________________
पद्मपुराण
बार्ज सुर दुंदुभी बहु भेर । रचियो समोसणं तिह वेर ।। साढ़े ग्यारह जोजन समोसर्ण । गणरतबउ लागी छांनिकरर्ग ॥१८|| दोष अठारह कीये दूर । बारह सभा रही भरपूर ।। चौतिस प्रतिसग्र गुण छियालीस । तीन छत्र बिराज सोस ।।१६।। चौसठ चमर हुरै इक बार । यांनी हुई त्रिभुवन माघार ॥ विजयसागर त्रिदज संकावीर । मंगला राणी गुण गंभीर ॥२०॥ ताको पुत्र सगर चक्रवति । छः षंड करि सात्रे सुरत्ति ।। विजयारष दक्षिन दिस भूप । विद्या साधी नाना रूप ।।२१!!
आप तात दिक्षा पद लिया । समयाल ने राजा किया ॥ पूराघन पुत्र ता सर्ने । विद्या बल गिनती बों गिनें ।।२२।। वनपाल दीक्षा लई । राज विभूति पूरणधन दई ।। उत्पन्न मति पुत्री ता तनी । रूपलक्षन सोभा अति बनी ॥२३॥ सलोन में भेज्या दुत । विपक्रेस- मेरे घर पुल ।। अब तुम किसा मोपे करउ । उत्पलमति मम पुत्र वरउ ।।२४।। पुरणषम पछया जोतगी। याकी लगन कोरसौं लगी । पाह विवाहे राजा सगर । पटरांनी होगी अगर ॥२५॥ इह निमत्त सौं फहै भूपाल । टीका भेज्या सगर कौं हाल ।। मुलोचन सुनि कोप्यो राइ । जुद्ध हेत प्रापन धढि पाइ ।।२६॥ लई खडी जोतिग गुन ग्यांन । होनी कही मागउ प्रानि ॥ पुरणपन के बर्षे निसांन । सूरवीर सब पहुंचे प्रान ।।२७।। साजी सेन्यां मुंह गिल भए । दुहुंधां बांनी धारी हए । झुझे दोऊं सेना खरी । सहस्रनयन उनपल मति ही ।।२।। दारण जुष भया भयभीत । अंत भई पुरणधन जीत || मामा गेहन देषी सुता । पूरणाघन कुवाती चिंता ॥३६।। सुनी सहस्रनयन ले गया। उव्या क्रोध चित्या भया ।। सहस्रनयन 4 कीनी दोर । वाका बाचा मारथा टौर ॥३०॥ उतपलमति सहस्रनयन के संग । मैं हूं सगर भूप को मंग ।। तो मैं हरी किया अति दुरा | चक्रवत्ति का डर नहीं करा ॥३१॥ अब जो चाहै अपनौं प्रनि । लेचरन सगरराय पं जाण ।। सहस्रनयन ढरप्या मनमोहि । सगर पास ले पहुं तो ताहि ॥३२॥