नपुर देस ।। ४४४३|| घेरचा नग्र मुण्यो रत्नरथ । हरिमन पुत्र बली समरस्थ ।। जिहां लौं थे विद्याधर राव । एक भए महा क्रोध के भाव ।।४४४४।। हम धाया चाहे थे सही । मूभिगोचरी पाए पाप ही।। अब हम राखें अपनी टेक । करो जुष सेना होइ एक ।।४४४३।। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमि सभाबंद एवं उनका पद्मपुराण राखे पति पर्यंत की आज । उन जीरों लागं कुल लाज || दोघां सेना सर ज्यु गोलो गोला पर्ने हथनाल । सिला पड ज्यु पर काल || मारि मारि दोषी हो । किनर देव देख सब कोइ ||४४४७ ॥ हाथी घोडा पैदल लर्ड । बहुत लोग दोउंघी भिडें ॥ मारे गदा बज्र की घास । बरछी खडग प्राण से जांत ।। ४४४८ पडी लोय परवत सी जान । सोनत बहै नदी तिहां समन | पड़े लोथ गिरध उनाहैं खाइ । ऊपर चरणी पील मंडलाइ ||४४४६॥ दूहा भई जीव लक्षमण तणी, हारे विद्याधर भूप । 2 नारद रहस्या वा समं देख जुष का रूप ||४४५० ।। चौपई विद्याधर भागे रण छोडि । वे भागें घं मारें दोडि || नारद हंसि हंसि ताली देहि । सब मिल नींची मूंड करे ||४४५.१ ।। भागण कू रही नही ठोडि । फेर संभाल करें ये झोडि ॥ ज्यों केहरि सारंग डरे । इम लक्षमण ते डर करि मरें |१४४५२ । । मनोरमां ति जुध कों देख । मनमें श्रारभो ग्यान विशेष ॥ मेरे कारण इतने भुए। पसचात्ताप मन मांही किये ।।४४५३ ।। बैंठ विभाग लखमण हिंग आय। फूलमाल घाली गल जाइ । लखमरण हुआ संतोष मिटा जुध भया मन पोष ||४४५४ || 1 ३६३ दंपति आई बनकी ठोर । सुणियो राय सुता का सोर 11 मनोरमा लखमण सु मिली। सब मिल कहि यह हूँ भली ।।४४५५ ।। हम ढंढोला बहुला देस । लखमण महाबली भुवनेस || मन की इच्छा पूरण भई । सबही की चिता बुझ गई ।।४४५६ ।। रत्नरथ नृप सही परिवार । लक्षमण पास भाए सिंह बार ॥ सही मिले भया सबंध टूटा असुभ करम का मंत्र ||४४५७ || रनर सेती नारद कहें तो मैं गुण पराकम ना रहे || तूं कहे था बचन प्रसार अब काहे तें मानी हार ||४४५८|| Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ पचपुराग २ रन प्रसफंद न बउले राई । तुम तो कोप्या रिष खाई ।। मान मंग साष का किया । तो इह दुःख हमें पाया ।।४४५६।। तुम कलप हम भया दुख । अब तुम कीया दोउं दला सुख । करें महोछब पुर में गए । मनोरमा वीवाही सुख भए ।। ४४६० ।। भोग मगन में कर उछाह । मनोरमा लछमन सा नाह ।। पुन्य प्रसाद ने जीडी भई । ते सुख सोभा जाई न गिणी ॥४८६१।। बहो पकवान भोजन करे । कंचन थाल भरि अग्रे घरे ।। परम जन जोग, पर जम गति मिल जीये भरणे ।।४४६२।। बीडा दिया हाथ ही हाय । जितने लोग राम के साथ ॥ रहेसे सफल किया प्रानंद ! बाजंतर बाजे सुख कंद ।।४४६३।। मडिल्ल पुण्य तणे परसाद जीत सब ठा हुई ।। साध्या सगला देस सबद ज ज हुई ।। मान भूपति भौखि सुजस प्रगटमा घण्यां ।। रामचंद्र गुण अगम अपार जांइ किस पं गणा ।।४४६४।। इति श्री पद्मपुराणे मनोरमा विवाह लाभ विधानक ८६ वां विषानक चौपई रतनपुर सुख मुगत्या सव साथ । बहुत देस जीत्या रघुनाथ ।। रवि नभ वीचि सोभित पुरी । मेघ स्वाम सिव मध नगरी ॥४४६५।। गंधर्ववति प्रमरपुर देस । लिषमीधर तसु नगर नरेस ।। किनर गीत अमरपुर देस 1 लक्षमीधर तसु मगर नरेस ।।४४६६।। श्रीगहमा सकत नरंजम जोतपुर । अवरघणां तिहां साध्या नगर ।। ससिधा गधारमल वेश । धन सिध सुथांन मनोभद्र नरेस ।।४४६७। श्री विजकातिपुर तिलक सघांन । बहुत भूप साधे बलवान ।। विजया, साथ मनाई प्राण । राम लखमरण प्रनि राजान ॥४४६८।। यहाँ श्रेणिक पूछ परसन्न । लवनांकुस की कहो उतपन्न ।। राम लक्षमए के केती प्रसतरी । केता पुष कुल वृद्धत करी ।।४४६९।। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाब एवं उनका पपपुराण राम लक्ष्मण का परिवार जिनवाणी सु' संयय जाय । कहै भेद गोतम मुनि राइ ।। सत्र सहैव लक्षमण के नारि । रूपवंत ससि की उरिणहार ।। ४४७२ || तामें पाट पाठ की धणी । गुग्ण लष्यण अति सोभा वणी ॥ विसल्या मेघद्रवरण की सुता । प्रथम पटराणी सुरस की लता ।।४४७१३॥ रूपवंत प्रदर बनमाल । कल्पांरा मासा अन रसनमाल ।। जितपदमा मूखषी मनोरमा । गुगलष्यग सब ही सो समां 1|४४७२।। प्रष्ट सहन राम के भोम । सोभे च्यारि पट्ट की धाम ।। प्रथम सीता अर्ने पदमावती । रतिप्रभा श्रीदामां सोभावती ।।४४७३।। लक्षमण के पुत्र दोइ से पचास 1 सात रत्न की पगी मास ।। चक्र सुदर्शन व प्रने गदा । धनुष खडग पर बरछीक धुजा ।।४४७४।। श्रीधर निसल्या में गर्म लह्या । प्रवी तिलक रूपर्यन अनमिया ॥ मंगल कल्यास माला का पूत । विमलप्रम पदमावसी संयुक्त ।। ४४७५॥ बनमाला का घरजन वृश्य । जयवंती के मुत क्रोत रव्य ।। मनोरमा संपूरण कीर्त्त । रतिमाला के श्रीकेस उतपत्ति ।।४४७६॥ मन्य कुमार कहां लागि गिरणों । नामावली कहां लो भगों ।। दृष्योढ कोडि उसम सुमार । च्यार वीर का वघ्या परिवार ।। ४४.७७11 पुन्य उदें ते बार वृष्य । कर राज निकंटक रिध्य ।। सात दिवस सुख में विहाइ । भोग भुगति माने तिहां राइ ।।४४७८ ।। सोरठा उदय भए जब पुन्य, सुख संपनि बाघी घनी ।। अधिक प्रतापी भरुन, जीत्या सत्र दुरजन अनी ।। ४४.६it इति श्री पपपुराणे राम लक्षमण विभव विधानक ६७ वां विधानक घोपी राजमहल प्रसि ऊंचे मंदिर रमणीक । कंचन रतन सहित रमणीक ।। भले भले समरापे चित्त । सोज्या तिण ठां वणी पचित्र ।।४४८०॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ पपुराण सोता द्वारा स्वप्न दर्शन कंचन पलंग पाट मुबण्यां । रतन जोति सू सोभै घणा ।। पुहप बिछाया पटंबर तल । केसर भर या नींदवा भलै ॥४४८१।। स्वेत बिसन तिस पर विछाइ । महा सुगंध भ्रमर लोभाइ ।। डिके कुमकुम मा संमारी होर । चंदन किया लग्या ता पोस ।। ४४६२।। तणे चंद्रपा मोती झालरी । अनेक प्रकार तिहा सोम खरी ।। तिण वस्त्रां की जीति अपार । सीता करं सोलह सिंगार ४४८३॥ आभरण वीर मोती मा हार । संग सहेली रुण झणकार । पान फूल का डबा भरि घरै । सीता सुपना देख स्वरे ॥४८८४ । रात पायली घटिका च्यार । मूपिना निध पाई तिहबार ।। दोई केहरि गर्जत देखे । सायर निर्मल प्रेषे ।।४४८५।। देव विमाण पावता जाणि । जाणूसुख मैं घसै प्राण ॥ भए प्रात जागरण की घेर । गा गुणीजन मधुरी टेर 1।०४।६।। पंच सबद नाज तिह घडी । सीता जागी कर मनरली ।। करि सनान सुमिरै जिमनाथ । बहुत सखी उन लीनी साथ ॥४४८७।। पति सौं जाइ वीनती करी । सुपनां फल भाखो मन भी ।। सुरिंण रधुपति समझाथै बास । पुत्र दोइ होसी ससिंक्रांत ।।४४८८।। देव दोई तेरे गर्भ चए । निसचे समझि पापणे हिये ।। सीता के मन भए पानंद । पंचनाम सुमरचा जिव ।।४४६।। रित बसंत' दंपति सो प्रीत । घर घर गुरणीयण गाव गीत ।। मंजरि अब सफल बनराश । कोकिल वचन अति चित्त सहाह ।।४४६०।। पंछी सबद सुहावन वोन । कामी तिहां प्रति करें किलोल ।। दिन दिन बाबै धरम पुनीत । उत्तम वसन परि डाले चित्त ||४|| पुन्य पाप का इन विचार । पापी दलिद्री का इह विकार ।। गर्भ विष लष्यण को चिह्म । जाणों ते पंडित परवीन ।।४४६२॥ पापी जीव गर्भ में पड़े । क्रोष प्रमाद देह दुख भरै ।। खाबै ठीकरी मादी मांस । पुण्य होण का इह प्रकास ॥४४६३|| सीता का दोहिला पुन्यवंत के लष्यण जाण । उत्तम बस्त बाय नित पाण ।। सब सो राखे अधिक सनेह । दिन दिन जोति दिप अति देह ।।४४६४॥ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनि श्री सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण धरमध्यान सु सु पुराण । नित उठि देई सुपात्री दान || सीता दुर्बल देखी राम । पृथ्वी कहो चित्त का नाम ॥४४९५ ॥ सीता कहे मेरे मन दही । पूजा रचना करउ सब मही ॥1 जिहां लग तीर्थ भने केवली | जिन मंदिर पूजा विष भली ॥। ४४९६।। रामचन्द्र इभ लक्षमण सुखी । देस देस कू चिठी बी । जिहां लो जिस्थानक किवलास | संभेद सिखर चंपापुर वास ४४९७ ॥ कपिला भवर वाणारसी नगर। जिनमंदिर समराजं सगर || महेन्द्र बन नंदन वन साथ। मुनिसुव्रत मंदिर जिन नाथ ।।४४६८ || सहस्रकूट चरकालय तिहां जिहां ॥। इक इक सहस खंभ चिहुं फेर फेर I राम लखमण कुटुंब समेत तिहां सरोबर निरमल नीर । वेदी मांझ वणी बहु घेर ।। ४४९६ ॥ गए महेन्द्रपुर पूजा हेतु ॥ छाया सीतल विहंगम तीर ||४५००॥ ३६७ हंस चकोर सारस बहू जोव । सबद पपीहा बोले पीव || बसतर उतारि करई सनान । श्रष्ट दरव सुं पूज्या भगवान ।।४५०१ ।। दूध दही रस घृत की धार श्री जिन के गल घाले हार 11 करी भारती हवण कराइ | बाजा बाजे गुरिंग गए। गाइ ।।४५०२ ॥ वृहा पूजा करि भगवंत की, देय सुपात्रां दान 11 निसको पावे परमपद, पहुंचे मोक्ष सुधान ।।४५.०३ ।। इति श्री पद्मपुराणे सीता मोहिला विक ८ व विधानक चौपई पूजा करि फिर माये गेहू बहुत दान सनमान्या देह ॥ सुख में बीत गये दिन घरों 1 इंह जायगा कारण इक बसे ||४५०४ । । सीता का नेत्र फटकना दष्यण भांति फरूके सिया । पचाताप मनमें करे सिवा करम सर्व वन बेहड फिरी । मन मा ते रावण मपहरी ||४५०५ ।। सोग मुसुद्र में तब यह पश्वी वे दुख भगत भव भया था कौन बरस बरस सम बीती घडी || क्यों फरकं मघ दष्पन नंन ॥ ४५०६ ।। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ पद्मपुराण पनमन देखी कहे वीचार । असुभ करम को सके न टार ॥ सुभ असुभ संगि लाया कम । प्रादि प्रनादि जीव के भर्म ॥४५.०७।। जइस ससी का बधै प्रताप । पूनम ताई पूरण प्राग ।। माइस करमन का उहै हुवे । जस ग्रहन ग्रहै फुर्व ॥४५७८।। पडिवा सेतो कला हुवै हौण । असुभ कर्म कर भाषीन 11 दुख सुख लग्या जीव के संग । तुम मनि करो अपना मन भंग ||४५०६ ।। गुणमाला वोली गुणवंत । वेद पुराण सुरणो मन मंत ॥ सीता मन चिता मा करो। एता सोच कहा चित घरो ॥४५१०॥ तुम सबसे पटराणी बडी । राम तुमने छडि नहीं घनी ।। रामचन्द्र जीवो चिरकाल । तुमकों भय है किसका हाल 11४१११ करो पूजा पुनि सांतिक । पाप करम की मेटो लीक ।। चुनि दोन तप काट व्याध । वयावृत्त कीजिये साघ ।।४५१२।1 दुख कलेम सब जाई विलाइ । हील न कीजे देह मंगाद ।।। भद्कलस सीता प्रधान । सम विष जाणें पुआ दान ।।४५१३।। तहि बुलाइ प्राशा इह दई । उत्तम वसत मंगानो पई ।। जो मन इच्छ ताकू देइ । पूजा प्रतिष्ठा बहत करेइ ।।४५१४।। रोग कल्पना हो गई दूर 1 चढे पनि रिध भार पूर ॥ सुम्नी बान मन हुवा हुलास । प्रानि सोज राखी सन पाम ।।४५१५।। जैसा कोई चाहे त्याग । तहसा दे जइसा को मांग ।। सांतिक प्रतिष्ठा होइ दिन रयरण । पंडित पर्दै सुहावने बैन ।।४५१६।। वेद पुराग सब ही ठो होइ । बहोत पनि खाट सब कोद ।। राम लक्षमण वैठा पट प्राइ । बहोत लोग मिले तह शाइ ॥४५१५।। सोलह सहस मुकद बघ राइ । नमस्कार करि लाग्या पाइ ।। पोंग छत्तीस ठाही भई । ते सब नृप द्वार प्रयषडी ।।४५१८।। रघुपति चितवं प्रजा दसी । नींच लोग मिल मिल कर हमी ॥ रामचन्द्र ने लिया बुलाइ । अपने अपने दुख कहो समझाइ ।।४५१६।। विजय सुरज मध्य परवीन । वसकासव पींगल तीन ।। राज सभा में ठाः प्राह । करि डंडोत नवण करि भाइ ॥४५२०।। रातारा प्रश्न पूछना पूछ राम कहो तुम सांच । किह कारण भाये सब पंच ।। सब मिल थकित रहे तिहां लोग । जिन पाषाण ध्यान धरि जोग ।।४५२१|| Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंव एवं उनका पद्मपुराण निष्ट वयल कैसे करि कहें । भय चित घरां मुक होय रहें || राम कहें चिता मति करो। कहो निसंक सब भय परिहरो ।।४५२१ ॥ प्रतिनिधियों का उत्सर विषय सूरज बोल कर जोडि । प्रभा भणी लागी इह बोटि ।। रूपयंत जोवन भरी नारि । निकस भाग्या बिन भरतारि ।।४५२३।। जिल्हा मन होवे तिहां वह जाए। वे कछु कंस कहैं तो रिसाइ ॥ तब उत्तर बोल असतरी सीता रावण का हरी ।।४५२४ ।। ता का सब विष राखे मान || ते सीता रामचंद्र ने आणि पैसे हैं वे त्रिभुवन पती । तिही मन में न प्राणी रती ।।४५२५ ।। सीता को वे बोड़ा कहैं । जे मुख निकले सो ही कहें ॥ सीता सती पतिव्रता प्रसतरी सील संयम सों सव विश्व खरी ।।४५२६ ।। रावण सीलव्रत लीया । उनका सत सब विष राखीया || सत्त सील इह विध रह्या सर्व । उनको रोत करें ए मर्व ॥ ४५२७।। जैसा हमें बताको ग्यांन । तासों रहे सवां की वन ।। देस देश में हूवा इहसूल 1 परजा गई सर्व सुख मूल ।। ४५२८ || जिह विष बसे हो सुख चैन 1 तैसे समझाबो प्रभु चैन ॥ रामचन्द्र सोचे मन माहि । मेरे साथि देखें दुख याहि ।।४५२६॥ राम की व्यवा रावण दडक वन में श्राइ | सीता कुं ले गया चुराड़ || मारचा रावरण सेनां धरणी । अब तो भई सुख की बार वानर बसी भए सहाइ । उनको संगति पहुंचे तिन ठांइ २२४५३०॥ सीता ले आए प्रापणी || कैसे घरि तँ देहु निकार ||४५३१ || । तो भी होइ महा उपहास ।। किस विष तर्ज मन की मंत्र ||४४३२ ॥ तज्जु राज वन में करूं बास उत्तम कुल को चढ़ें कलंक पराया मन की जाएँ कौंन । बुरा कहे छत्तीसों पौण || नारी महा दुःख की खांनि । श्रपकीरत हो इनके जांन ॥४५३३ ।। 8 प्रतक्ष जानो कुगति कांमनी । असे चित्त विचारो धनी ॥ मोही चित्त चुरा ले जाहि । लख चौरासी जौनि भरसाइ ||४५३४।। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपपुराण सर पडस्या मरै एक बार । नारी विस मरे बारंबार || जले नीकलिया त्रिय संग । तो अब भया मान का मंग ।।४५३५॥ विभचारिणी कर कुकर्म । कुल की लाजइए कुण धर्म ।। सीता कू ले माया ग्रहै । नि) का कोना सु कहैं ।।४५३६५ किस किस के मै मद मुख । मोकू प्राइ वण्या है दुःख ।। मेरे राज प्रणा सुख भरो । सीता रास्या अपजस घरो ।।४५३७।। मैं जाणं है सीता सती । इस दोष न लाग रती ।। राख्या चाहैं लोकाचार 1 दोई विथ है निश्च व्योहार ॥४५३०।। राजा छोडे धरम की रीख । घटै मरजाद वध विपरीत ।। राजा मुह देखी प्रजा कर । सब का पाप अपने सिर धरं ।।४५३६।। परम विचार कीजिये न्याव । अपरगां परस्या जाण समभाव ।। बहु विष सोच करें रामचंद्र । कहा विचार कौनिये दुद ।।४५४०॥ राजनीति रघुपति करी, कंझुधन प्राण्या मोह ॥ प्रजाने उन कारणई, नियास्यु किया विछोह ।।४५४१॥ इति श्री पपपुराणे रामचन्द्र प्रजारिष्या विधान हवां विधानक चौपई शम कामय रामचन्द्र वठा पट प्राइ । निसंकत सों कह्या बुलाइ ।। बेग जाइ लखमण कुलाव 1 गया दूत नारायण ठोय ।।४५४२।। नमस्कार करि ठाता भया । राम वचन हरि सों भाषिया ।। लखमण उठि माया तिरण साथ । ठा निकट तिहाँ रघुनाथ I४५४६।। रामचन्द्र भाष्यो विरतात । प्रजाने सकल भाष्यो बिरतांत ।। धरि परि नारि कुमारग गहा। मनमें कुछ संका नवि रमा ।।४५४४।। सासु सुसरा कंत की जाण । कबहू न मानें उनू' की प्राण ।" बे पोछा सीतां का लेह । बिन सवारथ कलंक में देह 11४५४५॥ जिसमें कुल को लाग लाज । तिसक राख्या बण न काज ।। प्रब लो कुल को लग्या न दोष । पुरुषारण करि पहुंचे मोप्य ।।४५४६।। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभापंच एवं उनका पपपुराण कोई न हमारे पापो हुघा ए दूषण अब लाग्मा नवा ।। जे रावण ने सीता के हरों । तो इह विपत्ति हमको पड़ी ।। ४५४७। सीता मत राठ्या प्रापणां । परजा दोष लगावं घरगा ।। लक्ष्मण का कोष इतना लखमण मुगिया बन | चढ़या क्रोध राते करि नयन ।। ८५८८ ।। कैसी परजा कहा बरांक । वे तुमसे बोलें इह वाक ।। सब कूमारि मैं परलय करू। जीभ कादि खाल भस भरू ॥४५४६।। सीता सती कृइस विष कहैं । उनके मन संका नहीं रहे ।। नप की चरचा परजा करें । ताक हाथ लगाउं खरै ।।४५५०।। अपना विस समझे नहीं प्राप । राज कथा को बोलें पाप ।। सबकू' घेरि निकटं दहै । फैर न जैसी मुख नै कहैं ।।४५५१।। रामचन्द्र नब कहैं ममझाइ । परजा सख जातिग गए । परजा तें राजा सोमंत । रावण परजा कुरण राय कहत ।।४५५२।। जिह विध दुख परजा का जाय । तसा करिए भरत उपाइ ।। बोले लक्षमण सुंण हो भ्रात । महासती है सीता मात ॥४५५३।। वे हैं दुःख देण्या हम संग । सुख की बेर करो ग्रह मंग ।। परिजा है कूरडो समांन । हस्ती नै जू भोंके स्थान ।।४५५४।। हस्ती मन न पाणं ताहि । उनका कह्मा नसा नर नाह ।। ज कोइ शशि पर नाखं घुल । वाही के सिर पड अमूल ।। ४५५५।। प्रग्यांनी बोलें मग्यांन । उनका वचन कहा परमांन ।। सीता दयावंत बहूत । कोमल देह रूप संजुत्त ।।४५५६।। गर्भवती किम बीजे काढि । दोई जीब सौ पाय दुख वाहि ।। रामचन्द्र बोल जगदीस । या कों ले गया था दस सीस ।।४५५७।। राम का निर्णय ता कारन मेसी कहै न लोग । थिर नहीं इह संसारी भोग ।। नपणी कीत्तं को यह संसार । जे अपकीत्ति हुई अपार ||४५५८।। हम सुम सा अपकीरत करै । प्रध्वी पर अस को फिर धरै । जैसी परजा तसा राजा जिसी । जुग जुग चले हमारी हंसी ॥४५५६।। घरमनीत करूं हूं सही । मेरै बात मुह देखी नहीं ।। मृतांसबक लब लिये हंकार । रषि परि चढि दौंडे असवार ।।४५६०॥ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्पराग समा घणी तास के साथ । देखें लोग घुणे सब माथ ।। किस पर कोप्या रघुपति प्राज । कृतांतवक पाया दल साज 11४५६१।। नमस्कार करि ठाडा भया। रघुपति बचन मानि कर लिया ।। सिघनाद बन भयानक घणां । तिहाँ मानुष्य न कोई जणां ।।४५६२।। सीता को करि मात्रा भाव | तिहां छोडि फिर ल्याबो मति ना ।। कृतांतवक सब गया सीता द्वार । माता तीर्थ चलो मोहि लार ।।४५६३।। सीता को यात्रा के बहाने से ले जाना समेदशिखर तीरथ निवारण । पुजा करो जिनेस्वर थान ।। जैसा कर्म उद होवे प्राय । तैसी तेसो देख ठाइ ॥४५६४॥ रहरा रली सू सीता चली । सब कुटुंब सू तब ही मिली ।। रथ परि चलि चली समेद । देखें सकुन विचार भेद ।।४५६५॥1 सुका वृक्ष परि बैठे काग। चुच मूडपरि पटकाण लाग ।। देखे बुद्धिया मारग माहि । बाल खसोट वैसे छांह ।।४५६६।। सकून विचारई सीता तल । हम तीरथ कारण को चल ।। कहा सकुन करेंगा मोहि । कछुचन मन घरघा न रंच ।।४५६७।। अग्रे देखें पर्वत झरई । मानू रुदन सब कोई करई ॥ कहि स्खलनलाट जल बहै । देखि कख तिहां माश्रम गहै ।।४५६८।। महा मंग तिहां अगम अथाह । जलचर जीव सुखी वन मांहि ।। तटपरि ऊंचे सोमैं रूख । सीतल पवन सं भाज दुःख ।।४५६६।। वनफल उत्तम लागे घणे । निरमल नीर सोभा पति रणे ।। गडगडाट सू उल्लल नीर । देखत ताहि रहै नहीं धीर ।।४५७०॥ स्पंघ नाद गंगा पार पर्ण । तिहां नाहि काह की सणं ।। एक नाम भगवंत सहाइ । और न कोई है इस ठाइ ।।४५७१।। ऋतांत अक तिहां रोवै प्रान । हाथ मुड धरि सोच ग्यांन ।। सीता माता अति धर्मेष्ट । इनकी फिर उदै हुवा कष्ट ॥४५७२।। घसी महा भयानक ठौर | बन का जीब कर तिहां सोर ।। मैंने भाग्मा प्रमुजी की पाइ । सीता कू ल्याया इस ठाद ।।४५७३।। कृतांतवों सीता कहे । सूर वीर धीरज को परे ।। जई तु डानस डार तोडि | तो हम मन दिवता रई कोडि ।।४५७४।। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुमि सभाचंद एवं उनका यद्मपुरान कृतांत का रहस्य खोलना तब विनती कुरं । सत्य बचन गुख तें उच्चरें || हमारा नहीं नगर में बास ||४५७५ ।। कृतांत प्रजा पुकारी रघुपति पास परि परि नारि करें विभचार । छोडा राब लज्जा का भार ॥ जब वजले घर का भरतार | उत्तर देहं सकल वे नार ||४५७६ ।। सीता रावल के घर रही । रामचन्द्र कुछ बात न कही ।। फेरि श्राणि पटणी करी । तुम काय हमनें भाखो युगे ।।४६७३ ।। ऐसे पुरुष से अंगीकर्त्त । तुम तो ढूंढो हमास चरित्र ॥ रामचन्द्र सुविन मन में सो गया ४७५॥ लखमरण रह्या बहुत समझाय । उसका कह्या न मान्यां राइ ॥ मोहि बुलाई भाग्यारह दई । तब मोकू चिंता इह भई ||८५७६ | कैसें छोड़ वन में सिया । कहत सुशांता फार्ट हिमा || वन उत्तर का न जाइ। तारों सुमनें आणी इस ठांइ ।।४५६० ।। सीता का सदेशा बोलें सीता गदगद बोल । प्रजा रघुपति करो किलोल 11 हमां उनू की इहां लागि प्रीति । धन्य जीव जे होइ श्रमीत ||४५६१। ४०३ बहु सुख भुगते राज प्रसाद । युही जनम गमायो सब वाद || धर्म न चेत्या सुख की देर । मानुष जन्म कहां लड़ीए फेर ॥४५६२।। जैसे कोई तन को पा । फेरि समुद्र में दिया बुहाई || वेर देश कहां पार्व रतन । जे कोई करें कोटि जतन ॥४५८३ ॥ सा रतन मानुष्य श्रवतार । तामें भले मूड मार || करो धरम भवसागर लिये । बहुरि न मोह फंद में पडी ||४५६४ ।। भाई मूर्छा खाई पछाड । बडी बार में भई संभार ॥ फिर बोली सीता महासती । रामचन्द्र सूं कहयो वीती ॥४५८५॥ परिजा में ये दुखि मत करो। दया समकित चित्त में धरो ।। पूजा दान करो दिन रात तुमारे समरण में इह भांति ||४५६६ | कृतांतक तव रोवें पुकार । अपने सिर लिया मैं भार ।। सेवक का है जनम अकवथ । अपने बल होवे समरथ ||४५८७ || तो परों मनमानी करें। पाप ने पुनि समभि चित्त रं || पराधीन छ, बोझ न सके। बिहा भेजे तिहां पल नहि टिकै १४५८ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण जैसी प्राग्या सोई होय । ताको वरज सके नहीं कोइ ।। जे में पराया भया प्राचीन । तो में करम कमाया प्राधीन ॥४५८१] सीता का धन में अकेलोपना अपणी निंदा कीनी घणी । सकल बास सीता ने सुनी ॥ मोता कहै पुन र शाहि । तेग रेस इसमें अनादि !!४५६.! रथ ते पांव सीता तिहां घरमा । कृतांत धक प्रयोध्या कु फिरचा ।। बहुत सोच सीता मन करें । धीरज मन में कैसे घर ।।४५६१|| महा भयानक बन की ठान ! तिहां नहीं माणस का नांव ।। सिंघ गयंद तिहां अजगर घणे पसु पंछी बोलत जब सुणे ।।४५६२।। पग धरणे कू नाही ठौर । भाखरण सूल कंटक और ॥ वे मंदिर पाटबर सोज । रतनजोति सुख देखे चोज ॥४५६३॥ पनि फल सुगंध फलेल । घोबा चंदन सौं करता खेल ॥ पाठ सहा मेरे यी साथ । पटराणी यापी धी रघुनाथ 11४५६४।। हमारी प्राग्या मानै यी सर्व । जीन खंड की लक्षमी दर्व ॥ अंसा कर्म उदय हुग्रा प्राय । वे सुख खोसि भेजी इस ठाय ।।४५६५।। के में वच्छ विछोही गाय । के में बाल विछोही माइ ।। के सरबर नै' बिछोहा हंस 1 के पर थोनीका राख्या प्रंस ।।४५६६।। के जिन भक्ति करी न मन ल्याय । के जिनानी चित्त न सुहाइ ।। मुनीस्वर सेवा कहीं नह खरी । साधां की निंदा चित्त घरी ॥४५६७।। प्रगछाण्यां जल पीया जाइ । कंद मूल भषे अथाह ।। पोछा तप कर लिया अवतार । मोहि विछोह भया भरुतार ।।४५६८।। मुगुरु कुवेव कुसास्थ पर चित्त । तार्थं प्राह भई इह चित्त॥ पंछी दिया पिंजरा मांहि । तार्थ हुवा इह दुःख दाहि ।।४५६६।। हाइ राम लक्षमण कहा किया । मोफू देस निकाला दिया ।। हाइ जनक भावमंडल वीर । या सम कोई ना रखें धीर ||४६००। बनबंध वारा सोता का विलाप सुनमा बसगंध पुंडरीक का वरणी । बाक संग सेन्या है घणी ।। इस्ती कारण बन में माइ । पकडधा गज बार्जन बजाइ 11४६०१॥ सुण्या सबद सीता का रोज । भया प्रम देख स्लोज ।। इह वन इसा भयानक छप । देख सबद सुरण बहु भूप ॥४६०२।। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभापंर एवं उनका पापुराण ४०५ के इंद्राणी के पदमावती । के किनर के विद्यावतती । सब सेन्या कर महै हथियार । तिहां नांगी चिमके तरवार ॥४६०३॥ ह्य गय रथ किंकर ता संग । महाबली राजा बनजंघ ॥ अंसा बन भयानक अप्ति घोर । मानुष्य नै माइ सके कोई और।।४६०४॥ वहा सूम असुभ दोऊ करम, भपणी चाली तिहा चाल ।। भूपति ने भिक्षु कर, रंक न करें निहाल ।।४६०५।। इति श्री पद्मपुराणे सीता वनवास विलाप वनसंघ समागम विधान ६. वां विधानक बोपई सेना थकित रही वा ठाव । प्रागै कोई धरै न पवि ।। सूर सुभट प्रने होइ चलै । धर्म कर्म समकित्ती भलै ॥४६०६।। उत्तरे भूमि सीता कू देख । माता कहो तुम अपना भेष ।। तुम हो कवरण मैसे वन मांहि । ऐसा दुःख करो तूम कांहि ।।४६०७।। सस्त्र देखि सीता मय कर । भीड देखि मन में प्रति उरं ॥ परे वीर मब देहु हारि । प्राभूषण एही तू उतारी ।४६०८।। मेरे नाम राम की पास । लेहु सकल छोडो मो पास ॥ कोले सुभट तुम मति करी । बचघ इहां नरपति खरो ।।४६०६।। हाथी पकड़न पाया भूप । सम्यकदृष्टी दया स्वरूप ।। तीन ग्तन हैं वाफे चित्त । जती भाव राख है नित्त ।।४६१०।। युही पाया बचघ भपसी । बहुत लोग राजा के संगती ।। सीता नै पूछियो नरेस । माता कहो प्रापना भेस ॥४६११।। महागंगा तिहां बहै अपार । ताहि उत्तर कसे भए पार ।। ए धन महा भयानका बुरा । कारज कवरण पयाणां करा ।।४६१२।। प्रपणा कहो सकल बिरतांत । सांची बात सुणावो मात ।। पिछली बात कहो समझाइ । जनक सुता हूँ मैं इस टोय ॥४६१३।। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ पापुराण सीता द्वारा अपना परिचय देना भावमंडल है मेरा भात । विदेहा राणी है मुझ दात ॥ दसरथ है अजोध्या का राछ । च्यार पुत्र ताफे अधिकार ||४६१।। रामचन्द्र की मैं पटधनी । सुखपाई प्रसी गति बणी ॥ केइकेइ कुवर दशरथ दिया । राम लखन घासा लिया ।।४६१५।। भरथ सत्रुधन पाया राज । बहु विध प्रजा का सारे काज || हूं भी फिरी राम के साय । दंछक वन में श्री रघुनाथ ।।४६१६।। तिहां मारथा संजुक कुमार । खरदूषण लडिया तिण बार ।। रावण ने तिहा मोकू हरी । वाक सील की थी प्रांखडी ।।४६१७॥ अनंतवीरज पास लिया सील । गया लेक लागी नहीं ढील ।। बिराधित सुग्रीव हनूमान । वानर बंसी अति बलवान ।।४६१८।। राम लक्षमण है बिमान बैठाद । लंका में पहुंचे सब आइ 11 रावण मारे लंका तोडि । तब मिलीया रघुनाथ बहोरि ।।४६१६।। उहां ते पाया अयोध्यापुरी । परजा ने 'घरचा इह करी ।। रामचन्द्र ने इह चतुराई करी । फेरपट दिया सीता प्रसती ४६२०।। सीता रावण ले गया । ईनां फेर घर बासा कीया ।। उहां अंसी घरचा मांहि । भनथ बैराग भयो मनमाहि ॥