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बिजयारव गिरि दक्षिण और वर वर देस और विदग्ध
कैलाश गिर उत्तर की ठोर ॥
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में उमाल नगरपति बग्ध ।।१७६५।।
द्रवर पर राजा सिंह नम्र | अंकन और मुफ्ती सन ||
म्लेछ पंड का राजा जुडघा । सा मता उनु कर मिया ||१७६६।। श्रारज पंड पर कीजे दौड़ । कोई नहीं नामी तिहूं ठौर || रावण हैं लंका का देस । इह ठाम जाय हम करें प्रवेश ।। १७६ जनक की नगरी मिविलापुरी पर प्राक्रमर
पचपुरास
म्लेछ षंढ का दोडया भूप । ढाहत फोडत भावें जम रूप || मिथलापुरी जनक तिहां राय । घेरथा नगर म्लेच्छ श्राय ॥। १७६८१४ जनक दसरथ कनै दूत पठाइ | लिख्यो सकल विरतांत बनाय || जनक द्वारा दशरथ के पास सन्देश भेजना
म्लेच्छ मोहि घेरा हैं श्राप । थारा मेरा दिया उठाय ।। १७६६।। पीडा परजा कु दे हैं बनी । देबल अहि गउ तिहां हरी || साधां कृ देहैं उपसर्ग जिसकु' तिसकु मारे खड्ग ।।१८०७ ।।
दूत का अयोध्यापुरी श्रीमा
मैं तो प्राय गढ भ्यंतर र
प्रजा दुःख किए भिरते सहु ॥
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प्रजा सुखी तो राजा सुखी जो कुछ प्रजा पुन नित करें
परजा पीडित राजा दुखी ।।१८०१ ।। ठा अंस राजा ने पई ॥
उनका डर ते प्रजा सब भजे । जो हूं भाजु तो कुल लजं ॥। १६०२ ॥ तुम जो मेरा ऊपर करो तो मैं निकल दुष्ट स लरों ॥
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श्रासा दूत अजोध्यापुरी | राजसभा देख सब जुरी ।। १८०३|| दसरथ का पुत्र संयुक्त | करें सलाम प्राय तिहां दूत ।। दिया लेख राजन निज हाथ बांस पुत्र सू करे नरनाथ १८०४ ।। रामचंद्र कु राजा करो। हाल कलस मुक्ट सिर घरो ।।
करो आरती पटह बजाय । हू साधू म्लेच्छ ल जाय ।। १८०५।। रामचंद्र पूछें, तब बात । मोकू राज क्यु देत होतात ॥ दसरथ कहै तुम सुग्गी कुमार । म्लेच्छां परिजास्यां दा बार ।। १८६६। तुम साधो पृथ्वी का राज | हम जायें करिता पर काज ॥
रामचन्द्र की जाने की इच्छा प्रकट करना
श्री रामचन्द्र बोले बलवीर | करो राज मन राखो धीर || १६०७॥