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पत्रपुरास जैसा बीज तसा ज सुभाव । ऊन कहा सिषाब दाब 11 राजा मनमें किया विचार । प्रतहपुर गया तिही वार ।।३२।। राणी सगली लई बुलाई । तिरिण सू बात कही समझाय || इह विभूति सुपने की रिभ । जाग्या कछु न देखें सिध ।।३३।। अबहुं दिक्षा दिढ सुधर । काटि करम भवसायर तरूं ।। सुणे बधन रोब रणवास | जैसे बोले बांसरी नाद ॥३४॥ कोकिल के सब बोलें नारि । क्यों जल भरपर रहैं विनपार 11 तुम बिन हम क्यू जी राय । दासी होम बिन वै मह पाय ३५ इह सुख छोरि सरो संन्यास ! दिन दिन्न रोगका नाय । जनम अकारथ देव कौन । ए सुख परिहर सीजे मौंन ।।३।। पंचामृत भोजन सुषवास । इवां नित होइ पराई प्रास | निरस सरस ले हो माहार । छह रितु सही परीसा सार ॥३७।। तुम सुधीयान कोमल देह । भूमि पिलंग तजि सोबो गेह ।। वाईस परीसा दुख की रासि । क्यों मरिहीं पिय बारह मास ॥३॥ बलि समझावं मंत्री प्राइ । भूपति ने सहु परिजा जाइ ।। तुम सा राजा पार्यं कहीं । तुम प्रसाद सकल सुख इहां ।।३६।। अब तुम राज करो बिश्राम । चौथे प्राश्रम दिक्षा कांय ।। राजा कहै सुणों चित लाइ । इन्द्रिय विषय नरक ले जाइ ||४०॥ पत्र कलित्रक राज विभत । सबै विनासी प्रेसी हल ॥ स्वारथ रूपी जानह धंध । मोह करम बसि हुए पंप ।।४।। मन वच काय लगाऊं जोग । छांडूसयल भांति के भोग ।। प्रतिबन्द्र कुगजा किया । प्रापण भेष दिगंबर लिया ।।४२।। श्रवण मुनीघर के टिंग जाय । दिक्षा लई भये मुनिराय । तप कर उपग्मा केवल ज्ञान | घरम प्रकास भया निरवान ||३|| प्रतिचंद्र तहां भोगवं राज । सुख मैं हूँ सत उपज काज ।। किषर कुवर मंघक दौड भए । रूपवंत विधा निरभये ।।४४।। प्रतिचंद्र ने दीक्षा लई । राज काज दोऊ पुत्र ने दई॥ दोऊ भ्राता भोगवे देख । सुख ही में नित रहे नरेस ॥४५।। विजयाई रथनूपुर नगर । अश्वनवेग राजा बल अगर । विजयसिंह पुत्र बलवंत । बल पौरुष का नहीं ग्रंत ।।४।।