४६२१।। विक्ष्या ले पाया निरवारण । बीते मोह दिन गर्भ का जान ।। भए दोहला इछा यही । तीथं पंचकल्याणक सही ।।४६२२।। करू जात्रा पूजा घणी । सब मामग्री उत्तम बशी ।। महेन्द्रवन पूज्या भगवंत । मुनिसोक्त स्वामी अरिहन्त ।।४६२३।। कलास जात्रा पूजर जोग | पंचमेरु बंदना निवोग ।। पुहपक विमाण क्रीया संजुस । परजा निगा वा आय पहूंत ||४६२४।। करी पुकार राम पं जाय । नारद बिगड़े हैं सब ठाइ ।। सब प्रताप सीता का कहै । कैसे हम नगरी में रहैं ।।४६२५।। बचघ समझा ग्यांन । तुम समझो हो वेद पुराण ।। मारत ध्यान तुम करो दुर । बारह अनुप्रेक्षा समझो मूर ।।४६२६।। च्या गति माहि लोल्या हंस । कहीं नीच कहीं उत्तम बंम ।। रोग सोग प्रारत मै रह्या । भ्रमत भ्रमत बिसराम न गहा ॥४६२७।। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंक एवं उनका एसपुराण चारों गतियों के दुःख सुभ नै असुभ कर्म देउ साथ । सुख दुख देखे नाना भाति ।। देव' हुमा सुख त्रिपता नही । छह महिना प्राव जब रही ।।४६२८॥ सब सुख भूल्या चिता बीच । बहुत भ्रम्यां गति उत्तम नीच ।। मानुष्य जनम भुगते बहु भोग । तिहो भया कुटंब का सोग ।।४६२६।। रोगी रहे कह नहीं सुख । पीडा चिंता व्याप दुःख । पाई गति पसू तिरजंच 1 तामें सुख पाया नहीं रच !:४६३०।। सं टं बांध्या हैं संताप । मरे भूष तिस कर संताप । माछर देस देह कू लगें । लघर फिर निस बासर जग ।।४६३१५ । नरक गति दुख की तिहां खांनि ।छेदन भेदन सहै परांन ।। सहै दुख यह बार बार । भवसागर ते तिरघा न पार ।।४६३२।। जनम जरामृत आसा ठोरि । इनसों कदे न भया विछोर ।। बनजंघ का परिचय इंद्रवंसी बूरि नवाह नरेस । मुगत पुंडरीक फा देस ।।४६३३।। संबोधमती वाकं पटनारि । तासु गर्भ लीया अवतार ।। मनजंघ है मेरा नांव । धरम वहन का राखो भाष ।।४६३४।। महा पुनि पूरव भव किये । रामचंद्र से प्रभु तुम हिए ।। असुभ कर्म डोले घने । ते सह वाकि मोनु मुने ।।४६३५॥ अब रघुपति प्रावगे आप । तुमारा भेटंगा संताप ।। तेरा गर्भ में जीव सुपुनीत । घरम उदें जारणी इह रीत ।।४६३६॥ तीरथ नाम करि तुम फू काहि । रामचन्द्र मन बिता बादि ।। तुम फू हुत्रा घरम सहाइ । गज निमित्त में पहुच्या आई ॥४६३७।। चलो बहन तुम मेरे ग्रह । दूरि करो मन का संदेह ।। भावमंडल सम मोकू जानि । सीता बठाइ लाई सू विमान ।।४६३८।। बजर्जष भूपति बल धरा, घरम का बहो भाव ॥ सीता कु वन माह तें, बहिन कहिं ले भाव ॥४६३६ । इति श्री पपपुराणे सौता समास्वास्त विधामक ६१ वां विधानक Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ You सीता के साथ संघ का श्रागमन चौपई रतनजडित सोहे सुखपाल | मरिण माणिक लागे बहु बाल || पाटवणे पाटंवर बिछे । छत्री कलस मोती के गधे ||४६४०|| सोह मुखमल तर गलेस । जो पंचरंग के भेस ।। तामें बईठ सो सीतां चली । होला डोसा ता संग चिली || ४६४१ ।। पद्मपुराण बहुत सखी या पा हुई । ढिग डिंग गांव सब हरियल महीं || देस देस के नृपति प्रा । नमस्कार करि ठावे राइ ।। ४६४२ ।। पुंडरीक सुराष्ट देस तिहां । सहु कोई सुखिया जिहां ॥ घर्मेण्ट सर्व नसे तिहां लोग पांनकूल सौ धाके भोग ||४६४३ ।। नगर बसैं स्वर्गं अनुहार। जिसका बहुत बडा विसतार || न उपवन वापिका कूप सोभा कमला ती अनंग ।।४६४४ ।। हाट बाजार छाए सब हो । कंचन कलस घरे सिर पोर ॥ छांटी गलियों नीर सुबास देखें नारि चढी पावास ।।४६४५ ।। सीता श्राई नगर मकार मंदिर में पहुंची तिस बार || बघ की गई । लागी सहु सीता के पाय ।। ४६४६ ।। बाघ बहु स्तुति करें। श्राजि भाग पनि म्हारा करें || सीता बहन भाई हम द्वारि । सब मिल करो नरगद की सार ||४६४७ | ज्यों पीहर में रहे पूतरी से रहे सीता सिंह पुरी ।। सुख सौ बीतें बासर रैन । पूजा दान करें मन चैन || ४६४८ ।। कृतांत को व्यथा कृतति मारग के मांझ । रोवत ताहि पड गई सझि || हाइ हाइ करि रो रोज सीता का पाऊं कित खोज || ४६४६ || छोडी तिहां महा विपरीत || महा भयानक वन भयभीत । किण पसुच सीता कु मख्या वा बन में को कार है रिष्या ।। ४६५० ।। आया रामचन्द्र के पास नौचो मुडी खडा उदास ।। नैनां नीर बहै असराल मानू चुवं मेघ की धार ।। ४६५१ ।। कठिन कठिन करि निकस बात | वन में छोडी सीता मात ॥ महासती दई तुम निकारि । राजनीति करी नहीं विचार ।। ४६५१ ॥ वन है भयानक गंगा पार । अजगर तिही हा विस्तार || रहे स्यंघ तिहा खोह मकार । श्ररना भैंसा सांड सीयांर ।।४६५३ ।। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाबंद एवं उनका पुरा हसती भवं रीछ बाराह । प धूप पायें नही छांह || ये दुख कैसे सीता सहै । बहे सुमारे सहाँ में रहे ।। ४६५४ ।। राम लक्ष्मण का दवन रामचन्द्र ललमरण सुरिंग छैन । मूर्छा खाई पडे कुचन ॥ हाइ हाय करि धरणी पडे । 1 भोई वेदि जतन बहु करें ||४६५५ || 4 बिन अपराध दुःख दिया नवां || महासती जनक की घिया ||४६५६ । । सुम देख्यां विन कैसा जीव अब तो कहां पाऊं सिया । वे दुख देखि लहे थे सुख । अब फिर पाए ऐसा दुःख ॥ कोमल वन कोमल देह । दुख पशु कर है तिहां गेहू ।।४६५७ ।। कटक घर मारग नहीं जले। तिहा सीता जीवस क्यों मिलें || वन में दो लगी है बी सी कठिन सिहां उनकों वणी ||४६५८ ।। # कोई पस के उसे कीयाल पैसा दुख सौं पाणी सिमा कहां पाऊं में सीता सती मैं तो बुधि करो दुरमती ॥ रतनजी जब तो सुध दई । हनुमान तं पिता गई ।।४६६० ।। किस भेज वन मांहि । स्यावं खबर मिटं दुखदाह || कृतांस You 1 के कोई भील ले गये बीवाल || । अब में देस नौकाला दिया || ४६५६ ।। तुम बोलो सांच किए विष सहे दुःख की प्रांच ।। ४६६१ ।। सीता छोडी है कि नहीं। सत्य वचन भाखो तुम सही || जैसे कह्या कोष के भाइ । तें ले खीजी वन मे जाइ ।। ४६६२ ।। बैग मिलावी मोकू भांत ॥ सोता बिन हूं तजू परान न्यौं ज्यों लहर हिया में उठाइ । त्यों त्यों रघुपति दुख अधिकाई ॥४६६३॥ वस्त्र फाडि पघडी मुंइ अरि । महीपति खाई ता लखमरा खागय। मूरज़क्त । मानु भए प्रति का अंत ।। ४३६४ ॥ करें बंद सीतल उपचार त उहं कु भई संभारि ॥ हा हा कर नित करत बिहार । परजा सकल दुःख के भाइ || ४६६५ ।। घरि घरि रोवइ पीटर लोभ । घरि घरि करइ सीता का सोग नो महीना सोग में गये । लखमरण समभावं विनती किए । ४६६६ ॥ सीता सीलस सु पुनीत । ता थे राख्ने मनन चित । सील सहाई होय सच ठौर । पुन्य बराबर समा नहीं और ||४६३७ ।। जल पल महियल सील सहाइ । बन बेहरा जिल्हा लागे लाइ || परवल समुद्र विषम जो होइ । धरम सहाई कहैं सब कोइ ||४६६चा Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपपुराण मैं जाणु' सीता ने मुई । करो पु नि चिता कछु नहीं ॥ भद्रकलस तब लिया बुलाह । देह दान सब को मन भाइ ॥४६६६11 रामचंद्र राजसभा संभालि । मन त टर न सीता सालि ॥ बहुत दिवस में मूले दुःख । राज भोग में मान सुख ।।४६७०।। प्रीतम बिछुड दुख घणां, भूल नहीं दिन रयन ।। सीता ने वनवास दे, कैसे मान चंन ।।४६७१।। हलि थी पपपुराणे राम विलाप विषानकं । ६२ षां विधानक पोता के पुत्र अन्म चौपई पूरण गर्भ भया नव मास । श्रावण सुदि पून्यू परगास । श्रवण नक्षत्र उत्तम शुभवार । जुगल पुत्र जन्म्या तिह बार ।।४६७२।। लवनांकुस मदन कुस और । तात अधिक दिराज ठौर ।। जोतिगी पंडित जोतिग साध । भले मुहूर्त गुनां प्रगाघ ।।४६७३।। इन सम बली न होह है मान । महापुनीत धरम की खांन ।। बाघ ग्रह सम रणवास । सकल लोक अति करें हुलास ।।४६७४।। दांन मान सम ही कू दिया। घर घर रली बघावा किया ।। परियण की पाई सक नारि । सब मिल गायें मंगलाचार ॥४६७५।। कर नृत्य गुनीजन सब प्राइ। गावं ताल मृदंग बजाइ ।। ढोल दमामा करना । वीण बांसुरी अन सहनाइ ।।४६७६।। भांति भांति के बाजा बजै । सुनत सबद मन सुख ऊपज ।। बहुत नारि सीता के संगि । करें सेव सुख पावं अंग ।।४६७७।। बालक्रीडा निस बासर ग्राग्या में चलें । दोनु बालक शसी में पल ।। तेल सबटनों पर भसमान । सोम दोन्यू चंद्र अरु भनि ।। ४६७८।। पल पल घटियां बर्थ कुमार । बदन जोति शशि की उणहार ।। निकस्या दंत तारां की ज्योति । नख करांत की सोभा होत ।।३६७६ ।। बालक लीला सीता देखि । मुल्यो सोग इनांन प्रेषि । कबई हंस कबहुं करें रोज । चल गुडलियो उपजे चोज ।।४६८०।। उ7 लागि अंगुली गहि चलें । गिरं भूमि ते सोमैं भलं ।। कबहूं जननी गोदी लिये । लपटें कंठ महा सुख दिये ।।४६८१।। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभा एवं जनका पद्मपुराण अध्ययन पाले पोसे हुए सचेत । सब मिलि करें उनों सों हेत ॥ सिद्धारथ मुनि प्रागम हुआ । राजद्वार प्रबेस जदि हुवा ||४६८२ ॥ स्टारविख ॥ पट बैठा तिहां रत्न प्रमोल ||४६८३ || प्रखान बोले ग्रासीस || सीता माता करघा धरम वृद्धि मुनि बोले बोल । लेई प्रहार या मुनि ईस । सीता सु पुछा विरतांत । सुष्या भेद कांपे सब मात ॥ ४६८४ ।। बे दुख सुरिश उपजी मत दश । धरम उपदेस सीता कू दिया । दो पुत्र प्राये सिंह बार | दरसन पाय कियो नमस्कार ।१४६८५।। ४११ दो रूपवंत गुणवंत सुंदर देह महा बलवंत ॥ कोमल चर नख जोति सपार । खंड पयोधर सीलं इकसार ||४६८६ ।। कटि हरि हिरा दिसतार भुजा अनोपस जोति पार || कर कोमल नख असेत । कंब ग्रीवा बच सहेत ||४६८७ ।। उष्ट कपोलों हीरा से दंत | मुंह कवांग दे सोभावंत || बदन जोति सोमं सिर केस | स्याम वर्ण सु विराजं भेस ॥४६॥ महा अटल सुदर्शन मेर। गुणगंभीर सागर के फेर ॥ इनके गुरु इनही ते धरणें । तो मुख गोचर जाहि न गिरणे ।। ४६८६ ।। ई सरस्वती आपण मुख कहे । सीता सुत गुण पार न लहैं ॥ मैंसे चालक देखे उन मुनी । विद्या पढाइ किये बहु गुरणी ||४६९० ॥ एक बार गुरु देहि बताई । वे फिरि पढि सुगावें समझाइ ॥ विद्या पछि पारंगति भए । रवि सा तेज ससी किया सम थए ।।४६६१ ।। जिहां लौं थे राजा मरु' रंक | इनछ सुरिए मान सब संक ।। बज्रबंध कु मिले सब आई | करें सेव सब मस्तक नाइ ॥ १४६६२ ॥ जिहां विकले दोऊ कुमार | देख रूप मोहैं सब नारि ॥ उनके वित्त धर्म का ध्यान | पापन गर्दै मन अपने जान ।।४६१३।। बेद पुराण सुन मन लाइ । मिथ्या मारग चित न सुहाई ।। सम्यक दर्शन सम्यक ग्यांत । चारित्र भेद के करें बखान ॥४६६४ सब पर छह धरम की करें। राजनीति विघ समझें खरें । सस्त्र विद्या धनुष टंकार । वांण विद्या सीखे वह सार ||४६६५ ।। दोन वीर सब गुण संयुक्त 1 महासती सीर्वा के पुत्र 11 सोहई मुकट वस्त्र बर मंग बहुत कुमर करें सेवा संग ।।४६६६ ॥ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रपुराण सीता देखि कर मन भाएंद । जाणे दोक सूरम चंद ।। पुण्यवंत ए दोऊ वीर । कंचन बरण सब पणे सरीर ।।४६९७11 बध मन भया हुलास । मनोवांछित मन पुगी पास ॥ सब भूपति में कीरति बढी । दिन दिन कला प्रति ही पड़ी ॥४६६८। निरभय राज कर प्रांपला । पूजा वान मन लाया घणा ॥ दया अंग विधि पाने भली । कर राज मन में प्रति रली ।।४६९९ अखिल पुग्यवंत जित जांइ तिहां रिध " धनी सुख संपति अधिकार जीत पावे अशी ।। रहै घरम सु प्रीत कला दिन दिन बधे । लयनांकुरा सुपुनीत क्रांति पल पल चढे ।।४७००।। इति श्री पद्मपुरारपे लबनाकुस उषय भव विधानकं ६३ वां विधानक चौपई खवनांकस भए जोवन भेम | वनजंघ चितवं नरेस ।। लक्ष्मीदई राणी सुर ग्यान । ससौ पला पुत्री गुणखान ।।४७०१॥ कन्या बत्तीस उनू की साथ । लम कू विवाह दर्दा नरनाथ ।। रहस रली सुबीते घोस । कुस' कारण विचार प्रब होम ॥४७०२।। किस राजा मैं भेजा दूत । ताक पुत्री रूप संजूक्त । माने वचन ढील न करई । मेरा कझा वेग सिर ढरई॥४७०३।। कूस के लिये पृथ्वीवर के पास दूत भेजना पृथ्वीवती नगरी का नाम । पृथ्वीधर है जिरा ठां राव ।। अमृतवती राणी सुन्दरी । कनकमासा बाकं पुत्तरी ।।४७०४॥ अंसी कन्या किसको बरं । भेजो दूत कारण इह सरै ।। पठए दूत प्रथषीधर पास । गए बसीठ कन्या की प्रास ॥४७०५॥ नमस्कार सभा पइठ । निरम वाक कहै अति दीठ ।। बअजंत्र घर भाणज दोड । रघुवंसी जारगें सब कोइ ।।४७०६॥ लन को पुत्री दई अापणी । वत्तीस प्रवर राजा की धरणी ।। कनकमाला तुम कुस तू देह । मेरा वाकि हिंए धरि लेहि ॥४७०७॥ भूपति सुणि कोपे तिर बार । अरे मूढ कहो बात संभारि ।। दन वन फिरती आणी बहन । प्रवर वा कुंथार्ग के चिहन ।।४७०८।। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभावंव एवं उनका पमपुराण ४१५ पृथ्वी पर का कुपित होना उसके जरणे भारिणजे किये । जाति कुलीन विचारी हिए ।। यूही कन्या दोन्ही ताहि । असा मूरख मैं तो नोहि ।।४७०६।। सेरा दोस कबहू नहीं दूत । प्रभू के वाक्य कहै संयुक्त ॥ बर के जब इतना गुण होइ । तब कन्या पावै वर सोई ॥४७१०।। उत्तम कुल उत्तम ही जात । सीलवंत धन होइ विख्यात || रूपर्वत अवर वेस परमांन । बल जोवन स सुभ धान ।।४७११।। विद्या गुण लष्यण सिंह जाः । -हनुभट सारे पर करण । ताकू दीजे कन्या सही । कर्मकलंकी नै देणी नहीं ।।४७१२।। बोल दूत राजा सो फेर । रामचंद्र सुत जाण्यो सुमेर ।। सीसा सरक् गर्भ त भए । रघुबंसी सम अन्य न थए ।।४७१३॥ निरभय मन राख्यो पापणों 1 कन्या दे सुख पायो घणों ।। क्रोघवंत बोले भूगतीं । तो मैं बुधि नहीं है रती ।।४७१४।। राज समा बोलजे सोच । बिन विवेक तेरा ह लोच ।। घका दिलाइ दीनां है काहि । वंच्या दूत पड़ी थी माळ ।।४७१५॥ बघ नै सणाया भेद । भूपति के मन उपज्या खेद ।। में तो मुखतं वचन निकाल । मान्या नहीं प्रथवीधर भूपाल ।।४७१६।। अन्य बचण सुनाया भेद । होई दोस अपणो लगाउलवेद ।। सबके मन पावं संदेह । किर कारण उन करघा न नेह् ।।४७१७।। लाग खोज सगाई फिरें । अब हूँ जाइ समझाउं खिरै ।। बनजंघ पृथ्वी ऊपर चढमा । प्रथवीधर राजा सौं मिल्मा ।।४५१८।। भगनी सुत मेरै इह बली । रामचंद्र की कीरत है भली ।। कन्या देह विलम्ब मति करो । मेरा वचन सत्य चित में धरो ।।४७१६।। बोल प्रथईघर समझाइ । सीसा में होता गुरण राई ।। तो रामचंद्र क्यू दई निकाल । तो में प्रकल नही भूपाल ।। ४७२०।। पहली भेज्या या ते दूत । प्रब तुम ही पाए पहुंत ।। जिन विवेक तू है अरमान । प्रपणी भाप घटावं कान ।।४४२१॥ वनजंघ एवं पृथ्वीपर में मुख मान भंग हुवा बघ । निकल्या कोप ज्यू केहरी संघ ।। लूटघा नगर मचाई रोर । देस परगने मारे रोरं ।।४७२२।। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ पद्मपुराण विजयारध था धारणेदार । सनमुन पान करी उन मार ।। झूझ विजयारथ धरणी पट्या | अंसा सबद प्रथीपर सुण खरा ।।४७२३॥ देस देस के बुलाए मित्त । सेना जोड़ो जुघ की रीत ।। बनजंघ के पुत्र सुणी । उण भी सेना जोडी धरणी ।।४७२४।। लवकुश का युद्ध के लिये प्रस्थान दोन्यु कुमर रहसि मनः भया । कर माज साका हम नया ।। एले घने काहु फू लोग । हम दोनू उस सेना जोग । ४७२५।। सीता कहै तुम हो लघु बस । रण में कैसे करी प्रवेस ।। कहैं कुवर हम स्यंच समान । हरूली भाजै अति बलवान ।।४७२६।। ए कीटक कहा सरभर करै । सत्री रण में ते क्यु उरै ।। करि सनान पूजे जिनदेव । भोजन भक्ति करी गुरु सेव ।।४७४७।। बागा पहरि बांधे हथियार । पंच नाम पडि बारंबार ।। रथ परि चढे पाय प्रापरणे । प्रायुध संग लीने तहां घने ।।४७२८।। बहते मग चले सामंत | उरलें प्रथवीधर बलर्वत ।। बज्रबंध प्रव ईधर लई । दोउधां बहोत सूरमां पड़े ।।४७२६।। बज्वगंध दीए हाइ । सधनांबुस सब प्राए धाइ ।। जैसे स्यंघ सारंग कु गहै । भाज पसु सुधि न रहै ।।४७३०।। जैसे कई पाक की उर्ड । प्रथईधर की सेना सुई ।। पग धरणे कु. रही न होर । पड़ी लोथ भाग रण छोरि ।।४.७३१।। प्रथईघर का कंपे गात । पोछ छोडे दोन भात ॥ तब लवनाकुस बोले बोल । चेत वचन अव का करें भोल ।।४७३२।। हमारा नाम धरै था भंड । अब काई छोई क्षत्री अँड ॥ क्षत्रीकुल हूँ पीठ न देइ । तू कलंक अपने सिर लेड ।।४७३३॥ सनमुख पाइ अझ काइन करं । गर्व वयण अब कां बीसर । प्रथिवीधर छोडे हथियार । हाथ जोड ठाठा तिण चार ।।४७३४।। तुम हो रामचंद्र के पूत । तुम प्राकर्म कोई न सके पुहंत ।। मो परि शिपा करो कुमार । तुमसा बली न इस संसार ।।४७३५।। दोह कर ओरि कर बीनती । बच्चध मिलिया भूपती ।। कनकमाला मदनांकुस को दई । मन की खटक समली मिट गयी ||४७३६।।। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाव एवं उनका पद्मपुराण ४१५ लवकुश की विजय बहुत विघन प्रथवी धर पान । देई भेट राख्या सनमान ।। भुगति भोग बीसे बहुद्यौस । बिदा भए बाले मन होस ॥४७३७।। एक सहस्र राजा ने साथ 1 विजय देश सौ भूपति बोधि ।। पोदनापुर और बहु नन । राजा अणि मिले तिहा सग्र ।।४७३८।। गिर केलास उतारी संन । नंदचारजीत भए सुख चैन । महा गंग तें उतरे पार । बहुत तने कीया निरधार ।।४७३६।। देश परगना अने बह गाम । साध्या घणां राजा के नाम ।। उहां ते बल देस प्रापरणे । नरपति साथ लिए निज धरणे ।।४७४०।। पुडरीवनी रहि कोस सात । सतख वैठि सीता मात ॥ उड़ी धूल छाये प्राकास 1 पूछ सीता सस्त्री जन पाम ||४७४१६ वे कहैं कोई नरपति आय । तात रज उई बहु भाइ ।। वनजंघ में पहुंची खबर । लवनांकुस मारे अति गवर ।। ४७४२।। जीत्या देस परगने घणे : बहतराय सेना संग बणे ।। सीता सणी पुत्र की बात । उपज्या मुख पर हरपित गात ।।४७४३।। वनजंघ प्राण्या इह दई । हाट बाजार छावो सब नई ।। गली गली हवा छिड़काव । कीया महोछव राख्या भाव ॥४७४४।। सीता कू किया नमस्कार । बज्रजच मिलिया तिण बार ।। घरि घरि हुवा प्रति प्रानन्द । ए प्रतापी हैं ज्यों सूरज चंद ।।४७४५।। निरभय कर निकंटक राज । भई जीत मनवांछित काज ।। बजहंघ का प्रगट्या प्रताप | सुख माही भूल्या दुस्ख संताप १४.७४६ सोता रहैसी पुओं में देखि । मन संतोप्या लस्यण गुण प्रेषि । सकल लोक परिजा प्रति सुत्री । तिहपुर कोई है नहीं दुखी ।।४७४७।। . हा पुण्य बडो तिहं लोक में, धरम भाव भरि चित्त ।। सतः कीरत प्रागली, घरमै सुख अनंत ॥४७४८।। इति धी पापुराणे लवनांकुरा दिग्विजय विधानक ६४ वां विधानक चौपई राम लखमण चित प्रांशी सिया । मोह उदय वे पाकुल भया ।। कृतांतवक्र को दे उपदेस । सीता सुष लेहु फिरी तु प्रदेस ॥४७४६।। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ पद्मपुरा कृतांत ए या पाई । सिंहनाद वन हेरया जाई ।। पर्वत गुफा जोई सब ठाम | तिहां न कोई मामुष्य नाम ॥१४७५० ॥ नारद मुनिका भागमन नारद मुनि मामा पुंडरीक । सह जगत में हैं पूजिनीक 11 जंघ लवनाकुर तिहृा । नारद मुनि बैठा था जिहो ।।४७५१ ।। देखा मुनि उठि ठाका भए । नमस्कार करि आवर बहु दिये ॥ पट बैठाये नारद मुनि सीलवंत नारद प्रति गुनी ||४७५२ ॥ श्रागम करि कुवारथ किये। कवण कवण तोरथ में गए ।। नारद मुनि कही सहु बात । जिह जिह कीनी तीरथ जात ||४७५३ ॥ रम सुखाया पढ़ा श्लोक । वर्णं समझाए तीन लोक ॥। बागी सुसिन करें उडोत | आसीरवाद मुनि कहे बहोड ||४७५४) रामचंद्र लक्षमण वा तेज । सदा बिराज सुख की सेज ॥ दिन दिन कला तुम्हारी जोर। तो सम बली न दूजा और || ४७५५ ।। लत्रनांकुस बोलीया कुमार । अंसे हैं कुरण बली अपार ॥ इस विष हमने असीस तुम दई । करण बंस उत्पन्न ते भई ।।४७५६ ।। बिसु समझाच मोहि । हम यह बातें पूछ तोहि ॥ सुमेर प्रंत पहुंचे कि भांति ॥ ४७५७ ॥ नारद कहे सुरउ बिरतात रसना सहस्र होई इकबार | जैसे सायर अगम अथाह । बालक कर पसारं वाह || ४७५८ ।। राम लखमरण गुण लहुं न पार ॥ वह समुद्र स को पेर । रामचंद्र गुण अँसे फेर ॥ तीन लोक के वह जगदीस सुर नर सकल नवाबें सीस ।।४७५६ ।। राम नाम तें तु पाप । रोग विजोग मिटे संताप || इक बंस कुल उत्तम आदि। धरम क्रिया सब ही में बाधि || ४७६० दसरथ नृप प्रतापी खरा । क्यार पुत्र गुण लक्ष्यण भरा || रामचन्द्र प्रथम भी और उनसों सकल विराजे ठौर ||४७६१ ।। I लखम सेती हैं बहु प्रीत भरध सत्रुधन हैं महा पुनीत ।। क्या कुंवर दसरथ दीया प्रयोध्या नाथ भरभ कु कीया ||४७६२।० सूरजहास लखमरण तिहां पाई। खरदूषण सुन मारा ति ठाय ।। अन चीते सु कीनी चोट । संबुक हृण्यां विवेकी बोट ||४७६३ || Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनि सभाचंद एवं उनका पापुराण रामलखण दीये बनवास । सीता संग रही रनवास ।। दंडक वन में प्राश्चम लिया । संवक कुबर तिहां तप किया ॥४७६४।। पसवात्ताप करें मन माह । विन अवगुण हत्या विवेकी छसंह ।। बार बार रघुपति पछिताहि । होरपहार मिट किह भाइ ।। ४७६५।। खरदूषण मुरिण कीनां जुष । राबरण करी हरण को बुध ।। सीता कू रावण ले जाय । रावण मारि सीता ले प्राइ ।।४७६६।। अजोध्या पाए जीती सब मही। इन समान हरपति को नहीं ।।। करम सर्द हवा तिहां माण | सीता कादि दई बन बारा ।।४७६७।। मबनांकूस बोल तिह बार । किरण अवगुरण पर दई निकार ।। नारद कहै सीता की कथा । पाठ सहल में सीता समरथा ।।४७६८।। जनक सुता सत सील को खांन । सीता सम कोई सती न प्राण ।। परजा दोख लगाया प्राइ 1 सुणी बात जब रघुपति राज ।।४७६६11 ता कारण के दीनी काद्धि । परजा के सिर दोष इह बाढ ।। इसा पाप ते पाहां निसतार । परजा गह्या पाप का भार ।।४७३०! बिन अवगुण जे दोस दे, तेई मूल प्रयान ।। अंतकाल दुम्न मुमत करि, पाच नरक निदान ।।४७७१ चौपई लवकुश को प्रतिक्रिया मदनांकुस बोलीमा कुमार । राम लस्यमण जे बुध अपार ।। उनहें करी न न्याव की रीत । तो इह वरणाइ हे विपरीत ।।४७५२१॥ अपणे घरका करया न न्याव । उनके घर का है खोटा भाव ।। जिनको दई हमकौं असीस । विन विबेक तू है रिष ईस ।।४७७३।। बोल्या नारद सभा मझार । रामचंद्र इह किया विचार ।।। परला दोष लगाया घणां । बहुत भांति रघुपति में सुण्यां ।।४७७४॥ नारद का पुनः प्रागमन निश्च सीला का सत रहा । लोकां भूठ बचन इह कह्मा ।। जे नही राखु लोकाचार । तो अपकीरत होय संसार ।।४७७५।। जुग जुग कथा हमारी चले । मोह कियो कोइ कह नहि भलं ।। जे पृथ्वीपति महै कलंक 1 श्रवर कुमारग कहै निःसंक 1॥४७७६।। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपुराण एक दिवस है मरस्य निदान । ताथै बुधि करीजे जान ।। उन सम दूजा नहीं है और । रामचन्द्र लखमण की जोर ॥४७२७॥ . चक्र सुदर्शन उन के साथ । तीन लोक में इहै नरनाथ ।। उहां त उठि सीता के ग्रेह । नारद मुनी दिगम्बर देह ।।४७७८|| दरसन देख कियो नमस्कार । सिधार्थ बैठा तिह बार ॥ पूछी सीता नारद सू बात । किरण किरण तीरथ कीनी जात ॥४७७६11 नारद बोले तीरथ कथा । सब फिर बोले सिघारथा ।। परे नारद तु काहि है मूनी । कलह करम करता फिर घणि ॥४७८०।। प्रापस में भिडावं जाइ । तो कू बहुत कलह सुहाइ ।। नारद कहै हम क्या किया । सहज मुभाव उपद्रव किया ।।४५८१।। मो दुखरण लाग कहां । सीता रोवै नयन जल दुहा ।। लवनांकुम पीना गये । देगा या लोन में “ए !!..।। माता कहो तुम सांचे व्यन । कारमा कवन भरे तुम नयन' ।। जो कोई तुमसे बोस धुरे । ताकु हाथ लगाउं खरे ।।४७८३ । जीभ निकासू हतों पराग । जे कोई कह कुवचन प्रान ।। सीता कहै पुष तुम सुणों । कंत विजोग दु:ख उपज्यो घणों ।। ४७८४।। पूछ फुपर कहो तुम मात । हमारा कहाँ बस है तात ।। विवरा सबाल ऋहो समझाय । तो हमारा विकलप मिट आय ॥ ४७८५।। पिछली कथा कही तब सिया । बहोत भांति उडै है हीया ।। जैसी कथा नारद पं सुनी । तैसी बात सीता सब भणी ।।४७८६।। लबकुश द्वारा प्रयोध्या पर प्राक्रमण करने के लिये प्रस्थान सर्व उठ्या कवर रिस खाय । रामचंद्र चित दया न प्राय ।। गर्मवती कूदई निकाल । प्रब बैर लेहुं पिता 4 जाइ ॥४७५७।। घेर अजोध्या मांडू जूध । अब उनकी खोउं सब सुध ।। सेन्या जोहि प्रजोध्या चले । सूर सुभट संग लीने भले ।।४७८८।। एक सो स्याठ जोजन का अंत | भले भले निकसे सावंत ।। अयोध्या सीम पहुँते प्रांन । लूटे नगर बहुतेरा थान ॥४७८६।। डेरा दीया नदी के पार । रघुपति ने पहुंचाई सार ।। कोई आया बली नरेस । लूट पास पास के देस ||४७६०।। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समापंच एवं उनका पपपुराण ४१६ लवकुश द्वारा युद्ध जुध निमित्त उतरचा है प्राइ । वाका दल बल कामा न भाइ ।। रामचन्द्र लस्त्रमण ने सुम्यां । मन में सोच किया प्रति घणा ।।४७६१।। प्रेसा कुरण भूपति बलवंत । जिसका दल कहिए नहि अंत ।। वे चद्धि आए अयोध्यापुरी । ल्याई उणु मरण की घड़ी ।। ४७६२।। देस देस को लेस पठाइ । भूघर खेचर लिया लाइ॥ नारद लिया भावमंडल पं गया । सकल भेद व्योरा सूकह्या ।।४७६३।। भावमंडल सुरेण सीता विजोग । मनमें बहुत व्याप्या सोग ।। लषनांकुस का सुण्यां प्राकर्म । बहुता तरणी गुमायो भर्म ।।४७६४।। नरपति घणां उनां के संग । अजीच्या पति किया भान भंग ॥ भावमंडल मन हरष प्रति किया । चढि विमान पुंहता जिहां सिया ॥४७६५ पुंडरीक नगरी मो जाइ । बहन भाई मिलिया सुख पाइ ।। सगली बात कही समझाइ । कच्ख हर्ष कम बिसमै राइ ।।४७६६।। सीता कौं बैठाइ विमान । मगन मागं पहुंचाई जान ।। सुर मर देखें कोतिक प्राइ । दुई ठां सेन्या साडी जाइ ।।४७६७।। राम लखमन सुभट, सधन बलवान ।। भूचर पेचर प्रथीपति, चढे बजाइ निसान ||४७१८।। चौपई विराधित हिरन केस सुग्रोव | नल नील अंतक घुज मीच !। महीपति निकस्या उनु माघ । सिंघ गरुष्ट बाहन रघुनाथ ||४७६६।। वजन अरु भूपति घणे | वाने वारी अग्रे वणे ।। पड़ी मार चक्र प्रा यांन । रथ गिरे पाप भगवान ।।४०००। फिर संभालि रथ ऊपरि बढे । महा कोषवंत मन बढे ।। गोली सर ज्यों घनहरं धार 1 दोउद्या सेन्या होइ संघार ||४८०१॥ हाथी घोडे रथ सुखपाल | गडी लोथ झूझ भूपाल || पग धरणे कुरही न ठौर । स्लोपत सो रए भरधा बहोरि ॥