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________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण १६ राजा काहै गर्भ तुभ गई । सोचें कहा लहु सुत मूद्ध । देवता का कुबल दिये । तिनको देखि अचंभ भए । १७८६॥ सांचे पुष जण्यां मैं ग्राजि । किण पहराये कुडल साजि । तब राजा बोल्यो सत भाय । या वु सुर ल्याया इण्य ठांय ।।१७८४।। पुण्यवंत मह शशि की जोति । मारियो सेट होति :: नगरी मध्य खबर यह दई । राणी पुत्र प्रसूता भई ॥१७८५11 सुख में बधं श्राय के वाल । प्रगगिात धन खरच्यो भपान ।। जनक राजा द्वारा विसाप विवेहा बालक देखें नाहिं । रुदन करें नपना परवाह ।।१७५६।। जनक राय रोब तिण वार। हम क्या पाप विराा करतार ॥ अंसा कवण पुत्र मुझ हरॆ । पूरव कर्म उदय दुख पड़े। १७८७।। देण देश कौं पत्र लिखा । करू इलाज पाव किण ठाइ ।। राजा दशरव मेरा मित्र । वह दू दंगा अंतर प्रीत ।।१५५८।। राजा दशरण द्वारा खोज दशरथ सरित हूँ सब यांन । वहीं न पाया अपणे जान ।। जनक त्रिपा सों कहैं समभाय । पुण्यवंत वालक बहु भाय । १3८६।। वहै तो बढे काहु के गेह । तुम चिंता न करो संदेह ।। जे छु मनमंध है हम साथि । तो प्रारिण मिलावंगा जिग नाथ !!१७६० । कन्या का सीता नाश रखना फंन्या का मीता घरचा नाम । लीला कर बाल सुख घाम !! रूप लक्षण पाशि की जोति । गुण वरण्या कहूं पार न होत ।।१७६१।। वस्त्र प्राभरण वण्यां सब अग । गोद लिया परियरण उच्छरंत ।। दिन दिन बाद्वै सुखस्यों तेह । मात पिता अलि धरै सनेह ।।१७६२।। इति श्री पपपुराणे सोता भामंडल उत्पत्ति विधान २३ वो विधानक श्रेषिक द्वारा राम सीता विवाह को फानने की इच्छा जब जोडे श्रेणिक नुप हाथ । एक ससम मो मन जिनमाथ ।। रामचंद्र सीता का ब्याह् । किण विध किया जनक नर नाह ।।१७६३।। राम कवरण पराक्रम किया । कैसें व्याही जनक की घिया ।। वाणी काहैं तब जिनराय । गणधर वचन कहै समझाय ।।१७६४॥
SR No.090290
Book TitleMuni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Mythology
File Size9 MB
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