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मुनि सभाचंक एवं उनका एसपुराण
चारों गतियों के दुःख
सुभ नै असुभ कर्म देउ साथ । सुख दुख देखे नाना भाति ।। देव' हुमा सुख त्रिपता नही । छह महिना प्राव जब रही ।।४६२८॥ सब सुख भूल्या चिता बीच । बहुत भ्रम्यां गति उत्तम नीच ।। मानुष्य जनम भुगते बहु भोग । तिहो भया कुटंब का सोग ।।४६२६।। रोगी रहे कह नहीं सुख । पीडा चिंता व्याप दुःख । पाई गति पसू तिरजंच 1 तामें सुख पाया नहीं रच !:४६३०।। सं टं बांध्या हैं संताप । मरे भूष तिस कर संताप । माछर देस देह कू लगें । लघर फिर निस बासर जग ।।४६३१५ । नरक गति दुख की तिहां खांनि ।छेदन भेदन सहै परांन ।। सहै दुख यह बार बार । भवसागर ते तिरघा न पार ।।४६३२।।
जनम जरामृत आसा ठोरि । इनसों कदे न भया विछोर ।। बनजंघ का परिचय
इंद्रवंसी बूरि नवाह नरेस । मुगत पुंडरीक फा देस ।।४६३३।। संबोधमती वाकं पटनारि । तासु गर्भ लीया अवतार ।। मनजंघ है मेरा नांव । धरम वहन का राखो भाष ।।४६३४।। महा पुनि पूरव भव किये । रामचंद्र से प्रभु तुम हिए ।। असुभ कर्म डोले घने । ते सह वाकि मोनु मुने ।।४६३५॥ अब रघुपति प्रावगे आप । तुमारा भेटंगा संताप ।। तेरा गर्भ में जीव सुपुनीत । घरम उदें जारणी इह रीत ।।४६३६॥ तीरथ नाम करि तुम फू काहि । रामचन्द्र मन बिता बादि ।। तुम फू हुत्रा घरम सहाइ । गज निमित्त में पहुच्या आई ॥४६३७।। चलो बहन तुम मेरे ग्रह । दूरि करो मन का संदेह ।। भावमंडल सम मोकू जानि । सीता बठाइ लाई सू विमान ।।४६३८।।
बजर्जष भूपति बल धरा, घरम का बहो भाव ॥ सीता कु वन माह तें, बहिन कहिं ले भाव ॥४६३६ । इति श्री पपपुराणे सौता समास्वास्त विधामक
६१ वां विधानक