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मुनि सभाचंव एवं उनका पद्मपुराण
कोई मर्दन करावें अस्नान । केई आणि खुबा पान ।। २२५११ जानों भरया समुद्र जल बीर । कोई राग सुनावै तन ।।२२७|| सेवें अपनी अपनी ठांउ | केई प्राभूषण धरै संवारि ।। २२८ ।।
केइक कन्या दाबे पाउ केई दीवट नीरष बालि ।
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वारा भूषण सोलह सिगार मांगे जब देवई तिए वारि ॥ निसवासर सेवा बहु करें। वचन बचन गुण हिरदं घरं ||२२|| उत्तम सज्या करी सुवास । सेवा करें सपी बहु पास || सोलह स्वग्न
स्वप्न फल
कंचन भारी भरकै नीर । कोई तेल फुलेल हि प्रांत
मरुदेवी सोयँ सुख चैन | सुपना देखे पछिम रंन ॥ २३० ॥ हस्ती स्वेत देष्य गुनवंत | वृषभ एक देष्यो मयमंत || दीख्यो स्यंष गर्जना करंत कंचन कलस रत्ना जयंत ॥२३१॥ पुषमा देवी विगमात् ! उदय परन्तु !! दीठो पुरनवासी चंद | भीन जुगल सौं मन आनंद || २३२ || देष्यो समंद महा गंभीर । सिहासन निरष्यो मरिण हीर ॥
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यो सुमेर गिर लक्षमी सार । देब विमान देख्यो सुरकार ।।२३३ ।। देख घरपेन्द्र रत्नभई भूमि देव प्रदशी प्रग्नि महा निर्ऋम ॥ अइपति की उज्जल देह । आवत दीठा अपने गेहूँ ।।२३४|| ए सुपना सोलह गुणवंत । उठि करि निज पति सुत ।। नाभिराय सुणितिय की बात भयो आनंद सुष उपज्यो गात ||२३| मन वच काय सुपनि फल सुने । निहच सयल पाप नै हने ॥
पूत लक्षण संयुक्त | मानों पृथ्वी पर रवि उद्योत || २३६|| अवर जे सुर अमर पद बसे । तिनकी मणि चरननी चई घ || तोडे भोसागर का जाल भरम सरीर कनक की माल ॥ २३७ ॥
विद्याधर नरपति पसुपति। इनमें बहुत चढाउँ री ॥ इन्द्र फणीन्द्र करेंगे सेब । तीन लोक के दानव देव || २३८ ||
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सुरि करि वचन उलिसी घी |
जानहूं पंच यांन का बनी श्रीषाठ यदि दोज सुभ घड़ी
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प्रभु ने आइ गर्म थिति करी ।। २३६ ॥ समझया चित्त ग्यांन बहु भाय ॥ सिंघासन तजि नमरिण करत । धनद कुमार बुलायो तुरंत ||२४||
भासन कंपे सुरपति राय