४८०२॥ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० पपुराण अडिल्ल पडी लोय परि लोथ गिरथ चूट घने ।। कां कातर लोग नाम झुम का सुरक् ।। लई लत्री लोग जाहि कूल लाज है 1 स्वामी धरम को दित करें वे काज है ॥४८०२।। चौपई कहीं घायल घूमैं हैं घणे । कहीं सुभट झूझे हैं बणे ।। घड सिर पडे वेह ते लटि । लुटहा लोग करें हैं लूट ।।४८०४।। ग्यारहै सहरू राम के इमरांब । लवनाकुस सों धरि भाव ।। पवन धेगि मिले हणवंत । अवर गए बहुते बलबंत ।।४८०५॥ सोरठा देखो कलुका भाव, जीत्यां सुसब ही मिल ।। मित्र बिछटा सव जाई, हारि जारिण बिछुड़े सवै ।।४८०६।। इति श्री पमपुराणे लवनांकुस जुध विधानक ९६ वां विधानक ચૌr युद्ध वर्णन रामचंद्र लवनांकुस लडे । मदनांकुस लछमन सु' भिडे । कृतांतवक लडे बनजंघ । लाग्या घाव विराधित संग ।।४६०७|| तवं रघुपति समुझावं ताहि । क्षत्री रण छो. किंह नाहि ॥ मेरे रथ का हुवै सारथी । घांय बेग रचें भारथी ।।४८०८।। विराधित रामचंद्र रय बैंठि | पाए मारि मारि करि बठि ।। बचावर्त समुदावतं । छो. ज्यु घनहर वरपंत ||४८०६|| उततै छोडें गोली बाण । प्रकास चक्र लखमण कर तारण ।। उन सर छोड करी तब मार 1 उडया फिरै चक्र तिह वार ॥४८१|| चक्र सुदर्शन फेरि संभार । तामैं उठे अनि की झाल ।। गडगडाट दामनी उद्योत । बसौ दिसा सबको भय होत ।।४८११।। गहे धनुष कुमर निज हाथ । टूट बाण ज्यों एक साथ ।। नक जाइ प्रकमां वई । पुण्यवंत को भय नहीं हुई ॥४८१२। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभासद एवं उनका पपपुराण ४२१ फिर पाया लछमन कर चक्र | मन में सोचें लछमन सक्र ।। अनंतवीरज स्वामी ने कहा । कोटि सिला उठावै जो इहा ॥४८१३।। हूं चारायण त्रिखंडी ईस । मेरी कत्रण सके करि रीस ।। भूचर षेचा दानव देव । सब मिलि करि हैं मेरी सेव ॥४८१४।। उनका वचन न झूठा परे । चक्रप्रति कोई अवतरं ॥ तात चक्र कर नहीं घाव । अब हूं कहा करू उपाय ।। 6८१५।। नारव द्वारा लवकुश का रहस्य खोचमा नारद सिधारथ दोउं प्राय । राम लक्षमा सू बहैं ममझाय ॥ ॥ दोन्यु सीता का पूत । बलपौरिष दो मंयुक्त 11४८ १६।। जब तुम सीता दई निकाल । बनजंघ आया भूपाल ।। धरम बहिन करि वह ले गया। नगरी का लोग हरपित भया ।:४८१७।। प्रसुति भई तिहां पुत्र दोड जण्यां । जनम महोछत्र कीने घरमा ।। लवनांकुस दोन बलवंत । इन सम अवर नहीं सात || रामचन्द्र लछमन ने सुरणी 1 अपणी निंदा कीनी घरणी ।। मक उपजी महा कुबुद्धि । करी न कछु न्याय की सुधि ।।४।१९।। सीता कूरात हुवा सहाइ । वह पाप भया हमक आय ।। सीता प्रत निकाला दिया 1 तो मान भंग हमाग भया ।।४-२०।। एक दोख चुक्या था नहीं । दूजा पाप प्रब हवा सही ।। जे अझ थे ऐसे पूत । ती दुख होता हमैं बहुत ।।४।२१।। ए थे क्षेत्र कला के सिसु । गोत बावतई हुवा न सुख ।। उतरे रम ते सनमुख चले । दोन्युपुत्र प्राइ के मिले ।।४६२२॥ लव कुश द्वारा पिता की वंदना लगे चरण रघुपति के पुत्र । कंठां विलंबन लेय विचित्र ।। धन्य दिवस माज की घडी । पिता पुत्र मिल्या हुंडी हुंडी ।।४८२३३॥ विमारण चढ़ी सीता इह देखि | मन में भानन्द भार विसेष ।। जाण्यां पुत्र महा सपूत । अपरणें मन हरखित बहुत ।।३८२४।। पुत्र प्राकर्म कु देख करि, सीता चित्त हुलास ।। पुडरीक फिर के गई, पुगी मन की पास ।।४।२५।। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ पद्मपुराण चौपई लवकुश का भयोध्या प्रागमन बनध की प्रस्तुति करें | वाका गुण रखूपति विसतरें । दयावंत घरम का अंस | तुमते रहै हमारा बस ॥४८२६।। जे तुम आय वन के माझ । सीता कु भय व्याप्या नाहि ।। सीता की तुम कीनी सेन । उनका सप्त रया इन मेव ॥४॥२७॥ वइट बढि पुहपक विमाए । रामचंद्र लखमण बलवान ।। ल वनांकुस मामें प्रारूड । पर्वत लष्पण गुण गूळ ॥४८२८।। छाया नगर गली सब झाडि । छिटक्या नीर गली सब बारि॥ घरि घरि बांध बंदरवाल । घर घर देख्ला रामही नारि ॥४०२६॥ बाल वृध्य मय प्राये लोग | देख रूप भूले सब मांग ।। कोई मारि सराहै रूप । इन पदतर कोई नांही भूप ॥४८३०॥ घन्य सोता जाके गर्भ ए भए । बोनू स्वर्ग लोक ते चए । कोई देख रही पुरमाड । सिथन भई नहुनाको काइ ।।४८३१।। सिरत पड़ें भूमि पर चीर । रही न ऊनू को सुघि सरीर ॥ स्वटी लटि कटि ऊपर प्राइ । मानू लगे भूयंगम मिराइ ।।४-३२।। म्यांम केस अति सोभा वणी । खुले हीए दोड़ी तहां घरणी ।। वे अपने मन निरम जाहि । देख लोग हंस सब ताहि ।।४८३३।। सब के मन कुमरों का ध्यान । भूलि गई सन्न ही अवसान ।। हारह मेल मोती के छाडं । तेभी टूटि भौमि परि पड़े ।।४८३४।। प्राभरण की सब सुधि बीसी । श्याकुल भई गुर की अस्तरी ।। उन के मन कुछ मात्र नहीं । सगली नारि थकित होय रहीं ।।४८३५।। ज्यों पतंग पीपक सूनेह । देखे लोइ होम सव देह ।। दीपक के कछु नाही राग । जल पतंग ता सेती लाग ॥४८३६।। रतनवृष्टि प्रति करें कुमार । प्रानंद भयो सगले संसार ।। रहस र.नी सुदिवम बिहाइ । पूजा करें जिनेस्वर राइ ॥४८३७11 वहा पिता पुत्र सों अब मिले, हुया अधिक हुल्लास ।। चैन भयो सब नगर में, पूजी मन की मास ||४८३८।। इति श्री पपपुराणे लवनांकुस अयोध्या प्रागमन विधानक ६७ वो विधानक Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाव एवं उनका पद्मपुराण चौपई राज सभा बैठिया नरेस | मंत्री कहै समऊ उपदेस ॥। लास तो मिल्या कुमार सीता ने ग्राग्गो इह वार ४८३३|| राम का चितन रामचंद्र चित ति बार सीता सती गुण लध्या सार || परिजा युं ही दूषण दिया । ता कारण हम काढी सिया ।। ४६४०|| अत्र जे सोता आणी फेर कहें लोग से भी ढेर || तो हो फिर नई उपाधि | कीजे कारज मन विच मानि ।।४८४१ ।। जे फेर प्रजा को हो दु:ख कारन कवरण हमारा सुख || चंद्रदर विरानित हणुमान । सुग्रीव नल नील प्रधान ।।४६४२ ।। रतनजी प्रादिक भूपती हिनू विचारी उज्ज्वल मती ॥ देश देश कु लेख पठाइ । भूचर घेवर लेहीं बुनाई ११४६४३ ।। करों प्रतिष्टा श्री जिनदेव । दानमान जिन गुरु की क्षेत्र ॥ सकल सिष्ट कौं यो जिमणार । सीता भी आरण सिंहं बार ।। ४६४४ ।। सब सु पू मंत्र विचार | सीता सत प्रगटै संसार || तब सीता कृ णो ग्रह इ भेज्या द्रुत सकल ही नरपति तव वहां आए व । ४२३ सब के मन का मिट संदेह ||४८४५ ।। सोता को लेने के लिये भेजना चीटी देखि चले सब गइ ॥ सहु परिवार मनोहर बरसे ॥ ४८४६३॥ । सगली भूमि हुई छिड़काय ॥ उतरे निकट जोया माइ सब को भोजन दे रघुपति कीए सनांन बहोत सिंह भती ||४८४७ पंचामृता जीमवें भूप । सोंचा तंबोल बहुत श्रनूप || उत्तम गंगा जी का नीर । प्रासुख संवार कलेस भरि नीर ||४६४८ || कनक कटोरे पि नरिंद बैठी सभा तिहां पंति बंद || भावमंडल विराधित हनुवंत । भभीषण सुग्रीव सामंत ॥ ४८४६ ॥ नल नील चन्द्रउदर राय । रतनजी रघुपति राड ।। पुरुषक निर्माण दिया इन संग । श्रन्य भूप भेज्या बचजंघ ||४८५०१२ पुंडरीक में पहुंचे जाड़ सीता के सब लागे पाइ ॥ ईनानं देख सीता गहभरी। विद्याधर बहु प्रस्तुति करी ||४६५१ ॥ चलो माता तुम हमारे साथ । तुम कारण भेज्वा रघुनाथ ।। सीता कहे परजा हो सुखी । हम कारण मति होवो दुखी ||४८५२|| Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारापुरा उन प्रसाद हम सुख में रहै । उनुके लोग बुरे सब कहै ।। तार्थ रहैं हम याही ठाइ । मुख सों राज करो रघुराइ ।।४८५३॥ फिर बोले विद्याधर वैन । कर प्रतिष्ठा पूजा जन ।। ता कारण पाए सब लोंग । चलो बेग श्री जिन जोग ।।४:५४|| सीता का प्रागमन सीता चढी पहुँपक विमान | आई प्रजोध्या जव लोप्या भान ।। भई रमण तब प्राथम लिया । महेन्द्र बन में दासा किया ।।५।। बीती मिस रवि कीयो प्रकास । देखी प्रजोध्या सुख का बास ।। सीता संग सहेली घशी । झोला डोली बहु विध यणी ।।४८५६।। रथ पालकी प्रवर चकडोल । गज मवयंत चले भकझोरि ।। बाजे तिहां प्रानंद निसान | तास सबद मुख उपजत कांन ।।४५५५। बंभन बहुत वेद घनि करै । भाट विरद मुगा के मन हरै ।। सब त्रिय आई दरस निमित्त । भई भी गलिये बहुमंत ॥४-५८।। नमस्कार कर सब कोई । जै जै सबद दसों दिस होई ।। सुर नर किनर जय जय करै । पहप वृष्टि प्रथिवी पर परं ||VER६|| रतन वृष्टि बार सीता सती । पहंघी तिहां बैठे रघपती ।। सन मिल उठ करी इंडोत । लोगां प्रस्तुति करी बहोत ।।४६६०।। रामचंद्र की कुटी कठोर । स्यंघनाद बन आये छोर ।। तिहं वन वेरिन सर सब कोइ । निमनै मरणा बईठा होइ ।।४५३१॥ एं तह वनने जीवत फिरी । मैसे बन दिल्या नहीं धरी ।। ज मै याही भेजी बुलाइ । याक चित्त अमर खन पाइ ॥४८६२।। उठी दौडि उन ही के संग । परजा में होने मान मंग ।। गीता मों वोल रामचन्द्र । जे हम करी रावण सो दुद ॥४८६ ।। तेरे कारण किया संग्राम । रावण ने पहुंचाया जम घाम ।। जै मैं जाणता प्रेमी वात । प्रजा दोष कहै उह भांति ।।४६६४।। तो क्यों करता पाप की छाए । इतना दोष लिया मैं आप ।। रण में मारे इतने लोग । घर घर च्याप्या सोग विजोग ||४८६५11 जितनं दोहु घा अश्या जीव । अंसा दोष लीया में ग्रीव ।। असा दुख सों प्राणी सिया जाइ । जग में यह चरचा चली इंह भाइ ।।४८६६॥ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभापंच एवं वनका पद्मपुराण ४२५ तो हम तोकूदई नीकाल । मेरे मन उपज्या इह साल । सीता कहै सूपति प्रान । मेरे सक्षा तुम्हारा ध्यान ॥४०६७।। तुम हो तीन बंख का पली ! न्याय न कीया एक टक रती ।। जई घर का कर सको नहीं न्याव । मौर का करिहो किह भाव ॥४८६८॥ गरभवती काही वनबास । मारत ध्यान में जीव का नास ।। मरकरि भ्रमती नीची गती । तुम को होती पाप की पिति ।।४-६६।। तीन जी का होता दुख । सुम को होती नहीं गति मोक्ष ।। बिन बिबेक तुम अंसी करी । जीव दया चित्त नहीं धरी ।।४८७७।। फिर कर वोलें रघुपति वैन । लेहु दिव्य हम देख नैन । जो में तेरा सांच पती जू। परजा देसै तदि में नहिं खिजू ।।४८७१।। अग्नि परीक्षा मीता कहै लेहूं दिव्य पांच । अब तुम देखो मेरा सांच 11 साकं हलाहल ताता लोह । तराजू बीच तिष्ठावो मोह ॥४९७२।। मो में सत लो में सरभर रहूं । देखो प्रत्यक्ष सील बस लहू ।। रचो चिता दाशनल देहु । त! मैं मेरा परचा लेहु ।।४८७३।। जो मैं सत्ती न व्याप प्राग । जो कछु दोष तो प्राण ही त्याग ।। रघुपति फहै चिता हु रचों । जोवत हु पेरै जाणों सचो ।।४८७४।। सुण लोग पे बहु भाइ । रामचन्द्र तें कछु न बसाइ ।। अंगारा तन के छुवई । दाभं सुरंत प्राणन गवई ।।४८७५।। महा भयानक ज्याला व री । जिनमां बचे न एको घडी ।। अगन मांहि भस्म होइ जाइ । अंसी काहि कर सब पछताइ ।।४७६। सिद्धार्थ बोलियो नरिन्द्र । म्हारी बात सुणों रामचन्द्र ।। मैं तप किया वर्ष बहु सहस । पंचमेर नीरथ जिन अस ।।४८७७१। प्रक्रतम अत्यालय जिन गेह । करी तपस्या मन बच देह ।। जे कछु हुदै सीता में कलंक । ए सब जागि निर्मूल निसंक ।।४८७।। अंसी नारद ने भी काही । रामचन्द्र मन बैठो नहीं ।। सीता का सत्त महा अटल । जैसे है सुमेर अचल ।।४८७६॥ गै सुमेर घसि जाइ पाताल | सीता का सत्त खोटो चाल ।। रमि का सेज भी होई हीन । सीता का सत होई नही खीन ||४८८|| Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ पम्पुरास रामचन्द्र ते डाए मोज । खोदो बन में तुम होम होइ ।। राम हुकम ले बन में गए । खोदै घरती मन अधिरज गए ।।४८८१।। राजनि कठ को मेट कोण । बरज़ मके को ढलती पौन !। प्रगनि कुड क्रौं खोर्दै भूमि । सम नगरी में मांची धूम ।।४८८२।। महेन्द्र उदय वन में मुनि एक । सरव मषन सूपरम की टेक ।। तीन रतन हैं वाकै सत्य । प्रातमध्यांन दया सुचित ।।४:५३|| दस लष्यण मुरण ताकै सल्य । मास उपवास पारण पित्ति ।। विद्युतबतक व्यंतरी नाइ । मुनि कू दुख दिया बहु भाइ ।।४८८४।। इहां श्रेणिक नै प्रश्न किया । किम 'उपसर्ग जष्यणी ने दिया ।। श्री जिनवांगी अगम अथाह । मिट सकल झिदा की दाह ।।४८८५॥ पूरव दिसा गुज पुर नन । सिंघ वक्रम राजा बल अगर ।। श्री देई अस्तरी सम्पक विष्ट । घरम करम करि महा थष्ठ ॥४८८६।। सरव भूषण ताथै उत्पन्न । रूपवन्त सोहै लष्यन्त ।। जोवन सम ते कुमार । पाठ सहस्र विधाही उत्तम नारि ॥४८८७|| कर्ण मंडला पर की धणी । रूप लष्यण गुण लावन्य वणी ।। संगि सहेली बाठो पासि । देख्या चित्र सिराहई सासि ॥४८८८।। कर में पट चित्र का गहै । वारंवार सराहना कहैं । हम सिखर का था सिख्यारूप । सवतं पुरुष है वह अनूप ।।४८८६।। एक सनी ऐसा मिध हसी । तेरै मन ए ही जुरत बसी ।। हैम सिखर सौं संगम करि जाहि । मंसी सुरिग राणी मुसकाइ ।।४८६०॥ राजा कानि पड़ी इह बात । क्रोधवंत हुवा वद् भात ॥ खोटी चरचा एक में करें । पर पुरुष की इच्या घर ।।४८६१॥ विभचारिणी समझी मनाहि । मह्या खडग सौं मा जाहि ।। त्रिय परि कहा उठाकं हाथ । स्वास्था रूपी हैं सब साथ ॥४८६२।। झूठे सुख में राच्या जीव । इह फुटंब सब दुख की सीव ।। राजि कुटंच विभव सब त्याग । सरख भूषण उपज्या बैराग ।।४८६३|| लौंचे केस दिगम्बर भेस । हुवा जती गुरु के उपदेस ।। वा इह घिध तप भातम जोइ । क्रिया चौरासी इह विष होइ ।।४८६४।। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुलि सभाचस्व एवं उसका पद्मपुराण करि बिहार अजोष्य भाइ | करें तपस्या मन वच काइ ॥ करण मंडलर राणी सुभ पाइ रो पोर्ट बहुत रिसाइ ||४८६५ मैं उनकी कछु करी न सोड। उनी बिचारी मन में और अब मैं वा परि तज परान यक्षिणी द्वारा मुनि पर उपसर्ग भई यक्षिणी यक्ष के गेह ॥ सर्व भूषण की मैं भी नारि ॥। ४८१७।। श्रम पांरणी बिन छोडी देह तब मम मांही अवधि विचार दिन भरगुरण मुझ दूषण ल्याइ । वह तप करें अजोध्या जाइ ॥ श्रव में उनसों मा गैर बंधन बेडी बांध्या मुनि घेर ||४८६८|| । भारत रुद्र घरो जन ध्यान ॥ ४६६६ ॥ " जय मुनि चाहया लेा महार । बंधण छूट गए लिए बार || अक्षरणी कुं तब उपज्या क्रोम ल्याई प्रगति तिहां बरणी न सोध ॥१४६॥ अंतराइ मुनि फिर करि चल्या । मास उपवासी पारणा टल्पा ।। बहुरि उमा बाहार निमित्त ग्रांधी चली मारये थकित ३४२०० कांटे मारग मांहि बिछाइ । पग घरों का नाही संहि || बाही ठांम पाप्पा मुनि जोग । नगर मांहि तं प्रायें लोग ||४१०१ ॥ हेबा दे थैली तिहा बारि ॥ थैली पडी साथ पग हेठ ||४२०२ ।। व्यंतरी गई सेठ भंडार । प्रभात भया तब खोजें सेट I आए सकल प्रचंभ होइ । कोई कहै जो होता चोर ध्यानारूढ खडा मुनिराज । कुतो वांच्यो गलां सु प्राय ॥ भविजन मायें मुनिवर जात । टालि उपसर्ग पखाल्या गाल ।।४६०४, भली बात भाखे नहीं कोई || तो क्यूं टाढा रहे इस ठौर ||४१०३ || F पूजा करी भोजन जिभा । वनमें मुनि ने गए पहुँचाय ॥ व्यंतरी रतन हार चुराइ । मुनि के गले गयी पराय ११४६०५१ राजा सुखी राज को मार इसको देख यह चरचा करें ४२७ देख्या साथ के गले मझार ॥ 1 | जनी के भेष यह चोर फिरें ॥४६०६।। मार्गे फोडे थे सेठ भंडार । प्रय इन हरया रतन का हार ॥ त मंत्री समझाने चैन । इनतो बरत भरा है जंन १४६०७१ जे इछा चोरी की घरें। तो क्यूं प्रत्यक्ष राखें गलै ॥ समझ बचन अपने घर गए। व्यंतरी चिह्न करें नए नए १४६०८ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ पमपुराग करि भृगार प्राभूषण भले । हाव भाव भूकताहल गल ।। ताल मृदंग बजावं बीण । नपन अपलाई जीते मईन ।।४६०६ ।। मार्च सरस प्राण हर लेइ । मातमध्यान न चित्त डूलेछ । माचं गावं मधुरी तान | सुनत वचन हर लई प्रान 1|४६१०॥ मन चच काया खडा अडोल । च्यापें नहीं हिया मैं बोल ।। तब बह जष्यणी नागी भई । कर मालिंगन बहु चिघ भई ।।४६११।। अपणां ध्यान न छोडं जती । विलषी भई यक्षिणी पती ।। मुख भयानक रूप विकराल । अपामारग देह की लाल ॥४६१२।। कई अजगर कई साँप । लपट दोडि देहीं संताप ॥ कई रूप न्याघ्र का करें । गज का रूप महा भय घरै ।।४६१३।। निसांफित किया यत दृढ गीत । व्यंतरी दिया उपसर्ग बहु भांति ॥ महामुनीम्वर प्रातम ध्यान । तब ही उपज्या केवल म्यांन ।।४६१४।। जं जं सबद दसौं दिस सोर । सुरपति नरपति पाए कर जोडि ॥ छाये रहे विमाण प्राकास । देख्वा इन्द्र अगनि धूम प्रगास ।।४६१५।। ताके टिंग है सीता खडी । अनि काय निकस तिहां बुरी ।। ईसान इन्द्र पूद्ध विरतांत । इह प्रचिरज देख्या इस भांति ।।४६१६।। देखैई कुड देवता नरे । तिहां कोई धीरज नहीं धरै ।। एह याकी ढिंग ठाढी कौन ! भाखो बात तो मुख मौन ||४६१७११ सौधर्म इन्द्र कह समझाद । इह सीता पटराणी रघुराई ।। सत की महिमा सुरपति को । वाहि विपत्ति सो विष परै ।।४६१८॥ इह सीता सतवंती खरी । असुभ करम तं विपत इहै पड़ी ।। इसके भाव तारणे केवली । पूछे जाइ समझ विध भली ||४६१६।। वहा सुर नर खग सब प्राध्या, अगनि कुड बिह थान ।। देखि ताहि सोचत सने, मुनि को पूछ अनि ।।४६२०॥ इति श्री पयपुराणे सर्वभूषण केवल उत्पन्न विधामकं ९८ विधामक Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंच एवं उनका पपपुराण ४२६ प्रोपई राम द्वारा पश्चाताप करना रामचन्द्र नै देखी चिता । सीता जन तो लाग हत्या ।। पछी प्रादि तिहां सूक्ष्म जीव । भया धूम पाप की नींव ।।४६२१।। स्वोटी बात मुख ते मैं कही । अमी कदे हुई थी नहीं । कठिन पइजमै बाधी माज । जे पर मसूर ग़ाख का १२२।। दोइ घेर यह विछड़ी सिया । बर मिलाग विधाता किया ।। अब यह जलं पिता में जाइ । फेरि लई मीना विह भाइ ॥४६२३।। पहिले पई चिता में अाप । माप सन्या न जाय बिलाप ।। ज्वाला फरिन जोजन के फे। मीना खडी ज्यों पर मन मेर ॥४६२४१। पंचनाम हिरदै संभाल । जिन श्री सुमरे तिहकाल || सरख भूषण को करी नमस्कार । मन बच काम सत रहे हमार ।।४६२५11 अग्नि परीक्षा में सफलता अगानि माझ से जो जवरू । झड हैं तो त्रिगण परि जल्लू ।। पंचनाम पति चिता में पड़ी । सीतल भई अगनि तिह घडी ।।४६२६|| उमच्या जल धरती में फिर । बहैं लोग धीरज नहीं घरै ।। विद्याधर गमघा आकाश | चहथां लोग बहै बहु त्रास ||४६२७।। सीता का गुण सुमरै लोग । हम सीता कु किया वियोग ।। झूठे वचन लगाया दोष । कैसे हम पावा संतोष ॥४६२८|| मीता सूमरण चित्त में प्रांन । उवरै सकल सीता के ध्यान ।। निघट्या नीर भया सुख चैन । कह सकल प्रस्तुति के बैन ||४६२६॥ जिहा थी पाग निकूड की ठौर । वण्या सरोघर बैंठक और ॥ फूले कमल भंवर गुजाहि । भले विरख तिहां सीतल छाह ।।४६३०।। कंचन पाल सरोवर बणी । हंस चकोर तिहां सारस घणी ।। जलचर जीव पंखी हैं तिहां । रतन स्यंघासन सीता जिहां ।।४६३१|| जै जै सबद देवता करें । पुहपवृष्टि बहुत ही पडें ।। लवनांकुस सरवर में घंसे । मन प्रानंद दोनू हंस ।।४६३२|| नया अनम माता का भया। जल के बीच गए जिहां सिया ।। नमस्कार करि लागे पाय । सीता भेटी हिए लगाय ॥४६३३।। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपपुराण सीता को जल त बाहिर यांन । दई विठाइ स्मंघासन थान । सत की कांति छवि सोभा धरणी । कनक सलाक प्रगनि में बरणी ।।४६३४|| सब ही का संसय मिट गया । जै जै सबद सब ही ने किवा ।। रामचन्द्र बहु प्रस्तुति करें । बन्यं सीता असा सत धरै ।।४६३५| सेरी सार न जाणी मूह । तुमको देस दिया गूढ ।। सुमारे गुण की लही न सार | तुमने परि ते दई निकार ||४६३६|| मसुभ करम जम उर्दै झुप्रा । सुख में दुःख इक च्याप्या सिया ॥ अब प्रपणा मन राखो ठौर । तुमने दुःख न होइ बहोरि ||४६३७।। आय सहस में सीता बड़ी । तुमारे लत की कीरत बढी ।। सब मिल सेव तुमारी करें । चालो ग्रह मन संसा टरं ।।४६३।। मेर सुदरसन तीरथ जात । बिजयारध पर्वत बहुत भात ।। गिरि सम्मेद कपिलापुरी । पापुर वारणारस नगरी ।।४६३६।। जिन जिन बन बिपत्ति में फिरे । अब वे सुख में देखु खरे || लंका देखो अबर सब दीप । बसे नगर जे समुद्र समीप ।।४१४०।। हमने दुख तुमको बहु दिय।। f मा करो हम पर तुम सिया ।। राज भोग भुगतो सब सुख । अब सब टल्या तुमारा दुःस्व 11४६४१।। सौता का उत्तर सीता कदै धिग यह संसार । घिग जागौं त्रिया अवतार ।। राज सुख धिग अर्थ मंडार । करू तपस्या ज्यू पा पार ॥४६४२।। त्रिया जनम फेर नहीं होइ । करू ध्यान प्रातमा सुध होइ ।। लोंच केस बसतर दीनां डारि । प्रश्रीमती प्रारजका सार १४६४३।। सकलभूषण का दरसन पाइ । को तपस्या मन बच काई ।। रामचन्द्र ने खाइ पछाड 1 भई मूर्धा घणी भई संभार ।। ४६४४।। प्रौषध वेद जतन बटु करें । सीतली बीजरणां ऊपर फिरें ।। पावन चवन सु' छांद का। बड़ी बेर में चेत्मा राइ ।।४६४५।। हाय हाई रोवं रघुरा । गए मकल' भूषण की ठाइ ।। देई प्रदष्यणा करि नमोस्तु । धर्म वृध्य कहीं मुनि अस्तु ||४६४६।।। ज्यों सुदररान मेरु के पास । जंबु वृक्ष सोहै अति उचास ।। सैंसे रामचन्द्र तिहाँ चणे । बारह सभा लोग तिहां पर ।।५९४७।। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मति सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण लखमण सत्र घन बैठा तिहां । लवनांकुस मदनांकुस जिहो । प्रभय निदान जोरै हाथ । प्रकासो धर्म श्री मुनिनाथ ॥४६४८।। सप्त तत्त्व के सूक्ष्म भेद । सत्र संसम का होय खेद ।। सदगुरु बचन सुरग मन ल्याइ । ते निश्यै पंचम गति जाय ॥४६४६ ।। सोरठा मुनिवर ग्यान अनन्त, दरसन ग्यान चारित्र सौं 1॥ कत न आवै अन्त. वाणी भेद समझामणी ।।४६५011 सायर अगम प्रथाह, ताहि कवण विध नि सके ।। ज्यू अंजुलि भरि वाह, ताही किम सरभर करें ।। ४६५१॥ चौपाई दरसन ग्यांन चारित्र संजुक्त । प्रलक्ष वाल कहगे की सक्ति ।। श्रुतग्यानी हैं वेद विचार । ते कहा जाग कहें निरधार ।।४६५२।। में मति थोडा का बखाण । अणुमात्र में भाख ग्पांन ।। जीव तत्त्व सब सौंज अनूप । एक सिध एक संसारी रूप ।।४६५३।। अजर अमर सिद्धाने सिध । भ्रम जीव संसारी विविध ।। स्वरम मध्य पाताल खास । चहूंगति भ्रम्या न पुजी प्रास ।।४६५४।। क्षेत्र काल भाव तप होइ । समफित सों दिन राल कोई ।। संगति साध लहैं तब ग्यांन । ते जीन पावं निरवांन ।।४६५५|| कर धरम पावै गति देव । मध्यलोक मानुष्य सुख एन । तिरजंच जोनि में दुख धग मूल । पापै लहै नक अम्ल ।।४६५६।। नरकों के दुख वर्णन सप्त विसन का सेवण हार । सात नरक दुःख सहे अपार ॥ रस्त शर्करा बालुक पंक अरु घूम । तम महातम ए सानो भूमि ।।४६५७।। हुंडक देह काया बहु वडी । मूख पियास सीत उसन बड़ी ।। मुस का छिद्र हैं सुई समान । दुख का पंत न जानु समान ॥४६५८1 ज्वारी बोर का काटे हाथ । परदारा ताती फुतली साथ ॥ सुरा पनि कु तातो रांग । प्राखेदक का काट प्रांग ॥४६५६।। वैतरणी ताता है तिहाँ । डास पकडं उनु नै जिहाँ । मास प्रहारी मुख ताता पर । छेदन भेदन कीजिए खंडो खंड ।।४६६ना Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ केई ऊपर भारा भरें। चीरें देह टूक शेष करें । बहुरि हुवे देह की देह | मारैं मुदगर कीजे खेह ॥४६६१।। पाराजिम समर्ट खंड फेर । पाप्याने राखई घेर ॥ जिहि जीव का खाया मांस । ति कारण वे पावें वास ।।४६६२ ।। निस भोजन अगालो नीर । उहा न जाये कैसी पीर ॥ मिथ्यानी कु' भैसी गढ़ी | जिनवाणी कु न भारं चिती ॥४६६३॥ देवास्त्र गुरु निसर्च नहो । ताहि नरक गति श्रा सहाँ | 1 जे दुख मैं दरणों समझाई। ताका पार न पाया जा ।।४६६४ ।। दूहा उपसम बेद खाईका समकित विष है तीन ॥ जे मनमें निसचं घरं, ते जाणों परवीन ॥ ४६६५ || चौपई पद्मपुरा जाके है समकित दिक चित्त । ते गति खोटो भ्रमं न नित || हैं मूकति समकित परसाव समेकित बिना करणी सकवाद ।।४६६६।। अंडज पोतज गर्भ उतपत्ति । स्वेतज सनमून उपजत्त ॥ पुदगल लानु एविध धीर । श्रहारक तेजस कारमन सरीर ||४६६७ । संख्यात परदेसी अवर असंख्यात । अनंत प्रदेसी जीव की जाति || अष्ट अंग ग्यॉन का भेद । पंच खरे तीन खोटे रे || ४६६८ || मश्रित अवधि मनपरजय भली । पंचम ग्यान को केवली ।। क्षु अवधि ए ग्यति | दरसन मन परजय केवल प्रमान ॥ ४६६६ कुमति कुति खोटी अवधी 1 करें दुर आमा फु सोधि || मध्यलोक में ढाई द्वीप । अवर समुद्रह है समीप ||४६७०॥ द्वीप समुद्र वर्णन जंबुद्वीप जोजन इक लाख । लवण उदधि चषां पास || जिह में बड़ा सुदर्शन मेर। षट् कुलाचल ढिग बहू फेर ॥४६७१। हिमवन महा हिमवन नील | विजयारध परवत असत श्रमील || सीता नदी सीतोदा और चउदह नदी निकसी गिरि फोड ||४१७२ ॥ क्षेत्र भरत रावत होइ । इस विध क्षेत्र दसों दिस सोइ || घटै बढें तिहां व्यापै काल । एक सो साठ खेत्र सुविसाल ||४६७३ ।। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुमि सभाब एवं उनका पत्रपुरास ४३३ सदा सासता हैं बह खेत्र । दीप अढाई मांहि समेत ।। धातकी पुष्कराचं दुगगां जारण । मानुखोत्र लगि पुरुष प्रबांन ||४|| तामै ध्यंतर किन्नर बसे । किष महागंधर्व दिसे ॥ यक्ष राक्षस भूत पिचाम | जोति पटल जोतीस्वर साच ॥४६७५।। नवग्रह नक्षत्र सतावीस । सोलह स्वर्ग सागर बाईस || सौधर्म ईसान सानत्कुमार 1 महिंद्र ब्रह्म ब्रह्मोसर सार ||४६७६।। लांतष कापिष्ट शुक्र महाशुक्र । सतार सहस्रार सह सुक्र ।। पानस प्रानत पारन अच्युत्त । सोलग स्वर्ग कह गये भगवंत ।।४६७ तारे जमा न बदल : ना परि दिमशुसरे ।। विजय विजयंती जयंत । अपराजिस सरवारथ सिद्धि निवसंत ||४९७८ मुगति क्षेत्र है ताके प्रत । तिण हां पहुंचा सिद्ध प्रति ।। रामचन्द्र कीया परसन्न । मुगति भेद समझायो भिन्न ।।४६७६।। मिट संदेह संसम को पीर । अजर अमर नहीं च्याप ईर ।। दरसन यान का नाहीं वोड । सदा सरवदा नहि है विसोड ।।