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मुनि सभाचंच एवं उनका पद्मपुराण
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गले हार सहज में डारि । दस सिर सो में राजकुमार ।।
वैश्रव विद्याधर उगवेर । सेन्यां सावि गगन सब घेर ।।१६७। रावण को जिज्ञासा
चले जात हैं अपने पान । बहुत भांति के धुरं निसांन । दसानन तब पूछी मात । कवण मूप इह किह पुर जात ॥१८॥ कहां इस सा प्राकर्म ! कृष्णा न्यात कसा कल गर्म ।।
इन्द्र भूप विजयारघ धनी । कर सेय राजा बहुधनी ।।१६६॥ माता का उत्तर
वैश्रवा भगनी सुत मोहि । सुणों पुत्र समझाऊं तोहि ।। लंका ही प्रमहारौं प्रांन । प्रवह राज कर बलवान ॥२००।। धने किये तुम तात उपाव : कलन वणता देख्या दाव ।। अव तुम उपजे तीनू वीर | कब जीतोगे साहस धीर ।।२०१॥ माहरै मनसा ऐसी रहै। कवरण समें फिर संका रहै ॥ सुणी वात कोपियो कुमार । हूं लंका जीतू इह बार ॥२०२।। सुरिण माता समझार्दै बाल । तुम ही सुत लघ वय सुकुमाल ।। इतनी सुणि परवत पै कूदे । मारि लात ढाहा पद द ।।२०३।। भारी सिलाइक लई उठाई । ताड वृक्ष कर लिया उठाइ । जो प्रब फंकु तो पहूंचं लेक । वैश्वव राजा मानं संक ।।२०४।। विजयांई गिर उलट के घरू । इन्द्र सुघा ले प्रलयल करूं। भात पिता उठ मुंबई सोस ! घट्न प्रकार दई असीस ।।२०।। पहिले विद्या साघउ भली । पीछे पूरो मन की रली । मात पिता की पाया लई । तीनू भाई सब गुण मई ।।२०६।। नीम बन हुई विद्या की ठाउं । भयदायक नहीं मानुष नाउ ।।
अजगर सिंह देख मन डर । वा बन में धीरज को घर ।।२७।। विद्या सिद्धि
य पूनिवंत सिला इकू देख्नि । बंटा तारस का धरि भेष ।। धरघी ध्यान विद्या सिंध घई । अन्नदान प्रथमई लई ।। २०८।। इच्छा भोजन पावै नीर । है गुन है या विद्या तीर ।।
दूजा ध्यान घरघा लज लाइ । माया यज्ञ क्रीडा के भाइ ।।२०।। यक्ष द्वारा परीक्षा
देख तीन तपसी बह रूप । इन सम कोई नाहिं सरूप ।। जक्ष परीक्षा इनकी करै । फैसे ध्यान धीर तन परं ॥२१०।।