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________________ १२८ पापुरम् इन्द्र की व्यया -जा का मारकरे ग मार शरास वाव ।। बहुत दिवस' बीते इस भाति । तब कछु सुरत भई नृप मात ।।६३७ । गंधमादन पर्वत पर गया । थी जिन मंदिर में प्रगटया ।। नमसकार करि पूजा की। ऊंचे ते सेना दिठ पडी ३०॥ इन्द्र भूप उपज्या मन सोच । सहयक्षोहिणी घा भेग भोग ।। गवण ने मन परसय किये । बहुत दुःख उन मोकू दिये |18३६11 उस रावण का जाज्यो पोज 1 लंका माहि पड़ीयो रोग ।। धाका परलय होम ज्यों राज । उनही बिगाडया मेग काज 18601 मेरे श्री विद्या लक्ष्मी। हय सय विभव तपी नहीं की ।। उन मात्ररण सब यहवट किया। बहुत प्रकार मुझे दुख दिया ।।४।। वाकी संपति जो नास । उन मुझ प्रति ही दिखाई भास ।। इन्द्र सगयय बारंबार । बहुर ग्यांन मय किया विद्यार। ४२॥ समझि समभि मनमें पछताय । मैं क्यों सराप्यो रावण राय ।। सराप दिये अनि दाढ़े पाप । अपनी करनी खाध पाप ।।९४३।। राजभोग थिर नाही मही । प्रारी गति माही मुख नी ।। पुण्य संजोग मिल बहु रिध । पुण्य घटयां नास सब सुधि ।। ६४४। वबह राव कबहु व रंक । काबह जीने गढ मति बंक । कवह बैटि सिंघासण चल । कबहू पायक पोयस दन्न ।। ४५ कवह देव कवह नारकी । कबहू मनुपा हूं तिरण चार यी ।। चदि बदि होइ कर्म की चाल । च्यागति में व्यायै कल 11६४६॥ मज भाग में अच्छी प्रचेत । या परसाद भई मुझ चैत ।। जो बहै इतना करता नहीं । म्यांन मुझे. किम होता सही 116 अब मैसा गरया तप करौं । काटि करम पंचम गति वा ।। मुनिचन्द्र का प्रागमन इह विचार चित बंठा इन्द्र । तिहां एक प्राया मुनि चन्द्र ६४८|| च्यार शान का धारक जिके । दरसन देख होय सुभ मते ।। नमस्कार कीया कर जोर । टूटे जनम जरा की डोर ||६४६||
SR No.090290
Book TitleMuni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Mythology
File Size9 MB
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