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________________ ४२८ पमपुराग करि भृगार प्राभूषण भले । हाव भाव भूकताहल गल ।। ताल मृदंग बजावं बीण । नपन अपलाई जीते मईन ।।४६०६ ।। मार्च सरस प्राण हर लेइ । मातमध्यान न चित्त डूलेछ । माचं गावं मधुरी तान | सुनत वचन हर लई प्रान 1|४६१०॥ मन चच काया खडा अडोल । च्यापें नहीं हिया मैं बोल ।। तब बह जष्यणी नागी भई । कर मालिंगन बहु चिघ भई ।।४६११।। अपणां ध्यान न छोडं जती । विलषी भई यक्षिणी पती ।। मुख भयानक रूप विकराल । अपामारग देह की लाल ॥४६१२।। कई अजगर कई साँप । लपट दोडि देहीं संताप ॥ कई रूप न्याघ्र का करें । गज का रूप महा भय घरै ।।४६१३।। निसांफित किया यत दृढ गीत । व्यंतरी दिया उपसर्ग बहु भांति ॥ महामुनीम्वर प्रातम ध्यान । तब ही उपज्या केवल म्यांन ।।४६१४।। जं जं सबद दसौं दिस सोर । सुरपति नरपति पाए कर जोडि ॥ छाये रहे विमाण प्राकास । देख्वा इन्द्र अगनि धूम प्रगास ।।४६१५।। ताके टिंग है सीता खडी । अनि काय निकस तिहां बुरी ।। ईसान इन्द्र पूद्ध विरतांत । इह प्रचिरज देख्या इस भांति ।।४६१६।। देखैई कुड देवता नरे । तिहां कोई धीरज नहीं धरै ।। एह याकी ढिंग ठाढी कौन ! भाखो बात तो मुख मौन ||४६१७११ सौधर्म इन्द्र कह समझाद । इह सीता पटराणी रघुराई ।। सत की महिमा सुरपति को । वाहि विपत्ति सो विष परै ।।४६१८॥ इह सीता सतवंती खरी । असुभ करम तं विपत इहै पड़ी ।। इसके भाव तारणे केवली । पूछे जाइ समझ विध भली ||४६१६।। वहा सुर नर खग सब प्राध्या, अगनि कुड बिह थान ।। देखि ताहि सोचत सने, मुनि को पूछ अनि ।।४६२०॥ इति श्री पयपुराणे सर्वभूषण केवल उत्पन्न विधामकं ९८ विधामक
SR No.090290
Book TitleMuni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Mythology
File Size9 MB
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