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________________ मुनि समाचन्द एवं उनका पत्रपुराण सीतल पवन कमल की बास । भ्रमर गुजार करें चिटु पास ॥ राजा जनक का विद्याघरों की नगरी में प्रागमन . HINोलि मिना लामा बती । हनी दोहा कोमा घगी ।। १८६३।। हाल कलन प्रतिमा परि भने । अस्त्र वांधि करि राजा नल ।। गोपुर देखि भयो मानंद । बहुत बृक्ष निहां पति थंध ५१८६४।। भीतर जिन सामन की टौरि । देखी प्रतिमा च्यारौं पोर ।। नमस्कार कीनू नरनाह । पूजा अरजा अधिक उछह ।।१८६५।। सेवा सुमररंग चारू बार । रहस्य प्राया मन में तिरग वार ।। राजा श्री जिणवर का ध्यान । घोडा छोड गया स्वस्थांन ।। १८६६।। विद्याधर का फेरया रूप । पहुच्या तिहां चन्द्र गति मूष ।। जनक राव प्राण्यां इस देस । चलो वेग तुम मिलो न रेस ।।१८६३|| जिन थान में ब्रठा श्राद । ढील कर। तो वह उठि जाइ 11 गाह परिवार विद्याधर मिले । श्री जिन जाति रूप निहं मिले ।।१८६८।। बजे बहुत बाजे कर नाय । बहु लोग पूजा की जाय ।। माभलि जनक चढि देनि उत्तंग । बहुत लोग भग पचरंग ।।१६।। देचा चंद्रगति तग विधागा । के एक है सजा बलबाग ।। के भूमि केई प्राकास 1 उत्तरघा भूमि चैत्यालय पास || १८७०।। नमस्कार करि बइठा भूग। गणसभा ददान अनूप ।।। जना प्रति पूछ चन्द्रगति । के इंद्र के धारणेन्द्र नुम नि ।।१८७१।। के तम विद्याधर के इन्द्र । तम पहचे वो थान जिणंद ।। आनिन सके मस प्रस्थल प्राइ । अपनां भेद हो समझाय ।।१८७२।। बोपे जनक मैं भूमिगोचरी। राजकर या मिथलापुरी ।। माया रूपी घोडा आनि । अायो हूँ इस थान ।।१८७६।। चन्द्रगति द्वारा सीता के विवाह का प्रस्ताव चन्द्रमति न पादर करें । एक वास की इच्छा धरै ।। तुम पर सी.ड़ा पुत्री सुरणी । मेरा सुत प्रभामडल गुनी ।।१८७४।। निषा करि कन्या तुम देहु । विद्याधर सु होट सनह ।। कहै जनक तुम सुणु हो राय । सीता दई सम रघुराय ।।१३७५।। जब मैं वचन न देता ताहि। कहा तुम्हारा फिरला नाहि ।। चन्द्रगति बहुरि जनक मू कहै 1 रामचंद्र बल केता गेहे ।। १७६।।
SR No.090290
Book TitleMuni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Mythology
File Size9 MB
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