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________________ ३२४ पद्मपुराण मंडारहु दीज्यो ताहि । जो कुछ चाहे सो यो बाहि ॥ सुणु सहु लोक भयो आनंद । पूजा र श्री देव जिनंद ।।३५३४।। तीन फाल पूर्ज जिनदेव । सुरण सास्त्र गुरु की सारै सेव ।। दान सुपात्रां विधि सौं देइ । मठाई व्रत सफल कर लेह ।।२५.३५।। अ# जाप राखें चित ठौर । गहै मौन ध्यापइ न है और ॥ कोइ चरचा कोइ अातम ध्यान | कोई कहे परम व्याख्यान ।।३५३६।। रावण द्वारा विद्या सिडि का प्रयत्न रावण चौबीस दिनो की टेक । सिघ हो तब विद्या एक ।। जाकी वह विद्या सिघ भई । दरजन जीत सके नहीं कोइ ।।३५३७॥ वे पूज स्वामी सांतिनाथ | रावण सुमरं जहां हाथ ॥ विस न चल रहै मन धीर । जाणु बैठा बज्र सरीर ॥३५३८।। विद्या सावन कारण, दिवकर लाग्या ध्यान ।। होनहार समझ नहीं, कहा होइती प्रान ।।३५३६।। इति श्री पद्मपुराणे रावण विद्या साधन विधानक ६३ वां विधानक मडिल्ल सुरखी इसी जब बात कह सव संजुप्त सू।। उनतो लगया ध्यानक श्री श्री भगवंत सू ।। जो कोई पाश्रम लेई पुरुष के मान करें। वह नहीं छोड बांह सर्म की कान की ॥३५४०।। चोपई व्रत साधना के कारण युद्ध सन्द होना कैसी विघ उसकों दुख देई । उनतो कियो परम सूनेह ।। बाक करें धरम की हांन । होइ पाप समझो धरि व्यान ॥३५४१३॥ जब हमसू वह सनमुख लडे । तब हम भी उसमे जुध करें ।। घरम नीत सू कीजे जुधि । पाप कर्म की छोगे बुधि ।।३५४२।। वरत अठाई उसका सही । बाकी दूषण है यह नहीं ।। वानर मंसी कहई नरेस । तुमतो कहीं परम उपदेस ॥३५४३।।
SR No.090290
Book TitleMuni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Mythology
File Size9 MB
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