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मुमि सभाचंद एवं उनका पमपुराण
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अनंगसेना ताक पुत्तरी । दानादिक गुरग में लावण्य भरी ।। जोवन समै पुनयंस को दई । दोन्यां मां प्रील मति भई ॥३४१८।। एक दिवस प्रनंग कुसमा नारि । सोवत देखी दुरपरि तिह वार ।। विजयाद्ध का विद्याधर धीर । देखी त्रिया आया सिंह तीर ।।३४१६।। गही बांह विमाए बैठाइ । ले के विजयां फू ते हाइ । मंदिर मांहि भई पुकार । त्रिभुवन नंद सुणी तिहं बार ।।३४२०॥ भेजे सुभट सुता की खोज । सब परियण मां मांची रोर ॥ विद्याधर देख्या गमन मायास । अनंग सेना बैठी ता पास ॥३४२१।। वह षेचर एह भूमिगोचरी । सकल लोग बोल्या तिण घडी । रे रोक सुरा हो दुर पीर । हमसू जुध कर तो वीर 11३४२२।। पडी मार तीर तरवार । टूट्या रथ भाज्यो तिण वार ।। वह कन्या रयते गिर पड़ी । पंचनाम सुसरण पाखडी ॥३४२३॥ महा उद्यान भयानक ठोर । कर विलाप रुदन प्रतिधोर ।। मात पिता का सुमरै नाम । मनुष न दीस है तिरण ठाम ॥३४२४।। हाय कर्म ते अंसी करी । भूख प्यास सों सुष वीसरी ।। वहै विरयो कुण होइ सहाय । वहै विरयां कछु न बसाय ।।३४२५।।
दहा चक्रवर्ति की थी सुता, करती भोग विलास ।। प्रशुभ कर्म के उदय से, पजी प्राय वन वास ॥३४२६।।
चौपई वनवास के दुःख
तिहां स्यंघ चीता बह ब्याल । भयदायक रट बहु स्याल ।। वन के भयदायक तिरजंच । एई सीत वस्तर नहीं रंच ।। ३४२७।। अंसा दुख सों बीत काल । मन फल खाइ सुप्ता भूपास ।। उनानं तप सव मही । सीतल ठौर न पावं कहीं ।। ३४२८।। दुख में वीतै पाछु जाम । तिनहीं नहीं कभी विधाम ।। बरषा प्रागम वरष मेह । सहे परीसा कोमल देह ।।३४२६।। पवन चले वरषा झकझोर । चमक दामिन आइ मदा घनघोर ॥ छोडि पास ससारी भोग । मन बच काय लगाया जोग ।।३४३०।। दोय हजार वर्ष तप किया। अन्न पाणी तजि संयम लिया ।। भव्य तीन सु विद्याधर माह । नमसकार करि लाग्या पाइ ।।३४३१५