४६८०॥ संसारी कुकदे न सुख । सुभ असुम ते सुख प्रनै दुःल ।। मुभ संजोग त सुन्य का मूल । माया मोह में रहिया भूल ।। ४६५१।। भया विछोह सब सुख बिसरया । रोग सोग भारत में भरया ।। ए सुख जारणों दुःख समान । मोक्ष सुख का मत न पान ।।४६८२।। सुख को तरतमता सब सुखी जानौं प्रथीपति । उनतें सुखिया है चक्रवति ।। किश्वर देव हैं इन सुखी 1 जोतगी के सुख बहुत बकी ।।४६८३।। इन्द्र परगेन्द्र सब ही ते बाधि । सरबारथसिध सुख अगाध ।। सबसे बड़ा मोक्ष का सृग्य । तिहां न च्यापं कवही दुःख ।।४९८४।। ते सुख विस पै बरणे जाहि । अंसी वसतु मही पर नाहि ॥ रामचन्द्र कीया नमस्कार । मोष्य पंथ क्रिम उतरे पार ||४६८५॥ मरवमूषण बोल्या केवली । जिन धरम वाणी सबतें भनी ।। तस्व वर्णन सप्त तत्त्व षट द्रव्य बखांन । नो पदार्थ नै दरसन ग्यांन ||४६६६|| पंकाय खेश्या है षष्ट | द्वादश अनुप्रेष्या जू प्ठ ।। दयापरम दस विध स्यौं करें । सोलह कारण का व्रत घरै ॥४६|| Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ पपुरास सम्यक्त सु पाले चारित्र । से मुनि कहिए सपा पवित्र ।। जोत जोति मिल जब माइ । तब वह भय। निरंजन राई ।।४६८८|| सम्मक बिना करें इह तप । ग्यान कहें के सुमर वह जपं ।। मिथ्या सौं ल्यावै वे पित्त । उनको होब नरक की यित्ति || ४६८६।। प्रातम ग्यान दीपक को जोइ । पावं मुगति सिघ तब होइ ।। करम सफल हो जावे दुरि । रहै ग्यान नित प्रति भरि पूरि ||४६E0|| जे जीन हद समकित धर, मिथ्या धरम निवार ॥ निसचे पाय परमपद, भुगतै सुख प्रपार ||४६६१|| चोपर्ड जीव तत्व संसारी दोड । भन्य अभष्य उभय विध होइ ।। प्रभव्य तपस्या कर अनेक | काया कष्ट बिना विवेक ।।४६६२।। जै पावै नवग्रीवक थान । बहुरि भ्रमै भवसायर प्रान ।। मुकति न जान पावई निगोद | प्रभव्य न सी पबरहै प्रमोद ॥४६६६|| भव्य जीव समकित दिन धरै । ले चारित्र भवसायर तिरं ।। लहै मुक तिहां सुख निधान । दरसन तहाँ अनंत वल ज्ञान ॥४६६४|| पुदगल है वीजा तत्त्व | कासन मध्य होई सब थिप्ति ।। दया भाव पूजा संजुत्त । मानव देह विना न होइ मुक्ति ॥४६६५|| प्राश्रव होइ करम इह भाति । ज्यों सस्वर में नीर बहास 11 नधि पाल बघ सिहां नीर । वरस घनहर गहर गंभीर ४६६६|| संवर पंचम तत्त्व का भेद । पालई कोडि कर जब छेद ।। बघता नीर सकल बह जाइ। जो कछु पहिले रहे तां ठाइ I४६६७|| निर्जरां तस्व षष्ठमा जान । सुक नीर जब भान तपै पान । असें करम निर्षरा होइ । मोख तत्त्व सातवां सोइ ॥४६६८) रामचन्द्र सुणि बोले बैन । सबसे उत्तम समझो जन ।। सकल बात को मिटयो संदेह । झूठी माया मारणी एह 11४EREIL जीव का सगा न संगी कोइ । धर्म सहाई जीव को होइ ।। राब विभूति तों सब नारि । मोया लछमन मोह अपार ।।५०००। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभापंच एवं उनका पयपुराण जिसकी माया न छट पडी।कसे दिव्या पालौं खरी ।। सकल भूषण बोल सुविधार ! तुम हो मुक्तिगामी भवतार ।।५००१।। कोई दिन तुम भुगतो राज । पाछ करो पालम काज ।। सपर्ज केवल पावं मुकति । सुर नर सकल बरंगे भगति ।।५००२।। इतनी सबक निसचे भई । सेवा रामचंद्र मन दई । सब काहु जाण्यां जगदीस । सुर नर सकल करेंगे भगति ।।५००३।। डिल्ल श्री रामचंद्र सुनि धरम महिमा करी जैन धरम सुचित्त रहै पल पल पड़ी। करई सेक सब लोग श्री रघुनाथ की साई तप वन माहि सुता जनक राय की ।।५००४।। पति भी पनपुराले सीता विल्या राम धरम अब विधान ९६वां विधानक चौपई विभीषण द्वारा प्रश्न भभीषण बोल दोई कर जोडि ! कहो परम बारगी बच होरि ॥ मेरे मनका मिट संदेह । राम लखमण · घणां सनेह ।।५००५१ किरण कारण पाया वनवास । दंडक बनमें रहै निरास ॥ रायण पाई विद्या धनी । चार वेद ग्यानी भर गुनी ।।५००६॥ विद्याधर से सब प्राइ । तीन खंड के रावण राइ । जा सनमुख जीत्या नहीं कोई । चंद्र प्रादि मान भंग होई ॥५००७।। ज्ञानवंत जाणं राजनीत । परनारी परि डोल्या पित्त ।। सीता को हरि लंका गया । ता बहुत उपद्रव भया ।।५ ।। लक्ष्मण के करि राबरण मुना । पहिला बंध चोध्या नवा ।। मीता पतिव्रता प्रसतरी । इह को सदा बिपत्ति में परी ॥५.०६।। किह कारण चरचा करी लोग । राजि भोग में भए विजोग ।। इनके भव भाखो समझाइ । मेरे मनका संसय नाइ ५०१०।। सर्वभूषण द्वारा विस्तृत वर्णन सर्वभूषण बोले भगवान । बारह समा सुगदे कान ।। जंबूद्वीप मई क्षेत्रवि भरत । दरूपण वोह नगरी समकिस ।।५०११॥ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧ मेंरदत्त सेठ नसे तस मधि सुनंदा प्रसतरी महा सुबुषि ।। सार्क गरभ भए दो पूत । रूप सख्यण सोभा बहुत ।।५०१२ ।। पद्मपुराण प्रथम धनदत्त दूजा वसुदत्त । जगबल एक प्रोहित सोहुत ॥ सागरदत्त वणिक तिहां बसे । कनकप्रभा कामिनी संग र ।।५०१३।। गुणवंती ताकं पुत्तरी । रूपवंत लावण्य गुणभरी ।। जोवनवंती गुणवंती भई। पिता जाइ घनदत्त नं दई ||५०१४ || तिर श्रीफल 1 श्रीकांत नामणिक तिहां बसे । जाकै दीनार बारह कोहि लसे || ५०१५॥ः उनके मन तब बैठी बुरी घनदस सु सगाई क्युं करी ॥ मेसी नारि सो मो गेह । माता सुशि पुत्र को नेह ||५०१६ || धीरज मों समभाव बात 1 चिंता सों बहुहुवं दुखी गात ॥ अब मैं जाइ करि करू ं उपान | राखि पुत्र अपणां मन ठांव ११५०१७ ।। माता वचन मुसि छोडघा सोच | सागरदत्त घरि प्राय पहुंत || कनकप्रभा सु जाइ करि मिली। मनकी बात प्रगासी भली ॥ ५०१८ ।। कहाँ नयदत्त कहां घनदत्त । वाका घर श्राश्रा तुम चित्त ।। कन्या दीजये इसा ने जांइ । मेरे लखमी की अधिकार || २०१६।। द्वादस कोड़ि दीनार घर मांहि । मेरी सरभर कोई नाहि ॥ फेर सगाई अपनी लेह । मेरा पुत्र में कन्या देह ||५०२०।। रतनप्रभा सुरिश मन ललचाइ । कहैं कंत ने और ही दिढाइ || श्रीकांत है महा बलवंत । रूप लष्मण महा सोभावंत ||५०२१। सब तें" सुखी लक्ष्मी का धणी । वाहि देन कन्या छापणी || धनदत्त सेती लेहु डाइ । बोली में से घरली छह भाइ ।। ५०२२|| वसुदत सुरिंग कोप्या बहु मांत । क्रोष चढे मसले दोठ हाथ || श्रीकांत खोटी बुधि लाग । चाहे धनदत्त की मांग ।। ५०२३।। जगबल सेती मता बिचार | गह्या खडग छिज्या सिंह बार || अरब समय श्रधिवारी रयन । वसुदत्त चल्या कपि ते नैन ||५०२४ ।। नौस बरण के वसतर सोझि जतन किया वैरी के काज ॥1 श्रीकांत की पहुंच्या पौल। सोवत लह्या बगीचे ठोरि ||५०२५|| वसुदत्त ने तब सोच्या ध्यान । अरण चिस्या का हणु परान || श्रीकांत सो जणाई सार । तो में बल अधिक तो संभार ॥१५०२६ ।। Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंच एवं उनका पद्मपुराण मो सुर्क रि जुध अपार । श्री कांति कर गही सरवार ।। दोनु झुण्या एकण ठांब । भए मृग बंध्याचल भाव ।।५०२७।। सागरदत्त सूरिग इह बात । रत्नप्रभा समझाई उर भर्भात ! ह कन्या धनदत्त कूदई । तेहैं उपाधि उठाई मई ।।५०२८।। ता कारण ते इतनी करी । वाके प्रारण गए इह घरी ।। धनदत्त को दे कन्या विवाह । कीए मंगलाचार उछाह ।।५०२६।। लिख्या लगन साधी सुभ घड़ी । विवाहि दई गुणावती तिद घडी ।। बीता दिन बहत इह भेस । चरचा करें लोग इह देस ।।५०३०।। इनका विवाह प्रभाग्या भया । बसुबत्त जीव एग कारण गया ।। बंसी चरचा सुगी धनदत्त । वैसम भाव धरघो उन चिस १५०३१॥ धिग विवाह धिग यह असतरी । ता कारण बिपति मोहि पड़ी ।। तज्या देस बन मारग गह्यो । वन में रहे का या दुग्ध सहो ।।५०६२।। गूगावंती छोडी घर मांझ । कंत विना भर दिन सांझ ।। मिथ्या धरम निसर्च मन धरै । जैन धरम की निंदा करै । ५७३३॥ मरि करि भ्रमै मृगनी जाइ । बिद्याचल में पाई ठाई ।। जिहां थे मृग दोन्यु इस मेर । हिरनी देप लई घना घेर ।।५०३४।। दूजा मृग दउड्या पाई, ताहि । दोनू मार करि हुवा बाराहि ।। उहां तं मरि हाथी दोई भए । मैं से सांड की पीपीता था ॥५०३५।। वहर मीयाल भ्रम जौंन । बैर नंष साग्या इह गौन ॥ यह धनदत्त फिर बन बीष | बिना नीर तीरषा भए मीच ॥५०३६।। भई रयण तिहां देख्या साध । गहै मौंन जिन परम पाराध ।। उनके कमंडल परिदिष्ट करी । जल पीवण की इछा फी परी ।।५०३७।। मुनिवर अवधि विचारै ग्यांन | इह है भवि जीव इस धान ॥ या को दीजे दया संबोध । पुरण पाव पुजै इहै भोध ।।५०३८।। मौन छोडि बोले तब जती । निस भोजन तै खोटी गती || जल पीवत होवई पाप । पहुं गति में सहै संताप १५.०३६।। अपणे हाथ हम जलन देह । तेरा मन इस तो लेह ॥ धनदत्त के मन निसचे भई 1 अनपाणी निस प्राखल्जी लई ।।५०४011 देहि छोडि सौधर्म विमान । महा रिर्वत सब में प्रवान ।। मुगति प्राव श्रेष्टपूर नगर । मेर सेठ नौमी सरगर ॥५०४१५ । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनमुराण घारगी नाम थी पटषणी । सौलपंत सोभासु वणी ।। पदमपुत्र जसकं गरभ भया । देव जीव सुख दाई थया ।।५०४२।। निसतर छाया धरमेष्ट । श्री दत्तारासी सम्यगदृष्टि || प्रजा सुखी दुखी कोई नाहि । सघन गेह सिंहां शीतल छांह |१८०४३।। पदमपि 1 असर। ष. देपा सिंहर: मत बाइवे थी पठचा बिललाइ । वाहि देखि उपजी दया माद ।। ५०४४।। उत्तर भूमि का लिंग गया । पांच नाम श्रवण में दिया । श्रीदत्ता गर्भ उपज्यो सो प्राइ । वृषभध्वज पुत्र कंचन सम का ॥५०४५|| जनम सम दीया बहु दान । सव ही का राख्या सनमान || दिन दिन कुमर बघ मुख माहि । सात बरस का हुवा नरनाह ।।५०४६।। जिह बन में मुवा या बद्दल | वा वन निफस्या करण सहल । देखि भूमि भव सुमरए लई । उतरा तिहां पिछली सुष थई ।।५०४३।। हं था वृषभ मरया या परया । पंचनाम किण ही कहा खरा ।। बहे प्रसाद राजा सुस भया । भव सुमरण चित में थमा ।।५०४८।। जेहुं मरता यू ही परा । अंसा जनम कहां से धरथा । अब जे उसकू देखू प्राजि । देहिं सकल वाहि कू राज ॥५०४६।। राज कुबर इहै प्राज्ञा दई । चैत्यालय नीव दिवायो सही ।। कोस एकलों देहुरा करचा । तिहा चितराम बहुल विध पाया ।।५०५०।। भांति भांति के चित्र संघारि । वेद पुराण लिखाए सिंह बार ।। जिन चौईसौं बिब करा ! वृषभ की सूरत पोलि लिलवाइ ।।५०५१॥ तिहां रखबाले राखे घणे । दुष्ट मिथ्यादृष्टि हणं 1। पदमरुचि सेठ पाया देहुरे । सहस्रकूट ध्वजा फर हरे ।। ५.०५२॥ देखो पोलि' वृषभ का रूप । पिछली सुरस संभालि स्वरूप ।। ध्यान लगाइ रहा तिहां सेठ । किंकर गया राजा के दिठ ।।५०५३।। कही बात व्योरा सुजाइ । प्रामा कुवर जिण्य मंदिर ठाइ ।। पदमरुचि देख्या राजकुमार । रहे थकित होई इतनी बार ॥५.५।। सघ पूर्छ धुषभध्वा राइ। तू काहा देख रह्या रिझाइ । कह सेठ पिछला विरतांत । सुनकरि प्रागंया बहु भांति ।।५०५५।। घन्य पदम रुचि सेरी बुद्धि 1 ताते पाई में वह रिद्ध । तुम प्रसाद मैं यह गति लही । जो मन इच्छे सो छों सही ५५०५६।। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचंद एवं उनका पयपुराण ४३६ निसत्राने' दिव्या लई । राजविमति वृषभध्वज में दई। वृषभध्वज पदम रूचि । मुगौं राज कर मन सुचि ।। ५०५७|| पहली बरी घरम की साइ । मुम्ब मृगौं सब मन भाइ ।। वृषभध्वज राज करथा बहु वर्ष । समाधिमरण कीयों बहु हर्ष ।।५०५८।। ईसान स्वर्ग परि हवा देव । भूगरौं सूख किनर करें सेव ।। पदमरुचि घरम के ध्यान । ईसान स्वर्ग में पाया विमान ।।५.५.६।। विजयारघ पच्छिम विदेह । नंदालत नगरी उत्तम गेह ।। नंदीस्वर तिहां मपती । कमलप्रभा गणी सुभ मती ।।५०६०।। पदम चि जीव गरभ अवतस्या । नयणानंद नाम तिहां धरना ।। नंदीस्वर धरि संयम भार । नयनानंद नै राज दिया सिह बार 11५०६१।। बहुत दिघस उन कियो राज । सप करि पाप संभाग्या काज ॥ महेन्द्र स्वगं पाया सुख ठाम । उहां ते चया खेमांकर गाम ।।५०६२।। मेरु सुदरसन विमल नाहन धूप । पदमावती राणी सस्वरूप ।। श्रीचन्द्र जन मियां कुमार । पिता ने सोप्या सब संसार ।।५०६३।। विमल वाहन लिया संयम योग। श्रीचंद निहां भोग भोग ।। समापिगुपति मुनि मागम भया । ताकै संगि सिष्य तप किया ।।५७६४।। वन में करे तपस्या घणी । इनकी मूरत नगर में सुरणी ॥ चले लोग बहु मुनि की जात । बाजंतर वाजें बहु भांति ।।५०६५।। राजा जब वाजंतर सण्या । मन में सोष किया तम चरणां ॥ नहीं कोई तीरथ नहीं कोह परब । तिहां बली परजा यह सरव ।।५०६६।। किकिर प्राइ जणाई सार । मुनिबर पाए वन है मझार ।। दरसन कौं परजा इह चली । भूपति सुरिण उपजी मन रली ।१५०६७।। मुनि के पास जाना उतरि स्यंघासरण करी डंडोत । नरपति चल्या तब लोग बहोत ॥ दरसन पाइ परदक्षनां दई । नमस्कार करि पूजा भई ।।५०६८।। पूर्छ घरम जोष्टिं दोई हाथ । वारणी कहो श्री मुनिनाथ ।। मुनि समाधि कहै वखान | प्यार बेद के उत्तम ग्यान ।।५०६६।। प्रथमानुजोग प्रथमही जान । करणानजोग दूसरा बम्हारग ।। चरणानजोग दृश्यानजोग । इणके भेद सुरणे सब लोग ।।५०७७॥ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० पद्मपुरा नव विष है इरणों का भेद | अपनी प्रतिपनी गुप्न भेव || निछेपनी निछेप का संवेदनी । संसाभिवेद निरवेदनी ॥ ५०७१। पुन भोगचं राग कारनी । जती सरावग विश्व सब भरणी ।। राजा सुगत भयो वंराग । राज विभूत कुटंब सब त्याग || ५०७२ || धुरतकांत पुत्र को राज | आप किया दिगंबर साज || समाधिगुपत मुनिवर डिंग जाई । दिक्षा लह मन वच काइ || ५०७३|| तपस्वी जीवन दवा भाव भातम सु वित्त । सूक्षम बादर अस यावर थित | सब जीव जारौं श्राप समान । क्रोध लोभ तजि माया मांन ||५०७४ ।। मास उपवास पारण एक कवही च्यार मास की टेक ॥। दान प्रदता भूल न लेइ । उदंड बिहार इह विष सों करे || ५०६५।। रहूँ मौनि निसवासर निहां मुनि वाली जीव का आधार । मिथ्यादृष्टी के हिये न सांच सकल विषय छंडी मुनिराज श्राप तिरे त्यारे बहु जीव कायोत्सर्ग पदमासन जोग । पूजा करें सकल तिहां लोग ॥ धरम ह्त कबड़ी कछु कहां ३५०७६।। अभ्य मुर्गा ते उतरें पार | से विषइंद्री सब पांच || ५०७७।। संसारी सुख मन न सुहात ।। औसा साधु घरम की नींव || ५०७८ 1 I सहस अठार प्रांग समेत सील व्रत पार्टी करि हेल 11 जिर समान परिग्रह है नहीं । दम दिसा अंबर है नहीं ||५०७६ ।। सुमति पांच अरु तीन गुपति सही । बारह व्रत विध सुं पाले ही || स परोसा बीस प्रर्ने दोह 1 बारह अभ्यंतर तप जोड ।।५७८०|| बरामी किरिया को करें । प्राईस मूल गुन छरें ।। समकित सों निश्चों है। वित्त अनुप्रेक्षासु विचारे नित्त ||५०८१ ।। मीयाले सरवर की पाल । पई मीत सिहां महा विकराल || ऊना परवत पर जोग छोडे सकल जाति का भोग ||५०८२ ।। वरखा काल वृष्य तल खरे । तिहां तैं प्यार मास नहीं टरें मछर डांस प्रति उसे बयाल । निरभय निचित मन की चाल ।। ५०६३।। देही छोडि ब्रह्म सुमन | भया इन्द्र महा बलवांन ॥ बस सागर की पूरण आय । ते सुख किस पे वरण्यां जाई ||५०८४ ॥ मृनाल कुंड नगर का नाम । विजयसेन राजा विहं ठांव ॥ रतनचुला तार्क असतरी । वञ्चकुमर जनम्या सुभ घडी ।।५०८५ || Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाव एवं उनका पमपुराण ४५ हेमवती परनाई नारि । स्वयंभ पुत्र जनमीया कुमार ॥ श्रीभर्स पुरोहित दयावंत । स्वस्तमती मत्री महागुनवंत ।।५०८६॥ मृगनी जीव भ्रमी बहु जौनि । भई हयनी गंगातट गौन ॥ कईम माहिं हथनी थकी । उहां से बाहर निकाल नहीं सकी 1॥५०८७|| व्याकुल भई मरण के भाव । तरंगवेग विद्याधर नाम ।। प्राकासगामनी गया था जात 1 याहि देखि करणां भई गात ।।५ ।। उतरि भूमि पर नवकार । सरणा दए च्यार परकार ॥ हथनी मरि प्रोहित के ग्रेह । पुत्रो भई सकोमल देह ।।५०६६।। हुई वृष भई संभाल । मुनीस्वर देखि हंसो वह नाल || पिता कहें उसने समझाइ । [ मुनीस्वर ममता नहीं काए ।।५७६.॥ इन हत्या होय बहु पाप । भव भव सहै दुःस्त्र संताप ।। मंसी सुणी पिता की बात । मन में ग्यांन घरचा बहु मांत ।।५०११॥ सुण्या धरम जिन मारग गह्मा । दिढ सेती समकित वह लह्मा ।। कन्या मई बिवाहन जोग । रममा स्वयंवर पाए लोग ।।५०६२।। स्वयंमु कुयर इह इछा घरै । जे कन्या मुझ कों ही बरं ।। प्रोहित कहै कान्या जाकु देव । सम्यक्त कर जिणेस्वर सेव ||५०६३|| संभ कुवर मिस्त्याती घणा 1 प्रोहित सोश चित प्रापणा ।। इह राजा मैं मरगणे बसू । चे इह कन्या प्रवर घेयू १५०६४।। या सेती मुझ बांध बैर । अब छिन मांहि फरू कछु फेर ।। मंडप दूर करना सिंह बार । सब कुवर मन बैर अपार ॥५०६५।। इक दिन मारया प्रोहित श्रीभूत । छोडे प्राण सम्यक्त संजुत्त ।। ब्रह्मोसर पाइया विमाए । उह सम सुखो न दूजा जान ।।५०६६॥ वेदायसी प्रोहित की सुता । व्यापी ताहि काम की लता ।। वेवाबती कर तब सोष । संभकूमर सो वांछ सचि ।।५०६७।। सुपना में भुगतै वह भोग । जागी तब उसे व्याप्या सोग । पिंग विंग ए पांच इन्द्री के सुख । स्यण भ्यंतर फिर होय दुःख ॥२०६८।। भो कुतो उपजी थी कुधि । विषया मिलाय गापा चिस ।। प्रपणां मन बहुत ही भिष्ट । परो ध्यान जिन समकित दिष्ट १५०६ER Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ पापुराण प्रारजका हरिकांता के पास 1 दिक्ष्या लई मुगति की प्रास ॥ कर तपस्या वन में जाइ । मास उपवास पारणां कुभाइ ।।५१००।। तपरि देह जोजरी करी । समाधि मरण कीया तिह घडी ।। पहुंची ब्रह्मोत्तर के थान । देवंगना भई सुजान ।।५१०१।। संभु कुबर सुरण कर विजोग । वेगवती का व्याप्या सोग । अंत समझ करि सोच्या ग्यांन । दिध्या लई जती ढिग प्रान ॥५१०२१॥ स्वयंज को कीया सरन का राव । प्रभासकुद भया तिहीं नोज || प्रभासकुद को दीपा राज । पिता किया दिगंबर साज ।।५१०३।। प्रभासद राजा मति बली । प्रजा सुखी मानें सब रली।। एक दिन विचित्र सेन मुनि पास । मुणियो घरम कृति को नास ।।३.१०४।। जोडया राज भोग संसार । विना लई संयम का भार ॥ तेरह विघ सौं चारित्र घरघा । अठ मास पारणां करपा ॥५१०५५१ इह विष सौ करं तपस्या भाप । जनम जनम का टूट पाप ।। राग दोष तजि प्रातमध्यांन । ग्रीषम इति परबत पर प्रान ।।५१०६।। सिला हैड ऊपर तप सूर । चार मास तपै इह विष पुर ।। बरखा फास रूख तल जाइ । तीन काल तप सौं मान ल्याइ ।। ५१०७।। मांचर चू'टै देही दहैं । बेलि लपट देही से रहैं। सीयाल हेमांचल ठौर । गंगातट सीत को जोर ।।५१०८।। बहुत बरस्त्र ऐसा तप किया। कनक प्रभा खेचर माढ्या ।। समेद सिखर जावे पा जात । ताहि देख चित्या इह भात ।।५१०६।। धन्य इग्है खेचर गमन प्रायास । जो मन चसं तो पुरं पास ॥ जहां मन कर तिहां यह जाइ । धन्य है विद्याधर एह राइ ।।५११०।। मेरे तप का एह फल होइ । मो सा बली न दूजा कोइ ।। सीम खंड का पाऊं राज । विद्या फर करौं मन काज ।।५१११।। देही छोडि शांति कुमार । रतनश्रवा घर लियो अवतार ।। केकसी गरभ दसानन भया । पाछ रावण नाम इह थया ।।५११२।। धनदत्त जीव भयो रामचन्द्र । बसुदत्त लछमन वली मनंद ।। सभध्वज भया सूग्रीय । जगवली ते भभीषण जीव १५.११३।। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंच एवं उनका पद्मपुरात विभीषण का पुनः प्रश्न करना गुणवान मामंडल देह | गुनवर्ती भई जनक के गेह ।। ५११४ ।। मभोषरण बोल' हूँ कर जोडि । बालि तणां मत्र मरणौ बहोडि । । ५११५ ।। किम रावण सों ययों विरुद्ध । करी तपस्या उन विन ही जुन || क्यूं रावण उठाया कैलास । निया ठां भया मान का नाम ।। ५११६ ।। I उनका भव व्यवरा सु हो । इह मो भन का संसय दहो ।। विदारण वन में एकेक मृग । इह मांहि सदा उपसर्ग ।।५११७ ॥ ४४३ सामारिक करे या एक देही तजि रावत खेत्र मेषदत्त है मृग का जीव भया पुत्र घरम की नींव ॥ विरक्ष होय करि भया सचेत । जिनवाणी सूं ल्याया हे ।।५११६ा दीन मृग घरम निसचं सुनी ।। बृहत राजा सिव ती मोह ।।५११८ ।। अणुव्रत पाल ने वर मांहि । रागद्वेष मनमें कछु नहि || समाधिमरण सो छोटी देह | ईसान स्वर्ग देव के ग्रह ।।५१२० गा पूरव विदेह विजयबंती देस । कोकिला नयर कांत सोम नरेस ।। रतनाखी राणी गरम भाई । ईसान स्वर्ग से चये सिंह ठाइ ।।५१२१ । सुप्रभ नामक भाया कुमार । रूप लक्षण सुत्र महा अपार ।। जोवनवंत भए जु कुमार पिता ने राज दयो सिंह बार ||५१२सः आप तात दिष्या लई जाइ । करें राज ते सुप्रम राइ ॥ एक दिवस मुनि पास गया । सुब्या धरम संयम व्रत लिया ।। ५१२३॥ तेरह विध पाले चारित्र | रामदोष जीते दो सत्र ।। बाईस परीस्या सहे बहु बरस । श्रातमध्यान धरयो बहु रद्दस ||५१२४ ।। तप करि गया सरवारथसिद्ध | तिहां ग्यान की पूरी रि ॥ चरचा मांहितिहां बीतं धढी सकल ग्यान रिघ पूरण जुरी ||४१२५ ॥ उहां चापिय से ग्रेह । बालि पुत्र कंचन सम देह || तिसकें सदा निरंजन ध्यान । चित मां कछु न आवे मन ||५१२६ रावन सों तब हुबा वाद | दमा निमित्त छोड़े विष बाद || गिरि कैलास कियो तप जाइ । रावण तिरण धारक सू भाई || ५१२७॥ क्या बिमारण कोष के भाइ । कैलास परवत लिया उठाई | दयाभाव अंतरगति देखि ॥। ५१२८॥ मुनिवर समस्या ग्यांन सौं देखि Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ बहुत साध गिर ऊपर रहें। इह पापी सगला ने दहें || चैत्यालय ते श्री जिनदेव । उनको दया विचारें भेव ।।५१२६ ।। पद्मपुराण पदम गुष्ट सेती गिरदाव | धरयो मेर पाताल जांषि ॥ दशानन चिघारो तिहां सकल साथ सौं रुदन करें जिहां ॥ ५१३० ॥ मुनिवर के मन माई दया । पणा उठाइ ऊंचा कर लिया ॥ । नमस्कार बालि कु किया ।। ५१३१ ।। रावण मान मंग तत्र भया मन वैराग भया सिंह बार | उभा खोया सब परिवार || तब धरणेन्द्र विचारं ग्यान यह प्रतिनारायण उपज्या ज्ञान ।।५१३२ ।। इनका है सा नियोग । भुगतें तीन खंड का भोग ॥ ॐ इह दिया ले भरि ध्यान । त्रेसठ सिलाका होवें दान ११५१३३ । 1 धरणेन्द्र तब समोध्या ताहि । सक्ती वाण दे दीया ताहि || ताहि समोषि दीया सक्ती । फेर संभाल्या मुगत्या जुक्ती ।।५१३४ ।। पंड जील्ला से 11 फरम उ ते भूमिंगोचरी । उनं भाई लंका स्थिति करी ।। ५१३५॥ मारचा रावन लीया बेर । जीत्या तीन खंड सब गैर ।। सतंपुर नगर पुनरबसु राइ | भूमिगोचरी बली अधिकाइ ॥५१३६|| चक्रवर्ति की सुता विवाही । विद्याधर ले भाज्या ताही ॥ उन नारी तप बहु दिन किया । क्षातपुर पति पुनर्वासु की त्रिया ।। ५१३७।। पुनर्वसु कु भये बहु सोग | राज जोड करि लोया जोग || करी तपस्या श्रातम ध्यान । प्रति समय बांध्या निदान ।। ५१३८ ।। मैं बलहीन तो त्रिया ले गया। वा कारण बहुत दुख भया ।। मेरे तप का यह फल हो । मो सा बली न दूजा कोई ।।५१३६ ।। पुनस का जीव लक्षमरण हुआ। या के करसै रावण मुवा ॥ बेगवती मुनि निंदा करी । भूया वचन कह्या तिन घडी । ५१४०३१ 1 मुनि ने कही सील मंग किया । मिथ्याती यूँ मन में वारिया || उदय भया वह करम अठ । समकित मे माना सब भूल १५१४१ ॥ बेगवती भंसी रमन मुनि को दोख लगाया जान ॥ पार्टी समझि विवरी चित्त । पचाताप करें नह नित्त ।। ५१४२ ।। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंब एवं उनका एमपुराण मैं मयू मुनि ने लगाया घोष । कुमति ग्यांन का हुवा पोष ॥ प्रब इह पाप टर किंह भांति । मैं यू ही दूःख दिया मुनि नाथ ॥५१४३॥ रिष निंदा है सब से दुरी । पाप पोट प्रपणे सिर घरी ।। कठिन करम में किया प्रथाइ । अंसा दोष मिट किह भाइ ।।५१४४।। समझि जैन की दिव्या लई । सप करि फिर उत्तम गति भई ।। पूरन करम उदय भया भाइ । पाया कष्ट असुभ के भाइ ।।५१४५।। सीता सती दिढ राख्या सस्त । फिर पावगी पंचम गत्ति ।।५१४६।। कवित्त पर निंदा नहीं करें साध जस ही फमाण ही ।। मिथ्या वधन नहीं जुगै, ताहि उत्तम जन मानही ।।५१४७ सील संयम दिबह घर, दया करै मन ल्याइ ।। परकारज परमारथी, मोक्ष पंथ सो लहाइ ।।१४।। इति श्री पापुराणे सरवार रामचंद्र पूरव भव करणनं विधान १०. वां विधानक प्रबिल सकल सभा मुनि पास भवांतर सब सुने । जनम जनम के मेद, सकल भूषण भने ।। वैराग्य भाव भया लोग, नाम किहां लौं गिनई 1 रवि का होत उद्योत, अषकार हनें ॥५१४६।। तिमिर जु गया सब भाजि, किरण रवि को जगी । घर वाहर उछोत, प्रधकार कहीं है नहीं । तम जु गया सब भाजि, किरण रिव सी जगी। घर बाहर उद्योत, सबै सोमण लगी ।।५१५०।। जे दिष्टांस प्रवीण तिनई जाणं भली । परिहाजे जे पंघासुति हीण उनी कं चित मिली ।।५१५१॥ कृतांस वक्र भवांतर धूझि । ब्योरा सुरिण प्रतरगति सूझि ।। मन बैगम धरा बहु भांति । रामचंद्र सों जोड़े हाथ ।।५१५२।। जीव भ्रन्या चढंगति में मादि । समकित बिना जनम सब बाद ।। भ्रमत भ्रमत नहीं पायी प्रत । मध हुँ थनया सकती नहीं हुंत ।।५१५३।। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ घरम वृक्ष की पाई छ । ति ठा ठि मिटाऊं दाह ।। दिध्या लेहूं रिपी के पास । गुरु संगति पूजे मन भास ।। ५१५४।। रामचंद्र बोलै समझाइ तू सुखिया कोमल है का || सेज परंतर फूल भरी यूनिव पंचामृत लेता हो महार। इस गोरस बटु सौज संभार || पल पल होई तुम्हारी सार । कैसे लेहू संजम भार ।। ५१५६६। जैन घरम की क्रिया कठिन । कंसें पल सुमारा जतन ।। भूमि सोवणां निरस प्रहार | बाईस परीसह दुःख प्रपार ।। ५१५.७।। पद्मपुराण घरि घरि भोजन लेहु उदंड । राव रंक कब भेद न मंड || हम भी दिखा ले है जाइ । हमारे संग होम्यो रिराइ ।। ५१३८ ।। वृतांत बोलै भूपती । एही वार में होउं जती ॥1 फिर बोले अापण रघुनाथ । रुक जावी तब हमारे साथ ।।५१५६ ।। । सहदेवगति किसही सुरंग । संभाल कीजियो मितर चर मैं मैं माया मांहि भुलाव । तुम संवोध ज्यौ मित्र सुभाव ।।५१६० ।। तब दिक्षा ले में भी तिरू । बहुरि न भवसागर में प कृततिष को भाग्या दई । सब ममता मन से मिट गई ।। ५१६१ ।। वहा कृतांत वक्र तब सोरसोग, क्सन सुविक्रम निक्रांत ॥ बहुतों ने दिष्या घरी, ग्यान मंत विध्यात । ५१६२ ।। चौपई सीता के संगी श्रारणिका घनी, अधिक प्रताप विराजे वणी || सत प्रवत्त दिप सब देह रामचंद्र मन उपजा नेह ।। ५१६३ ।। रहे ध्यान घरि करें विचार । मो संग डोली सब संसार || 1 लोगों कारण मैं वर्षे निकार ति से हुबा दुःख अपार ।।५१६४ ।। प्रति कोमल सीता की देह । बनमें जोग लिया तजि गेह ॥ में भई उत्तम सिया सोखि पाट पटंवर सिज्या सोंडि ।।५१६५ । । पान फूल कोमल प्राहार। सखी सहेली करतीं सार || राग रंग पखावज बीन । कथा कहानी कहें प्रवीण ।।५१६६ ।। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाव एवं उनका पमपुराण ४४७ पूर्व कथा तब सउवतीधी सीती तहां । तब पाईमा वन में तप गह्मा ।। वन में सिंह गरजनां करं । इससी विघा सब ही डर ॥५१६७।। सरस निरस मास के पास्त । पर घर भोजन मुख से नहीं भाख ।। वे दुख कैसे सीता सहै । वेर बैर रघुपति इम कहैं ।।५१६८।। सरस सियाल भयानक पणे । प्रसे सनद जब सीता सूर्ण ।। कैसे जीवंगी उस ठौर । च उदहै प्राठ परीसह सह मोर ।। ५१६६।। संसार स्वरूप का किया विचार । रामचन्द्र समझे तिह बार ।। पाय सीता सात सकार दरसन को करमा ३५१७०।। लखमरण किमा घरण कौं भाई। सीता गुण बरावं सुभाई ।। धन्य सीता राख्या दिव सत्त । अपवाद माया लोकां के चित्त ॥५१७१।। ', जे जन लेता विष्या जाई । रहता संदेह हर कमन राई ।। प्रगनि कुंडसे जलहर भया । सब के मन का संसय गया ।।५१७२।। दोनु कुल की राखी लाज । पाप किया प्रातम का काज ।। पूरय भव पूज्या जिम देव । तो निसर्च कीनी जिन सेव ॥५१७३।1 एक भवंतर पार्थ मोक्ष । बहुरि लगेगा देवतां सुख । लबनाकुस कारें नमस्कार । दई प्रक्रमा बारंबार ।।५१७४।। भूपति सफल करें रंगेत । प्रसतुति बोस लोग बहुत ।। सब ही फर नगर को चले । हय गम रथ पायक बहु मिले ।।५१७५।। नर नारी देखें बहु भाइ । बहुत सखी से समुझाइ ।। मंसी विभव सीतां गई छोडि । सई परीसह बन की छोडि ।।६१६६।। जैन घरम का दुरधर जोग । स्वरग लोक सम छांडे भोग ।। कोई कहै धन्य रामचन्द्र । परजा कारण सह्या सब दुव ।।५१७७।। मोह तजि सीता दई कादि । विछोहा तन सह्मा है वांदि ।। कोई कहे सीता करी बुरी । पुत्र जपती ममता नैं करी ।।५१७८|| मन में घरचा न उनका मोह । पल में सब ही का किया विछोह ।। ए बालक उपजे जस कुख । खीर पिलाई पुत्र नै पोखि ।।५१७६।। ते माया दई सबै विसारि । बैंठी वन में तिही उजाडि ।। कोई कहै इह लौं सनम' । घर परियण सब जाण्यां पंष ।।५१८०।। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण ताओं परि दिक्षा का भेष । बारहै विष तप करें प्रसेष । भव जल तिर नै पाई मोभ । जनम जरा के टूटे दोख १५१८१॥ रामचन्द्र मन्दिर मां गए । राजसभा में बैठत भए ।। राणी सब प्रतहपुर आइ । पूजा दान करें बहु भाइ ।।५१८२।। सोरठा ल्याए प्रातम ध्यान, मोह माया सम परिहरी ।। नीता सत पांग, सुग्गर नहिरी | इति श्री पयपुराणे सीता प्रथज्या विधानक १०१ वां विधानक चौपई सोता की पूर्व कथा अंणिक नृप कर जोडे हाथ । फेर धरम सुणावो नाथ ॥ सवनांकुस गरभ स्थिति करी । ते मुझ सकस मुगायो चरी ।।५१८४।। स्यंघनाद बन भय को ठोर । तिहां सीता कु प्राए छोडि ।। महा बिलाप मीता ने किया । कवरण करम से ए दुख भया 11५१५५।। सिद्धारपसे बहूत हित हुवा । के पहिला के सनबन्ध नवा ।। सिद्धारथ बहु विद्या पढाई । से सब कहिए ससंय जाई 11५१८६॥ श्री जिन की बानी सब हुई । भव आताप सगसी बुझ गई ।। गौतम स्वामी निरणय भरी । सभा मध्य श्रोणिक भी सुणौ ।।५१८७।। अंबुद्वीप में क्षेत्र विदेह । फिकदा नगर बस बहु गेह ॥ रतियरधन राजा सुपुनीत । सुदरसना राणि सुपुनीत ॥५१८८।। वाक गरभ पुत्र दोई भए । प्रीतकर हीतकर सुख किए ॥ दिन दिन ब. सयाने होई । कुल मंडरण बालक ए होई ।।५१८६।। सरव गुपति राजा मंतरी । राज विभूति तिहां अति जुडी ॥ बीजावल प्रधान की तिरी । उसके मन उपजी मति बुरी ।।५१६०।। रतिबरधन सू संगम करौं । अपणों जनम तब जाणलं खरी ।। राजा वन क्रीडा को चला 1 सरद गुपति मंदिर हितो भला । । ५१६१।। ता मंदिर तलें वंठा प्राइ । बीजावली उझकी झरोखे जाइ। दोन्ह की हुई दिष्टि व्यार । मुख सों बोली पाप ब्योहार ||४१६२।। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनि सभाबंज एवं उनका पद्मपुराण सोता की पूर्व कथा राजा सुनि समझा बईन । परजा कुं देख भरि नैन || जैसे पिता देख पुत्तरी । भैसी दिष्ट राख जे स्वरी ।।५१६३ ।। जे राजा करें प्रघरम । कुल कलंक लगावे बहु जनम || तुम्हारा सेवक की नारि । मुख सों कहिए बात संभारि ५१६४ । बीजावली मन में पिछाउ मै कोई बचन कह्या इहं भाव ॥ मांन भंग हुवा दह घडी । म्रपणे मन बहु चिंता करी ।।५१६५।। YYE मरवगुपति अप घरि जाई । त्रिया वचन बोलं समझाई ॥ मैने ब्राज सुणी हैं इक बात तेरा कांम भ्रस्ट होगा परभात ।। ५१६६ ।। राजा तो परि कोध्या घणां । सा दुख तोकु ग्राइकै बयां || सुपि प्रधान प्रति करं विलाप । मन में चिता अति ही व्याप ।। ५१६७।। चहुंषां जलं न छुटे भाग राजमंदिर में देहू आणि रयणसमें वे कीनां दहन । राजा जाग्या देखी श्रमनि ॥५१६८ ।। निकस्था भूष सुरंग दुवार दोन सीना संग कुमार ।। सुदरसनां राणी प्रगति में जली भाजण को नहीं रही गली ।।५१६६॥ रतनवरघन कासी में गया । सरबगुपति राजा तिहां भया । कासि राय कासी का धनी । बल पोरिष ग्यानी गुन गनी || ५२०० ॥ सरवगुति ने भेजा दूत । मेरी श्रागन्यां मांनि बहुत ॥ इतनी सुशिलब कोप्या राम । रतनबरधन उन मराठां ॥५२०१ ।। जो सेवक ठाकुर को हीं एह अनीत कहो कैसे बनें ॥ अब जु इन्हें लगाऊं हाथ फेर न बिगारे का साथ ||५२०२ ।। कहा वरांक सरबगुपति । जिह की भागन्यां श्रनिती ।। जीवन पकड़ी हगुळे पराग। धका दिवाया दूत है जांए । १५२०३१| दूत गया सरयगुपती पास | कासी वचन कहे सब भास ॥ सी सुरिण सेन्या क जोडि । कासी राय में कीनी दौडि ।। ५२०४ ।। वेरया नगरी नीसान बजाय । सुखे सबद तिहां कासिप राइ || उन भी सेना लई हकार सूर सुभट धाए सिंह बार ।। ५२०५ ।। दंडबरवन रतनबरधन कों देखि कासिपराय का परेखि || मु राजा मन भयो श्रानन्द । देख्या प्रत्यख चरन कुं बंदि ||५२०६ ॥ J 1 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपपुराण पूर्व कश प्रस्तुति करि सेवा बह भांति । भयो कौन नगरी मां साति ।। सबै सुण्यां रतनबरघन बली । मिले सकल पुजी मन रसी ।।५२०७।। सरवगुपति बांध्या तिह घरी । प्राया राय किकदा पुरी ।। पट बैठाइ रहे सब लोग । सुखसौं रहइ मूल्या सब लोग ।।५२०८।। राजा करुणा चित्त बिचार । सरबगुपति छोड्या तिह बार ।। सेवा सौं तब कीया दूरि । पापी पाप कमाया भर पुरि ॥५२०६।। भविदत्त मुनि दरसन पाई । सुण्या घरम रति बरधन राई ।। प्रीतंकर हितंकर को दीया राज । पाप लिया दिगंबर साज ॥५२१०॥ सरबगुपति भी दिक्षा लई । वीजाबली मुई राष्यसी भई ।। मनमें कुबुधि बिचारी नई 1 बर भाव उपजावं सही ।। ५२११।। राय कीया मेरा मान भंग । सरवगुपति तप कर वा संग ।। दोनु मुनि पर किया विरोध । मांधी मेह दुःख का प्रोष ।। ५२१२।। बहु उपसर्ग दोन्यू मुनि सहा । केवलम्यान चा समै लया 11 गए मुकति मैं ज ध्वनि हुई । पंचमगति पाई मुनि दुई ।।५२१३।। सुदरसनां जल मुइ तिह बार । पुत्र मोह की करी संभार ।। वे दोन्यू मेरे गरम भए । दुह विरयां ले बिछुड क्यों गए ।।५२१४।। एक बेर मिलज्यो फिर प्रांन । नत समय राख्या इह ध्यान ।। प्रीतंकर हेमंकर भूप । विमल मुनीस्वर देख स्वरूप ।।५२१५।। नमस्कार करि पूछया धरम | दोन्यू भए जती के करम ।। कर तपस्या बारह विध । चारित्र साधं तेरह मन सुध ॥५२१६।। बीस दोइ परीसा सहैं । नवग्रीवेक पाई उनि जहै ।। कासिप देस वामदेव नरेस । गुणां अस्तरी धरम के भेस ॥५२१७।। वसुदेव वासद पुत्र दोइ भए । जोवन समय विवाह करि दए । यसुदेव के विस्वा असतरी। वासिंट के प्रीगिणा गुण भरी ।। ५२१८।। श्रीदत्त मुनी कू दिया प्रहार । पाया भोग भूमि अवतार ॥ तीन पल्य को भुगती प्राव । इसान स्वर्ग परि पाया ठाव ।।५२१६।। जहां ते चए रतन बरघन के ह प्रीत कर हितकर एह ।। थे पहुंच्या नववक विमान । उहां से चया सीता गरभ प्राय ।।५२२।। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभार एवं उनका पपपुराण ४५१ पूरख भव छोड़ी थी माई । वात दुख पामा गरभ प्राई ।। मास बिछोहा तो इहां भया । वह वंघ अंक बहा ऊ गया ।।५२२१।। सुदशना जीन भ्रमी पहुंगति । सदा धम्म ध्यान सुहिति ।। तपकरि अस्थी लिंग कीना मंग । करि करणी सुगुरु गुरु संग ।।५२२२॥ उसका जीष सिधारथ भया । वह सनबंध इन सू' थया ।। प ही करम का सरबंध । निसचे सेयं देव जिनद ।।५२२३।। सोरठा भन्न भव किया जु पुन्य, समक्ति सों मन दिख रहा ।। लवनांकुस बलवन्त, रघुबसी जग में तिसक ॥५२२४।। इति श्री पत्रपुराणे लवनांकुस पूरवभव विधानक १०२ मां विधानक सकल भूषण कीरत सब देस । सुरनर पूजा करें नरेस ।। बहुजन भए जती के भाव । जपं घणां जिण जी का नांद ।।५२२५।। किमाही सराचक का व्रत लिया । सरब जीवां की पास क्या ।। पूजा दान करें सब कोइ । परि परि कथा सीता की होई ॥५२२६।। धनि सीता पइसा तप करें । मोह माया सब सुख परिहरै ॥ पाठ दिवस कमही इक मास । सग दोष का कीया नास ॥५२२७।। ऊंच नीच लख नहीं गेह । सरस निरस भोजन लेह ।। लोही मांस गया सब सूख । क्रोध लोभ साघी तिस भूख ॥५२२८|| तप की जोति दिप सब गात । जैसे ससि पूनम की कांति ।। जरजरा भई मुरझाई बदन । जैसे काष्ट फुतली के तन ।।५२२६। बासठ बरस तपस्या करी । तेतीस दिन तपस्या में टरी । छोडि काय लह्मा अच्युत विमान । भया प्रति इंद्र लह्मा सुख थान १५२३०॥ बीस वोइ सागर की ठाव । तप करि पाई एती प्राव ।। राम कंथा सब पूरण भई । श्रीजिन कथा कहैं वहीं नई ।।५२३१।। स्वर्ग सोलह प्रद्युमन अरु संजु । कृष्ण नेह उपज्या कुल थंभ ।। बाईस सागर घससठ सहन । उपजे भुगति प्राव हरिवंस ।।५२३२।। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ 1 कि पूछे कर जोडि । जिनवाणी का नांही वोड | तिरपत न हुवे सुगो पुराण ||५२३३|| जितने भेद सुणे धरि कांन I एक एक रौं वाणी सरस । जं सुगिए बहुलेरा बरस 1 तव न जावें जीव अघा प्रस्न संकुमार के पूर्व भ सालिग्राम नित्योदय राइ | सोमदेव बांभण लिह ठाइ || अनिल कौ भए दोइ पुत्र । अर्गानिभूत दूजा बाय भूत । १५२३५ ।। इन अग्रे पंडित सब हीन || राख घणी गर्भ की गांठ ।।५२३६ ।। विद्या पढि भए परवीन बेद पुराण कहैं मुख पाठ । प्रद्युम्न संबु के कई परजाई ||५२३४|| पद्मपुरा प I भैसा देस देस में सोर || इन समान न पंडित और नंदिवरधन मुनिवर महा मुनी । वाकै संग शिष्य बहु सुनी ||५२३७॥ वन में जोग लिया उन श्राय । आगम सुण्या नित्योदय राई || उतर स्वासन वाही दिसा | करि डंडो मनमा बहु हंसा ||५२३८।। सकल लोग संगति बहु चल्या । बाजंतर जिहां बाजे भला || भई भी वे द्विज के बाल । इनके मन संसय का साल ११५२३६।। नांही पर्व नाहीं त्यौहार। इतनां कहा जाहि इकार ॥ सुरगी बात वण आये जती। दरसण कू चाल्या भूपती ||५२४०|| सकल लोग जावें वा निमित्त | जोग व्यांन सिह महा महंत || इतनी सुरिह वे उठे रिसाइ । ये क्या हैं हम सू अधिकाइ ।।५.२४१।। हम सूकवरण है पूजनीक । मूरख चलें हैं गडरिया लीक || श्रम हम करि हैं उनि सों बाद जे हम से जोते वे बाद ||५२४२ ।। तो हम जागी उनका ग्यनि । नांतर ए सब लोग अयन || दोनू' विप्र गए बन मांहि । व्यानारूढ दिखे तिल काहि || १२४३ संबूकुमर मुनीस्वर एक जिसके हीए जिनेस्वर देवा ॥ मुनि की ढिग दोउं विप्र जाई । कहि कहां ते भाए इस ठद ||५२४४ | बोले जती सहज के भाइ । ग्राम पहुंचे याही ठांइ ॥ पूछें मुनी तुम कहां ले आए। श्रागम कहो सकल समझाइ ||५२४५।। दो इसे विप्र के पुत्र । श्रई श्रई बुत्रि महा विचित्र ॥ देखि प्रत्यक्ष होइ प्रग्यान सालिग्राम हमारा नि ।। ५२४६ ।। · Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचं एवं उनका पद्मपुराण ४५३ मुनिवर बोले अपनो गति कहो । कवरण परजाइ त इह गति लहो ।। प्रेसी सुरिण भए चिक होइ । गति भगति की जाण नहीं कोई ।।५२४७।। वेद पुराण में की होइ बात | कह सकल वांको बिरताप्त ॥ हमको अवधिमान एह नाहिं । गति प्रागति समझाच ताहि ।।५२४८।। मुनिवर बोले मोपें तुम सुगौं । तुमके भव सब ही में भणों ।। मगध देस सालिग्राम समीप । भरत खेत्र तिहां जंबूद्वीप ॥५२४६।। कर्म करि हैं बाह्य करि सांन । जो तिण गया धरती बन यांन ।। घडी च्यार सेती घर वाइ । भोजन किया दिवस में जाह ।।५२५०।। तिहां धनरह बरखा घनघोर । सात दिनां वन मास्था जोर ।। मूले सियाल थे तिहां दोइ । सात दिवस भूखे दुखी होई ॥५२५१।। व्रत्त चांम की भीजी तिहां । भाली गाल मरण ते लहा ।। उठी मूल दोन्यु मर गये । सोमदेव के सुत दोष भए ॥५२५२।। उन फिसाए तिहां सुष लहो । देख ब्रल मन विस्मय भई ।। देखे मुए दोई सियाल । लियं उठाइ उपेडी खाल ॥५२५३१॥ यहि द्विम सुवा पाई के काल । पिता पुत्र के उपज्या बाल । अष्ट वर्ष का हुवा पुत्र । देखो खाल स्पाल संजुक्त ।।५२५४।। भब सुमरणा विन फू भई । मेरी प्रसूति पूत्र घर भई ।। कैसे कहूं पुत्र फूतात । बहु सों कि विध कहिए मात ।।५२५५।। ऐसी समझि रह्या दोउ मूक । मुख से वचन न बोले चूक ।। प्रगनिभूत वायुभूत दोऊ बीर । गये तुरन्त सरके तीर ।। ५२५६।। देखी खाल टंकी तिह ठांय । समझि सांच हीएपरि भाव।। गूगे से सब कही मन की बात । मिटे भेद सब ही इह भांत ।।५२५७।। जछि प्रमुखि साध पं गया । नमस्कार करि ठाढा भया ।। मुनिवर सकल कही समझाय । अपने मन में मति पिछताइ ।।५२५८।। धादि अनादि बिछ गति बीच । कबहीं उत्तम कबहीं नीच ।। नटबा भेष घरचा बहु जौंन । लख चौरासी में कीया गॉन ।।५२५६ ।। पिता होह पुत्र का पुत्र । माता होई धरणी संजुक्त ।। नारी जगनी उत्तपत्र 1 कब ही होई भाई बहन ।।५२६०।। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ पद्मपुराण कबही अरि अरु कद ही मित्र । कबही माता होइ कालत्र ।। काबही राजा कबही रंक । कबही ठाकुर सेब निसंके ।।५२६१।। काबही धार देव स्वरूप । कबही दुनिया महा कुरूप ।। कबहीं कामदेव उरिणहार । कबही कुष्टी रोग अपार ।।५२६२।। जसे फिर रहठ की घडी । कयही रीती कवहीं भरी ॥ जैसी सुणि सब संसय गया । अष्टांग नमस्कार तय किया ।।५२६३।। प्रमुजी मोकू दिव्या देहु । बाँह पकष्टि हूं व्रत ग्रह लेह ॥ मुनिवर काहै फेरि घरि जाइ । प्रागा माँगि कुटंब पं प्राइ ।।५२६४।। सबै दिव्या देनी सुम्हें सही। विन आगन्या तपस्या नहीं कही ।। प्रमुजी पाए मापने गेह । सकल सभा का मिट'घा संदेह ।। ५२६५।। के समझि परै चारित्र । किन ही लीया श्रावक व्रत ।। जिहाँ तिहाँ कथा अहे बलं । दोन्यु विप्र मनमे जलें ॥५२६६।। स्थाल जोनि से वे विप्र भए । काम निर्जरा पंडित पर 1 इतनी जात कहा है देव । जारी नहीं धरम का भेष ॥५२६७५ ब्राह्मण देव कहा और स्वरूप । प्रगनि देव कहें मर भूप ।। कैसे मए देब एह जीव । करै कर्म पाप की नींव 1॥५२६: 1 ब्रह्म सों परमातम चिस्व । संयम क्रिया की विध किन्न ।। ए पापी होमैं अगिरणत जोव । कर वृत्त पाप की नींब ||५२६६।। कंद मूल फल लेह प्रहार | पुन्य पाप को नहीं विचार ।। निस भोजन भरण छानो नीर | दया भेद जाणे' नहीं पीर ॥५२७० । सपं देव कसें करि होइ । जिसके दृस्या न जी कोई ॥ अगति धया कर नहीं काई । जो कछु पड़े भस्म होइ जाई ।।५२७१।। मुरख पुरुष ने देवता कहैं । ग्यान भाव का भेद न लहें ॥ वित्र वही जो पाले दया । धन्य साध जो इह विष तप किया ।।५२७२।। पूरब भव की जाणे बात । उनत अवर न उत्तिम जात ।। राजा रंक सफल ही लोग । प्रसतुति कर जे साप योग ।।५२७३।। विप्र के मन भया विरोष । निस पाए धरि चित्त विरोध ।। कादि खड़ग दोनू एक बार । बहुरि करें धरम विचार ।।५२७४।। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५५ मुनि सभाचं एवं उनका पत्रपुराण प्रद्युम्न एवं संबुकमार के पूर्व भष विप्र संन्यासी तपेसुरी । अतीत अनागत लघु अस्तरी ।। इनके मारपां उपजे पाप । भव भव सहे दुःख संताग ।।५२७५।। जइ तेरा मन में हैं बैर । पहिले तू हमकू मारि करि ढेर ।। ५ऊ । इन मार मह । दो सा बटग उन्नहि ।।५२७६।। बांध्या यक्ष दोनु काका हाथ | उभा द्विज बंठा मुनिनाथ ।। प्रभात समै जागे सब सेठ । लघु वृद्ध बदमा चाल्या घेठ ।।५२५७।। नमस्कार करि पूरा करी । वा मुनि में सच ही की दिष्ठ पडी ।। मगनभूत वायुमूत विप्र । हाथ जोडि कर नागेस पुत्र ॥५२७८।। ऊंये कर दोन्यु' का बघ । उभा इम दोन्पु द्विज अघ ।। सती जती बंठा सुअडोल । गहि मौन वोले नहिं बोल ॥५२७६।। जे भावं ते गारी देह । रे पापी कीन्हीं कहा एह ।। मुनिवर बंट वन में प्रांनि । इनके चित्त निरंजन ध्यान ।।५२८०॥ किसही सु नहि करते नोल । सव ही नै दई मारग मोष्य ।। मुनिवर • तुम दीना दुःख । तसा अब देखउ परतष्य ।।५.२०१६॥ बहुत लजाए बाभण दोइ । मिग धिग कह जगत सब कोइ । सोमदेव अगनला माई, मुनिवर के बे लाम्या पाई ॥५२८२॥ म्वामि नमुहूं दोउ कर जोडि । हमनें दिखणां यो इन हैं छोडि ।। पुत्र भीख दीजे करि मया । तुम प्रभु पालो हो अति दया ।।५२८३।। मनि बोल दंपप्ति सों बाल । हमारे नहीं क्रोध की जात ।। विनती कर जव्य सौं घगी। अतिरिगति जष्य असी सुणी ।।५२६४।। कहे जय ए पापी दुष्ट । इनां दीया है साधनइ दुःख ।। जैसा सु बोले तैसा सुगणं । जैसा चावं तैसा लुणे । ५२८५।। ज्यौं दरमा मां देखें कोह । जसा चितं तैसा होइ ।। जे मुख को टेढा करि देखें । तैसा ही ताम दरसन लेख ॥५२८६।। जे देखई सुधा करि बदन । तैसा तामें हैं दरमन ।। ए हैं पापी महा अम्यान । इन न छोड़ अपने जान ।।५२८७।। मुनिवर बात जष्य सू कहैं । सुष्यम बादर करुणा चित गहैं ।। ए दोन्यू पंचेन्द्रिय जीव । छोडो वेगि इनकी ग्रीव ।।५२८८।। जीव दया कारण प्रत करें। हिसा त नित वासर डरै॥ जनमें रहूँ परीसह सहैं । से कसें जीवां ने दह ।।५२८६।। Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ पपपुराण अतिरिक्त छोड़ो तुम यक्ष | इन दोन्यु सो न करो कुन । विप्र छोडि दिया तिण बार । उनौं विप्र कुं कराया नमस्कार ॥५३६०।। तब अणुव्रत विप्र कू दिया । जैनधर्म निसचे सू किया ।। घरम पुराए हैं मन ल्याइ । खोटी क्रिया विष दई बिहाइ ।।५२९१॥ जीव दया के पाले भेद । पसभ करम का कीया छेद 1। सोमदेव प्रगनिला नत गह्मा । उनपे व्रत न जात्र सह्मा ।१५२६२।। मरि करि भ्रम्या बहत संसार | दोन्यु विप्र स्वरग सिंह बार ।। मुगति प्राव प्रजोध्यापुरी । सुभदर दत्त राजा रिध जुरी ।।५२६६।। घारणी राणी के गरभ प्राइ । पूरणप्रभ मानभद्र जाइ ।। पाई वृद्ध सयार भए । राजा के इहै उपजी हिए ।।५२६४|| उन दोन्यु को दीयो राज । प्रापण किया धरम का काज ।। बहुत दिनां भुगते सब देस । मुनिवर बल किया प्रवेस ।।५२६५५ । मुनि नरेन्द्र दरसन कुपले । चिंडाल पास कुकरी गले ।। उनकौं देख अपना नेह । भेटच्या चाहे उनसों देह ।।५२६६।। सन में सोच कर बहु भाइ । चलें पूछिये मुनिवर जाइ ।। गये साथ पै करि इंडोत । राजा पूछी बात बहुत ।। ५२६७।। स्वामी एक प्रचंभा सुरणी । इनहे देखि मोह ऊपत्यो घणु ।। कवरणएकवरण हम जात । ए प्रतक्ष्य चिडालहै पांति ।। ५२६८।। जिह के छियां लीजिए सुचि । तासु होय मिलण की रुचि ।। बोले ईह सोमदेव विप्र । प्रगनिलाए ए सुनी अगित ।। ५२६६।। पूरव भव का माता पिता | ता कारण मोह की लता ।। एक मास रही है प्राव । चंडाल कूकरी संन्यास सिंह प्राय ।।५३००।। काल पाइ नंदीसुर द्वीप । दोन्या भए देव सु सभीप । दोई भूपति नई धरमणां । जैन धरम विव पालै घणा ।।५३०१।। देही छोडि सौधरम विमाण | तिहां ते चए अयोध्या प्रांन ।। हेमनाभ राजा कई गेह । अमरावती राणी रूप की देह ।। ५३०२।। ताकै जा अति प्रतापी भए । हैमप्रभ संयम बत लिए । राबभार मघु कीट में दिया । श्राप गुरु लिंग संयम लिया ।। ५३०३३॥ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण राजा मघु श्रति प्रतापी भए । नाम सुरंगत श्ररि उठि गए । सर्व नृपति मान सिंह आरण ए भुविपरि रविचंद्र समाश ।। ५३०४ ।। राजा भीम न मानें संक । जसके गढ़ प्रति विरुट विक ॥ सिह कारण राजा मधु चला । वीरसेन मारग में मिल्या ।। ५३०५ ।। निग्रोध नगर में करि सनमान 1 बहुत बेट ग्रागें धरी प्रांन ॥ चन्द्राभा वीरसेन की प्रस्तरी । रूपनंत लावण्य गुण भरी ||५.३०६॥ की भाइ झरोखे द्वारि । भाई देखी नीर मंभारि ।। राजा भया मुरछावंत । जाणों भए प्राण का मंत २।१३०७ ।। चेत्यो राजा करें बिचार | फिरतो आई करू उपचार || भीम राजा से मांड्या खेत I बांध्या तुरंत जुध के हेत ।।५३०८ || माया तुरंत अजोध्या देस चंद्राभा मन खुटक नरेस ।। देस देस को लेख पटाइ । सब कूटंब तब नृपति नाय ||५.३०१ ।। ४५७ आए सकल देस के सूप जीमया दीघा महा अनूप ॥ काहूँ कु स्वस्थ दिया सिरपाव । किहूं कू गज परगने गांव ।। ५३१० aasi दिया जिस्मा परवीन सो कुटुंब का राख्या मनि ॥३ वीरसेन सो सी कहो। तुम भी जावो अपनी मही ।। ५३११|| कछू आभरण संवरंगा अभी । विदा करस्यां चंद्राभा तभी || वीरसेन ने किया पयति । मधु राजा चन्द्राभा मान ।।५३१२। मसहपुर पटराणी अपि । राजा मनमें विचारधा पाप || भोग मुगलि सौंवीतं काल । राजा तजी बरम की लाज ।। १३१३ ।। जे रखवाला चन्द्रा पास ते सब भाजे होइ निरास ॥ . बोरसेन कू वह सुध भई | चन्द्राभा छीन उनु नै लई ।। ५३१४ ।। वीरसेन बहुत विललाइ । बलवंत सो कछु न बसाइ ॥ यह प्रथवीपति जार्क हैं देस । इह अधीन इह ना नरेश ।। ५३१५।। छांडी राज फिरे विकराल | व्याप्या होए नारी का साल || नमें फिर अधिक बिललाइ । वाकेँ चित्त कबहु न बसाइ ।।५३१६॥ करें पुकार बिर गिर फिर भूमि | ऐसी महा मचावं घूमि ॥ चन्द्राभा ऊंचा सू देखि | कंत फिरे है श्र से भेस ।।५३१७॥ बेर बेर राखी पिछुताइ । मांहरे दुःख फिर इन भाइ ।। राजभिष्ट हो डोल मही । इसके कोई सहाई नहीं ।।५३१८ ।। Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ पद्मपुराण मो कारण मंसी गति फिर। पिछताव राणी हिए भरै ।। भ्रमत फिर कारज सरै नांहि । मजिम प्रिय दिष्ट परचा काहि नमस्कार करि पूर्छ घरम । सुणे भेद लागे चिन मरम || दिष्या लई संन्यासी पारा । पंचागि साधे बनवास ॥५३२०।। देही छांडि लही गति देव । इह राजा सुख विलस एव ।। झरोखं बैठा राजा बाह । कोटवाल भाषा सिंह ठाइ ।।५३२१|| एक मरद पकरघा परनारि । हाथ बांध प्राण्या तिह वार ।। राजा सुणी किया इह न्याय । इह को हरणों चोर की ठाव ।।५३२२।। फिर अंसा न करे कोई काम । खोव धरम लजावे गांव ।। तब राणी चंद्राभा का । राजा जी तुम मेद न लगा ।।५३२३।। इन कहा अब विगार । जिनौं को मारि करो हो छार ।। इनको बहुत दीजिये दान । निरम करो ज्यु मनमांन ।।५३२४।। इनों की पूजा करणां न्याइ । कहा चूक भई इनतें राय ॥ राजा कहे सुण राणी बात 1 तेरी मति भिष्ट भई इह भांति ।।५३२५।। अन्याई की तू पूजा कहै । दान दिलाव भेद म लहै ।। अन्यायी है यह महा पापिष्ट । इनको दीजे महान कष्ट ॥५३२६।। जितना हुये पुन्य यिसतार | भूलि न कर कोई बिगार ५ चन्द्राभा समझाये वैन । अपना वचन परिषो करि नैन ।।५३२७।। कहो तै मो करि प्रांनी व्याह । मुझ बिन व्याकुल है मेरो माह ।। जो राजा खोटा हुवे आप। तिसकी प्रजा कर अति पाप ॥५३२८।। त्रिया बचन सुणि भई संभालि । सत्य वचन समझे भूपाल ।। हाइ हाइ कर मी पाप । मैने कियो प्रथी को पाप ।।५३२६।। मो सरिखा करम ए करें । पृथिवी परि को अपजस घरै ।। उज्जल कुल लागो कालौंस । अब हूं घोऊं कइसी रोस ॥५.३३ ॥ मो कू भई पाप की बुधि । भूली राजनीति की सुधि || कटिन पाप कैसे होवै दूरि | ताहि न होने ऊषध सूल ।।५३२१॥ मन वैराग धरौ प्रति सोच । राज भोग सी छोडी राषि । सहन्न अव वन उत्तम महीं । सिद्ध पदम मुनि पाए सही ।।५३३२।। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभावन्त एवं उनका पद्मपुराण राजा सुनि मुनिवर बिग गया। नमस्कार करि ठाढा भया ।। कर वीनती मस्तक नाय । पाप करम में किया प्रवाह || ५३३३३ कैसे टरे पाप का दोष । गुरु संगति से लहिन मोष्य || मुनिवर करें ग्यान यह राजा से मन लाइ || ५३३४ || कुलवर्धन कु राजा किया कोटभ ने भी दीक्षा धरी । था प्राइ संयम व्रत लिया । करें तपस्या दोन मिल खगे ।। ३५३५ ।। सूरज सर्प परवत की सिला । काया तथै पसीना चल्या || वह पाप देह तं खंड | ग्यानामृत को पी छूटि ।। ५३३६ ।। वर्षा में तरुतलि वरं । मुसलधार मेह की पई ॥ मछर डांस तनमें लगे । बयाल प्राई आइ के लगे ।। ५३३७॥ सीयाले सरबर को पाल पई तुसार चलें बहु व्यार ॥ परित माहि परीस्या सह । वाईस विध कही है त्युं तन दहें ।। ५३३८ ।। सातप करि करी है देह । अच्युत स्वर्ग इन्द्र पद एह ॥ उनकी प्रति इन्द्र सीता जीव । तह्काल चिर सुख की नींव । ५३३६ मधुकोटभ च्युत विमान दोऊं भए कृष्ण भरि ग्राय । । मधु का जीव भया पद्म मन कीटभ हुन संबु कुमार तिहां तें चए द्वारामती ग्रान ॥ रूपवंत बल सोभैं काय ।। ५३४० ॥ रुकमण में गर्भ पाईज जंन ॥ जांबवती उर लिया अवतार ||५३४१ ।। वृह कथा कही पशुमन की, श्री जिनवर समभाव || श्री गौतम विधि सों भली, सुणी जु श्रेणिक राइ ।। ५३४२ ।। जो सुरी हैं एह पुरांण, ते निसचं समकित गर्दै || पावैं अमर विमारा, दया श्रंग मनमा रहे ।। ५३४३ ।। ४५६ इति श्री पद्मपुराणे मधु कीटक भव विधानक १०३ वां विधानक चौपई inपुर तिहां कंचन रथ । सुरेन्द्र इन्द्र गुन करि समरस्य ॥ दोइ कन्या ताक वर सुता । रूप लक्ष्यण गुंरंग करि सोभिता || ५३४४० Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपपुराण स्वयंवर रच्या बुलाये राइ । देस प्रदेस बसीठ पठाइ ।। नृपति पाये कांचन पुरी । सहु मूपति की सीमा जुरी ।।५३४५।। रथ परि बैठी दोन्युपुत्तरी । जगतिपति कंचुकी मति स्नरी । सबहन का नाम कंचुकी कहै । कन्या दृष्ट न कोई लहै ।।५३४६।। विद्याधर देखिया नरेस । भूमिगोरिया दिस कियो प्रवेस ।। राजा सकल प्रचंभा करें । अब इस कन्मा किस कुंवरै ।।५३४७।। कन्या के विना हि प्राव कोइ । मान भंग सब भूपति होइ ।। लवनांकुस देखिया कुमार । फूलमाल गल गरे हार ॥५३४८।। जे में कार कर सह लोग । लखमण के सुत मान्या सोग । माठ पुत्र त्रिरा से पंचास । भए कोग मन धरै उदास ।।५.३४६।। लवनांकस हम ते क्या भले । धाली माल इनां के गले ।। हम मांडेंगे इनसे राठि । भूपति सब मिल कर विभाड ॥५३५०11 इनकै हीए गांठ यह पड़ी । कैसे छट इह यस घडी 11 पाठ भूप की कन्या पाठ । वे माला ले वहठी दे गांठ ।।५३५१।। पाछु के गले माली माल ! के नसे !! मंदाप्रगनि लवन नै व्याहि । ससोकचक्रा मदनसि नांहि ॥५३५२।। प्राउ व्याह प्राकु भए । अधिक सुख उपज्या उंन हीए । लवनांकुस को पाठों देखि । बहुरि मनमा करें परेसि ।।५३५३।। हम तो है नारायण पुष । तीन पंड मां रह्यो न सत्रु ।। रावण मारमा हमारे पिता । जीत्या सकल देस पुर जिता ।।५३५४।। तीन से अठावन हम बीर । महाबली भर साहस पीर ।। जो कछु है सो हमारा दल । हम समान किसका है बल ॥५३३५।। मान भंग हमारा किमर । उनै ब्याह लवनांकुस लिया । जे ए हमस मार्ड युष । मार गुमांवां इनकी सुध ।।५३५६।। रूपमती सुत कह विचार । सुमारी हांसी हुवै संसार ।। तुम तीनस अठावन वीर | ए कन्या थी दो सरीर ।।५३५७|| कैसे होता तुम सों काज । कैसी रहै तुमा कुल लाज ।। राम लखमण है बहु प्रीत । दुख सुख भुगतै एफ रीत ।।५३५८।। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाब एवं उनका पपपुराण ४६१ जैसे तुम तैसे ये भ्रात । छंडो क्रोथ करो मन सांत ।। मुख संसार सदा नहीं थिर । सागर बंध रहै नहीं चिर ॥५३५६।। एफण दिक्स होई विणास । ता थे करो मुगति की प्रास ।। मुकति बघु सुख सदा अचल : श्री जिनवाणी रहें अटल ।।५६६०|| समफित सौ निसचे तप करो । बैग जाई अमर पद घरो॥ बहुत भांत समझायो ग्यान । सबको भयो परम सौं ध्यान ।।५३६१॥ लखमण की प्राग्या कु गए । हाथ जोडि थाडे दोन भए । भादि भनादि भ्रम्य साहं तित । समति बिना न पाई गति ।।५३६२।। भ्रम्यों लख चौरासी जोंनि । बिहंगति मांही कौन गौन ।। रोग सोग मारत मां फिरचा | श्री जिन वाक्य न चित मां घरचा ||५३६३।। अब दिया ले साधं जोग । जनम जरा का मेटै रोग । लखमण बोल सुण हो कुमार 1 जैन धरम खांडे की धार ॥५३६४।। तुम बालक भरि जोवन स । कैसे संघ जती का भेस ।। भुगत्या नहीं सुख संसार । नऊल तुम व्याही हे नारि ।। ५३६५।। उनहि छोडि जई दिल्या लेहु । उनके सूल तुम कहा फरेष्टु ।। जई तुम उनका गहो संताप । तो तुमको होवई बहु पाप ॥५३६६।। इह है भोग भगत की बेर । चउथै प्राश्रम संयम फेर ।। ए सुख छोरि लीजिए न जोग । जोवन समय भोगयो भोग ।।५३६७|| अणुव्रत सरावग का लेहू | पूजा दान सुपात्रां देह ।। ध्यारू विध के दीजे दांन । वयाबरत सब का सनमान ।।५३६८।। वोल कुमर सुणु तुम तात । भ्रमे लक्ष चउरासी जात ।। संपय विभव बहुत परवार । भव भव बीम लहे नहि पार ॥५३६६।। जम की पासि पई जब हंस । होह सहाई धरम का संस ।। स्वारथ रूपों सब संसार । पुद्गल आदि न कोई सार ॥५३७०।। पुन्य पापन एक कर जान । इनसे फिर मुगत इह मान । तग करि के पावै निरवान । भ्रमै नहीं भवसागर मान ।।५३७१।। महाबल मुनिवर दिग जाइ। दिल्या लही मन बम काइ।। मातमध्यान लगाया जोग । छोड दिये संसारी भोग ।।५३७२।। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ पद्मपुराण परमो ध्यान चिद्रूप सों, दया भाव करि चिर ।। नखमण के सुत प्रतिबली, कियो धरम में हित ।।५३७३।। इति श्री पद्मपुराणे लक्षमण पुत्र मिक्रमण विधान १०४ वां विषानक पपई भावमंडल में चेत्या धरम 1 सकल जनम बांधिया कुकर्म ।। जब गंघरण सु कियो संग्राम । बहुत लोग मारे तिह ठाम ।। ५३.७४।। अपर देस कू बांधे घणो । दुरजन दुष्ट बहुत ही हरणे ।। पांचु इन्द्री मुख कियो अथाह । मानुष अनम दियो यू ही गमाइ ।।७३७५।। यातग काज समार न सक्या। मोह कंघ माया बस थक्या ।। प्रब जे छोडु राज विभूत । हन गय वाहण विभन संयुक्त ।।५३७६।। ए नारी किन्नर उरिणसार । कोमल अंग कमल सुकुमार ।। सदा सुख सों बीतै घड़ी । मो दिन छह रिस जाई बुरी ।।५३७७।। बारह मास किम सह संताप । मुझ बिन मरै कर विललाप ।। इना की कल्पना लागं माहि । किस विध इनसू करू विछोह ।।५३७८|| कोई कोई भूपति बलबान । मान नहीं हमारी प्रान ।। साधू सब संसा करि दूर । तब दिक्षा लेहूं भर पूर ।।५३७६।। प्रेसी विध मन सो घनी । इह जाग इक कारण बण्यो ।। सोये था सत खण मावास | बिजली पडी प्रारण का नास ।।५३०॥ मन मा चितवं था कछु और । प्रण चित्या हवा इरा कोर ।। जिण नहीं ढील धरम की करी । तिसका मन की पुजी रली ।।५३८१॥ धरम करण को कर विचार | सोचि सोचि जे राखे टारि ।। जनम अकारथ यूही खोइ । अवसर चूक कबई न होइ ।।५३८॥ परम काज कीजिए तुरंत । पाषं सुख अरु मोष्य लहत ॥ सोच करंत जे व्याप काल । फेर पड़े माया के जाल ।।५.३०३।। थित चेतन सो ल्याव प्रीत । धन्य धन्य पुरुष प्रतीत ।। पाप तिर प्रवरी में त्यार । फेर न बहुरि भरमै संसार ।।५३८४।। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पमपुराण ४६३ वहा घरम बिलंब न कीजिए, करिये पहुंच समान ।। मम बांछित सुनो... बहुरि लारिसान .. . इति श्री पपपुराणे भावनंडस परलोक गमन विधानक १०५ वां विधान चौपई हनुमान की तपस्या गगन लखमण सम अन्य न कोई भूप । वल पौरिख प्ररु महा स्वरूप । रामचन्द्र सेती प्रति प्रीत । जाणे सकल धरम की रीत ।।५३८६।। उनाले भुगत सुख घणे । सीतल मनोहर जल सु वणे ॥ ऊंचा मंदिर प्रति उत्तंग । महा सुगंध फूल सुरंग ॥५३८७।। झरनां तं तिहां निकल नीर । उछल जल सुख हुवं सरीर || गोकर ढांढी छाई छान | ई माफिक सुख भुगत हनुमान ॥५३८८।। बहुरि विचार कर मनमाहि । यह संसार भरनो दुस्ख माहि ।। पुत्र कलित्र सब लिये बुलाई । उनी बात कही समझाइ ।।५३८६।। इह संसार बिजली उद्योत । फिर छिन में अंधियारा होत ।। हम तुमर्सी ईहाँ लग भी प्रीत । अब हम जाह हो इहो अनीत ।। ५.३६० ।। इनका चित्त निहचल थंभ । रोवं परिजन लोग कुटंब ।। चदि सुखपाल चैति बन गए । राजा प्रजा परियण संग थए ।।५३६१।। सेना सकल भई उठि संग । बाजा बाजै ताल मृदंग ।। धरम रतन मुनिवर पं जाइ । नमस्कार करि बोल राइ ॥५३६२।। स्वामी मोक दिष्या देंट । बौह पकडि अपनी संग लेह ।। विद्युतगति सुत न दे राज । सौंपी सब परियण की लाज ।। ५३६३ ।। मुकट उतारि सबै शृंगार । बसरि फाडि दिए तिह डालि ।। लौंचे केस दिगंबर रूप । सात से पंचास प्रवर संगि भूप ।।५३६४।। कर तपस्या मन बच काइ । प्रातमध्यान धरै मन लाह ।। सेरह विध सौं चारित्रं घरचा । बारह इस क्सि तप करया ।।५३६५।। समकित प्रष्ट ग्रंग संजुक्तं । भष्ट अंग' घरि ग्यान बहुत्त ।। अनष्या का प्रेष्यन कर । ज्यान खड़ग करमें ले घर ।।५३६६|| Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपपुराण इस लक्षण गुण चक्र संभार । सन श्रावध विहां दिए हारि ।। अष्ट करम से मांड युध । सह परीसा बाईस सुध ।। ५३६७।। छ महीने लेई माहार । मन बच काई हल अपार ॥ प्रातम चिदानंद सों ध्यान । केवल ग्यान लहै हनुमान ॥५३६८।। करि विहार फिरे बहु देस । भव्य जीव कूदे उपदेस ।। श्रीमती लक्ष्मी अरु भणी। धमती प्रारजिका सु भणी ॥५३६६।। दिव्या देह हम कू आणि । हम भी कर प्रातमा काज ।। सब ही मिले संयम ब्रत लिया । निश्चल ध्यान निर जन किया ।।५४००। देही ते ममता राखी नहीं । जिनके चित्त समकित है सही ।। हनोंमान प्रतिबोधे घणे । प्रष्ट करम परि सब हणे ।।५४०१।। हनुमान पंचम गति नहीं । जोसि मा जोति समाही सही ।। मुकति बध सुख उत्तम शन । दरसन बल बीरज बहु ग्यान ।।५४०२।। कथा सुनै हणुमान की, कर दया सुमान ।। देवलोक सुख भुगति करि, पावं ते निरवाण ॥५४०३।। इति श्री पपपुराणे हनुमान निर्माणा विधानक १०६ वा विधानक चौपई रामचंद्र जब असो सुरणी । हनूमान छोडी सब दूनी ॥ भया मुनी दिगंबर भेस | करै अति काया कलेस ॥५४०४।। प्रबर चेती कुवरों की बात । रघुबर सोप रह विरतांज ॥ रे रे मई मूरख छोई राज ! काया कष्ट सहे बिन काज ।।५४०२ वेषत मसुभ करम का भाव । राज छोरि भिक्षा में माय ।। ए सुख छांडि परीसा सहैं । जैसे बहुरि कहां सुख सह ॥५४०६।। मूरिख लघरण करि करि मरं । पूरव पापन के कहां टरं ।। निदा करी इणु की धरणी । इन्द्रलोक में घरचा इह वणी ।।५४०७।। सौधर्म इन्द्र की सभा तिहां जुडो । सकल विमूत तिहां सोम खरी ।। पुराण कहै इन्द्र जिहां सौधर्म । सिद्धांत बाणी समझार्य पमं ॥५४०६॥ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं इनका पमपुराण सप्त सत्य षट् द्रव्य बखांन । नव पदारथ कहें सुर ग्यांन ।। सुरगं देव सब प्रस्तुति करें । प्रभु ए भेद कब वावरण पै पड़ें ।।५४०६।। मनुष्य बिना न तपस्या होइ । देव परम करि राके न कोइ ।। पूजा देव करण समरथ । जैन घरम बिन सबै अकथ ।।५.४१०।। अरिहंत देव सम अन्य न देव । और धरम जनम का भेव ।। मिश्याती सास्त्र जे कहै । उसके वचन न चित्त में गहै ।।५४११।। वकता सरोता नरक जाइ । तिहां की नाहिं दया सुभाव ।। श्री जिनवाणी जीवन मूल । मुमकित को छोडो जिन भुल ॥५४१२ देव एक बुलाइ सभा । मध्यलोक में जन मैं जाइ ।। तिहां माया में होद अचेत ! कैसे पले धरम लों हेत ।।५४१३।। राम लखमा ब्रह्मलोक ते चए । ते माया में मयमत भए । रामचन्द्र लखमरण सों प्रीत । पल नहीं बिछाई भैसी रीत ।१५४१४।। माह के बासे दोनू है घणे । एक च अष्ट करम कु हने ।। प्रीति न छोडें किस ही भांति । यू ही उनकी प्राव विहात ।।५४१५।। दहा भोग भुगत मान रली, दियो धरम बिसराई ।। दया विहूंणा मानवी, किन न पाच भष पार ||५४१६॥ इति श्री परापुराणे संकर सुर संकर कया विधानक १०७ वां विधानक चौपई रतन चूल भर तमचूल । दोनू देव प्रणाष का मूल ।। एता क ह्या उना का मोह । पल नहीं होब उनका विछोह ।। ५४१७॥ इन्द्र बात में प्राणी हिये । वोन्यू चाहँ परचा लिये। मध्य लोक पाया दोउ देव । कहै इक देखें इनका भेव ।।५४१०।। रामचन्दर के मन्दिर गए । जुगल देवता परपंच किये ।। मायामई एक परपंच रच्या। मंदिर में रुदन मचाया सचा ।।५४१६।। राम राम करि रो नारि । पीट सिर मांडारं वारि ।। पोलिये रुदन सुण्यां तिहबार । दोडया पाया लखमण द्वार ।।५४२०।। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ६ मंत्री श्रा पीटे सीस । रामचंद्र मुवा जगदीस || मंत्री ने खाई पछाड़ री पीठं सब संसार ||४४२१ ।। पद्मपुराण लखमा भाग पटकी पाग । रामचंद्र सुखी देही त्याग || सुण लखमण का फाटा हीया । हाइ हाइ करिने मृतक भया || ५४२२ ।। राम बिना मैं कैसे जीवं । हा हा करि प्राण दे देई || धाइ करि उठ्या देखूं हूं राम । पचा मूरखा हुई हि ठाम || ५४२३ । मंत्री रोब बोलई बाव । गए परांन जीव कां न नोव ॥ सहरी सहस्र रोवें अस्तरी । हाइ हाइ करि धरणी पडी ||५४२४॥ कोई पकड़ उठा बांह | कोई इक सबद सुणावो नाह || कोई लपट दई कंठ लगाइ । कोई करें बीजपा वाइ || ५४२५ ॥ कोई देखें मुख की रताई ॥ कोई पहला भाइ मृतक देखि सकल विललाई । तब वे दोई देव बिलषांई ||५४२६१ हम उपाया नउतन पाप । एता जीव करें विललाप ॥ नारायण की हत्या लई । हम एह उपाधि इनकों मुई ।। ५४२७|| हांसी करता हुबा नास । लखमण नैं उपजी अति श्रास ॥ हम से हुई महा कुबुधि । इतना किया प्राणि विरुष ।। ५४२८ || वैसा पाप टरंगा किस | दोन्या देवां के दुष मन बसे । इन्द्र वचन उन किया प्रतीत पाय पोट निन सिर धरीत ।। ५४२६॥ रामचन्द्र सुगी इह बात | लखमा मुवा तुमारा भ्रात ॥ राणी रुदन करें" ले नाम ||५४३० ॥ हाइ हाइ रुदन करें" श्रीराम ग्रीन टिकै ढरं तिहां माथ ।।५४३१ ।। मंदिर में पड़ी देखी लोभ । वासों लपटे दर्या बोथ || पत्र देखें अर सीले हाथ पगढी पटक बस्तर फाहि । भ्राता भ्राता करे पुकार ॥ मोह उदय तें हुवा प्रन्ध | बोलो वेग ज्याँ जीउं मैं बंध ।।५४३२ || खाइ पछाति मेलें सिर धूल 1 रुदन सू पोर्ट सुष सब भूल ।। ast बेर चित पाया ग्यान । हम मोह माया में इव्या जान ||५४३४५ मोह मांहि भ्रम चिह्न गति 1 करें तपस्या पावें स्थिति || रामचंद्र आग्या मांगि। महेन्द्र वन के मारग लागि ।।५४३५ ॥ अमृतस्वर मुनियर पं जाइ । नमस्कार करि लागे पाइ || स्वामी हम परि क्रिपा करो भव सागर से हम है ले तिरो ।।५४३६।। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाव एवं उनका पमपुराण दिष्या ले बैठे गुरु पासि ! पूनं तिहां मनोरथ मास ।। रामचंद्र थे बडा श्रेष्ठ । सीता भामंडल कुमर प्रष्ट ।।५४३७।। हनुमान लखमण अब मुवे । विछडे सकल प्रचंमै भए ।। वह बिमूति इन्द्र सम भई । एक दिवस में सब घिर गई ।।५४३८।। इह संसार जु र म पतंग । सब र गिये महा सूरग ।। उतरतां चार न लाग ताहि । तब इसका कहा पतियाय ॥५४३६।। तासू बहुत लगावै रुचि । भूलि गई अगली सब सुचि ।।५४४०।। राज किया तिहं पंड का, भुगत्या सुख अपार ॥ पुन्य विभव सब खिरगई, जात न लागी बार ।।५४४१।। इति श्री राक्ष कापुस पा विधायक १०८ वा विधानक चौपई लक्ष्मण को मृत्यु पर राम का विलाप रामचंद्र देखें निरताह । पीत बरण देखें सब काइ।। किह कारण काठा इह भ्रात । मुख सों कबहुं न बोलै बात ॥५४४२।। अन्य दिबस मोहि पाबत देखि । मादर करता पटाभिषेक ।। मेरे साथ बहुत दुख सहे । दंडक वन माहीं जब हम रहे ।।५४४३।। रावण मारे मेरे काज । रघुबंसी की राषी लाज ।। तुम बिना कसे जीउं पाप । कैसे इह मेटो संताप ||५४४४।। सुकोमल देह टटोल राम । सीता मोह व्याप्पा इस ठाम ।। भबन न बोल होइ रह्या मूक । मोसों कहा भई अब चूका ।।५४४५।। उठि लखमग तु लेह संभालि । लवनांकुस बन गये कुमार ।। दिक्षा कारण बन में गये । फेरो उनकू जती न भए ।।५४४६।। जब वह जाय कर लेसी जोग । तब हुवेगा मन सोग ।। धे बालक बहु कोमल अंग । कसे पाने दिष्या गुरु संग ।।५४४७।। उना की वय है भोग विलास । रहई जनों वन माहि प्रावास ।। अब तुम उठ करि ल्यावौ फेरि । रामचंद्र बोले बहु बेरि ।।५४४८।। जद्धिगया हंस वह मृतक पडे । राम विवेकी माह मा नडे ।। मुवा मानुष कैसे बोल बोल 1 माया के बसि हुमा भोल ।।५४४६।। Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६E पप्रपुराग भई रयण सिज्या बिछनाइ | लखमण क तब लिया उठाइ।। सिज्या परि पोढाए जाय । सोवे अपने कंठ लगाय ॥५४५०|| काहूं कू निकट न प्राय न देहि । बहुतै राम कर सनेह ।। इह सेज्या न्यारी है और । तिहां पाई सर्क नहीं प्रौर ।। ५४५१।। मो से कहो मनका सब भेद । तो हो संसय का छेद ।। ऐसी विधि बीती सर्वरी। भया प्रभात पाछिली छरी ।१५४५२।। पांच नाम कहि उठो संवारि । भूपति खडे तुम्हारे द्वार ।। पहराए सब वस्त्र संभारि । राजा सकल कर नमस्कार ॥५४५३।। तेरे ऊपर जांज उठो वीर । तुम विन जल है मेरा सरीर ।। रामचन्द्र सो, बहु भात | पीतबरण दीस किरात ।।५४५४।। उठे मोह बहत बिललाई पहिले मराज काई ।।। तेरा दुःख हं कैसे सहं । विना लषभरा कहो कसे रहूँ ।।५४५५।। बाल संघाती चीरडे, उठ मगन की झाल ॥ मोह माया के उदय तं, मिट नहीं जग जाल ।।५४५६।। इति श्री पयपुराणे लखमरण भृत रामचंद्र विलाप विधान १०६वां विधानक चौपई विद्याधर लखमण मरत सुगी । सब ही न तब मुंडो घुणी ।। हा हा भार हुवे सब ठौर । देस देस में माची रोंड ||५४५७।। भभीषण प्रादि सकल नरेस । सुग्रीव ससांक क्सक दुष के भेस ।। बिह लग छे विद्याधर भूप । असोध्या गए रुदन के रूप ।।५४५८॥ रामचंद्र कू करै नमस्कार । रोवं पीट स्नाइ पछाड ।। पगडी पटक फा? चीर । सबके हिए लखमण की पीर ।।५४५६।। रामचन्द्र रोब करे पुकार | रोवै पीटे खाइ पछाड ।। उठों बीर इनसू तुम बोल । मनं की घुडी बेग सुम खोल ।।५४६०॥ जै मुझत कुछ हुमा विगाड । छिमा करो तुम अब को बार ।। तब राजा समझा धनं । एता मोह कीए नहीं बने ||५४६१।। जीव जाइ पाय गति और । तुम क्या करो रोग सौं सोर ।। मदन किये लछमण जो फिर ! सब मिल यतन बहु विध करें ॥५४६२॥ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाखन्द एवं उनका पद्मपुराण दहन किया तुम करो याहि । इहै न जीने किस ही उपाय || ससुर को रघुईस | मन ही काटू सब के घीस || ५४६३ ।। मौसी लखमा मु हैं रूठ याहि मुरुंबा कहें बोलें झूठ ।। भभीषण बोल समझाइए भूमि कहा जानें राइ ॥ ५४६४॥ लखमण पडघा मूरछावंत । तासों कहें प्राण भए संत || याकु प्रोषधि करि हूं भली । ऐसी सुरण मन चिंता दली ।।५४६५. । घटे बिरोध भया सत भाव भभीषण बोलें तब राव || चाहं गति में एह सुभाव 1 काल न छोरी किस हो ठश्व ।।५४६६ ॥ तीर्थंकर अनं चक्रवत्ति | नारायण प्रतिनारायण सत्ति ।। बलभद्र अनई कामदेव । रुद्र काल बसि हुवई एव ॥ ५४६७।। सायर बंध सुरों को ग्राव व्याप्पं काल न छोर्ड ठांव ॥ मनुष्य पसू नरक गति दल काहू की न दया चित भइ सोश्त रोवत जागत खात । काल चक्र सब हो पं चलें || ५४६८ ।। । बालक वृद्ध तरुण को खाद || गावत नांचत चित्त से कान ।। ५४६६।। जल परवत गुफा मुंए रहे । इन्द्रह की सरणागति महे ॥ तोउ न छोड़े काल घटल | सकल खडा देखें तिहां दल || ५४७०|| ४६६ मात पिला सज्जन में कुटुंब । कोई न सके काल को थंभ ॥ पुरुष थे सा कठे गए। समय पाइ कॉल बस श्रए ।। ५४७१ ।। इक नई भई है नांहि । कीजे एती मोह की दाह ॥ मोह करम बैरी बलबान | धन्य साथ जिन जीत्या जान ।।५५७२।० भरमै जीव मोह के काज । कबही रंक कबही होवें राज || दिन समकित जो कुगति ही धणी । यदि अनादि जाइ न भरणी । ५४७३ ।। कवण वरण गति का परिवार छोटे बहुत न पाया पार || ज्यों बुदबुद जल उपजे में I से सब जो गति धर्मं । ५४७४ । जब लग हंस तब लग प्रीत I जीव दिना पुदगल भय भीत ॥ बासु कहा कीजिए नेह् । कीजिए सा सरन सु गेह ।।५४७५ ।। मोष नगर पहुंचावन हार 1| धरम जीव का करें ग्राधार लखमरण काया कीजिये दहन या का सकल मृतक है चिह्न || ५४७६ ।। इतनी सुण्यां फिर कोप्या राम । मेरी मित्र न होइ निदान || भाई का अब सांधु र रावण का बदला लई फेर ।।५४७७२ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬૪ जीव लखमण मेरा प्रात । इसका कहे जलावो गात ॥1 दुरजन वचन क्युं मातु आज राम का तीव्र मोह माहि नहीं काहू सूं काल ||५४७८ ॥ अब बोलें तुम छोड़ो क्रोध । तुमारा देखिया में समोध ॥ लखमरण तुम मृतक कहो । मोह राम रमन कछु लहो ||५४७६ ॥ चूहा जांणि बूझि सुध बोसरी, मोह करम के भाव मुवां जीवत कहैं, लिया फिरें इस ठांव ॥ ५४८०।। इति श्री पद्मपुराणे भभीषरण संसार परिष्या विधानक ११० यो विधानक चौपई पद्मपुराण सुग्रीव श्राइ करी बीनती । मृतक देह में जीव न रती ॥ माया में ज्यु रहे भुलाइ कहो ज्यु चिता संवारं जाइ ॥२४८१|| दहन किया लखमण की करो । राज विभूत फिर संभरी || सासुरिएकोप्या रामचंद्र । दहन करो तुमारो कुटुंब || ५४६२ ।। लासु भुवा सब मिल के कला ॥ कैसा बोल बोलें अग्यनि ||५४८३ ।। हमसों तब कोई कहै कछु नाहि ॥ मन कु कछु उपजाब विजोग ||५४६४ || मेरा भाई रूस के रह्या लखमण उठो सुणु दे कान चलो कहीं रहिए वनमांहि खोटा वचन कहें सब लोग बांधि पोट कांश परि हारि । मारग गहियो तहां उजादि ॥ मनमें किया श्रति उपाव | सनांन करो तुम लखमरण राव || ५४६५ ।। वहा चउका ऊगरि बैंठारण करि, किया उबटर गात ॥ सनान कराया मृतंक कु रघुपति अपने हाथ ।। ५४८६ ।। } चौपई वस्त्र पहराए उज्जल वरण । अवर भले साजे आभरण || पंचामृत से बाल भराइ । विनय करि बोले रघुराई ।।५४८७।। करें ग्राम लखमा मुख देइ । वह सुतक कैसे करि लेह || मुख परिषालं विन धरणा । लखमण मानौं मेरा भरा ||५४८८|| Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंव एवं उनका पद्मपुराण तुम बिन अन पांणी नहीं स्रावजे । मेरा बचन किम नहीं मानजे ॥ भले भले गंधर्ष बुलावजे । ताल मृदंग बांसरी बजावजे || ५४८६|| सब मिल गावें एक ही बार । जे लखमण सुशीं संभार ॥ गावें गुरगी जन बाजे जंत्र 1 कैसे बोले मृतक तंत्र | १५४९० | बहरि लिया कांधा परि आप । षष्ट मास प्रति सहें संताप || बेचर भूचर डोलें हिं पास राम न छोडें लक्षमण श्रास ॥ ५४६१ ।। खरदूषण का संबुकुमार । च्यार रतन सुत बली श्रपार ।। अमाली राष्यस दंस | लखमण का जान्यां उड गई हंस ॥ ५४९२ ।। रामचंद्र कुं व्याकुल सुन्यां नु सबु खडा हृय ।। काहि दिये ये प्रलंका माइ । विराधित न पहुंचाए जाइ ।। ५४६३|| रावण साइनु मारघा बली सबकी मांनं मरदन गली || प्राया अब हमारा दाब | अजोध्या जाइ विठा नाव || ५४६४ ।। ४७१ च्यार रतन और माली बज्र । सेभ्यां ले सब धाए सस्त्र || घेरी अजोध्या मारू बजाइ नेत्या सुभट संभाल्या राइ ।। ५४६५ ।। प्रयोध्या पर आक्रमण } रामचंद्र सो जाई सार दुरजन चदि श्राये तुम द्वार ।। तुम पर बैठो हम करि हैं जुध । रामचंद्र कुं आई सुध ५४६ ।। कंधा भोली लखमण कु लीए । जुन उपाव बहुविध क्रिये ।। बज्रावत्तं गह्या टंकार । हल और सस्त्र लीये संभार ।।५४६७ ।। दोघां मांड्या सुभटा बेन । शुभ स्वामि धरम के हेत || दारुण जुष दोघां हुवा | पीछे पांव धरें नहीं कुवा ||४|| जटा पंखी स्वर्ग विमान । उन मन मांहि विचारमा ज्ञान || मेरा प्रभु राम लखमरण । उनुं की श्राय वनी है कठिन || ५४६६ ॥ अब इस बिरियां करू सहाय कृतांतवक जीव सिंह ठाइ || जटा देव सों पूछी बात । अब तुम मध्य लोक कू जात ॥५५००|| चैव रूप जटायु द्वारा सहायता जटा देव पिछली कही कथा | दोनू प्रवधि बिचारी जथा || रामप्रसाद सुगत्यां बहु सुख । व्याप्या अंत मोह का दुख ॥५५०१ ॥ जाइ संबोधे इतनी बार 1 द्रोन्यु चैव प्राए रणह भंभार ॥ जटा देव सेन्या में दोडि । दुरजन के दल मांची शेर ।। ५५०२ ।। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ निहां तहां परवत दिखलाई। भाज न पायें सतरा !! पाथर पढ़ें जिम बरसें मेह । सुष न रही दुष्टों की देहु ।। ५५०३ ॥ निकरण के पार्टी नहीं गली । महा संकट सेन्या सिंह मिली | भैसा दल कहीं देख्या नाहि । रामचन्द्र गति का नहीं थाह ||५५०४ ॥ रामचंद्र सौं मांख्या जुष ।। विन प्राग्या श्रभी मान रमे ।। ५५०५ ।। हमारा इनर्सों कबहुं न चला || । दिष्या ले साथै धरम का काज ॥५५०६ ।। घरम द्वार देखें एंड राइ || हमारी महा हीन है बुधि । भभीषण मनें करें था हमें ए ईश्वर उनकी बड़ी कला। अब जे निकसरण पाव भाज जटा देव दया मन भाव । कार रत्न बज्रमाली नरेस रतनवेग मुनिवर पे जाइ । दिक्षा लई करि मन बच काइ ।। सहे परीस्या बीस प्रर दोइ । महा मुनीस्वर जिह विधा होइ || ५५०८१ दोन्युं भए बिगम्बर भेस ।।५५०७।। जटा देव साध्य कु देखि । नमस्कार उन किया परेष || धन्य जती जे सार्व' जोग । सधैं सकल माया का भोग ।।५५०६ ।। कुतलिय द्वारा राम को समझाने के लिये माया रचना पुराण कृतांत सूर अन्य जटा देव । इनु रच्या माया का भेव ॥ मारग मांहि क सुकी दाल । क्यारी रवी भति ही सुविसाल ||५५१० ।। कुबा उलीच सींचें नीर । बाडि बनायें वाके तीर ॥ रखवाली करें बहु भांति | बरजे सर्व कू' भीतर जात ।। ५५११ ।। रामचंद्र देख्या यह सूल । रे मूरख तुम काहै भूल ।। I सुकी लकड़ी किम ह्न षडी से एती क्युं करी जडी ||५५१२|| बिन कारज एता दुख सहै । सुकी डाल ए फल कहां है ॥ तब माली ने उत्तर दिया। तुम कां मृतक काँध लिया ।।५४१३ ।। इह जीव तो इह उपजे सहीं । सूकी डाल ए भी फल यही ॥ इतनी सुरण कोप्या रामचन्द्र । वन में भी हम कु दुख दुदे ।। ५५१४ । कुबचन लाग || वा कारण बसती कु त्याग । इह भी हम कहां मारू माली सिरं चोट । सा बचन का इन खोट २५५१५।। मेरा वीर रुट के रह्या मृतक कहें इन मेद न लह्या ॥ हो लग्नमरण सुरण छह बात । माली बचन कहें यह भांति ।।५५१६ ।। उठो बेगि लगाऊं हाथ सी कहै न काढू साथ || तज मैं क्यारी सब काहि । श्रये चल्या रघुपति राइ ।। ५५१७ । Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका वपुराण अन्य जु देख्या सेली एक राम पूछे तेली सू' भेद पीले रेत न करें विवेक ॥। का करें रेती सुरूं वेद ।। ५५१६॥ रेत माँझ तेल क्यू है | आप पर बेलकू द || बोला तेली सुणु तुम राम । जं जी यह मृतक इस टीम ।। ५५१६ ।। रेल मांझ भी निकस तेल। मृतक जीव तो सही ए पेल ।। सी सुरि बोले रघुनाय । ई गंवार तेली तु कुमाति ५५२०।। होकू कहे तू है मुवां । प्रपने जीव का डर ना ॥ कहा मारू तेली पर षडग कई लू तोड किया उपसरग ।। ५५२१. अग्रे देख्या कौतक अवर | मटकी नीर बिलो सिंह ठोर || गुवाल भी बोलं रघुनाथ जल में माखनिकर्म कि साथ ||२२| कहै हीर मृतक जे जीवई मुदा । तो जल मांहि घडि सन || है किसाग जे जीव मुवा । तो वह कमल हुवे नवा ।।५५२३ जटा देव कोलिक किया गल. १ भदन करें मोह में अंध ।।