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पद्मपुराण
प्राये देव तिरण विद्या दई । ब्योरो सुणि चिंता मिट गई ।। सुभ मा भसुभ करम का जोग । सुभ के उर्व कर बहु भोग ॥३३५३।। असुभ फरम तै पावै दुन । दोनू सरभर दें दुख सुख ।। धर्म चितवता दूर्दै पाए । पुण्यवत का टले सताप ॥३३५४|| संकट विकट में घरम सहाय । सुरपति नरपति सेव पाय ।। परम समान सगो नहीं कोह । घरम हि तै बहु विष सुख होई ।।३३५५।।
ब्रहा परम दान सक्तै बडा, पातै भलो न मोर ॥
संसारी मुग मुक्त परि, फिर देर र ३५६!! इति भी पपपुराणे सुग्रीव भामंडल समाधान विधामक
५६ वा विषामक
___ चौपर बोनों ओर के योद्धानों द्वारा युद्ध
इह प्रकार नृप रावण सुण्यां । पाए पाप राम लक्ष्मणा ॥ लंकापति हस्ती सुपलारण । पती सेन्या बाजे नीसाग ।।३३५७|| इत मारीच इत है सुग्रीव । बनमुस सारन जुष की नींब ।। मिरस अवर जुटे सुक्रोध । मेघनाद विराधित ए जोष ॥३३५८॥ भेदयंत अंगद दोउ लडें । कुंभकर्ण हगुमांन सू भिडें ।। मंभीषण वेख्या रावण दृष्टि । क्रोध भई बोल्या प्रभिष्ट ३३५६।। रे कपूत मूरख अम्यान । भूमगोचरी का सेवग भया मान ।
तो फू अवही मारूठोर । प्राप्ता जाणि दिया है छोडि ।।३३६०।। विभीषण रावण पुर
भभीषण कहै सुण रे पापिष्ठ । तें तो करी पाप की दृष्टि ।। सतवंती सीता कुहरी 1 पाप पुन्य का भेद न धरी ।।३३६१।। सेरी भई प्रायु बस बीग । तातै बुधि है भई मलीन , जे तू जीया बाहै भ्राप्त । रघु ने मिलाउं मां हर संघात ।।३३६२।। सीता देकर लागों पाई । तेरा प्रान में देर मुडाइ । इसनो सुरिणत रायण कोपिया । क्रोषवंत तब वे भया ॥३३६३11 जैसा सुतंसा में जुटे । पाछे पाव न कोई हर्ट । सनमुख भए भूपती घणे 1 उनके नाउ कहाँ लगि गिणे ।। ३३६४।।