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पूर्व कला
वे सुख किरण पर रखें जाइ । विष नगर बस तिस ठांइ ॥ बरखा कृति का प्रागमन भया । तहाँ प्रभु ने वासा लिया || २६५३ ।। दंडक मन अति उत्तम ठोडि | तिहां रघुपति त्रिभुवन सिरमोड || पंचवरण बादल श्राकास व मेह अधिक सुखराम ॥२६६०।। पर्वत ते उत्तरें जल भौमि दामिन जोति पृथ्वी पर होइ । दंपति रहसि करें सब कोड || २६६१ ।
काली घटा रही प्रति भूमि ||
वहाँ
दंडक वन बासा लिया प्रगटधो तिहां चउमास ॥
रामचंद त्रिभुवन धरणी, मन में घर उल्हास ।। २६६२ ।। इति श्री पद्मपुराणे रामचंद्र वंत्रक वन निवास विनासक ३७ विभागक
मक्मरण को सुगन्ध प्राना
पद्मपुरा
लक्षमण वन कोड़ा को जाई| बहुत सुगंध उठी तिरप ठांय || लक्षमण मनमें करें विचार । इह सुगंध कमी अपार ।। २६६३।। भैसी कही देखी न सुखी । इह सुगध वन में धी
क इह मम सरीर की बास के इह रामचंद्र की सुवास ।। २६६४ । लषमा सौचे बारंबार इस विध वास नहीं संसार ||
इहो कि पूछे कर जोडि । श्री जिन भाष कथा बहीति ।। २६६५।।
सी है किसकी सुवास । नारायण जु सराही ताल ||
श्री जिन भावें समझाय । श्ररिक राय सुखँ मन ल्याय ।। २६६६ ।।
आदिनाथ स्वामी छदमस्त । नमि विनमि मांगें हवस्त |
सुपरधा नहीं हमारा काज || २६६७ । हम हैं राज नग्री का कौन ॥ विजयार का सौंप्या राज ।।२६६८ ॥
भरत बाहुबलि पायो राज भाषी बात तो प्रभू मौन धरमेन्द्र ने दीयो इन राज बाके बंस धनवान भया । अजितनाथ के समोसरण गयो ।। भीम नाम राष्यस पति देव । श्रामा करण श्री जिन की सेव ।। २६६६ ।।
घनबाहन स्यों भया मिलग्प | त्रिकूटाचल कु ले चाल्यो प्राप । दीयो लंका को तब राज । जोजन आठ लंक गढ साज || २६७० ॥
सुनि सेती पूजी इह नाथ ||
सो हार दियो वा हाय वार्क अंस रावरण भयो बली । सिहं षंड साध्या मन रली ।। २६७१ ।।