१५२। समभावे बाकू नरनाह ॥ मुवा न जीवं महा अगूठ || ५५२५ ।। क्रोधवंत तब होड चल्या मृतक एक लीया धरि कंघ रामचन्द्र नैं दिष्या ताहि । तो मोह करे कम मूढ जै लखमरण भी पा प्राण छह फिर जीव तेरा जांन || जें राजा जीवावें मुबा तो ए भी जीव पार्श्वगा नवा । ५५२६ ।। छह महिने वाकू गए वीत । ज्यों लखभरण त्यों या की रीत ॥ राम को वास्तविक ज्ञान प्राप्त होना श्री सुरण चेत्वा रामचन्द्र तोडया तुरत मोह का फंद ।। ५५२७॥ ज्यौं श्रसोग वृक्ष क्रू पाय | जोग विजोग मकल बह जाड़ || त्रिषा से व्याप्या पो नीर | मिट सकल शिवा की पीर ॥। ५५२८ ।। I जैसे श्री जिनवाणी सुरों । भव्य जीव पार्व सुख घणें ॥ ज्यों वटोही कों वन मांहि । सीतल पावें वृक्ष की छांह ।।५५२६ ।। जैसे तपसी पाने मोष्य । जनम जरा के टूटै दोष ॥ मोह दग्ध सबही बुझ गई । उपज्या ग्यांत चेतना भई ।। ५५३०|| ४७३ चिहुं भ्रमाने जीव बहु जौंन । थिरन रह्या किया तिह गौन ॥ मात पिता सुजन परिवार कीया भव में मोह पार ।। ५५३१ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापुराण कोई नहीं जज का समा । तुम अर सुभ कर्म सग सग्या ।। सुभ साता ते पागे सुम्न । प्रमुख उदय ते पागे दुख ।।५५३२।। मुबा न जी किस ही भांति । मैं क्यू दुग्न किया दिन रात ।। निकलप चुक्या भया संतोष । ग्यान लहर सू काया पोष ।।५५३३।। तिहां देव करी वादली । पवन सुवास चली तिहां भली ।। नांनी बूद मेह की घुगे । देवांगनां चरान कू नये ॥५५३४।। गानें गीत सुहावना बोल । ताल मृदंग बजाचे ढोल || रामचद्र गुण गाने पान । महा सुकंठ सुहावनां तान ।।५५३५। दोनू गुर तिहां प्रस्तुति करें । तत्र रघुनाथ पूछ उन खरै ।। तुम हो कवण कहो गांची बात । रूप प्ररुप बिराज कांति ।।५५३६।। वाह देव हम तुम्हारे भगत । जटा पस्नी मैं पाई सुर गति ।। जब रावण ने सीता हरी । तव में अपणी बल बहू करी ।।५५३७।। उन मुन नै डारियां रोड । तुम ही सुनाए पंचनाम बहोरि ॥ तुम प्रसाद मैं हुवा देव । सुग्न' में कबहुं जाण्यां भेव ।।५५.३८।। सीता की सुध वीसर गया । तुम कारिज मै कबहु न किया । तुम व्याकुल लखमण के काज । तव मुझ मासग कांप्मो प्राज 1॥५५३६।। इह कृतांतदक का जीव । सकल भूषण पं सुनी धरम की नींव ।। सुम वचन कीया धा एह । जे तुम लहो देव की देह ॥५५४०।। हम माया में रहैं मुलाइ । बा समै हमें समोभियो भाइ ।। जटा देव जब तुम पंचया । तब हम सों मारग में मिल्या ||५५४१।। हम भी सुरिग पाये तुम पास ! अब तुम करो मुगति की आस ।। विद्याधर ग्रनै भूमिगोचरौं । सगली समा राम ढिंग जुडी ।।५५४२॥ सत्रषन सूबरेल राम । मध्य लोग की भगतो टांग ।। राज विभूति दई सब तोहि । उत्तम घिमां कीजिए मोहि ।।५५४३।। सत्रुधन विनवै ति बार । तुम प्रसाद भुगत्या संसार ।। राज भोग में किया अथाह । तुम कौ छोडि कहां हम जायं ॥५५४४।। हम थी कर तपस्या संग । राज भोग जिन रंग पतंग ।। तप करि साधे यातम ग्यांन । बहुरि न भ्रमैं भवसायर मान 11५५४५|| राम सत्रुघन चिता इस धरी । सकल सभा मिल प्रस्तुति करी ।। पन्य राम त्रिभुवन पति राइ । घरम ध्यान यूमन दिढ ल्याई ॥५५४६।। Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंच एवं उनका पद्मपुराण सोरठा मन में धरइ राग, राज ग्धि सब परिहरी ।। दया भाव सू राग, धर्म प्रीत राग्लो स्ररी ॥५४४३।। इति श्री पद्मपुराणे लखमरण संस्कार मित्र देव प्रागमन विधानक १११ षां विधानक चौपई सधन के सांभलि बैन । रामचन्द्र सुख हुवा चैन ।। अन्य सशुधन तेरी बुधि । समकित मुन रसवो सुधि ।। ५५४६।। अनंग लवन लवन का पूत । दोघी सगली राज विभूति ।। पर बिठाइ करि हाले कानस 1 अनंग लवन मबही में गग्ग ।।५५४१।। परजा की रक्षा बहु कर । दया दान चित बहु विध घर ।। दुरजन दुमदा छिम गरे । गिगा सुर: माल्यो हिये ।।५५५०। भरथ चक्र ने छंड्या राज | घसा रामचन्द्र ने किए काज || संभूषण भभीषगा का पूत | दीयों लंका गज विभूत ।। ५५५१।। राजनीति सब जाग भली । प्रजा सुखी मन मान रली ।। मदगम गुल अगद का बली । सुग्रीव राज सोग्गा विध भली ।।५५५२।। वेईराग भात्र तब भयो नरेस । चाहे भया दिगंबर भेस ।। अरहदास सेठ प गए । सेट महोत्सव बहू विष किार ।।५५५३।। पुछे सेठ मे रावजी बात । गरु बतावो उत्तम जात ।। सेठ कहैं सुग्रत हैं मुनी । चारण रिध नाहि कपनी ।।५५५४।। मुनिसुव्रत स्वामी का बंग । महामुनी धरम का प्रस ।। अंसी सुणि मुनिवर 4 रले । प्रष्ट द्रव्य जे उत्तम भले ।।५५५'५।। पूजा कारण चले भूपाल । सेना सकल चली लिह काल ।। वन में मुनी का दरसन पाइ। उत्तरे भूमि सरब ही राड ॥५५५६।। करि डंडोत चरण कू नए । देइ परिक्रमा ठाढ़े भए । ग्रस्तुति करि बोलियो नरेन्द्र । ठाठे भए साध को वृन्द ॥५५५७।। स्वामी हम कू देहु चारित्र । जीतें मोह क्रम के सन्न ।। राजा सहस सोलह संग और । सत्ताईस सहस्र त्रिव संग और ॥५५५८।। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ पमप्रामा राम द्वारा मुनी बोक्षा होना मुनिवर का पाया उपदेश । रघुपति भए दिगंबर भेस ।। राज दोष तजि साधं जोग । छोडे सकल जाति का भोग ॥५५५६।। श्रीमती पास अजिका भई। बाईस विध सौं परिस्या सहीं ।। अवधिग्यांन रघुपति को भया । धर्म उपदेस घरण नै दिया ।।५५६।। सो बरषा लगि रहे कुमार । तीन में जन्म पिता की लार ॥ चारि सहस्त्र वरष मुनि साध । ग्यारह सहस्र पांच सो प्रडसठि बाधि ॥५५६१॥ इतना राज करना मन ल्याइ । पचीस वरप में केवल उपाइ । एक महरन ने बारह वरण । करी तपस्था मन में हरप ॥५५६२।। वोटा खरा समझि तन भेद । मिथ्यातम का किया विछेद ।। धरमरीत समझाब' ग्यांन । मिथ्या माने जे अम्यान ।।५५.६३।। जन घरम की निंदा करें । ते मिथ्याती नरकां प. ।। बहु तूनै समकित पद गया । पानी का संसा नहीं रहा ।।५५६४।। सोरठा सरव आउषो सत्रहे हजार, अनैं पांच वरष ।। रामचंद्र जगदीश, प्रतिबोधे भविजन घणें ॥ घरमा ध्यान इह ईस, ते महिमा कहाँ लग गिणे ॥५५६५।। इति श्री पपपुराणे श्रीराम मिःक्रमण विधान ११२ वां विधानक चौपई राम की सपस्या प्रातम ध्यान करै रामचन्द्र । वाणी सुरण त होई आनंद ।। इनके गुण अति प्रगम अपार । राम नाम विभुवन प्राधार ॥५५६६।। रसनां कोटिक कर बखान | उनके गुण का मत न ांन । इन्द्र धरणेन्द्र जे प्रस्तुति करै । ते नहीं वोड प्रत निस्वर ।।५५६७।। छ? अहिने निमित्त प्राहार । नदसतल नगरी के मझार ।। रिय की जोतिन का परताप । महा मुनीस्वर सोम प्राप ।।५५६८।। ईरज्या समिति सौ गजगति चाल । मानौं मेर सुवरसन हाल ।। सो में कंचन बरण सरीर । उमरे लोग भई अति भीर ॥५५६६॥ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचन्द एवं उनका पद्मपुराण ४७७ देखें रूप सराहैं दुनी । इनकी महिमा जाइ न मिनी ।। के सुरपति के कोई देव । ग्यांनवंत ते समझे जीव ।।५५७०।। श्री रामचंद्र आए मुनिराइ । प्रहार निमित्त पहुंचे इस ठाइ ।। घर घर द्वारा पेषण होइ । क्षेत्र सुध करें सब कोइ ।।५५७१।। उत्तम वस्तु र सोचे सुध । मब मैं दान देश की बुध ।। सन ही बछ अंसा भाव । धन्य बहै जीमैं जिह ठाम ।।५५७२१५ नग्री में हुवा बहु सोर । इटा हाथी बंधन तोडि ।। दाहे फोडे हाट पट्टा ठाइ । घोडा छटा तोडि हिपहिणाइ ।।५३७३।। कोलाहल सणि प्रतिनदी भप । निकस करोखा देख मप ॥ मुनि कौं देखि कहै इस भाइ । भेज्या किंकर लेह बुलाय ||५५७४।। दोरा घणां आए मूनि पास । नमस्कार करि विनती भास ।। दोड़ कर जोड़ि बीन खरे । हम पर प्रभुजी क्रिपा जो करें ॥५५७५।। हमारा राजा पासि तुम चलो। भोजन लेहु घरम में मिलो ।। उनां - जाण्यां मुनी का भेद । अंतरराय भया मुनी कु खेद ।१५५७६।। फिर प्राया वन में धारया जोग । पसघाताप करें सब लोग ।। अव के बे मुनि आर्य फेरि । विष सौं भोजन खां इइ बेर ||५५७७।। मुनि कू भई अंतराइ, भूपति विधि समझ नहीं ।। फिर आए वन सद, लिव ल्याए चिद्रप सौं ॥५५७८।। इति श्री पपपुराणे गोपुरसौं छोभ विधानकं ११३ वां विधानक चौपई राम की तपस्या पष्टमास पर गह्मो संन्यास । एक वरष पीछे ए पास ।। जे बन में पाऊं आहार । भोजन कू इछो सिंह बार ।। ५,५७६ ।। नगर माहि ने कबहु जाहि । अंसा मन राख्या उछाह ।। प्रतिनंद सई प्रभावती प्रस्तरी । उनु सोच अंसी विध करी ॥५५८०।। जवसं दंड प्राय इहां मुनी । दान देय करि सेवा धनी ।। नंदन बहुरि सरोबर वन माझ । दंपति गए क्रीडा कु सांभि ।।५५८१।। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७, पपरापुरण करी रसोई उत्तम भली । बहु पकवान सौंज बहु मिली ।। महासुगंध मनोहर बने । हरिष हरिष बडे कोए घने ।। ५५८२।। पटरस व्यंजन प्रासुक नीर । भात दाल और उजली खीर ।। रामचन्द्र उठिया मुनीन्द्र । राजा राणी भयो भानंद ॥५५८३।। विधि सी द्वारा पेषण किया । चरण धोइ गंधोदक लिया ।। बयानस सौं दीयां दान । मुखसौ बोल्या सुभ भगवान ।। ५.५८४।। भई दुदुभी किनर गीत । रतनदृष्टि पुढपन की रीत ।। जै जै कार देवता करें । धन्य धन्य वचन मुख ही घरे' ।।५५८५।। वनमें फिर कर लाग्या ध्यान । राजा मैं चित समकित आन ।। बहुतां मैं समकित व्रत लिवा । । सब ही के मन बाई वा ॥५५८६।। दोन सुपात्रह दीजे सही। परवा वरचा पूज करेइ ।। बहुतों ने छुटया मिथ्यात । मुनिसुव्रत सेवें दिन रात ५५५८७।। रामचंद्र दें धरम उपदेस । मान राव रंक उपदेम ।। अमृता नाका नारायः । उत्तर भवसागर ते पार ||५५८८।। मुनिबर ग्यांन गंभीर, करें धरम समझाई करि । पाय है पर पीर, रामचंद्र मुनिवर बली ।।५५८६।। चौपई नासा दृष्टि आत्तम ध्यान । बारह लप द्वादरा व्रत जांनि ।। तेरह विध सौं चारित्र धरा । समकित सौ दिन रात्र' मग ॥५५६० ।। संच महावत पांच सुमति । मन वच काया तीन गुपति ।। संका रहित रह्या वन मांझ । करै सामायिक वासर मांभि ।। ५५६१।। च उदह पाठ पगैसा सहैं । राग द्वेष सुपरहा रहे । च्यार कषाइ करी सब दूर । क्रोध मान माया कू चूर ।।५५६२।। अठाईस मूल गुण पाल । तोड्या मोह करम का जाल || पंचइन्द्री की रोकी चाल | छाडि दिया माया जंजाल ।।५५६३ ।। भारत रुद्र दुई ध्यान हैं बुरे । ते प्रभु नै सब परिहरे ।। परम मुकल' सो ल्याधा चित्त । सुकल ध्यान की जांणी थित ॥५५६४।। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण पट लेस्था का करचा विचार । कस्न नील कापोतं दारि ॥ पल पल महाग्यांन चित चढया । शुक्ल ध्यान बहुविध चित पा ।। ५५६५ ।। यह रुति सहैं परीक्षा चरणी । घरम सुरगाव संबोधि दुणी ॥ करि बिहार फिरे बहु देस । बहुतां ने दियो घरम उपदेस ।। ५५६६ । । मूवर खेचर दानव देव । निस दिन करें राम की सेव ॥ कोटिसिला पहुंचे रामचन्द्र 1 नमस्कार करि ताकू बंदि ।।५५२७ ।। सिध सुमरण कर बैठे तिहां । घरम ध्यान प्रातम गुण लिहा || क्षिपक श्रेण श्रातमगुण लहान । भैंसी विधि सौ ल्याया ध्यान ।। ५५६८ ।। स्वयंप्रभू प्रच्युत विमान । उ अवधि घरि समझ्या ग्यान || पूरब भव का किया विचार। मैं यी सीतां स्त्री अवतार ॥५५६६॥ रामचन्द्र लखमा दोउ वीर नारायण बनभद्र सरीर || 1 सीता के जोब सीतेन्द्र का राम के पास प्रागमन मैं पटराणी राम भरतार | दुख सुख देख्या सारी लार ।।५६००। ४७६ लछमण युवा अधोगति गया । रामचन्द्र व्याकुल प्रतिभया ।। समभि जैन की दिष्या लई | राज विभूति सब तँ तजि दर्द ।।५६०१ ।। द्वादस गुणस्थान करो स्थिति । यबंदुलाडं उसका चित्त ।। एथे भाई दोन्यु बली । रामचंद्र बांधी स्थिति भली ॥ ५६०२३ इहु ले मोध्य बहु भुगते नरग । उहां भोग में महा उपसरंग ॥ इन जान्यां संसार स्वरूप 1 दिक्षा घरी दिगंवर रूप ||५६०३।१ जई ने पटालु करू ग्रसत । भुगताई संसारी बनत ॥ नंदीस्वर को कराई जात । लछमण ने काबू किह भांत ।। ५६०४ || सी समझ उतरघा सीतेन्द्र 1 कोटिमला जठ रामचन्द्र || देव आए ता संग । घरखं प्रति ही फूल सुरंग ।। ५६०५ ।। मंदा पयन पटल जल भरपाई के मेह व ६ ॥ वह रितु के फूले फूल । सीतल छांह सुख का मूल ।। ५६०६ ।। पंछी सगला करें किलोल । सबद सुहावन मधुरे बोल ॥ मोरांव कोहलघुनि करें। सुवा पढे जिनवाणी खरें ।। ५६०७ ।। सुर सीता का रूप वा । हंस गमन सोभा बहू पाइ || रामचंद्र के उनमुख प्राइ | कक बोलो रघुपति राइ ||५६०८ ।। Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० तुम कुं सब बन ढूंढत फिरी । यब हम भई महा सुभ घडी ॥ मैं दरसन अब तुम्हारा लखा | चरा इंडि अन जाऊं किहां ।। ५६०३ ।। मैं मान्या नहीं तुम्हारा वचन करी तपस्या वन में कठिन || मोपरि प्रभु होइ क्रिपावंत । अजोध्या चलि सुख करी अनंत ५६१० ।। तुम्हारी प्राग्या राखू सीस | छंडो तप भुगतो सुख ईस ।। करो राज भोग संसार । नपके किए देह सब धार ।१५६११॥ वाराण छीजें काया घटै स्वरूप | हम सीता नारी प्रत्य ने स्वरूप || पालो गेह भोग सब साज | काया से कष्ट सही नेकाज ॥ ५६१२१ मैं वन में माथी तप | श्री जिन ध्यान करे थी जप || मोसु कही बात समझाइ ।। ५६१३ ।। freeर की कन्या अाड़ जोवनत क्यु दीक्षा लेड पालम कष्ट किया बहु दोष 1 जोवन स कीजिए पोष ।।५६१४ || वृद्धश्रवस्था कीजिए जो अपर कल जिभोग || पत्र इन्द्रों में क्यूं दुख दे |1 !| तू फिर आराम के पास । हम है कन्या इह मन ग्रास ।। ५६१५ । तुम पटराणी हम सेवा करें। रामचन्द्र सों सब सुख भरें ॥ वे भी तुम में प्राथै प्रस्तरी । तब मांची जाणुगे खरी ।। ५६१६।। देवांगना एक सहस्र | बालक बस रूप को हंस || सोलह सब की श्रृंगार । श्राभरण सबै सोमं इकसार ।। ५६१७॥ रूरांट उतरी अपलस । सबद सुहावन रस सुं भरया ॥ कोकिल कंठ कहै मुख बौन रूपयंत प्रति दीरघ नंन ||५६१८ बहुराग छतीरा रागनी | सोलह कला संपूरन वनों ।। करें नृत्य बोलें आधीन १५६१९ ।। I 1 ताल मृदंग बजा बीन राजभोग तजि बैठे आन ए सुख छंडि कहा होइ प्रग्यांन ॥ चलो प्रभू हमारे संग । सुन भुगतो दुख का करो त ।।५६२० ।। इन्द्री मोरया हो हैं पाप । ए सुखी सहो संताप | यह है भोग भूगत की स मानू तुम हमारा उपदेस ।।५६२१ ।। बहुत भाव दिखावे खत्री | नांचे सरस महा गुण भरी ।। बांह सठावें जंभाई लेह | पग गुष्ठ भूमि परि देह ||५६२२ । । उछल घड़ी गम डोर । लोई फूल सोमैं रंग सार || सिर तैं वस्त्र धरिन परि पडें । गावं ना भय नहीं घरें ।। ५६२३ ।। Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंच एवं उनका पपपुराण मीठा बचन कंटोलु हास । उनकू नहीं संसारी पास ।। सुकूल ध्यान सू ल्याया चित्त । अनुप्रेष्या कूपरखै नित्त ।। ५१२४५। म्याठ तीन तोही परकित्त । च्यार करम सु छुट्या हिन । महा सुदि पिछली निस रही । दो घडी त प्रधिकी नहीं ।।५६:५।। केवलग्यांन लबधि सिंह बार | दसों दिसा भयो जय जय कार ।। निरमल दीसे दस है दिसा । दररान किया मिर्ट है संसा ।।५६२६।। इन्द्र पासण कंप्या तिह घडी । अवधि विचार बनती करी ।। उतरी हेट इंडवत किया । धनदत्त कुमार बू प्राग्या दिया ।।५ ।। कंचन मी रची तिहै और । जै जै कार करी सुर प्रौर ५६२८।। इन्द्र धरणेन्द्र किन्नर सहित किया महोत्मब प्राइ ।। प्रष्ट द्रव्य सू पूज करि, वारद, सभा रचाइ ।।५६२६।। व्यंतर देव सेवा कर इ. नरपति स्वगपति और 1 वाणी सुणि सब सम्ब लहैं. पाप बंघ का छौर चौपई गीत इन्द्र अवर सब देव । बिन राकल दीनता भेव ।। हमनै महा उपाया पाप । तुम छल' बन्न दा मंताप ॥५६३१।। तमारा चित्त सुदर्शन मर । ग्रंमा फवाग मर सिंह फेर ।। हम परि क्षमा कहुं जगदीग । बारंवार नवावै गोस ।।५६३२।। केवल वाणी नगम अथाह । उपमें पून्नि मिटै सब दाह ।। मानव संसय होव टूर । प्राणी का है जीवन सूर ।। ५६३३।। रिव के उदै तिमिर मिट जाइ 1 वाणी सुगल मिथ्यात पनाइ ।। उपजी बुध धरम के सुनै । निहले प्रष्ट करम कू हुन ॥५१३४।। केलि वचन अपार, वानी सुनि निह घरं ।। सुख भुगतै संसार, बहुरि जाइ मुक्त बरै ।।५६३५।। इति श्री पापुराणे पक्षमस्य केवलशान प्राप्ति विधान ११४ या विधानक Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनपुराण चौपई सीतेन्द्र लखमण चित अांन । वह राखें था मेरा मान । सेव हमारी कीनी घणी । उसको महिमा जाइ न पिणी ।।५६३६।। नरला बालुका भूमि तीसरी । ताकी गति भैसी स्थिति पड़ी ।। अब मैं चाक् काकू जाई । अं से देव विचार भाइ '1५६३७॥ मानुषोत्र पर्वत के निकट । तिहां बहुते मारग निकट ।। पस्या देव बालुका ठाव । राज्य सरूप है संबुक नाम ।।५६३८।। लखमण कु' देव बह श्रास । मारै मुदगर बांरण का नास || फिर कर बिषर होइ इह देख । पल पल' मारि करें इह खेद ।।५६३६।। पारा झ्यू बिखरं कर । मार मार सबद बहु करें। जे जुझे थे रावण संग | भारत रुद्र में तज्या था मंग ||५६४०।। ते थी सकल भया एक ठोर 1 भुगतै दुख करें अति घोर || छेदन भेदन मूदगर मार । स हैं बेदना अगम अपार ॥५६४१।। भोजन रयण मांस जो खाई । म मधु सुरापान ज्युअचाइ ।। उंबर न करबर भखें । साता चंड शोह फर्क ॥५६४२३॥ होट चीर ठोंसे हैं प्यड । ऊपर ते ठोके हैं इंड ।। तातो रांग डाल सुख मांहि । सुरा पान का ए फल प्रांहि ।।५६४३॥ करें याखेट हुनै बहु जीव | सुला रोप्म दुख की नीव ॥ छेदन भेदन बारंबार । ज्वारी घोर का काट हाय ।।५६।४।। परनारि बेस्या सुरत्त । लोह फूतली कीजे जफत || जोर भिटाने वे ही जुई । सात विसन का ए दुख मरै ।।५६४५।। वैतरणी मैं दीजे हारि । मच्छु कछ लें काया फाहि॥ कोई रूप सिंघ कोई स्नान । भर्ख देह दुख पांव प्रान ।।५६४६।। जिसका था तिसको कुछ वरं । देह परीस्या उनकू धरै ।। सीतेन्द्र लखमण कु जांनि । सबुक ने समझाया ग्यान ।।५६४७।। भारत रुद्र सेती इस गसि । अजहु मूक न चेत्यो चित्त ।। देख नारकी भय चिक करेइ । इहतो देव क्रांति बहु लहेइ ।।५६४८।। मुरनं देय व गए सांत । मुझे संब्रुक देव कु बात ॥ प्रघर छोडि पाए तिहां घणे । राखो देव सरण पापणे ।।५६४६।। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण पूर्व कर सीतेन्द्र बोलं समभाई हूं सीता हूँ लखमरण राई ।। रामचंद्र की श्री पटघरणी । दंडक वन की प्रापति वनी ।।५६५०।। तिहां तप साधै संबुक कुमार | लखमा ने मारिया प्रचुकार || मोहि हरी लंका के नाथ ।। ५६५१ ।। भया जुध खडदूषण साथ रामचंद्र लखमा सुधपाई संग्राम किया रावण सुं आई ।। रावण मारया मोहि श्राणी जीत । उदय भई करम की रोन ।। ४६५२।। घरत मोहि दई निकास । भय दिव्य दीया जीवन को प्रास || लप करि अच्युत स्वर्गं विमान । जैन घरम की मांनी आनि ||५६५३॥ जैन विना नहीं लहिए मुक्ति । लखमरण भया मोह की शक्ति || कारण पार तिहां थी मग्या। छह मांसा लग राम लिये फिरा ।। १.६५४।। कृततिवक भने सुर जटा । उनही संबोध्या मोह तब घटा ॥ बालुका पृथ्वी में रामकुमार की ૪. रामचंद्र ने दिष्या लई । केवल लबधि ग्यान की भई ।। ३६५.५ ।। सी सुरत प्रभा भया । दया भाव के मन भया । रावण लखमरण संबुकुमार । ती बालुका भूम मकार || ५६५३६ । इनस देव कहूँ समझा। तुम दुख दूर करो ले जा || लखमरण कु जब लिया उठाइ । देही बिखर गई तिहाइ ५६६७ ।। बहू विष जतन किया हि ठांई । पायें नहीं उनका जीव उपाई ॥ ज्यों बरवरण में झाँई देखि | हाथ न आ किस ही भेप || ५६५८ सी भांति नारकी देह । दीसे प्रतिस् हाथ लगाया विखरी पटै । नरक मांहि बेर बेर दुख पावें घरों । सब लखमण इह विभ हम तो वांच्या करम अथाह । भुगत्या बिन न छूटा जाई ६१५६६०।। अब के करम मुगत्यां ही बर । भैंसी तुम पास हम सुखें ॥1 बहरिन या सी गति । इहां सुरंगी कब लहैं मुगति ॥ ५६६१ ॥ पर्ज सनेह || परस्पर भिड़े ।। ५६५६ । देव कहै समकित मन घरो । सुगति करम एक भव ते करउ || तप करि पहुंचोगे निरवाण । बहुरि न मैं चतुरगति श्रांन || ५६६२॥ समकित दिन बीत्यो बहुकाल | कबहुं न चुका माया जाल ।। बिन निरास डोल्पा बहु जोनि । क्यारू गति में कीयो गौंन ।। ५६६३ ।। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ पप्रपुरा रोग सोग बहु पीडा सही। जैन धर्म सो पीत न गही ।। जे बहु कर दान तप जाप । समकित बिना न टूट पाप ।।५६६४।। प्रत्र सानो दिसपट नित्त । केल नाली पानौं नित्त ।। अंसी सुशि में प्रस्तुति करी । धन्य सीतेन्द्र दया चित घरी ।।५६६५।। हम लो समोध्या दया निमित्त । निसचल रख्या इक समकित्त ।। वैति दिमाग चल्या प्राकाम । अच्युत स्वर्ग जिहां था बास ।।५६६६।। नरक देखि भया भयभीत । हीयो पदक काप चित्त ।। से दुम्न भुगते कई बार । हडित जीव न पायो पार ।। ५६६७।। __रान केवली राम के पास प्रागमन श्री रामचन्द्र क केवलझान । चले प्रमर सुगि घरम बयान ।। नारन तरन श्री रामचन्द्र । दरसन देखत होइ आनन्द ।।५६६८८।। सीतेन्द्र के संग सुर घने । किनर गंधर्व बहुतै बने ।। कंसाल ताल बार्ज बांसुरी । बीरा मृदंग की सोभा खरी ।।१६६६ ।। करं नृत्य गावे बहु गील । रामचन्द्र गुण सुमरण चित ।। पाये देव महोच्छा कारण । समोसरण देख्या दुख हरण ।।५६७०।1 समवसरण बारह सभा कोठी तिहठोर । निरमल दीसै च्यारू पोर ।। वन की सोभा अति रमणीक । फुले फल दे दीस नीक ।।५६७१।। जाणों भूमि रत्न मारण खरी । अंसी जुगति देवतां करी ।। देई प्रक्रमा सिष्टाचार । प्रस्तुति पर्दै वे बारंबार ॥५६०२।। तुम सम राम अवर नहीं बनी । मोह करम की प्रगति दली ।। ग्यांन खडग सो करम बस किये । उत्तम ध्यांम विचारधा हिये ।।५६७३।। परिसह, पवन ते पाप उडाइ । प्रसे तप साध्या मुनिराइ । सुकल ध्यान सों केवल पाई । भव जल पडे लगे दिग अाइ ।।५६७४।। जो तुम पाया मारग मोष्य । हम संगि अपणो यो मोष्य ।। हमारी थी तुम 'परि बह मया । पहुंचानो मुति करी पर दया । ५६७५।। रामचंद्र इमि वाणी काहैं । जिनवाणी जे मन बन गहैं ।। तब कोई पाने सरग मुक्ति । तेरह विध सों घर चारित्र ।।५६७६|| अब लग क्रोध क माया मान । लोभ काम ते भ्रम अम्यान ।। पाथर को हीया तल राखि । जमग तिरया चाहे धरि कांपि ।।५६७७।। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंद एग उनका पद्मपुराण ४६५ ऐसी हैं ये च्यार कषाय । ज्यों पाषाण सौं तिरघो न जाइ ।। पाथर संग तिरथा है कोई 1 तास समकित रथ ना होइ ।।५६७८।। तजि कषाय तिर संसार । छोहि वेई सिर त सब भार ॥५६७६।। लखण गुणा के मारग जोह । राग दोष छोडें ए सोइ ।। पंच महावत समिति पांच 1 मन बच काया निसचे सांप ।।५६८०।। छह रुति सहै परीसहा अंग । समकित ने दित राख संग ।। सम्यक दरसन ग्यांन मरित्र । इह विध होने जीव पवित्र ॥५९८१।। प्रश्न करना भब जल प? जाइ सिव मध्य । जोति ही जोति मिलिया विध्य ।। सीता इन्द्र किया परसन्न । इह संदेह है मेरे मन्न ।।५६८२।। राजा दसरय जनक ने कनक , अारायसी प्राना ! लानांकुस का सबै वृतांत । इनकी गति भई किस भांति ॥५६८३।। भावमंडल कसी गति सही । इह चिता मेरे चित रही ।। राम को वारणी श्री रामचंद्र की वाणी हुई । भव्य जीव सुरण सब कोई ॥५६८४॥ गजा दसरथ प्राणत विमारण । जनक कनक भी वाही ठाण ॥ अपराजिता केकमी कैकइया । सुप्रभास व देषगति पया ।।५६८५।। दहा ते अपणी मार्गल पुर । एका भय मुकति मै जुरि । भावमंडल तरणी सुरण कथा । भोग भूमि तए ने दोपता ।। ५.६८६।। भोग भूमि का भोगतं सूरन । उनकू ए करती नहीं दुःख ।। सीतेन्द्र पून्हें ये कर जोडि। भावमंडल की कहो बहोडि ।।५६५७।। कुर भोग भूमि कवरण पुन्य नही । उनै तपस्या कीनी नहीं । गमचन्द्र बोन भगवान | भावमंडल का कहै बखान ।।५६८८।। नगर अजोध्या सेठ कू'भपति । मकरी त्रिया सेती बह हित ।। काम वनांक दोन्गु पुत्र । ज्यु शशि की प्रति क्रान्ति ।।५६५६।। भोग मुर्गात दिन बीता घरगे । भया वैगग कुमपति मरो ।। अमृतसोग भुनिवर विंग प्राइ । विक्षा लई मन अच करि काइ ।। ५.६६०।। मकी सुन के तब वगग । इन भी सकल परिग्रह त्याग ।। प्ररथ द्रव्य पुत्रां में दिया । इन भी जाइ जैन वन लिया ॥५६६१।। प्रसोग तिलक वन में घरि जोग । छोडि दिया संसारी भोग । ये दोनू जे सेश के पूल । सुम्न मैं थे लखमी संजुक्त ।।५६६२।1 Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ पापुराम इक दिन मात पिता चित प्रांन । दोनु गए तिहां उद्यान ।। अमृतसोग मुनि को देख । नमस्कार करि पूछे भेल ।।५६६३।। हारे पास पिता पति य । केही प्रभू तिह है हम जांच ।। मुनिवर नै वे दिये बताइ । ये भी भए दिगम्बर रा॥५६६४।। करें तपस्या मातम ध्यांन । गुरु पाउषो पूरी जान ।। नवनीय पाइया विमान : सिखल किया ता मकर का ध्यान ।।५६६५।। पंचास जोजन रेत की मही । तिहां मनुष काई बीस नहीं ।। पडे घूप धरती बहु तपै । रूख नहीं तिहां छाया छिप ।।५६६६|| से मारग निकते साध । देष्या वृक्ष घेर सु बांध ।। वाकी छाया बइठे जाई । भावमंडल यहां नि कस्या वाई ।।५६६७।। देख जती तिहां थवया विमाए । उतरि भूमि पग लाग्या प्रान ।। मुनिवर कूदीया पाहार । मारग सगला भला संवार || ५.६६८।। वइयाप्रत कियां बहु मोति । मुनिवर गये मिनेस्वर जात ।। भावमंडल अंतहपुर जाइ । मान भालिनी गुरपहराइ ।।५६६६।। सोवै थे सप्त खरवं ग्रेह । दामनी घात मों छोडी देह ॥ दंपति जीव दस्यनी ओष्ठ । भोग भूमि की पाई ठोड ।। ५७००।। तीन पल्य की प्राच प्रमाग । तीन के साका कीया जाण ।। अमला सम ते लेइ प्रहार । बहुर सुरगगति लेड अवतार ।।५७०१।। उहां से चए फेरि तप करै । तब दोनू सिव मग पग धरै ।। सुपात्र दान फल हुवा महाद्द । तातें दान देह मन ल्याइ ।।५७०२।। लवनांकुस पंचम गति लहैं। प्रानी का संसा नहीं रहै ॥ मीता देव पूछ कर जोडि । रावण लक्षमण की कहो बहोडि ।। ५७०३।। किस विध इनका कारज सरें। वे कद भव सायर ते तिरै ।। रामनन्द्र कहैं केवल बचन । बालुका ममि रावण लछमन ।।५७०४।। सागर सात भुगतेंगे राज । उहाँ लें निकसि पुरव येत्र की ठांय ।। हरिक्षेत्र विजयावती नगर । सुनंदा सेठ धरम का मगर ।।५७०५॥ रोहिणी नाम साह को प्रस्तरी । सील संयम सो सोभ स्वरी ।। दोनू उसके लें अवतार । प्ररहदास तसु प्रथम कुमार ।।५७०६।। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभापंव एवं उनका पपपुराण ४५७ रिषभवास दूजा हुने पुत्र । दोनु गुण लष्यण संजुक्त ।। अणुव्रत पाल बे दिन रात । सीलवंत सोभा की कान्ति ।।५७०७।। सुख सेती तिहां प्राव विहाइ । सुर सौधरम अमर की काय ।। सागर एक प्राथु बल पूर 1 या ही देस च, दोऊ सूर ॥५७०८।। कुमार कीरति तिहां भूपती । लषमी राणी के गरभ थिति ॥ अयकीरति जय प्रभु पो होइ । रूप कान्ति करि सोम दोइ ॥५७०६।। प्रणवत करि धरम सों ध्यान ! हा ते पाय लांतव सुर धान ।। स्वर्ग लोक के भुगतं भोग । भूलि गये पिछला सब सोग ॥५७१०॥ सीतेन्द्र अजोध्या में वर्थ । चक्रवतं छह षंड भोग । दोनु देवपुत्र हुए पाह। इन्द्ररथ प्रभोदरथ राइ ॥५७११।। सर्वरतन रथ दिव्या लेह । राज भार पुत्र को देई ।। तपकरि पाने विजयवंत वास । इन्द्र प्रभोद दिक्षा गुरु पास ॥१७१२।। सोलह कारण का प्रप्त पाल । विजम अंत पहुंचे सिंह बार ।। उहां से चय रावण को जीव । ह अहंन भरत जंबूद्वीप ॥५७१२।। सरबरतन गणधर होइ । घरम उपदेस सुर्ण सब कोइ ॥ जाइ मुकति तिहां सुख अनंत 1 फिर पूछ सीतेन्द्र महंत ॥५७१४॥ लक्ष्मण के प्रति जिज्ञासा कहां उपजै लखमण महान 1 पुष्कराद्धं द्वीप चौ नि ।। सद भूपति पुत्र नगर के ग्रेह । दोई पदइ याइ परि देह ॥५७१५५ । चक्रवत्ति हुशै अरिहंत । पाचै भव सागर का अंत ॥ सात वरष बीते जब जाइ । हम भी लहैं मुगति पद ठाइ 11५७१६।। सीतेन्द्र कीया नमसकार । गये फेर सुर अपने द्वार ॥ बांते फिर आये सब देव । कुरु भोग भूमि का देख्या भेव ।।५७१७।। भामंडल ते वह सुर मिल्ला । पिछला सनबंध सुरणाचा भला ।। देव गया फिर अपने पान । रामचन्द्र सिद्ध के ध्यान 11५७१८।। पचीस बरस लौ सुमरे सिघ । पहुंचे प्रभू मुगति की रिष ।। चतुरनिकाय पाये सब देव । जय जय सबद दुदुभी भेव ॥५७१६।। पुष्प वृष्टि भई तिहां घणी । निर्वास कल्याणक सोभा बराशी ।। प्रष्टतव्य सू पूजा करी। पड़े मंत्र जिनवारणी खरी ।।५७२० Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४दम पद्मपुराण सोतोदेन्द्र सुपर धरि चित्त । गुणावाद सों ल्याये हित्त ।। पूजा करि पहुंचे सुर लोक । अस्तुति भई तीन लोक ।। ५७२१।। पद्मपुराण के स्वाध्याय का महात्म्प रामचंद गुण समुद्र गंभीर । ममरण किया मिटै सब पीर ।। अनुमात्रक किया बस्त्रांन । रामचन्द्र का पदमपुराण ॥५७२२।। जे कोई सुर्णे उठि पर मात । सुखसेती बीते दिन रात ।। षत्री होई सुणं बलवान । जिहां तिहा कहिये जमवान ॥५७२३।। दुरजन दष्ट लमै सब पाइ । कोई न सनमख जीतं प्राद।। सब परि उसकी होगे जीत । जारण समाल जुध की रीत ।।५७२४।। जे कोई सुणं परम के काः तीन कमरा धरम ध्यान सुपाप न रहै । केवल ग्यांन जीव वह लहे ॥५७२५।। घरम प्रकास जिहां जाह निरवांरा । श्रमें नहीं भवसागर मान || दुखी दलिद्री नर जे सुण । बढे लछि सुख पाने घणे ।।५७२६।। नारि विहुंणा जे नर होछ । मन वांछित फल पावै सोइ ।। पुत्र हेत जौं सुरण पुराण | सुख सम्पति पाद असमान ।। ५७२७।। प्रधवी परि प्रगट जस घरमा । रोग कलेस जाई सव हुण्यां ।। करम उदै ते व्याग दुर । राम सुमरि पार्व मत्र सुख ।।५७२८।। जे पापी सरिग निदा करें । ते जीव घोर नरक में पड़े ।। मिथ्याती प्रनीत ने चित्त । सरधा नहीं धरम सहित ।। ५७२६।। जे समकिती मुगा पूराग़ । पावै गति देव निरवांग ।। थे शिवा नप सांभलि इन्ह भेद । सब मंसय का हुवा खेद ।। ५७३ ३ ।। सकल सभा मन भयो संतोप । बहुत प्राणी या पाई गोत्र ।। श्री जिनवाणी का नाही मत । बचन एक भेद बहु मन ।।५७३१।। गौतम स्वामी को अराई । अमृत वांनी सवै मुहाइ ।। मरव भूत सुरिग हिये त्रिचार । अवधि ग्यांनी समझे निरधार ।।५७३२।। अगसेन भूरति केवनी । मुख पाट जन भावी मली ।। क्रितांतसेन ने लिष्या इह ग्रंथ । फोडि सिलोक संपूरण अर्थ ।।५७३३।। प्रवरान पुराण लिख पड़े। जिसके सुग्णे धरम हित बन्द ।। उनका सिष्य सबदन मुनि भया । इन्द्रसेन मुनि ने पट दिया ।।५७३४।। Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ मुभि सभाधव एवं उसका परपुराण परहसेन भये सु मुनिदै । लवमनसेन ज्यो प्रथिवी चंदं ।। जिन जोड्या पलीक सहस्र ज्यो स्पाठ । वरण्यों बहु तिहां पूजा पाठ ॥५७३५॥ रविषेणाचार्य द्वारा परापुराण को रचना रविषेन फ्रिमा प्रकारह सहस्त्र । सुखी भव्य जीव सौ बाधं वंस ।। होई पुन्य उत्तम गति लहैं । भव भव दुख दालिद्र न रहैं ।। ५७३६।। अपका लहै अमर पद थांन । कारण परह लहै निरवाण ।। मिथ्याप्ती जे धरम का दुष्ट । उन सदा रहै बहु कष्ट ।।५७३७।। जिनवाणी ते भाजे दूरि । तिरा न होवे दुख भर पूरि । दालिद्र सदा न छोड़े मग्य । हंट वियोग अनिष्ट प्रग्य ।। ५७३८।। मन की इछा कदे न होइ । आदर भाव कर नहीं कोह ॥ तिसकु कोई नः महिमा होइ । जिहां तिहां महिमा जलंभा लेइ ।।५७३६ ।। कलह करम सौ बीतं बड़ीं। खोटी बुधि नहीं वीसरी ॥ रात दिवस में भारत ध्यान | पावै अंत नरक गति थान ॥५७४०।। भव्य जीव सूर्ण परि रुचि । सदा हुवं उत्तम गति सुचि ।। सीलव्रत पाल बहु भाइ । काटि करम ऊंची गति आइ ।३५७४१।। प्रेसी जारिण चलें मग सुधि । धरम होइ बाद प्रति बुधि ।। कुमति फलेस सकल मिट जाइ । राम नाम तसु होइ सहाइ 11५७४२।। सहस्र एक अरु दोईस बरस ! छह महीने बीते कछु सरस 1 महावीर निरवाणा कल्याण । इह अंतर है रख्या पुराग ।।५७४३।। रविषेण नाम मुनिवर निरग्रन्थ । पदमपुराण रच्या सुभ ग्रन्थ ।। तिसके सुण्या होइ बहु रिध । कारण पाव पद पावै सिद्ध ।। ५७४४।। चले देस नाम जो लेइ 1 ताको मनवछित फल देह ॥ जैसे रवि का होइ प्रकास | होवे अंधकार का नास ।।५७४५।। पपपुराण पढने की महिमा प्रसा है यह पदम चरित्र 1 मिथ्या मोह मिटै सब सत्र ।। पढे पढा- कहूँ अषांन । पावें स्वगी देव विमान ।।५७४६।। Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** समकित संती पर सुगं । निसचे भ्रष्ट करम कु हणं ॥ लग्न होड़ उतपत्ति । पाये निश्चे पंचम गति ।। ५७४७३। जिस समे दर्शन होइ पुराण । सुख विलास और सदा कल्याण ॥ मनवांछित फल पावै रणे । ते प्रांनी सब निसचे सु || ५७४८ || 1 वहा पदमपुराण कु जे पढ़ें, बांच सुरगाने और || तिहूं लोक का सुख लहैं, पाये निरभय ठौर ।।५७४६१ ११५ वां विधानक चौपई काष्ठा संघ पट्टावली काष्ठा संघी माथुर गच्छ । पहुकर गए में निरमल पच ॥ महा निरथ श्राचारज लोह । छांडचा सकल जाति का मोह : । ५७५०।। पद्मपुरा तेरह दिध चारित्र का धरो कोन कोन नहीं माया मणी ।। दयावत वहु निरमल ग्यान ।। ५७५१ ।। महा तपस्वी श्रातम ध्यान जिल्हां है उसम क्षिमां आदि । खोडे पांच इन्द्री का स्वाद । रूप निरंजन ल्याया चित्त । अठाईस मूल गुण नित्त | ५७५२।। चौरसी क्रिया संजुक्ति । जे लाइक समकित सी रति ॥ * ग्यान के सूक्षम भेद । वारणी सुरत मिथ्यात का लेख । । ५७५३१ | I ग्रो निकट प्रभु ठाढे जोग करें बदना सब ही लोग 1 अग्रवाल श्रावक प्रतिबोध । त्रेपन क्रिया बताई सोध ।।५७५४ ।। पंच अणुव्रत सिख्या न्यारि । गुरणन्नत तीन कहे उर घरि || बारह व्रत बारह तप कहे। भवि जीत्र सुगि चित में गहे ।। ५७५५ मिथ्या घरम किमो तिरां दूरि । जैन धरम प्रकास्था पुरि ॥ विश्व सौं दान देह सब कोई सासत्र भेद सुरिंग समकित होइ ॥ ५३५६ ।। दस लाप्यरणी बताया धरम | तीन रत्त का जाण्यां मरम || व्रत विधान समझाई रीत पूजा रचना करें सुचित ॥१५७५७ ॥ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाचंब एवं उनका पमपुराण ४६१ श्री जिन' में कीए देहरे । चउनीस विद रचना मम्बरे ।। चउविष दोन दे वित्त समांन ! चउघडीया अणथमी प्रमान ।।५:०५८।। जीच दया पाल बहभाति । भोजन नीर विवरजित राति ।। दीपग गयांन जाग्य सब हिए । बहुप्त संबोधे श्रावग कीये ॥५७५६ ।। दिल्ली मंडल का मुनिराय । जिसके पट्ट भया बहु ठाइ ।। घरम उपदेम पणां कु' भया । पूजा प्रतिष्ठा जाम नया ।।५७६०।। पंडित पटवारी मुनि भए । ग्यांनव'त करुणां उर थए। मलयकोत्ति मुनिवर गुणवंत । तिनकै हिए ध्यान भगवत ।।५७६१।। गुणकीर्ति पर गुगभद्रसेन । गुणावाद प्रकास जैन ।। भान कीरति मह्मिां प्रति घणी । विद्यावत तपस्थी मुनि ॥५७६२।। कुंवरसेन भट्टारक जती । क्रिया श्रेष्ठ हैं उज्जल मती ।। उन पर सुभचन्द्र सुसेन । धरमवनि सुरणाने बन ||५७६३।। मूल संघ भट्टारक प्रशस्ति श्री मूलसंघ सरस्वती मछ । रसनकीरत मुनि धरम का पछ । तारण तरस ग्यांन गंभीर । जारण सह प्राणी की पीर ॥५७६४।। तप संयम ते प्रातमध्यान । धरम जिनेस्वर कहै बखान । छूट मिथ्या उपज ग्यान । जे निसर्च परि मन में पान ।। ५७६५।। गुरु के अचन सुणि निसत्रं धरै । ते जीव भवसागर तिरै ।। श्री रत्नकीत्ति सध्या संसार | पहुंचे स्वर्गलोक सिंह बार ॥५७६६।। उनकै पट्ट रामचन्द्र भुनी । पाचारिज पंडित बहु गुनी ।। कहैं ग्यांन के सूक्ष्म अग । ई बुद्धि उनके प्रसंग ।।५७६७।। महा मुनीस्वर उत्तम बुधि । क« धरम जिन वाणी सुधि ।। जिसके हिए होए समक्रित । सरघा करै घरम' में नित्त ।।५७६ श्री रामचन्द्र का सुग' पराण । सुख संपति पार्न कल्याण ।। परम दया पाल मात्र लाइ । ते जीव मोक्ष पुरी मा आइ ।।५७६६।। Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६.२ चूहा पदम पुराण पूरन भया, रिविषेना की बुधि ।। जें निहस घरिक सुख पार्ने समर्पित सुधि ।। ५७७० ।। P पुराण इति श्री पद्मपुराणे सभाचंद्र कृत सपूरनंम् ॥ संवत १८ से ५६ भाषा वि १४ बार सोमवासरे लिखितं पंडित मोतीराम लिखायत साह जी गंगाराम जी की बहू जाति वोरा का उतराय मठाई का व्रत में पंडित मोतीरामेन दोये । प्र'च संख्या हजार ११ रुपमा ७ दीया निखरानां का। शुभं भवतु Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामानुक्रमणिका (पद्मपुराण में प्रमुख महापुरुषों के नाम पचासों बार पाये हैं--जिनमें राम, सीता, लक्ष्मण, भरत, हनुमान, सुग्रीव, रावण, विभीषण, मंदोदरी प्रादि के नाम उल्लेखनीय हैं इसलिए ऐसे नामों के यहां पूरे पृष्ठ अंकित नहीं किये हैं)। प्रगनिकेतु २४६, २५२ प्रगनिवेग १२६ भाग्रवाल ४६० अग्रोहा ४० अचयराय २५२ अजितनाथ १, ४१, ४६ २५६ प्रजोष्या १८, २७ १०५ भयोध्या १०६, १७७, १०, २०३, २१६, २२०, २२५, २४०, २६६, २६६, २५८, ३६०, प्रतिगति १० अतिमयूष ४५ प्रतिवीरज २४९, २५२, २५३ मढाई हीप १५ मतिनगर ३७६ प्रतिवीयं १३१, १३२, १३५, १३७, २३४, २३८, २३६ । प्रतेन्द्र राजा ५४ अनन्तरथ १७६ अनुराधा १४ प्रनंगसेना ३१५ प्रअनी १३८, १३६, १४०, १४२, अनन्तनाथ १,४६ प्रनरघ २४६ मनोकसा २०० प्रगद १००, २६५. २६६ ३२७ मंजना १४५, १४६, १४६, १५८, अंजन नगर २७२ अपराजिता १, १७६, १८४ प्रभयमाला ३६ पक कुमार ६२, ६३, ६५ प्रबराज ७६ मभिचन्द १६ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ मुनि समाचन्द एवं उसका पमपुराण अभिनन्दन १, ४६, १०५ प्रभमाल ३६ अमरप्रभ ५, ५६ अमरवती २८२ भमर राक्षस ५१, ५२, ५३ अमरसागर १३० अमितगति १५१ अमितमती १७६ अमीचन्द २६६ अमृतप्रभा १७६ अमृतवती ४१२ ममृत स्वरित २४४ मंत्रप्रभा १७६ प्रस्परपुर ३४४ पर ४३ परजन ३६५ अरजयपुर १२६ अरहदास ४१, ४२ अरहनाथ १ परहसेन ४८६ अरिदमन १३८ मरिदम ३४४ अरननदेस १५१ अलका ७६ अमर मजसेन ४६ असफंद २६७ अस्थनवेग ५२ ६२, ६४, ६५ प्रश्व ध्वज ३८ पहिलादपुर २७३ मच्छरज ६६, ६६, ६०, ६२ अक्षररज मादित्यपुर ६३, ६४, १३८, १५७ प्रावितजस ३३ प्रा, ६, उ मादिनाथ १,१०६, १७०, १६८, २५६ प्रादिनाथ मन्दिर २६१ प्रादिपुराण ११४ आनंदमाला १२६, १३० भानमती ४५ भावीसता ५७ इतरकरण २३० इन्द्रप्रभु ७२, ७३, ६१, १२३, १२४, इन्द्रकपुर २१२ दन्द्रकुमार ६८, ६६ इन्द्रजीत १२, ८१, १२४, १२५, १३८, इन्द्रसेन ४५ १६२, २६६ प्रावि इन्द्रमनु ५८ इन्द्रमति ५५ इन्द्ररेखा ३६ इन्द्रषिद ५५ उजोणी नगर/उजेणी २२०, २२१. ३५.४ उतपलमति ४० उदयपुर ८७, ५ उदयाचल राजा ५२ उदित ५२ वदित मुदित २४५, २४६ बदपाद १३५ स्वोतपुर ७० Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामानुक्रमणिका ४६५ कनमाजटी २६४ कनकपुर ६६, १३८ कनकमाला ४१२ कनकावली ६६, ७० कनकप्रभा ११५, ४६६ कनकोदरी १५१, १५२, १५३ कंकणपुर ३७६ कंचनगढ ४४ कषिकेतु ५६ कपिल विन २३० कमलप्रभा ४३६ कमलोस्सवा २४७ कंपिलानगर ८५, १५५, ३७३, कल्याणमाला २२७, ३६५ करणकु उपुर ६५ कांचनपुर ७० कासी देश ६१ काष्ठासंघ ४६० कीर्तवती १७१ कीति घर १७३, १७६, ३४४ कीसिषवल ५३, ५५, ५६, ५७ किषपुर ५६, ६५, ६२ किकिंघपुर ५७, ६१, ६३, ६६,६७, किषलपुर १००, २६५, २७, २६४, कुबडपुर २२८ कुडलपुर ५, ६ कुंडलमंडल १९,२०८ कुपनाय १, ४६ मुदनपुर २२२ कुम्भकरण १२, १४, ७२, १, २२, कुभपुर ८१ ९३, १२४, १३५. १३७, कुसमावती ३५ १६६, १८०, ३०१ मादि फुरुजांगल देस २३ कुसागर नगर १६० कुवरसेन ४६.१ पुश ४१० कुसुमपुर २७५ केतुमती १४८ १५१, १५७, १५८ केतुमुख २०० कैकई १७६. २०१, २१४, १५, २२० कैलास ७७, ६६, १८ प्रादि कैमसी ७१, ७२, ७४, ७६ कोसांदी ६४, २२८, २६४ कोकसी ७१ कोमलनगर १७६ हातांतवक १०१ कृष्णनारायण ४७ क्रिमांत सेन ४८ खरदूषण ह., १०१, २५६, २६० खेमकर २६. २६३, ३०१ खेमांजलपुर १० गंधर्वसेन २८३ यगनबरद2 Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि समाचन्द एवं उसका पपपुराण गंधारी नगरी २१२ गुणभद्रसेन ४६१ गुणसेन १३०, १३१ गुणसागर १७२ गुणकीति ४६१ गुणवती ५५ गौतम स्वामी १०, १३८, १६४, ३६३ च, छज चक्रपाल ४० बसमान १५ घसमान १५ चंदरभान १५ चन्द्रगति १६५, १६७, १६८ चन्द्रदधि ६४ चन्द्रनसा ७२,७८, ६३, २५८, २५६, चन्द्रप्रति ३१६ २६७.३५० चन्द्रप्रभु १, ४६ चन्द्रमती ६८ रेखा : चन्द्रान १६ चन्द्राननी ४३ अपसवेग १६६ चम्पापुर १६७, २००, २६६, ३६५ चित्रा ११७ चित्ररथ २४६ चित्रांगद १०० चित्रोत्सवा १५, १६ चुडामणी १७१ बेलसा ४ जगसेन ४८ जनक राजा १७०, १०, १८६, १९, जमना २२२ १६२, २०१, २०७ जंबूद्वीप ३, १४, ७५, १६४ अयकीर्ति ४३ जयसिंह ६४ जयसेन ४७ जरासिंध ४७ जमा ४३ जसाखी १६ जसोमती १६९ जसोधर ४३ जसोभष्ट्र २१२ जांबूनच २७४, ३०३ जितपदमा २४१, ३६५ जितसत्रु ३८ जीतंबर ४७ चन्दा ८७ जभित्र ३०३ जोधपुर २७३ जोधपुरि ५५ स, य, व, ष, न तहत केस ६१ समचूल ४६५ सरितमाला १ तारा राणी २५६ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . नामानुक्रमणिका तिलकराइ १७६ त्रिकुट राजा ५८ त्रिगुप्ति २५२ त्रिविष्ट ४७ धुलभद्र ४६ दंडकराजा २५१ दंतीपुर १४१, १५७ दसनगर २७३ दशरथ १७६, १८७, १८१, १८२, १०, १६१, १६२ भादि दक्षपुत्र १६६ दुरबुद्धि ३७ देवराक्षस ५३ श्राय ४३ देतनाथ ७७ द्विवर ३०३ धनवान १५१ धरणीधर ३८ धर्मनाथ १, ४६ धारण २१२ घूमकेतु ३५ कोतपुर ८१ १०० नघुष १७७ नंद १६ नंदनगर २३४ नंदीस्वर ४३६ नमि १, १२, ४६ नमिनाथ नल २०३ नागकुमार ४६ नागदत्त २४८ तिलकेसर ४० त्रिकुटाचल ४४, ९२, २५८ २८६ त्रिवसेज २८ त्रिसला ५, ८ दंडन ३५६२५४ दंतपुर गाम ५० दमंत्री २३२ दांगपुर २२३, ३५४ दशानन ७२ ७३ ७४ ७५ ७६, ८०, ८३. ६० आदि दिल्ली ४६१ दुरमुख २०० देश भूषण २४३, २४६, ३६६ कुल भूषण द्विविष्ट ४७ धनदत्त ८४, २७२, ४३६, ४४२ चरणी २७२ बरणेन्द्र २२, ६८ धातकी द्वीप ११७ धारणी २१२, ४६८ धूमसेन १८७ नग्रप्रभा २७० नदमित्र ४७ नंदघोष २१२ नंदवन २१२ नंदीनाक ५३ नमिनिभि ३४, २५६ नरसेर ७० E मलतील ४६, ६२, १४, १५, १०, ३०३ नलकूबड ११६, १२०, १२२ नाभस तिलक ६३ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YES नाभिराय १६, २०, ११४ निरषात राजा ६७, ७८ निर्वाणषोष १७२ नेत्रतसकर २२६ नमित्त ३५, ३६, ३७, ३८ पदमनाभ ३८ १८५ पदम ४ पदमपुत्र उस पद्मनी नगर २४४ पदमावती ८० ३६५ परिच्छत ५७ परबत १०५, १०२, ११० पाताल लंका ६४ पंचमेरू १५ पुंडरीक ४२, ४५, ४०४ पुरीन्द्र १७१ पुष्कलावती देश ४२ पुष्पवती २०८ पुप नगर ७८ पोदनपुर २१, २७, ३८, ५२, १८७, ३५६ पृथ्वीदेवी २२७ पृथ्वी ती ४१२ प्रतिष्ट १५ प्रद्य ुमत ४५ प्रसनचंद प्रहसित १५७, १५८ प्रसकीति २०१ प्रतिबती ६६ मुनि सभाचन्द एवं उसका पद्मपुराण नारद १०६, १०७, ११०, ११२, ११३, १८०, १६४, ३५८ नीलंजना २१ नेमनाथ १,४९ पथ, भ, म पदमप्रभु १, ४६ पदमपुराण ४६, ४६०, ४६२ मोर घर पदमाक नगर ४९ पंचाणी ६६ परषित १०७ नंजय १३६, १४१, १४२, १४३, १४४, १४५ श्रादि पार्श्वनाथ १, ४६ पुष्पदन्त १,४६ पूर्व विदेह ३५ पुष्कर र ४६० पोत्तर ५४ ५५ पूरणधन ४४, ४१, ४० पोमादेवी १३८ पृथ्वीतिलक २९५ पृथ्वीवर २३२, २३५, २४०, ४११ प्रसिचन्द्र ६२ प्रतिसूरज १५८, १५६ १६० प्रभामुख २०० प्रहलाद राय १३८, १३६, १४१, १४३, १५० १५७ १५० १५८ प्रसेनजित १६ श्रीशंकर राजा ६६ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामानुक्रमणिका YEE प्रीतकर देस ६६ प्रीतिवर्धन मुनि २२१ अनकंठ ५७ बंधुमती २७ बसन्तमाला १४५, १४७, १४८, १५०, पसंततिलका १४० १५३, १५५. १५६. १७५ चसंबलपुर २४२ ब्रह्मदत २६, ४७ ब्रह्मथान ५७ बालखिल्य २२७, २२८ मालि ६३ बाहुवल २१, ४५ माहुबलि २०, २२, २७, २८, २९, ३., जामी १४ ३४,४६, २५६ भद्रदत्त १५७ भद्रसाल बन ५७ भंगमाला २८२ भभीषएर ७२, ६३, १२२, १२३, १३७, भरत १६, २१, २२, २६ से २६, ३१, १८० आदि ४५, १५५ प्रादि भरतखंड ३, १६४ भरत क्षेत्र १५८ भागीरष ४६, ५० भानकीरति ४६१ भानराक्षस ५२, १३ भानुकुमार ६३ भामंडल १६५, १६६, २०६, २०७, भीम ३३, ४७, ४६, ५० २७८, २६४ भीमपुर ७ भीमप्रभ ५३ भीममती १७६ भोमवती ६६ भोज २०० भोमरदेस ४३ मगदत्त २६६ मगध ३ मघवा ४७ मतिवर्घन २४४ मतिसागर २६८ मथुरा ११५, ३७६, ३४ मानमाला ८१ मधुपुरी ११७ मधुराय ३० मधुब ११६ मनोलता ३७० मनोरमा ३६१, ३६३, ३६५ मनोदया १७१, १७२ मंगला ४० मंगल ३६५ मंगलावती १७६ मन्दोदरी ५७, ७६, ८१, १३, १४, मासुरगच्छ ४६० १०५, २६७, २०६, २८६, मरूत ११०, ११५ ३२२ प्रादि मल्लिनाथ १, ४६ म्लेच्छ खंड १६२ महाघोष ४३ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सभाषद एवं उसका पद्मपुराण मल्देव १६ मलयकीर्ति ४६१ महादेव २६६ महावीर ४८९ महेन्द्रपुर १४७, १४८, २८३, २६२ मातु. ४३ मानषोत्तर ५० मालव २२०, २२१ मालिवान ६६, ७०, ७१, ६२ मारीघ २९६, ३०२ मिरगावती ५७ मुनिचन्द्र १२८ मूलसंघ ४६१ मेकलानदी २२७ मेघनाद ५१, १२४, १३८, १६२, २६५, ३०१ मेषरणपुर ७० मेरमेघ ६६ मोहनमती १५ मृगांकपुर १५१ मृगरूदमान ६६ मरूदेवी १६, १७, १६ महषमस) १०१, १७६ महाराक्षस ४५, ५०, ५२ महेन्द्र ३३, १३८, १३६,१४१ महेन्द्रसेन १५०, १४८, २६२,२८१ मानवी ५८, ११६ मांडलगढ़ ४६२ माल्यवान १२४ माली ६६, ६८,७० मिथिलापुर १६३, १६४, १६६ मुखत्री ३९५ मुनिसुव्रत १,४६, १५४, १६६, १८०, २२१, २२२ मेधगिरि ७६ मेघपुरी ५४, ६३ मेघवाहन ४१, ४२, ४४, ४५, ४मेरदत्तसेठ ४३६ पं० मोतीराम ४५२ मृनालकुड ४४० मृगावती १६६ य, र, ल, व अशदत्त २७२ रतनकीरत ४११ रतनचुला ४४० रतनमाला १२, ३९५ रतनवीय ३४ रतनत्रबा ७१, ७४, १८,९३ पदमपुर ५४, ३४१ रत्नमाली ३४, २१२ रघुनाथ २६४ रतनथूल राजा १५४, ४६५ रतनबटी २६४, २६६, २७३, २५८ रतनदीप १४३, १६१ रतनसंचयपुर ४३ रत्नावली १८ रत्नरथ २४६ रतिप्रभा ३६५ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I I I नामानुक्रमणिका रथनूपुर २२, ६७, ६६, ६१, १२२, १२६, १३१, १८१, २०६, २०८ २०८, ३७६ राजगृही ३ रामचन्द्र २, १२, ४७, १६१, १८५, १६२, १६३, १९४, १६८ श्रादि रामावली ६३ राक्षसपुर २७३ रुपवती ३६५ रिषभदेव ३०, २२, ४५,४६ छमीवती ३४४ लक्ष्मीमती १५२, १५३ लंका ४४, ६५. ७७, ११५ आदि लव ४१० लोकपाल ७० लोभदस १३३, १३४, १३५. वरि २२१, २२२, २२४, ३५४ वज्रबंध ३४, ४०४, ४०५,४०७ वज्रधर ४१ वज्रभान ३४ बलोचन २१२ वसिल ६३ वामृत ३४ भीषण १४, ७६, ७१, ६१ मान १,४६ वसुद ४३६, ४४२ वासुपूज्य १,४६,५४ वसुभूत २४० बसीट १४३ रविमल ५८ ( प्राचार्य) रविषेण ३, ४८६,४६२ राजगिर ११० १११, ११५ राजलदे २७२ रामचन्द्र मुनि ४६१ रावण १२, १४, २७, ७२, ७६, ६. ६६ १००, १०२ प्रादि रुद्रभूत २५८ रिषभ कुमार १९४ रेवानदी २५४ लक्ष्मण १२. ४७, १८५, १६३ २०१. २०६, २१७, आदि लक्ष्मन सेन ४८६ लंकासुन्दरी २६२ २८४ लवणोदधि १४ लोकसुन्दरी २०१, २०२ लोहाचार्य ४६० वज्रकुमार ४४० वज्रदरज ६३ वज्रबाहु ३४, १७१ वज्रमुख २०४ वज्र सालगड १२२, १२३ हंस ६३ ५०१ बनमाला ११० १६४ १६५, १६७, २३२ २३१ २६५ वरुण ७०, १४३, १६३ वसंतमाला १५६ वसुदेव ४६ वसुधा २१२ बसु राजा १०६, १०६ गिरि २५० Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ मुनि सभ चन्द एवं उसका पमपुरागा बंसस्पल २४६ वाणारसी ३७२, ३६७ आसकेत १७० विचित्रमाला १७६ विजयसिंघ ६२, ६३, ६४ विजयसेन १७२, ४४० विजया ३६ विजयराज ४. ३६४ विजयाई १४, २२, ४५, ५३. ५४, ६२ विजयसागर ४० ६८, ७०, ७५, ८५, ६३, १२२, १८, १३६, १५१ १६६, १९० विटसुग्रीय २७१, २८२ विदग्ध देस २०८ विद्य तगति ४६३ विध तहत ३४, ३८ विध तप्रभा २०२ विद्य लता २१२ विद्य तबाह ६५ विद्य तवेग ५६, ६० विषरभदेस ६७ विनयदत्त २७५ विनमि २२ विप्राराणी ८५ विपुलाचल ६ विभ्रमधर १७६ विमल १५ विमलावति १३० विमलनाय ४६, १५६, ३७३, ३६५, विमलवाहन ४३६ बिमलाराणी २४६ विराषित १४, २६३, २६४, २७० विसल्या ३१४, ४१६, ३२०, ३६५ विस्वानल ४७ वीर ६,८ वीरकसेठ १६४, १६६ वेगवती ६३,८७,४४४ वेदावती ४४१ बैलंधर ३१४ वेसपुर १३८ व्योमराजा ६६ ध्यौमविद ७१ वैश्वयन ८३, ८४ वेश्रवा ७२ ब्रह्मचि ११०, १११ बुषभध्वज ४३८, ४४२ वृहत फेस २०६ वृषभसेन २५ स ष शह सगर ४०, ४२, ४५, ४६,५० सत्रुधन १६५ संवनगर ४१ सबदन मुनि ४८ सत्यघोष ३५, ३६, ३७ सनमित्त १५ सनत कुमार ४६, ४७ सभाचन्द ३, ४६२ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामानुक्रमणिका समाधिगुप्ति ४३९ सम्पूर्णकीति ३१५ समदगिरि सम्मेद शिखर ५०, ८६, २४५, ३६७, ४०२ संभूषण ४७५ सरस्वती ८१ सर्वभूषणमुनि ४२८ सहदेव्या १७३ सहस्रवीर्य ३१४ सहस्रकिरण १०५ सहलीम १०२ गंभव ४० मिती २०६ सागरघोष २४६ सागरपुरी २७३ तिनाथ ३५२ साघुदत्त २४६ साहसगति १०० सिद्धारथ ५, ६ सिंहध्वज ८५ सीतलनाथ १४६, १६७ सीमंकर १५ सोमघर १५ सुकच्छ १५१ सुकीर्ति ३६५ सुकेत २५२ सुखसदत्त ६१ सुबरसना १६० सुन्दरमन १७१ समेइलराइ ३१४ संभवनाथ १,४६ संक १४,२५६ संखावली ६० सर्वभूतिमुनि २०५ २११ ससाक नगर ४५ सहस्रभूव ४ सहस्रार ६५६६, १२६ सहस्रनयन ४१, ४२, ४० स्वयंप्रभनगर १ स्वयंभूरमण १४ संकरग्राम ६५ सागरवस ४३६ सासवान १०३ सावत्थी ६६ सिबसेन १७७, १७८, १७६ सिंहजी ३०६ सिंहोदर २२१, २२२, २२३२२४ २२५, ३५४ सीता १४, १६१, १६४, १९५, २०२, २७६ श्रादि सुकेस ६१, ५५, ६६ सुग्रीव ६२, ६३,९४,९६, १००, २६५, २६६ आदि सुदर्शनभेरु १५,४६, ४७, ३६१ सुनंदा १६ सुन्दरी २० ५०३ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Las सुवास १ सुप्रभा ४५, ५३, १५, ३१४ सुप्रभारात ६०६, २०४ सुभमची ४७ सुमतिनाथ १, ४६ सुमनारानी १३८ सुमालिवाल ६८ सुमित्र १६६ सुमेरपुर २७३ सुरगतिपुर १२ सुरतपुर ७७ सुरेन्द्र १७२ सुलोचन ४० सूरप्रभ २४३ सोमप्रभ ३४, २५.२ सामशर्मा ३५ सोभावती ५८ स्योवास १७७ १७६ शांतिनाथ ४६, ३२७ वन मुनि ६५ श्रीकंठ ५४ ५५ ५६ ५७ श्रीकांत ४३६ श्रीचन्द्रा ५६ श्रीदेवी ६६ श्रीधरी २२२ श्रीपुर २७७, २०१ श्रीभूत २७७, ४४१ श्रीमाली १२३, १२४ श्रीवछ राजा ४६ श्रयान्स २३ षडदूसन १४ मुनि सभाचन्द एवं उसका पद्मपुराण सुप्रतिष्ठ १०६ सुप्रभराय २४६ પુન सुमंगला ६३ सुमति १६५ सुमाली ६६, ६८, ६६,७०,७६, ८१, ૬૪ ૨૨ सुमित्रा १८४ सूरज ६९, ७, ८८, ३६६ सूरजरज ६६,७६, ६०, १२, १६६ सुराष्ट्र ४० सुरेन्द्रपुर ३५१ सुलोचना नम्र २४० सूरज कमला ६६ सोमिला २५२ सोदामनि १३ सोभापुर ३५७ शत्रुघ्न २१६, २८०, २३४ शांतिनाथ मन्दिर ३३३ मुनि श्रतसागर ५०, ५१ श्रीकांता १०६ श्रीकेस ३६५ श्रीदामां २६५ श्रीधर ४६, ५३, ३९५ श्रीप्रभा ५२, ५६७०, १०, ६५,६४,२४६ श्रीमाला ६२, ६४, ६५, ६६ यान्स ४६, ५६ कि ४, ५, १२, १३, १४, ५४, ९२, १३, १६४, २५६, ३६३ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामानुक्रमणिका मंकर १५. नापुर २ १७१ हरदम ३४४ हरियाल १०० हरिपुर १६६, २७३ हरिषेण ४७८८८ हस्त प्रहस्त २६६, ३०२ २६६ हंस द्वीप २६६ हुलासन १०० हेमचूल १७६ हेमप्रभ १०२ हेमांचल १००, ११५ क्षीरकदम १२६ बेघर १५ हनुमान १४,४६, १३७, १५६, १५१, १६१, १६७ आदि हरिमन ३९१ हरिवाहन ११६ ११७, २०० हरिषेण चक्रवर्ती ८५ हस्तिनागपुर ३७० हितचेत महाजन ५२ हिरणनाभि १३८ हेमपुर नगर ६६ हेमावती ७७ ५०५ हृदयवेग १३८ क्षेमकरण २४३ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धाशुद्धि-पत्र पृष्ठ संख्या अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ विशेष 77 षष्ठ संधि विधानक समाप्ति पर बोये 100 113 126 नवम विषानक वसम, नारन पर उपवर्ग 13 वां विधानक 14 का , 15 वां, 16 वां, 17 वा , 18 वां // 16 वां // 146 प्रष्टम विधानक नवम , नारद पर उपसर्ग 11 वां विधानक 12 वो" 13 वां, 14 वां, 15 बांग 16 वो, 17 वां . 18 यां, 16 वां, 656 0 164 180 181 22 बां , 269 21 वां सुग्रीव , 231 सुप्रीव 2624 3624 मिलन 351 दलन 400 कनथ कथन