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मुनि सभाचन एवं उनका पद्मपुराण
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राग्य भाव
तिहां अवरा मुनिवर तप करें । नमस्कार करि पाइन प? ।। सांचा कहो घरम समझाय । मेरा पाप कट किहि भाय ॥१७५७।। राज रिद्धि मद बरम न किया। विपति ने कहगा समझिपा ।।
मेरा किरण विष होई सहाइ । किम भवसायर उतरों पार ॥१०५३।। उपदेश
बोल मुनिवर लोचन ग्यांन । सप्त विसनत घरम की हारिग ।। सातों नरक अनंता भ्रमै । खेदन भेदन बिनसह जमैं । १७५६॥ मुख त्रिषा का नाद अंत । इण विध प्राणी दु.ख लहंत ।। जे तीरथ बहुतेरा फिरै'। भद्र होई कुदान नित करें' ।।१७६७।। क्रोष मांन माया मद होइ । अंसा गुरु सेयो मत कोइ ।। नख पर केस लोरर्थ बहाइ । प्रापा वणतं ह्र' पाप उठा ।।१७६२।। प्रण छाणे जल करें सनान । अस गल जल पीने जल पान ॥ ते निहच नरक में बाद । इग्ण विध धरम घरो मन ल्याव ।।१७६२।। समकित मुघ आत्मा जोइ । दया भाव जाके चित होइ ।।
मनुन देव गति ऊंची लहै । दुष्टि हुवै सो नीची गति राहै ।। १७६३।। राजा द्वारा अरण वत ग्रहण करना
सुरिण राजा तबै अणुव्रत लिया। हिंस्या झूठ चोरी परविया ॥ नमस्कार करि मारग गया । इह संसा उसर्फ मन रह्या ॥१७६४ । मेरा कुटंब भरण की वंदि । वे छूटै तब हुबै आनंद ।। अब हूँ साधू कोई देश । बांधू मैं पारिग अरन नरेस ।।१७६५।। मै मपणे बल छुडाउँ जाइ । अइस चित वत राजा पाइ ।। तरषा पिव लागी तित भूश्य । देही सकल गई तिस सूख ॥१७६६।। अंत भया प्राण का नास । सुमरयां प्रभु पांघ की आस ।।
समकित सो पार्य गति भली । अग्रे पूजंगी मन रती ।।१७६७।। चित्रोत्सवा द्वारा वीक्षा लेना
चित्रोत्सबा उपज्यो वैराग 1 सकल विभूति कुटंब ही त्याग ।। प्रापिका पास ली विक्ष्या जाइ । बईबरत कर बहु भाइ ॥१७६८।। बारह विष तप साध नित्त । निसवासर अनुप्रेक्षा चिस ॥ तप करि कष्ट अनि देही दहै । सत संयम प्रातम सुध लहै ।। १७६६।।