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________________ LAY पपुराण देवानगा इक चातुर धनी 1 रूपवंत लावण्य गुनवती ।। गावं गीत बजावं बीरण । गई जिहां तापसी तीन ॥२१११ ताल पखावज दुदुभी कर । निरत करत मुनि जन मन हरे ।। कोई निकट दि हम कहै । किम भालक देही दुख सहे ॥२१२॥ मन मानेता मुगतो भोग । उच्छी क्य क्यों सहीं वियोग ।। सुम कारण हम किनर चई । तुमारी तपस्या पूरण भई ॥२१३।। जहां तुम चलो चल तुम साय । तुम हो प्रमू अनाथों के नाथ ॥ एवं बैठे काठ समान । मनमें कछु वन प्रावै अनि ॥२१४॥ तब वे किन्नर वसन उतारि । लपटी इनसों ज्यों गलहार ।। कोई देह चुटकियां लेइ । कोई पवि दडवडी देइ ।।२१।। किन्नरी बहुत दिखाए भाव । इनका ध्यान रह्या थिर ठाव ।। उनको चित्त न क्यों ही टर । विसषी भई अप्सरा फिर ।।२१६॥ प्राय कही यक्षसों सह पात । उनका चित्त न चलै किह मांत ।। आप यक्ष माया उन पास । मांगों वर पुर वो मन ग्रास ॥२१७॥ कोले ती काटा को शरीर !! निज सेन्यां न दे उपदेश । सब मिल करो भयानक भेस ।।२१८॥ वेग जाइ तप टारो अाज । इनका पूरण होइन काज || इतनी सुरिंग बितर सब बाब । दई परीस्था नाना भाति ॥२१६।। कोई रूप सिंघ का करै । बहुत दहाई देख्या मन उरै ।। कोई रूप सु करिए एव । अजगर भेस घरै वह देव ।।२२०।। कोई सर्प होई तन इस । तो अनरो मनू नहुं का खिसे । वह ओरउ सैन्या करी मलेच्छ । कहै गुहपपुर की मन एच्छ ।।२२।। रतनसरवा कुबांधन चलै । स्यू कुटंब कहि ल्यावै भले ॥ जो तुम बहुत सूर वीरता घरौं। हमसौं जुध वेग तुम करो ।। २२२।। ए तापस बोले नहीं बोल । ध्यान लहरि में करें किलोल ।। ऐसे कह करि प्रागै चले । माया रूप चिह्न करि भले ।।२२३॥ रतनश्रवा केकसी के हाथ । भाता बांधे उनके साथ ॥ ले पाये विमान मंझार । मात पिता बहु कर पुकार ॥२२४।। तु दसानन कहिए बलवंत ! हमारा होत प्राण का अंत ।। ए मलेच्छ हम दे प्रति कास । तुमत टूटै हम संगल पास ।।२२५॥
SR No.090290
Book TitleMuni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Mythology
File Size9 MB
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