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मुनि सभाषद एवं उनका पद्मपुराण
बालस पीर जल भर ले आई। वारि नस्य करि गाय बजाए ।। प्रष्ट द्रव्य सौं पूजा करी । मानू देव सफल श्रत परी ॥११६॥ पुष्प वृष्टि गंधोदिक करें । सीतल पवन तापकी हरै ।। पचन वीनती कर डंडोत । नए मुकट ज्यों पीछली होत ।।११७।। यों करि देव गए. फिर गेह । तपाहनु भए जिन देह ॥ बारह विध तप आतम घ्यांन । वाहिज अभ्यंतर चित जांनि ।।११।। तेरह विष धार्या चारित्र । रागद्वेष जीते छ सत्र ॥ द्वादस अनुप्रेक्षा चित ल्याइ । दोप प्रटारह दिया छुडाय' ।।११।। दस विष पाली दया का अंग । छांड्या मोह माया का संग ।। बारह बरस रह्मा छदमस्त । घरया ध्यान जिन नासा दृष्ट ॥१२०॥ आनद चिदानंदसौ चित्त । च्यारि कर्म सठि परकित्त॥
टूट घातिया कर्म कठन । छुटी प्रकृति प्रौ उत्तन ॥१२॥ वत्य
बैसाख सुदि दसमी सुभजांन । उपज्या प्रभु कु केवल ग्यान ।। इंद्रादिक च्यारी विच देव । जे जे धूनि करि कारन सेव ।।१२२।। पुहप कृष्टि फलन की घास । गंधोदिक सुर करै उल्हास ।। ऐरापति साज्यो गयंद । चली अपछरा सूरज चंद ॥१२३।। जोजन एक रच्यो समोसर्ण । गणघर ग्यारह बांणक वर्ण । तीन षातिका गोप र धारि । पदमाकरि पुहप कति वार ॥१२४|| मच्छ कच्छ जलचर खग आदि । और भाव अंतरि गतिवाद ।। नीन कोट कंचन के कीये । छत्री कलस रतन जड़ दीये ॥१२॥ मुर सुधार करे प्रारम्भ । रच्यो अगाउ मानसयंभ ।। देषस मान प्रकृति को हरे । निरमल मति अंतरगति करें ॥१२६।। प्रथम असोक सोक कु दई । भविजन लोग तमासै रहै ।
अग्रे भूमि रंगि मन पची। बारह सभा मनोहर रची ।।१२७।। समवसरण
तीन छत्र की महिमा कहै । तीन धर्म की सोभालहै ।। समोसरण थानक कल्याण। चतुर वदन वइठाइ भगवान ॥१२८॥ वीच सभा मंडप सुभ और । सिंघासन को राषी ठोर ।। पंच हजार दंड उच्चत । अंगुल च्यार रहैं जिन पंत ।।१२।। विपुलाचल परबत मुभ यांन । समोसणं पहुंता तिहां पान ।। सुनि श्रेणिका पूषा की गया । सह परिवार गमन तिन किया ॥१३०॥ दै प्रदक्षिणा लाग्या पाय । बहुत भांति पाठे सुषपाय ।। वीनती सी जीरे कर दोइ । कहिए परम सुने लव कोइ ।।१३१५३