________________
पद्मपुराण
प्रजनीपुत्र जाण्यां इक योर । छत्रपति नाम विराज ठौर ।। निरभय राज कर तिहां मूग | दुष पिता सब डारी कूप ॥१४२८।।
प्रथमकांड थेरिपक सुण्यौं, विद्याधर की बंस।।
मिघ्या पेदन मिट गई, सगली ही मन मस ॥१४२६।। इति श्री पहापुराणे प्रगान रावण iti ।।
१६ विधानक
सोरठा बे कर जोडि नरेस, श्रेणिक फिर परसन करें ।। रावण वंस परमेस, मैं बहु बिघ करके सुण्या ।।१४३०11
चौपई जिन कोई बर्फ त्रिदोष का धरसी । सी मैं उनके मुख सुरगी ।। केवल वयण बाह्यो समझाय । सब संसय तिहां मिट जाय ।।१४३१५ किम जपजै चौबीस निणंद । द्वादश चक्रवर्त्त गुणवृन्द ।। नव नारायण बलिभद्र भए । प्रति नारायण कैसे थए, ।।१४३२।। बावण पुण्य पूरब भव किया । कवरण स्वर्ग तें चय प्राइया ।। किम मुरु पास दिया लई । कवरण भूमि ते इह थित भई ।।१४३६।।
अडिल्ल वागी यांन गंभीर सबै जिरगवर कही । गौतम करें बस्तान सुरगै श्रेणिक उर मही ।। समकित मों धरि प्रीत सुरण मत ल्याइक । सकल बंस का भेद कह्मा समझाके ।।१४३४।। जंबुद्धीप भरतषंड कोसांबी नगरी समुष नपति करें राज दया चित प्रागरी ।। सुखी धर्स सब लोग दुखी कोई नही,
आई रितु बसन्त सब न श्रीडा चही ।।१४३५।। बोरक सेठ एवं वनमाला वर्णन
वीरकसेठ तिहां रहे वनमाला असतरी। रूपवंत गुरणचतुर सनावण प्रतिपरी ।। सकल प्रजा नप साथ सुवन क्रीडा करी । देख त्रिया नप नैन सुदित चिता धरी ।।१४३६॥